अज्ञात प्रेम-गृह में है
नव-वधू पदार्पण करती।
है एक अपरिचित जन को
जीवन-धन अर्पण करती।
अनजाने हाथों में है
निज भाग्य धरोहर धरनी।
जा रही अकेली ही है—
क्या है वह तनिक न डरती?
निज देश छोड़ सागर से
जाती है सरिता मिलने।
मृदु गोद लता की तज कर
नव-कली चली है खिलने।
रमणियों और मणियों को
तकदीर एक-सी मिलती।
वे कहाँ जन्म लेती हैं
है कहाँ पहुँचकर खिलती?
है गई अंक से छीनी
वह दुखी जनक-जननी के
करुणा से आर्द्र नयन हैं
उस दिवस और रजनी के।
है लदी शोक से आई।
लेकर आँसू नयनों में।
थी खेली किन सदनों में,
है पहुँची किन सदनों में?
मृदु नवल लता ऊजड़ कर
निज सुखद जन्म-कानन को।
सुरभित करने आई है,
प्रिय सुंदर नंदन वन को।
आनन-सरोज विकसित है
दृग-सरसिज में है पानी।
शृंगार तथा करुणा की
है मूर्त्ति सुधा-रस-सानी।
शशि-प्रथम-कला क्रीड़ा कर
कुछ काल गगन-आँगन में।
आई प्रकाश है भरने
सुरपति के सौख्य-सदन में।
बिधु की वह आदि-कला है
छबि-रेखा-सी मन भाई।
पर और कलाएँ भी है।
लघु तन के मध्य समाई।
शृंगार छिपा है उर में
करुणा है भरी नयन में।
है शौक भरा मृदु मन में
लावण्य-लोक है तन में।
सुध स्नेहमूर्ति माता की
है बारंबार रुलाती।
पर नई प्रीति आकर है,
सांतवना उसे दे जाती।
है छूट गया गुड़ियों का
खेलना सरल सुखदायी।
अब नये खेल की बारी
उसके जीवन में आई।
निज जीवन-आभरणों को,
है स्वयं उसी को गढ़ना।
इन नई पाठशाला में
है पाठ प्रेम का पढ़ना।
अब बालपने की सारी।
बातें हो गईं पुरानी।
युग हृदय लिखेंगे मिलकर
जीवन की नई कहानी।
अविरल दृग-जल से सिंच कर
मृदु हृदय-कली है खिलती।
करुणा की सरिता बहकर
है प्रेम-सिंधु में मिलती।
जीवन-प्रभात में ऊषा
दुलहिन बनकर है आई।
है छिपा प्रकाश अपरिमित
उसमें सुंदर सुखदायी।
सुख-सूर्य उदय होगा ही,
अरुणोदय है जीवन का।
विकसित होने वाला है
आनन-सरोज यौवन का।
है लुप्त कौन अभिलाषा,
उसके अति कोमल मन में?
कुछ भेद अवश्य छिपा है
नव लाज-भरी चितवन में।
शरमीली छुईमुई सी
नन्ही नादान अजानी।
आई है बनने के हित
उर-रुचिर-राज्य की रानी।
है हृदय पर करना
शासन क्या-क्या साधन हैं?
शुचि प्रेम भव्य भोलापन,
अमृतोपम मधुर वचन हैं।
मंत्री बस सदय हृदय है
उपमंत्री कोमल मन है।
शुचि सत्य शील ही बल है,
धन केवल जीवन-धन है।
- पुस्तक : मानवी (पृष्ठ 6)
- रचनाकार : गोपालशरण सिंह
- प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
- संस्करण : 1938
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