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साहित्यिक लेखन : जुनून या तिजारत

कहा गया है कि इंसान दो दुनियाओं में जीता है-अंदरूनी और बाहरी। अंदरूनी दुनिया अध्यात्म की दुनिया होती है जिसे वो किसी तरह की कला जैसे कि साहित्यिक लेखन, नृत्य, संगीत, चित्रकारी, स्थापत्य या मुजस्समे आदि बनाने के ज़रिये ज़ाहिर करता है। बाहरी दुनिया उन तरकीबों, साधनों और तकनीकों का मिश्रण है जिनसे हमें जीने की सहूलियत हासिल होती है। कार्ल गुस्ताव युंग के हवाले से कहा जा सकता है कि साहित्य हमारे सामूहिक अचेतन, यानी हमारे मिथक, साइकी, आर्केटाइप्स, और प्रतीक जो हम सबमें मौजूद हैं, को दर्शाता है। मेरे ख़याल से साहित्यिक लेखन तभी वजूद में आ सकता है जब लेखक के पीछे एक ऐसी अंदरूनी शक्ति मौजूद हो जिसे न वो समझ सकता है और न ही नज़रअंदाज़ कर सकता है। 

साहित्य को परिभाषित करना भी एक बड़ा मसला है। इस मसले में मज़ीद  पेचीदगी तब आ जाती है जब हम लेखन को जुनूनी और तिजारती/पेशेवराना लेखन में बाँटते हैं। यूँ भी मेरे हिसाब से साहित्य में पेशेवराना लेखन नाम की कोई चीज़ नहीं होती, और जहाँ तक जुनूनी लेखन का सवाल है, तो ये साहित्य का उपनाम है और इसके अन्दर ख़ुद-ब-ख़ुद समाया हुआ है। जैसा कि चार्ल्स बुकोवस्की कहता है अगर आपको कंप्यूटर की स्क्रीन को घंटों घूरना पड़े, तो मत लिखो; पैसे के लिए मत लिखो; किसी को मुतास्सिर करने के लिए मत लिखो; अगर आप बहुत देर तक लिखने के लिए सोचते हैं या किसी और की तरह लिखना चाहते हैं, तो मत लिखो। जब तक लेखन एक रॉकेट की तरह आपकी रूह से न बाहर आए, जब तक आपको पागलपन या ख़ुदकुशी या क़त्ल की हद तक मजबूर न करे, तब तक मत लिखो। एक वक़्त आएगा और अगर आप वाक़ई में लेखन के लिए बने हैं तो आप लिखने लगेंगे, ख़ुद-ब-ख़ुद और ताउम्र लिखते रहेंगे। साहित्यकार ऐसे ही होते हैं। उन्हें अपने जीवन काल में बाहर से शायद कुछ भी न हासिल हो, मगर अंदर से वो जुनून की उस हद तक पहुँच जाते हैं जहाँ मौत की सी ख़ामोशी होती है। 

सेलिंजर ‘कैचर इन द राई’ से इतना मशहूर हुआ कि उसकी निजी ज़िंदगी सर-ए-आम हो गई। वह तन्हाईपसंद हो गया। उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ लिखने से मतलब था। इसलिए वह लोगों से कट कर, जंगल में अपने परिवार के साथ, ग़ोशानशीन हो गया। उसके बारे में कहा गया है कि अगर उसके घर में आग भी लग जाती, तो भी ये शख़्स घर से बाहर नहीं निकलता। एमिली ब्रोंटे, चेख़व, काफ़्का, मीराजी, मंटो, कामू, मुक्तिबोध, रांगेय राघव जैसे लेखक बहुत कम उम्र में लिखने लगे थे; उनका लेखन उनके दाख़िल में था। लिखना उनके लिए अभिशाप था। इसका एक ही हल था कि वे मर जाएँ और ऐसा ही हुआ। ऐसा ही एक लेखक था बलराज मेनरा, जिसने जुनून को तरजीह दी और बाहरी मामलों और मसलों से परहेज़ किया। जब उसका मोटिवेशन ख़त्म हो गया तो उसने एक वक़्त के बाद लिखना बंद कर दिया। इस तरह उसने तक़रीबन चालीस सालों तक नहीं लिखा और एक दिन गुमनामी में मर गया। हेंमिग्वे के बारे में भी यही कहा जा सकता है। आख़िर में उसे ख़ुदकुशी करनी पड़ी। 

इसी तरह मंटो का लेखन जहाँ जुनून से समझौता करता है, कमज़ोर हो जाता है। उसकी शानदार कहानियाँ वे हैं, जिनमें उसका जुनून ज़िंदा है। उसके इस क़िस्म के लेखन में जुनून है, साहित्य की गहरी समझ है, बाहरी तक़ाज़ों का बोझ नहीं है। अख़्तर-उल-ईमान ने फ़िल्मों के लिए संवाद लिखे, पटकथा लिखी मगर उन्होंने कभी अपनी शाइरी से समझौता नहीं किया। उनसे गीत के तक़ाज़े किए गए मगर पैसों के लिए अपनी नज़्में बेचना उन्हें गवारा नहीं था। बोर्हेस, सेम्युल बेकेट, सादिक़ हिदायत, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, मार्केज़, कृष्ण बलदेव वैद, मिलान कुंदेरा, नैयर मसूद और स्वदेश दीपक आदि का लेखन भी जुनूनी लेखन की शानदार मिसाल है। ये सब अध्यात्म और रहस्यवाद को, इंसानी नफ़्स की तकलीफ़ को, उसके अंदरूनी मामलात को, साइकी से पनपने वाले कर्ब को, वजूदी दुखों को, समाज और फ़र्द के द्वंद्व को अपने लेखन में तरजीह देते हैं और हर तरह के सतहीपन से बचते हैं।

एक अच्छी कहानी, अच्छी ग़ज़ल या अच्छा उपन्यास वक़्त माँगते है, जुनून माँगते हैं, आपसे आपका वजूद माँगते हैं, ये किसी की फ़रमाइश या पैसों के लिए नहीं लिखे जा सकते, इनके साथ किसी तरह का कोई समझौता नहीं किया जा सकता है। नैयर मसूद ने कहीं लिखा है कि सआदत हसन मंटो और बहुत से लेखकों ने पैसे की फ़ौरी ज़रूरत या किसी की फ़रमाइश पर मजबूरन अफ़साने और उपन्यास लिखने के लिए अपनी कल्पना को प्रेरित/मोटिवेट किया है। कल्पना को प्रेरित किए बग़ैर काम नहीं चल सकता। यूँ भी कल्पना को वजूद में लाने के लिए सबसे पहले प्रेरणा की ज़रूरत होती है। यह प्रेरणा लेखक को ख़ुद के अंदर से भी मिल सकती है और बाहर से भी। अपने ज़ाती तजुर्बे, वारदात, अख़बार की कोई ख़बर, वीराने में कोई क़ब्र, हिसाब-किताब का कोई पर्चा, कोई पुरानी तस्वीर, ख़्वाब का कोई मंज़र, किसी इमारत के बचे-खुचे आसार भी कल्पना को प्रेरित कर सकते हैं; जिसके नतीजे में ज़ेहन सृजन के लिए आमादा होता है। यहीं से ख़याल को जुनून में बदलने का अमल शुरू होता है। 

जॉर्ज ऑरवेल का कहना है, अगर पैसे को एक किनारे रख दें तो एक लेखक के चार मोटिव होते हैं : समझदार दिखने की चाह जहाँ आपके बारे में बात की जाए, आपको मरने के बाद याद रखा जाए और बचपन में जिन्होंने आपको नाकारा समझा उनके लिए मिसाल साबित होना; ख़ूबसूरती को एक अलग नज़रिये से देखते हुए अपने उन अनुभवों को साझा करना जिन्हें आप समझते हैं कि इन्हें किसी भी सूरत में नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए; तारीख़ की मदद से उन तथ्यों को इकट्ठा करना जिन्हें बाद की नस्लें काम में लाएँगी; और सियासी मक़सद जिससे आप दुनिया को एक ऐसे समाज की तरफ़ मायल करना चाहते हैं जो आपकी नज़र में समाज की बेहतरी के लिए है। कोई भी किताब किसी सियासी झुकाव से परे नहीं होती। जुनून के साथ लिखने वाले पहली श्रेणी में आते हैं। 

स्त्री-लेखन के अपने मसले होते हैं। अगर वो जुनूनी लेखक है तो ये मसले बढ़ते चले जाते हैं जैसे शादी के बाद बच्चे की ज़िम्मेदारी औरतों को ही निभानी होती है। ऐसे में पूरी रात जलकर, जागकर लिखना संभव नहीं और दिन में नींद और लेखन को घरेलू ज़िम्मेदारियाँ खा जाती हैं। तो एक औरत लिखे कब? अच्छा लिखने के लिए बेहतर से बेहतर पढ़ना भी पड़ेगा। और इन सबके लिए काफ़ी वक़्त चाहिए। साथ ही लिखने के लिए तजुर्बे का होना भी ज़रूरी है। औरत अगर काम पर बाहर जाती है, तो भी वापस आकर उसे घर-बच्चे सँभालने होते हैं, खाना पकाना होता है और भी दूसरे तमाम काम होते हैं। मर्द-औरत दोनों बाहर काम करते हों तो घर की दोहरी ज़िम्मेदारी औरत पर आती है। अगर वो बाहर नहीं जाएगी, घर में क़ैद होकर रह जाएगी तो नया क्या देखेगी, ज़िंदगी के क्या तजुर्बे होंगे? क्या ये तजुर्बे सीमित दायरे में नहीं घूमेंगे? इसका जवाब हाँ भी है और ना भी। दायरा सीमित तो होगा मगर मेरे ख़याल से एक शख़्स अपनी ज़िंदगी के शुरुआती बीस सालों में वो तजुर्बे हासिल कर लेता है या यूँ कहें वो ईंधन इकट्ठा कर लेता है जो उसे पूरी ज़िंदगी लिखते रहने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। कुछ लोग अपने ख़्वाबों की पनाह लेते हैं। लिखने का वक़्त न मिल पाने से बेचैन और चिड़चिड़े रहते हैं। 

साहित्य वक़्त माँगता है। लिखने और पढ़ने के लिए एक औरत के पास भी दिन में वही चौबीस घंटे होते हैं जो मर्दों को मिलते हैं। ख़ालिदा असग़र कॉलेज में पढ़ाती थीं। वह पहले लिखती थीं, मगर फिर एक लंबे समय तक उन्होंने नहीं लिखा। बच्चे बड़े हो गए तब वह दोबारा लेखन में आईं और फिर मरते दम तक उन्होंने लिखा। बानो क़ुद्सिया के हमसफ़र (अशफ़ाक़ अहमद) ख़ुद एक लेखक थे, घर में पढ़ने-लिखने का माहौल रहा होगा। उन्हें लेखन के लिए आसानियाँ मिलीं। क़ुर्तुल-एन-हैदर ने शादी ही नहीं की, इसलिए उनके लिए लिखना आसान था या शायद लिख सकें इसलिए शादी नहीं की होगी। ख़ुद सिल्विया प्लाथ भी बच्चे पैदा करने और उनके पालन-पोषण के लिए जो वक़्त लगता है उससे बेहद डरती थी, वो लिखना चाहती थी और उसकी ये बेचैनी ‘द बेल जार’ में साफ़ झलकती है। वर्जिनिया वुल्फ़ ने ‘अ रूम ऑफ़ वंस ओन’ में इस हवाले से बहुत कुछ कह ही दिया है। मगर अस्ल में उसके ख़याल और उसकी छटपटाहट की झलक ‘मिसेस डेलोवे’ में दिखाई देती है। एमिली ब्रोंटे का मसला कुछ और ही था, वो मर्दों के बनाए हुए समाज में उन्हीं के हिसाब से लिख सकती थीं लिहाज़ा उसे एलिस बेल नाम से ‘वुदरिंग हाइट्स’ उपन्यास लिखना पड़ा था। मरीआन इवान्स ने जॉर्ज एलियट नाम से लिखना शुरू किया, वह चाहती थी कि उसके लेखन को, उस ज़माने की औरतें जिस तरह के लेखन में मसरूफ़ थीं, में शुमार न किया जाए। शार्लट ब्रोंटे ने क्यूरर बेल नाम से लिखा। इस नाम से पता ही नहीं चलता था कि लेखक मर्द है या औरत। ‘टू किल अ मोकिंग बर्ड’ की लेखक हार्पर ली एक औरत है, शायद कुछ साल पहले तक बहुत कम लोगों को ये मालूम था। ये औरतें लिखती रहीं, चाहे इन्हें मर्दों जैसे नाम का सहारा ही क्यों न लेना पड़ा। उनमें ऐसी हूक थी, ऐसा जुनून था, जिसके सबब वो हर क़िस्म की मुसीबतें मोल लेकर लिखती रहीं। 

सार्त्र कहता है लिखने की दो वजहें होती हैं; या तो वो शख़्स भाग रहा है या फिर फ़तेह/जीत हासिल करना चाहता है। दुनिया से भागकर वह संन्यासी बन सकता है, पागलपन का बहाना बना सकता है या फिर ख़ुदकुशी का भी विकल्प उसके पास मौजूद है; और जीत तो हथियार उठाकर भी हासिल हो सकती है। मगर वो लिखकर ही इन दोनों मक़ामों को क्यों हासिल करना चाहता है? लिखकर जो हासिल होता है; उसे सिर्फ़ एक जुनूनी लेखक ही समझ सकता है, जिसे लफ़्ज़ों में बयान करना आसान नहीं। 

जुनूनी लेखन की एक मिसाल जेम्स जॉयस का उपन्यास ‘यूलिसिस’ है। ये उपन्यास जिस जुनूनी हालत में लिखा गया है, पाठक से भी उसी जुनून की माँग करता है। जब हम इस उपन्यास को पढ़ते हैं तो बेचैन और उकताए हुए रहते हैं, मगर मुकम्मल होने के बाद ये उपन्यास जिस तरह आपकी हस्ती पर गुज़रता है, आपके वजूद का हिस्सा बनता है, वही जुनूनी लेखन का जादू है। इस उपन्यास को सिर्फ़ ‘स्ट्रीम ऑफ़ कोनसियसनेस’ की मिसाल भर कह देने से काम नहीं चलता, इससे आगे बढ़ना पड़ेगा। ‘यूलिसिस’ के बाद आप फिर ‘फ़िनेगंस वेक’ पढ़ने पर भी मजबूर हो जाते हैं और एक बार फिर वही उकताहट और वही बोरियत। जब पाठक इतने जुनून से पढ़ता है तो उस लेखक पर लिखते वक़्त और लिखने से पहले क्या गुज़री होगी। इसी तरह गुस्ताव फ़्लोबे का जुनूनी लेखन उसके उपन्यास की उन छोटी-छोटी बातों में रौशन नज़र आता है, जिसे वह बेहद मोहब्बत और निहायत तफ़्सील के साथ बताता है। तोल्सतोय के बारे में कहा जाता है कि जब तक उनकी दिल की गहराइयों से कुछ न निकले तब तक वो एक वाक्य भी नहीं लिख पाते थे। यही वजह है कि हमें फ़्लोबे की ‘मदाम बोवारी’ से भी लगाव हो जाता है और अन्ना कारेनिना से भी मोहब्बत हो जाती है। दोस्तोवेस्की का लेखन भी जुनूनी लेखन की मिसाल है। उसके उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ या ‘द ब्रदर्स करमाज़ोव’ में उसका आर्ट एक ख़ास मक़ाम पर पहुँचा हुआ नज़र आता है। एक ऐसे मक़ाम पर जहाँ पेशेवराना लेखन कभी भी नहीं पहुँच सकता। 

इन सबने अपने इर्द-गिर्द के लोगों की परवाह कभी नहीं की, क्योंकि इन्हें लिखना था और ये लिखने के जुनून को समझते थे। मार्सल प्रूस्त बचपन से बीमार रहता था और उस जैसा शख़्स ‘इन सर्च ऑफ़ लॉस्ट टाइम’ को तेरह सालों तक लिखता रहा। वह मरने की कगार पर था तो उसने अपने इस उपन्यास के एक हिस्से की पांडुलिपि माँगी और एक किरदार की मौत के मंज़र को बदल दिया। ये बदलाव साहित्य के प्रति उसके जुनून की मिसाल है।

आख़िर में चंद बातें तिजारती/पेशेवराना लेखन के संबंध में : 

मेरे हिसाब से पेशेवराना लेखक के पास विकल्प नहीं होता। वह पैसे के लिए लिखता है, जो डिमांड होती है वैसा ही सप्लाई करने पर मजबूर होता है। उसे एक पूर्व-निर्धारित अवधि में लिखना होता है। उसे नियमित लिखना होता है। कभी-कभी न चाहते हुए भी उसे मजबूरन लफ़्ज़ों की चाशनी बनानी पड़ती है, कशीदाकारी करनी पड़ती है, सनसनी फैलानी पड़ती है और सेक्स को बेचना पड़ता है। इनकी किताबों की मार्केटिंग के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स को अखाड़ा बनाया जाता है, ज़बरदस्ती इन्हें बेस्टसेलर्स की उपाधि दी जाती है, मगर इससे होता-जाता कुछ है नहीं। ख़ुद ही लिखते हैं, ख़ुद ही पढ़ते हैं, ख़ुद ही ख़रीद-ख़रीद कर बाँटते हैं, साथ ही ख़ुद का ही प्रचार करने में मसरूफ़ रहते हैं। इसके बरखिलाफ़ जुनूनी लेखक अपनी दुनिया में मगन रहता है और ग़ालिब का शे’र पढ़-पढ़कर मुस्कुराता है :

न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं हैं मिरे अशआर में मअ’नी न सही

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