इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रावास के दिन
गोविंद निषाद 17 सितम्बर 2024
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने आना एक मुश्किल भरा सफ़र रहा। इलाहाबाद आने के बाद, रहने के लिए कमरा मिलना एक बड़ी समस्या थी। इस समस्या का स्थाई समाधान तब हो गया, जब मुझे विश्वविद्यालय के एक छात्रावास में कमरा मिल गया। तब उसकी फ़ीस बहुत सस्ती हुआ करती थी। यहाँ जीवन के छह बसंत पार हुए। यहाँ की कई सारी सुख-दुख में लिपटी स्मृतियाँ हैं। यहाँ आने वाला हर छात्र ख़ाली आता है, और जब जाता है तो भरा हुआ। मैं भी यहाँ से भरा हुआ गया।
आज, जब वह दिन याद आते हैं—तब न जाने कितने क़िस्से आँखों में तैरने लगते हैं। ये क़िस्से बिल्कुल शुरुआत के हैं, जब मैं छात्रावास में आया ही था। मैं इसके अनुशासन से बिल्कुल अंजान था। इन्हें पढ़कर आपको पता चलेगा कि वह किस तरह की दुनिया थी। इनका उद्देश्य किसी भी तरह छात्रावासीय परंपरा का गौरवगान करना या अपने सीनियर की खिंचाई करने का बिल्कुल नहीं है, जहाँ तक भाषा का सवाल है तो यही भाषा वह अक्सर बोलते हुए सुने जाते थे। “भो*** के” शब्द शहर और छात्रावास की जीवन-शैली में इस तरह रचा-बसा हुआ था कि इसे काटना किसी भी तरह से संभव नहीं लगा।
मैं छात्रावास में नया-नया आया था। एक हफ़्ते भी नहीं बीते थे कि पुलिस की रेड पड़ गई। पुलिस और अंत:वासियों में चूहे-बिल्ली का खेल पहले से चला आ रहा था।
उस दिन भी कटरा में किसी दुकानदार ने बोल दिया था, “जो लोग पहले से खड़े हैं, पहले उन्हें सामान दे लूँ, फिर आपको देता हूँ।”
फिर क्या तुरंत बवाल हो गया। जब तक लोग समझ पाते दुकानदार पिट गया। थोड़ी-देर बाद वहाँ धमाका हुआ और चारों तरफ़ बस धुआँ-धुआँ। रात में छात्रावास में पुलिस आई। हल्ला मचा। सभी छात्र बग़ल के हॉस्टल के प्रांगण में भागने लगे। मुख्य गेट हमेशा बंद रहता था। उसके बग़ल में एक छोटा गेट होता था। उसमें एक-एक करके भागा जा सकता था। हमारे एक सीनियर बहुत मोटे-तगड़े थे। वह उसमें फँस गए।
तभी मैं हाँफता हुआ, वहाँ पहुँच गया। वह निकल ही नहीं पा रहे थे। मैं खड़ा हो गया। मुझे खड़ा देखकर वह चिल्लाए : “अरे भो*** के अभी जवान हो। भागो दिवाल कूदकर। नहीं तो पुलिस बहुत कूटेगी।”
हम तीन जूनियर साथ में दिवाल कूदकर भागे।
हम कुछ ऐसे थे जैसे हंसों के बीच काले कौवे। तुरंत पहचान लिए गए कि नव-प्रवेशी हैं हम। एक सीनियर ने डाँटते हुए हमें पास बुलाया, “भो*** के तुम लोग इधर आओ। अपनी ख़ाला के घर आए हो क्या, जो हाफ़ लोवर पहनकर घूम रहे हो।”
हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम। मुझसे तो कुछ बोला ही नहीं गया। मेरे रूममेट ने किसी तरह हिम्मत की बोलने की, “भैया खाना बना रहे थे, तभी पुलिस आ गई। इसलिए फ़ुल पैंट पहनने का समय नहीं मिला।”
सीनियर इस बार तो फट पड़े : “भो*** के भैया किसको बोला बे। यहाँ कोई तुम्हारा भैया-भौजी नहीं है। क्या समझे। अपने से सीनीयर को ‘सर’ बोलगे। क्या कहोगे?”
हमने एक साथ कहा, “सर।”
ऐसा लगा कि उन्हें ‘भैया’ हमने नहीं, उस लड़की ने बोल दिया है, जिसे वह पिछले साल से प्रेमिका बनाने की फ़िराक़ में थे। हम एक नई दुनिया में थे। हमें नहीं पता था कि भैया कहना यहाँ अपमानजनक हो सकता है। बाद में हम यह सोचकर-सोचकर ख़ुश होते कि अगले वर्ष से जब हम भी सीनियर हो जाएँगे, तब हम भी रौबीले अंदाज़ में जूनियर को बताएँगे— “भो*** के भैया नहीं बोलना है, सर बोलना है। क्या समझे?”
उन्होंने फिर हिदायत दी, “और ये तुम लोग खाना बनाते समय भी फ़ुल पैंट पहना करो। जाने कब पुलिस की रेड पड़े और भागना पड़े तो क्या ऐसे ही भागोगे। आगे से यह कभी नहीं होना चाहिए। बाहर या कैंपस जाओ तब भी एकदम चौचक। कभी ऐसे दिख गए न तो ख़ैर नहीं। क्या समझे?”
हमने सिर हिलाते हुए एक साथ कहा, “ठीक है सर।”
~
इलाहाबाद में चाय पीना ठीक वैसा है जैसे—जीना। क़दम-क़दम पर चाय की दुकान। यहाँ आप चाय नहीं पीते तो चाय न पीने के अपराधी क़रार दिए जाएँगे। नए आए हुए लड़के भी जल्दी ही यह सीख जाते हैं कि इलाहाबाद में जीना है तो चाय पीना है। मैं भी जल्दी ही सीख गया।
एक दिन मैं चाय पी रहा था। दुकान से होकर एक सीनियर गुज़र रहे थे। चाय देखकर उनसे भी रहा नहीं गया। वह भी आ गए चाय पीने। तब सीनियर के सामने आने पर जूनियर द्वारा प्रणाम करने का चलन हॉस्टल में था। कमर को झुकाकर हाथ को सीने की तरफ़ लाकर प्रणाम करना होता। यह सम्मान व्यक्त करने का तरीक़ा था। तब मुझे यह तरीक़ा नहीं पता था।
उनके आते ही मैंने उन्हें नमस्ते किया, “सर! नमस्ते।”
सीनियर बोले, “इधर आओ। किस कमरा नंबर में रहते हो?”
मैंने उत्तर दिया, “सर! 51ए में।”
सीनियर ने कहा, “भो*** के ऐसे प्रणाम करते हैं सीना फुलाकर। प्रणाम कर रहे हो कि ललकार रहे हो। दूसरा बात कि नमस्ते नहीं, प्रणाम कहो। लग रहा है, अभी तुम लोगों का इंट्रो नहीं हुआ है।”
“सॉरी सर, अभी नहीं हुआ है।”
सीनियर समझ गए, “इसलिए तुम्हें नहीं पता कि सीना फुलाकर प्रणाम नहीं करते। आज तुम लोगों का बंदोबस्त करवाता हूँ।”
मैंने उनके भी चाय के पैसे दे दिए। वह पैसे देने गए, तब दुकानदार ने बताया कि पैसा तो मैंने दे दिया है। उन्होंने मुझे वापस बुलाया और पूछा, “तुमने चाय के पैसे दिए?”
मैंने उत्तर दिया, “हाँ सर।”
सीनियर भड़क गए, “भो*** के अब जूनियर के पैसे की चाय सीनियर पीएगा। यह हॉस्टल की परंपरा नहीं है। पैसा वापस लो।”
फिर समझाते हुए बोले, “आज के बाद अगर कहीं भी दुकान पर सीनियर मिल जाए तो जो मन में आए खाना जमकर। पैसा तुम्हारा सीनियर देगा। क्या समझे?”
“ठीक है सर।”
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हमारा छात्रावास अँग्रेज़ों के ज़माने का था। अँग्रेज़ों के ज़माने का शौचालय अब खंडहर में तब्दील हो गया था। छात्र वहाँ निवृत्त होने जाते लेकिन सिर्फ़ सुबह। दिन में और अन्य समय पर, मेरे कमरे के पास पेड़ों की झुरमुट में मूत्र विसर्जन होता। सारे सीनियर गंधाते शौचालय की बजाय यहीं पेशाब करना पसंद करते। उन्हें देखकर हम भी यहीं पेशाब करने लगे। एक दिन मैं पेशाब कर ही रहा था कि एक सीनियर चिल्लाए, “भो*** के यह मूतने की जगह है?”
मैंने कहा, “सर, सब लोग तो मूतते हैं।”
सीनियर बोले, “तो तुम्हें भी यहाँ मूतने की परमीशन थोड़े न मिल गई।”
मैंने रिरियाते हुए कहा, “अरे सर! माफ़ कर दीजिए। अब यहाँ नहीं करूँगा पेशाब।”
सीनियर ने एक और सलाह दी, “सब लोग तुम्हारे सीनियर हैं जो यहाँ मूतते हैं। तुम जब सीनियर हो जाना तब मूतना। क्या समझे?”
“ठीक है सर”
~
छात्रावास का स्नानागार भी खंडहर में तब्दील हो गया था। नौबत यह आ गई थी कि जहाँ पहले बर्तन धोया जाता था, वहीं अब छात्र नहाते थे। जगह इतनी कम कि एक साथ तीन लोग नहीं नहा सकते थे।
एक दिन मैं नहाने के लिए पहुँचा। सुबह के नौ बज रहे थे। जब मैं पहुँचा तो दो सीनियर वहाँ पहले से ही नहा रहे थे। मैंने उन्हें झुककर प्रणाम किया।
सीनियर ने पूछा, “यह कोई समय है नहाने का। तुमको पता है कितने बज रहे हैं। घर से यही सब सीखकर आए हो। आय…!”
मैंने धीरे से जवाब दिया, “सर सो रहा था।”
सीनियर ने फिर पूछा, “कब सोते हो?”
मैं बोला, “बारह बजे।”
सीनियर ने कहा, “फिर इतना लेट क्यों उठते हो? रात में माल से बतियाते हो क्या...”
मैंने कहा, “नहीं सर, सुबह से उठकर पढ़ रहा था।”
सीनियर फिर भड़क गए, “भो** के चू** हो क्या? पहले कहा सो रहे थे। अब कह रहे हो कि पढ़ रहे थे। कर क्या रहे थे तुम?”
मैंने जवाब में कहा, “पढ़ ही रहा था सर।”
अब मैं सोने वाली बात बोलकर उन्हें और नहीं भड़काना चाहता था।
सीनियर ने एक और सवाल दाग दिया, “अच्छा यह बताओ कि उठकर पहले आदमी नित्य क्रिया करता है कि पढ़ता है। हाँ?”
“सर, नित्य क्रिया।”
सीनियर बोले, “तो तुम्हें वही करना चाहिए ना पहले। आज के बाद सुबह सबसे पहले उठकर नित्य क्रिया करोगे, वो भी सात बजे से पहले। अगर नौ बजे यहाँ बाल्टी लिए नज़र आए ना, तो बहुत पेले जाओगे। क्या समझे?”
“ठीक है सर।”
~
मुझे छात्रावास में आए कुछ महीने हो गए थे। उत्तर प्रदेश स्नातक विधान परिषद् का चुनाव हो रहा था। छात्रावास में बुज़ुर्ग सीनियरों का भरा-पूरा परिवार था। उन्हीं में से एक सीनियर के जान-पहचान के चुनाव लड़ रहे थे। उनका कमरा अघोषित चुनाव कार्यालय था। मतदान से एक दिन पहले उन्होंने अपने जूनियर से कहा कि इस वर्ष जितने भी नव-प्रवेशी आएँ हैं उन्हें बुलाओ।
हमें बुलावा भेजा गया। हम उनके कमरे में पहुँचे। हमने उन्हें प्रणाम किया।
सीनियर ने सबसे कहा, “अपना-अपना नाम और विषय बताओ?”
मैंने अपनी बारी आने पर कहा, “सर! गोविंद। विषय हिंदी, अर्थशास्त्र, और मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास।”
सीनियर ने आगे बताया, “अच्छा-अच्छा, बहुत बढ़िया। कल तुम लोगों को एजेंट बनना है। सुबह आठ बजे सेंट मेरी स्कूल पहुँच जाना।”
मैंने उनसे कहा, “सर, कल क्लास करने जाना है।”
यह सुनकर सीनियर बिदक गए, “तुमको क्या लगता है, हमने कभी क्लास नहीं की। और यूनिवर्सिटी में ऐसा क्या पढ़ाते हैं, जो तुम पढ़ने जाओगे। जाओ अब। कल पहुँच जाना समय से।”
मैंने फिर से कहा, “सर! क्लास करना ज़रूरी है?”
सीनियर बोले, “अच्छा, जो क्लास तुम्हें लेने जाना है, उसके टीचर का नाम बताओ?”
मैंने उत्तर दिया, “सर, कमल यादव सर।”
“तुमको पता है कि कमल कमरा नंबर पचत्तर में रहता है?”
“नहीं पता है सर”
सीनियर ने कुछ समझते हुए कहा, “तुम लोग अपने सीनियर को नहीं जानते। इंट्रो होने दो सबको जान जाओगे। अच्छा तो मैं उसे बोल दूँगा कल वह क्लास नहीं लेगा। तुम लोग पहुँच जाना समय से। क्या समझे?”
“ठीक है सर।”
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