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ग्राम

gram

गोपालशरण सिंह

और अधिकगोपालशरण सिंह

    ग्राम-सुंदरी की गोदी में,

    खेल रहा तू शिशु-सा कौन?

    कोलाहलमय जग को हरदम,

    चकित देखता है तू मौन।

    जग के भोलेपन का प्रतिनिधि,

    सहज सरलता का आख्यान;

    विमल स्त्रोत मानल-जीवन का,

    तू है विधि का करुण-विधान।

    भव्य-भाव-भंडार अलौकिक,

    सत्यशीलता का आगार;

    पारावार प्रेम का तू है,

    दुःख-दीनता का आधार।

    छिपा मही मृदु अंचल में,

    जग का मूर्त्तिमान अनुराग;

    तुझसे ही सीखता जगत है,

    औरों के हित करना त्याग।

    भोली ललनाओं से लालित,

    विश्व-पुष्ष का पुण्य-पराग;

    कृषकों के श्रम-जल से सिंचित,

    जग का छोटा-सा है बाग़।

    लघु होकर भी तू विशाल है,

    है छू गया तुझे गरूर;

    जग-सर का पंकज है, पर तू

    मलिन पंक से रहता दूर।

    होकर भी असभ्य तू ही है

    विश्व-सभ्यता का आधार;

    स्वावलम्ब की समुचित शिक्षा,

    पाता तुझसे है संसार।

    होता है अंकुरित सर्वदा,

    खेतों में ही तेरा ज्ञान;

    भू-शय्या पर तू करता है

    शीतल सोम-सुधा-रस-पान।

    सरल बालकों का क्रीड़ा-स्थल,

    जगती के कृषकों का प्राण;

    करता है इस विपुल विश्व का,

    तू ही सदा क्षुधा से त्राण।

    ईश्वर से डरता है हरदम,

    होकर भी तू सच्चा शूर;

    दीन-हीन है, तो भी रहता

    है तू लोभ-क्षोभ से दूर।

    मानवता का प्रेम-निकेतन,

    आदि सभ्यता का इतिहास;

    भ्रातृ-भाव, समता, क्षमता का,

    तू है अवनी में अधिवास।

    छिपा व्योम में लघु तारा-सा,

    तू है अपने ही में लोन;

    लोल-लोल लहरों से लोलित,

    विश्व-वारिनिधि का है मीन।

    भोली चितवन से तू जग को,

    सदा देखता है अविकार;

    सबके लिए खुला रहता है,

    सन्तत मेरे उर का द्वारा।

    दया क्षमा ममता आदिक हैं,

    तेरे रत्नों के भांडार;

    है निर्मल जल, शुद्ध वायु ही

    तेरे जीवन के उपहार।

    छल से रहता दूर किंतु तू,

    बल-पौरुष में है भरपूर;

    तेरे जीवन-धन हैं जग में,

    बस किसान एवं मज़दूर।

    कोयल तुझे सुना जाती है,

    मधुमय ऋतुपति का सन्देश;

    खेतों में पौधे उग-उग कर,

    देत हैं तुझको उपदेश।

    जग को जगमग करनेवाला,

    है तुझमें प्रकाश महान;

    पर मिट्टी के ही दीपक से,

    रहता है तू ज्योतिष्मान।

    सह सकता है कभी नहीं तू,

    बाह्म जगत की तीव्र बयार;

    तुझे प्राण-सम प्रिय है हरदम,

    निज भोला-भाला संसार।

    काँटे चुभते ही रहते हैं,

    उड़ती रहती तुझ पर धूल;

    तो भी तू मलिन होता है,

    विश्व-वाटिका का मृदु फूल।

    रख कर सबसे निपट निराला,

    जगतीतल में निज व्यक्तित्व;

    करता है तू सफल सर्वदा,

    अपना छोटा-सा अस्तित्व।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संचिता (पृष्ठ 3)
    • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1939

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