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बाज़ार होता शहर

bazar hota shahr

परमेंद्र सिंह

परमेंद्र सिंह

बाज़ार होता शहर

परमेंद्र सिंह

मलबा-दर-मलबा

परत-पर-परत चढ़ाता

यह शहर मेरे लिए

नया और ऊँचा होता जा रहा है

मैं अपनी जगह लगभग

दफ़न होने को हूँ

तमाम लोगों से घिरे होते हुए भी

मैं किसी को पुकार नहीं सकता

कि जो पहचानना नहीं चाहता

क्रूरता से कुचल देता है

‘देखा नहीं’ कहते हुए

जो समझ नहीं सकता

वह नासमझ

नकार देता है

जो सँवार नहीं सकता

बेसलीक़ा वह

बिगाड़ देता है

यह कैसा समय है कि

कोई बड़ी लकीर नहीं खींचता

छोटी लकीर को मिटा देता है

मुझे तेज़ प्यास लगी है

और बाज़ार

पानी की शुद्धता के पैमाने बता रहा है।

स्रोत :
  • पुस्तक : कोई भी अंत अंतिम नहीं (पृष्ठ 83)
  • रचनाकार : परमेंद्र सिंह
  • प्रकाशन : शिल्पायन पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
  • संस्करण : 2016

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