Font by Mehr Nastaliq Web

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?

bharatvarshonnati kaise ho sakti hai?

भारतेंदु हरिश्चंद्र

भारतेंदु हरिश्चंद्र

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?

भारतेंदु हरिश्चंद्र

और अधिकभारतेंदु हरिश्चंद्र

    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

     

    आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे-से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत कुछ है। बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने देखा वह बहुत ही प्रशंसा के योग्य है। इस उत्साह का मूल कारण जो हमने खोजा, तो प्रकट हो गया कि इस देश के भाग्य से आजकल यहाँ सारा समाज ही एकत्र है। जहाँ राबर्ट साहब बहादुर जैसे कलेक्टर जहाँ हो, वहाँ क्यों न ऐसा समाज हो। जिस देश और काल में ईश्वर ने अकबर को उत्पन्न किया था उसी में अबुल फज़ल, बीरबल, टोडरमल को भी उत्पन्न किया। यहाँ राबर्ट साहब अकबर हैं, जो मुंशी चतुर्भुज सहाय, मुंशी बिहारीलाल साहब आदि अबुलफज़ल और टोडरमल हैं। हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है। यद्यपि फ़र्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती, वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो, तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए, का चुप साधि रहा बलवाना फिर देखिए कि हनुमान जी को अपना बल कैसे याद आता है। सो बल कौन याद दिलावे या हिंदुस्तानी राजे—महाराजे या नवाब-रईस या हाकिम। राजे-महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, झूठी गप से छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है, कुछ बाॉल, घुड़दौड़, थिएटर, अख़बार में समय लगा। कुछ समय बचा भी तो उनको क्या ग़रज़ है कि हम ग़रीब, गंदे, काले आदमियों से मिलकर अपना अनमोल समय खोवैं। बस वही मसल रही—तुम्हें ग़ैरों से कब फ़ुरसत, हम अपने ग़म से कब ख़ाली। चलो, बस हो चुका मिलना न हम ख़ाली न तुम ख़ाली॥ तीन मेंढ़क एक के ऊपर एक बैठे थे। ऊपरवाले ने कहा, 'ज़ौक़ शौक़', बीचवाला बोला, 'ग़म सुम', सबके नीचेवाला पुकारा, 'गए हम'। सो हिंदुस्तान की साधारण प्रजा की दशा यही है—'गए हम'।

    पहले भी जब आर्य लोग हिंदुस्तान में आकर बसे थे, राजा और ब्राह्मणों के ज़िम्मे यह काम था कि देश में नाना प्रकार की विद्या और नीति फैलावैं और अब भी ये लोग चाहैं तो हिंदुस्तान प्रतिदिन कौन कहै, प्रतिछिन बढ़ैं। पर इन्हीं लोगों को सारे संसार के निकम्मेपन ने घेर रखा है। “बौद्धारो मत्सरग्रस्ता अभवः समरदूषिताः” हम नहीं समझते कि इनको लाज भी क्यों नहीं आती कि उस समय में जब इनके पुरुषों  के पास कोई भी सामान नहीं था तब उन लोगों ने जंगल में पत्ते और मिट्टी की कुटियों में बैठकर बाँस की नालियों से जो तारा, ग्रह आदि वेध करने उनकी गति लिखी है, वह ऐसी ठीक है कि सोलह लाख रुपए की लागत से विलायत में जो दूरबीन बनी है उनसे उन ग्रहों को वेध करने में भी वही गति ठीक आती है और जब आज इस काल में हम लोगों को अँग्रेज़ी विद्या की ओर जगत की उन्नति की कृपा से लाखों पुस्तकें और हज़ारों यंत्र तैयार हैं। तब हम लोग निरी चुंगी की कतवार फेंकने की गाड़ी बना रहे हैं। यह समय ऐसा है कि उन्नति की मानो घुड़दौड़ हो रही है। अमेरिकन, ‍‍अँग्रेज़, फ्रांसीस आदि तुर्की-ताज़ी सब सरपट्ट दौड़े जाते हैं। सबके जी में यही है कि पाला हमीं पहले छू लें। उस समय हिंदू काठियावाड़ी ख़ाली खड़े-खड़े टाप से मिट्टी खोदते हैं। इनको, औरों को जाने दीजिए, जापानी टट्टुओं को हाँफते हुए दौड़ते देखकर के भी लाज नहीं आती। यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जाएगा, फिर कोटि उपाय किए भी आगे न बढ़ सकैगा। इस लूट में, इस बरसात में भी जिसके सिर पर कमबख़्ती का छाता और आँखों में मूर्खता की पट्टी बँधी रहे उन पर ईश्वर का कोप ही कहना चाहिए।

    मुझको मेरे मित्रों ने कहा था कि तुम इस विषय पर आज कुछ कहो कि हिंदुस्तान की कैसे उन्नति हो सकती है। भला इस विषय पर मैं और क्या कहूँ ‘भागवत’ में एक श्लोक है—नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरु कर्णधारं।मयाsनुकूलेन नभ: स्वतेरितुं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा। भगवान कहते हैं कि पहले तो मनुष्य जनम ही दुर्लभ है, सो मिला और उस पर गुरु की कृपा और उस पर मेरी अनुकूलता। इतना सामान पाकर भी जो मनुष्य इस संसार-सागर के पार न जाए, उसको आत्महत्यारा कहना चाहिए। वही दशा इस समय हिंदुस्तान की है। अँग्रेज़ों के राज्य में सब प्रकार का सामान पाकर, अवसर पाकर भी हम लोग जो इस समय उन्नति न करैं तो हमारे केवल अभाग्य और परमेश्वर का कोप ही है। सास के अनुमोदन से एकांत रात में सूने रंगमहल में जाकर भी बहुत दिन से जिस प्रान से प्यारे परदेसी पति से मिलकर छाती ठंडी करने की इच्छा थी, उसका लाज से मुँह भी न देखै और बोलै भी न, तो उसका अभाग्य ही है। वह तो कल फिर परदेस चला जाएगा। वैसे ही अँग्रेज़ों के राज्य में भी जो हम कुँए के मेंढ़क, काठ के उल्लू, पिंजड़े के गंगाराम ही रहैं तो हमारी कमबख़्त कमबख़्ती फिर कमबख़्ती है।

    बहुत लोग यह कहैंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे छुट्टी ही नहीं रहती बाबा, हम क्या उन्नति करैं? तुम्हारा पेट भरा है तुम को दून की सूझती है। यह कहना उनकी बहुत भूल है।  इंग्लैंड का पेट भी कभी यों ही ख़ाली  था। उसने एक हाथ से अपना पेट भरा, दूसरे हाथ से उन्नति के काँटों को साफ़ किया। क्या इंग्लैंड में किसान, खेतवाले, गाड़ीवान, मज़दूर, कोचवान आदि नहीं हैं? किसी देश में भी सभी पेट भरे हुए नहीं होते। किंतु वे लोग जहाँ खेत जोतते-बोते  हैं वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं कि ऐसी और कौन नई कल या मसाला बनावैं, जिसमें  इस खेत में आगे से दूना अन्न उपजे। विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अख़बार पढ़ते हैं। जब मालिक उतरकर किसी दोस्त के यहाँ गया उसी समय कोचवान ने गद्दी के नीचे से अख़बार निकाला। यहाँ उतनी देर कोचवान हुक्का पिएगा या गप्प करेगा। सो गप्प भी निकम्मी। वहाँ के लोग गप्प ही में देश के प्रबंध छाँटते हैं। सिद्धांत यह कि वहाँ के लोगों का यह सिद्धांत है कि एक छिन भी व्यर्थ न जाए। उसके बदले यहाँ के लोगों को जितना निकम्मापन हो उतना ही वह बड़ा अमीर समझा जाता है। आलस यहाँ इतनी बढ़ गई कि मलूकदास ने दोहा ही बना डाला—अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम॥ चारों ओर आँख उठाकर देखिए तो बिना काम करने वालों की ही चारों ओर बढ़ती है। रोज़गार कहीं कुछ भी नहीं है, अमीरों की मुसाहबी, दल्लाली या अमीरों के नौजवान लड़कों को ख़राब करना या किसी की जमा मार लेना, इनके सिवा बतलाइए और कौन रोज़गार है। जिससे कुछ रुपया मिलै। चारों ओर दरिद्रता की आग लगी हुई है। किसी ने बहुत ठीक कहा है कि दरिद्र कुटुंबी इस तरह अपनी इज़्ज़त को बचाता फिरता है, जैसे लाजवंती कुल की बहू फटे कपड़ों में अपने अंग को छिपाए जाती है। वही दशा हिंदुस्तान की है।

    मुर्दमशुमारी की रिपोर्ट देखने से स्पष्ट होता है कि मनुष्य दिन-दिन यहाँ बढ़ते जाते हैं और रुपया दिन-दिन कमती होता जाता है। तो अब बिना ऐसा उपाय किए काम नहीं चलैगा कि रुपया भी बढ़ै और वह रुपया बिना बुद्धि बढे न बढ़ैगा। भाइयों, राजा-महाराजों का मुँह मत देखो, मत यह आशा रखो कि पंडित जी कथा में ऐसा कोई उपाय भी  बतलावैंगे कि देश का रुपया और बुद्धि बढ़े। तुम आप ही कमर कसो, आलस छोड़ो। कब तक अपने को  जंगली, हूस, मूर्ख, बोदे, डरपोकने  पुकरवाओगे। दौड़ो,  इस घुड़दौड़ में जो पीछे पड़े तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है। “फिर कब राम जनकपुर एहैं' अबकी जो पीछे पड़े तो फिर रसातल ही पहुँचोगे। जब पृथ्वीराज को क़ैद करके गोर ले गए तो शहाबुद्दीन के भाई गयासुद्दीन से किसी ने कहा कि वह शब्दबेधी बाण बहुत अच्छा मारता है। एक दिन सभा नियत हुई और सात लोहे के तावे बाण से फोड़ने को रखे गए। पृथ्वीराज को लोगों ने पहले ही से अंधा कर दिया था। संकेत यह हुआ कि जब गयासुद्दीन 'हूँ' करे तब वह तावों पर बाण मारे। चंद कवि भी उसके साथ क़ैदी था। यह सामान देखकर उसने यह दोहा पढ़ा—अबकी चढ़ी कमान, को जानै फिर कब चढ़ै। जिन चूक्के चौहाण, इक्के मारय इक्क सर। उसका संकेत समझकर जब गयासुद्दीन ने 'हूँ' किया तो पृथ्वीराज ने उसी को बाण मार दिया। वही बात अब है। अबकी चढ़ी, इस समय में सरकार का राज्य पाकर और उन्नति का इतना सामान पाकर भी तुम लोग अपने को न सुधारो तो तुम्हीं रहो और वह सुधारना भी ऐसा होना चाहिए कि सब बात में उन्नति हो। धर्म में, घर के काम में, बाहर के काम में, रोज़गार में, शिष्टाचार में, चाल-चलन में, शरीर के बल में, मन के बल में, समाज में, बालक में, युवा में, वृद्ध में, स्त्री में, पुरुष में, अमीर में, गरीब में, भारतवर्ष की सब अवस्था , सब जाति सब देश में उन्नति करो। सब ऐसी बातों को छोड़ो जो तुम्हारे इस पथ के कंटक हों, चाहे तुम्हैं लोग निकम्मा कहैं या नंगा कहैं, कृस्तान कहें या भ्रष्ट कहैं । तुम केवल अपने देश की दीनदशा को देखो और उनकी बात मत सुनो।

    अपमानं पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठतः
    स्वकार्य्यं साधयेत् धीमान् कार्य्यध्वंसो हि मूर्खता।

    जो लोग अपने को देश-हितैषी लगाते हों, वह अपने सुख को होम करके, अपने धन और मान का बलिदान करके कमर कस के उठो। देखादेखी थोड़े दिन में सब हो जाएगा। अपनी ख़राबियों के मूल कारणों को खोजो। कोई धर्म की आड़ में, कोई देश की चाल की आड़ में,  कोई सुख की आड़ में छिपे हैं। उन चोरों को वहाँ-वहाँ से पकड़-पकड़कर लाओ। उनको बाँध-बाँधकर क़ैद करो। हम इससे बढ़कर क्या कहें कि जैसे तुम्हारे घर में कोई पुरुष व्याभिचार करने आवै तो जिस क्रोध से उसको पकड़कर मारोगे और जहाँ तक तुम्हारे में शक्ति होगी उसका सत्यानाश करोगे। उसी तरह इस समय जो-जो बातैं तुम्हारे उन्नति-पथ में काँटा हों, उनकी जड़ खोदकर फेंक दो। कुछ मत डरो। जब तक सौ-दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जाएँगे, दरिद्र न हो जाएँगे, क़ैद न होंगे वरंच जान से न मारे जाएँगे तब तक कोई देश भी न सुधरैगा।

    अब यह प्रश्न होगा कि भाई, हम तो जानते ही नहीं कि उन्नति और सुधरना किस चिड़िया का नाम है। किसको अच्छा समझैं। क्या लें,  क्या छोड़ैं? तो कुछ बातैं जो इस शीघ्रता से मेरे ध्यान में आती हैं उनको मैं कहता हूँ सुनो—

    सब उन्नतियों  का मूल धर्म है। इससे सबसे पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है। देखो अँग्रेज़ों की धर्मनीति राजनीति परस्पर मिली है ,इससे उनकी दिन-दिन कैसी उन्नति हुई है। उनको जाने दो, अपने ही यहाँ देखो! तुम्हारे यहाँ धर्म की आड़ में नाना प्रकार की नीति, समाज-गठन, वैद्यक आदि भरे हुए हैं। दो-एक मिसाल सुनो। यही तुम्हारा बलिया का  मेला और यहाँ  स्नान  क्यों बनाया  गया है? जिसमें जो लोग कभी आपस में नहीं मिलते, दस-दस, पाँच-पाँच कोस से वे लोग एक जगह एकत्र होकर आपस में मिलें। एक-दूसरे का दुःख-सुख जानैं। गृहस्थी के काम की वह चीज़ें जो गाँव में नहीं मिलतीं यहाँ से ले जाएँ। एकादशी का व्रत क्यों रखा है? जिसमें महिने में दो-एक उपवास से शरीर शुद्ध हो जाए। गंगा जी नहाने जाते हैं तो पहले पानी सिर पर चढ़ाकर तब पैर पर डालने का विधान क्यों है? जिसमें तलुए से गर्मी सिर में चढ़कर विकार न उत्पन्न करे। दीवाली इसी हेतु है कि इसी बहाने साल भर में एक बेर तो सफ़ाई हो जाए। होली इसी हेतु है कि बसंत की बिगड़ी हवा स्थान-स्थान पर अग्नि जलने से स्वच्छ हो जाए। यही तिहवार ही तुम्हारी म्युनिसिपालिटी है। ऐसे ही सब पर्व, सब तीर्थ, व्रत आदि में कोई हिकमत ही है। उन लोगों ने धर्मनीति और समाजनीति को दूध-पानी की भाँति मिला दिया है। ख़राबी जो बीच में भई है वह यह कि उन लोगों ने ये धर्म क्यों मानने लिखे थे, इसका लोगों ने मतलब नहीं समझा और इन बातों को वास्तविक धर्म मान लिया। भाइयो, वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरण कमल का भजन है। ये सब तो समाज धर्म हैं जो देश काल के अनुसार शोधे और बदले जा सकते हैं। दूसरी ख़राबी यह हुई कि उन्हीं महात्मा बुद्धिमान ऋषियों के वंश के लोगों ने अपने बाप-दादों का मतलब न समझकर बहुत से नए-नए धर्म बनाकर शास्त्रों में धर दिए। बस सभी तिथि-व्रत और सभी स्थान तीर्थ हो गए। सो इन बातों को अब एक बेर आँख खोलकर देख और समझ लीजिए कि फलानी बात उन बुद्धिमान ऋषियों ने क्यों बनाई और उनमें देश और काल के जो अनुकूल और उपकारी हों, उनका ग्रहण कीजिए। बहुत-सी बातैं जो समाज-विरुद्ध मानी हैं, किंतु धर्मशास्त्रों में जिनका विधान है, उनको मत चलाइए। जैसा जहाज़ का सफ़र, विधवा-विवाह आदि। लड़कों की छोटेपन ही में शादी करके उनका बल, वीर्य, आयुष्य सब मत घटाइए। आप उनके माँ-बाप हैं या उनके शत्रु हैं? वीर्य उनके शरीर में पुष्ट होने दीजिए; नोन, तेल लकड़ी की फ़िक्र करने की बुद्धि सीख लेने दीजिए—तब उनका पैर काठ में डालिए। कुलीन-प्रथा, बहु-विवाह आदि को दूर कीजिए। लड़कियों को भी पढ़ाइए, किंतु उस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती है जिससे उपकार के बदले बुराई होती है। ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुलधर्म सीखें, पति की भक्ति करैं और लड़कों को सहज में शिक्षा दें। वैष्णव, शाक्त इत्यादि नाना प्रकार के लोग आपस का वैर छोड़ दें। यह समय इन झगड़ों का नहीं। हिंदू, जैन, मुसलमान सब आपस में मिलिए। जाति में कोई चाहे ऊँचा हो चाहे नीचा हो, सबका आदर कीजिए, जो जिस योग्य हो उसे वैसा मानिए। छोटी जाति के लोगों का तिरस्कार करके उनका जी मत तोड़िए। सब लोग आपस में मिलिए।

    मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिंदुस्तान में बसकर वे लोग हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भाँति हिंदुओं से बरताव करैं। ऐसी बात, जो हिंदुओं का जी दुखाने वाली हों, न करें। घर में आग लगै, सब जिठानी-द्यौरानी को आपस का डाह छोड़कर एक साथ वह आग बुझानी चाहिए। जो बात हिंदुओं को नहीं मयस्सर है वह धर्म के प्रभाव से मुसलमानों को सहज प्राप्त है। उनमें  जाति नहीं, खाने-पीने में चौका-चूल्हा नहीं, विलायत जाने में रोक-टोक नहीं, फिर भी बड़े ही सोच की बात है,  मुसलमानों ने अभी तक अपनी दशा कुछ नहीं सुधारी। अभी तक बहुतों को यही ज्ञात है कि दिल्ली, लखनऊ की बादशाहत क़ायम है। यारो! वे दिन गए। अब आलस, हठधर्मी यह सब छोड़ो। चलो, हिंदुओं के साथ तुम भी दौड़ो, एक-एक-दो होंगे। पुरानी बातैं दूर करो। मीरहसन की ‘मसनवी’ और इंदरसभा पढ़ाकर छोटेपन ही से लड़कों का सत्यानाश मत करो। होश संभाला नहीं कि पट्टी पार ली,  चुस्त कपड़ा पहनना और ग़ज़ल गुनगुनाए—शौक़ तिफ़्ली से मुझे गुल की जो दीदार का था। न किया हमने गुलिस्ताँ का सबक़ याद कभी॥ भला सोचो कि इस हालत में बड़े होने पर वे लड़के क्यों न बिगड़ैंगे। अपने लड़कों को ऐसी किताबैं छूने भी मत दो। अच्छी-से-अच्छी उनको तालीम दो। पिनशिन और वज़ीफ़ा या नौकरी का भरोसा छोड़ो। लड़कों को रोज़गार सिखलाओ। विलायत भेजो। छोटेपन से मेहनत करने की आदत दिलाओ। सौ-सौ महलों के लाड़-प्यार दुनिया से बेख़बर रहने की राह मत दिखलाओ।

    भाई हिंदुओं! तुम भी मत-मतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जप करो। जो हिंदुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग,  जाति का क्यों ना हो, वह हिंदू।  हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मराठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमानों सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी जिससे तुम्हारे यहाँ बढ़ै, तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहै वह करो। देखो,  जैसे हज़ार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली है वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हज़ार तरह से इंग्लैंड, फ्रांसीसी, जर्मनी, अमेरिका को जाती है। दीयासलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है। ज़रा अपने ही को देखो। तुम जिस मारकीन की धोती पहने हो वह अमेरिका की बनी है। जिस लंकिलाट का तुम्हारा अंगा है वह इंग्लैंड का है। फ्रांसीसी की बनी कंघी से तुम सिर झारते हो और जर्मनी की बनी चरबी की बत्ती तुम्हारे सामने जल रही है। यह तो वही मसल हुई एक बेफ़िकरे मँगती का कपड़ा पहिनकर किसी महफ़िल में गए। कपड़े को पहिचानकर एक ने कहा, 'अजी अंगा तो फलाने का है।' दूसरा बोला, 'अजी टोपी भी फलाने की है।' तो उन्होंने हँसकर जवाब दिया कि 'घर की तो मूछैं ही मूछैं हैं।' हाय अफ़सोस, तुम ऐसे हो गए कि अपने निज की काम की वस्तु भी नहीं बना सकते। भइयों, अब तो नींद से चौंको, अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी बातचीत करो। परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा का भरोसा मत रखो। अपने में अपनी भाषा में उन्नति करो।
     

    वीडियो
    This video is playing from YouTube

    Videos
    This video is playing from YouTube

    भारतेंदु हरिश्चंद्र

    भारतेंदु हरिश्चंद्र

    स्रोत :
    • पुस्तक : अंतरा (भाग-1) कक्षा-11 (पृष्ठ 97)
    • रचनाकार : भारतेंदु हरिश्चंद्र
    • प्रकाशन : एन. सी . ई. आर. टी.
    • संस्करण : 2022
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए