Font by Mehr Nastaliq Web

भारतीय संतों की साधना

bharatiy santon ki sadhana

कन्हैयालाल सहल

कन्हैयालाल सहल

भारतीय संतों की साधना

कन्हैयालाल सहल

और अधिककन्हैयालाल सहल

    रोचक तथ्य

    बिड़ला कॉलेज पिलानी में दिए गए आचार्य श्री क्षितिमोहन सेन के एक भाषण के आधार पर

    आज कहा जाता है कि विज्ञान गतिशील है और धर्म स्थितिशील है, किंतु कबीर का धर्म स्थितिशील नहीं था। वे पुरोगामी थे। भगवान् बुद्ध आदि ने संस्कृत को छोड़कर लोक-प्रचलित भाषा में उपदेश दिया था। कबीर ने भी इस तत्त्व को भली-भाँति समझा था। “संस्कृत कूप जल कबीरा, भाषा बहता नीर” कहकर कबीर ने इसी तथ्य को प्रकट किया है। गुरुदेव ने इस पंक्ति को सुनकर कहा था—बड़ी चमत्कारपूर्ण उक्ति है। भारतीय सतों ने सब प्रकार की संकीर्णता को दूर कर मानव के महत्व की प्रतिपादित किया है—कठोपनिषद् में कहा गया है “महत: परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष: पर: पुरुषान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परागति:।”

    कबीर ने भी ‘या घट भीतर सात समंदर या घट नौ लख तारा’ कह कर मानव के महत्त्व का उद्घोष किया है। कबीर ही क्यों, रज्जब, दादू, चंडीदास आदि अन्य भारतीय संतों और कवियों ने भी मानव के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। उत्तरी भारत में लोकवाणी के माध्यम द्वारा सच्चे अर्थ में कबीर ने ही भक्ति का प्रतिपादन किया—

    “भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लाए रामानंद।

    परगट करी कबीर ने सप्त द्वीप नवखंड॥“

    पद्मपुराण में भी भक्ति के मुख से कहलवाया गया है—

    ‘उत्पन्ना द्राविड़े चाहं, कर्णाटे वृद्धिमागत स्थिता किंचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्ण तां गता।“ द्वैत और अद्वैत को लेकर युग युगांतर से भारत में शास्त्रार्थ होता रहा है और इसका क्या कभी अंत होने वाला है? बड़े-बड़े तत्वज्ञानी इस प्रकार के जटिल प्रश्नों की मीमांसा करते-करते हार गए, किंतु देखने की बात है कि इस प्रकार की समस्याओं को भी कबीर किस सहज भाव से सुलझा दिया करते थे। काशी के पंडितों ने कबीर से एक बार प्रश्न किया—वह द्वैत है या अद्वैत? सीधे ढंग से कबीर ने उत्तर दिया—यदि उसके रूप, गुण कुछ भी नहीं तो उसकी संख्या भी नहीं! वह एक दो कुछ भी नहीं! उत्तर कितना सरल और कितना विस्मयोत्पादक!

    “आगे बहुत विचार भो, रूप अस्प ताहि।

    बहुत ध्यान करि देखिया, नहि ताहि संख्या आहि।

    लोगों ने पूछा—ईश्वर भीतर है या बाहर! और देखिये कबीर का उत्तर—

    ऐसा लो नहीं तैसा लो, मैं केहि विधि-कथौं गंभीरा लो।

    भीतर कहूँ तो जगमय लाजे, बाहर कहूँ तो झूठा लो।

    वह ऐसा भी नहीं, वैसा भी नहीं। इस गंभीर रहस्य को कहूँ भी कैसे? यदि कहूँ कि वह भीतर है तो यह बहिर्जगत लज्जा के मारे मर जायगा और यदि कहूँ कि वह बाहर है तो कितनी झूठी बात होगी यह!

    ईश्वर के नाम पर अनेक झंझट उठते हैं, जगड्वाल खड़े किए जाते हैं, किंतु संत इस विषय में भी अधिक सचेष्ट हैं। दादू ने तो कहा भी ‘सुंदरी कबहू कंत को मुख सों नाम लेय।‘ ले भी कैसे? वह तो अपने पति से अपने को एकाकार समझती है। कोई अपने आपको ही दूसरे नाम से कैसे पुकारे? कबीर ने भी कहा है मेरे बाहर भी वही, भीतर भी वही। उसका नाम कैसे लूँ? नाम लेने का अर्थ तो यह होगा, मैं उससे भिन्न हूँ।

    जल भर कुंभ जले बिच धरिया, बाहर भीतर सोई।

    उनका नाम कहन को नाहीं, दूजा धोखा होई॥

    कबीर से किसी ने पूछा—भगवान को कहाँ ढूँढ़ें? कबीर ने उत्तर दिया—यह तो प्रश्न ही अनर्गल है, इसका क्या उत्तर दूँ? वह सब जगह है। ढूँढ़ा तो वह जाए जो कहीं हो और देखिए कैसा हँसाने वाला और साथ ही कितना गंभीर उत्तर कबीर ने दिया है—

    ‘जल बिच मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।‘

    कबीर ने बड़ी चमत्कार भरी बातें बड़े सीधे-सादे ढंग से कही है। पंडित लोग तर्क और शास्त्रार्थ में उलझे रहते हैं, दूसरों को प्रकाश देने का दंभ भरते हैं किंतु स्वयं रहते है अँधेरे में ही—

    पंडित और मसालची, दोनों देखे नाहिं।

    औरन को करें चाँदना, आप अँधेरे माहिं॥

    कोरी बुद्धि से मिलन नहीं होता, हृदय का योग अपेक्षित है। ईंट-ईंट परस्पर नहीं मिलती, गारे की सहायता से मिल जाती है। साक्षर तर्क-जाल में ही उलझे रहते हैं, परस्पर मिलने नहीं पाते। दादू कहते हैं—

    “खंड-खंड करि ब्रह्म को, पखि-पखि लीया बांटि।

    दादू पूरण ब्रह्म तजि, बंधे भरम की गांठि॥”

    रवींद्र के निम्न लिखित पद्य और दादू के उक्त दोहे में कितना साम्य है!

    “ये एक तरनी लक्ष लोकेर निर्भर खंड-खंड करि तारे तरिबं सागर?”

    एक नौका से अनेक मनुष्य समुद्र पार कर लेते हैं किंतु सब यात्री नौका के टुकड़े-टुकड़े करके अपना-अपना हिस्सा बाँटने का दुराग्रह करने लगे तो समुद्र में डूब जाना ही उसका अवश्यम्भावी परिणाम होगा। अनेक सम्प्रदायों और मतमतांतरों ने ब्रह्म के टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं और अपने-अपने विनाश का मार्ग प्रस्तुत कर लिया है। धर्म और भगवान् को लेकर कितना संघर्ष खड़ा किया गया और भारतीय संतों ने ब्रह्म की अखंडता पर जोर देकर उस संघर्ष को दूर करने का यथाशक्ति प्रयन किया।

    धर्म का सच्चा रूप वास्तव में विनाशकारी नहीं होता, धर्म तो निश्चय ही समाज को ऊँचा उठाने वाला होता है। किंतु बहुत से धर्मानुयायी धर्म के नाम पर अनर्थ करते देखे जाते हैं। रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि यदि विभिन्न धर्मों के प्रवर्तक एक स्थान पर इकट्ठे हो सकते तो उनमें किसी मौलिक मनभेद की गुँजायश ही नहीं रहती।

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए