शताब्दियों की नसों में चिरांयध भर देने वाले हाथों को काट देना होगा।
यह केवल वक़्त का सच था कि
घरौंदों के साथ-साथ सफ़ेद
कबूतरों का रंग
भी बदल जाता था :
अब
जब देश में भूचाल आता है—
इमारतें नहीं गिरतीं; केवल कुछ काग़ज़ों के पुलिंदे आवारा कुत्ते की भाँति
भौंकने लगते हैं।
कल होने वाली क्रांति में भाग लेने के लिए मेरे पास समय नहीं है
मुझे क्रांतिकारी फूहड़ और बनैले नज़र आते हैं; उनसे
सभ्यता का इतिहास सीखने वालों में मेरी कोई रुचि नहीं!
शताब्दी का कफ़न केवल एक ही पंजा उधेड़ सकता है; वह पंजा किसी
कौटिल्य या अहिरावण का नहीं, दधीचि की हड्डियों को मोड़ देता है
वह नीत्शे की नसों को धनुषाकार बनाता हुआ उठता है और
किसी के कंधों पर भी गिर सकता है। उस ‘किसी’ को
जानने के लिए आपको
अपने मस्तिष्क के खड्डों में झाँकना पड़ेगा;
भुतहे खंडहरों में घूमना पड़ेगा;
किसी दूसरे नक्षत्र पर भी जाना पड़ सकता है
और इस सबके बावजूद
ज़रूरी नहीं कि आप उस ‘किसी’ को ढूँढ़ सकें या उस ख़ूँख़ार और
मुस्कराते दंभी पंजे को पहचान सकें। यह भी संभव है
वह पंजा आपका या मेरा ही पीछा कर रहा हो!
संभावनाओं और प्रत्याशाओं का इस देश में अंत नहीं,
आपका मन हो : प्रजातंत्र की शिराएँ नोचिए; मैंने
कीर्केगार्द का मुस्करारना स्वीकार कर लिया है; मुझे
प्रजातंत्र जैसे जंतु में कोई रुचि नहीं!
आप और मैं कभी ‘समकक्ष’ नहीं हो सकते,
आप चाहें तो
समकालीन होने का दावा करते रहें। आप
पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर चीख़ें या चिल्लाएँ,
आप अब मेरे समकक्ष नहीं हो सकते;
अलाव में पकता हुआ ज्योति-पिंड हूँ।
मैंने
उसकी हत्या नहीं की, भीड़ के साथ पत्थर उछालने के लिए
उसने आत्महत्या कर ली है। उसे भय था
संपूर्ण शताब्दी में उसकी हत्या का षड्यंत्र रचा जा रहा है।
आत्महत्या उसने मुक्ति पाने के लिए की है या षड्यंत्र का
चितकबरा हिस्सा होने के लिए या दुमकटा भेड़िया बनने के
लिए, इसे समझने के लिए आप कृपया
कबाड़ी की दुकान में सड़ रहे नीत्शे को बदनाम मत कीजिए
औन न ही मुझे सिरफिरा मान लें
यूँ इसे समझकर आप
किसी शाही ख़ज़ाने का नक़्शा पा लेंगे या तिलिस्म को तोड़ने का
मंत्र जान लेंगे;
इन सब बातों से मेरा विश्वास उठ गया है; फिर भी
इच्छा हो तो अपने भीतर झाँक लें...
नपुंसक आत्महत्याओं को देखकर चौंकिए मत!
इस शताब्दी में अराजकता से अधिक नपुंसक आत्महत्याओं को शोर है मुझे वर्षों
चमड़ी के भीतर और बाहर होते हुए गुज़र गए हैं...
बरसों गुज़र गए हैं नंगे माहौल को चीथते-चीथते;
कठपुतलियों का नाच अभी
तक ख़त्म नहीं हुआ और मेरी पुतलियाँ पथराने लगी हैं।
शताब्दी के टेढ़े कंधों को सहलाते हुए मुझे उसकी
पीली आँखें दिखाई दी थीं जिनमें गली में घूमते शोहदे की
आवाज़ के बीच
किसी कमज़ोर बच्चे की तलाश रेंग रही थी। मैंने
उस मासूम तलाश के भीतर से गुज़रते हुए सोचा था
कि औघड़ों और प्रेतों की बस्ती में मुझे
एक जीवित हाड़-मांस का हाथ मिल गया है। उस
हाथ को तलाशे एक युग हो गया है
हाथ... न हिलता हैं, न इशारा करता है, न बोलता है
शातिर आँखों में उगे इस हाथ में सृजन की तपिश नहीं है।
नपुंसक चेहरों की भीड़ को देखते-देखते
हमेशा लगा है, मुझे ही
होना है
अकेला ईश्वर; अहम् ब्रह्मास्मि!
- पुस्तक : महाभिनिष्क्रमण (पृष्ठ 70)
- रचनाकार : मोना गुलाटी
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