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हिन्दवी उत्सव की कविता-संध्या : सुंदर, सुखद, अविस्मरणीय

गत चार वर्षों से हो रहे ‘हिन्दवी उत्सव’ की शृंखला का यह तीसरा आयोजन था, जो डिजिटल नहीं बल्कि पाठकों के बीच (साथ) हुआ। ज़ाहिर है, इन वर्षों में ‘हिन्दवी’ ने जिस तरह का मुक़ाम हासिल कर लिया है, उससे इतना तो तय था कि लोग जुटेंगे। लोगों के जुटने से एक बात और पता चली कि यह जुटान शायद कविता-पाठ के लिए अधिक था। 

यह हो सकता है कि दोनों विमर्श-सत्र भी बहुत अच्छे रहे हों, पर उन्हें सुनने का मौक़ा बाहर खड़े रह जाने की वजह से नहीं मिला। चायकाल आया तो मैंने चाय पीने की बजाय अंदर जाकर सीट खोजना ज़्यादा ठीक समझा। कविता-पाठ सुनने की लालसा ही ऐसी रही।

इस बार के कविता-संध्या सत्र के संचालक रचित रहे। हालाँकि मंच उनसे अभी छूटा नहीं है, फिर भी उन्होंने बहुत अच्छे से सत्र को सँभाल लिया। 

मैं यहाँ सिर्फ़ तीन कवियों के बारे में कहना चाहता हूँ, बाक़ी दोनों के बारे में कहने के लिए या तो मैं अभी सही शब्द चयन से दूर हूँ या अभी अपनी समझ को लेकर थोड़ा कमज़ोर। 

ख़ैर, उन तीन कवियों की बात करूँ तो वे थे—पराग पावन, निर्मला पुतुल और कृष्ण कल्पित। मुझे इन तीनों की कम से कम एक कविता तो पसंद आई ही। हालाँकि पराग पावन की ‌ज़्यादातर कविताएँ पसंद आईं। कृष्ण कल्पित की एक और निर्मला पुतुल की दो कविताएँ।

पराग पावन जब कविताएँ पढ़ रहे थे, तो बेरोज़गार शृंखला की ‌कविताएँ सबसे शानदार थीं : उन कविताओं को छोड़कर जिनमें नरेंद्र मोदी‌ का ‌नाम लिया गया था, क्योंकि वह नाम वहाँ आवेशात्मक भाषा में लिया गया था; उसका रचनात्मकता से‌ कोई सरोकार नहीं था। लेकिन जनता थी कि ऐसी ही कविताओं पर ज़्यादा ताली पीट रही थी। जबकि पराग की अन्य कविताएँ उन एक-दो कविताओं से ज़्यादा अच्छी‌ थीं। ऐसा‌ शायद इसलिए भी हुआ होगा कि कवियों में व्याप्त डर, नाम लेकर लिखने से उन्हें डराने लगा है और कोई अगर नाम भर ही लिख दें (बिना रचनात्मक हुए) तो भी लोग उसे अद्भुत समझ लेते हैं। 

मेरी अब तक जो कुछ थोड़ी बहुत और सीमित समझ बनी है, उस नज़र से देखूँ तो ये एक-दो कविताएँ चाँद में लगे किसी दाग़ की तरह लगीं। लेकिन अन्य कविताओं के लिए पराग पावन को हार्दिक बधाई कि उन्होंने इतनी सुंदर कविताएँ पढ़ीं।

निर्मला पुतुल का होना भर ही न केवल आयोजन के लिए, बल्कि हम सभी सुनने वालों के लिए भी गौरव का पल था। अपनी कविताओं पर आने से पहले उन्होंने यह बात जताई भी कि धीरे-धीरे सब कविताएँ पढ़ेंगी और वैसे भी इस तरह का मौक़ा बहुत मुश्किल से मिलता है। यह बात एकदम सटीक थी, जिस परिवेश से निर्मला पुतुल आती हैं; वहाँ से दिल्ली तक का सफ़र कितनी कठिनाइयों भरा रहा होगा—यह समझा जा सकता है। 

मौक़े होते तो बहुत से लोग क्या कुछ नहीं कर जाते। यहाँ मौक़ा था और वह भी कविता-पाठ का मौक़ा। दो अतिसाधारण कविताओं से शुरू कर जब अंत की ओर वह बढ़ने लगीं तो एक-एक हाथ हवा में लहराने लगा। मैं सच कहता हूँ, मैंने आज तक किसी कवि के सम्मान में इतनी देर तक तालियाँ बजते नहीं देखीं। क्या दृश्य था वह! सुंदर, सुखद, अविस्मरणीय जैसा कुछ!

सबसे अंत में आए कृष्ण कल्पित। उन्हें हालाँकि कविता-पाठ करना था, लेकिन वह कविता के वैचारिक पक्ष पर ज़्यादा समय तक बोलते रहे। अपने आपको बड़ा कवि दिखाने की लालसा भी उनमें बार-बार दिखती रही। बहुत देर तक उबाऊ भाषण के बाद जो पहली कविता उन्होंने पढ़ी‌। उसे सुनकर लगा कि चलो इतनी सुंदर कविता के लिए एक व्यक्ति को दस मिनट तो झेला ही जा सकता है।

इसके बाद उन्होंने राजा-रानी पर आधारित एक पुराना गीत सुनाया। वह भी सुंदर था। पर पहली कविता की सुंदरता अधिक थी। हो सकता है मुझे ही अधिक पसंद आई हो। इसके अलावा कुछेक दोहे भी उन्होंने पढ़े जो औसत ही लगे।

बाक़ी तो सब अच्छा ही रहा, लेकिन एक बात जो कविता सुनने वाले लोगों को देखकर मन में आई कि अगली बार ‘हिन्दवी’ को एक बड़ा हॉल बुक करना लेना चाहिए। एक सुंदर आयोजन हो और सबके हिस्से न आए तो टीस रह जाती है।

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