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संगीत का महत्त्व

sangit ka mahattv

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

अन्य

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पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

संगीत का महत्त्व

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

    हम लोगों के जीवन में दो स्पष्ट धाराएँ हैं-एक है आनंद की धारा, दूसरी है कर्म की धारा। इन्हीं दो धाराओं के कारण जीवन में कभी शुष्कता, शिथिलता और विरक्ति नहीं आती। बाह्य स्थिति प्रतिकूल होने पर भी हम अपने अंतर्जगत् से प्रेरणा पाते हैं और अंतर्जगत् में भावों की आँधी आने पर हम बहिर्जगत् में स्फूर्ति पाते हैं। कर्म की व्यग्रता में हम भाव की प्रबलता को विलीन कर देते हैं और भावों के सुकोमल स्फुरण में हम अपने कार्य भार की चिंता को भूल जाते हैं।

    कितने ही दिनों से संगीत के उत्सव में अपने कर्म क्षेत्र की आवश्यकताओं से मुझे विरक्ति हो गई थी। मुझे संगीत से विशेष प्रेम है। संसार में दो ही तो विषय हैं—पहला विज्ञान, दूसरा कला। विज्ञान से हम सत्य को जानते हैं। कला से हम आनंद उपलब्ध करते हैं। आनंद हमारे मन की वस्तु है। इसीलिए कला हमारे मन की रचना है। कुछ कलाएँ ऐसी होती हैं जो हमारी सांसारिक आवश्यकताओं और अभावों की पूर्ति करती हैं। सीना-पिरोना, भोजन बनाना, हाथों से तरह-तरह की चीज़ें तैयार करना—ये सभी कलाएँ हैं। पर ललित कलाएँ वे हैं; जिनसे हमें विशुद्ध आनंद की प्राप्ति होती है। जिनमें हमें सच्चा आनंद मिलता है। जो सच्चा आनंद है, वह सबके लिए सुलभ है, उस पर बड़े और छोटे सभी का अधिकार रहता है। प्रकृति-सौंदर्य को देखकर सभी लोग आनंद उठा सकते हैं। चित्रों और मूर्तियों की सुंदरता से सभी को प्रसन्नता होती है। नृत्य और संगीत के द्वारा भी सभी को आनंद मिलता है। इन कलाओं में ऊँच-नीच का भेद नहीं है, छोटे-बड़े का विचार नहीं है। इसी से इन ललितकलाओं के द्वारा हमारी कोई सांसारिक आवश्यकता दूर नहीं हो तो उनसे केवल हमारे मन की, हमारे भीतर की आवश्यकता ही दूर होती है। धन और ऐश्वर्य से हमें सुख मिल सकते हैं, पर ललित कलाओं से हमें आनंद मिलता है। इनमें भी संगीत-कला सर्वश्रेष्ठ है। सभी अवस्थाओं में हमें संगीत की ज़रूरत होती है। पूजा में भक्ति प्रकट करने के लिए, उत्सव में उमंग प्रकट करने के लिए और दुःख दूर करने के लिए संगीत से बढ़कर कोई दूसरा उपाय नहीं है। अकेले रहने पर उससे जैसा मन बहलता है, समाज में रहने पर उससे वैसा ही मनोविनोद होता है। यह सुख और दुःख दोनों में साथ देता है और यह धनी और दरिद्र दोनों का सहचर है। स्त्रियों का तो इस कला पर जन्मसिद्ध अधिकार है। भगवान ने संगीत की शक्ति स्त्री जाति को दे दी है। तभी तो सरस्वती देवी के हाथ में वीणा है।

    संगीत ही एक ऐसी कला है, जिसकी रसानुभूति के लिए विशेषता की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी सहृदयता की। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य ने जिस प्रकार ज्ञान के द्वारा प्रकृति की शक्तियों को स्वायत्त किया है, उसी प्रकार अपनी आनंदमयी भाव प्रवृत्ति से उसने सौंदर्य विभूति को अपनाया है। मनुष्य के शरीर में जिस तरह मस्तिष्क ज्ञान का स्थान मान लिया गया है, उसी तरह हृदय भी भावों का आगार मान लिया गया है। ज्ञान के क्षेत्र में व्यस्त वैज्ञानिक में जैसे तर्क और चिंतनशीलता है, उसी प्रकार भाव के क्षेत्र में संलग्न कलाकार में कल्पना और सहृदयता है। ज्ञान की उन्नति और भावों के विकास में एक बड़ा भेद है। प्राचीन काल में ज्ञान का जो क्षेत्र था, उससे कहीं अधिक विस्तृत आधुनिक ज्ञान का क्षेत्र है।

    परंतु यही बात भाव के संबंध में नहीं कही जा सकती। प्राचीन काल में मानवीय भावों का जो विस्तार था, वही विस्तार अभी तक विद्यमान है। विकास केवल उसकी अभिव्यक्ति में हुआ है। बात यह है कि सभी अवस्थाओं में मनुष्य अपने भावों को ही लेकर जीवित रहता है। भाव मनुष्य की अपनी वस्तु है। जो कुछ हम देखते, सुनते और जानते हैं, वही जब हर्ष और विषाद, विस्मय और आतंक, भक्ति और श्रद्धा आदि भावों का रूप ग्रहण कर हमारे मानसिक जीवन में लीन हो जाता है, तभी उसे हम अपना कहते हैं और तभी वह रस के रूप में परिणत होकर आनंद की सृष्टि करता है। संसार में जितने प्राणी हैं, उन सब में हर्ष और विषाद का न्यूनाधिक अंश रहता। पर मनुष्य ही उसे अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सकता है। इसी से ये सब कला में परिवर्तित हो जाते हैं।

    प्रकृति के साहचर्य से ही मनुष्य ने संगीत की कला प्राप्त की है। प्रकृति स्वयं संगीतमयी है। उसमें स्वयं संगीत की मधुरता है। भिन्न-भिन्न ऋतुओं में स्वर-लालित्य के साथ भाव-माधुर्य है। यही नहीं, दिवस के भिन्न-भिन्न समयों में प्रकृति का संगीत-वैचित्र्य है। यदि प्रकृति में वैचित्र्य और चिरनवीनता का भाव रहता, तो संगीत की उत्पत्ति ही होती। इन सबको अपने मानसिक जगत में लाकर प्रकृति ने भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के अनुकूल अपने भिन्न-भिन्न आनंदों की अनुभूतियों को संगीत के द्वारा व्यक्त किया है। संगीत के तीन स्पष्ट भेद किए जा सकते हैं-शब्द-संगीत, स्वर संगीत और गति संगीत। प्रकृति के अपूर्व से वशीभूत मनुष्य ने अपने प्रसन्नता-सूचक भाव को मन से, वाणी से और अंग-संचालन से प्रकट किया। उसका भावावेश वाणी में प्रकट हुआ और गति में भी। वाणी में भाषा के शब्दों में ही भाव साकार होते हैं। इसी से काव्यों में शब्द-संगीत की रचना होती है, गानों में स्वर-संगीत की सृष्टि होती है और नृत्य में गति-संगीत की अभिव्यक्ति होती है। तीनों के मूल प्रकृति में ही हैं। वृक्षों की मर्मर-ध्वनि, पक्षियों के कलरव तथा अन्य पशुओं के स्वर-वैचित्र्य में जो माधुर्य है, उसी के आधार पर मनुष्य ने अपनी भाषा में माधुर्य ला दिया है। वह काव्यों में प्रत्यक्ष होता है; कंठों में जो स्वर-लालित्य ला दिया, वह गान में उद्भूत होता है और जड़ पदार्थ में जो ध्वनि की मृदुता है, उसी को वह अपने हस्त कौशल से वाद्य-यंत्रों में प्रकट करता है। भावों की उत्पत्ति होने पर शारीरिक चेष्टाओं के द्वारा जो अनुभव प्रकट होते हैं, उन्हीं से गीत-संगीत का निर्माण हुआ है।

    यह तो स्पष्ट है कि प्रकृति के साथ मनुष्य का जो साहचर्य है, उसी से संगीत का उद्भव होता है। प्रकृति में जो परिवर्तनशीलता है, वही मनुष्य के मानसिक जगत् में भी है। इधर प्रकृति में वसंत का आगमन हुआ, उधर मनुष्य में मृदु भावों का संचार हुआ। मलय समीर की चंचल गति मन को अस्थिर कर देती है। शरीर में आप-से-आप स्फूर्ति जाती है, आप से आप अंग फड़कने लगते हैं, आप से आप हम भौरों की तरह गुनगुनाने लगते हैं।

    पंद्रहवीं शताब्दी से भारतीय संगीत पर मुसलमानों का प्रभाव पड़ा। यह बात प्रसिद्ध है कि बादशाह अलाउद्दीन ने अमीर खुसरो को अपने संरक्षण में रखकर संगीत-शास्त्र की विशेष उन्नति की। अमीर खुसरो कवि ही नहीं, गायक भी थे। उन्हीं के समय में कितने ही रागों, वाद्य-यंत्रों और नृत्यों का प्रचार हुआ। अकबर के शासन काल में संगीत को राजाश्रय प्राप्त होने के कारण और भी उन्नति हुई। उस समय बाबा हरिदास, बैजू बावरे, रामदास, तानसेन, सदारंग आदि बड़े-बड़े कलाकार हो गए। फ़ारस की कला से भारत की कला का मेल होने का फल यह हुआ कि संगीत कला पहले से ललित और सरल हो गई। इसके बाद कोई विशेष संरक्षण होने के कारण संगीत कला का विकास रुक गया। यह हर्ष की बात है कि अब कुछ वर्षों से इस कला की ओर सभी की दृष्टि आकृष्ट हुई है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-7 (पृष्ठ 364)
    • संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
    • रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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