प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
तेरहवाँ बरस पूरा होने पर पांडव विराट की राजधानी छोड़कर विराटराज के ही राज्य में स्थित 'उपप्लव्य' नामक नगर में जाकर रहने लगे। अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी थी। इसलिए पाँचों भाई प्रकट रूप में रहने लगे। आगे का कार्यक्रम तय करने के लिए उन्होंने अपने भाई-बंधुओं एवं मित्रों को बुलाने के लिए दूत भेजे। भाई बलराम, अर्जुन की पत्नी सुभद्रा तथा पुत्र अभिमन्यु और यदुवंश के कई वीरों को लेकर श्रीकृष्ण उपप्लव्य जा पहुँचे। इंद्रसेन आदि इसलिए राजा अपने-अपने रथों पर चढ़कर उपप्लव्य आ पहुँचे। काशिराज और वीर शैव्य भी अपनी दो अक्षौहिणी सेना के साथ आकर युधिष्ठिर के नगर में पहुँच गए। पांचालराज द्रुपद तीन अक्षौहिणी सेना लाए। उनके साथ शिखंडी, द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न और द्रौपदी के पुत्र भी आ पहुँचे। और भी कितने ही राजा अपनी-अपनी सेनाओं को साथ लेकर पांडवों की सहायता के लिए आ गए।
सबसे पहले अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह किया गया। इसके बाद विराटराज के सभा भवन में सभी आगंतुक राजा मंत्रणा के लिए इकट्ठे हुए। विराट के पास श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर बैठे। द्रुपद के पास बलराम और सात्यकि और भी कितने ही प्रतापी राजा सभा में विराजमान थे। सभा में सबके अपने-अपने आसन पर बैठ जाने पर श्रीकृष्ण उठे और बोले—“सम्माननीय बंधुओ और मित्रो! आज हम सब यहाँ इसलिए इकट्ठे हुए हैं कि कुछ ऐसे उपाय सोचें, जो युधिष्ठिर और राजा दुर्योधन के लिए लाभप्रद हों, न्यायोचित हों और जिनसे पांडवों तथा कौरवों का सुयश बढ़े। जो राज्य युधिष्ठिर से छीना गया है वह उनको वापस मिल जाए, तो पांडव शांत हो जाएँगे और दोनों में संधि हो सकती है। मेरी राय में इस बारे में दुर्योधन के साथ उचित रीति से बातचीत करके उसे समझाने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना होगा, जो सर्वथा योग्य हो।”
तब बलराम उठे और बोले—“कृष्ण ने जो सलाह दी है, वह मुझे न्यायोचित लगती है। आप लोग जानते ही हैं कि कुंती के पुत्रों को आधा राज्य मिला था। वे उसे जुए में हार गए। अब वे उसे फिर से प्राप्त करना चाहते हैं। यदि शांतिपूर्ण ढंग से, बिना युद्ध किए ही वे अपना राज्य प्राप्त कर सकें, तो उससे न केवल पांडवों बल्कि दुर्योधन तथा सारी प्रजा की भलाई ही होगी।”
बलराम के कहने का सार यह था कि युधिष्ठिर ने जान-बूझकर अपनी इच्छा से जुआ खेलकर राज्य गँवाया था। उनकी इन बातों से यदुकुल का वीर और पांडवों का हितैषी सात्यकि आगबबूला हो उठा। उससे न रहा गया। वह उठकर कहने लगा—“बलराम जी की बातें मुझे ज़रा भी न्यायोचित नहीं मालूम होतीं युधिष्ठिर को आग्रह करके जुआ खेलने पर विवश किया गया और खेल में कपट से हराया गया था। फिर भी इनकी सज्जनता ही थी जो प्रण निभाकर उन्होंने खेल की शर्तें पूरी को। दुर्योधन और उनके साथी जो यह चिल्ल-पुकार मचा रहे हैं कि बारह महीने पूरे होने से पहले ही पांडवों को उन्होंने पहचान लिया है, सरासर झूठ है और बिल्कुल अन्याय है। मेरी राय में दुर्योधन बग़ैर युद्ध के मानेगा ही नहीं इसलिए विलंब करना हमारे लिए बिल्कुल नासमझी की बात होगी।”
सात्यकि को इन दृढ़तापूर्ण और ज़ोरदार बातों से राजा द्रुपद बड़े ख़ुश हुए। वह उठे और बोले—“सात्यकि ने जो कहा, वह बिल्कुल सही है। मैं उनका ज़ोरों से समर्थन करता हूँ। शल्य, धृष्टकेतु, जयत्सेन, कैकय आदि राजाओं के पास अभी से दूत भेज देने चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि सुलह का प्रयत्न ही न किया जाए, बल्कि मेरी राय में तो राजा धृतराष्ट्र के पास अभी से किसी सुयोग्य व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना बहुत ही ज़रूरी है।”
राजा द्रुपद के कह चुकने के बाद श्रीकृष्ण उठे और बोले—“सज्जनो! पांचालराज ने जो सलाह दी है वह बिल्कुल ठीक है भैया बलराम जी और मुझ पर कौरवों का जितना हक है, उतना ही पांडवों का भी है। हम यहाँ किसी का पक्षपात करने नहीं, बल्कि उत्तरा के विवाह में शामिल होने के लिए आए हैं। हम अब अपने स्थान पर वापस चले जाएँगे। (द्रुपद की ओर देखकर) द्रुपदराज! आप सभी राजाओं में श्रेष्ठ हैं, बुद्धि एवं आयु में भी बड़े हैं। हमारे लिए तो आप आचार्य के समान हैं। धृतराष्ट्र भी आपको बड़ी इज़्ज़त करते हैं। द्रोण और कृपाचार्य तो आपके लड़कपन के साथी हैं। इसलिए उचित तो यही होगा कि जो कुछ दूत को समझाना-बुझाना हो, वह आप ही समझा दें और उन्हें हस्तिनापुर भेज दें। यदि इसके बाद दुर्योधन न्यायोचित रूप से संधि के लिए तैयार न हो, तो सब लोग सब तरह से तैयार हो जाएँ और हमें भी कहला भेजें।”
यह निश्चय हो जाने के बाद श्रीकृष्ण अपने साथियों सहित द्वारका लौट गए। विराट, द्रुपद, युधिष्ठिर आदि युद्ध की तैयारियाँ करने में लग गए। चारों ओर दूत भेजे गए सब मित्र-राजाओं को सेना इकट्ठी करने का संदेश भेज दिया गया। पांडवों के पक्ष में राजा लोग अपनी-अपनी सेना सज्जित करने लगे। इधर ये तैयारियाँ होने लगीं, उधर दुर्योधन आदि भी चुपचाप बैठे नहीं रहे। वे भी युद्ध की तैयारियों में जी-जान से लग गए। उन्होंने अपने मित्रों के यहाँ दूतों द्वारा संदेश भेजे, जिससे सेनाएँ इकट्ठी की जा सकें। इस तरह सारा भारतवर्ष आगामी युद्ध के कोलाहल से गूँजने लगा।
शांति चर्चा के लिए हस्तिनापुर को दूत भेजने के बाद पांडव और उनके मित्र राजागण ज़ोरों से युद्ध की तैयारी में जुट गए। श्रीकृष्ण के पास अर्जुन स्वयं पहुँचा। इधर दुर्योधन को भी इस बात की ख़बर मिल गई कि उत्तरा के विवाह से निवृत्त होकर श्रीकृष्ण द्वारका लौट गए, हैं, सो वह भी द्वारका को रवाना हो गया। संयोग की बात है कि जिस दिन अर्जुन द्वारका पहुँचा, ठीक उसी दिन दुर्योधन भी वहाँ पहुँचा। श्रीकृष्ण के भवन में भी दोनों एक साथ ही प्रविष्ट हुए। श्रीकृष्ण उस समय आराम कर रहे थे अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही उनके निकट संबंधी थे। इसलिए दोनों ही बेखटके शयनागार में चले गए। दुर्योधन आगे था, अर्जुन ज़रा पीछे कमरे में प्रवेश करके दुर्योधन श्रीकृष्ण के सिरहाने एक ऊँचे आसन पर जा बैठा। अर्जुन श्रीकृष्ण के पैताने ही हाथ जोड़े खड़ा रहा। श्रीकृष्ण की नींद खुली तो उन्होंने सामने अर्जुन को खड़े देखा। उन्होंने उठकर उसका स्वागत किया और कुशल पूछी। बाद में घूमकर आसन पर बैठे दुर्योधन को देखा, तो उसका भी स्वागत किया और कुशल-समाचार पूछे। उसके बाद दोनों के आने का कारण पूछा।
दुर्योधन जल्दी से पहले बोला—“श्रीकृष्ण, ऐसा मालूम होता है कि हमारे और पांडवों के बीच जल्दी ही युद्ध छिड़ेगा। यदि ऐसा हुआ, तो मैं आपसे प्रार्थना करने आया हूँ कि आप मेरी सहायता करें। सामान्यतः यह नियम है कि जो पहले आए उसका काम पहले हो। आप विद्वज्जनों में श्रेष्ठ हैं। आप सबके पथ-प्रदर्शक हैं। अतः बड़ों की चलाई हुई प्रथा पर चलें और पहले मेरी सहायता करें।”
यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले—“राजन्! आप पहले पहुँचे ज़रूर, लेकिन मैंने तो पहले अर्जुन को ही देखा था। मेरी निगाह में तो दोनों ही बराबर हैं। इसलिए कर्तव्यभाव से मैं दोनों की ही समान रूप से सहायता करूँगा। पूर्वजों की चलाई हुई प्रथा यह है कि जो आयु में छोटा हो, उसी को पहले पुरस्कार देना चाहिए। अर्जुन आपसे आयु में छोटा है। इसलिए मैं पहले उससे ही पूछता हूँ कि वह क्या चाहता है?”
अर्जुन की तरफ़ मुड़कर श्रीकृष्ण बोले—“पार्थ! सुनो! मेरे वंश के लोग नारायण कहलाते हैं। वे बड़े साहसी और वीर भी हैं। उनकी एक भारी सेना इकट्ठी की जा सकती है। मेरी यह सेना एक तरफ़ होगी। दूसरी तरफ़ अकेला मैं रहूँगा। मेरी प्रतिज्ञा यह भी है कि युद्ध में मैं न तो हथियार उठाऊँगा और न ही लहूँगा। तुम भली-भाँति सोच लो, तब निर्णय करो। इन दो में से जो पसंद हो, वह ले लो।”
बिना किसी हिचकिचाहट के अर्जुन बोला—“आप शस्त्र उठाएँ या न उठाएँ, आप चाहे लड़ें या न लड़ें, मैं तो आपको ही चाहता हूँ।”
दुर्योधन के आनंद की सीमा न रही। वह सोचने लगा कि अर्जुन ने ख़ूब धोखा खाया और श्रीकृष्ण की वह लाखों वीरोंवाली भारी-भरकम सेना सहज में ही उसके हाथ आ गई। यह सोचता और हर्ष से फूला न समाता दुर्योधन बलराम जी के यहाँ पहुँचा और उनको सारा हाल कह सुनाया। बलराम जी ने दुर्योधन की बातें ध्यान से सुनों और बोले—“दुर्योधन! मालूम होता है कि उत्तरा के विवाह के अवसर पर मैंने जो कुछ कहा था उसकी ख़बर तुम्हें मिल गई है। कृष्ण से भी मैंने कई बार तुम्हारी बात छेड़ी और उसको समझाता रहा कि कौरव और पांडव दोनों ही हमारे बराबर के संबंधी हैं। किंतु कृष्ण मेरी सुने तब न! मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं युद्ध में तटस्थ रहूँगा, क्योंकि जिधर कृष्ण न हो, उस तरफ़ मेरा रहना ठीक नहीं है। अर्जुन की सहायता मैं करूँगा नहीं, इस कारण मैं अब तुम्हारी भी सहायता करने योग्य नहीं रहा। मेरा तटस्थ रहना ही ठीक होगा।”
हस्तिनापुर को लौटते हुए दुर्योधन का दिल बल्लियों उछल रहा था। वह सोच रहा था कि अर्जुन बड़ा बुद्धू बना। द्वारका की इतनी बड़ी सेना अब मेरी हो गई है और बलराम जी का स्नेह तो मुझ पर है ही। श्रीकृष्ण भी निःशस्त्र और सेनाविहीन हो गए। यही सोचते विचारते दुर्योधन ख़ुशी-ख़ुशी अपनी राजधानी में आ पहुँचा।
कृष्ण ने पूछा—“सखा अर्जुन! एक बात बताओ। तुमने सेना-बल के बजाए मुझ निःशस्त्र को क्यों पसंद किया?”
अर्जुन बोला—“बात यह है कि आप में वह शक्ति है कि जिससे आप अकेले ही इन तमाम राजाओं से लड़कर इन्हें कुचल सकते हैं।”
अर्जुन की बात सुनकर कृष्ण मुस्कुराए और बोले—“अच्छा, यह बात है!” और अर्जुन को बड़े प्रेम से विदा किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और पार्थ सारथी की पदवी प्राप्त की।
मद्र देश के राजा शल्य, नकुल सहदेव की माँ माद्री के भाई थे। जब उन्हें यह ख़बर मिली कि पांडव उपप्लव्य के नगर में युद्ध की तैयारियाँ कर रहे हैं, तो उन्होंने एक भारी सेना इकट्ठी की और उसे लेकर पांडवों की सहायता के लिए उपप्लव्य की ओर रवाना हो गए।
राजा शल्य की सेना बहुत बड़ी थी। उपप्लव्य की ओर जाते हुए रास्ते में जहाँ कहीं भी शल्य विश्राम करने के लिए डेरा डालते थे, तो उनकी सेना का पड़ाव कोई डेढ़ योजन तक लंबा फैल जाता था।
जब दुर्योधन ने सुना कि राजा शल्य विशाल सेना लेकर पांडवों की सहायता के लिए जा रहे हैं, तो उसने किसी प्रकार इस सेना को अपनी ओर कर लेने का निश्चय कर लिया। अपने कुशल कर्मचारियों को उसने आज्ञा दी कि रास्ते में जहाँ कहीं भी राजा शल्य और उनकी सेना डेरा डाले, उसे हर तरह की सुविधा पहुँचाई जाए। शल्य पर दुर्योधन के आदर-सत्कार का कुछ ऐसा असर हुआ कि उन्होंने पुत्रों के समान प्यार करने योग्य भानजों (पांडवों) को छोड़ दिया और दुर्योधन के पक्ष में रहकर युद्ध करने का वचन दे दिया। उपप्लव्य में राजा शल्य का ख़ूब स्वागत किया गया। मामा को आया देखकर नकुल और सहदेव के आनंद की तो सीमा ही न रही। जब भावी युद्ध की चर्चा छिड़ी, तो शल्य ने युधिष्ठिर को बताया कि किस प्रकार दुर्योधन ने धोखा देकर उनको अपने पक्ष में कर लिया है।
युधिष्ठिर बोला—“मामा जी! मौक़ा आने पर निश्चय ही महाबली कर्ण आपको अपना सारथी बनाकर अर्जुन का वध करने का प्रयत्न करेगा। मैं यह जानना चाहता हूँ कि उस समय आप अर्जुन की मृत्यु का कारण बनेंगे या अर्जुन की रक्षा का प्रयत्न करेंगे? मैं यह पूछकर आपको असमंजस में नहीं डालना चाहता था, पर फिर भी पूछने का मन हो गया।”
मद्रराज ने कहा—“बेटा युधिष्ठिर, मैं धोखे में आकर दुर्योधन को वचन दे बैठा। इसलिए युद्ध तो मुझे उसकी ओर से ही करना होगा। पर एक बात बताए देता हूँ कि कर्ण मुझे सारथी बनाएगा, तो अर्जुन के प्राणों की रक्षा ही होगी।”
उपप्लव्य में महाराज युधिष्ठिर और द्रौपदी को मद्रराज शल्य ने दिलासा दिया और कहा—“जीत उन्हीं की होती है, जो धीरज से काम लेते हैं। युधिष्ठिर! कर्ण और दुर्योधन की बुद्धि फिर गई है। अपनी दुष्टता के फलस्वरूप निश्चय ही उनका सर्वनाश होकर रहेगा।”
terahvan baras pura hone par panDav virat ki bheje. bhai balram, arjun ki patni subhadra tatha rajdhani chhoDkar viratraj ke hi rajya mein sthit putr abhimanyu aur yaduvansh ke kai viron ko upaplavya namak nagar mein jakar rahne lage. lekar shrikrishn upaplavya ja pahunche. indrsen aadi agyatvas ki avadhi puri ho chuki thi. isliye raja apne apne rathon par chaDhkar upaplavya aa panchon bhai prakat roop mein rahne lage. aage ka pahunche. kashiraj aur veer shaivya bhi apni do karyakram tay karne ke liye unhonne apne akshauhini sena ke saath aakar yudhishthir ke bhai bandhuon evan mitron ko bulane ke liye doot nagar mein pahunch ge. panchalraj drupad teen akshauhini sena laye. unke saath shikhanDi, draupadi ka bhai dhrishtadyumn aur draupadi ke putr bhi aa pahunche. aur bhi kitne hi raja apni apni senaon ko saath lekar panDvon ki sahayata ke liye aa ge.
sabse pahle abhimanyu ke saath uttara ka vivah kiya gaya. iske baad viratraj ke sabha bhavan mein sabhi agantuk raja mantrna ke liye ikatthe hue. virat ke paas shrikrishn aur yudhishthir baithe. drupad ke paas balram aur satyaki aur bhi kitne hi pratapi raja sabha mein virajman the. sabha mein sabke apne apne aasan par baith jane par shrikrishn uthe aur bole—“sammananiy bandhuo aur mitro! aaj hum sab yahan isliye ikatthe hue hain ki kuch aise upaay sochen, jo yudhishthir aur raja duryodhan ke liye labhaprad hon, nyayochit hon aur jinse panDvon tatha kaurvon ka suyash baDhe. jo rajya yudhishthir se chhina gaya hai wo unko vapas mil jaye, to panDav shaant ho jayenge aur donon mein sandhi ho sakti hai. meri raay mein is bare mein duryodhan ke saath uchit riti se batachit karke use samjhane ke liye ek aise vyakti ko doot banakar bhejna hoga, jo sarvatha yogya ho. ”
tab balram uthe aur bole—“krishn ne jo salah di hai, wo mujhe nyayochit lagti hai. aap log jante hi hain ki kunti ke putron ko aadha rajya mila tha. ve use jue mein haar ge. ab ve use phir se praapt karna chahte hain. yadi shantipurn Dhang se, bina yuddh kiye hi ve apna rajya praapt kar saken, to usse na keval panDvon balki duryodhan tatha sari praja ki bhalai hi hogi. ”
balram ke kahne ka saar ye tha ki yudhishthir ne jaan bujhkar apni ichchha se jua khelkar rajya ganvaya tha. unki in baton se yadukul ka veer aur panDvon ka hitaishi satyaki agabbula ho utha. usse na raha gaya. wo uthkar kahne laga—“balram ji ki baten mujhe zara bhi nyayochit nahin malum hotin yudhishthir ko agrah karke jua khelne par vivash kiya gaya aur khel mein kapat se haraya gaya tha. phir bhi inki sajjanta hi thi jo pran nibhakar unhonne khel ki sharten puri ko. duryodhan aur unke sathi jo ye chill pukar macha rahe hain ki barah mahine pure hone se pahle hi panDvon ko unhonne pahchan liya hai, sarasar jhooth hai aur bilkul anyay hai. meri raay mein duryodhan bagair yuddh ke manega hi nahin isliye vilamb karna hamare liye bilkul nasamjhi ki baat hogi. ”
satyaki ko in driDhtapurn aur zordar baton se raja drupad baDe khush hue. wo uthe aur bole—“satyaki ne jo kaha, wo bilkul sahi hai. main unka zoron se samarthan karta hoon. shalya, dhrishtketu, jayatsen, kaikay aadi rajaon ke paas abhi se doot bhej dene chahiye. iska matlab ye nahin hai ki sulah ka prayatn hi na kiya jaye, balki meri raay mein to raja dhritarashtr ke paas abhi se kisi suyogya vyakti ko doot banakar bhejna bahut hi zaruri hai. ”
raja drupad ke kah chukne ke baad shrikrishn uthe aur bole—“sajjno! panchalraj ne jo salah di hai wo bilkul theek hai bhaiya balram ji aur mujh par kaurvon ka jitna hak hai, utna hi panDvon ka bhi hai. hum yahan kisi ka pakshapat karne nahin, balki uttara ke vivah mein shamil hone ke liye aaye hain. hum ab apne sthaan par vapas chale jayenge. (drupad ki or dekhkar) drupadraj! aap sabhi rajaon mein shreshth hain, buddhi evan aayu mein bhi baDe hain. hamare liye to aap acharya ke saman hain. dhritarashtr bhi aapko baDi izzat karte hain. dron aur kripacharya to aapke laDakpan ke sathi hain. isliye uchit to yahi hoga ki jo kuch doot ko samjhana bujhana ho, wo aap hi samjha den aur unhen hastinapur bhej den. yadi iske baad duryodhan nyayochit roop se sandhi ke liye taiyar na ho, to sab log sab tarah se taiyar ho jayen aur hamein bhi kahla bhejen. ”
ye nishchay ho jane ke baad shrikrishn apne sathiyon sahit dvarka laut ge. virat, drupad, yudhishthir aadi yuddh ki taiyariyan karne mein lag ge. charon or doot bheje ge sab mitr rajaon ko sena ikatthi karne ka sandesh bhej diya gaya. panDvon ke paksh mein raja log apni apni sena sajjit karne lage. idhar ye taiyariyan hone lagin, udhar duryodhan aadi bhi chupchap baithe nahin rahe. ve bhi yuddh ki taiyariyon mein ji jaan se lag ge. unhonne apne mitron ke yahan duton dvara sandesh bheje, jisse senayen ikatthi ki ja saken. is tarah sara bharatvarsh agami yuddh ke kolahal se gunjne laga.
shanti charcha ke liye hastinapur ko doot bhejne ke baad panDav aur unke mitr rajagan zoron se yuddh ki taiyari mein jut ge. shrikrishn ke paas arjun svayan pahuncha. idhar duryodhan ko bhi is baat ki khabar mil gai ki uttara ke vivah se nivritt hokar shrikrishn dvarka laut ge, hain, so wo bhi dvarka ko ravana ho gaya. sanyog ki baat hai ki jis din arjun dvarka pahuncha, theek usi din duryodhan bhi vahan pahuncha. shrikrishn ke bhavan mein bhi donon ek saath hi pravisht hue. shrikrishn us samay aram kar rahe the arjun aur duryodhan donon hi unke nikat sambandhi the. isliye donon hi bekhatke shaynagar mein chale ge. duryodhan aage tha, arjun zara pichhe kamre mein pravesh karke duryodhan shrikrishn ke sirhane ek uunche aasan par ja baitha. arjun shrikrishn ke paitane hi haath joDe khaDa raha. shrikrishn ki neend khuli to unhonne samne arjun ko khaDe dekha. unhonne uthkar uska svagat kiya aur kushal puchhi. baad mein ghumkar aasan par baithe duryodhan ko dekha, to uska bhi svagat kiya aur kushal samachar puchhe. uske baad donon ke aane ka karan puchha.
duryodhan jaldi se pahle bola—“shrikrishn, aisa malum hota hai ki hamare aur panDvon ke beech jaldi hi yuddh chhiDega. yadi aisa hua, to main aapse pararthna karne aaya hoon ki aap meri sahayata karen. samanyatः ye niyam hai ki jo pahle aaye uska kaam pahle ho. aap vidvajjnon mein shreshth hain. aap sabke path pradarshak hain. atः baDon ki chalai hui pratha par chalen aur pahle meri sahayata karen. ”
ye sunkar shrikrishn bole—“rajan! aap pahle pahunche zarur, lekin mainne to pahle arjun ko hi dekha tha. meri nigah mein to donon hi barabar hain. isliye kartavybhav se main donon ki hi saman roop se sahayata karunga. purvjon ki chalai hui pratha ye hai ki jo aayu mein chhota ho, usi ko pahle puraskar dena chahiye. arjun aapse aayu mein chhota hai. isliye main pahle usse hi puchhta hoon ki wo kya chahta hai?”
arjun ki taraf muDkar shrikrishn bole—“parth! suno! mere vansh ke log narayan kahlate hain. ve baDe sahasi aur veer bhi hain. unki ek bhari sena ikatthi ki ja sakti hai. meri ye sena ek taraf hogi. dusri taraf akela main rahunga. meri prtigya ye bhi hai ki yuddh mein main na to hathiyar uthaunga aur na hi lahunga. tum bhali bhanti soch lo, tab nirnay karo. in do mein se jo pasand ho, wo le lo. ”
bina kisi hichkichahat ke arjun bola—“ap shastr uthayen ya na uthayen, aap chahe laDen ya na laDen, main to aapko hi chahta hoon. ”
duryodhan ke anand ki sima na rahi. wo sochne laga ki arjun ne khoob dhokha khaya aur shrikrishn ki wo lakhon vironvali bhari bharkam sena sahj mein hi uske haath aa gai. ye sochta aur harsh se phula na samata duryodhan balram ji ke yahan pahuncha aur unko sara haal kah sunaya. balram ji ne duryodhan ki baten dhyaan se sunon aur bole—“duryodhan! malum hota hai ki uttara ke vivah ke avsar par mainne jo kuch kaha tha uski khabar tumhein mil gai hai. krishn se bhi mainne kai baar tumhari baat chheDi aur usko samjhata raha ki kaurav aur panDav donon hi hamare barabar ke sambandhi hain. kintu krishn meri sune tab na! mainne nishchay kar liya hai ki main yuddh mein tatasth rahunga, kyonki jidhar krishn na ho, us taraf mera rahna theek nahin hai. arjun ki sahayata main karunga nahin, is karan main ab tumhari bhi sahayata karne yogya nahin raha. mera tatasth rahna hi theek hoga. ”
hastinapur ko lautte hue duryodhan ka dil balliyon uchhal raha tha. wo soch raha tha ki arjun baDa buddh bana. dvarka ki itni baDi sena ab meri ho gai hai aur balram ji ka sneh to mujh par hai hi. shrikrishn bhi niःshastr aur senavihin ho ge. yahi sochte vicharte duryodhan khushi khushi apni rajdhani mein aa pahuncha.
krishn ne puchha—“sakha arjun! ek baat batao. tumne sena bal ke bajaye mujh niःshastr ko kyon pasand kiya?”
arjun bola—“bat ye hai ki aap mein wo shakti hai ki jisse aap akele hi in tamam rajaon se laDkar inhen kuchal sakte hain. ”
arjun ki baat sunkar krishn musakraye aur bole—“achchha, ye baat hai!” aur arjun ko baDe prem se vida kiya. is prakar shrikrishn arjun ke sarthi bane aur paarth sarthi ki padvi praapt ki.
madr desh ke raja shalya, nakul sahdev ki maan madri ke bhai the. jab unhen ye khabar mili ki panDav upaplavya ke nagar mein yuddh ki taiyariyan kar rahe hain, to unhonne ek bhari sena ikatthi ki aur use lekar panDvon ki sahayata ke liye upaplavya ki or ravana ho ge.
raja shalya ki sena bahut baDi thi. upaplavya ki or jate hue raste mein jahan kahin bhi shalya vishram karne ke liye Dera Dalte the, to unki sena ka paDav koi DeDh yojan tak lamba phail jata tha.
jab duryodhan ne suna ki raja shalya vishal sena lekar panDvon ki sahayata ke liye ja rahe hain, to usne kisi prakar is sena ko apni or kar lene ka nishchay kar liya. apne kushal karmchariyon ko usne aagya di ki raste mein jahan kahin bhi raja shalya aur unki sena Dera Dale, use har tarah ki suvidha pahunchai jaye. shalya par duryodhan ke aadar satkar ka kuch aisa asar hua ki unhonne putron ke saman pyaar karne yogya bhanjon (panDvon) ko chhoD diya aur duryodhan ke paksh mein rahkar yuddh karne ka vachan de diya. upaplavya mein raja shalya ka khoob svagat kiya gaya. mama ko aaya dekhkar nakul aur sahdev ke anand ki to sima hi na rahi. jab bhavi yuddh ki charcha chhiDi, to shalya ne yudhishthir ko bataya ki kis prakar duryodhan ne dhokha dekar unko apne paksh mein kar liya hai.
yudhishthir bola—“mama jee! mauka aane par nishchay hi mahabali karn aapko apna sarthi banakar arjun ka vadh karne ka prayatn karega. main ye janna chahta hoon ki us samay aap arjun ki mrityu ka karan banenge ya arjun ki raksha ka prayatn karenge? main ye puchhkar aapko asmanjas mein nahin Dalna chahta tha, par phir bhi puchhne ka man ho gaya. ”
madrraj ne kaha—“beta yudhishthir, main dhokhe mein aakar duryodhan ko vachan de baitha. isliye yuddh to mujhe uski or se hi karna hoga. par ek baat bataye deta hoon ki karn mujhe sarthi banayega, to arjun ke pranon ki raksha hi hogi. ”
upaplavya mein maharaj yudhishthir aur draupadi. ko madrraj shalya ne dilasa diya aur kaha—“jit unhin ki hoti hai, jo dhiraj se kaam lete hain. yudhishthir! karn aur duryodhan ki buddhi phir gai hai. apni dushtata ke phalasvarup nishchay hi unka sarvanash hokar rahega. ”
terahvan baras pura hone par panDav virat ki bheje. bhai balram, arjun ki patni subhadra tatha rajdhani chhoDkar viratraj ke hi rajya mein sthit putr abhimanyu aur yaduvansh ke kai viron ko upaplavya namak nagar mein jakar rahne lage. lekar shrikrishn upaplavya ja pahunche. indrsen aadi agyatvas ki avadhi puri ho chuki thi. isliye raja apne apne rathon par chaDhkar upaplavya aa panchon bhai prakat roop mein rahne lage. aage ka pahunche. kashiraj aur veer shaivya bhi apni do karyakram tay karne ke liye unhonne apne akshauhini sena ke saath aakar yudhishthir ke bhai bandhuon evan mitron ko bulane ke liye doot nagar mein pahunch ge. panchalraj drupad teen akshauhini sena laye. unke saath shikhanDi, draupadi ka bhai dhrishtadyumn aur draupadi ke putr bhi aa pahunche. aur bhi kitne hi raja apni apni senaon ko saath lekar panDvon ki sahayata ke liye aa ge.
sabse pahle abhimanyu ke saath uttara ka vivah kiya gaya. iske baad viratraj ke sabha bhavan mein sabhi agantuk raja mantrna ke liye ikatthe hue. virat ke paas shrikrishn aur yudhishthir baithe. drupad ke paas balram aur satyaki aur bhi kitne hi pratapi raja sabha mein virajman the. sabha mein sabke apne apne aasan par baith jane par shrikrishn uthe aur bole—“sammananiy bandhuo aur mitro! aaj hum sab yahan isliye ikatthe hue hain ki kuch aise upaay sochen, jo yudhishthir aur raja duryodhan ke liye labhaprad hon, nyayochit hon aur jinse panDvon tatha kaurvon ka suyash baDhe. jo rajya yudhishthir se chhina gaya hai wo unko vapas mil jaye, to panDav shaant ho jayenge aur donon mein sandhi ho sakti hai. meri raay mein is bare mein duryodhan ke saath uchit riti se batachit karke use samjhane ke liye ek aise vyakti ko doot banakar bhejna hoga, jo sarvatha yogya ho. ”
tab balram uthe aur bole—“krishn ne jo salah di hai, wo mujhe nyayochit lagti hai. aap log jante hi hain ki kunti ke putron ko aadha rajya mila tha. ve use jue mein haar ge. ab ve use phir se praapt karna chahte hain. yadi shantipurn Dhang se, bina yuddh kiye hi ve apna rajya praapt kar saken, to usse na keval panDvon balki duryodhan tatha sari praja ki bhalai hi hogi. ”
balram ke kahne ka saar ye tha ki yudhishthir ne jaan bujhkar apni ichchha se jua khelkar rajya ganvaya tha. unki in baton se yadukul ka veer aur panDvon ka hitaishi satyaki agabbula ho utha. usse na raha gaya. wo uthkar kahne laga—“balram ji ki baten mujhe zara bhi nyayochit nahin malum hotin yudhishthir ko agrah karke jua khelne par vivash kiya gaya aur khel mein kapat se haraya gaya tha. phir bhi inki sajjanta hi thi jo pran nibhakar unhonne khel ki sharten puri ko. duryodhan aur unke sathi jo ye chill pukar macha rahe hain ki barah mahine pure hone se pahle hi panDvon ko unhonne pahchan liya hai, sarasar jhooth hai aur bilkul anyay hai. meri raay mein duryodhan bagair yuddh ke manega hi nahin isliye vilamb karna hamare liye bilkul nasamjhi ki baat hogi. ”
satyaki ko in driDhtapurn aur zordar baton se raja drupad baDe khush hue. wo uthe aur bole—“satyaki ne jo kaha, wo bilkul sahi hai. main unka zoron se samarthan karta hoon. shalya, dhrishtketu, jayatsen, kaikay aadi rajaon ke paas abhi se doot bhej dene chahiye. iska matlab ye nahin hai ki sulah ka prayatn hi na kiya jaye, balki meri raay mein to raja dhritarashtr ke paas abhi se kisi suyogya vyakti ko doot banakar bhejna bahut hi zaruri hai. ”
raja drupad ke kah chukne ke baad shrikrishn uthe aur bole—“sajjno! panchalraj ne jo salah di hai wo bilkul theek hai bhaiya balram ji aur mujh par kaurvon ka jitna hak hai, utna hi panDvon ka bhi hai. hum yahan kisi ka pakshapat karne nahin, balki uttara ke vivah mein shamil hone ke liye aaye hain. hum ab apne sthaan par vapas chale jayenge. (drupad ki or dekhkar) drupadraj! aap sabhi rajaon mein shreshth hain, buddhi evan aayu mein bhi baDe hain. hamare liye to aap acharya ke saman hain. dhritarashtr bhi aapko baDi izzat karte hain. dron aur kripacharya to aapke laDakpan ke sathi hain. isliye uchit to yahi hoga ki jo kuch doot ko samjhana bujhana ho, wo aap hi samjha den aur unhen hastinapur bhej den. yadi iske baad duryodhan nyayochit roop se sandhi ke liye taiyar na ho, to sab log sab tarah se taiyar ho jayen aur hamein bhi kahla bhejen. ”
ye nishchay ho jane ke baad shrikrishn apne sathiyon sahit dvarka laut ge. virat, drupad, yudhishthir aadi yuddh ki taiyariyan karne mein lag ge. charon or doot bheje ge sab mitr rajaon ko sena ikatthi karne ka sandesh bhej diya gaya. panDvon ke paksh mein raja log apni apni sena sajjit karne lage. idhar ye taiyariyan hone lagin, udhar duryodhan aadi bhi chupchap baithe nahin rahe. ve bhi yuddh ki taiyariyon mein ji jaan se lag ge. unhonne apne mitron ke yahan duton dvara sandesh bheje, jisse senayen ikatthi ki ja saken. is tarah sara bharatvarsh agami yuddh ke kolahal se gunjne laga.
shanti charcha ke liye hastinapur ko doot bhejne ke baad panDav aur unke mitr rajagan zoron se yuddh ki taiyari mein jut ge. shrikrishn ke paas arjun svayan pahuncha. idhar duryodhan ko bhi is baat ki khabar mil gai ki uttara ke vivah se nivritt hokar shrikrishn dvarka laut ge, hain, so wo bhi dvarka ko ravana ho gaya. sanyog ki baat hai ki jis din arjun dvarka pahuncha, theek usi din duryodhan bhi vahan pahuncha. shrikrishn ke bhavan mein bhi donon ek saath hi pravisht hue. shrikrishn us samay aram kar rahe the arjun aur duryodhan donon hi unke nikat sambandhi the. isliye donon hi bekhatke shaynagar mein chale ge. duryodhan aage tha, arjun zara pichhe kamre mein pravesh karke duryodhan shrikrishn ke sirhane ek uunche aasan par ja baitha. arjun shrikrishn ke paitane hi haath joDe khaDa raha. shrikrishn ki neend khuli to unhonne samne arjun ko khaDe dekha. unhonne uthkar uska svagat kiya aur kushal puchhi. baad mein ghumkar aasan par baithe duryodhan ko dekha, to uska bhi svagat kiya aur kushal samachar puchhe. uske baad donon ke aane ka karan puchha.
duryodhan jaldi se pahle bola—“shrikrishn, aisa malum hota hai ki hamare aur panDvon ke beech jaldi hi yuddh chhiDega. yadi aisa hua, to main aapse pararthna karne aaya hoon ki aap meri sahayata karen. samanyatः ye niyam hai ki jo pahle aaye uska kaam pahle ho. aap vidvajjnon mein shreshth hain. aap sabke path pradarshak hain. atः baDon ki chalai hui pratha par chalen aur pahle meri sahayata karen. ”
ye sunkar shrikrishn bole—“rajan! aap pahle pahunche zarur, lekin mainne to pahle arjun ko hi dekha tha. meri nigah mein to donon hi barabar hain. isliye kartavybhav se main donon ki hi saman roop se sahayata karunga. purvjon ki chalai hui pratha ye hai ki jo aayu mein chhota ho, usi ko pahle puraskar dena chahiye. arjun aapse aayu mein chhota hai. isliye main pahle usse hi puchhta hoon ki wo kya chahta hai?”
arjun ki taraf muDkar shrikrishn bole—“parth! suno! mere vansh ke log narayan kahlate hain. ve baDe sahasi aur veer bhi hain. unki ek bhari sena ikatthi ki ja sakti hai. meri ye sena ek taraf hogi. dusri taraf akela main rahunga. meri prtigya ye bhi hai ki yuddh mein main na to hathiyar uthaunga aur na hi lahunga. tum bhali bhanti soch lo, tab nirnay karo. in do mein se jo pasand ho, wo le lo. ”
bina kisi hichkichahat ke arjun bola—“ap shastr uthayen ya na uthayen, aap chahe laDen ya na laDen, main to aapko hi chahta hoon. ”
duryodhan ke anand ki sima na rahi. wo sochne laga ki arjun ne khoob dhokha khaya aur shrikrishn ki wo lakhon vironvali bhari bharkam sena sahj mein hi uske haath aa gai. ye sochta aur harsh se phula na samata duryodhan balram ji ke yahan pahuncha aur unko sara haal kah sunaya. balram ji ne duryodhan ki baten dhyaan se sunon aur bole—“duryodhan! malum hota hai ki uttara ke vivah ke avsar par mainne jo kuch kaha tha uski khabar tumhein mil gai hai. krishn se bhi mainne kai baar tumhari baat chheDi aur usko samjhata raha ki kaurav aur panDav donon hi hamare barabar ke sambandhi hain. kintu krishn meri sune tab na! mainne nishchay kar liya hai ki main yuddh mein tatasth rahunga, kyonki jidhar krishn na ho, us taraf mera rahna theek nahin hai. arjun ki sahayata main karunga nahin, is karan main ab tumhari bhi sahayata karne yogya nahin raha. mera tatasth rahna hi theek hoga. ”
hastinapur ko lautte hue duryodhan ka dil balliyon uchhal raha tha. wo soch raha tha ki arjun baDa buddh bana. dvarka ki itni baDi sena ab meri ho gai hai aur balram ji ka sneh to mujh par hai hi. shrikrishn bhi niःshastr aur senavihin ho ge. yahi sochte vicharte duryodhan khushi khushi apni rajdhani mein aa pahuncha.
krishn ne puchha—“sakha arjun! ek baat batao. tumne sena bal ke bajaye mujh niःshastr ko kyon pasand kiya?”
arjun bola—“bat ye hai ki aap mein wo shakti hai ki jisse aap akele hi in tamam rajaon se laDkar inhen kuchal sakte hain. ”
arjun ki baat sunkar krishn musakraye aur bole—“achchha, ye baat hai!” aur arjun ko baDe prem se vida kiya. is prakar shrikrishn arjun ke sarthi bane aur paarth sarthi ki padvi praapt ki.
madr desh ke raja shalya, nakul sahdev ki maan madri ke bhai the. jab unhen ye khabar mili ki panDav upaplavya ke nagar mein yuddh ki taiyariyan kar rahe hain, to unhonne ek bhari sena ikatthi ki aur use lekar panDvon ki sahayata ke liye upaplavya ki or ravana ho ge.
raja shalya ki sena bahut baDi thi. upaplavya ki or jate hue raste mein jahan kahin bhi shalya vishram karne ke liye Dera Dalte the, to unki sena ka paDav koi DeDh yojan tak lamba phail jata tha.
jab duryodhan ne suna ki raja shalya vishal sena lekar panDvon ki sahayata ke liye ja rahe hain, to usne kisi prakar is sena ko apni or kar lene ka nishchay kar liya. apne kushal karmchariyon ko usne aagya di ki raste mein jahan kahin bhi raja shalya aur unki sena Dera Dale, use har tarah ki suvidha pahunchai jaye. shalya par duryodhan ke aadar satkar ka kuch aisa asar hua ki unhonne putron ke saman pyaar karne yogya bhanjon (panDvon) ko chhoD diya aur duryodhan ke paksh mein rahkar yuddh karne ka vachan de diya. upaplavya mein raja shalya ka khoob svagat kiya gaya. mama ko aaya dekhkar nakul aur sahdev ke anand ki to sima hi na rahi. jab bhavi yuddh ki charcha chhiDi, to shalya ne yudhishthir ko bataya ki kis prakar duryodhan ne dhokha dekar unko apne paksh mein kar liya hai.
yudhishthir bola—“mama jee! mauka aane par nishchay hi mahabali karn aapko apna sarthi banakar arjun ka vadh karne ka prayatn karega. main ye janna chahta hoon ki us samay aap arjun ki mrityu ka karan banenge ya arjun ki raksha ka prayatn karenge? main ye puchhkar aapko asmanjas mein nahin Dalna chahta tha, par phir bhi puchhne ka man ho gaya. ”
madrraj ne kaha—“beta yudhishthir, main dhokhe mein aakar duryodhan ko vachan de baitha. isliye yuddh to mujhe uski or se hi karna hoga. par ek baat bataye deta hoon ki karn mujhe sarthi banayega, to arjun ke pranon ki raksha hi hogi. ”
upaplavya mein maharaj yudhishthir aur draupadi. ko madrraj shalya ne dilasa diya aur kaha—“jit unhin ki hoti hai, jo dhiraj se kaam lete hain. yudhishthir! karn aur duryodhan ki buddhi phir gai hai. apni dushtata ke phalasvarup nishchay hi unka sarvanash hokar rahega. ”
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