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भाविनी

bhawini

पंकज प्रखर

पंकज प्रखर

भाविनी

पंकज प्रखर

श्वेत कपोलों पर खिले गुलाब की आभा से

भ्रमित भौंरें थककर बैठ गए गेंदा पर

उस पूजा वाले दिन

जब तुमने सिर से ओढ़ी थी

गाढ़े गुलाबी रंग की चुनरी

मानो भोर के उजास में किसी ने

कुमकुम छींट दिए हो

इतनी शांत स्निग्धता

अन्यत्र देखी ही नहीं हमने कहीं

इस रूप के सदृश्य

कौन-सी उपमा होगी

मेरी नज़र में

कि कह सकूँ मैं दिव्यता तुम्हारी

श्रावणी सोमवार व्रत को जब

शिव के अर्चन में तुमने

दृग बंद किया

दोनों कर जोड़े

शून्य में रखकर ख़ुद को

उस आदिदेव का ध्यान किया

तब उस सृष्टिकर्ता ने फिर सोचा होगा

इतनी सुंदर सहज सुप्रिय!

यह अद्भुत रचना क्या इसी सृष्टि ने की है?

शिव के वाम विराजती माँ पार्वती ने तब

बोला होगा आदिदेव शंकर से

प्रभु यह सुंदर फूल-सी सुकुमारी

इतने कठिन तप व्रत नियम करती है

यह देखा नहीं जाता मुझसे

तब उस औढरदानी शिव ने

कहा होगा एवमस्तु

तुमने आँखें खोलीं

देख सहज पावन-सी दिव्य

रूप माधुरी

अतिप्रसन्न माँ पार्वती के मुख से निकला :

‘अचल रहे अहिवात तुम्हारा...’

स्रोत :
  • रचनाकार : पंकज प्रखर
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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