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शृगाल जातक

shrigal jatak

अज्ञात

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शृगाल जातक

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    प्राचीन काल में जब कि ब्रह्मदत्त वाराणसी में राज कर रहे थे, बोधिसत्व ने शृगाल योनि में जन्म लिया था और वे जंगल में एक नदी के तीर पर रहते थे। उसी नदी के किनारे एक बुड्ढा हाथी मरा हुआ पड़ा था। बोधिसत्व भोजन की चिंता में बाहर निकले। मार्ग में उन्हें वह मग हुआ हाथी दिखाई दिया। वे मन में सोचने लगे कि ठीक है, आज भोजन की यथेष्ट सामग्री मिली है। पहले उन्होंने उसका सूँड़ काटकर देखा, पर वह लकड़ी की तरह कड़ा मालूम हुआ। पश्चात् उन्होंने दाँत को काटा; किंतु उन्हें मालूम हुआ कि यह भी हड्डी ही है; इसलिए इसे काटने से भोजन का ठिकाना लगेगा। इसके उपरांत उन्होंने कान को आजमाया; पर वह भी सूप की तरह नीरस था। तब उन्होंने उस हाथी के पेट को काटकर देखा। पर वह भी कोठिले की नाई ठोस मालूम हुआ; पैर खंभे की तरह और पूँछ मूसल की तरह जान पड़ी। बोधिसत्व ने मन में सोचा कि इस तरह से काम चलेगा। अतः उन्होंने पूँछ के पास मुलायम जगह देखकर काटना शुरू किया। वहाँ पर उनको रोटी की तरह मुलायम मांस मिला। वे कहने लगे—अंत में मैंने ठीक स्थान पा लिया है। इस प्रकार बोधिसत्व मांस खाते-खाते हाथी के पेट के अदर जा पहुँचे। वहाँ पर कलेजा, अँतड़ी और मांस ख़ूब खाया और रुधिर से अपनी प्यास बुझाई। जब रात हुई और बाहर अँधेरा हो गया, तब वे वहीं सो रहे। वे पड़े-पड़े विचार करने लगे कि इस हाथी के पेट में रहना कितना सुखकर है! यहाँ निवास और भोजन दोनों का ही समुचित प्रबंध है। अतः इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र जाने की आवश्यकता ही क्या है? इस प्रकार निश्चय करके वे वहीं रहने लगे और ख़ूब भोजन करने लगे। धीरे-धीरे ग्रीष्म ऋतु का आगमन हुआ और गर्म हवा बहने लगी। जिस मार्ग से बोधिसत्व घुसे थे, वह बंद हो गया और भीतर बिल्कुल अँधेरा छा गया। इस प्रकार पृथ्वी और आकाश दोनों से पृथक् एक तीसरे स्थान में ही बोधिसत्व को रहना पड़ा। ऊपर का चमड़ा सूखने पर भीतर का मांस भी सूख गया और रुधिर भी नामशेष हो गया। वे घबराकर बाहर निकलने का मार्ग ढूँढ़ने लगे, पर उनको उस क़ैदख़ाने से निकलने का कोई मार्ग नहीं मिला। हाँड़ी में जिस प्रकार अन्न पकता है, उसी प्रकार हाथी के पेट के अंदर बोधिसत्व भी गर्मी के कारण मानों पकने लगे।

    सौभाग्यवश दो ही चार दिनों बाद ख़ूब बादल आए और यथेष्ट वर्षा हुई, जिससे हाथी का शरीर भींगकर फिर पहले की तरह फूल उठा। जो मार्ग बनाकर बोधिसत्व ने हाथी के पेट में प्रवेश किया था, अब वह मार्ग भी खुल गया और हाथी के पेट के अंदर प्रकाश पहुँचा। वह छिद्र और प्रकाश देखकर बोधिसत्व ने कहा—इतने दिनों के उपरांत अब प्राण बचने की आशा हुई। वे कुछ पीछे हटकर हाथी के मस्तक की ओर गए और वहाँ से कूदकर तुरंत बाहर निकल आए। परंतु बाहर निकलने के समय रगड़ लगने के कारण उनके शरीर के बहुत से रोएँ उखड़ गए थे।

    हाथी के पेट से निकलते ही पहले तो बोधिसत्व कुछ दूर तक दौड़े, तब रुके और अंत में बैठकर अपने रगड़ खाए हुए शरीर को देखते हुए कहने लगे—मेरी यह दुर्दशा किसी दूसरे ने नहीं की; लोभ के कारण ही मैंने इतना कष्ट पाया है। अब मैं आगे से कभी लोभ के वश में होऊँगा और कभी हाथी के शरीर में प्रवेश करूँगा। इसके उपरांत उन्होंने नीचे लिखे आशय की गाथा कही—

    हाथी के पेट में फँसकर मैंने अच्छी शिक्षा पाई! अब मैं कभी लोभ में पड़कर इस प्रकार का कष्ट उठाऊँगा।

    इस प्रकार प्रतिज्ञा करके बोधिसत्व उस स्थान से भाग गए। फिर उन्होंने कभी किसी मरे हुए हाथी की ओर दृष्टिपात नहीं किया और वे कभी लोभ के वशवर्ती हुए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 178)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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