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गुरु-शिष्य-परंपरा : कुछ नोट्स

भारतीय जन-मानस में एक कॉमन सेंस घर कर गया है—सिखाने वाला बड़ा होता है, सीखने वाला छोटा; इसलिए छोटे का सीखने के लिए बड़े के सामने समर्पण करना ज़रूरी है। यह समर्पण इंसान को ‘विनम्र’ बनाता है, इसी समर्पण से इंसान सीखने की पात्रता पाता है।

संघ के जिस विद्यालय में मैं पढ़ा, वहाँ गुरु-शिष्य की कई कथाएँ थीं। द्रोणाचार्य-एकलव्य, वशिष्ठ-राम, संदीपन-कृष्ण, धौम्य-आरुणि, समर्थ गुरु रामदास-शिवाजी, भट्टोजी-वरदराज, और संघ के अपने गुरुजी (दूसरे वाले परम)—सारी कथाओं का मूल सार यही था, गुरु का आदेश सर्वोपरी होता है, सच्ची श्रद्धा से उस आदेश का पालन ज़रूरी है। 

यह विचार गुरु-शिष्य के रिश्ते को एक अलोकतांत्रिक संस्था बना देता है, जहाँ गुरु अपने शिष्य के प्रति जवाबदेह नहीं होता, शिष्य सिर्फ़ अनुसरणकर्ता बनकर रह जाता है। सीखने और नए ज्ञान निर्माण के लिए तर्क, संदेह, सवाल और बहस ज़रूरी है। गुरु-शिष्य परंपरा में इसकी कोई विशेष गुंजाइश नहीं बचती।

गुरु-शिष्य परंपरा प्रायः ब्राह्मणवादी संस्था है, धर्मशास्त्रों के अनुसार गुरु ब्राह्मण या संन्यासी होता है और शिष्य प्रायः पहले तीनों वर्णों से कोई भी हो सकता है।

भारत में वर्तमान में कई प्रकार के गुरु हैं, हर जातियों के कुल-गुरु हैं, ज्ञान-मार्ग के गुरु हैं, तांत्रिक/चमत्कारी जो अपनी दैविक शक्तियों से शिष्यों का ख़्याल रखते हैं—वे गुरु हैं। टीवी के आने के बाद टीवी वाले गुरु हैं। हर पंथ के अपने गुरु हैं, हर संप्रदाय के अपने गुरु हैं, यहाँ तक कि कबीर के नाम पर बने कबीरपंथियों के अपने गुरु हैं।

आपका गुरु कौन होगा, यह बात आपके सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करती है। ग़रीब-ग़ुर्बा के गुरु प्रायः कष्ट-निवारक होने का दावा करते हैं। ज़्यादा अमीर अँग्रेज़ीदा लोगों के बीच ओशो जैसे गुरु प्रचलित थे, जिसकी जगह अब सदगुरु की इन्नर इंजीनियरिंग और रविशंकर के आर्ट ऑफ़ लिविंग ने ली है। हैल्थ कॉंशियस मध्यम वर्ग ने बाबा रामदेव के अनुलोम-विलोम को चुना है। वाणिक वर्गों के गुरु शुकराना गुरुजी जैसे हैं, जो सीधे तौर पर पैसे कमाने का आशीर्वाद देते हैं। बहुजन समुदायों के अपने पंथ हैं। सामाजिक-आर्थिक-लैंगिक-क्षेत्रीय विविधता वाले भारत में विविध-विविध गुरु हैं, जिनको श्रेणीबद्ध करना मुश्किल है।

आजकल के बड़े गुरु, अपने कल्ट के करिश्माई नेता हैं। इनमें से कई कल्ट पारंपरिक सनातन से अपने को अलग संप्रदाय-पंथ मानते हैं, फिर भी गुरु-शिष्य परंपरा वहाँ पर भी कायम है।

जितने ज़्यादा चेले, उतना बड़ा गुरु। कई लोगों को सारे जीवन अपने गुरु के साथ बैठने का मौक़ा नहीं मिलता। उनका अपने गुरु के साथ रिश्ता ऐसा ही है, जैसे किसी फ़ैन का फ़िल्म स्टार के साथ हो।

गुरुओं के अपने यूट्युब चैनल हैं, और व्हाट्सएप्प ग्रुप्स में कई गुरु रोज़ सुबह दिन के सुविचार के साथ अपनी तस्वीरें भेजते हैं। दिन चढ़ते-चढ़ते वह चेलों के व्हाट्सएप्प स्टेटस में छा जाता है। आस्था और संस्कार जैसे चैनलों के ज़रिए टीवी पर पहुँचने की ताक़त कम गुरुओं को ही मिल पाई थी, लेकिन इंटरनेट ने इसे ‘लोकतांत्रिक’ कर दिया है। 

पहले के दौर में गुरुओं की अपनी पत्रिकाएँ भी रही हैं। जिसमें प्रवचन, कथा, लेख और आश्रम की गतिविधियाँ छपती रही हैं। संचार-क्रांति के बावजूद भी, प्रायः गुरु तक पहुँचने का प्राथमिक रास्ता मुख-प्रचार से ही होकर गुज़रता है।

मैंने कम-से-कम एक गुरु-शिष्य कुटुंब को बहुत नजदीक से देखा है। वहाँ पर चलने वाली गुटबाज़ियाँ और चालबाज़ियाँ, विधायक निवास की याद दिलाती है।


गुरु-शिष्य परंपरा के भीतर महिलाओं के शोषण की बात अब कोई छिपी नहीं रह गई है। लगातार अलग-अलग संप्रदायों के बाबाओं पर आरोप लगते हैं, शास्त्रीय संगीत और नृत्य परंपरा के गुरुओं पर भी ये आरोप लगते रहे हैं। उसका मूल कारण गुरु-शिष्य परंपरा के भीतर की समर्पणीय-असमानता ही है।

पूँजीवाद के साथ गुरु-शिष्य परंपरा की प्रकृति भी बदली है। गुरु-दक्षिणा फ़ीस का रूप ले चुकी है। इसका भी बड़ा उदाहरण गुरु के ब्रांड का दंत-मंजन इस्तेमाल करने का सफल व्यवसाय है।

प्रवचन को अगर एक मौखिक साहित्य की विधा मानें, तो उसका एस्थेटिक बोलने के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करता है, लेकिन यह उतार-चढ़ाव नेताओं के भाषणों से अलग है। नेताओं के भाषणों में चढ़ाव अचानक होता है, उसका त्वरण अधिक है, और उतार भी बहुत तेज़ गति से होता है। जबकि प्रवचन में एक ही वक्ता है, जिसके पास कहने का बहुत समय है, इसलिए धीरे-धीरे एक लय में उतार-चढ़ाव होता रहता है।

हिंदू धर्म में इतने गुरु हैं, इतने मत हैं, मत-भिन्नता भी बहुत है। लेकिन प्रायः इनमें अपने मतों को लेकर कोई तीखी बहस नहीं होती। एक शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का भाव गुरुओं की बीच उभर आया है। आख़िर में सब अपनी क्षमता अनुसार तार्किकता को ख़त्म कर रहे हैं और कॉमन सेंस का स्तर लगातार गिरा रहे हैं।
 
नेताओं के शक्तिशाली गुरुओं की बात अब बीते जमाने की बात हो गई है। हिंदू राष्ट्र होते देश में करपात्री के देखे स्वप्न के अनुसार कई गेहुँआ वस्त्रधारी विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री हो गए हैं। उनके माननीय होने पर गुरु-शिष्य कुटुंब पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह अध्ययन का विषय है। लेकिन नागरिकों की कम, शिष्य लोगों की बात ज़्यादा मानें तो उनके चुनाव हारने पर बारिश नहीं होती, अकाल पड़ता है। 

भारत के स्कूली शिक्षक भी कई बार अपने को गुरु समझने लगते हैं, और अगर वह शिक्षक ‘द्विज’ जाति से आया है तो इस ग़लतफ़हमी की प्रायिकता बहुत अधिक हो जाती है। (यह बात तमाम बिंदुओं में सबसे ज़्यादा नुकसानदेह है)

गुरुओं के विभिन्न रूपों को लेकर समाज में प्रगाढ़ आस्था रही है, तो उस पर संदेह करने वालों की भी कोई परंपरा ज़रूर रही होगी। संदेह करने वालों को अधार्मिक करार दिए जाने के ख़तरों के बावजूद, यह क़िस्सा मौखिक परंपरा में अभी तक बरकरार है :

एक अधेड़ आदमी अपनी ज़िंदगी से बड़ा हताश था। उसके पास न रोज़गार था, न ही ज़मीन। शादी हुई नहीं थी और काम करने का कोई मौक़ा ही नहीं था। फिर भी जीवन के दुख और कष्ट उसकी महत्त्वकांक्षाओं को कम नहीं कर पाए थे। विश्वास था, ईश्वर कृपा से उसके दुख दूर होंगे और जीवन समृद्ध होगा। यही सोच कर वह रोज़ कई मंदिरों, मज़ारों, समाधियों पर जाता। कई आश्रमों की सदस्यता उसने ग्रहण की और फिर छोड़ी। लेकिन कोई भी नुस्ख़ा काम नहीं आ रहा था, हालात जस के तस थे।

कई कोस दूर एक चमत्कारी समाधि पर महाराज थे, जिनकी प्रसिद्धी दूर-दूर तक थी। आदमी को बताया गया कि वहाँ जाने से कई लोगों का जीवन बना है, अगर वहाँ पर कुछ नहीं हुआ तो फिर करमों का दोष मानकर तुम्हें कष्टों से समझौता करना ही पड़ेगा। अपनी आख़िरी उम्मीद लिए वह वहाँ पहुँचा। गुरुदेव की ख़ूब सेवा की, महाराज ने परिस्थितियों को समझा। महाराज को उस पर दया आई और उन्होंने अपना एक गधा उसे दे दिया, और कहा इसकी सेवा कर सब सही होगा। 

आदमी गुरुदेव के आशीर्वाद स्वरूप मिले गधे को लेकर गाँव की तरफ़ रवाना हो गया। आधे रास्ते पहुँचता उससे पहले बीच में गधा टें बोल गया और गधे के साथ ही आदमी की सारी उम्मीदें भी टें बोल गईं। गधे ने उसे सेवा का मौक़ा नहीं दिया, इसका मलाल उसे था। लेकिन अब गुरु के दिए गधे को वह ऐसे कैसे बीच रास्ते में छोड़ दे, हो सकता है गुरु परीक्षा ही ले रहे हों। ये सब सोचकर वह गधे के लिए गड्ढा खोदने में जुट गया। गधे को वहीं दफ़नाया, उसके ऊपर मिट्टी डाली और वहीं एक चबूतरा भी बना लिया। आख़िर में थककर वह वहीं सो गया। 

वहीं गाँव से एक व्यापारी अपने किसी बड़े काम को साधने वहाँ से गुज़र रहा था। उसने यह नया चबूतरा देखा, आदमी को बेहाल सोते देखा, उसके मन में चल रही छटपटाहट ने उसे परोपकारी बनाया, वह कुछ पैसे रख कर वहाँ से आगे निकला गया।

व्यापारी जिस काम के लिए जा रहा था, वह पार लग गया। वापस लौटकर उसने आस-पास समाधि के चमत्कार का ढिंढोरा पीट दिया। अब वहाँ से गुज़रता उस गाँव का हर यात्री वहाँ पर पैसे और प्रसाद चढ़ाता। आदमी अब महाराज बन गया था। ख़ूब बरकत हो रही थी। उसका जीवन पटरी पर आ गया था। 

वह मन-ही-मन रोज़ गुरुदेव को श्रद्धा से याद करता और प्रार्थना करता। धीरे-धीरे वह जगह फल-फूलकर एक बड़े धाम में तब्दील हो गई, आस-पास के सारे गाँवों के मन में धाम के प्रति श्रद्धा थी। भक्तों की संख्या में बढ़ोतरी हुई, कई बड़े व्यापारी, चौधरी और ज़मींदार भी भक्त बनने लगे, इससे नए गुरु और उनके धाम का भी प्रभाव और वर्चस्व बढ़ता गया।
 
आख़िर एक दिन बड़े वाले गुरुदेव भी उसी मार्ग से गुज़र रहे थे। छोटे वाले महाराज मठ के बाहर चेलों संग प्रवचन कर रहे थे। अपने गुरु को देखकर ही भाव-विभोर हो गए, पुराने दिन याद आने लगे, सच्चे गुरु की कृपा हो तो क्या ना संभव हो जाए। अपने गुरु के पाँव पकड़ कुछ दिन धाम में रुकने के लिए मनाया गया, सेवा-भंडारा-जागरण शुरु हुआ। सारे भक्त लोग भी अपने दादा गुरू के दर्शन लाभ लेने आने लगे। 

धाम में तीन-चार दिन उत्सव रहा। अगले दिन गुरुदेव का प्रस्थान करने का दिन था, रात में दोनों छोटे-बड़े गुरु एक-दूसरे के साथ थे। छोटा गुरु, बड़े गुरु के बड़ी श्रद्धा के साथ पाँव दबा रहा था, वैसे गुरु को तो सब पता ही होगा फिर भी अपनी तरफ़ से गुरु को बता ही दिया जाना चाहिए। 

“गुरुदेव! सब आपकी कृपा है। बाक़ी आपको तो मेरे हालत मालूम ही थे। तो आपने मुझे जो गधा दिया, वह यहाँ पहुँचते-पहुँचते मर गया। अब आपका दिया गधा था, तो उसे कैसे छोड़ता। मैंने उसे चमत्कारी आत्मा समझ चबूतरा बनाया, और फिर चबूतरे ने अपना चमत्कार दिखाया। सब आपकी और उस पुण्यात्मा गधे की कृपा है। यह समाधि, यह धाम सब उस गधे का है।”

महाराज मुस्कुराएँ, अपने चेले की ईमानदारी पर ख़ुश हुए और आशीर्वाद देते हुए बोले—“बहुत पुण्यात्मा वाला गधा था। सिर्फ़ यह नहीं, पूरा परिवार ही पुण्यात्मा लिए पैदा हुआ। ज़रूर पिछले जन्मों में ये गधे बड़े तपस्वी रहे होंगे। जिस समाधि पर तू आया वह इस गधे के बाप की समाधि थी। मैंने ख़ूब सेवा की, मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है, समाधि की सेवा कर, ऐसी पुण्यात्मा की समाधि कम बार ही मिलती है।”

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