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नई काव्य चेतना का संघर्ष

nai kavya chetna ka sangharsh

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

नई काव्य चेतना का संघर्ष

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    नई कविता का आरंभ मेरी समझ में छंद, भाव-बोध आदि सभी दृष्टियों से छायावाद युग से होता है। नई काव्य-चेतना के संघर्ष के अंतर्गत में काव्य की उन बहुमुखी प्रवृत्तियों के बारे में आपसे कहना चाहूँगा जो आज कविता में पाई जाती है। इस युग में हमारे बाह्य जीवन के क्षेत्र-राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति—आदि में जिस प्रकार स्थूल संघर्ष देखने को मिलता है उसी प्रकार वर्ण कवि, कृतिकार अथवा कलाकार की चेतना में भी सूक्ष्म संघर्ष चल रहा है। यह संघर्ष मुख्यतः नवनिर्माण का संघर्ष है और गौण रूप से विगत जीवन मन के अभ्यासों तथा वर्तमान परिस्थितियों तथा परंपरागत मानव-मूल्यों को बदलने का भी संघर्ष है।

    काव्य में भी यह संघर्ष बाहर-भीतर दोनों ओर चल रहा है बाहर छंद, रूप-विधान, शैली आदि के संबंध में और भीतर भाव-बोध, मूल्य, रस आदि के संबंध में। पहले मैं रूपविधान तथा सज्जा के बारे में कहूँगा। हिंदी कविता के बाह्य रूप में छायावाद युग से विशेष परिवर्तन आने लगा। छायावाद ने हिंदी छंदों की प्रचलित प्रणाली को आमूल बदल दिया। आमूल शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ कि छायावाद ने छंद में मात्राओं से अधिक महत्त्व स्वर के प्रसार को दिया— इस बात की ओर लोगों का कम ध्यान गया है। छायावादी कवियों को पिंगल का अच्छा ज्ञान रहा है। उन्होंने कई प्रचलित छंदों को अपनाते हुए भी उनके पिटेपिटाए यति-गति में बँधे रूप को स्वीकार कर उनमें प्रस्तार की दृष्टि से अनेक नए प्रयोग कर दिखाए। स्वर-संगीत के उनकी कविता में अद्भुत चमत्कार मिलते हैं। इन कारणों से छंद उनके हाथों से बिल्कुल नए होकर निखरे। वैसे एक ही रचना में कम-अधिक मात्राओं को पंक्तियों का उपयोग कर उन्होंने गति तथा लय-वैचित्र्य की सृष्टि तो की ही—जिसको आज नए सिद्ध कवि भी महत्त्व देते हैं। पर इससे भी अधिक छंद सृष्टि की उनकी देन रही है प्रस्तार और स्वर-संगीत संबंधी वैचित्र्य की। मात्रिक तथा लय छंदों के अतिरिक्त छायावाद-युग में आलापोचित, अक्षर मात्रिक मुक्त छंदों का भी बहुतायत से प्रयोग हुआ है। नवीनतम कविता में मुक्तछंदों में प्रायः अधिक बिखराव जाने के कारण वे गद्यवत् तथा विशृंखल लगते हैं। छदों के अतिरिक्त छायावाद युग में अलंकरण संबंधी रूढ़िगत दृष्टिकोण में भी बड़ा परिवर्तन उपस्थित हुआ। उपमा, रूपक आदि के रहते हुए भी उनकी रीतिकालीन एकस्वरता तथा द्विवेदी युगीन समरसता में नवीन सौंदर्य के लक्षण प्रकट हुए। और शब्दालंकार केवल प्रसाधन तथा सामंजस्य द्योतक उपकरण मात्र रहकर भावों की अभिव्यक्ति में घुल-मिलकर उसका अनिवार्य बन गए तथा अधिक मार्मिक एवं परिपूर्ण होकर नवीन सौंदर्य के प्रतीक बन गए।

    छायावादी युग में भाषा अर्थात् खड़ी बोली पहली बार काव्योचित रूप ग्रहण कर सकी, और सौंदर्यबोध—जो कि रूप विधान और भावबोध दोनों का प्रतिनिधित्व करता है—वह तो जैसे छायावादी युग की सर्वोपरि देन है, जिसने हमारे रूढ़ि रीतियों के ढाँचे में बँधे हुए इतिवृत्तात्मक जीवन के विवर्ण मुख से विवाद की निष्प्रभ छाया उठाकर उस पर नवीन मोहिनी डाल दी। यह सब यों ही नहीं हो गया। इसके लिए उस युग के कलाकारों को एक प्रकार से अश्रांत संघर्ष करना पड़ा। उस युग के कृतिमानस का संघर्ष कितना उग्र रहा, इसका अनुभव उस युग के कृतिकारों के जीवन पर दृष्टि डालने से सरलतापूर्वक लगाया जा सकता है। छायावादी काव्य-चेतना का संघर्ष मुख्यतः मध्ययुगीन निर्मम निर्जीव परिपाटियों से था जो कुरूप घिनोनी काई की तरह युगमानस के दर्पण पर छाई हुई थी और क्षुद्र जटिल नैतिकताओं एवं सांप्रदायिकता के रूप में आकाशलता की तरह लिपटकर मन में तक जमाए हुए थी। दूसरा संघर्ष छायावादी चेतना का था उपनिषदों के दर्शन के पुनर्जागरण के युग में उनका ठीक-ठीक अभिप्राय समझने का। ब्रह्म, आत्मा, प्राण, विद्या, अविद्या, शाश्वत, अनंत क्षर, अक्षर, सत्य आदि मूल्यों और प्रतीकों का अर्थ समझकर उन्हें युग जीवन का उपयोगी अंग बनाना और पश्चिम के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उनके ऊपरी विरोधों को यथोचित रूप से सुलझाकर उनमें सामंजस्य बिठाना– ये सब अत्यंत गंभीर तथा आवश्यक समस्याएँ थीं जिनके भूलभुलैये से बाहर निकलकर, कृतिकार को मुक्त रूप से सृजन कर, सदियों से निष्क्रिय विषण्ण तथा जीवन विमुख लोक मानस को नवीन आशा, सौंदर्य, जीवन-प्रेम, श्रद्धा, आस्था आदि का भाव-काव्य देकर उसमें नया जीवन फूँकना था। बँगाल में यह कार्य सर्वप्रथम निःसंदेह, कवींद्र रवींद्र की प्रतिभा ने किया, जिसका प्रभाव कम-अधिक मात्रा में भारत के इतर प्रादेशिक साहित्यों पर भी पड़ा। कवींद्र के युग से आज का युग बहुत बदल गया है। और आगे भी बढ़ गया है। आज केवल व्यापक आदर्शों के ज्ञान से ही काम नही चल सकता, आज के कवि मानस को अधिक गहरे विश्लेषणों एवं सूक्ष्म विवरणों की आवश्यकता है जिन्हें वह जीवन की वास्तविकता में परिणत कर सके। कवींद्र का मानसजीवी युग अब अधिक यथार्थवादी हो गया है, जिस पर आगे प्रकाश डाल सकूँगा।

    छायावाद-युग में ऊपर कहे गए मूल्यगत संघर्ष के साथ ही स्वाधीनता संग्राम का बाह्य संघर्ष भी अविराम रूप से चल रहा था। राष्ट्रभावना से प्रेरणा पाकर अनेक कवियों ने उस युग की काव्य चेतना को देशप्रेम की वास्तविकता प्रदान की, सौंदर्य और भावप्रधान काव्य में शक्ति का भी संचार होने लगा। वह जीवन के अधिक निकट प्रतीत होने लगा। छायावाद मुख्यतः प्रेरणा का काव्य रहा और इसीलिए वह कल्पना प्रधान भी रहा। वह भीतर की वास्तविकता से उलझा रहा। उसने व्यक्तिगत मानव-भावनाओं की वाणी देकर युग के व्यक्तित्व को व्यापक मनुष्यत्व को वाणी देने का प्रयत्न किया। किंतु मानव भावनाओं तथा विरह, मिलन, प्रेम, घृणा आदि की वास्तविकताओं को भी तब कुछ कवियों ने अपनी कविताओं का विषय बनाया। उनके वैयक्तिक संघर्ष ने युग को काव्य-चेतना को वैचित्र्य प्रदान किया है।

    राष्ट्रभावना के काव्य को आगे बढ़ाकर उस युग में प्रगतिवाद के नाम से एक और काव्य-चेतना का हिंदी में विकास हुआ जो मुख्यतः सर्वहारा वर्ग के जीवन से संबंध रखने वाली कविता थी, जिसमें मध्यवर्ग के भालुक, युग चेतन कवियों ने शोषक-शोषित वर्ग के जीवन को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया। इस प्रवृत्ति ने छंद विज्ञान में कोई विशेष नए प्रयोग नहीं किए। छायावादी मुक्तछंद को ही प्रायः अपना लिया। परिमाण जनित संचरण की दृष्टि से जहाँ प्रगतिवाद व्यक्ति के हृदय-कमंडल से बाहर निकलकर सामाजिक धरातल पर प्रवाहित होने लगा और लोक-जीवन के सुख-दुख को सम्मुख रखकर दलितवर्ग के प्रति ध्यान आकृष्ट करने का प्रयत्न करने लगा वहाँ गुणात्मक दृष्टि से उसमें काव्य-चेतना के ह्रास के चिह्न प्रकट होने लगे। सौंदर्यबोध, रस, माधुर्य, भाव-गांभीर्य, मर्मस्पर्शिता आदि सभी दृष्टियों से प्रगतिवादी काव्य धीरे-धीरे अधिकतर, दलगत राजनीतिक प्रचार की ओर अग्रसर होकर काव्यगत विशेषताओं की रक्षा नहीं कर सका। फिर भी इसमें यत्किंचित् मात्रा में अच्छी कविता भी मिलती हैं।

    छायावादी काव्य की विशेषता एक प्रकार से अर्थ और शब्द, भावबोध और रूप-विधान के सौंदर्य सामंजस्य में रही। विशिष्ट भावबोध के साथ उसने सुंदर रूपयोजना भी दी। प्रगतिवादी काव्य ने रूप-सौंदर्य की उपेक्षा कर मात्र भाव तथा विचार पक्ष को महत्त्व देना ठीक समझा। उसका भाव पक्ष रस या काव्य-सौंदर्य का प्रेरक रहकर मात्र जीवनोपयोगी विचार उपकरण बनकर रह गया। प्रगतिवाद के विकास को कुंठित करने में मुख्यतः उसके आलोचकों का हाथ रहा। जिन्हें काव्य के सूक्ष्मतत्वों का ज्ञान स्वल्प और राजनीतिक प्रचार की महत्वाकांक्षा अधिक रही।

    हिंदी काव्य में आज जो प्रयोगवाद एवं नई कविता का युग कहलाने लगा है वह कुछ तो प्रगतिवादी काव्य की रूक्षता या शुष्कता की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप और कुछ नई काव्य धारा के रूप में भी ‘कला के लिए कला’ वाले सौंदर्यवादी सिद्धांत को, ज्ञात-रूप से अपनाने लगा है। इस समय उसका सर्वाधिक आग्रह रूपविधान तथा शैली के लिए प्रतीत होता है। भाव-पक्ष को वह वैयक्तिक निधि मानता है। उसको सार्वजनिक, उपयोगिता, उदात्तता एव गांभीर्य की ओर वह अधिक आकृष्ट नहीं। भावों एवं मान्यताओं की दृष्टि से नई कविता अभी अपरिपक्व, अनुभवहीन तथा अनमूर्त है। वह अंधकार में कुछ टटोल भर रही है। पर इस टटोलने में उसका उद्देश्य किसी प्रकार के सत्य की खोज नहीं। सत्य में उसकी आस्था नहीं—प्रतिदिन के, क्षण के बदलते हुए यथार्थ ही में है। वह टटोलने के ही भावुक तथा सुख दुःख भरे प्रयत्न को अधिक महत्त्व देती है। उसी में उसके मानस में रस संचार होता है, यह उसकी किशोर प्रवृत्ति है। भाव या वस्तु सत्य, जिसका मानव-जीवन-कल्याण के लिए उपयोग हो सके, उसे नहीं रुचता। वह उसकी काव्यगत मान्यताओं के भीतर समा भी नहीं सकता—यह तो साधारणीकरण की ओर बढ़ना होगा। उसे विशेषीकरण से मोह है। वह प्रतीकों, बिंबों, विधाओं और शैलियों को जन्म दे रही है। वह अतिवैयक्तिक रुचियों को तथ्यमुक्त तथा आत्म-मुग्ध कविता है। आज जो एक सर्वदेशीय संस्कृति तथा विश्व-मानवता एवं नव मानवता का प्रश्न है उसकी ओर उसका रुझान नहीं। उसकी मानवता वैयक्तिक और कुछ अर्थों में प्रति वैयक्तिक मानवता है। सामाजिक दृष्टि से वह समाजीकरण के विद्रोह में आत्मरक्षा तथा व्यक्तिगत अधिकारों के प्रति सचेष्ट मानवता है।

    छंदों की दृष्टि से नई कविता ने कोई महत्त्वपूर्ण मौलिक प्रयोग नहीं किए। अधिकतर छंदों का अचल छोड़कर तथा शब्दलय को सँभाल सकने के कारण अर्थलय अथवा भावलय की खोज में—जो छायावादी कविता में शब्दलय के अतिरिक्त अपनी स्वतंत्र सता रखती रही है—वह लयहीन, स्वरसंगतिहीन और प्रायः गद्यबद्ध पंक्तियों को काव्य के निवास में उपस्थित कर रही है, जो बहुधा भावाभिव्यक्ति करने में असमर्थ प्रतीत होती है। रूप और भाव-पक्ष की अपरिपक्वता के कारण अथवा तत्संबंधी दुर्बलता को छिपाने के कारण वह शैलीगत शिल्प को ही अधिक महत्त्व देती है और व्यक्तिगत होने के कारण शैली एक ऐसी वस्तु है कि उनकी दुहाई देकर कृतिकार कुछ अंशों तक सदैव अपनी रक्षा कर सकता है।

    नई कविता या प्रयोगवादी काव्य का संचरण बहुमुखी, बहुरूपिया संचरण है शाब्दिक भाविक संगति के अभाव में काव्य-चेतना विभिन्न धाराओं में विकीर्ण हो गई है। इसका कारण संभवतः एक यह भी हो कि संप्रति राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि में विश्व-चेतना में ‘धीरे चलो’ का युग गया है, जो प्रचलित शब्दों में शीत युद्ध का युग कहा जाता है। विश्व शक्तियों के विभाजन की जैसी स्थिति इस समय है उससे सह-अस्तित्व, पंचशील आदि जैसे सात्विक सिद्धांतों के भीतर से ही प्रगति संभव है। ऐसे संयम के युग में मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए या तो अनुभूति जन्य गांभीर्य की आवश्यकता होती है या धीरे-धीरे बढ़ने से जिस ऊब, खोझ, कुंठा तथा अनास्था का अनुभव होता है वह भाव-प्रवण हृदयों में अवश्य ही अभिवयक्ति पाएगी। वैयक्तिक-सामहिक विचारधाराओं एवं जीवन परिस्थितियों की विषमताओं के कारण भी आज जो स्थिति उत्पन्न हो गई है उससे भी क्षणिकवाद, संप्रतिवाद, अस्तित्ववाद जैसी अनेक प्रकार की अनास्थापूर्ण भावनाओं तथा विचारधाराओं का प्रभाव नई काव्य चेतना में पड़ा है जो मुख्यतः यूरोप के कुंठाग्रस्त मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की देन है।

    इसमें संदेह नहीं कि ऐसी स्थिति सदैव नहीं रहेगी और नई काव्य-चेतना यथासमय अधिक परिपक्व तथा विकसित रूप ग्रहण कर सामने आएगी। आज की नई कविता, अपनी वर्तमान स्थिति में भी, मध्ययुगीन नैतिक पूर्वग्रहों से मुक्त तथा वर्तमान युग-संघर्ष के प्रति जागरूक है। वह भविष्य में नव-मानवतावाद को सशक्त, स्पर्शी काव्य-गुण संपन्न माध्यम बन सकेगी इसमें मुझे संदेह नहीं। आज भी अनेक तरुण प्रतिभाशाली नए कवि हिंदी काव्य-चेतना के समस्त विकास से अवगत, उसकी भावी गतिविधियों के प्रति जाग्रत्—अत्यंत सफल कृतिकार है, जिनके स्वस्थ-सबल कंधों पर भावी कविता की पालकी को आगे बढ़ता देखकर मन में प्रसन्नता होती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 248)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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