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आषाढ़ की गीली माटी पर

ashaDh ki gili mati par

ज्याेति शोभा

ज्याेति शोभा

आषाढ़ की गीली माटी पर

ज्याेति शोभा

और अधिकज्याेति शोभा

    यह भी वैसा ही शहर है

    आषाढ़ की गीली माटी पर

    कविता लिखता हुआ तीसरे पहर में

    कुछ शहर हैं जो जलती चिता पर बारिश गिरने से बने हैं

    अनुराग की एक परत पर एक परत हिंसा की

    लालसा के ऊपर जवा कुसुम की माला, अच्छी तरह ढकी हुई

    इनकी ओर मुख करके ही बने हैं प्रवेशद्वार देवालय के

    पर कौन जाने

    यहीं से निकल कर किसी ने सेंध लगाई होगी

    सामंतों के शयनकक्ष में

    जहाँ संवाद में जल बजता है सीपियों में

    जहाँ नव वधुओं के इत्र से अधिक महक आती है रोबी ठाकुर की कहानी में

    कुछ दिनों पहले

    हरकारे को स्पर्श करके जो लौटा दिया था मैंने

    वह तुमसे मिलता तो बताता

    उसे इस शहर में मेघों ने घेरा था

    बरखा ने चूमा था

    एड़ियों पर सिंदू पसरा था नँगे पाँव एक नदी में उतरते हुए

    यों भी इनके घाट में पता नहीं चलता कहाँ ख़त्म हुई साँझ

    कब शुरू हुआ कालिमा का उन्मुक्त ज्वार

    ढिबरी की आँच जलती है जबकि वय किनारे लगी है

    असभ्य होता है प्रेम

    और यह शहर सबसे अधिक असभ्य है इस तात्पर्य में

    मेरे सोए हुए में जो रूप बदल लेता है वह मेरा नहीं हो सकता

    ऐसा मैं समझती हूँ

    किंतु यह तो यही कहता है

    आतुर पुलों के ऊपर ही दिखाई देती है वर्षा के ठीक बाद वाली अग्नि

    मन और अन्न को सेंकती हुई

    व्यर्थ है ग्रंथ और उपनिषद्

    याद नहीं किसने कितनी कविताएँ लिखी हैं

    तुम रसोई की गीली आँच को बताना

    कहाँ से आती है मीठी गंध तुम्हारी भाषा में

    दो दिनों की शकरकंद को, बची हुई राख

    क्या मृत्यु की तरह सेंकती है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति शोभा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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