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आज भी सबसे बड़ी शक्ति हैं प्रेमचंद की कहानियाँ

उनासीवें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर प्रयागराज शहर आज़ादी का उत्सव मनाने की तैयारी कर रहा था। इसी उल्लास के बीच स्वराज विद्यापीठ में 9 से 16 अगस्त 2025 तक ‘स्वराज उत्सव’ के अंतर्गत इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों की संस्था ‘यूनिवर्सिटी थिएटर’ ने ‘कथा छवि’ शीर्षक से मुंशी प्रेमचंद की तीन कहानियों क्रमशः ‘सभ्यता का रहस्य’, ‘सत्याग्रह’ और ‘क़ातिल’ का नाट्यमंचन किया। सभी नाटकों का निर्देशन अमितेश कुमार ने किया। 

यह आयोजन मात्र नाट्य प्रस्तुति भर नहीं था, बल्कि अतीत से संवाद करते हुए वर्तमान को परखने और भविष्य की राह तलाशने का एक अवसर था। पहली कहानी ‘सभ्यता का रहस्य’ की शुरुआत दो सखियों के संवाद से होती है, जिनके बीच प्रश्न उठता है कि सभ्य कौन है? असभ्य कौन है? यही प्रश्न नाटक का केंद्र-बिंदु बन जाता है। मंच पर रायरतन किशोर और उनका नौकर दमड़ी दो विरोधी चरित्रों के रूप में सामने आते हैं। रायसाहब समाज में एक सुसंस्कृत और आदर्श छवि वाले व्यक्ति दिखते हैं, पर भीतर से वह भ्रष्टाचार और अनैतिक कृत्यों में लिप्त हैं। दूसरी ओर दमड़ी जो ग़रीबी और ईमानदारी का प्रतीक है, छोटी-सी ग़लती के कारण सख्त दंड का भागी बनता है। नाटक के संवाद आज के समाज पर सीधा व्यंग्य करते हैं। आज भी हम अक्सर देखते हैं कि बाहरी आभिजात्य और सलीक़ेदार लिबास के पीछे कितनी ही अनैतिकताएँ छुपी रहती हैं। वहीं जो मेहनतकश और ईमानदार व्यक्ति है, जिसे समाज गंवार कहकर ख़ारिज कर देता है; असल में ज़्यादा सभ्य और मानवीय होता है। नाटक का यह संवाद—“कि अगर आप बुरे-से-बुरे काम करें, लेकिन अगर आप उस पर पर्दा डाल सकते हैं तो आप सभ्य हैं, सज्जन हैं, जेंटलमैन है; अगर आप में यह सिफ़त नहीं तो आप असभ्य हैं, गंवार हैं, बदमाश हैं। यही सभ्यता का रहस्य है।” नाटक के पात्रों ने इन दोनों किरदारों को आपसी संवाद, भाव-भंगिमाओं और संप्रेषण के तरीक़े से बिल्कुल जीवंत बनाए रखा। नाटक के दृश्यों के बीच-बीच में जो पात्र आकर आगे की कहानी बताते हैं, वे दर्शकों को नाटक के भीतरी लय से जोड़ने में सफल रहते हैं। सीमित संसाधनों के बाद भी नाटक के सभी पात्र सभ्य और असभ्य के अंतर को प्रश्न की तरह दर्शकों के मन तक पहुँचाने में सफल होते दिखते हैं।

इसी क्रम में दूसरी प्रस्तुति ‘सत्याग्रह’ कहानी की हुई, जिसे व्यंग्य और हास्य के साथ प्रस्तुत किया गया। मोटेराम शास्त्री नामक पात्र इस नाटक का केंद्र बनता है, जो अपनी चालाकियों स्वार्थ और बनावटी धार्मिकता से दर्शकों के मन में न केवल हँसी पैदा करता है बल्कि भीतर-ही-भीतर चुभन और सवाल भी छोड़ जाता है। यह नाटक वर्तमान के संदर्भ में और भी जीवंत हो उठता है। आज जब राजनीति और समाज में नारेबाज़ी और दिखावटी नैतिकता का बोलबाला है, तब मोटेराम शास्त्री अधिक जीवंत और प्रासंगिक दिखाई पड़ते हैं। मोटेराम शास्त्री का किरदार निभाने वाले अभिनेता ने प्रेमचंद की कहानी की मूल भावना को बिल्कुल जीवंत कर दिया। अभिनेता के हाव-भाव और चेहरे से आज के समय का आदर्श और सिद्धांत का चोला ओढ़े स्वार्थी और अवसरवादी व्यक्ति की छवि बिल्कुल साफ़ दिखाई देती थी।

अंतिम प्रस्तुति ‘क़ातिल’ कहानी की हुई। यह कहानी हमें स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में ले जाती है। इस नाटक का केंद्रीय विषय हिंसा और अहिंसा का द्वंद्व है। नाटक का मुख्य पात्र धर्मवीर और उसकी माँ हैं। उन्हीं के वैचारिक टकराहट के माध्यम से यह प्रश्न उठाया जाता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति का सही रास्ता क्या है? क्या हिंसा का परिणाम निर्दोष लोगों पर भी पड़ता है! नाटक हमें गांधीवादी और क्रांतिकारी विचारधारा के बीच लाकर खड़ा कर देता है। नाटक का एक संवाद इसे स्पष्ट करता है कि “हम अँग्रेज़ों के दुश्मन नहीं है, बल्कि शासन व्यवस्था के विरोधी हैं” 

नाटक दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि आदर्श और यथार्थ के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए। नाटक के अंत में धर्मवीर और उसकी माँ के बीच बंदूक़ की छीनाझपटी में उसकी माँ को गोली लग जाती है। नाटक का यह दृश्य दर्शकों के बीच यह सवाल खड़ा करता है कि माँ की मृत्यु को बलिदान कहें या हत्या? क्या विरोध की ताक़त अहिंसा से अधिक गहरी और स्थायी नहीं होती? हिंसा चाहे कितनी भी न्यायोचित लगे पर वह अक्सर निर्दोषों की बलि माँगती है। धर्मवीर की माँ की मृत्यु इस विडंबना का प्रतीक बन जाती है। नाटक दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करता है कि धर्मवीर का भविष्य स्वतंत्रता के सिपाही के रूप में होगा या एक हत्या की ग्लानि से डूबे हुए व्यक्ति के रूप में। इस मूल द्वंद्व को निर्देशक ने नाटक के अंत में डायरी लिखते और ख़ुद से जूझते हुए धर्मवीर को दिखाकर बड़े ही प्रभावशाली ढंग से उकेरा है।

इन तीनों कहानियों का मंचन केवल अतीत की झलक भर नहीं बल्कि वर्तमान की तस्वीर थी। इस नाट्य प्रस्तुति की सबसे बड़ी सफलता यही थी कि मंच और दर्शकों के बीच कोई दूरी नहीं थी। अतरंग स्पेस में दर्शक अभिनेता को महसूस भी कर पा रहे थे और वह प्रस्तुति का हिस्सा आसानी से बन गए थे। प्रस्तुति में अभिनेताओं ने भरसक प्रयास किया कि वह कहानी के सजीव दृश्य बिंबों के जरिए दर्शकों तक पहुँचा सकें, लेकिन नैरेशन प्रस्तुति परिकल्पना में हावी रही। पृष्ठ संगीत का अच्छा उपयोग किया गया था, ख़ासकर आख़िरी दृश्य में जब धर्मवीर की माँ को गोली लग जाती है और धर्मवीर से उसका संवाद होता है तो पीछे से उभरती सारंगी की तान दृश्य को भावनात्मक गहराई प्रदान कर रही थी।

नाटक के अंत तक सभागार खचाखच भरा रहा। तालियों की गड़गड़ाहट केवल अभिनय और निर्देशन की सफलता नहीं थी, बल्कि इस बात का प्रमाण थी कि प्रेमचंद की दृष्टि आज भी हमारे भीतर गहरी हलचल पैदा करती है। प्रेमचंद की कहानियाँ समय की सीमाओं को लांघकर आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती हैं जितनी स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में रही होंगी। आज़ादी के 79 वर्ष बाद भी जब हम लोकतंत्र, नैतिकता और नागरिकता की नई परिभाषाएँ गढ़ रहे हैं, तब प्रेमचंद की यह कहानियाँ हमें रास्ता दिखाती हैं। शायद यही इनकी सबसे बड़ी शक्ति है कि वे हमें सवालों के साथ छोड़ देती हैं, ताकि हम स्वयं अपने उत्तर तलाश सकें।

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