प्रेमलता के दोहे
जयति जयति सर्वेश्वरी, जन रक्षक सुखदानि।
जय समर्थ अह्लादिनी, सक्ति सील गुन खानि॥
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सिया अलिनि की को कहै, सुख सुहाग अनुराग।
विधि हरिहर लखि थकि रहे, जानि छोट निज भाग॥
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बहुरि त्रिपाद विभूति ये, श्री, भू, लीला, धाम।
अवलोकहु रमनीक अति, अति विस्तरित ललाम॥
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हमहम करि दुख सहत अति, विवस मोह मद सार।
भोगहिं निज कृत कर्म फल, फँसि जड़ माया जार॥
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नित्यानित्य पसार बहु, नूतन छन-छन माँझ।
उपजत विनसत लखि परै, जिमि जग भोर सु साँझ॥
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विश्व विलास निकुंज अब, अवलोकहु यहि ओर।
नाटक होत जथार्थ जहँ, अति विचित्र चितचोर॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere