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बुद्ध

buddh

आज लौटती जाती है पदचाप युगों की,

सदियों पहले का शिव-सुंदर मूर्तिमान हो

चलता जाता है बोझीले इतिहासों पर

श्वेत हिमालय की लकीर-सा।

प्रतिमाओं-से धुँधले बीते वर्ष रहे,

जिनमें डूबी दिखती

ध्यान-मग्न तस्वीर, बोधि-तरु के नीचे की।

जिसे समय का हिम प्रलय तक गला सकेगा

देश-देश से अंतहीन वह छाया लौटी

और लौटते आते हैं वे मठ, विहार सब,

कपिलवस्तु के भवनों की वह कांचन माला

जब सागर, वन की सीमाएँ लाँघ गए थे

कुटियों के संदेश प्यार के।

महलों का जब स्वप्न अधूरा

पूर्ण हुआ था शीतल, मिट्टी के स्तूपों की छाया में।

वैभव की वे शिलालेख-सी यादें आतीं,

एक चाँदनी-भरी रात उस राजनगर की,

रनिवासों की नंगी बाँहों-सी रंगीनी

वह रेशमी मिठास मिलन के प्रथम दिनों की—

फीकी पड़ती गई अचानक;

जाने कैसे मिटे नयन-डोरों के बंधन

मोह-पाश रोमन, प्यार के

गोपा के सोते मुख की तस्वीर सलोनी,

गौतम बनने के पहले किस तरह मिटी थी

तीस वर्ष तक रची राजमदिरा की लाली।

आलिंगन में बँधा स्वप्न जब

सिंधु और आकाश हो गया

महागमन की जिस वैराग्य-भरी वेला में

तप की पहली भोर बनी थी

सेज और सिंहासन की मधु-रात अख़ीरी।

देख रहे संपाति-नयन शिव की सीमा पर

वे शताब्दियों तले दूर देशांतर फैले

वल्मीकी-से कच्चे मंदिर, चैत्य, पगोड़ा,

जिनसे शीतलता का कन लेने आते थे

रानी, राजपुत्र भिक्षुक बन।

फैल गई थी मिट्टी के अंतर की बाँहें,

सत्य और सुंदरता के अविरल संघों से—

स्याम, ब्रह्म, जापान, चीन, गांधार, मलय तक,

दीर्घ विदेशों के अशोक साम्राज्यों ऊपर।

नहीं रहे वे महावंश अब,

वे कनिष्क-से, शिलादित्य-से नाम हज़ारों,

किंतु तक्षशिला, साँची, सारनाथ के मंदिर,

और जीति-स्तंभ धर्म के बोल रहे हैं—

जिस सीमा पर पहुँच पाईं, हुईं पराजित,

कुफ़्र तोड़ने की, क्रूसेडों की तलवारें

वहाँ विश्व-जय हुई प्यार के एक घूँट से!

स्रोत :
  • पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 159)
  • संपादक : अज्ञेय
  • रचनाकार : गिरिजाकुमार माथुर
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 2011

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