प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
द्रोण के मारे जाने पर कौरव-पक्ष के राजाओं ने कर्ण को सेनापति मनोनीत किया। मद्रराज शल्य कर्ण के सारथी बने। दूसरे दिन कर्ण के सेनापतित्व में फिर से घमासान युद्ध जारी हो गया। अर्जुन की रक्षा करता हुआ भीम, अपने रथ पर उसके पीछे-पीछे चला और दोनों एक साथ कर्ण पर टूट पड़े। जब दुःशासन ने यह देखा, तो उसने भीम पर बाणों की वर्षा कर दी। उसको भीम ने एक ही धक्के में ज़मीन पर गिरा दिया और उसका एक-एक अंग तोड़-मरोड़ डाला। भीम मैदान में नाचने-कूदने लगा और चिल्लाने लगा—“मेरी एक प्रतिज्ञा पूरी हुई। अब दुर्योधन की बारी है। उसका काम तमाम करना बाक़ी है।”
भीमसेन का वह भयानक रूप देखकर कर्ण का भी शरीर काँपने लगा। तभी अश्वत्थामा को दुर्योधन ने पांडवों पर हमला करने की आज्ञा दी। कर्ण ने अर्जुन पर एक ऐसा बाण चलाया जो आग उगलता गया। अर्जुन की ओर उस भयानक तीर को आता हुआ देखकर कृष्ण ने रथ को पाँव के अँगूठे से दबा दिया, जिससे रथ ज़मीन में पाँच अँगुल धँस गया। कृष्ण की इस युक्ति से अर्जुन मरते-मरते बचा। कर्ण का चलाया हुआ सर्पमुखास्त्र फुँफकारता हुआ आया और अर्जुन का मुकुट उड़ा ले गया। इस पर अर्जुन के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने जोश के साथ कर्ण पर बाण-वर्षा कर दी। तभी अचानक कर्ण के रथ का बाईं तरफ़ का पहिया धरती में धँस गया।
इससे कर्ण घबरा गया और बोला—“अर्जुन! ज़रा ठहरो। मेरे रथ का पहिया कीचड़ में फँस गया है। पांडु-पुत्र, तुम्हें धर्म-युद्ध करने का जो यश प्राप्त हुआ है, उसे व्यर्थ ही न गँवाओ। मैं ज़मीन पर खड़ा रहूँ और तुम रथ पर बैठे-बैठे मुझ पर बाण चलाओ, यह ठीक नहीं होगा। ज़रा रुको।”
कर्ण की ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण बोले—“कर्ण! जब दुःशासन, दुर्योधन और तुम द्रौपदी को भरी सभा में घसीटकर लाए थे, उस वक़्त तुम्हें धर्म की याद आई थी? जब दूधमुँहे बच्चे अभिमन्यु को तुम सात लोगों ने एक साथ घेरकर निर्लज्जता के साथ मार डाला था, तब तुम्हारा धर्म कहाँ था? और आज जब मुसीबत सामने खड़ी दिखाई दे रही है, तो तुमको धर्म याद आ रहा है!”
श्रीकृष्ण की इस झिड़की का कर्ण से कोई उत्तर देते न बना। उसने सिर झुका लिया और अटके हुए रथ पर से ही युद्ध जारी रखा। इतने में कर्ण का एक बाण अर्जुन को जा लगा, तो वह थोड़ी देर के लिए विचलित हो उठा। बस, यही ज़रा सा समय पाकर कर्ण रथ से उतर पड़ा और रथ का पहिया उठाकर उसे समतल पर लाने की कोशिश करने लगा। कर्ण के हज़ार प्रयत्न करने पर भी पहिया गड्ढे से निकलता न था। यह स्थिति देख श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा—“अर्जुन, अब देरी न करो, हिचकिचाओ मत। इसी समय इसे ख़त्म कर दो।”
श्रीकृष्ण की यह बात मानकर अर्जुन ने एक बाण तानकर ऐसा मारा कि कर्ण का सिर कटकर ज़मीन पर गिर पड़ा। जब दुर्योधन को इस बात की ख़बर मिली कि युद्ध में कर्ण भी मारा गया है, तो उसके शोक की सीमा न रही। दुर्योधन की इस अवस्था पर कृपाचार्य को बड़ा तरस आया। उन्होंने दुर्योधन को सांत्वना देते हुए कहा—“राजन्! अब तुम्हारा कर्तव्य यही है कि पांडवों से किसी प्रकार संधि कर लो। अब युद्ध बंद करना ही श्रेयस्कर होगा।” यद्यपि दुर्योधन हताश हो चुका था, फिर भी कृपाचार्य की यह सलाह उसे बिलकुल पसंद नहीं आई। वह उसे मानने के लिए तैयार न हुआ। सभी कौरव वीरों ने दुर्योधन की बातों का समर्थन किया और कहा कि युद्ध जारी रखना ही ठीक होगा। इस पर सबकी सलाह से मद्रराज शल्य को सेनापति नियुक्त किया गया। इसलिए शल्य के सेनापतित्व में फिर से युद्ध जारी हुआ।
पांडवों की सेना के संचालन का पूरा दायित्व अब युधिष्ठिर ने स्वयं अपने कंधों पर ले लिया। शल्य पर उन्होंने स्वयं आक्रमण किया। युधिष्ठिर ने शल्य पर शक्ति का प्रयोग किया और मद्रराज शल्य मृत होकर रथ पर से धड़ाम से गिर पड़े। जब शल्य भी मारा गया, तो कौरव सेना निःसहाय—सी हो गई। फिर भी, धृतराष्ट्र के रहे-सहे पुत्रों ने हिम्मत न हारी। दूसरी ओर शकुनि और सहदेव का युद्ध हो रहा था। तलवार की पैनी धार के समान नोंकवाला एक बाण शकुनि पर चलाते हुए सहदेव ने गरजकर कहा—“शकुनि! अपने किए का फल भुगत ही ले!” और मानो उसकी बात सफल हो गई। बाण धनुष से निकला नहीं कि शकुनि का सिर कटकर गिरा पड़ा।
इस प्रकार कौरव-सेना के सारे वीर कुरुक्षेत्र की भूमि पर सदा के लिए सो गए। अकेला दुर्योधन जीवित बचा था, अब उसके पास न तो सेना थी, न रथ। उस वीर की स्थिति बड़ी दयनीय थी। ऐसी हालत में दुर्योधन अकेला ही हाथ में गदा लिए हुए एक जलाशय की ओर चुपके से चल दिया। उधर दूसरे दिन युधिष्ठिर और उनके भाई उसे खोजते हुए उसी जलाशय पर जा पहुँचे, जहाँ वह छिपा हुआ बैठा था। श्रीकृष्ण भी उनके साथ थे। उन सबको यह पता चल गया था कि दुर्योधन जलाशय में छिपा हुआ है। युधिष्ठिर ने कहा—“दुर्योधन! अपने कुटुंब और वंश का नाश कराने के बाद अब पानी में छिपकर प्राण बचाना चाहते हो?”
यह सुनकर दुर्योधन ने व्यथित होकर कहा—“मैं न तो डरा हुआ ही हूँ और न मुझे प्राणों का ही मोह है। फिर भी, सच पूछो तो युद्ध से मेरा जी हट गया है। मेरे सभी संगी-साथी और बंधु-बांधव मारे जा चुके हैं। अब मैं बिलकुल अकेला हूँ। राज्य-सख का मुझे लोभ नहीं रहा। यह सारा राज्य अब तुम्हारा ही है। निश्चिंत होकर तुम्हीं इसका उपभोग करो।”
युधिष्ठिर ने गरजते हुए कहा—“दुर्योधन! एक दिन वह था, जब तुम्हीं ने कहा था कि सूई की नोंक जितनी ज़मीन भी नहीं दूँगा।”
दुर्योधन ने जब स्वयं युधिष्ठिर के मुख से ये कठोर बातें सुनीं, तो उसने गदा उठा ली और जल में ही उठ खड़ा हुआ और बोला—“अच्छा! यही सही! तुम एक-एक करके मुझसे भिड़ लो! मैं अकेला हूँ और तुम पाँच हो। पाँचों का अकेले के साथ लड़ना न्यायोचित नहीं। मैं थका हुआ और घायल हूँ। कवच भी मेरे पास नहीं है। इसलिए एक-एक करके निपट लो। चलो!”
यह सुनकर युधिष्ठिर बोले—“यदि अकेले पर कइयों का हमला करना धर्म नहीं, तो बालक अभिमन्यु कैसे मारा गया था?” यह सुनकर दुर्योधन जलाशय से बाहर निकल आया और उसने भीम से गदा युद्ध करने की इच्छा प्रकट की। भीम भी राज़ी हो गया और दोनों में गदा युद्ध शुरू हो गया। इस तरह बड़ी देर तक युद्ध जारी रहा। श्रीकृष्ण ने इशारों में ही अर्जुन को बताया कि भीम दुर्योधन की जाँघ पर गदा मारेगा, तो जीत जाएगा। भीम ने श्रीकृष्ण का यह इशारा तुरंत भाँप लिया और अचानक दुर्योधन पर झपट पड़ा। उसकी जाँघ पर ज़ोर से गदा का प्रहार किया। जाँघ टूट जाने के कारण अधमरी अवस्था में पड़े हुए दुर्योधन के दिल में फिर से क्रोध और द्वेष की आग सी भड़क उठी। वह चिल्लाकर बोला—“कृष्ण! धर्म युद्ध करने वाले हमारे पक्ष के सारे यशस्वी महारथियों को तुमने ही कुचक्र रचकर मरवा डाला है। यदि तुमने कुचक्र न रचा होता, तो कर्ण, भीष्म, द्रोण भला समर में परास्त होने वाले थे?”
मरणासन्न अवस्था में दुर्योधन को इस प्रकार विलाप करता देख श्रीकृष्ण बोले—“दुर्योधन! तुम अपने ही किए हुए कर्मों का फल पा रहे हो। तुम यह क्यों नहीं समझते और उसका पश्चाताप करते? अपने अपराध के लिए दूसरों को दोष देना बेकार है। तुम्हारे नाश का कारण मैं नहीं हूँ। लालच में पड़कर तुमने जो महापाप किया था, उसी का यह फल तुम्हें भुगतना पड़ रहा है।”
dron ke mare jane par kaurav paksh ke rajaon ne karn ko senapati manonit kiya. madrraj shalya karn ke sarthi bane. dusre din karn ke senaptitv mein phir se ghamasan yuddh jari ho gaya. arjun ki raksha karta hua bheem, apne rath par uske pichhe pichhe chala aur donon ek saath karn par toot paDe. jab duःshasan ne ye dekha, to usne bheem par banon ki varsha kar di. usko bheem ne ek hi dhakke mein zamin par gira diya aur uska ek ek ang toD maroD Dala. bheem maidan mein nachne kudne laga aur chillane laga—“meri ek prtigya puri hui. ab duryodhan ki bari hai. uska kaam tamam karna baqi hai. ”
bhimasen ka wo bhayanak roop dekhkar karn ka bhi sharir kanpne laga. tabhi ashvatthama ko duryodhan ne panDvon par hamla karne ki aagya di. karn ne arjun par ek aisa baan chalaya jo aag ugalta gaya. arjun ki or us bhayanak teer ko aata hua dekhkar krishn ne rath ko paanv ke anguthe se daba diya, jisse rath zamin mein paanch angul dhans gaya. krishn ki is yukti se arjun marte marte bacha. karn ka chalaya hua sarpamukhastr phunphakarata hua aaya aur arjun ka mukut uDa le gaya. is par arjun ke krodh ka thikana na raha. usne josh ke saath karn par baan varsha kar di. tabhi achanak karn ke rath ka bain taraf ka pahiya dharti mein dhans gaya.
isse karn ghabra gaya aur bola—“arjun! zara thahro. mere rath ka pahiya kichaD mein phans gaya hai. panDu putr, tumhein dharm yuddh karne ka jo yash praapt hua hai, use vyarth hi na ganvao. main zamin par khaDa rahun aur tum rath par baithe baithe mujh par baan chalao, ye theek nahin hoga. zara ruko. ”
karn ki ye baten sunkar shrikrishn bole—“karn! jab duःshasan, duryodhan aur tum draupadi ko bhari sabha mein ghasitkar laye the, us vakt tumhein dharm ki yaad aai thee? jab dudhamunhe bachche abhimanyu ko tum saat logon ne ek saath gherkar nirlajjata ke saath maar Dala tha, tab tumhara dharm kahan tha? aur aaj jab musibat samne khaDi dikhai de rahi hai, to tumko dharm yaad aa raha hai!”
shrikrishn ki is jhiDki ka karn se koi uttar dete na bana. usne sir jhuka liya aur atke hue rath par se hi yuddh jari rakha. itne mein karn ka ek baan arjun ko ja laga, to wo thoDi der ke liye vichlit ho utha. bas, yahi zara sa samay pakar karn rath se utar paDa aur rath ka pahiya uthakar use samtal par lane ki koshish karne laga. karn ke hazar prayatn karne par bhi pahiya gaDDhe se nikalta na tha. ye sthiti dekh shrikrishn ne arjun se kaha—“arjun, ab deri na karo, hichakichao mat. isi samay ise khatm kar do. ”
shrikrishn ki ye baat mankar arjun ne ek baan tankar aisa mara ki karn ka sir katkar zamin par gir paDa. jab duryodhan ko is baat ki khabar mili ki yuddh mein karn bhi mara gaya hai, to uske shok ki sima na rahi. duryodhan ki is avastha par kripacharya ko baDa taras aaya. unhonne duryodhan ko santvna dete hue kaha—“rajan! ab tumhara kartavya yahi hai ki panDvon se kisi prakar sandhi kar lo. ab yuddh band karna hi shreyaskar hoga. ” yadyapi duryodhan hatash ho chuka tha, phir bhi kripacharya ki ye salah use bilkul pasand nahin aai. wo use manne ke liye taiyar na hua. sabhi kaurav viron ne duryodhan ki baton ka samarthan kiya aur kaha ki yuddh jari rakhna hi theek hoga. is par sabki salah se madrraj shalya ko senapati niyukt kiya gaya. isliye shalya ke senaptitv mein phir se yuddh jari hua.
panDvon ki sena ke sanchalan ka pura dayitv ab yudhishthir ne svayan apne kandhon par le liya. shalya par unhonne svayan akrman kiya. yudhishthir ne shalya par shakti ka prayog kiya aur madrraj shalya mrit hokar rath par se dhaDam se gir paDe. jab shalya bhi mara gaya, to kaurav sena niःsahay—si ho gai. phir bhi, dhritarashtr ke rahe sahe putron ne himmat na hari. dusri or shakuni aur sahdev ka yuddh ho raha tha. talvar ki paini dha ke saman nonkvala ek baan shakuni par chalate hue sahdev ne garajkar kaha—“shakuni! apne kiye ka phal bhugat hi le!” aur mano uski baat safal ho gai. baan dhanush se nikla nahin ki shakuni ka sir katkar gira paDa.
is prakar kaurav sena ke sare veer kurukshetr ki bhumi par sada ke liye so ge. akela duryodhan jivit bacha tha, ab uske paas na to sena thi, na rath. us veer ki sthiti baDi dayniy thi. aisi haalat mein duryodhan akela hi haath mein gada liye hue ek jalashay ki or chupke se chal diya. udhar dusre din yudhishthir aur unke bhai use khojte hue usi jalashay par ja pahunche, jahan wo chhipa hua baitha tha. shrikrishn bhi unke saath the. un sabko ye pata chal gaya tha ki duryodhan jalashay mein chhipa hua hai. yudhishthir ne kaha—“duryodhan! apne kutumb aur vansh ka naash karane ke baad ab pani mein chhipkar praan bachana chahte ho?”
ye sunkar duryodhan ne vyathit hokar kaha—“main na to Dara hua hi hoon aur na mujhe pranon ka hi moh hai. phir bhi, sach puchho to yuddh se mera ji hat gaya hai. mere sabhi sangi sathi aur bandhu bandhav mare ja chuke hain. ab main bilkul akela hoon. rajya sakh ka majhe lobh nahin raha. ye sara rajya ab tumhara hi hai. nishchint hokar tumhin iska upbhog karo. ”
yudhishthir ne garajte hue kaha—“duryodhan! ek din wo tha, jab tumhin ne kaha tha ki sui ki nonk jitni zamin bhi nahin dunga. ”
duryodhan ne jab svayan yudhishthir ke mukh se ye kathor baten sunin, to usne gada utha li aur jal mein hi uth khaDa hua aur
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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