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असंपदान जातक

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अज्ञात

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    असंपदान1

    प्राचीन काल में बोधिसत्व मगध के राजा के श्रेष्ठी थे और राजगृह नगर में रहा करते थे। उनके पास अस्सी करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं, इसलिए लोग उनको शंख श्रेष्ठी कहा करते थे। उन दिनों वाराणसी में पिलिय नामक एक और श्रेष्ठी रहा करता था। उसके पास भी अस्सी करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थी। उसके साथ शंख श्रेष्ठी की बहुत मित्रता थी। एक बार पिलिय श्रेष्ठी पर बहुत भारी विपत्ति आई। उसकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। वह दरिद्र और असहाय होकर शंख श्रेष्ठी से सहायता पाने की आशा से अपनी स्त्री के साथ पैदल चलकर वाराणसी से राजगृह गया और अपने मित्र के घर पहुँचा। शंखश्रेष्ठी ने उसे देखते ही आओ भाई कहकर गले लगा लिया और उसका यथेष्ट आदर सत्कार किया। उसके कुछ दिनों तक वहाँ रहने के उपरांत शंख श्रेष्ठी ने उससे पूछा—क्यों भाई, तुम्हारा आगमन किस अभिप्राय से हुआ है? पिलिय श्रेष्ठी ने कहा—मुझ पर बड़ी भारी विपत्ति आई है। मेरा सर्वस्व नष्ट हो गया है। यदि इस समय तुम मेरी सहायता न करोगे, तो मैं किसी प्रकार न बच सकूँगा।

    शंख श्रेष्ठी ने कहा—भला मैं तुम्हारी सहायता न करूँगा! तुम निश्चिंत रहो। यह कहकर उन्होंने अपना भांडार खोल दिया और उसमें से पिलिय श्रेष्ठी को चालीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दे दी। इसके उपरांत उन्होंने अपनी स्थावर और जंगम संपत्ति, दास, दासियों आदि सभी पदार्थों के दो समान विभाग किए और उनमें से एक भाग पिलिय को दे दिया। पिलिय श्रेष्ठी वह विपुल वैभव लेकर वाराणसी चला गया और वहीं निवास करने लगा।

    इसके उपरांत शंख श्रेष्ठी पर भी एक बार उसी प्रकार की विपत्ति आई। वे उस संकट से उद्धार पाने का उपाय सोच रहे थे। इतने में उनको स्मरण आया कि मैंने एक बार अपने एक मित्र के साथ बहुत उपकार किया था। मैंने अपने सारे वैभव का आधा उसे दे दिया था। यदि में उसके पास जाऊँगा, तो वह कभी मुझे विमुख न फेरेगा। मुझे उसी के पास चलना चाहिए। यह निश्चय करके वे अपनी स्त्री के साथ पैदल ही चलकर राजगृह से वाराणसी पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने अपनी स्त्री से कहा—यदि तुम राजपथ पर मेरे साथ पैदल चलोगी, तो वह देखने में ठीक न होगा। अतः मैं पहले जाता हूँ और वहाँ पहुँचकर तुम्हारे लिए कोई यान भेजता हूँ। तुम उसी यान पर बैठकर अनुचरों आदि के साथ नगर में प्रवेश करना। जब तक मैं यान न भेजूँ, तब तक तुम यहीं बैठी रहो। यह कहकर उन्होंने अपनी स्त्री को एक धर्मशाला में ठहरा दिया और स्वयं अकेले नगर में प्रवेश करके पिलिय के घर पहुँचे। बाहर से उन्होंने पिलिय के पास समाचार भेजा—राजगृह से आपके मित्र शंख श्रेष्ठी आए हैं।

    पिलिय ने उनको अपने पास बुलवा भेजा। किंतु आने पर उनकी अवस्था देखकर वह अपने आसन पर से नहीं उठा, न अभ्यर्थना की। केवल बैठे-बैठे इतना पूछा—आप कैसे आए? शंख श्रेष्ठी ने उत्तर दिया—केवल आपके दर्शनों के लिए। पिलिय ने पूछा—आप ठहरे कहाँ हैं? कहा—अभी तक तो ठहरने के लिए कोई स्थान निश्चित नहीं किया है। मैं अपनी स्री को धर्मशाला में ठहराकर सीधा यहाँ चला आया हूँ। पिलिय ने कहा—यहाँ तो आपको ठहरने में कष्ट होगा। आप और कहीं जाकर अपने ठहरने की व्यवस्था कर लीजिए। वहीं भोजन बनाइएगा और खाइएगा; और तब जहाँ इच्छा हो, वहाँ चले जाइएगा और अब कभी मुझसे भेंट मत कीजिएगा। इतना कह‌कर उसने एक सेवक को आज्ञा दी—इन्हें एक आढ़क2 भूसा दे दो। उसी दिन पिलिय के यहाँ एक हज़ार गाड़ियों में भरकर बढ़िया अनाज आया था। उस दुष्ट ने यह नहीं सोचा कि मैंने जिनसे चालीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ पाई हैं, उनको में केवल एक आढ़क भूसा दिलवाता है।

    पिलिय के नौकर ने एक आढ़क भूसा तौलकर और एक दौरी में भरकर बोधिसत्व के सामने ला रखा। बोधिसत्व सोचने लगे कि इस पापी ने मुझसे चालीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ पाई हैं और अब यह मुझे केवल एक आढ़क भूसा देता है। मैं यह भूसा लूँ या न लूँ। फिर उन्होंने सोचा कि यह अकृतज्ञ और मित्रद्रोही समझता है कि मेरा सर्वस्व नष्ट हो गया है और इसीलिए इसने पुरानी मित्रता और मेरा उपकार सब कुछ भुला दिया है। पर यदि मैं इसका यह एक आढ़क भूसा न लूँगा, तो यह कहा जाएगा कि मैंने भी मित्रता का संबंध तोड़ दिया। जो लोग मूढ़ और नीच होते हैं, वही मित्र से मिलती हुई वस्तु को अल्प और तुच्छ समझकर छोड़ देते हैं और इसी प्रकार मित्रता का नाश हो जाता है। इसलिए मुझे यह भूसा ही लेना चाहिए और इस प्रकार जहाँ तक हो सके, मित्र धर्म की रक्षा करनी चाहिए। यह सोचकर उन्होंने वह भूसा अपने पल्ले में बाँध लिया और धर्मशाला की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचने पर उनकी स्त्री ने पूछा—अपने मित्र से आपको क्या मिला? बोधिसत्व ने कहा—मेरे मित्र पिलिय श्रेष्ठी ने एक आढ़क भूसा देकर आज ही मुझे विदा कर दिया। स्त्री ने पूछा—आपने यह भूसा लिया ही क्यों? क्या चालीस करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का यही प्रतिदान है! यह कहकर वह रोने लगी।

    बोधिसत्व ने कहा—तुम रोओ मत। मैंने यह भूसा इसी लिए ले लिया, जिससे मेरी और उसकी मित्रता बनी रहे, टूट न जाए। तुम व्यर्थ दुःख मत करो। इसके उपरांत उन्होंने नीचे लिखे आशय की गाथा कही—

    मित्र की दी हुई वस्तु यदि तुच्छ भी हो, तो ले लेनी चाहिए। जो व्यक्ति मित्र की दी हुई चीज़ नहीं लेता, वह मित्रता का बंधन तोड़ता है। मेरे मित्र ने मुझे थोड़ा सा भूसा ही दिया, पर मैंने उसका मान रखने के लिए प्रसन्न होकर वह भी ले लिया। क्या कभी कोई मित्रता का भी नाश करता है? अवस्था चिरस्थायी नहीं होती सदा बदलती रहती है; पर मित्रता स्थायी होती है। पर यह गाथा सुनने पर भी उनकी स्त्री रोती ही रही। 

    शंख श्रेष्ठी ने पिलिय को जो दास दिए थे, उनमें से एक कृषक भी था। वह उस धर्मशाला के पास से होकर कहीं जा रहा था। बोधिसत्व की स्त्री के रोने का शब्द सुनकर वह अंदर चला आया और अपने पुराने स्वामी तथा उनकी स्त्री को देखकर उनके पैरों पर गिर पड़ा और रोता हुआ पूछने लगा—आप लोग यहाँ कैसे आए? बोधिसत्व ने अपना सारा समाचार उससे कह सुनाया। इस पर उस दास ने कहा—प्रभु, कोई चिंता की बात नहीं है। जो कुछ होना था, वह हो गया। इसके उपरांत वह उन लोगों को अपने घर ले गया। वहाँ उसने उन्हें सुगंधित जल में स्नान कराया और अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थ उनके आगे रखे। इसके उपरांत उसने दूसरे दासों से कहा—मेरे पुराने प्रभु यहाँ आए हैं। इसके कुछ दिनों के उपरांत वह अपने साथ बहुत से दासों को लेकर राजप्रासाद के आँगन में पहुँचा और वहाँ दुहाई महाराज की, दुहाई महाराज की। कह-कह‌ कर चिल्लाने लगा। राजा ने उन सब लोगों को बुलाकर पूछा कि क्या बात है। उन लोगों ने सब बातें कह सुनाई। उनकी बात सुनकर राजा ने दोनों श्रेष्ठियों को अपने सामने बुलवाया और शंख श्रेष्ठी से पूछा—क्या तुमने पिलिय को सचमुच चालीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दी थी? उन्होंने उत्तर दिया—महाराज, जिस समय मेरे मित्र विपद्गस्त होकर राजगृह में मेरे पास पहुँचे थे, उस समय मैंने उन्हें केवल चालीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ ही नहीं दी थी, बल्कि अपनी सारी स्थावर और जंगम संपत्ति, यहाँ तक कि दास दासियों के भी दो समान विभाग करके उनमें से एक भाग इनको दे दिया था। राजा ने पिलिय से पूछा—क्यों जी, यह बात ठीक है? पिलिय ने उत्तर दिया—हाँ महाराज, ठीक है। राजा ने पूछा—अच्छा, जब ये विपत्ति में पड़कर सहायता पाने की आशा से तुम्हारे पास आए, तब तुमने इनका उपयुक्त आदर सत्कार किया था? इसपर पिलिय चुप रहा; उसने कोई उत्तर न दिया। राजा ने फिर पूछा—तुमने इनको केवल एक आढ़क भूसा देकर विदा कर दिया था? पिलिय ने फिर भी कोई उत्तर न दिया। इसके उपरांत राजा ने यह निर्णय करने के लिए कि अब क्या करना चाहिए, अपने अमात्यों के साथ मंत्रणा की और पिलिय को दंड देने के लिए सेवकों को आज्ञा दी तुम लोग पिलिय के घर जाकर उसकी सारी संपत्ति ले लो और शंख श्रेष्ठी को दे दो।

    राजा की यह आज्ञा सुनकर बोधिसत्व कहने लगे—महाराज, मैं पराया धन नहीं चाहता। मैंने इनको जो कुछ दिया है, आप वही मुझे वापस दिलाने की आज्ञा दीजिए। उस समय राजा ने आज्ञा दी बोधिसत्व ने पिलिय को जो कुछ दिया है, वह सब उनको लौटा दिया जाए। बोधिसत्व ने पहले पिलिय को जो कुछ धन दिया था, वह सब लेकर वे राजगृह लौट आए और वहाँ पहुँचकर उन्होंने अपनी संपत्ति की फिर से सुव्यवस्था की। इसके उपरांत वे दान आदि सत्कर्म करते हुए यथा समय अपने कर्मों के अनुरूप फल भोगने के लिए इहलोक त्यागकर दूसरे लोक में चले गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 157)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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