बेला फूले आधी रात
bela phule aadhi raat
बेला आधी रात को खिलता है और चमेली को तो सवेरे का खिलना पसंद है। लोकगीत की महिमामयी वाणी ने बेला और चमेली के बीच जाने कब से सीमा-रेखा खींच रखी है—'बेला फूले आधी रात, चमेली भिनसरिया हो!' पसंद अपनी-अपनी। कोई किसी को मजबूर तो नहीं कर सकता। प्रत्येक फूल ने अपने खिलने का समय निश्चित कर रखा है। वनस्पति-शास्त्र के विशेषज्ञ लाख कहते रहें कि बेला चमेली की जाति का फूल है, पर इसका यह मतलब नहीं कि एक दिन बेला और चमेली में समझौता हो जाएगा। चमेली भले ही अपना खिलने का समय बदल दे, बेला कभी इसके लिए तैयार नहीं होगा।
बंगाल का एक बाउल-गान है जिसमें बड़े मार्मिक शब्दों में कहा गया है—'तुइ की मानस मुकुल भाजबि आगुने, तुइ की फुल फोटाबी फल फलाबि शबुर बिहने?' अर्थात् क्या तू मन की कली को आग पर भून डालेगा? क्या तू फूल खिलाएगा, फल पकाएगा, सब के बिना? प्रतिभा चाहे एक व्यक्ति की हो चाहे समूचे देश की, विकास की विभिन्न अवस्थाओं में से लांघकर ही अपनी अभिव्यक्ति कर पाती है। ख़ैर इस समय तो बेला की बात चल रही है। धूप के साथ-साथ बेला की पंखड़ियाँ सुकड़ने लगती हैं, जैसे रात में खिले हुए फूलों को अपने बचाव का यही उपाय सिखाया गया हो। धूप के ढलते ही ये फूल फिर से खिलने लगते हैं, सात बजे ये ख़ूब खिले हुए मिलेंगे। पर नई कलियाँ अपनी ज़िद पर अड़ी रहती हैं। वे कभी आधी रात से पहले नहीं खिलतीं। अब जिसे एकदम बेला के नए फूल लेने हो उसे नींद का मोह छोड़कर जागना पड़ता है।
कौन है यह सुंदरी जो रतजगा कर रही है! तुम लाख अपने गीत का बोल गुनगुनाओ, बेला के फूल तो ठीक समय पर खिलेंगे—'बेला फूले आधी रात, गजरा मैं के के गरे डारूँ!' तुम्हारे प्रियतम को भी जागते रहना होगा। क्यूँकि बेला के फूल किसी का लिहाज़ नहीं करते। धैर्य रखना होगा। फूलों को खिलने दो फिर शौक से गजरा गूँथना, शौक से इसे अपने प्रियतम के गले में डालना।
झट मेरा ध्यान अशोक संबंधी कविप्रसिद्धि की ओर पलट जाता है। सचमुच वह दृश्य बहुत मनोहर होता होगा जब सुंदरियों के सनूपुर चरणों के मृदु आघात से अशोक के फूल एकदम खिल उठते होंगे। आजकल त्रयोदशी के दिन मदनोत्सव क्यों नहीं मनाया जाता? राजघरानों में प्रायः महारानी ही मदनोत्सव के शुभ अवसर पर अशोक की नायिका बनना पसंद करती थी। हाँ, यदि वह चाहती तो किसी अन्य सुंदरी को भी यह कार्य सौंप सकती थी। अशोक के नीचे स्फटिक के आसन पर बैठे हुए प्रिय को मदन का प्रतीक मान कर अबीर, कुंकुम, चंदन और पुष्पों से सेवा की जाती थी। आज कोई सुंदरी नृत्य-मुद्रा द्वारा प्रिय के चरणों पर वसंत-पुष्पों की अंजलि क्यों नहीं बिखेरती! उन दिनों जन-जीवन में भी मदनोत्सव की थोड़ी-बहुत परंपरा अवश्य रही होगी। शायद कोई कह उठे कि मानव बहुत आगे निकल आया है—इतना आगे कि वह पलट कर अतीत को नहीं देख सकता। अशोक पहले भी खिलता होगा, आज भी खिलता है, उसके लाल-लाल फूल, जिन्हें एक दिन मदन देवता ने अपने तुणीर में स्थान देने के लिए अपनी पसंद के पाँच फूलों में स्थान दिया था, आज भी प्रकृति के चित्रपट में रंग भर देते हैं। श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अशोक की साहित्यिक परंपरा की रूप-रेखा अंकित करते हुए ठीक ही लिखा है—ऐसा तो कोई नहीं कह सकेगा कि कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में इस पुष्प का कोई नाम ही नहीं जानता था; परंतु कालिदास के काव्यों में वह जिस शोभा और सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है वह पहले कहाँ था! उस प्रवेश में नववधू के गृह प्रवेश की भाँति शोभा है, गरिमा है, पवित्रता है और सुकुमारता है। फिर एकाएक मुसलमानी सल्तनत के साथ-ही-साथ यह मनोहर पुष्प साहित्य के सिंहासन से चुपचाप उतार दिया गया। नाम तो लोग बाद में भी लेते थे, पर उसी प्रकार जिस प्रकार बुद्ध, विक्रमादित्य का। अशोक को जो सम्मान कालिदास से मिला वह अपूर्व था... अशोक किसी कुशल अभिनेता के समान झम से रंगमंच पर आता है और दर्शकों को अभिभूत करके खप से निकल जाता है... ईसवी सन् के आरंभ के आसपास अशोक का शानदार पुष्प भारतीय धर्म, साहित्य और शिल्प में अद्भुत महिमा के साथ आया था...धर्मग्रंथों से यह भी पता चलता है कि चैत्र शुक्ल अष्टमी को व्रत करने और अशोक की आठ पत्तियों के भक्षण से स्त्री की संतान-कामना फलवती होती है। अशोक कल्प में बताया गया है कि अशोक के फूल दो प्रकार के होते हैं—सफ़ेद और लाल। सफ़ेद तो तांत्रिक क्रियाओं में सिद्धिप्रद समझ कर व्यवहृत होता है और लाल स्मरवर्धक होता है...बहुत पुराने ज़माने में आर्य लोगों को अनेक जातियों से निपटना पड़ा था। जो गर्वीली थीं, हार मानने को प्रस्तुत नहीं थी, परवर्ती साहित्य में उनका स्मरण घृणा के साथ किया गया और जो सहज ही मित्र बन गई उनके प्रति अवज्ञा और उपेक्षा का भाव नहीं रहा। असुर, राक्षस, दानव और दैत्य, पहली श्रेणी में तथा यक्ष, गंधर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, वानर, भालू, दूसरी श्रेणी में आते हैं। परवर्ती हिंदू समाज इस में सबको अद्भुत शक्तियों का आश्रय मानता है, सबमें देवता-बुद्धि का पोषण करता है। अशोक वृक्ष की पूजा इन्हीं गंधर्वों और यक्षों की देन है...असल पूजा अशोक की नहीं, बल्कि उसके अधिष्ठाता कंदर्प देवता की होती थी। इसे मदनोत्सव कहते थे...अशोक का वृक्ष जितना भी मनोहर हो, जितना भी रहस्यमय हो, जितना भी अलंकारमय हो, परंतु है वह उस विशाल सामंत सभ्यता की परिष्कृत रुचि का ही प्रतीक जो साधारण जनता के परिश्रमों पर पली थी, उसके रक्त के संसार कणों को खाकर खड़ी हुई थी और लाखों करोड़ों की उपेक्षा से समृद्ध हुई थी। वे सामंत उखड़ गए, साम्राज्य ढह गए और मदनोत्सव की धूम-धाम भी मिट गई। संतान कामनियों को गंधर्वों से अधिक शक्तिशाली देवता का वरदान मिलने लगा—पीरों ने, भूत-भैरवों ने, काली दुर्गा ने यहाँ की इज़्ज़त घटा दी। दुनिया अपने रास्ते चली गई, अशोक पीछे छूट गया!...अशोक आज भी उसी मौज में है, जिसमें आज से दो हज़ार वर्ष पहले था। कहीं भी कुछ नहीं बदला है। बदली है मनुष्य की मनोवृत्ति। यदि बदले बिना वह आगे बढ़ सकती तो शायद वह भी नहीं बदलती...अशोक का फूल तो उसी मस्ती से हँस रहा है...कहाँ, अशोक का कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है। कितनी मस्ती से झूम रहा है। कालिदास इसका रस ले सके थे— अपने ढंग से मैं भी ले सकता हूँ; पर अपने ढंग से उदास होना बेकार है।“
फिर बेला की ओर देखता हूँ तो लगता है मन यूँ ही दूर भटक गया था। होगा अशोक अपनी जगह। बेला ने तो कभी उससे होड़ नहीं ली, न उसका ऐसा इरादा ही है। हाँ, एक बात छूट रही है। उसे अभी निबटा लें। मदन देवता ने शिव पर वाण फेंकने की बात न सोची होती तो आज हमें कहीं भी बेला फूल के दर्शन नहीं पाते। वामन पुराण में इस गाथा का उल्लेख किया गया है। मदन का शरीर एक दम जलकर राख हो गया। उसका सृनमय धनुष खंड-खंड होकर धरती पर गिर गया। इसकी रुक्म-मणि की बनी हुई मूठ टूटकर धरती पर गिरी तो वहाँ चंपा का पुष्प बन गया; हीरे का बना हुआ नाहस्थान गिरा तो वहाँ मौलसिरी के पुष्पग्विल उठेः इंद्रनील मणियों का कोटि-देश गिरा तो वहाँ पाटल पुष्प उत्पन्न हो गए; चंद्रकांत मणियों का बना हुआ मध्यदेश गिरा तो वहाँ चमेली-ही-चमेली नज़र आने लगी; और जहाँ विद्रुम की बनी निम्नतर कोटि गिरी वहाँ बेला के श्वेत फूल खिल उठे! अब इतना तो पूछा जा सकता है कि क्या यह घटना सचमुच आधी रात को ही घटी थी। क्योंकि आधी रात से पहले या पीछे तो बेला के फूल खिलते ही नहीं। सबसे बड़ा अचरज तो यह है कि विद्रुम अथवा मूँगा के बने निम्नतम कोटि के टूटकर गिरने से बेला के फूल कैसे पैदा हो गए! मूँगे का रंग लाल होता है और बेला का एकदम श्वेत। लाल कैसे श्वेत में परिणत हो गया?
बेला ग्रीष्म ऋतु का फूल है। दिन में जितनी अधिक गरमी पड़ती है, रात को उतनी ही शान से बेला खिलता है। शीतकाल के आरंभ तक बेला ख़ूब खिलता है। महाराष्ट्र और आंध्र देश में सुंदरियों की वेणियों पर गूँथे हुए बेला फूल जिसने नहीं देखे उसे इन प्रदेशों में अवश्य जाना चाहिए। यह कला बस वहीं है। वहाँ की सुंदरियाँ जब दूसरे प्रांत में आती हैं तो इस कला का प्रदर्शन करने से नहीं चूकतीं। पारसी वर-वधू के बीच बेला फूलों की मालाओं को झीनी चिक लटकाने की प्रथा है। उत्तर भारत में वर का सेहरा बेला फूलों से गूँथा जाता है। बंगाल में वर की पुष्प-शय्या पर जहाँ अनेक फूल बिछाते हैं वहाँ बेला को भी भुलाया नहीं जाता।
अभी उस दिन एक बंगाली मित्र ने बताया कि उनके यहाँ फूल प्रायः देवताओं की पूजा में ही अर्पण किए जाते हैं। शिव को श्वेत फूल पसंद है, गौरी को लाल फूल। शिव को सुगंधित फूल नहीं चाहिए, उनका काम तो धतूरे के फूलों से ही चल सकता है। सोचता हूँ बेला फूल श्वेत होने के बावजूद सुगंधित होने के कारण शिव को पसंद नहीं आ सकते होंगे। भले ही इनका रंग श्वेत है, पर ये सुगंधित तो हैं। गौरी की पूजा में ही इनका अधिक प्रयोग किया जा सकता है। यह जान कर मेरे हृदय पर अवश्य चोट लगी कि बेला फूल की चर्चा बंगाली लोकवार्ता और साहित्य में अधिक नहीं मिलती? इसलिए रवींद्रनाथ ठाकुर की एक कविता में बेला का नाम देखकर मुझे अपार हर्ष हुआ—
“शेई चाम्पा शेई बेल फुल
के तोरा आजि ए प्राते एने दिलि मोर हाते
जल आशे आंखि पाते हृदय आकुल
शेई चाम्पा शेई बेल फुल!”
—“वही चम्पा, वहीं बेला फूल
आज सवेरे तुम में से किसने मेरे हाथ में ला थमाये?
मेरी आँखों में अश्रु हैं, हृदय आकुल है,
वही चम्पा, वही बेला फूल!”
बंगला-लोकवार्ता और साहित्य में बेला की चर्चा का इतना अभाव क्या है? इसका उत्तर सहज नहीं। रजनीगंधा, चंपा, जूही, चमेली, कमल, अपराजिता आदि अनेक पुष्पों का बार-बार नाम लिया जाए और बेचारे बेला को एकदम भुला दिया जाए, इसे तो न्याय नहीं कहा जा सकता। बल्कि 'सात भाई चंपा' शीर्षक बंगला-लोककथा में तो 'पारुल' फूल का नाम आया है जिसे आज तक किसी ने देखा नहीं। कहते हैं कि एक राजा के सात राजकुमार थे और एक राजकुमारी। राजा की तीन अन्य रानियों ने मिलकर बड़ी रानी का सम्मान इतना कम कर दिया कि बेचारी को दासी बन जाने पर मजबूर हो जाना पड़ा। राजकुमारों और राजकुमारी को धरती में दफ़ना दिया गया। वहाँ बहिन के स्थान पर 'पारुल' का पौधा और भाइयों के स्थान पर सात चंपा उग आए। जब भी राजा का माली या रानियाँ इन पौधों के फूल तोड़ने आते, फूल ऊपर-ही-ऊपर उठ जाते। अंत में जब राजकुमारी और राजकुमारों की माता वहाँ आई तब फूल नीचे झुक कर उसकी झोली में आ पड़े। इस कथा से संबंधित लोक-कविता का एक बोल बड़ा मार्मिक है—
“सात भाई चाम्पा जागो रे
केनो बोन पारुल डाको रे
राजार माली एसे छे
फूल देबे कि देबे ना?
न दिबो न दिबो फूल
ऊठिबो शतेक दूर
आगे आशुक राजार बड़ी रानी
तबे दिबो फूल”
—'जागो रे सात भाई चम्पा!'
'काहे को बुला रही हो पारुल बहिन!'
'राजा का माली आ रहा है
फूल दोगे कि नहीं दोगे?'
'नहीं देंगे, फूल नहीं देंगे,
सौगुना ऊपर उठ जायेंगे
आगे राजा की बड़ी रानी आवेगी
तभी फूल देंगे!'
इन्हीं छोटी-छोटी कथाओं में मनुष्य की विजय-यात्रा की अमर कहानी अंकित है। मरकर भी फूलों के रूप में पैदा होने का क्रम निरंतर प्रवाहमय जीवन का प्रतीक है।
(2)
बेला के फूल फिर खिल गए। लोकगीत इनके सदैव ऋणी रहेंगे। मनुष्य के युग-युग से संचित संस्कार से फूलों को जो स्थान प्रात है उससे वे कभी च्युत नहीं किए जाएँगे। सोचता हूँ मनुष्य ने प्रकृति पर विजय नहीं पाई, बल्कि प्रकृति ने मनुष्य पर विजय पाई है। न जाने किस मूक भाषा में प्रकृति मनुष्य को अपनी ओर आने का संदेश भिजवाया करती है—अब तो फूल खिल गए, क्या अब भी न आओगे? फिर तुम्हें कब फुरसत मिलेगी?
एक भोजपुरी विवाह-गान में कन्या की तुलना बेला फूल से की गई है। किस प्रकार नैहर छोड़ने के विचार से कन्या का हृदय चिंताग्रस्त हो उठता है, इसका इतना सुंदर चित्रण लोक-प्रतिभा की अग्रगामी शक्तियों का प्रतीक है—
“बाबा बाबा गोहरावौं बाबा नाहीं जागें
देत सुनर एक सेंनुर भइलू पराई।
भैया भैया गोहरावौं भैया नाहीं बोलेलें
देत सुघर एक सेंनुर भइउ पराई।
बनवा में फूलेली बेइलिया अतिहि रूप आगरि
मलिया त हाथ पसारे तू होसि जा हमार
जनि छूवा, ए माली, जनि छुव, अबहिं कुंवारि
आधी रातिं फूलिहें बेइलिया त होइबों तोहार।
जनि छूअ, ए दुलहा, जनि छूअ, अबहिं कुवांरि
जब मोरे बाबा सँकलाये हे तब होइबों तोहारि।
—“बाबा! बाबा!! पुकार रही हूँ, बाबा जागते ही नहीं
एक सुन्दर पुरुष सिंदूर दे रहा है, मैं पराई हुई जा रही हूँ
भैया! भैया!! पुकार रही हूँ, भैया सुनते ही नहीं
एक सुघड़ पुरुष सिंदूर दे रहा है, मैं पराई हुई जा रही हूँ
वन में बेला की अत्यंत रूपवती कली खिल गई
माली ने हाथ पसारा—तुम हमारी बनो!
मत छुओ, हे माली, मत छुओ, अभी मैं कुमारी हूँ
आधी रात को बेला की कली खिलेगी तो मैं तुम्हारी हो जाऊँगी
मत छुओ, हे दूल्हा, मत छुओ, अभी मैं कुमारी हूँ
जब मेरे बाबा मुझे संकल्प देंगे तो मैं तुम्हारी हो जाऊँगी!”
एक मैथिली झूमर में पुष्प-शय्या की कल्पना की गई है जिसमें बेला फूलों ने उपयुक्त स्थान पाया है—
“कौन फूल फूलै आधी आधी रतिया
कौन फूल फूलै भिनसार मधुवन में
बेली फूल फूलै आधी आधी रतिया
चम्पा फूल फूले भिनसार मधुवन में
घर मछुअरवा लोहरवा भइया हित वसु
लालि पलंग बिनि देहु मधुवन में
फुलवा में लेढ़ि लेढ़ि सेजिया डसैलों
राजा बेटा खेलइअ शिकार मधुवन में
हटि सुतु हटि बइसु सासुजी के बेटवा
घामे चोलिया हयत मलिन मधुवन में
होय दिअऊ होय दिअऊ सासु जी के बेटिया
धोबी घर देबइ धोआय मधुवन में
धोबिया के बेटा पिया बरा रंगरसिया
चोलिया मसोरि रस लेत मधुवन में!”
—'कौन फूल आधी-आधी रात को खिलता है?
कौन फूल सवेरे खिलता है मधुवन में?
बेला फूल खिलता है आधी-आधी रात को
चम्पा फूल सवेरे खिलता है मधुवन में।
ओ घर के पिछवाड़े के लोहार भैया, तुम मेरे हितैषी हो
लाल पलंग बना दो मधुवन में।
फूल चुन-चुनकर मैंने शय्या सजाई
राजा बेटा शिकार खेलता है मधुवन में।
हटकर सोओ, हटकर बैठो, ओ सास के बेटे!
पसीने से मेरी चोली मैली हो रही है मधुवन में।
होने दो, होने दो, ओ सास की बिटिया!
धोबी के घर में धुला दूँगा मधुवन में।
ओ पिया धोबी का बेटा है बड़ा रंगरसिया,
चोली को मसलकर रस ले लेता है मधुवन में!'
एक फूल दिन के बारह बजे खिलता है तो दूसरा रात के बारह बजे—इसी टेक पर युक्तप्रांत का लोक-मानस सौंदर्यबोध की अनुभूति प्रस्तुत करता है—
“एक फूल फूलै खड़ी दुपहरिया
दूसर फूल फूलै आधी रात, हो गोरिया!
फुलवा बिनि-बिनि मैं रसा गरायों
हौदा भरा रस होय, हो गोरिया
उहै रसा का मैं चुनरी रंगायों
चुनरी भई रंगदार, हो गोरिया!
चुनरी पहरि मैं ओलयों ओसरवाँ
पियवा क मन ललचाय, हो गोरिया!
चोर की नैयां पिया लुकि-लुकि आवे
जेकरे मैं बिग्राही तेड पख फोरबा, हो गोरिया!”
—'एक फूल ठीक दुपहरी में खिलता है
दूसरा फूल खिलता है आधी रात को, ओ गोरी!
फूल चुन-चुनकर मैंने रस निचोड़वाया
रस से कुण्ड भर गया, ओ गोरी!
उसी रस से मैंने चुनरी रंगाई
चुनरी रंगदार हो गई, ओ गोरी!
चुनरी पहनकर मैं ओसारे में सोई
पिया का मन ललचा उठा, ओ गोरी!
चोर के समान पिया छिप-छिपकर आते हैं,
वही मानो सेंध लगाते हैं, ओ गोरी!'
बेला के रस से तो चुनरी नहीं रंगी गई होगी। पर आधी रात को खिलने वाले फूल भी चुने गए होंगे और दोपहर को खिलने वाले फूलों के साथ उन्हें भी निचोड़वा लिया गया होगा। यह कल्पना की जा सकती है।
कहीं-कहीं कृष्ण की शिकायत की गई है, क्योंकि उसकी कोई नटखट गाय जहाँ और फूलों पर मुँह मार जाती है वहाँ बेला का भी लिहाज़ नहीं करती। एक भोजपुरी विवाह-गान कुछ इसी तरह की शिकायत से शुरू होता है और फिर बीच से नाटकीय झाँकी की तरह वर-वधू की चर्चा छेड़ दी जाती है—
“नदिया के तीरे मालिन दोना लगावेली
दोना के घनी फुलवारी ए
सांझे के छुटेले कन्हइया के गइया
एइली चरी गइली बलि चरी गइलि
चरी गइलि चंपा के डाड़ ए
चरी गइली घनी फुलवारी ए
तीनु फूल मोर चरी गइलि गड्या रे
मउलेला चंपा के डाड़ ए
बरिज कन्हड्या रे आपन गइया
चरी गइलि घनी फुलवारी ए
झारा रे झरोखा चढ़ि सासु निरेखेलि
केते दल आवै बरियालि ए
हथिया अचास आवे घोड़वा पचास आवे
कत्थक आवेला बहुत ए
कत्थक कत्थक जनि करु सरहजि
कत्थक राउर बरियाति ए
मुँहे पटुक देके बोलेले कवन दुलहा
मसुर से अरज हमार ए
हाथी ही घोड़ा ससुर कुछऊ न लेबों
सरहज लेबे हम आइ ए
अतना बचन सरहज सुनहो न पबलों
चलतौ ससुर दरबार ए अइसन वर ससुर कतही न देखेलों
माँगेला पत बहुआर ए
जनि बहु हरकटु जनि बहु झनकहु
जनि मन करहुँ उदास ए
सोनवा ही रुपवा बहु बरधो लदाइबि
पूत बहु रखबो छिपाइ ए।“
—'नदी के तीर पर मालिन दोना लगा रही है,
दोना के लिए घनी फुलवारी है,
कन्हैया की गाय साँझ ही को छुट गई,
उसने घनी फुलवारी चर डाली,
एला चर गई बेला चर गई,
चंपा की डाल भी चर गई,
गाय मेरे तीनों फूल चर गई,
चंपा की डाल को मसल डाला,
रे कन्हैया, अपनी गाय को मना करो
मेरो घनी फुलवारी को चर गई,
झरोखे पर चढ़कर सास ने देखा,
कितने दल बारात आ रही है।
पचास हाथी और पचास घोड़े आते हैं,
बहुत से कत्थक आ रहे हैं,
कत्थक कत्थक मत कहो, यो सरहज!
कत्थक नहीं, ये सरदार बराती हैं,
मुँह को पटुका से ढककर दूल्हा बोला—
ससुर से हमारी प्रार्थना है,
ससुर जी, हाथी और घोड़ा, मैं कुछ नहीं लूँगा
हम तो सरहज को लेने आए हैं।
इतना वचन सरहज सुन न सकी
ससुर के दरबार में पहुँच गई—
हे ससुर, ऐसा वर मैंने कहीं नहीं देखा
वह तुम्हारी पुत्र-वधू माँगता है।
क्रोध मत करो पुत्र-वधू, झुँझलाओ मत, पुत्रवधू!
अपने मन को उदास मत करो
ओ पुत्र-वधू, मैं सोना और रूपा चैल पर लादकर उसे दूँगा,
पुत्रवधू को छिपाकर रखूँगा!'
जैसे वह गाय नटखट थी जो बेला फूलों को चर गई थी, वैसे ही यह वर भी कुछ कम नटखट नहीं जिसने दहेज के रूप में सरहज की माँग पेश कर दी। सरहज का दोष अवश्य था कि उसने बारातियों को कत्थक का ताना दिया।
ऐसे गीत बहुत कम हैं जिनमें स्वतंत्र रूप से केवल बेला फूलों की बात कही गई हो। कहीं दो फूलों की बात एक साथ कहने की प्रथा है तो कहीं एक साथ तीन-तीन बल्कि इससे भी अधिक फूलों का परिचय दिया जाता है—
“कौन मास फूलेला गुलबवा हो रामा,
कि कौना रे मासे?
बेला फूले चमेली फूले...
अवरू फूलेला कचनरवा हो रामा!
गेंदवा जो फूले माघ रे फगुनवाँ
चैत मास फूले गुलबवा हो रामा।“
—'कौन महीने गुलाब खिलना है, हे राम!
कौन महीने?
बेला खिलता है, चमेली खिलती है,
और खिलता है कचनार, हे राम!
गेंदा खिलता है माघ र फागुन में
चैत मास में खिलता है गुलाब, हे राम!'
पास से कोई भक्त अपना गान छेड़ देता है—
“राम नहिं जानें तौ और जाने का भा?
फूल तो वा है जो राम जी सोहै,
नाहीं तो बेला लगाय से का भा!”
—'राम को नहीं जाना तो दूसरों को जानने से क्या हुआ?
फूल तो वही है जो रामजी को सोहता है
नहीं तो बेला लगाने से क्या हुआ?'
बेला का नाम आते ही आधी रात का चित्र स्वयं अंकित हो जाता है। भक्त के लिए बेला, जो आधी रात को खिलता है, एक योगी का प्रतीक है जो रात्रि के एकांत वातावरण में योग का अभ्यास करता है, भोजपुरी लोकगीत में भक्त और देवी के प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किए गए हैं—
कौन फूल। फूलेला लाहारलि
कवन फूल रंथ साजे हो
ए मइया कवना फुलवा रहेलु लोभाई
सेवक राउर बाट जो है हो!'
'अइहुल फूल फूलेला लाहारलि
चंपा फूल रंथ साजे हो
ए सेवका बेला फूल रहीलें लोभाई
सेवकवा मोर रंथ साजे हो!
—'कौन फूल प्रफुल्लित होकर खिलता है?
किस फूल से रथ सजाया जाता है?
ओ मैया, तुम किस-किस फूल पर मुग्ध हो?
सेवक तुम्हारी बाट जोह रहा है।'
'अड़हुल फूल प्रफुल्लित होकर खिलता है,
चंपा फूलों से मेरा रथ सजाया जाता है,
ओ सेवक, बेला फूलों पर मैं मुग्ध हूँ
ओ सेवक, मेरे रथ को सजाओ।'
कल्पना में बेला का पौधा इतना ऊँचा उठ जाता है कि उसके नीचे सुंदरी खड़ी हो सके। एक स्थान पर यही चित्र प्रस्तुत किया गया है—
मैं बेला तरे ठाड़ि रहिऊँ के
जदुवा डारा!'
—'मैं बेला के नीचे खड़ी थी,
किसने जादू डाला?
बेला का रस लेकर भ्रमर को उड़ते देखकर शीतला माता के भोजपुरी लोकगीत में इस चित्र को इस प्रकार अंकित किया गया है—
“केकराहि आँगाना बेइलिया,
बेइलिया, हो लाल!
रसे हि रसे रस चुवे
रसकलिया, हो लाल!
मलिया आँगाना, ए सेबका,
बइलिया, हो लाल!
रसे हि रसे रस पीयेले
भँवरा मतवलवा, हो लाल!
माती गइले सीतली मइया के
दरबरवा, हो लाल!”
—'किस के आंगन में बेला खिल गया,
बेला, हो लाल?
धीरे-धीरे रस चू रहा है,
रस से भरी कली, हो लाल,
माली के आँगन में, ओ सेवक,
बेला खिल गया, हो लाल,
धीरे-धीरे रस पी रहा है।
मतवाला भ्रमर, हो लाल!
वह मतवाला हो गया शीतला मैया के
दरबार में, हो लाल!'
प्रियतम परदेस में हैं। इधर ‘उत्पाती’ वसंत आ गया। विरह और भी कठिन हो गया। मैथिल जनपद के एक 'चैंतावर' गीत में इस अवस्था का चित्र देखिए—
“नइ भेजे पतिया
आयल चैत उतपतिया हे रामा
नइ भेजे पतिया
चिरही कोयलिया शब्द सुनावे
कल न पड़े अब रतिया हे रामा
नइ भेजे पतिया
बली-चमेली फूले बगिया में
जोबना फूलल मोर अंगिया हे रामा
नइ भजे पतिया!”
—'प्रियतम ने पत्र नहीं भेजा,
उत्पाती चैत्र आ गया, हे राम!
प्रियतम ने पत्र नहीं भेजा!
विरही-कोयल कूक रही है
अब रात को कल नहीं पड़ती, हे राम!
प्रियतम ने पत्र नहीं भेजा!
बेला और चमेली बाग में खिलते हैं
यौवन खिल गया मेरे अंगिया में, हे राम,
प्रियतम ने पत्र नहीं भेजा!'
झूमर नृत्य के गीतों में घूम-फिरकर बेला के फूलों पर तान तोड़ने की प्रथा है, मैथिली का एक झूमर लीजिए—
“बेली पहिनि हम सोयली अंगनमा
अबा-जाइ कएलों
ओ मोर राजा अबा-जाइ कएलों
इ देहिया मोर अमा के पोसल
कइसे हक लगएलौ
ओ मोरे राजा, कइसे हक लगएलौ।
बेली अइसन हम चमकत रहलि
धूरमइल कइदेलौ
बेली पहिनि हम सोएलौ अंगनमा
अबा-जाइ कएलौ ओ मोरे राजा,
अबा-जाइ कएलौ!”
—'बेला के फूल पहनकर मैं आँगन में सो गई
तुमने आना-जाना किया ओ मोरे राजा, तुमने आना-जाना किया,
यह देह मेरी माँ की पाली हुई है
तुमने कैसे हक जताया?
ओ मोरे राजा, तुमने कैसे हक जताया?
बेला के फूल पहनकर मैं आंगन में सो गई
तुमने आना-जाना किया,
ओ मेरे राजा, तुमने आना-जाना किया!'
अब एक भोजपुरी झूमर लीजिए जिस पर अँग्रेज़ी काल की पूरी-पूरी छाया पड़ी है—
“मोरा अंगनइया में बेला की बहार बा
बेला भी फूले चमेली भी फूले
सब फुलवनवा में राजा गुलाब बा
मोरा अंगनइया में बेला की बहार बा
तबला भी बाजे सारंगी भी बाजे
सब बाजन में नामी सितार बा
मोरा अंगनइया में बेला की बहार बा
जूही भी फूले चंपा भी फूले
सब फूलन में राजा गुलाब बा
मोरा अंगनइया में बेली की बहार बा
डिपटी भी बइठे कलट्टर भी बइठे
सब से सुन्नर सैयां हमार बा
मोरा अंगनइया में बेली की बहार बा!
—'मेरे आंगन में बेला की बहार है।
बेला भी खिलता है, चमेली भी खिलती है
फूलों के वन में गुलाब सब का राजा है
मेरे आंगन में बेला की बहार है
तबला भी बजता है सारंगी भी बजती है
सब बाजों में सितार प्रसिद्ध है
मेरे आंगन में बेला की बहार है
जूही भी खिलती है चंपा भी खिलता है
फूलों में गुलाब सब का राजा है
मेरे आँगन में बेला की बहार है
डिपटी भी बैठा है कलक्टर भी बैठा है
सब से सुंदर मेरा प्रियतम है
मेरे आंगन में बेला की बहार है।'
एक कन्नड़ लोकगीत में शिव और गंगा की गाथा पिरोई गई है। गंगा फूल चुन रही है तालाब के किनारे। शिव अपने मंदिर के लिए पाँच फूलों की याचना करते हुए प्रणय का प्रसंग आरंभ करते हैं। ये काहे के फूल हैं, यह स्पष्ट नहीं। पर शिव तो श्वेत फूलों पर ही रीझते हैं। सहज ही हमें उन फूलों की स्मृति हो आती है जो आधी रात को खिलते हैं, एक दम चाँदनी से होड़ लेते हुए—
“हल्लद दण्ड्याग हूड कोट्युव जाणे
देवरिगे एदू दयमाडे।
देवरिगे ऐदूहू नानु दयमाडिदरे
नम्मवरु नन्न बैदारू।
अवरु बैय्यद हंगे अवरु काणद हगे
सुम्ने बागंगे जडेयागे।
बन्दारु बन्देनु, नम्बिगि काणादु
रंभे इरुवलु विन्न मनियागे।
उक्को हालनु तार सत्य माडुबे बार
रंभिल्ल बार मनियाग।
आरिद्दालुन तार आणि माडुवे वार
राणिल्ल वार-मनियाग।“
—'ओ सरोवर के किनारे फूल बीनने वाली सयानी!
मंदिर के लिए पाँच फूल ला री!'
‘मंदिर के लिए मैं पाँच फूल लाऊँ
तो मेरे घरवाले मुझे डाटेंगे।'
'उनकी आँख बचाकर चुपचाप यहाँ चली आ री
मेरी जटा में छिप जारी!'
'जी है कि आ जाऊँ, विश्वास नहीं आता,
कौन जाने तुम्हारे घर में कोई रंभा होगी!'
'गरम दूध ला री, मैं अपना कथन सच करके दिखाऊँगा,
मेरे घर में कोई रंभा नहीं है री!'
'ठंडा दूध ला री, मैं शपथ लेकर कहता हूँ,
मेरे घर में कोई दूसरी रानी नहीं है री!'
कर्नाटक में प्रायः कहा जाता है कि जिस घर का हम दूध पीते हैं वहां धोखा नहीं देना चाहिए। गंगा के हाथ में बेला के श्वेत फूलों का सौंदर्य कितना मनोहर रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।
उधर नेपाली लोक-कवि का मत दूसरा ही है—
“चंपा चमेली मोतिया बेली
क्या होला इन को बास
माया को फूल को बासना हेरी
ई फूल छन जस्तो घास!
—'चंपा, चमेली, मोतिया और बेला
इन की सुगंध का क्या हुआ?
प्रेम के फूल की सुगंध देखकर
ये फूल घास के समान लगते हैं।'
मान लिया कि प्रेम भी एक फूल है। पर सचमुच के फूलों को घास के रूप में चित्रित करना भी कहाँ की कला है। चंपा चमेली और मोतियों को छोड़ भी दें, बेला को तो नहीं छोड़ सकते।
(तीन)
अभी उस दिन एक मित्र कह उठे, अजी किस भूल-भुलैया में पड़े हो। शायद तुम कभी इससे बाहर नहीं आ सकोगे। अरे भई, बेला को अपने हाल पर छोड़ दो। वह ठीक आधी रात को ही खिलता है, इससे ज़रा पहले या काफ़ी पीछे, तुम्हें इसकी क्यों इतनी चिंता है? दुनिया आगे निकल गई, कला भी बहुत आगे बढ़ गई। एक तुम हो कि हमेशा पीछे पलटकर देखने के आदी हो। अरे मियाँ, ज़माने का साथ क्यों नहीं देते?
मैंने कहा, बेला मेरे लिये कलाकार का प्रतीक है।
वह बोला, मैं तुम्हारा मतलब समझ गया। तुम कहना चाहते हो कि कलाकार में अपनापन होना चाहिए, शायद तुम यह भी कहना चाहते हो कि कला के पनपने के लिए एकांत चाहिए; भाइ-भड़क्के में कला का दम घुटने लगता है। पर मैं यह नहीं मानता। भीड़-भड़क्के की भी कला हो सकती है। कला एक तूफ़ान का रूप भी तो धारण कर सकती है। इस युग का नया आदर्श है। आज का इंसान तूफ़ानों में खेलने का आदी हो रहा है, उसकी कला को भी उसका साथ देना होगा। आज की कला उस नदी की तरह है जो धरती को उपजाऊ बनाती है, जो मिट्टी को बहाकर भी ले जाती है, जो नए रास्ते निकालने से ज़रा भी नहीं झिझकती।
मैं घबराकर इधर-उधर देखने लगा। इतनी ख़ैर हुई कि यह आधी रात का समय नहीं था। नहीं तो बेला फूल उसकी बातें सुनकर शायद उतने न खिल पाते जितना कि उन्हें सचमुच सदैव खिलना चाहिए। मैंने हताश होकर कहा—सुनो एक ज़ोरदार चीज़!”
वह बोला, लोकगीत तो मत सुनाना।
मैंने कहा, “रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता है।
हाँ, हाँ, ”वह बोला, उसे ज़रूर सुनाओ।
मैंने सोचा शायद इसी कविता की सहायता से मैं उसे अपनी बात समझा सकूँ। यह भी अच्छा हुआ कि वह मान गया। मैंने कहा, सुनो भई, क्या ख़ूब कविता है—
“तोरा केउ पारबि ने गो फुल फोटाते।
यतइ बलिस यतइ करिस, यतइ तारे तुले धरिस्
व्यग्र हये रजनी दिन आघात करिस बोंटाते।
तोरा केउ पारबि ने गो फुल फोटाते॥
दृष्टि दिए बारे-बारे, म्लान करते पारिस तारे,
छिड़ते पारिस दल गुलि तार धूलाय पारिस् लोटाते,
तोदेर विषम गण्डगोले, यदिइ वा से मुखटि खोले,
धरबे ना रङ—पारवे ना तार गंधदुक्क छोटाते।
तोरा केउ पारबि ने गो फुल फोटाते॥
ये पारे से आपनि पारे, पारे से फुल फोटाते।
से शुधु चाये नयन मेले, दुटि चोखेर किरन फेले,
अमनि येन पूर्ण प्राणेर, मंत्र लागे बोंटाते।
ये पारे से आपनि पारे, पारे से फुल फोटाते॥
निःश्वासे ता'र निमेषेते, फल येन चाय उड़े येते,
पातार पाखा मेले दिए हावाय थाके लोटाते।
रङ् ये फुटे ओठे कत, प्राणेर व्याकुलतार मतो,
येन का'रे आनते डेके गन्ध थाके छोटाते।
ये पारे से आपनि पारे, पारे से फुल फोटाते॥“
—'तुम फूल नहीं खिला सकोगे, नहीं खिला सकोगे
जो कुछ भी बोलो, जो कुछ भी करो, जितना भी उसे उठाकर थामो
व्यग्र होकर रात-दिन उसके वृंत पर जितनी भी चोट करो
तुम फूल नहीं खिला सकोगे, नहीं खिला सकोगे।
बार-बार नज़र गड़ाकर तुम उसे म्लान कर सकते हो
उसके दलों को तोड़कर धूल में रौंद सकते हो
तुम लोगों के विषम कोलाहल से यदि वह कली मुँह खोल भी दे
तो उसमें रंग नहीं आएगा, तुम उससे सुगंध नहीं बिखरवा सकते
तुम फूल नहीं खिला सकोगे, नहीं खिला सकोगे।
जो सकता है वह अनायास खिला सकता है, वह फूल खिला सकता है,
वह केवल आँख खोलकर देख लेता है, दोनों आँखों की किरण लगते ही
मानो पूर्ण प्राण का मंत्र उस वृंत पर लग जाता है
जो सकता है वह अनायास खिला सकता है, वह फूल खिला सकता है
उसके निःश्वास लगते ही फूल मानो तुरंत उड़ जाना चाहता है
अपने दलों के पंख फैलाकर मानो हवा में झूमने लगता है
न जाने कितने रंग प्राणों को व्याकुलता के समान खिल उठते हैं
न जाने किसको बुलाने के लिए सुगंध की चारों ओर दौड़ाने लगते हैं
जो सकता है वह अनायास खिला सकता है, वह फूल खिला सकता है।'
वह बोला, कविता अच्छी है, पर बेला फूल का तो इसमें कहीं नाम तक नहीं लिया गया।”
मैंने कहा, यह सिद्ध किया जा सकता है कि बचपन में रवींद्रनाथ ठाकुर ने बेला फूल चुनने का आनंद प्राप्त किया था।
अपने कथन के समर्थन में मैंने रवींद्रनाथ की एक कविता के कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत कर दीं—
“बेला फुल दुटि करे फुटि-फुटि
अधर खोला
मने पड़े गैलो छेले बेलाकार
कुसुम तोला
—'दो बेला फूल बस खिला ही चाहते हैं
मुँह खोलकर
याद आ गया बचपन का
फूल चुनना।'
वह बोला, यह काफ़ी न हो तो वह लोकगीत भी सुना डालो जिसमें गाँव की नारी ने पूछा है—'नदिया किनारे बेला किन बोया?' गाँव की नारी अपनी ही जगह पर खड़ी यह प्रश्न पूछ रही है। उसे क्या मालूम कि दुनिया कितनी आगे निकल गई।
मैंने इसका कुछ उत्तर न दिया। न जाने क्यों मेरा ध्यान मालती की ओर चला गया जिसे संबोधित करते हुए रवींद्रनाथ ठाकुर कह उठे थे— 'है, मालती एइ तोमार द्विधा कनो?' अर्थात् हे मालती तुम्हारी दुविधा क्यों है? मैं अपने मित्र से पूछना चाहता था कि मालती वर्ष में दो बार अर्थात् वसंत में और वर्षा तथा शरत में क्यों खिलती है। मैं यह भी पूछना चाहता था कि महाकवि कालिदास ने अपने ऋतु-संहार में मालती के वसंत में खिलने की बात एकदम कैसे भुला दी। महाकवि ने वर्षा और शरत में ही मालती के खिलने की चर्चा करने में आख़िर क्या भलाई देखी! कालिदास से हटकर मेरा ध्यान रामायण के आदि-कवि की ओर चला गया जिनके कथनानुसार मेघाच्छन्न आकाश रहने पर मालती के विकसित होने से ही सूर्य के अस्त हो जाने का अनुमान हो जाता था। फिर मानो मेरी कल्पना को झटका-सा लगा, और मैं मालती से पीछा छुड़ाकर बेला के संबंध में ही सोचने लगा। मेरा मित्र बोला, भई किस सोच में खोए जा रहे हो? यह आधी रात को खिलने वाला बेला तुम्हें पागल न कर दे!”
मैंने इसका कुछ उत्तर न दिया। मेरी कल्पना में मानो दूर तक शेफालिका के फूल खिल गए। मैं कहना चाहता था कि शेफालिका तो भारत में सर्वत्र खिलती है, कोंकन में यह वर्षा में खिलती है तो अनेक जनपदों में इसके खिलने का समय है वर्षांत, और शरत के अंत तक यह प्रायः खिलती रहती है। मैं यह भी कहना चाहता था कि शेफालिका के कोमल श्वेत फूल देवताओं तक का मन मोह सकते हैं, सुंदरियाँ ख़ूब जानती हैं कि शेफालिका रात के समय खिलती है और इससे दूर-दूर तक वातावरण सुगंधित हो उठता है : संस्कृत कवियों ने शेफालिका की बहुत चर्चा की है। भोर होते ही इसके फूल झड़ने लगते हैं और उदय होता सूर्य देखता है कि धरती पर शेफालिका के श्वेत फूलों का फ़र्श बिछ गया है। सूर्योदय के पश्चात् भी शेफालिका के फूल झड़ते रहने का दृश्य मैं देख चुका था, पर संस्कृत कवियों ने सदैव इसी बात पर ज़ोर दिया था कि सूर्योदय से पहले ही शेफालिका को झड़ जाना चाहिए। राजशेखर का यह कथन कि चंद्रमा के बिना शेफालिका नहीं खिलती, मेरी कल्पना के तार हिलाता रहा।
मेरा मित्र न जाने क्या सोचकर कह उठा, भई एक बात ज़रूर कह दूँ। बेला आधी रात के अँधेरे में खिलता है। जी चाहता है मैं भी इस पर कुछ लिख डालूँ। अँधेरे की करामात का यह अच्छा सबूत है कि बेला आधी रात के अँधेरे में खिलता है। भई बेला भी क्या ख़ूब फूल है।
मैंने कहा, मैं तो पहले ही कह चुका हूँ कि बेला कलाकार का प्रतीक है। कलाकार में जो अपनापन होना चाहिए वह सब बेला में देखा जा सकता है। कलाकार को सृजन की घड़ियों में जैसा एकांत चाहिए उसके बिना बेला का भी काम नहीं चलता।
मेरा मित्र चला गया। मैं बड़े ध्यान से बेला के खिलने की बाट जोहने लगा। सोचा, रतजगा भी क्या न करना पड़े। बेला के फूलों के लिए जो भी करना पड़े थोड़ा है। जाने कब मेरी आँख लग गई। आँख खुली तो बेला के फूल खिल चुके थे। मैं अपनी जगह पर बैठा रहा। काहे को उनके एकांत में विघ्न डाला जाए। यही सोचकर मैं बैठा रहा कि यह तो कलाकार को सृजन के समय तंग करने वाली बात होगी। प्रतिभा चाहे एक व्यक्ति की हो चाहे एक फूल की—उसे एकांत अवश्य चाहिए। यही सृजन की परंपरा है। प्रकृति और मनुष्य दोनों का यहाँ एक मत है। शौक से खिलो, बेला के फूलों! आधी रात का समय ही ठीक है।
- पुस्तक : बेला फूले आधी रात (पृष्ठ 17)
- रचनाकार : देवेंद्र सत्यार्थी
- प्रकाशन : राजहंस प्रकाशन
- संस्करण : 1948
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