हिंदी साहित्य जगत का सिंहावलोकन
hindi sahity jagat ka sinhawlokan
गणेश शंकर विद्यार्थी
Ganesh Shankar Vidhayrthi
हिंदी साहित्य जगत का सिंहावलोकन
hindi sahity jagat ka sinhawlokan
Ganesh Shankar Vidhayrthi
गणेश शंकर विद्यार्थी
और अधिकगणेश शंकर विद्यार्थी
आज से उन्नीस वर्ष पहले, जब कि हिंदी साहित्य सम्मेलन का जन्म नहीं हुआ था, और उसके जन्म के पश्चात् भी कई वर्षों तर अपनी मातृ-भाषा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए, हमें पग-पग पर न केवल संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, सौराष्ट्री की छान-बीन करते हुए शब्द-विज्ञान और भाषा-विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ा करती थी कि हिंदी भाषा संस्कृत या प्राकृत की बड़ी कन्या है, किंतु, बहुआ बात यहीं तक पहुँच जाया करती थी और यह भी सिद्ध करना पड़ता था कि नानक और कबीर सूर और तुलसी की भाषा का, बादशाह शाहजहाँ के समय जन्म लेनेवाली उर्दू बोली के पहले कोई अलग गद्य रूप भी था।
जिस भाषा में पद्य की रचना और पद देश के कोने कोने में उन असंख्यों नर-नारियों के कंठों से आज कई शताब्दियों से प्रतिध्वनित हो रहे हैं, जिनकी मातृ-भाषा हिंदी नहीं है, हिंदी के फ़ारसी-मिश्रित रूप उर्दू ने भी एक विशेष दिशा में एक बहुत बड़ा काम किया था। देश भर जहाँ भी मुसलमान बसते हैं, वहीं की भाषा चाहे कोई भी क्यों न हो, वे उर्दू के रूप में हिंदी समझते हैं, और हिंदी बोलते हैं। अँग्रेज़ी शासनकाल में फ़ारसी के स्थान पर आसीन होने पर उर्दू हिंदी मार्ग में किसी अंश में कुछ बाधा डालने वाली अवश्य सिद्ध हुई, किंतु अब यह ऐसी कदापि नहीं है, और उसका जन्म हिंदी के विरोध के लिए नहीं, हिंदी की वृद्धि के लिए हुआ। मेरी धारणा तो यहाँ उर्दू के रूप में मुसलमान भारतीयों ने हिंदी की और भारतवर्ष की अर्चना की। उर्दू वह वाणी-पुष्प है जिसे मुसलमानों ने इस देश के हो जाने के परचात्, भक्ति-भाव से माता का अरदास करते हुए उसके में चढ़ाया। आज नहीं, जब यह राष्ट्रपूर्ण राष्ट्र हो जाने के योग्य होगा, जब संसार के अन्य बड़े राष्ट्रों के समकक्ष खड़े होने में वह समर्थ होगा, उस समय, राष्ट्र-भाषा के निर्माण में उर्दू और उसके द्वारा देश की जो सेवा मुसलमान भारतीयों से बन पड़ी, उसका वर्णन इतिहास में स्वर्णाकिंत अक्षरों में होगा।
स्वामी दयानन्द, आर्य समाज और गुरुकुलों ने हिंदी को राष्ट्र-भाषा बनाने में बड़ा काम किया। राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों से राष्ट्र-भाषा के आंदोलन को बहुत बल मिला। सुदूर प्रांतों तक में राष्ट्र-भाषा और राष्ट्र-लिपि की आवश्यकता अनुभव होने लगी। कृष्णस्वामी अय्यर, जस्टिस शारदाचरण मित्र, महाराज सयाजीराव गायकवाड़, जस्टिस आशुतोष मुकरजी आदि ने आज से बहुत पहले इस दिशा में बहुत उद्योग किया था। अन्य भाषा-भाषियों ने देश-भक्ति और राष्ट्र-निर्माण के विचार से हिंदी को अपनाना आरंभ किया। मराठी और गुजराती की साहित्य-परिषदों ने हिंदी को राष्ट्र-भाषा स्वीकार किया। गांधी के इस प्रश्न के अपने हाथ में ले लेने के पश्चात् तो राष्ट्र-भाषा हिंदी का प्रचार विधिवत अन्य प्रांतों में होने लगा, और दक्षिण में, जहाँ सब से अधिक कठिनाई थी, बहुत संतोषजनक काम हुआ है। राष्ट्रीय महासभा कांग्रेस ने भी हिंदी को राष्ट्र-भाषा स्वीकार कर लिया है, और अब देश के विविध भागों से आये हुए उसके प्रतिनिधि उसका अधिकांश कार्य हिंदी में करते हैं। राष्ट्र-भाषा के रूप में हिंदी का स्थान निर्विवादरूपेण सुरक्षित है। उर्दूवालों को पहले चाहे जो आपत्ति रही हो, किंतु अब वे भी इसे मानने लगे हैं कि उर्दू ही का फ़ारसी-मिश्रित रूप है, और डा. अंसारी और मो. जफरवली ऐसे मुसलमान नेता तक हिंदी को राष्ट्रभाषा के नाम से पुकारना आवश्यक और गौरव की बात समझते हैं। इस द्रुत गति से, बहुत ही थोड़े समय में, हिंदी का इस स्थान को प्राप्त कर लेना देश में नये जीवन के उदय का विशेष चिह्न है।
राष्ट्रभाषा का काम अभी तक केवल भारत ही में हुआ है, वृहत्तर भारत और गुण, उनका गद्य साहित्य स्वयं नया है, इसलिए नये साहित्य-सेवी अपने नये विषयों के प्रतिपादन में सिद्ध-हस्त नहीं हैं, और अपने उद्योग से वे अपने तक न कोई विशेष स्थायी साहित्य ही रच सके, और न कोई ऐसी लाइन खींच सके कि उस पर चलकर औरों के लिए उद्देश्य-सिद्धि का मार्ग मिले।
अस्थिरता का समय है यह, या यों कहिए कि हम एक अस्थाई युग के बीच में से होकर गुज़र रहे हैं, और यद्यपि इस समय हमारे नये साधनों कच्चापन है, किंतु आगे चलकर, कुछ ही समय पश्चात हमारे साहित्य-क्षेत्र में, सिद्धहस्त लेखक और विशेषज्ञ सामने आ जाएँगे, और हमारे साहित्य उद्यान के चारों ओर जो घास-फूस इकट्ठा हो जाएगा उसे चतुर और सहृदय समालोचक—ऐसे समालोचक, जो केवल शब्दों और व्याकरण के नियमों ही को न पकड़ेंगे, किंतु जो तत्वदर्शी के समान लेखक और विषय की आत्मा में प्रवेश करके, उनके अंतर्भावों का विश्लेषण भी करेंगे—अलग करके उद्यान को सदा दर्शनीय और विचारणीय बनाये रखेंगे।
हिंदी में नाटकों की कमी है। दृश्य-साहित्य समाज के जीवन पर बहुत प्रभाव डाल सकता है। उसकी ओर वर्तमान लेखकों की उदासीनता का क्या कारण है? ऐतिहासिक वार्ताओं पर नाटक की रचना के लिए तत्कालीन समाज और ऐतिहासिक वातावरण के पूर्ण अध्ययन की बड़ी आवश्यकता है। वर्तमान सामाजिक जीवन पर नाटक की रचना के लिए यह अनिवार्य है कि उसके आधार के सामाजिक जीवन का अत्यंत निकट से पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त किया जाए। जिनमें इतनी अध्यवसायशीलता हो, और साथ ही हो मनोविज्ञान का अनुभव, वे नाटक और साथ ही उपन्यास लिखने में सफल हो सकते हैं।
देश-भक्ति के भाव को लेकर पद्य-रचनाएँ अब पहले की अपेक्षा अधिक होती है। पहले के संकीर्ण क्षेत्र से निकल कर हिंदी कविता ने अब अधिक विशाल भाव और भावनाओं के प्रांगण में पग रखा है। विश्व-वेदना से हृदय के अंतर्भाव उथल-पुथल होने लगे हैं। नये हिंदी कवि ब्रज-भाषा ओर खड़ी बोली वे झगड़े से अलग होते जाते हैं। वे अपने भावों को टकसाली शब्दों ही में बंद नहीं रखना चाहते। शब्दों को वे आगे बढ़ाते जा रहे हैं। भाव का भी स्पष्ट होना आवश्यक है या नहीं, इस समय इस पर विबाद छिड़ा है। कहीं-कहीं सब प्रकार के पदों से भी स्वच्छन्दता प्राप्त कर ली गई है। भाषा के प्रसार के साथ उसकी कविता का प्रसार होना भी आवश्यक है! कविता भरे हुए हृदय की भावनाओं का साहित्यिक रूप है। उसमें और गद्य में कुल अंतर तो अब तक चला ही आता था, और उसकी मनोहरता के लिए यह आवश्यक है कि वह बहुत स्वतंत्र होती हुई भी स्वर और मात्राओं के बंधनों में बँधी रहे।
हिंदी साहित्य के एक विशेष अंग पर भी मुझे अपना कुल मत प्रकट करना आवश्यक जँचता है। इस समय 'घासलेटी साहित्य' की चर्चा बहुत ज़ोरों से उठ रही है। मुझे इस बात के बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि घासलेटी साहित्य किस प्रकार के साहित्य को कहते हैं? जो साहित्य यथार्थ में सार्वजनिक कुरुचि की वृद्धि करने वाला है, वह निःसंदेह त्याज्य और भर्त्सनीय है। किंतु उसज्ञ त्याज्य और भर्त्सनीय होना, उसके अस्तित्व और वृद्धि का अंत नहीं कर सकता। मेरी धारणा तो यह है कि हमें उससे तनिक भी घबराने की आवश्यकता नहीं है। वह तो अनिवार्य बुराई है। वह किस देश में और किस भाषा में नहीं है। जिस प्रकार शरीर में अनेक सुंदर अवयवों और शक्तियों के होते हुए भी उसमें मल-मूत्र ऐसे गंदे पदार्थ भी होते हैं उसी प्रकार, साहित्य के क्षेत्र से प्रत्येक देश में गंदा साहित्य भी होता है। इस प्रकार का साहित्य कहीं भी भद्र समाज में आदरणीय नहीं समझा जाता। आप भी उसको आदरणीय या ग्राह्य नहीं समझ सकते! बस, इस साहित्य के प्रति आपको ऐसी ही भावना यथेष्ट है। इससे अधिक इसके पीछे हाथ धोकर पड़ने में, मेरी विनम्र सम्मति से, हानि होगी। मानव-स्वभाव बहुत दुर्बल हुआ करता है। बुराई की ओर वह बहुत झुकता है और इन शक्तियों के आपका हाथ धोकर पीछे पड़ना इस प्रकार के साहित्य को विज्ञापन करना होगा, इस प्रकार उसे आप साधारण लोगों में और भी अधिक प्रचलित करेंगे। पैसे के लाभ के लिए इस प्रकार के कला और विज्ञान से शून्य साहित्य की रचना और प्रकाशन करनेवालों को छोड़कर, एक विशेष श्रेणी के साहित्य-सेवी ऐसे भी हैं जो लोक-कल्याण या रचनाकला की दृष्टि से, जो बात जैसी है, उसका वैसा ही चित्र खींचना आवश्यक समझते हैं। इसे वे प्रकृतिवाद (रियलिज्म) के नाम से पुकारते हैं। अपनी शैली के कलापूर्ण होने के प्रमाण में, वे पाश्चात्य देशों के बहुत से धुरंधर साहित्यिकों के नाम पेश करते हैं। फ्रांसीसी कहानी लेखक मोपासाँ का नाम इस संबंध में बहुत लिया जाता है। इस संबंध में मेरा विनम्र निवेदन यह है कि प्रकृतिवाद के संबंध में कुछ भ्रमात्मक धारणाएँ प्रचलित हो गई हैं। फ्रांस के प्रसिद्ध साहित्य-सेवी अनावाले फ्रांस भी प्रकृतिवादी थे। उनका ही यह कथन था कि किसी घटना का तद्वत् चित्र खींचने के लिए, या किसी मनोभाव के तद्वत प्रदर्शित करने के लिए नेत्र और हृदय खोलकर उस प्रकार की घटनाओं या भावों में या उनके अत्यंत निकट से होकर निकलने की आवश्यकता है, और कितने व्यक्ति हैं जो साहित्य क्षेत्र में अपने प्रकृतिवाद का प्रदर्शन करने के पहले ऐसा कर चुके हों। बहुधा होता यह है कि लेखक के मस्तिष्क में जो कलुषित भाव ऊपर ही रखे होते हैं, प्रकृतिवाद की आड़ में वह उन्हीं का अपनी कृति में प्रदर्शन कर दिया करता है। निःसंदेह मोपासाँ अपने काम में बहुत चतुर है, वह अद्वितीय है। किंतु उसको अनुकरणीय मान लेने के पहले, इस बात को भी हृदयंगम कर लेने की आवश्यकता है कि कला के संबंध में उसका आदर्श बहुत ऊँचा नहीं था। वह कला में सत्यं शिवं सुंदरम् के दर्शन नहीं करता था। वह कहा करता था कि संसार में कोई वस्तु या भाव नया नहीं है, साहित्यिक कोई नई बात नहीं कह सकते, वे केवल किसी वस्तु या अवस्था को नयी विचार-दृष्टि से देख सकते हैं, और यही बड़ी भारी बातें है।
- पुस्तक : सम्मेलन निबंध माला (भाग 2) (पृष्ठ 62)
- संपादक : गिरिजदत्त शुक्ला व ब्रजबहुषण शुक्ल
- रचनाकार : गणेशशंकर विद्यार्थी
- प्रकाशन : गिरिजदत्त शुक्ला व ब्रजबहुषण शुक्ल
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