ग्राम-सुंदरी की गोदी में,
खेल रहा तू शिशु-सा कौन?
कोलाहलमय जग को हरदम,
चकित देखता है तू मौन।
जग के भोलेपन का प्रतिनिधि,
सहज सरलता का आख्यान;
विमल स्त्रोत मानल-जीवन का,
तू है विधि का करुण-विधान।
भव्य-भाव-भंडार अलौकिक,
सत्यशीलता का आगार;
पारावार प्रेम का तू है,
दुःख-दीनता का आधार।
छिपा मही क मृदु अंचल में,
जग का मूर्त्तिमान अनुराग;
तुझसे ही सीखता जगत है,
औरों के हित करना त्याग।
भोली ललनाओं से लालित,
विश्व-पुष्ष का पुण्य-पराग;
कृषकों के श्रम-जल से सिंचित,
जग का छोटा-सा है बाग़।
लघु होकर भी तू विशाल है,
है छू गया न तुझे गरूर;
जग-सर का पंकज है, पर तू
मलिन पंक से रहता दूर।
होकर भी असभ्य तू ही है
विश्व-सभ्यता का आधार;
स्वावलम्ब की समुचित शिक्षा,
पाता तुझसे है संसार।
होता है अंकुरित सर्वदा,
खेतों में ही तेरा ज्ञान;
भू-शय्या पर तू करता है
शीतल सोम-सुधा-रस-पान।
सरल बालकों का क्रीड़ा-स्थल,
जगती के कृषकों का प्राण;
करता है इस विपुल विश्व का,
तू ही सदा क्षुधा से त्राण।
ईश्वर से डरता है हरदम,
होकर भी तू सच्चा शूर;
दीन-हीन है, तो भी रहता
है तू लोभ-क्षोभ से दूर।
मानवता का प्रेम-निकेतन,
आदि सभ्यता का इतिहास;
भ्रातृ-भाव, समता, क्षमता का,
तू है अवनी में अधिवास।
छिपा व्योम में लघु तारा-सा,
तू है अपने ही में लोन;
लोल-लोल लहरों से लोलित,
विश्व-वारिनिधि का है मीन।
भोली चितवन से तू जग को,
सदा देखता है अविकार;
सबके लिए खुला रहता है,
सन्तत मेरे उर का द्वारा।
दया क्षमा ममता आदिक हैं,
तेरे रत्नों के भांडार;
है निर्मल जल, शुद्ध वायु ही
तेरे जीवन के उपहार।
छल से रहता दूर किंतु तू,
बल-पौरुष में है भरपूर;
तेरे जीवन-धन हैं जग में,
बस किसान एवं मज़दूर।
कोयल तुझे सुना जाती है,
मधुमय ऋतुपति का सन्देश;
खेतों में पौधे उग-उग कर,
देत हैं तुझको उपदेश।
जग को जगमग करनेवाला,
है तुझमें न प्रकाश महान;
पर मिट्टी के ही दीपक से,
रहता है तू ज्योतिष्मान।
सह सकता है कभी नहीं तू,
बाह्म जगत की तीव्र बयार;
तुझे प्राण-सम प्रिय है हरदम,
निज भोला-भाला संसार।
काँटे चुभते ही रहते हैं,
उड़ती रहती तुझ पर धूल;
तो भी तू न मलिन होता है,
विश्व-वाटिका का मृदु फूल।
रख कर सबसे निपट निराला,
जगतीतल में निज व्यक्तित्व;
करता है तू सफल सर्वदा,
अपना छोटा-सा अस्तित्व।
- पुस्तक : संचिता (पृष्ठ 3)
- रचनाकार : गोपालशरण सिंह
- प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
- संस्करण : 1939
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