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वाही की चित चटपटी

wahi ki chit chatpati

बिहारी

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वाही की चित चटपटी

बिहारी

और अधिकबिहारी

    वाही की चित चटपटी, धरत अटपटे पाइ।

    लपट बुझावत बिरह की, कपट-भरेऊ आइ॥

    हे प्रियतम, तुम अपनी प्रेयसी के प्रेम-रंग में ऐसे रंग गए हो कि तुम्हारा इस प्रकार का आचरण तुम्हारे कपट भाव को ही व्यक्त कर रहा है। इतने पर भी मैं तुम्हारे कपट भावजनित मिलन को भी अपना सौभाग्य मानती हूँ। मेरे सौभाग्य का कारण यह है कि तुम कम-से-कम मेरे पास आकर दर्शन देते हुए मेरी विरह-ज्वाला को शांत तो कर रहे हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 187)
    • संपादक : हरिचरण शर्मा
    • रचनाकार : बिहारी
    • प्रकाशन : श्याम प्रकाशन, जयपुर
    • संस्करण : 2007

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