तुम्हारी उपस्थिति का अर्थ खो गया है—उर्फ़ी जावेद
tumhari upasthiti ka arth kho gaya hai—urfi javed
सीमा सिंह
Seema Singh

तुम्हारी उपस्थिति का अर्थ खो गया है—उर्फ़ी जावेद
tumhari upasthiti ka arth kho gaya hai—urfi javed
Seema Singh
सीमा सिंह
और अधिकसीमा सिंह
एक
तुम्हारी देह से आगे कोई शब्द ही नहीं मिला
जिसका ताप इतना तेज़ होता कि जला देता
समय के वृक्ष पर उग आए फफूँद
सब एकटक तुम्हें ही देख रहे थे
जिनके हाथों में समय को दर्ज करने का था हौसला
आँखों में थी थोड़ी बेईमानी भी
वे चोर-निगाहों से
तुम्हारे इन्स्टा-अकाउंट के चक्कर लगाते
और मन ही मन चाहते
तुम यूँ ही नंगे बदन समय की भट्टी पर चढ़कर
उनकी आँखों की चमक बनाए रखो
क्या बताऊँ उर्फ़ी जावेद तुम क्या हो
तुम साहित्य की दुनिया में आया
कोई ताज़ा हवा का झोंका हो
जिसने एक ही झटके में
उतार दिए हैं सबके कपड़े
इस हमाम में तुम अकेली निवस्त्र नहीं हो उर्फ़ी जावेद
बल्कि तुम तो हो ही नहीं इस क़तार में!
दो
तुम अपने ही फेंके जाल में
उलझकर लड़खड़ा रही हो
पानी के बाहर कोई नहीं
जो तुम्हें सहारा देगा
बल्कि धक्का देने वालों को तुम ज़रूर
खींच सकती हो पानी के भीतर
जिस अँधेरे से निकलकर तुम यहाँ पहुँची हो
यह उससे अधिक काला है
तुम भ्रम में हो अभी
कि तुमने खोज ली है
कोई दिशा
कोई रास्ता
कोई मंज़िल
कोई सफ़ेद कॉलर
ये सब तुम्हारी देह की तरह ही झूठ है उर्फ़ी जावेद
तुम्हें लगता है कि पा ली तुमने
अपने हिस्से की जगह
जहाँ और कोई नहीं सिवा तुम्हारे
तुम्हारी आवाज़
तुम्हारी बात
तुम्हारे शब्द
तुम्हारी कहानी
पर सच कहूँ किसी को नहीं दिलचस्पी
तुम्हारे इस वायवीय स्वप्न में
जानती तो तुम भी हो
बस मान नहीं रहीं
तुम एक लंबे सपने की यात्रा पर हो
जिसमें इच्छाएँ नहीं पानी के बुलबुले भरे हैं
जिस दिन टकराएगा कोई धूमकेतु
सपना टूटकर बिखर जाएगा
क्या जाने तुम भी उर्फ़ी जावेद!
तीन
जिस क्षण लगे कि बस हो गया
उसी क्षण छोड़कर चल देना सब
तुम किसी तिलिस्मी खोह में फँसकर
वहाँ से देख रही हो दुनिया को
सब कुछ पा लेना और कहना कि देखो
मेरी साँसों को मिल गई हैं आँखें
मैं देख रही हूँ सब कुछ बाहर भी भीतर भी
तुमने एक तवील सफ़र की शुरुआत
किसी जाड़े की रात में की थी
जहाँ धुंध और कोहरे के सिवा कोई साथ नहीं
तुम जानती थीं कोई सफ़र
किसी और के सहारे नहीं पार किया जाता
पगडंडियाँ सीधी नहीं होतीं
काँटे भी होते हैं उन पर
कभी-कभी नंगे पैरों में धँस जाते हैं भीतर तक
यह ज़रूरी नहीं कि हर चोट दिखाई ही दे
पैरों से रिसता लहू जमकर गाढ़ा हो जाता है
तुम भी तो जम ही गई हो
किसी उलझी फ़ैंटेसी की तरह!
चार
कितनी रातें तुमने गुज़ारी हैं जागकर
भीतर की उदासी सालती भी होगी कभी-कभी
पीछे छूट गया जीवन छूट ही जाता है एक दिन
आख़िर कब तक उसके भार से झुके रहते कंधे
यह दुनिया जादू की झप्पी नहीं है
कि लगा लेती गले से और कहती
भूल जाओ जिस्म पर खरोंचे गए नाख़ून
भूल जाओ भीतर उग आए बबूल और उसके काँटे
उसने मरहम कभी नहीं लगाया
तुम्हारी उधड़ी-उघडी देह पर
हाँ नंगी निगाहों से देखा ज़रूर
इतना देखा
कि तुम देखने की आदत बन गईं उर्फ़ी जावेद
क्या तुम नहीं जानतीं
कि ये वही सदियों पुराना दरबा है
जिसकी सलाख़ें चाहती हैं तुम्हें देखना
हमेशा भीतर ही
क्या तुम नहीं जानतीं
कि जिस उजाले की बात
तुम कर रही हो
वह सय्याद की अय्यारी है
तुम्हें अपने ही बनाए
तिलिस्म में फँसाए रखने की
निकल आओ कि इससे पहले
उसका चाक़ू तुम्हारी गर्दन पर चल ही जाए!
पाँच
तुम एक अँधेरे समय से निकलकर
दूसरे अँधेरे समय में आ गई हो
जहाँ तुम्हारी उपस्थिति का अर्थ खो गया है
तुम किस बियाबान में भटक रही हो उर्फ़ी जावेद
जहाँ स्याह काँटे ही काँटे हैं
तुम्हारी देह पर उभर आए हैं उनके निशान
वे अपनी फ़ितरत से गुरेज़ नहीं करते ज़रा
कितना भी बचाओगी ख़ुद को
पर उनका चुभना तय है
लौट नहीं सकती तो ठहर ही जाओ
कोई रास्ता
कोई गली
कोई नुक्कड़
सुन लेगा तुम्हारी भी भटकी आवाज़
क्या जाने तुम यहाँ से बदल सको कोई दृश्य।
- रचनाकार : सीमा सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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