नासिक खरग देउँ केहि जोगू। खरग खीन ओहि बदन सँजोगू॥
नासिक देखि लजानेउ सुआ। सूक आइ बेसरि होइ उआ॥
सुआ सो पिअर हिरामनि लाजा। औरु भाउ का बरनौं राजा॥
सुआ सो नाँक कठोर पँवारी। वह कोंवलि तिल पुहुप सँवारी॥
पुहुप सुगंध करहिं सब आसा। मकु हिरगाइ लेइ हम बासा॥
अधर दसन पर नासिक सोभा। दारिवँ देखि सुआ मन लोभा॥
खंजन दुहुँ दिसि केलि कराहीं। दहुँ वह रस को पाव को नाहीं॥
देखि अमिअ रस अधरन्हि भएउ नासिका कीर।
पवन बास पहुँचावै अस रम छाँड़ न तीर॥
नासिका की खड्ग से क्या बराबरी करूँ? उसके मुख की तुलना में हीन उतरने के दुःख से ही तलवार कृश रहती है। नासिका को देखकर सुग्गा लजित हुआ। स्वयं शुक्र उसकी नाक का बेसर बनकर प्रकाशित है। मैं जो हीरामन सुग्गा हूँ, उसी नासिका से लजाकर पीला हूँ। हे राजा, औरों की दशा का क्या वर्णन करूँ? सुग्गे की नाक लुहार की सुम्मी की भाँति कठोर होती है, पर उसकी नाक कोमल है, मानो तिल फूल की कली से बनाई गई है। जितने सुगंधित पुष्प हैं, सब यही आशा करते हैं कि शायद किसी दिन वह हमें पास में लेकर हमारी बास सूँघ ले। अधर और दाँतों के ऊपर नासिका की शोभा ऐसी लगती है मानो खिला हुआ अनार देखकर सुग्गा मन में लुभाकर वहाँ बैठा है। उस नासिका के दोनों ओर नेत्र रूपी दो खंजन क्रीड़ा करते हैं। न जाने वह रस कौन पाएगा, कौन नहीं।
अधरों का अमृत रस देखकर उसे पाने के लिए मानो सुग्गा नासिका बना बैठा है। अधर के अमृत रस की सुगंध नासिका में जाने वाली साँस के साथ उस सुग्गे के तक पहुँचती है, इसलिए वह सुग्गा ऐसा रम गया है कि उसके समीप से नहीं हटता।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 102)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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