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इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो-3

दूसरी कड़ी से आगे...

हाँ तो मैं ऑटो में था। वह धड़धड़ाता हुआ बैरहना डाट पुल से सीएमपी कॉलेज से मेडिकल चौराहा होते हुए सिविल लाइंस, हनुमान मंदिर के पास पहुँचा। मैं वहाँ से सीधा पुस्तक मेला गया। मेला हर बार की तरह एंग्लो-बंगाली इंटर कॉलेज में लगा था। यह इलाहाबाद के पुराने कॉलेजों में से एक है। इसका निर्माण बंगाली समुदाय ने 1875 ई. में किया था, ताकि उनके बच्चे पढ़ सकें। जब इलाहाबाद उत्तर पश्चिम प्रांत की राजधानी बना। यहाँ इलाहाबाद हाईकोर्ट और गवर्नमेंट प्रेस के साथ कई सरकारी कार्यालयों की स्थापना की गई। तब बड़ी संख्या में बंगाली लोग यहाँ नौकरी करने आए। इसी प्रक्रिया में उपजा था, यह इंटर कॉलेज।

मेरे जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी, आपको विश्वास नहीं हो रहा होगा कि जिसको प्रति माह 43 हज़ार रूपये मिलते हैं; उसकी जेब में फूटी कौड़ी नहीं है। हाँ ऐसा ही है, मेरे खाते में पैसे आते तो हैं लेकिन उन्हें पंख लग जाते हैं। वह आते ही उड़ने लगते हैं। मैं कितना उन्हें पकड़ूँ; एक-दो रूपये होते तो पकड़ भी लेता, अब हज़ारों रूपये कैसे पकड़ूँ। बड़ी मुश्किल से मैं सौ रूपये पकड़ पाया था और उतने रुपयों से मैं यहाँ तक आया था। अब मुझसे यह नहीं पूछिएगा कि इन रूपये का मैं करता क्या हूँ! आपने तो अनुमान लगाने शुरू ही कर दिए होंगे, चलो मैं ही आपके अनुमान को आपके सामने रख देता हूँ।

सबसे पहले तो आपको लगता है कि यह जेआरएफ़धारी शोध छात्र है तो पक्का लौंडियाबाज़ी करता होगा। लड़कियों के ऊपर पैसे उडाता होगा। दूसरा कि वह शराब पीता तो होगा ही, और अब उसने शराब की गुणवत्ता बढ़ा दी होगी, अब वह मैकडॉवल से ब्लैक डॉग पीने लगा होगा। अब उसके शरीर पर ऐसी कोई चीज़ नहीं होगी, जो ब्रांडेड न हो। पिंड बलूची से नीचे के रेस्त्रा में वह बैठता नहीं होगा, वो भी अपनी महिला मित्र के साथ। हर हफ़्ते पीवीआर में फ़िल्म का शो देखता होगा। पर्यटन में वह मसूरी-मनाली से नीचे सोचता भी नहीं होगा। मैं पक्का सोच रहा हूँ कि आप यही सोच रहे होंगे।

अगर आप ऐसा नहीं सोच रहे हैं तो मुझे पक्का यकीन है कि आप किसी संत महात्मा से कम नहीं हैं। अगर आप मुझे मिलेंगे तो मैं आपको प्रणाम करूँगा, ठीक उसी अंदाज़ में जैसे आदिम समय में हम अपने सीनियर को देखते ही अपना हाथ सीने पर लाकर सिर झुकाकर कहते थे—“सर प्रणाम।” यह हमारे आदिकालीन समय के छात्रावासीय परंपरा और अनुशासन का सबसे कठोर नियम रहा है, तो दुनिया में आपको ऐसी चीज़ नहीं मिलने वाली जो मैं ‘सर प्रणाम’ करके आपको देने जा रहा हूँ। मुझे अपने शहर के शायर अकबर इलाहाबादी का एक बहुत प्रसिद्ध शेर याद आ रहा है—

“हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है”

ग़ैर जेआरएफ़धारी छात्रों का तो पूछो मत। बेचारे बड़े सताए हुए लगते हैं। उन्हें देखकर तरस आता है, लेकिन क्या करें हम! वे हमें देखते ही कहते है कि और गुरु तुम्हारा तो भौकाल है। वह भी दिन-रात जुटे रहते हैं कि कैसे उन्हें भौकाल के इस स्तर की प्राप्ति होगी। चाय के पैसे देते समय भी अपना दुखड़ा रो ही देते है कि तुम तो यार जेआरएफ़ हो, दे दो पैसा। उनके दुख का स्तर अलग लेवल का रहता है। हर तरह से त्रस्त। ऊपर से अगर सुपरवाइज़र उसके मन के मुताबिक न निकले तो समझो लो कि दुनिया के सबसे दुखी इंसानों में से एक आपको मिल चुका है। वह आपको हिंदी-विभाग या उसके सामने स्थित लॉन में जिसका नाम कभी प्रगतिशील धारा के छात्र संगठनों ने इरोम लान और दक्षिणपंथी धारा के संगठनों ने विवेकानंद लान रखा हुआ था, वहाँ लोहे के रखे स्टैंड पर मिल जाएँगे। नहीं तो बरगढ़ वाले लॉन में, कैंटिन के पास, सीनेट हॉल की सीढ़ियों पर मिल सकते हैं। अगर यह वहाँ नहीं मिलें तो समझ जाओ कि वह फ़ेलोशिप वाले भैया के पास ज़रूर होंगे। वहाँ न मिले ऐसा असंभव है।

अगर आप शोध छात्र हैं तो ऐसे एक शोध छात्र पर एक केस स्टडी कर सकते हैं, जो कैब्रिज यूनिवर्सिटी के जर्नल से प्रकाशित हो सकती है। आप इस शोधपत्र से दुनिया में छा सकते हैं। तो देर न कीजिए, अवसर का रोना बंद करके देखिए, सबकुछ आपके आस-पास तैर रहा है। किसी मछुआरा-सा नदी में कूद पड़िए। आपको तो तैरना भी नहीं आता? कोई बात नहीं मैं मल्लाह हूँ, आप मेरे साथ कुछ दिन गंगा स्नान चलिए, सिखा दूँगा।

हाँ तो मेरा सारा पैसा आपके अनुमानों में जा चुका है, तो आगे बढ़ते हैं—मेला है तो देखने में क्या हर्ज। मेला देखने के लिए पैसे थोड़े न लगते हैं। वो तो किताब ख़रीदने के लगते हैं जिसे मुझे ख़रीदना नहीं था।

‘राजकमल प्रकाशन’ का स्टॉल आगे ही लगा है। राजकमल का अलग ही रौला रहता है पुस्तक मेलों में। एक दम ठाठ-बाट से। पहले वहीं गया। कुछ किताबें उलटी-पलटीं। फिर याद आया कि यह तो अपने घर का प्रकाशन है, कभी भी यहाँ से किताबें ले लूँगा; इसलिए ‘वाणी’ वगैरह को पीछे छोड़ते हुए, मैं आ गया उन स्टालों पर, जहाँ तीन सौ रूपए की पाँच किताबें बिक रही थीं। मेरी नज़र एक किताब ख़रीद रही लड़की की तरफ़ चली गई। मैं उसे किताबों के बहाने थोड़ी देर देखता रहा। जैसे ही मैंने उसके हाथों में अँग्रेज़ी की किताब देखी, मैं वहाँ से खिसक लिया। वैसे पता नहीं क्यों मैं किसी भी लड़की से बात करने में डरता हूँ, लेकिन अँग्रेज़ी बोलती लड़कियों से बात करते समय मेरा दिमाग़ काम करना बंद कर देता है। डरता हूँ कि अगर उसने कुछ पूछ दिया तो पक्का है कि मेरी समझ में कुछ नहीं आएगा। मैं कह दूँगा “आय”, फिर मैं मारे शरम के लाल हो जाऊँगा। ऊपर से अगर उसने यह समझ लिया कि मैं उसका पीछा कर रहा हूँ तो मुझसे ग्लानी का ग्लेशियर पिघलाए नहीं पिघलेगा। मेरे पिछले अनुभव यही कहते हैं कि बेटा यहाँ से निकल ले तू। मैं अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए वहाँ से निकल गया। मुझे कब कोई हीनताबोध का एहसास करा दे, इसका एहसास मुझे हर पल होता रहता है।

एक बार मैं राष्ट्रीय अभिलेखागार में एक कोर्स कर रहा था। इसमें एक विदेश में शोध कर रही देसी लड़की भी आई थी। उसने मुझसे अँग्रेज़ी में कुछ पूछा। मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैंने कहा, “आय”। फिर वह आगे कुछ नहीं बोली। 

मैं पुस्तक मेले में घूमता और किताब ख़रीदते लोगों को देखता रहा। उन स्टॉलों पर ज़्यादा भीड़ थी, जहाँ अँग्रेज़ी साहित्य फुटकर के भाव बिक रहा था। इसे देखकर पहली बार एहसास हुआ कि भाई इलाहाबाद में भी अँग्रेज़ी पढ़ने वाले ज़्यादा ही है। कहाँ रहते हैं ये लोग। वैसे तो कभी दिखाई नहीं देते। फिर मुझे लगा कि मेरी आँखे ही उन्हें देख पाने में असमर्थ होंगी| फिर मुझे अँग्रेज़ी न आने का पैनिक अटैक आते-आते रहा गया कि हिंदी किताबें तो हम गए गुज़रे लोग पढ़ते हैं।

घूमते हुए जब मेरा मन भर गया तो पुस्तक मेले में ही हो रहे कवि सम्मेलन और मुशाइरे में जाकर बैठ गया क्योंकि वहाँ कई कुर्सियाँ ख़ाली थीं। वक्ता कोई संस्मरण सुना रहे थे। कवि सम्मेलन में संस्मरण। यही तो इलाहाबाद है, यहाँ कुछ भी हो सकता है। प्रयागराज में यह सब कहाँ मिलेगा! वक्ता बता रहे हैं कि कई सालों पहले उनकी एक बंदूक़ खो गई। बाबू बहादुर सिंह ने जो तब दरोगा थे, उन्होंने उनकी बंदूक़ महीने भर में खोजकर दे दी। जब उन्होंने इसका धन्यवाद कहा तो उन्होंने कहा कि, “देखिए यह हमने अकेले थोड़े न खोजी है। भई तीन थानों की पुलिस लगी है इसमें।” फिर क्या था श्रोताओं ने जमकर तालियाँ बजाई।

मेरी आँखें वैसे मोबाइल की स्क्रिन पर लगी हुई थी, लेकिन कानों को तो सुनने से नहीं रोक सकता। कविता कर रही एक मोहतरमा कुमार विश्वास की तरह गला पकड़ने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन गला है कि पकड़ में ही नहीं आ रहा था। वह ख़ुद ही कह रही थीं कि आप लोग तालियाँ नहीं बजाएँगे तो मैं आगे की पंक्तियाँ कैसे पढ़ूँगी! लोग भी क्या करें, वे तालियाँ बजा रहे थे, ताकि मोहतरमा की बाण रूपी कविता से मुक्ति मिले, जो उन्हें बेध रही थीं। इन कविताओं में प्रेम और राष्ट्रवाद का तगड़ा छौंक था। मैं बरबस अपने कानों से उसे अनसुना करने की कोशिश करता रहा, लेकिन वह माने तब न। कानों में उनके बाण लगते रहे, मैं घायल होता रहा।

इन कविताओं को सुनकर लगा कि ज़रूर इन्होंने इसे होश-ओ-हवास में लिखा होगा, अन्यथा यह इतनी बुरी नहीं होती। मैं मोबाइल में गढ़ा हुआ था कि मिठाई का एक डब्बा ऊपर से मेरे पैरों पर गिरा। डब्बा खोला। उसमें ठीक-ठाक चीज़ें थीं, जिसे खाया जा सकता था। मैं खा नहीं सकता था क्योंकि मुझे खाने की इजाज़त नहीं थी, डॉक्टर की आज्ञानुसार। मैं मन मसोसकर रह गया। सोचने लगा कि इसका करूँ क्या! दिमाग़ चलाया। जल्दी ही इसका समाधान मुझे मिल गया। इसे किसी रिक्शा चालक को दे दूँगा। वैसे भी आज क्रिसमस है। मुझे कुछ भी देना होता है, मेरे दिमाग़ में पहले पिता आते हैं, फिर उनका रिक्शा आता है। फिर हर रिक्शा चालक में मुझे अपने पिता दिखने लगते हैं। आख़िर रिक्शे का नमक जो खाया है। 

अब मुझे रिक्शा चालक ढूँढ़ना था। उसे ढूढने के लिए मैं पुस्तक मेले से बाहर निकला। बस अड्डे के पीछे वाले रास्ते से होते हुए, उस मोड़ पर पहुँचा, जहाँ की सड़कों के दोनों तरफ़ मोटरसाइकिल से कार तक के छोटे-छोटे मैकनिक बैठे हुए ग्राहकों के इंतज़ार में मक्खियाँ मार रहे थे। कहीं-कहीं कुछ मैकेनिक गाड़ियों की रिपेयरिंग में व्यस्त भी थे। यहाँ तरह-तरह के रंग-बिरंगे नंबर प्लेट जगह-जगह ऐसे लटके हुए हैं, जैसे कभी एक ख़ास किस्म की चिड़ियाँ पेड़ों पर अपने घोंसले ऐसे बनाती की वह डाल से लटके रहते थे। अब मैं वहाँ था जहाँ चार पहिया वाहनों का शो रूम है। इस जगह से गुज़रते हुए सोचता रहा कि क्या जीवन में इतना कभी कमा पाऊँगा कि एक अदद गाड़ी ले पाऊँ। पहले अपने पुरखों को याद किया, फिर अपनी शक्ल को याद किया, फिर सोचा पक्का नहीं कमा पाऊँगा। किस बात से उम्मीद की जाय कि मुझे इस लायक़ बना पाएगी। अपने कर्मों को देखकर तो नहीं लगता।

आगे सुभाष चौराहा था। यह सिविल लाइंस का मुख्य चौक है। एक मई को यहाँ मज़दूर दिवस मनाने के लिए पिछले पाँच सालों से आता रहा हूँ। जब मैं ग्रेजुएशन करने इलाहाबाद आया, तब सिविल लाइंस के नाम पर सिर्फ़ ‘बस अड्डे’ को ही जानता था। दो सालों तक मुझे कटरा ही इलाहाबाद लगता रहा। ‘सिविल लाइंस’ नाम से ही मुझे डर लगता। चमकते लोग और चमकती गाडियाँ मुझे हमेशा से डराती रही हैं। गाँव में मैंने देखा है कि गाड़ियों से उतरने वाले कैसे रौब झाड़ते थे। उनसे बात करना तो दूर वह सीधे मुँह देखते भी नहीं थे। तब यह जगह तो और डरावनी लगती थी मुझे।

बग़ल में ही राजकरन सिनेमा हॉल है, यह इलाहाबाद के पुराने सिनेमा हॉलों में से एक है। यह औपनिवेशिक काल में ‘रिजेंट थिएटर’ के नाम से जाना जाता था। पिछले वर्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय में ‘द लीडर’ अख़बार की प्रतियों को पलटते हुए, कई विज्ञापन देखें जिसमें यहाँ मंचित होने वाले नाटकों का विज्ञापन छपा था। एक बार रवींद्रनाथ टैगोर ने भी अपने नाटक का मंचन यहाँ देखा था। बाद के दिनों में यह सिनेमा हॉल में परिवर्तित हो गया।

मैं चलते हुए उस जगह पर पहुँचा, जहाँ इलाहाबाद का प्रसिद्ध कॉफ़ी हाउस है। इसके बग़ल में है दरबारी बिल्डिंग जिसमें ‘लोकभारती प्रकाशन’ है। सामने ‘वाणी प्रकाशन’। यह वही कॉफ़ी हाउस है, जहाँ पहले बड़ी-बड़ी बहसें हुआ करती थीं। इलाहाबाद के बड़े साहित्यकार और बुद्धिजीवी शाम को यहाँ पाए जाते थे। कितने यहाँ बने और बिगड़ गए। इलाहाबाद में साहित्यिक गोष्ठी हो और उसमें कॉफ़ी हाउस के चर्चे न हो, यह असंभव है। इन चर्चाओं में कितनी वास्तविकता है, कितना फ़साना—यह ख़ुदा जाने। बहसें थोड़ी बहुत अब भी होती हैं, लेकिन अब उसमें वह जान नहीं है।

जब जेब में पैसा आता है, तब डरावनी जगहें भी ख़ूबसूरत हो जाती हैं। मेरे लिए अब सिविल लाइंस ख़ूबसूरत जगह है। इस ख़ूबसूरती को निहारने एक बार कॉफ़ी हाउस में कॉफ़ी पीने गया भी। उसके बाद फिर कभी नहीं गया। कॉफ़ी के नाम पर दूधिया पानी गर्म करके दे दिया। इस बार कॉफ़ी हाउस के बाहर ही सड़क के किनारे कॉफ़ी की दुकान हैं। वहाँ कॉफ़ी पीने के लिए खड़ा हो गया। दुकानदार ने कॉफ़ी गिलास में उड़ेली, जैसे ही मैं उसे उठाने गया वैसे ही दुकानदार ने मुझे रोक दिया, “यह आपके लिए नहीं है।” मैं ख़ुद को हाशिए पर महसूस करने लगा। दुबारा से उसी हीनताबोध से घिर गया, जिसे मैं गाँव से लेकर आया था। मुझे समझ नहीं आता है कि कैसे मुझे सब समझ जाते हैं कि मैं बकलोल हूँ। शायद शक्ल पर अभी भी लिखा हुआ है, जिसे मिटाने की कोशिश मैं जी-जान से करता रहता हूँ। आज फिर से फेल हो गया।

उसने मुझे फ़ाइबर के गिलास में कॉफ़ी दी। मैंने चाहा कि एक बार कहूँ कि मुझे शीशे के गिलास में कॉफ़ी चाहिए। फिर न जाने क्यों चुप रह गया। हर बार ऐसे क्षणों में मैं चुप हो जाता हूँ। मैंने कॉफ़ी के पैसे देने के लिए क्यू आर कोड स्कैन किया। पैसा पे करने ही जा रहा था कि तभी दिमाग़ की शैतानी बत्ती जली। भीड़ बहुत है। कौन देख रहा है पैसा दिए कि नहीं। निकल लो यहाँ से। मैं निकल तो गया, लेकिन मेरी धड़कनें बढ़ी हुई थीं। हम एक बार और यह कर चुके हैं। तब पकड़े गए थे। इस बार भी पकड़ लिया तो पक्का गाली देगा| यह सोचते हुए मैं आगे बढ़ गया।

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