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श्मशान

shmshan

ब्रजनन्दन सहाय

और अधिकब्रजनन्दन सहाय

    यहाँ आने पर सब बराबर हो जाते हैं। पंडित, मूर्ख, धनी, दरिद्र, सुंदर, कुरूप, महान, क्षुद्र, ब्राह्मण, शूद्र, बंगाली यहाँ सब बराबर हैं। नैसर्गिक, अनैसर्गिक, सब तरह वैषम्य यहाँ दूर हो जाता है। शाक्यसिंह, शंकराचार्य, ईसा रूसो, राममोहन, कोई ऐसा साम्यसंस्थापक इस जगत में नहीं हुआ। इस बाज़ार में सब चीजों की एक दर बिक्री होती है। अति महान एवं अति क्षुद्र, महाकवि कालिदास और तुकबंदी करनेवाले, सबका यहाँ एक भाव है। इसी से कहता हूँ कि यह स्थान धर्मभावपूर्ण है, यह स्थान सतुपदेशपूर्ण है, यह स्थान पवित्र है।

    यहाँ बैठकर यदि थोड़ी देर तक चिंता की जाए तो मनुष्य के महत्व की असारता समझ में आती है, अंहकार चूर-चूर होता है, आत्मादर संकुचित होता है, स्वार्थपरता की नीचता हृदयंगम करने में समर्थ होता हूँ। आज हो, कल हो, या दस दिन के बाद हो, पर सभी को आकर इस श्मशान की मिट्टी में मिल जाना होगा। जो अनभिभवनीय वीर्य, जो दुर्ज्जय अहंकार आज तक कभी उत्पन्न हुआ था, वह इसी मिट्टी में मिल चुका है। हमारी तुम्हारी हक़ीक़त ही क्या है? जिस उत्कट आत्माभिमान ने यूरोप की पंडितमंडली से अहंकार के साथ कर माँगा था, वह इसी मिट्टी में मिल गया। हम तुम कौन हैं। उस दिन जिस चिंताशक्ति ने ईश्वर को भी अपना काम करने में असमर्थ कह देने का साहस किया, वह भी इस श्मशान की मिट्टी हो चुकी। हमारी तुम्हारी क्या बात है। जिस रूप की अग्नि में ट्राय जल मरा था, जिस सौंदर्यतरंग में विपुल रावणवंश डूब गया था, जिस लावण्यरज्जु में जूलियस सीजर बंध गया था, जिस पवित्र सौकुमार्य के कारण इस पापी हृदय में कालाग्नि धधक रहा है, वह सुंदरी, वह देवी वह विलासवती, वह अनिर्व्वचनीया इसी मिट्टी में मिल गई। हम तुम किस खेत की मूली हैं! यह संसार कै दिन के लिए है? यह जीवन कै दिन का है? नदी हृदय पर उठते हुए जलबुद्बुद की तरह जीव जिस हवा के झोंके के साथ पैदा हुआ, उसी के साथ मर मिटा। आज अभिमान में चूर होकर एक भाई को पैरों कुचल डाला, लेकिन कल ही ऐसा दिन हो सकता है कि मुझे सियार, कुत्ते लात से ठुकरावेंगे, तो मैं भी उसका कुछ प्रतिविधान नहीं कर सकूँगा। तब अंहकार क्यों? किस लिए अहंकार? इस अनंत विश्व में मैं कौन हूँ—मेरी हक़ीक़त ही क्या है—मैं हूँ क्या? मिट्टी का पुतला! इसलिए ग्रहकार नहीं शोभा देता। इसी से कह रहा था कि यह स्थान याद आने से सारा अहंकार-विद्या का अहंकार, प्रभुत्व धन का अहंकार, सौंदर्य का अहंकार, बुद्धि का अहंकार, प्रतिभा का अहंकार, क्षमता का अहंकार, अहंकार का अहंकार—चूर्ण हो जाता है। और वह दिन! वह तो हटाए हट ही नहीं सकता; भागने से भी रक्षा नहीं हो सकती। जिन भीरु श्रेष्ठ लक्ष्मणसेन ने जीवन के भय से, मुसलमानों के हाथ में जन्मभूमि सौंपकर, मुँह का कौर भाजनपात्र में फेंककर तीर्थ की यात्रा की थी, वे भी अपनी जान नहीं बचा सके। सुना है कि स्वर्ग में वैषम्य नहीं है—ईश्वर की आँखों में सभी बराबर हैं। स्वर्ग क्या है, सो नहीं जानता—कभी देखा भी नहीं, शायद कभी देखूँगा भी नहीं। किंतु श्मशानभूमि का यह उपदेश स्पष्ट है। यह स्थान स्वर्ग की अपेक्षा भी बड़ा है। यह स्थान पवित्र है।

    और स्वार्थपरता! उसकी भी क्षुद्रता अनुमित होती है। सामने असीम जलराशि अनंत प्रवाह से प्रवाहित हो रही है। पैरों के नोचे विपुला धरित्री पड़ी हुई है। मस्तक के ऊपर अनंत आक़ाश फैला हुआ है। उसमें असंख्य सौरमंडल, अगणित नक्षत्रलोक नाचते फिरते हुए दिखलाई पड़ते हैं। संख्यातीत धूम्रकेतु इधर-उधर दिखलाई पड़ते हैं। भीतर अंनत दुःखराशि क्षुब्ध सागर के समान, मत्तमातंग के तुल्य डोल रही है। जिधर देखो उधर ही अनंत देख पड़ता है। और मैं कितना छोटा हूँ, कितना गया बीता हूँ। इसी सामान्य, इसी क्षुद्रादपि क्षुद्रतर के लिए इतना आयास, इतना यत्न, इतनी परेशानी, इतना तूलकलाम, इतना पाप होता है! बड़ी लज्जा की बात है। इसी क्षुद्र को केंद्र बनाकर जो जीवन बीत चुका, उसका महत्व कहाँ रहा। लेकिन तुम क्षुद्र भले ही हो, मानवजाति क्षुद्र नहीं है। यह मैं मानता हूँ कि एक-एक मनुष्य को लेकर मनुष्यजाति बनी है, किंतु जातिमात्र ही महान् है। बिंदु-बिंदु जल से समुद्र होता है; कण-कण वाष्प लेकर मेघ बनता है, रेणु-रेणु बालुका से मरुभूमि बन जाती है, क्षुद्र-क्षुद्र नक्षत्रों से छायापथ तैयार होता है। अणु-परमाणु से ही यह अनंत विश्व रचा गया है। एकता ही महत्व है। मनुष्यजाति महान् है; महान् कार्य में आत्मसमर्पण करना ही महत्व है। हाँ, यह मैं स्वीकार करता हूँ कि जिस तरह व्यक्ति का नाश होता है, उसी तरह जातिमात्र का भी ध्वंस होता है। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि अब तक कितनी ही प्राचीन जातियाँ पृथ्वी से लुप्त हो चुकी हैं और अनेक नई जातियों का आविर्भाव हुआ है। किंतु उससे अपनी हानि ही क्या है? जिस दिन मनुष्य जाति का लोप होगा, उस दिन इसका लोप देखने को मैं थोड़े ही बचा रहूँगा, क्योंकि मैं भी तो मनुष्य ही हूँ। मनुष्यजाति के ही अंतर्गत ठहरा! किंतु क्या कह रहा था, भूल ही गया।

    यहाँ आने पर सब चीजों की समाधि बन जाती है। अच्छा, बुरा, सत्, असत् सब इसी रास्ते से होकर संसार परित्याग करते हैं। यह सुख का स्थान है। यहाँ शयन करने पर शोकताप नष्ट हो जाते हैं, ज्वालायंत्रणा मिट जाती है, सभी दुःख दूर हो जाते हैं—आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक सब दुःखों का नाश हो जाता है। लेकिन यह भी कहना पड़ेगा कि यह दुःख का स्थान है। यहाँ पर जो आग जलती है, वह इस जन्म में दूर नहीं होती। उस आग में सौंदर्य जल जाता है, प्रेम जल जाता है, सरलता जल जाती है, लज्जा जल जाती है, जो कुछ जलने लायक नहीं है, वह भी जल जाता है। और उसी के साथ-साथ दूसरे की आशा, उत्साह, प्रफुल्लता, सुख, उच्चाभिलाष, माया सब कुछ लुप्त हो जाता है। इसी से कहता हूँ कि यह स्थान सुख का भी है, दु.ख का भी है। जो चला जाता है, उसे सुख है; जो रह जाता है, उसको दुःख है। इस संसार का यही नियम है। सब कुछ अच्छा है और सब कुछ बुरा भी है। कुसुम में सौरभ है, कंटक भी है; मधु में मिष्टता है, तीव्रता भी है, सूर्यरश्मि में प्रफुल्लता है, रोग पैदा करने की शक्ति भी है। रमणी की आँखों में सौंदर्य है, सर्वनाश भी है। रमणी के हृदय में प्रेम है, छल भी है। धन से क्षमता की वृद्धि होती है, यौवन निर्वाचन की प्रतिबंधकता भी होती है। जगत् में कोई वस्तु निर्दोष नहीं दिखलाई पड़ती। सब में भला-बुरा मिला हुआ है। इसलिए प्रकृति देखकर जहाँ तक समझता हूँ, उससे बोध होता है कि हम लोग जो यह संसार देख रहे हैं उसका जो आदि कारण है वह भी भला-बुरा मिला हुआ है, अथवा दो शक्तियों से यह जगत् उत्पन्न हुआ है। उनमें से एक अच्छी, एक बुरी है; एक स्नेह, एक घृणा है; एक अनुराग, एक विराग है; एक आकर्षण, एक विकर्षण है। लेकिन क्या कहते-कहते क्या कहने लगा।

    यह जो संसार है, वह एक महाश्मशान है! निरंतर बहता हुया कालस्रोत दिन-दिन, प्रति दंड, प्रति क्षण, पल-पल में सबको बहाए लिए जाता है और विस्मृति के गर्भ में डाल देता है। गत मुहूर्त में जिसे देखा है, वर्तमान मुहूर्त में उसका पता नहीं है। प्राण देने पर भी वह नहीं सकता। इस घड़ी जो मौजूद है, दूसरे ही क्षण में वह नहीं हो जाएगा—सारा संसार छान डालोगे, तो भी उसे नहीं पाओगे। वह कहाँ जाता है, कहाँ जाएगा, यह जितना तुम्हें मालूम है, उतना मुझे भी मालूम है; और उसमें अधिक कोई नहीं जानता। सब जाता है, कुछ रहता नहीं रह जाती है केवल कीर्ति। कीर्ति अक्षय है। कालिदास चले शकुंतला रह गई। शेक्सपियर चले गए, हैमलेट आज तक मौजूद है। वाशिंगटन चले गए, पर अमेरिका की स्वाधीनता की ध्वजा आज भी फहरा रही है। रूसो चले गए, पर साम्यवाद का दुंदुभिनाद आज तक पृथ्वी में घोषित हो रहा है। कीर्ति रहती है। अकीर्ति भी रहती है। आदमी के भले-बुरे गुण आदमी के साथ ही साथ चले जाते हैं, पर उसकी कीर्ति और अकीर्ति जगत् में रह जाती है। वाशिंगटन का स्वदेशानुराग उनके साथ ही चला गया। शेक्सपियर का चरित्रदोष भी उन्हीं के साथ चला गया। किंतु वे संसार का जो उपकार कर गए हैं, उसका सौरभ दिन-दिन अधिकाधिक फैल रहा है। यही जगत् का सार तत्त्व है—धर्म की मूल भित्ति है, पुण्य का सुवर्ण-सोपान है। किंतु क्या कह रहा था।

    यह संसार एक महाश्मशान है। जो चिंताग्नि यहाँ धधक रही है, उसमें जो जले, ऐसी चीज़ ही दुनिया में नहीं है। जड़ प्रकृति किसी का मुँह नहीं देखती। जो सामने आता है, उसी को जलाती हुई, पहले की तरह धधकती हुई, हँसती और किलकारती हुई चली जाती है। यह जो नक्षत्रों का समूह अल्पांधकार में झिलमिला रहा है, वह इस विश्वव्यापी महावह्नि की सिर्फ़ चिनगारियाँ हैं। इस संसार में अग्नि कहाँ नहीं है? निर्मल चंद्रिका में, प्रफुल्ल मल्लिका में, कोकिल की काकली में, कुसुम के सौरभ में, मृदुल पवन में, पक्षियों के कूजन में, रमणी के मुखड़े में, पुरुष में—कहाँ आग नहीं धधक रही है? किस आग में आदमी नहीं जलता? अगर प्यार करोगे तो जल मरना होगा; और यदि नहीं प्यार करोगे तो और भी जल-भुनकर ख़ाक हो जाना होगा। लड़केबाले होंगे तो शून्य गृह लेकर जलना होगा; अगर होंगे तो संसारज्वाला में जलना होगा। केवल मनुष्य ही नहीं, सारे संसार के जीव जला करते हैं। प्राकृतिक निर्वाचन में जलते हैं, यौवन निर्वाचन के हृदय में जलते हैं, सामाजिक निर्वाचन में जलते हैं, परस्पर के अत्याचार से जलते हैं। कौन नहीं जलता? इस संसार में आकर कौन स्वस्थ मन से, अक्षत शरीर से चला गया? दुःख के ऊपर दुःख तो यह है कि इस पापी संसार में सहृदयता नहीं, सहानुभूति नहीं करुणा नहीं। इस अनंत जीवसमूह का इस महावह्नि में हाड़-हाड़ जल रहा है और जड़ प्रकृति केवल व्यंग्य करती है। चंद्रमा के सदा हँसमुख चेहरे पर कभी किसी ने विषाद का चिह्न देखा है? नक्षत्रराशि के सौभाग्य भरे मृदु कंपन में कभी हास या वृद्धि देखी गई है? कल्लोलिनी के कलनिनाद में कभी किसी ने स्वरविकृति देखी है? नवकुसुमिता लता के डोलने में कभी किसी ने ताल भंग होते देखा है? हम लोग जल रहे हैं; किंतु यह देखो, वृक्षराजि करताली दे देकर नाच रही है। यह देखो, समीरण हँस रहा है... हा हा, हो हो!

    हाय! इस तरह से और कितने दिन जला करूँगा? तक यह यंत्रणा दूर होगी! क्या फिर कभी तुम्हें नहीं पाऊँगा? आज हो, कल हो, दस दिन बाद हो, जन्म-जन्मांतर में हो, या युगयुगांतर में हो कभी किसी दिन तुम्हें पाऊँगा कि नहीं? अगर नहीं पाऊँगा तो क्या भूल भी नहीं सकूँगा? मुझे मन ही मन एक विश्वास है कि जिस दिन इस सैकतशय्या पर अंतिम निद्रा में सोऊँगा, उसी दिन शायद उसे भूल सकूँगा। तभी शायद आग बुझेगी। इसी से तो कभी-कभी मरने की इच्छा होती है। फिर यह भी कहना पड़ता है कि उसे भूल जाना पड़ेगा, उसके साथ संबंध नहीं रह जाएगा, ऐसा विश्वास होने ही के कारण मरने की इच्छा नहीं होती। वह इस जन्म में फिर आँखों के आगे नहीं आवेगी, यह जानता हूँ पर दिल ही दिल में उसे सदा देखा करता हूँ। वह जहाँ है, वह स्थान पवित्र है। उस मंदिर को जान-बूझकर क्यों तोडूँगा? पर क्या प्राण रहते तोड़ा जा सकता है। वह जब तक चिंता का विषय है, तब तक चिंता बनी रहे, यही ठीक है। बड़ी यंत्रणा होती है, तो इससे क्या। अगर उसके लिए यंत्रणा सही तो मनुष्य-जन्म को धिक्कार है। इस प्रेम को धिक्कार है! इन प्राणों को धिक्कार है! इस परिणाम को धिक्कार है! किंतु मालूम होता है कि मैं फिर उसे पाऊँगा, शायद फिर मैं और वह दोनों मिलकर एक होंगे।

    जगत् परिवर्तनशील है, अतएव संभव है कि वह मिट्टी और यह मिट्टी मिल सकेगी—उस कांत कलेवर के परमाणुओं के साथ इस जली हुई मिट्टी के परमाणुओं की संगति हो सकेगी। दो देहों के विलग हुए उपकरणों का पुनः मेल होकर एक नई सत्ता की सृष्टि हो सकती है। इसी से कहता हूँ कि संभव है कि परलोक में हम दोनों एक हो सकें। बम भोलानाथ! वह और मैं—जो प्राण का प्राण है, जो जीवन का जीवन है, जो नयनों का नयन है, जो हृदय का हृदय है, वह और मैं—जो संसार की माया है, जो जीवन को नौका है, जो गृह की आकर्षिणी शक्ति है, वह और मैं—जो संसारांधकार में चंद्रमा है, जो जीवनमरुभूमि का शाद्वल है, जो भवसागर की तरणी हैं, जो जीवनपथ की पाठशाला है, वह और मैं—जो पृथ्वी का सार है, स्वर्ग का आदर्श है, जो इहलोक का सर्वस्व है, जो परलोक से भी बढ़कर है, वह और मैं जो गृहकुंज की सुखलता है, जो चिंतासागर की प्रफुल्ल नलिनी हैं, जो आशा-लता का आश्रयतरु है, वह और मैं—जो संसाररूपी विदेश की स्नेहमयी संगिनी है, जो जीवनमरूभूमि का शीतल सरोवर है, जो भूत भविष्यत रूपी अंधकार का उज्ज्वल तारा है, जो हृदयकानन का विकच कुसुम है, वह और मैं—जो आशा में विश्वास है, जो काया में मोह है, जो प्रेम में कवित्व है, जो दुःख में सांत्वना हैं, जो सुख में चाहिए, वही है—वह और मैं शायद फिर भी मिल जाएँगे वह मरकर मिट्टी हुई है, मैं भी मर कर मिट्टी होऊँगा। फिर दोनों की मिट्टी एक हो जाएगी। मेरी देह के परमाणुओं में उसकी देह के परमाणु मिलेंगे। वह और मैं दोनों एक हो जाएँगे, तब एक नई सत्ता का अभ्युदय होगा। जो सत्ता होगी वह बुरी ही क्यों हो, पर वह मिलन कैसे सुख का मिलन होगा। वह संघटन कैसा सुखकर होगा!

    मेरी वह आदरणीय, वह सुहागिन, अतीत के कोमलाकाश वह इंद्रधनुष, वर्तमान के अँधेरे गगन की यह सौदामिनी कैसा हृदय को आनंद देनेवाला मिलन होगा। दोनों मिलकर एक नई सत्ता का उदय करेंगे। कैसा सुखकर मिलन है! जन्मांतर में कौन संदेह करता है? आत्मा क्या है? वह शरीरयंत्र की गतिमात्र है। इसी से कहता हूँ कि शरीर का प्रत्येक परमाणु आत्मा है। मनुष्य मरने पर वृक्ष हो सकता है, तृण हो सकता है, पत्थर हो सकता है, मनुष्य हो सकता है, नक्षत्र हो सकता है, पशु हो सकता है और कीट भी हो सकता है। जो डरपोक डर के मारे घर से बाहर नहीं निकल सकता, उसी की देह में एकिलिस या सिकंदर की, सीजर या हनीवाल की, नेपोलियन अथवा इयामिनडास की, व्रासिडास अथवा लाइसेंडर की, भीम अथवा अर्जुन की देह का अंश हो तो कोई अचरज की बात नहीं। राम के शरीर में संभव है कि कालडेरन अथवा लैप डी बेगार, मेटे अथवा शिलर, पिट्रार्क अथवा डाटे, कर्नेली अथवा रेसाइन, शेक्सपियर अथवा कालिदास, होमर अथवा वर्ज्जिल, व्यास अथवा वाल्मीकि की आत्मा रही हो। संभव है कि मोहन की देह स्कालिगर अथवा मेंलियाविक की विशिष्ट देह के उपकरण से बनी हो। यह जो हंसपुच्छ लेखनी है, संभव है कि इसके भीतर रूसो अथवा वाल्टेयर मौजूद हों। हो सकता है कि इस मसिपात्र में शाक्यसिंह अथवा कोमट हों। यह हृदय जिसके लिए लालायित है, संभव है कि वह इसी हृदय में हो। मनुष्य की देह का प्रतिक्षण आणविक परिवर्तन हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति प्रति सातवें वर्ष नया कलेवर धारण करता है। उस सदा होते रहनेवाले परिवर्तन के प्रवाह में तैरता हुआ उस देह का परमाणु, संभव है कि, इस देह में मिल रहा हो। जगत में कोई बात आश्चर्य की नहीं है; और सभी कुछ आश्चर्यजनक है। जो चला गया, सारा जगत जिसके चले जाने से अंधकारमय हो गया, वह फिर लौटकर सकता है—चाहे युगयुगांतर में हो, कल्पांतर में हो। वह अकलंक चंद्रमा आकर फिर भी इस आक़ाश में दिखलाई देगा। पुनर्जन्म असंभव नहीं है। उसमें उस अमूल्य निधि में जो-जो चीज़ें थीं, सब की सब हैं। कोई वस्तु बिलकुल विलुप्त नहीं होती। सब कुछ है, केवल एकत्र नहीं है। वे सब उपकरण जगत् में विराजमान हैं। जिस दिन उसका एकत्र संघटन होगा, उसी दिन सोचते हुए भी हृदय थिरक उठता है, प्राणों के भीतर रोमांच हो जाता है उसी दिन फिर संसार मरुभूमि में वह सुकुमार, वह मनोहर, वह सुंदर कुसुम खिलेगा। दशों दिशाओं को उज्ज्वल करता हुआ, जगत से जगदतर पर्यंत लहराता हुआ वह सौरभ विश्व के एक प्रांत से दूसरे प्रांत पर्यंत अपने पवित्र प्रवाह से पवित्र करता हुआ खिल उठेगा। पुनर्जन्म असंभव नहीं है।

    हिंदू धर्म में ऐसी कोई बात नहीं जो निरी भ्रमपूर्ण हो, ऐसा कोई मत नहीं जो हँसकर उड़ा देने लायक हो। जो चिंताशील है, वह सदा यही कहेगा कि हिंदू धर्म सब धर्मों से अच्छा है। ईश्वर निराकार है, यह दिल्लगी की बात है। देह से निरपेक्ष तो कोई चैतन्य जीव इस जगत् से दिखलाई ही नहीं देता। जब तक नहीं देखूँगा, तब तक नहीं मानूँगा। जगत् का कारण इच्छामय है, यह बात मुर्ख लोग कहा करते हैं। एक कारण का एक कार्य होता है। जिस कारण से इस जगत् की उत्पत्ति हुई है, उस कारण से दूसरी तरह की सृष्टि होना असंभव है। ईश्वर सर्वशक्तिमान और दयामय है, यह प्रलापमात्र है। अपने हृदय पूछ देखो। एक जीव पृथ्वी में आता है। वह मर सकता है, अकर्मण्य हो सकता है, पृथ्वी का बोझ हो सकता है। किंतु केवल उसके संसारप्रवेश के लिए और एक उत्कृष्टतर जीव को मृत्युयंत्रणा भोगनी पड़ती है। उस यातना से कोई लाभ है, कोई विपद् दूर होती है, कोई उद्देश्य पूरा होता है, किसी का सुख बढ़ता है, किसी का दुःख घटता है। तो भी वह यमयातना भोगनी ही पड़ती है। निरर्थक यातना देना जिसका काम है, वह निष्ठुर है, वह निर्दय है। किंतु दया कहते-कहते क्या बक गया! वह फिर सकती है। जो चली गई हैं—जगत् की माधुरी हरण कर हृदय के परदे-परदे में आग सुलगाकर, सोने के संसार को छार-छार कर, सुख के पात्र में विष घोल कर, भीतर बाहर सर्वत्र नैराश्य फैलाकर जो चली गई है, वह फिर लौटकर सकती पर मैं पागल तो नहीं हो गया हूँ? कहाँ वह और कहाँ मैं! वह प्रेम कहाँ है? वह सुंदर संसार कहाँ है। परिप्लुत हृदय कहाँ है? हाय, मैं मर क्यों गया! जिस समय वह धोखा देकर चली गई, उसी समय उसके पीछे-पीछे क्यों चला गया! जिस समय उस मुखड़े पर मृत्यु की विकट छाया पड़ी, उसी समय ज़हर क्यों नहीं खा लिया? वह चिंता जो रात के अंधकार को दूर करती हुई भागीरथी सैकत में उजाला किए हुए थी, उसी में क्यों कूद पड़ा! उस सोने की सी देह की बचीखुची हड्डियों को जब कलेजे पर पत्थर रखकर प्रवाह करने गया था, उसी समय क्यों नहीं जल में डूब मरा! क्यों फाँसी लगाकर मर गया! कलेजा उथलपुथल होने लगा। चारों ओर अंधकार दिखलाई पड़ने लगा। कातर स्वर से, उद्धात भाव से, चिल्ला उठा—प्राणाधिके! तुम कहाँ हो? मेरे हृदय के आलोक मेरे बाहर के अंतर, मेरे नयनों के मणि, मेरे सर्वस्व के सर्वस्व, मेरे सब कुछ, मेरे जीवनसर्वस्व, मेरी तुम कहाँ हो? दूसरे पार से कठोर प्रतिध्वनि ने कठोर स्वर, उत्तर दिया—अब कहाँ? आक़ाश उसी कठोर स्वर में स्वर मिलाकर गूंजता हुआ बोला—अब कहाँ? यह कठोर स्वर जब दूर पहुँचकर विलीन होने लगा, तब बोला—अब कहाँ? मैं स्तंभित हो रहा। मुहर्त भर के लिए अंतर्जगत का अस्तित्व लुप्त हो गया। हाय! किस मूर्ख ने विधाता को प्रतिध्वनि की सृष्टि करने को कहा था?

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी निबंधमाला (दूसरा भाग ) (पृष्ठ 89)
    • संपादक : श्यामसुंदर दास
    • रचनाकार : ब्रजनंदन सहाय
    • प्रकाशन : नागरी प्रचारिणी सभा

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