प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
इंद्रप्रस्थ में प्रतापी पांडव न्यायपूर्वक प्रजा-पालन कर रहे थे। युधिष्ठिर के भाइयों तथा साथियों की इच्छा हुई कि अब राजसूय यज्ञ करके सम्राट-पद प्राप्त किया जाए। इस बारे में सलाह करने के लिए युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को संदेश भेजा। जब श्रीकृष्ण को मालूम हुआ कि युधिष्ठिर उनसे मिलना चाहते हैं, तो तत्काल ही वह द्वारका से चल पड़े और इंद्रप्रस्थ पहुँचे।
युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा—“मित्रों का कहना है कि मैं राजसूय यज्ञ करके सम्राट-पद प्राप्त करूँ। परंतु राजसूय यज्ञ तो वही कर सकता है, जो सारे संसार के नरेशों का पूज्य हो और उनके द्वारा सम्मानित हो। आप ही इस विषय में मुझे सही सलाह दे सकते हैं।”
युधिष्ठिर की बात शांति के साथ सुनकर श्रीकृष्ण बोले—“मगधदेश के राजा जरासंध ने सब राजाओं को जीतकर उन्हें अपने अधीन कर रखा है। सभी उसका लोहा मान चुके हैं और उसके नाम से डरते हैं, यहाँ तक कि शिशुपाल जैसे शक्ति-संपन्न राजा भी उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके हैं और उसकी छत्रछाया में रहना पसंद करते हैं। अतः जरासंध के रहते हुए और कौन सम्राट-पद प्राप्त कर सकता है? जब महाराज उग्रसेन का नासमझ बेटा कंस जरासंध की बेटी से ब्याह करके उसका साथी बन गया था, तब मैंने और मेरे बंधुओं ने जरासंध के विरुद्ध युद्ध किया था। तीन बरस तक हम उसकी सेनाओं के साथ लड़ते रहे पर आख़िर हार गए। हमें मथुरा छोड़कर दूर पश्चिम द्वारका में जाकर नगर और दुर्ग बनाकर रहना पड़ा। आपके साम्राज्याधीश होने में दुर्योधन और कर्ण को आपत्ति न भी हो, फिर भी जरासंध से इसकी आशा रखना बेकार है। बग़ैर युद्ध के जरासंध इस बात को नहीं मान सकता है। जरासंध ने आज तक पराजय का नाम तक नहीं जाना है। ऐसे अजेय पराक्रमी राजा जरासंध के जीते जी आप राजसूय यज्ञ नहीं कर सकेंगे। उसने जो राजे-महाराजे बंदीगृह में डाल रखे हैं, किसी-न-किसी उपाय से पहले उन्हें छुड़ाना होगा। जब ये हो जाएगा, तभी राजसूय करना आपके लिए साध्य होगा।”
श्रीकृष्ण की ये बातें सुनकर शांति-प्रिय राजा युधिष्ठिर बोले—“आपका कहना बिलकुल सही है। इस विशाल संसार में कितने ही राजाओं के लिए जगह है। कितने ही नरेश अपने अपने राज्य का शासन करते हुए इसमें संतुष्ट रह सकते हैं। आकांक्षा वह आग है, जो कभी बुझती नहीं है। इसलिए मेरी भलाई इसी में दिखती है। कि साम्राज्याधीश बनने का विचार छोड़ दूँ और जो है उसी को लेकर संतुष्ट रहूँ।”
युधिष्ठिर की यह विनयशीलता भीमसेन को अच्छी न लगी। उसने कहा—“श्रीकृष्ण की नीति-कुशलता, मेरा शारीरिक बल और अर्जुन का शौर्य एक साथ मिल जाने पर कौन सा ऐसा काम है, जो हम नहीं कर सकते? यदि हम तीनों एक साथ चल पड़ें, तो जरासंध की शक्ति को चूर करके ही लौटेंगे। आप इस बात की शंका न करें।”
यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा—“यदि भीम और अर्जुन सहमत हों, तो हम तीनों एक साथ जाकर उस अन्यायी की जेल में पड़े हुए निर्दोष राजाओं को छुड़ा सकेंगे।”
परंतु युधिष्ठिर को यह बात न जँची। उन्होंने कहा—“मैं तो कहूँगा कि जिस कार्य में प्राणों पर बन आने की संभावना हो, उसके विचार तक को छोड़ देना ही अच्छा होगा।”
यह सुनकर वीर अर्जुन बोल उठा—“यदि हम यशस्वी भरतवंश की संतान होकर भी कोई साहस का काम न करें, तो धिक्कार है हमें और हमारे जीवन को! जिस काम को करने की हममें सामर्थ्य है, भाई युधिष्ठिर क्यों समझते हैं कि उसे हम न कर सकेंगे?”
श्रीकृष्ण अर्जुन की इन बातों से मुग्ध हो गए। बोले—“धन्य हो अर्जुन! कुंती के लाल अर्जुन से मुझे यही आशा थी।”
जब जरासंध के साथ युद्ध करने का निश्चय हो गया, तो श्रीकृष्ण और पांडवों ने अपनी योजना बनाई। श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन ने वल्कल पहन लिए, हाथ में कुशा ले ली और व्रती लोगों का-सा वेष धारण करके मगध देश के लिए रवाना हो गए। राह में सुंदर नगरों तथा गाँवों को पार करते हुए वे तीनों जरासंध की राजधानी में पहुँचे। जरासंध ने कुलीन अतिथि समझकर उनका बड़े आदर के साथ स्वागत किया। जरासंध के स्वागत का भीम और अर्जुन ने कोई जवाब नहीं दिया। वे दोनों मौन रहे। इस पर श्रीकृष्ण बोले—“मेरे दोनों साथियों ने मौन व्रत लिया हुआ है, इस कारण अभी नहीं बोलेंगे। आधी रात के बाद व्रत खुलने पर बातचीत करेंगे।” जरासंध ने इस बात पर विश्वास कर लिया और तीनों मेहमानों को यज्ञशाला में ठहराकर महल में चला गया। कोई भी ब्राह्मण अतिथि जरासंध के यहाँ आता, तो उनकी इच्छा तथा सुविधा के अनुसार बातें करना व उनका सत्कार करना जरासंध का नियम था। इसके अनुसार आधी रात के बाद जरासंध अतिथियों से मिलने गया, लेकिन अतिथियों के रंग-ढंग देखकर मगध नरेश के मन में कुछ शंका हुई।
राजा जरासंध ने कड़ककर पूछा—“सच-सच बताओ, तुम लोग कौन हो? ब्राह्मण तो नहीं दिखाई देते।” इस पर तीनों ने सही हाल बता दिया और कहा—“हम तुम्हारे शत्रु हैं। तुमसे अभी द्वंद्व युद्ध करना चाहते हैं। हम तीनों में से किसी एक से, जिससे तुम्हारी इच्छा हो, लड़ सकते हो। हम सभी इसके लिए तैयार हैं।”
तभी भीमसेन और जरासंध में कुश्ती शुरू हो गई। दोनों वीर एक-दूसरे को पकड़ते, मारते और उठाते हुए लड़ने लगे। इस प्रकार पलभर भी विश्राम किए बग़ैर वे तेरह दिन और तेरह रात लगातार लड़ते रहे। चौदहवें दिन जरासंध थककर ज़रा देर को रुक गया। पर ठीक मौक़ा देखकर श्रीकृष्ण ने भीम को इशारे से समझाया और भीमसेन ने फ़ौरन जरासंध को उठाकर चारों ओर घुमाया और उसे ज़मीन पर ज़ोर से पटक दिया। इस प्रकार अजेय जरासंध का अंत हो गया।
श्रीकृष्ण और दोनों पांडवों ने उन सब राजाओं को छुड़ा लिया, जिनको जरासंध ने बंदीगृह में डाल रखा था और जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध की राजगद्दी पर बैठाकर इंद्रप्रस्थ लौट आए। इसके बाद पांडवों ने विजय-यात्रा की और सारे देश को महाराज युधिष्ठिर की अधीनता में ले आए।
जरासंध के वध के बाद पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया। इसमें समस्त भारत के राजा आए हुए थे। जब अभ्यागत नरेशों का आदर-सत्कार करने की बारी आई तो प्रश्न उठा कि अग्र पूजा किसकी हो? सम्राट युधिष्ठिर ने इस बारे में पितामह भीष्म से सलाह ली। वृद्ध भीष्म ने कहा कि द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की पूजा पहले की जाए। युधिष्ठिर को भी यह बात पसंद आई। उन्होंने सहदेव को आज्ञा दी कि वह श्रीकृष्ण का पूजन करे। सहदेव ने विधिवत् श्रीकृष्ण की पूजा की। वासुदेव का इस प्रकार गौरवान्वित होना चेदि नरेश शिशुपाल को अच्छा नहीं लगा। वह एकाएक उठ खड़ा हुआ और ठहाका मारकर हँस पड़ा। सारी सभा की दृष्टि जब शिशुपाल की ओर गई, तो वह ऊँचे स्वर में व्यंग्य से बोलने लगा—“यह अन्याय की बात है कि एक मामूली से व्यक्ति को इस प्रकार गौरवान्वित किया जाता है।”
युधिष्ठिर को यों आड़े हाथों लेने के बाद शिशुपाल सभा में उपस्थित राजाओं की ओर देखकर बोला—“उपस्थित राजागण! जिस दुरात्मा-ने कुचक्र रचकर वीर जरासंध को मरवा डाला, उसी की युधिष्ठिर ने अग्रपूजा की। इसके बाद-उसे हम धर्मात्मा कैसे कह सकते हैं? उनमें हमारा विश्वास नहीं रहा है।”
इस तरह शब्द-बाणों की बौछार कर चुकने के बाद शिशुपाल दूसरे कुछ राजाओं को साथ लेकर सभा से निकल गया। राजाधिराज युधिष्ठिर नाराज़ हुए राजाओं के पीछे दौड़े गए और अनुनय-विनय करके उन्हें समधाने लगे। युधिष्टिर के बहुत समझाने पर भी शिशुपाल नहीं माना। उसका हठ और घमंड बढ़ता गया। अंत में शिशुपाल श्रीकृष्ण में युद्ध छिड़ गया, जिसमें शिशुपाल मारा गया। राजसूय यज्ञ संपूर्ण हुआ और राजा युधिष्टिर को राजाधिराज की पदवी प्राप्त हो गई।
indraprastha mein pratapi panDav nyaypurvak praja palan kar rahe the. yudhishthir ke bhaiyon tatha sathiyon ki ichchha hui ki ab rajasuy yagya karke samrat pad praapt kiya jaye. is bare mein salah karne ke liye yudhishthir ne shrikrishn ko sandesh bheja. jab shrikrishn ko malum hua ki yudhishthir unse milna chahte hain, to tatkal hi wo dvarka se chal paDe aur indraprastha pahunche.
yudhishthir ne shrikrishn se kaha—“mitron ka kahna hai ki main rajasuy yagya karke samrat pad praapt karun. parantu rajasuy yagya to vahi kar sakta hai, jo sare sansar ke nareshon ka pujya ho aur unke dvara sammanit ho. aap hi is vishay mein mujhe sahi salah de sakte hain. ”
yudhishthir ki baat shanti ke saath sunkar shrikrishn bole—“magadhdesh ke raja jarasandh ne sab rajaon ko jitkar unhen apne adhin kar rakha hai. sabhi uska loha maan chuke hain aur uske naam se Darte hain, yahan tak ki shishupal jaise shakti sampann raja bhi uski adhinta svikar kar chuke hain aur uski chhatrchhaya mein rahna pasand karte hain. atः jarasandh ke rahte hue aur kaun samrat pad praapt kar sakta hai? jab maharaj ugrsen ka nasamajh beta kans jarasandh ki beti se byaah karke uska sathi ban gaya tha, tab mainne aur mere bandhuon ne jarasandh ke viruddh yuddh kiya tha. teen baras tak hum uski senaon ke saath laDte rahe par akhir haar ge. hamein mathura chhoDkar door pashchim dvarka mein jakar nagar aur durg banakar rahna paDa. aapke samrajyadhish hone mein duryodhan aur karn ko apatti na bhi ho, phir bhi jarasandh se iski aasha rakhna bekar hai. bagair yuddh ke jarasandh is baat ko nahin maan sakta hai. jarasandh ne aaj tak parajay ka naam tak nahin jana hai. aise ajey parakrami raja jarasandh ke jite ji aap rajasuy yagya nahin kar sakenge. usne jo raje maharaje bandigrih mein Daal rakhe hain, kisi na kisi upaay se pahle unhen chhuDana hoga. jab ye ho jayega, tabhi rajasuy karna aapke liye sadhya hoga. ”
shrikrishn ki ye baten sunkar shanti priy raja yudhishthir bole—“apka kahna bilkul sahi hai. is vishal sansar mein kitne hi rajaon ke liye jagah hai. kitne hi naresh apne apne rajya ka shasan karte hue ismen santusht rah sakte hain. akanksha wo aag hai, jo kabhi bujhti nahin hai. isliye meri bhalai isi mein dikhti hai. ki samrajyadhish banne ka vichar chhoD doon aur jo hai usi ko lekar santusht rahun. ”
yudhishthir ki ye vinayshilata bhimasen ko achchhi na lagi. usne kaha—“shrikrishn ki niti kushalta, mera sharirik bal aur arjun ka shaurya ek saath mil jane par kaun sa aisa kaam hai, jo hum nahin kar sakte? yadi hum tinon ek saath chal paDen, to jarasandh ki shakti ko choor karke hi lautenge. aap is baat ki shanka na karen. ”
ye sunkar shrikrishn ne kaha—“yadi bheem aur arjun sahmat hon, to hum tinon ek saath jakar us anyayi ki jel mein paDe hue nirdosh rajaon ko chhuDa sakenge. ”
parantu yudhishthir ko ye baat na janchi. unhonne kaha—“main to kahunga ki jis karya mein pranon par ban aane ki sambhavna ho, uske vichar tak ko chhoD dena hi achchha hoga. ”
ye sunkar veer arjun bol utha—“yadi hum yashasvi bharatvansh ki santan hokar bhi koi sahas ka kaam na karen, to dhikkar hai hamein aur hamare jivan ko! jis kaam ko karne ki hammen samarthya hai, bhai yudhishthir kyon samajhte hain ki use hum na kar sakenge?”
shrikrishn arjun ki in baton se mugdh ho ge. bole—“dhanya ho arjun! kunti ke laal arjun se mujhe yahi aasha thi. ”
jab jarasandh ke saath yuddh karne ka nishchay ho gaya, to shrikrishn aur panDvon ne apni yojna banai. shrikrishn, bhimasen aur arjun ne valkal pahan liye, haath mein kusha le li aur vrati logon ka sa vesh dharan karke magadh desh ke liye ravana ho ge. raah mein sundar nagron tatha ganvon ko paar karte hue ve tinon jarasandh ki rajdhani mein pahunche. jarasandh ne kulin atithi samajhkar unka baDe aadar ke saath svagat kiya. jarasandh ke svagat ka bheem aur arjun ne koi javab nahin diya. ve donon maun rahe. is par shrikrishn bole—“mere donon sathiyon ne maun vart liya hua hai, is karan abhi nahin bolenge. aadhi raat ke baad vart khulne par batachit karenge. ” jarasandh ne is baat par vishvas kar liya aur tinon mehmanon ko yagyshala mein thahrakar mahl mein chala gaya. koi bhi brahman atithi jarasandh ke yahan aata, to unki ichchha tatha suvidha ke anusar baten karna va unka satkar karna jarasandh ka niyam tha. iske anusar aadhi raat ke baad jarasandh atithiyon se milne gaya, lekin atithiyon ke rang Dhang dekhkar magadh naresh ke man mein kuch shanka hui.
raja jarasandh ne kaDakkar puchha—“sach sach batao, tum log kaun ho? brahman to nahin dikhai dete. ” is par tinon ne sahi haal bata diya aur kaha—“ham tumhare shatru hain. tumse abhi dvandv yuddh karna chahte hain. hum tinon mein se kisi ek se, jisse tumhari ichchha ho, laD sakte ho. hum sabhi iske liye taiyar hain. ”
tabhi bhimasen aur jarasandh mein kushti shuru ho gai. donon veer ek dusre ko pakaDte, marte aur uthate hue laDne lage. is prakar palbhar bhi vishram kiye baghair ve terah din aur terah raat lagatar laDte rahe. chaudahven din jarasandh thakkar zara der ko ruk gaya. par theek mauka dekhkar shrikrishn ne bheem ko ishare se samjhaya aur bhimasen ne fauran jarasandh ko uthakar charon or ghumaya aur use jamin par zor se patak diya. is prakar ajey jarasandh ka ant ho gaya.
shrikrishn aur donon panDvon ne un sab rajaon ko chhuDa liya, jinko jarasandh ne bandigrih mein Daal rakha tha aur jarasandh ke putr sahdev ko magadh ki rajagaddi par baithakar indraprastha laut aaye. iske baad panDvon ne vijay yatra ki aur sare desh ko maharaj yudhishthir ki adhinta mein le aaye.
jarasandh ke vadh ke baad panDvon ne rajasuy yagya kiya. ismen samast bharat ke raja aaye hue the. jab abhyagat nareshon ka aadar satkar karne ki bari aai to parashn utha ki agr puja kiski ho? samrat yudhishthir ne is bare mein pitamah bheeshm se salah li. vriddh bheeshm ne kaha ki dvarakadhish shrikrishn ki puja pahle ki jaye. yudhishthir ko bhi ye baat pasand aai. unhonne sahdev ko aagya di ki wo shrikrishn ka pujan kare. sahdev ne vidhivat shrikrishn ki puja ki. vasudev ka is prakar gauravanvit hona chedi naresh shishupal ko achchha nahin laga. wo ekayek uth khaDa hua aur thahaka markar hans paDa. sari sabha ki drishti jab shishupal ki or gai, to wo uunche svar mein vyangya se bolne laga—“yah anyay ki baat hai ki ek mamuli se vyakti ko is prakar gauravanvit kiya jata hai. ”
yudhishthir ko yon aaDe hathon lene ke baad shishupal sabha mein upasthit rajaon ki or dekhkar bola—“upasthit rajagan! jis duratma ne kuchakr rachkar veer jarasandh ko marva Dala, usi ki yudhishthir ne agrapuja ki. iske baad use hum dharmatma kaise kah sakte hain? unmen hamara vishvas nahin raha hai. ”
is tarah shabd banon ki bauchhar kar chukne ke baad shishupal dusre kuch rajaon ko saath lekar sabha se nikal gaya. rajadhiraj yudhishthir naraz hue rajaon ke pichhe dauDe ge aur anunay vinay karke unhen samdhane lage. yudhishtir ke bahut samjhane par bhi shishupal nahin mana. uska hath aur ghamanD baDhta gaya. ant mein shishupal shrikrishn mein yuddh chhiD gaya, jismen shishupal mara gaya. rajasuy yagya sampurn hua aur raja yudhishtir ko rajadhiraj ki padvi praapt ho gai.
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।