सुखविहारि जातक
sukhavihari jatak
प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने एक औदीच्य ब्राह्मण के घर में जन्म लिया था। उन्होंने यह समझकर कि काम सदा दुःखदायी और निष्क्रमण सदा सुखदायी होता है, काम का परिहार किया और वे हिमालय की ओर चले गए। वहाँ उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली और ध्यान आदि के आठों फलों या समापत्तियों1 के अधिकारी हुए। वहाँ पाँच सौ तपस्वी उनके शिष्य भी हो गए।
एक बार वर्षा ऋतु में बोधिसत्व अपने शिष्यों को लेकर हिमालय से नीचे उतरे और नगरों तथा जनपदों में भिक्षा माँगते हुए वाराणसी पहुँचे। वहाँ उन्होंने राजा के उद्यान में अतिथि रूप में रहकर वर्षा के चार मास बिताए। वर्षा समाप्त हो जाने पर वे विदा लेने के लिए राजा के पास गए। राजा ने उनसे कहा—आप वृद्ध हुए। अब आप हिमालय जाकर क्या करेंगे। अपने शिष्यों को आश्रम में भेज दीजिए और आप यहीं सुख से निवास कीजिए। इस प्रकार राजा के अनुरोध करने पर बोधिसत्व ने अपने सबसे बड़े शिष्य से कहा—इन पाँच सौ शिष्यों की रक्षा का भार तुम्हीं पर छोड़ता हूँ। तुम इन लोगों को लेकर हिमालय चले जाओ। मैं अब यहीं रहूँगा।
बोधिसत्व का वह बड़ा शिष्य पहले राजा था। उसने राज्य का परित्याग करके प्रव्रज्या ग्रहण की थी और ध्यान, धारणा आदि के बल से वह आठों प्रकार के फलों या आपत्तियों का अधिकारी हुआ था। वह आचार्य की आज्ञा से हिमालय चला गया और वहीं रहने लगा। कुछ दिनों तक वहाँ रहने के उपरांत एक दिन आचार्य के दर्शनों के लिए उसका चित्त बहुत व्याकुल हुआ। उसने तपस्वियों से कहा—तुम लोग यहीं रहो। मैं एक बार जाकर आचार्य के चरण स्पर्श कर आऊँ। वहाँ से चलकर वह वाराणसी पहुँचा और आचार्य को प्रणाम करके पास ही पड़ी हुई एक चटाई पर सो गया। इतने में उनसे भेंट करने के लिए राजा भी वहाँ आ पहुँचा और उन्हें प्रणाम करके पास ही बैठ गया। पर राजा के आने पर भी वह तपस्वी उठकर नहीं बैठा, लेटा ही रहा और लेटे-लेटे कहता रहा—आहा, कैसा सुख मिल रहा है! आहा, कैसा सुख मिल रहा है।
राजा ने मन में सोचा कि तपस्वी मेरी अवज्ञा कर रहा है। उसने कुछ दुःखी होकर बोधिसत्व से कहा—प्रभु, जान पड़ता है कि इन तपस्वी ने बहुत अधिक भोजन कर लिया है। नहीं तो ये इस प्रकार पड़े-पड़े 'सुख-सुख' न चिल्लाते। बोधिसत्व ने उत्तर दिया—महाराज, ये तपस्वी भी पहले आपकी ही भाँति राजा थे। पर इस समय इनको जो सुख मिल रहा है, वह राजा रहने की दशा में भी इनको कभी न मिला था। प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने के कारण इस समय ये ध्यान-जन्य बिमल सुख भोग रहे और इसीलिए इनके हृदय से यह बात निकल रही है। हे राजन! जो पुरुष प्रवर सब कामनाओं से मुक्त हो जाता है उसे रक्षकों आदि की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती और वह सदा अपार सुख भोगता रहता है। कामादि से मुक्त पुरुष ही वास्तव में सुखी होता है।
बोधिसत्व से इस प्रकार का धर्मोपदेश सुनकर राजा संतुष्ट हो गया और उन दोनों को प्रणाम करके वहाँ से चला गया। तपस्वी भी आचार्य से विदा होकर हिमालय चला गया। बोधिसत्व वहीं वाराणसी में रह गए और कुछ दिनों के उपरांत शरीर त्यागकर ब्रह्मलोक को चले गए।
- पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 26)
- प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय
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