यशपाल का परिचय
जन्म : 03/12/1903 | फ़ीरोजपुर, पंजाब
निधन : 26/12/1976 | फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
पुरस्कार : पद्म भूषण पुरस्कार(1970) | साहित्य अकादेमी पुरस्कार(1976)
प्रेमचंदोत्तर युग के प्रतिष्ठित रचनाकार यशपाल का जन्म 3 दिसंबर 1903 को वर्तमान हमीरपुर ज़िले के भूंपल ग्राम में एक साधारण खत्री परिवार में हुआ था। पिता छोटे-मोटे कारोबारी थे और माता फ़िरोज़पुर छावनी के एक अनाथालय में अध्यापिका थीं। उनकी आरंभिक शिक्षा हरिद्वार के आर्य समाज गुरुकुल में हुई और वहीं उन्हें देशभक्ति का पहला पाठ मिला। उनकी आगे की शिक्षा लाहौर और फिर फ़िरोज़पुर में पूरी हुई और दसवीं की परीक्षा पास कर ली। हाई स्कूल की शिक्षा के दौरान ही महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन के प्रभाव में आ गए थे और गाँव-गाँव घूमकर असहयोग आंदोलन का प्रचार करने लगे थे। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल कॉलेज, लाहौर में दाख़िला लिया।
नेशनल कॉलेज, लाहौर में यशपाल का परिचय भगत सिंह, सुखदेव थापर, भगवतीचरण बोहरा जैसे युवकों से हुआ जो असहयोग आंदोलन के अचानक वापस ले लिए जाने से गाँधी के प्रति मोहभंग का शिकार हुए थे और एक क्रांतिकारी राह की तलाश में थे। वह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गए। यहीं वह मार्क्सवाद-समाजवाद के प्रभाव में भी आने लगे थे। दल की क्रांतिकारी गतिविधियों में धीरे-धीरे उनकी संलग्नता बढ़ती गई और इरविन पर हमले में उनकी भी प्रमुख भूमिका रही। भगत सिंह, सुखदेव आदि क्रांतिकारियों की गिरफ़्तारी और पुलिस मुठभेड़ में चंद्रशेखर आज़ाद की मौत के बाद उन्होंने दल की कमान भी संभाल ली थी। उन्हें जनवरी 1932 में गिरफ़्तार कर लिया गया और हत्या के दो प्रयासों के आरोप में 14 वर्ष के सश्रम कारावास की सज़ा दी गई। वह 6 वर्षों तक जेल में रहे, जब तक कि संयुक्त प्रांत में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद अँग्रेज़ सरकार के साथ संपन्न एक समझौते के तहत अन्य बंदियों के साथ उन्हें भी रिहा नहीं कर दिया गया। कारावास की अवधि में ही वर्ष 1936 में प्रकाशवती कपूर से उनका विवाह संपन्न हुआ।
यशपाल जेल में रहते हुए ही कहानियाँ लिखने लगे थे जो इधर-उधर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही थीं। जेल से बाहर आने पर उन्होंने ‘पिंजड़े की उड़ान’ के रूप में अपने पहले कहानी-संग्रह का प्रकाशन कराया जिसे ख़ासी सफलता मिली। उन्होंने कुछ समय ‘कर्मयोगी’ पत्रिका में कार्य किया, फिर ‘विप्लव’ नाम से स्वयं की पत्रिका निकालने लगे। अँग्रेज़ सरकार के दबाव में यह पत्रिका जल्द ही बंद हो गई और फिर देश की आज़ादी के बाद ही इसका पुनर्प्रकाशन शुरू हो सका। वर्ष 1941 में उन्होंने ‘कार्यालय’ नामक प्रकाशन संस्था और ‘साथी प्रेस’ की स्थापना की। अब वह सक्रिय लेखन भी करने लगे थे और इस क्रम में वर्ष 1941 में उनका पहला उपन्यास ‘दादा कॉमरेड’ और वर्ष 1943 में ‘देशद्रोही’ प्रकाशित हुआ। वर्ष 1949 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी कम्युनिस्ट गतिविधियों को संदिग्ध मानते हुए उन्हें फिर गिरफ़्तार कर लिया गया लेकिन जन आक्रोश के आगे सरकार को उन्हें छोड़ना पड़ा।
यशपाल प्रगतिशील आंदोलन की उपज थे। वह हिंदी के उस प्रमुख साहित्यिक समूह का प्रतिनिधित्व करते थे जो समाजवादी यथार्थवाद और उद्देश्यपरक कला की अवधारना के प्रति समर्पित थे। उन्होंने भारत की सामाजिक-राजनीतिक अवसंरचना को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के चश्मे से समझने का प्रयास किया था। उनकी रचनाओं में आम आदमी के सरोकार प्रमुखता से अभिव्यक्त हुए हैं और सामाजिक विषमता, राजनीतिक पाखंड और रूढ़ियों से संघर्ष की आवाज़ मुखर हुई है। इस रूप में उन्हें प्रेमचंद की परंपरा का वाहक भी माना जाता है, यद्यपि ग्रामीण और निम्नवर्गीय समाज के बजाय शहरी समाज उनकी रचनाओं के केंद्र में रहा।
यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ को कालजयी कृति माना जाता है। उन्हें वर्ष 1970 में सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया, जबकि मृत्योपरांत ‘मेरी तेरी उसकी बात’ के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत किया गया। वर्ष 2003-04 में उनकी जन्मशताब्दी के अवसर पर भारत सरकार द्वारा एक डाक टिकट भी ज़ारी किया गया।
प्रमुख कृतियाँ
उपन्यास : दादा कॉमरेड, देशद्रोही, दिव्या, मनुष्य के रूप, झूठा सच (दो खंडों में), बारह घंटे, अप्सरा का शाप, वे तूफ़ानी दिन, क्यों फँसें, मेरी तेरी उसकी बात।
कहानी संग्रह : पिंजड़े की उड़ान, ज्ञानदान, अभिशप्त, भस्मावृत चिंगारी, वो दुनिया, फूलों का कुर्ता, धर्मयुद्ध, उत्तराधिकारी, चित्र का शीर्षक, तुमने क्यों कहा मैं सुंदर हूँ, उत्तनी की माँ, सच बोलने की भूल, तर्क का तूफ़ान, खच्चर और आदमी, भूख के तीन दिन।
यात्रा-वृतांत : राह बीती, देखा सोचा समझा।
व्यंग्य-संग्रह : चक्कर क्लब, कुत्ते की पूँछ।
संस्मरण : सिंहावलोकन।
वैचारिक गद्य : गाँधीवाद की शवपरीक्षा।