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संस्कृति, समय और भारतीय उपन्यास

sanskriti, samay aur bharatiy upanyas

निर्मल वर्मा

निर्मल वर्मा

संस्कृति, समय और भारतीय उपन्यास

निर्मल वर्मा

और अधिकनिर्मल वर्मा

    हम भारतीय लेखक उस विधा के बारे में बहुत कम सोचते हैं, जिसे स्वयं अपने सृजन के लिए चुनते हैं। हमारे ‘विधा' महज़ माध्यम हैं, लक्ष्य कुछ हैं और साहित्य, समाज, दर्शन। इसलिए 'साहित्य' साहित्य की रचना करते हैं। हम यह नहीं सोचते कि लेखक की नैतिकता उसके विचारों में या उनकी अभिव्यक्ति की विभिन्न शैलियों में निहित नहीं होती, उसकी नैतिकता इस बात में निहित होती है कि उसका अपनी विधा, भाषा के प्रति क्या रुख़ है। दो शब्दों में कहें कि जिस 'चीज़' को हम समाज की आलोचना का औज़ार मानते हैं, ख़ुद उस औज़ार का परीक्षण ज़रूरी नहीं समझते।

    ज़रूरी नहीं, आत्म-परीक्षण के अभाव में सृजन-शक्ति कुंठित हो बल्कि अक्सर देखा गया है कि अपनी विधा के प्रति अत्यधिक बौद्धिक सतर्कता कभी-कभी मुक्त, सहज, निर्दोष प्रेरणा को बोझित और बनावटी बना देती है। किंतु इससे अगर कोई लेखक यह सुविधाजनक निष्कर्ष निकाल ले कि भाषा और विधाओं के बारे में माथापच्ची एक व्यावसायिक आलोचना का काम है, कलाकार का अपना कर्म नहीं, तो शायद स्वयं कला के लिए इससे आत्मघाती भ्रम कोई दूसरा नहीं। सृजनात्मक कल्पना अपने सर्वोत्तम क्षणों में उतनी ही आलोचनात्मक होती है, जितनी व्यावसायिक आलोचना अपने गरिमापूर्ण क्षणों में सृजनात्मक। सृजन और आलोचना को अलग-अलग कटघरों में बाँटकर हम एक तरफ़ आलोचना को निर्जीव और पंगु बना देते हैं, दूसरी तरफ़ सृजन को महज़ एस्थेटिक सौंदर्य का साधन मात्र। हम अक्सर भूल जाते हैं कि कल के आधुनिक आंदोलन, जिसकी शुरुआत बीसवीं शती के आरंभ में हुई थी, की प्रमुख विशेषता यह प्रखर आलोचनात्मक दृष्टि ही थी।

    यह आलोचना कोई बाहर की चीज़ होकर ख़ुद लेखक के सृजनात्मक एडवेंचर से जुड़ी है, स्वयं 'लिखने' के कार्य में अंतर्निहित है। इसलिए विचारों, सिद्धांतों और दर्शन से अलग लेखक की आलोचना उसकी कल्पना के बीचों-बीच केंद्रित है। लेखक का 'शब्द' यंत्र है, माध्यम, ही तर्क-संगत विचार-पद्धति, वह सिर्फ़ है और उसका होना ही तीव्र ढंग से आलोचनात्मक हो जाता है। भाषा जिस चीज़ को व्यक्त करती है, स्वयं वह चीज़ भी है, जिस लक्ष्य का माध्यम है, ख़ुद वह लक्ष्य भी है, अगर वह समाज-परीक्षण का ‘यंत्र' है तो स्वयं उस यंत्र को माँजने का स्वप्न भी है, साहित्य जो ‘होता', उस 'है' से निकलकर बार-बार उसके पास लौटता है। अतः अंतिम रूप से हर कला की लड़ाई अपने से लड़ाई है, अपना आत्ममंथन है। यह आत्ममंथन सृजन-कर्म को आलोचनात्मक करता है। शब्द किसी विचार का वाहक नहीं, वह शब्द पीछे मुड़कर अपनी तरफ़ देखता है तो ख़ुद विचार बन जाता है। हम 'विचार' को बौद्धिकता और 'कल्पना' को सृजन के साथ नत्थी करने के इतने आदी हो चुके हैं कि यह सोचना असंभव लगता है कि शब्द से जुड़कर हर कल्पना वैचारिक, हर सृजन-प्रक्रिया आलोचनात्मक हो सकती है। शब्द का यह चयन मनमाना, रहस्यमय, अलौकिक नहीं है, इस चयन के पीछे लेखक का समूचा नैतिक संघर्ष छिपा होता है, बल्कि यूँ कहें, अगर लेखक की प्रतिबद्धता जैसी कोई चीज़ है, तो वह लेखक और शब्द के बीच संबंध में ही प्रतिध्वनित हो सकती है।

    इससे हम एक अनोखे निष्कर्ष पर पहुँचते हैं: कोई भी कलाकृति अपनी शुद्ध पवित्रता में ही सबसे अधिक आलोचनात्मक हो सकती है। जिस हद तक सृजन-शक्ति समाज के बाहरी खूँटों से, समाजशास्त्र और सैद्धांतिक आग्रहों की 'छद्म चेतना' से मुक्त होती जाएगी उस हद तक ही वह सार्थक आलोचनात्मक चेतना की वाहक बन सकेगी। दूसरे शब्दों में वही कला, जो किसी विचार का यंत्र हो, सबसे अधिक प्रखर वैचारिक यंत्र बन जाती है। वह किसी 'सत्य' का माध्यम बनकर ख़ुद अपने नंगे रूप में, बिना किसी समझौते का चीथड़ा ओढ़े सत्य हो जाती है। यह विचित्र है और ही विरोधाभासपूर्ण कि एक अधिनायक-सत्ता में शुद्ध कल्पना को सबसे अधिक संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। जहाँ कला को किसी बाहरी सत्य का माध्यम माना जाता रहा है, वहाँ वह कला सबसे अधिक ख़तरनाक बन जाती है जो ख़ुद अपने में सत्य उद्घाटित करती है। कितना बड़ा व्यंग्य है, 'यथार्थवादी' कला पर जिसका अपने यथार्थ पर विश्वास नहीं, इसलिए कितनी ख़तरनाक बन जाती है वह कला जो किसी यथार्थ की ओट में नहीं, ख़ुद अपनी शर्तों पर महज़ अपनी कल्पना को केंद्र मानकर जीवित रहना चाहती है, सिर्फ़ बाहर के यथार्थ में ही नहीं बल्कि ख़ुद अपने सत्य से साक्षात्कार करना चाहती है। कला का यह आत्ममंथन, ख़ुद अपनी जड़ों को खोजने का यथार्थ ही उसे एक साथ आधुनिक, आलोचनात्मक और ख़तरनाक बना देता है। यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि हिटलर और स्तालिन दोनों ही 'आधुनिक कला' से भड़कते थे क्योंकि एक समय में आधुनिक होने का मतलब ही आलोचनात्मक होना था। किसी विचार या सिद्धांत या निजाम की बाहरी प्रचारात्मक आलोचना नहीं, बल्कि ऐसी आलोचना जो स्वतंत्र, सृजनात्मक, पवित्र कल्पना के केंद्र में वास करती है, इसलिए स्वतः अपने अस्तित्व द्वारा ही एक चुनौती हो जाती है। आधुनिक कलाकृति का 'विषय' चाहे अमूर्त हो, अपने में वह सबसे अधिक मूर्त स्वतंत्रता का प्रतीक हो सकती है।

    आधुनिक हिंदी कविता में कल्पना को पुनः प्रतिष्ठित करने का संघर्ष लंबे अर्से तक चलता रहा है। बहुत हद तक वह जीता भी जा चुका है। यह संघर्ष कविता का बाहर से नहीं, बल्कि अपने से, अपने बीच शब्दों की यथार्थता को खोजने का संघर्ष रहा है। मुक्तिबोध जैसे कवि को हमने उनकी 'कल्पना-लोक' की शर्तों पर स्वीकार किया है, अपनी शर्तों पर हम बरसों उन्हें उपेक्षित करते आए थे। जिस ज़मीन पर आधुनिक हिंदी कविता ने संघर्ष किया था, वह उसे लंबी विरासत से उपलब्ध हुई थी। एक लंबी परंपरा का 'रेफ़रेंस' उसके पास था, तोड़ने की प्रक्रिया में जुड़ने की तीव्र आकांक्षा निहित थी, इसीलिए 'नहीं' की चीख़ भी कहीं दूर अँधेरे में 'हाँ' की कौंध पैदा करती थी। यह संघर्ष बाहरी खूँटों पर होकर ख़ुद कविता की भाषा और संस्कारों में गुँथा था। अतः आधुनिक हिंदी कविता अपने सर्वोत्तम क्षणों में नए या पुराने, पश्चिमी या जातीय प्रभावों का झगड़ा होकर स्वयं अपने को नए संदर्भ में परिभाषित करने की कोशिश थी। यही कारण है कि आज जिसे हम नई कविता कहते हैं जिसमें पिछले तीस वर्षों का संघर्ष शामिल है, वह ख़ुद में आलोचनात्मक कविता है; आलोचनात्मक महज़ यथार्थ या समाज के संदर्भ में नहीं, बल्कि गहनतम स्तर पर आलोचनात्मक जिसके बिना शहर की आलोचना कोई मानी नहीं रखती। मगर आज रघुवीर सहाय इतने हल्के-फुल्के ढंग से, बिना किसी राजनीतिक मुद्रा या वाद का सहारा लिए, इतनी तीव्र व्यंग्यात्मक, राजनीतिक कविता लिख सकते हैं तो इसलिए कि स्वयं हिंदी कविता ने पिछले बसों में गहरा आत्ममंथन, अपनी जड़ों और भाषा-संस्कारों की सही या ग़लत, लेकिन निर्भीक, बेलौस आलोचना की है। आज की कविता के पीछे आत्म-परीक्षण की यह सशक्त पीठिका होती तो शायद उसका वही हश्र होता जो बरसों पहले 'प्रगतिवादी' कविता का हुआ था।

    एक समय था जब आधुनिक हिंदी कहानी में भी आत्म-परीक्षण की इस चुभन को एक 'फ़्लैश' में पकड़ने की कोशिश की थी। तब आत्म-जिज्ञासा का ज्वार आया था, जब हमने अपने से पूछा था कि गद्य में वह कौन-सी चीज़ है जो उसे कविता का संकेंद्रित भाव, एक निष्ठ सघनता (इनटेंसिटी) देती है और इसके बावजूद उसका अपना कथ्यात्मक स्वरूप कायम रह सकता है। काव्यात्मक गद्य का प्रश्न नहीं, बल्कि गद्य में 'कल्पना' की जगह ढूँढ़ने का प्रश्न था जो काव्य-सत्य को जन्म देता है। एक दूसरे स्तर पर प्रश्न यह था कि हमारे यहाँ द्विवेदी-काल से इतिवृत्तात्मक गद्य की जो परंपरा रही है, उसे कैसे किन सर्जनात्मक विधाओं द्वारा नया मोड़ दिया जा सके। गद्य एक चीज़ है, उसके सामने सारा संसार फैला है, शब्दों द्वारा हम उसका निरूपण, व्याख्या कर सकते हैं। यदि इस व्याख्या के चौखटे में हम घटनाएँ, पात्र, स्थितियाँ जमा कर देते हैं तो इससे वह 'उपन्यास' नहीं बनती, इतिवृतात्मक चौखटे में कहानी शामिल करके किसी सृजनात्मक विधा का जन्म नहीं होता; क्योंकि संसार या यथार्थ के प्रति दृष्टि वही रहती है जो व्याख्या द्वारा नियमित होती है। इन चौखटों को हम बाहर ले जा सकते हैं, उनपर उपन्यास और कहानी का लेबिल भी चिपका सकते हैं, किंतु जो यथार्थ हमारे आस-पास फैला है, हमारी स्मृतियों और संस्कारों में सन्निहित है उसका इन चौखटों से कोई वास्ता नहीं। हम जब तक इस यथार्थ को नष्ट नहीं कर देते, उसे मुर्दा और निर्जीव नहीं बना देते, तबतक उसे इन चौखटों में फ़िट नहीं कर सकते। यह हमारी विडंबना है। अगर हम पश्चिम से बनी-बनाई उपन्यास की विधा उधार लेने की सुविधा उठाना चाहते हैं तो हमें अपने अनुभव और यथार्थ को नष्ट करना होगा। यदि हम इस यथार्थ को जीवित रखना चाहते हैं, तो हमें ख़ुद 'उपन्यास' जैसी विधा का परीक्षण करने का जोख़िम उठाना होगा, जिससे आजतक हम बचते आए हैं।

    कविता का समूचा रहस्य उसके 'बीजत्व' में है; एक ऐसा बीज है जिसमें 'क्षण' है, तो 'शाश्वत' भी। बीज में अतीत और भविष्य दोनों हैं, दोनों का निषेध भी है इस निषेध की स्वीकृति भी उसमें शामिल है। इसी में उसका रहस्य है। इसमें उसका जादू भी है, ऐसा जादू जो एक बीहड़, प्रागैतिहासिक मिथक की तरह भाषा की अँधेरी जड़ों में बैठा रहता है। हम जिस तरह बीज को खोल नहीं सकते, बिना उसे नष्ट किए, उसी तरह बिना उसका जादू नष्ट किए, हम कविता की व्याख्या नहीं कर सकते। किंतु गद्य की 'काव्यात्मकता', वृक्ष के विस्तार की तरह केवल समय में ही प्रस्फुटित हो सकती है। समय का विस्तार ही वह आबोहवा है जिसमें एक शब्द दूसरे शब्द से जुड़ता है, एक का अर्थ दूसरे में खुलता है। कविता में अकेला एक शब्द महज़ अपने सघनत्व और अप्रत्याशित रूप से प्रकट होने की प्रक्रिया में, एक अनोखा अर्थ दे सकता है, अपने आसपास के शब्दों को फोड़ आकाश की तरफ़ एक मीनार की तरह उठता हुआ। किंतु गद्य में शब्दों का अर्थ अन्योन्याश्रित है, हॉरिज़ॉन्टल है, वह समय की लय में एक श्रृंखला बनाता है, एक 'कथ्यात्मक' धागे में जो 'है' उसे 'होने' में पिरोता है। यदि उपन्यास की विधा अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक नई है तो इसलिए कि पहले कभी ‘समय ने इतने प्रत्यक्ष और प्रमुख ढंग से मनुष्य के जीवन में दख़ल नहीं दिया था।’

    समय के इन चौखटों में ही यूरोपीय उपन्यास का विकास हुआ था। कहानी कहने की परंपरा बहुत पुरानी रही हो, किंतु जिस विशिष्ट विधा में मनुष्य और उसकी नियति के बीच संबंध जोड़ा गया, वह 'कहानी' बहुत पुरानी नहीं है। उसमें आपको एक खोए हुए सुरक्षित समय को पाने को 'नॉस्टेल्जिया' मिलेगा, जो आने वाले समय के प्रति अदम्य विश्वास भी तथ्यों के प्रति वस्तुपरक दृष्टि मिलेगी, जो स्वयं इन तथ्यों के लौह-चक्र से पलायन करने का स्वप्न, फैंटेसी, मोह भी दिखाई देंगे। इसमें बुर्जुआ वर्ग के वे सब तत्त्व दिखाई देंगे जिनका विश्लेषण बाल्जाक ने इतनी निर्मम अंतदृष्टि से किया है, शहर की भीड़ में आदमी का अकेलापन और उस अकेलेपन की व्यर्थता जिसे एंगेल्स ने मैनचेस्टर में और बॉदलेयर ने पेरिस की भीड़ में देखा था। इसी भीड़ के बाहर भी शांति नहीं थी। बाहर सिर्फ़ ऊब थी जिसके पिंजरे में छटपटाते हुए मदाम बॉवेरी ने दम तोड़ा था। शायद ही कोई साहित्यिक विधा इतने भयानक और नंगे ढंग से समय-सापेक्ष, वर्ग सापेक्ष रही हो, जितनी उपन्यास की विधा थी। वह एक आईना थी जिसमें पहली बार बुर्जुआ संस्कृति ने अपने दर्पपूर्ण गौरव और घिनौनी विकृति, दोनों को एक साथ देखा था। मेरी मंशा यूरोपीय उपन्यास का विश्लेषण करने की जगह नहीं है। मेरा संकेत सिर्फ़ एक ख़ास संस्कृति की तरफ़ है, जिसमें यूरोपीय उपन्यास का ढाँचा तैयार हुआ था। इस ढाँचे के भीतर का अपना निश्चित, नियोजित संगठन था। घटनाओं द्वारा व्यक्ति-चेतना का विकास होता था और अपनी बारी आने पर ख़ुद यह चेतना घटनाओं को परिभाषित, आलोकित करती थी। यह चेतना आत्मनिर्भर थी, तीव्र रूप से सजग और स्वायत्त, और इसी में उसकी यातना, द्वंद्व, आत्ममंथन शमिल थे। बुर्जुआ व्यक्ति की अपने प्रति यह उम्मीद और निराशा, विश्वास और संदेह के अजीब मिश्रण से ही उस आत्मघाती द्विविधा का जन्म हुआ था, जो फ़्लॉबे से काफ़्का तक के उपन्यासों में चली आती है।

    ताज्जुब की बात यह है कि हमने अपने कथ्यात्मक गद्य के लिए 'उपन्यास' जैसी विधा को चुना, जो नितांत भिन्न सांस्कृतिक अनुभव-क्षेत्र में पनपी और विकसित हुई थी। यह कुछ ऐसा था, कि हम एक ऐसे बने-बनाए मकान में रहने लगें, जो दूसरों ने अपनी ज़रूरतों, संस्कारों, स्मृतियों एक शब्द में कहें तो अपनी 'जलवायु' के अनुसार बनाया था। हम केवल उसमें रहने लगे, बल्कि कभी उसमें अपने अनुकूल परिवर्तन करने की ज़रूरत भी महसूस की। प्रेमचंद्र से लेकर अधुनातन उपन्यासकार ने कभी 'उपन्यास' की विधा पर शंका प्रकट नहीं की, अपने अनुभव के संदर्भ में उसका पुनर्परीक्षण तो दूर की बात थी। बरसों से हमने जिस विधा को सामाजिक यथार्थ के विश्लेषण का सबसे महत्त्वपूर्ण औज़ार माना, कभी उस औज़ार की सक्षमता की जाँच पड़ताल करने की ज़रूरत का सामना नहीं किया।

    यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि हिंदी में कितने अच्छे 'उपन्यास' लिखे गए हैं। अमृतराय ने उनकी एक लंबी फ़ेहरिस्त हाल में अपने एक लेख में दी है। इस फ़ेहरिस्त को और भी लंबा किया जा सकता है। मूल प्रश्न यह है कि हिंदी उपन्यासों का मूल्यांकन कौन-सी कसौटी पर करते हैं। जब तक हम इस कसौटी के लिए खरी कसौटी नहीं ढूँढ़ते तब तक 'अच्छे’ उपन्यासों की गिनती करवाकर हम मन-ही-मन ख़ुश अवश्य हो लें; हम वहीं रहेंगे, जहाँ आज हैं। इस कसौटी के अभाव में हम विश्वसनीय रूप से यह भी तय नहीं कर सकते हैं कि जिस फ़ेहरिस्त में भगवती बाबू और अमृतलाल नागर हैं, उसमें गुलशन नंदा को क्यों छोड़ा जाए? यही नहीं, हम आगे बढ़कर एक अजीब, मनमानी 'कसौटी' तैयार करते हैं, जिसे लेकर 'अंर्तमुख' और 'वस्तुपरक’ उपन्यासों के बीच भेद भी करते हैं और 'वस्तुपरक' को यथार्थवादी उपन्यास मानते हैं, मानों ख़ुद व्यक्ति की अपेक्षा 'वस्तु' यथार्थ के अधिक नज़दीक़ हो।

    यह कसौटी कहीं बाहर होकर ख़ुद उपन्यास-विधा की संरचना के भीतर है। हम यह कहकर उपन्यास की आलोचना नहीं कर सकते कि वह 'ज़िंदगी के कितने पास है' (कौन-सी ज़िंदगी, कैसी ज़िंदगी?), उसकी घटनाएँ कितनी 'विश्वसनीय' है ('विश्वसनीयता' कभी साहित्य की कसौटी नहीं रही, वरना शेक्सपियर सबसे अधिक असफल लेखक होते) या उपन्यास के पात्र कितने 'यथार्थपूर्ण' हैं। ('यथार्थ' बिजली का कोई बल्ब नहीं जिसके पास जाकर कोई साहित्य-विधा चमक जाती है और दूर जाकर धुँधला जाती हो)। उपन्यास की अर्थवत्ता 'यथार्थ' में नहीं, उसे समेटने की प्रक्रिया, उसके संगठन की अंदरूनी चालक शक्ति में निहित है। तभी किसी विधा के भीतर एक विशिष्ट ‘फ़ॉर्म' का आविर्भाव होता है जो ‘समेटने' की हर लय, स्तर और स्पंदन को अनुशासित करती है, ऐसे ‘स्पेस’ का उद्घाटन करती है, जहाँ अनुभव का औपन्यासिक जीवन शुरू होता है। हम अक्सर साहित्यिक विधा और फ़ॉर्म को आपस में उलझा देते हैं। एक रूढ़ प्रणाली है, दूसरी उसे तोड़कर अपनी धारा को खोजने की कोशिश, यदि इनमें हम भेद कर पाते तो यूरोप की संस्कृति-सापेक्ष विधा को अपनाते वक़्त उसके ‘फ़ॉर्म' को भी ज्यों-का-त्यों अपनाना ज़रूरी समझते।

    फ़ॉर्म की यह खोज कोई हवाई, ऐस्थेटिक खोज नहीं है, इसका सीधा संबंध सांस्कृतिक अनुभव की उस धारा से है जिसमें हमारे संस्कार, स्मृतियाँ, समय, जीवन और मृत्यु का बोध शामिल है। यदि इन सब बिंदुओं के प्रति हमारा रुख़, हमारी दृष्टि यूरोपीय मनुष्य से अलग रही है, यदि 'समय' के प्रति हमारा बोध उस ऐतिहासिक समय से बिल्कुल अलग रहा है जिसे उन्नीसवीं शती के यूरोपीय उपन्यास ने अपना केंद्र-बिंदु माना था, यदि व्यक्ति के प्रति हमारा दृष्टिकोण उस यूरोपीय 'व्यक्ति' से बिल्कुल भिन्न हो जो आत्म-सजग है, स्वायत्त है, स्वयं अपनी 'स्वतंत्रता में खंडित' (हेगल) है, एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी 'प्राइवेसी' में ही अपनी स्वतंत्रता को हासिल करता हो, यदि हम भिन्नता के इन सब बिंदुओं को नज़रअंदाज़ नहीं करते, तो हम एक ऐसे ‘फ़ॉर्म' को खोज सकते थे जो ऊपरी कथ्यात्मक विधा के तौर पर शायद ‘उपन्यास' की तरह होती, किंतु जिसकी मूल चालक शक्ति पश्चिम की उपन्यास-विधा से बिल्कुल भिन्न होती।

    भिन्न इसलिए नहीं कि चूँकि 'भारतीय अनुभव' यूरोप के अनुभव से अलग है तो भारतीय उपन्यास भी यूरोपीय उपन्यास से अलग होगा। केवल अनुभव की भिन्नता से अलग-अलग साहित्य-विधाएँ उत्पन्न नहीं हो जातीं, वरना फ्रेंच उपन्यास और अँग्रेज़ी उपन्यास महज़ अनुभवों के आधार पर बिल्कुल अलग होते। यदि इन भिन्न अनुभवों के बावजूद उपन्यास के विशिष्ट यूरोपीय फ़ॉर्म का आविर्भाव हुआ तो इसलिए कि इन देशों की सांस्कृतिक समानता, धर्म और इतिहास के प्रति व्यक्ति का जुड़ाव, ख़ुद 'व्यक्ति' की आत्मकेंद्रित इकाई बहुत-कुछ एक सूत्र में बँधी है। इसी संदर्भ में यह कहना अप्रासंगिक होगा कि यूरोप की इस परंपरा में ही ‘संस्कृति', 'समाज', 'डेमॉक्रेसी जैसे शब्द कोई मानी रखते हैं। भारतीय संदर्भ में और तो और, ‘संस्कृति' जैसा शब्द भी अजनबी जान पड़ता है। यूरोप में संस्कृति का अहसास ही एक आत्म-सजग, विकसित आत्म-चेतना से जुड़ा है। एक ऐसे समाज में ही 'संस्कृति का बोध होता है, जहाँ मनुष्य का धार्मिक अनुभव उसके सेक्युलर अनुभव से स्पष्ट रेखा द्वारा विभाजित हो। किंतु 'भारतीय संदर्भ' में इस तरह का कोई विभाजन था। धर्म की धारा में संस्कृति का उतना ही समावेश था, जितना आध्यात्म का। शेक्सपियर और बीथोवन अवश्य यूरोपीय संस्कृति की गौरवपूर्ण परंपरा में आते हैं, किंतु आज भी हम किसी साधारण यूरोपीय शिक्षा से अनभिज्ञ किंतु अपने संस्कारों में संवेदनशील, हिंदू से कहें कि तुलसीदास की रामायण हमारी संस्कृति का अंश है, तो अवश्य उसे कुछ आश्चर्य और संकोच का अनुभव होगा। वह ‘संस्कृति' को अलग से एक विशिष्ट भावबोध के अर्थ में अपनी समूची जीवन-मर्यादा से अलहदा नहीं देख सकता, जबकि यूरोप में इससे बिल्कुल विपरीत ‘संस्कृति' का आविर्भाव ही ऐसे समय में हुआ था जब व्यक्ति ने ‘अपनी शर्तों पर' जीवन-मर्यादा के प्रति शंका प्रकट की थी। उपन्यास की विधा स्वयं इस शंका की अभिव्यक्ति के रूप में यूरोप के सांस्कृतिक अनुभव का एक हिस्सा बनी थी।

    किंतु मुझे दुबारा बहस के उस बिंदु पर लौटना चाहिए जहाँ से मैं भटक गया था। जातीय अनुभव की भिन्नता महत्त्वपूर्ण है, किंतु हमें उसके महत्त्व को ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ा-चढ़ाकर नहीं देखना चाहिए, ख़ासकर जब बहस साहित्यिक विधाओं को लेकर हो। हम जिस युग में रहते हैं, उसे वैसे भी देर-सवेर एक देश और दूसरे देश के लोगों के बीच अनुभवों का अंतर सिकुड़ता जाएगा। साहित्य में प्रश्न अनुभव के विषय (कंटेंट) का नहीं है, बल्कि उस रूप और रास्ते का है जिसके द्वारा वह अनुभव एक विशिष्ट सांस्कृतिक चेतना में परिलक्षित होता है। दूसरे शब्दों में अनुभव का ‘कंटेंट’ चाहे जैसा हो, महत्त्व इस चीज़ का है कि वह चेतना के किस धरातल और रूप में एक व्यक्ति से जुड़ता है। उदाहरण के तौर पर मनुष्य का अतीत एक सार्वभौमिक अनुभव है, पश्चिम में वैसा ही जैसा भारत में, किंतु व्यक्ति और अतीत के बीच एक विशिष्ट जुड़ाव, एक सांस्कारिक संबंध जिससे ‘स्मृति' का जन्म होता है, यह इतिहास का विषय नहीं, संस्कृति का प्रश्न है। आश्चर्य नहीं, एक भारतीय उपन्यासकार इस प्रश्न के दबाव को बहुत तीव्रता से महसूस करके, एक कवि से कहीं अधिक क्योंकि उपन्यास की कथ्यात्मक गति सीधी समय और कृति के साथ जुड़ी है। आश्चर्य यही है कि उपन्यास ही वह क्षेत्र है, जहाँ हमने इस दबाव की सबसे अधिक अवहेलना की है। भारत में अनेक उपन्यास लिखे गए हैं, हर साल लिखे जाते हैं मनोवैज्ञानिक उपन्यास, यथार्थवादी उपन्यास, आँचलिक उपन्यास लेकिन स्वयं 'उपन्यास' की समस्या पर विचार, उसके जातीय फ़ॉर्म का अन्वेषण, हमने नहीं के बराबर किया है। इस स्तर पर उपन्यास की समस्या हमारी समूची संस्कृति के विश्लेषण से जुड़ी है। यहाँ हमें मनुष्य और मनुष्य के बीच संबंधों के अदृश्य, संश्लिष्ट, परंपरा और स्मृति में उलझे असंख्य सूत्रों को टटोलना होगा, जो पश्चिम के बुर्जुआ, द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक संबंधों से बहुत अलग हैं। उपन्यास समय के भीतर बहता है, किंतु घटनाओं में बहता समय जो पात्रों को एक स्तर से दूसरे स्तर पर विकसित और परिवर्तित करता है क्या हमारा 'समय' है? क्या यह ज़रूरी है कि पहले पन्ने पर जो व्यक्ति दिखाई दे, उसकी नियति, बीच की घटनाओं के घात-प्रतिघात द्वारा अंतिम पृष्ठ पर उद्घाटित हो? क्या ऐसा नहीं है कि मनुष्य की नियति कहीं दूर समय-बिंदु पर होकर उसके भीतर अंतर्निहित है। ‘एपिक’ के पात्रों की तरह और बीच की घटनाएँ उस नियति को महज़ धीरे-धीरे आलोकित करती जाती हैं, हर पात्र समय के दौरान उस नियति पर पहुँचता नहीं, बल्कि बार-बार एक वृत्त में घूमता हुआ उसी के पास लौटता है, जहाँ से शुरू होता है? ये सब प्रश्न एक दूसरा रास्ता दिखाते हैं जो यूरोप की उन्नीसवीं शती तक ही उपन्यास-विधा से बिल्कुल भिन्न है। प्रूस्त और जॉयस ने पश्चिमी उपन्यास की शिल्प-विधा को अंधी गली मानकर छोड़ दिया था। वे एक ऐसी आत्मसजग ऐतिहासिक चेतना की चरम-सीमा पर पहुँचकर अपनी स्मृति के शाश्वत समय की तरफ़ मुड़े थे, उन्नीसवीं शती की बुर्जुआ, ऐतिहासिक क्रम को छोड़कर उन्होंने उपन्यास की विधा को तोड़ा था। कितना बड़ा व्यंग्य है कि जिस विधा को छोड़कर वे अतीत और स्मृति की तरफ़ आए थे, हम ख़ुद उस ज़मीन को छोड़कर बरसों से एक ऐसी विधा से चिपके हैं जो शुरू से ही हमारे सांस्कृतिक अनुभव, हमारी संस्कृति और संस्कार, समय और विकास के प्रति हमारी विशिष्ट मर्यादा के प्रतिकूल और अयोग्य रही है।

    हम अक्सर 'गोदान' के बारे में कहते हैं कि वह एक उत्कृष्ट उपन्यास है, लेकिन बरसों से हम इस 'लेकिन' के आगे अपने धुँधले असंतोष के कारण ढूँढ़ते आए हैं। यहाँ तक कि 'गोदान' के अँग्रेज़ी संस्करण तैयार करते समय हम अनेक ऐसे प्रसंग, पात्र, घटनाएँ छोड़ देना उचित समझते हैं जो उपन्यास की ‘मूल कथा' को कमज़ोर बनाते हैं। उसके नैसर्गिक प्रवाह को अवरुद्ध करते हैं। किंतु इस तरह की काट-छाँट से उपन्यास से उपन्यास की मूल कमज़ोरी दूर नहीं हो जाती क्योंकि वह कमज़ोरी अनावश्यक घटनाओं या पात्रों में होकर स्वयं 'गोदान' की समूची औपन्यासिक संरचना के केंद्र में विराजमान है, यह कमज़ोरी उस फ़ॉर्म में निहित है जो प्रेमचंद्र ने होरी जैसे जीवंत, अपनी सुख-पीड़ा में सतत प्रवाहमान जैसे पात्र पर आरोपित की है। एक तरफ़ प्रेमचंद्र की गहन अंतदृष्टि है जो 'गोदान' के पात्रों ने उन्हें दी है, दूसरी तरफ़ 'एक ऐसी बनी-बनाई विधा' को अपनाने की मोहजनक सुविधा है जिसका इन पात्रों के संस्कारों, व्यक्तित्व, जातीय अनुभवों का उनकी जीवन-धारा से कोई संबंध नहीं। यह एक सृजनात्मक चुनौती थी जब प्रेमचंद्र रूसी उपन्यासकारों की तरह उन्नीसवीं शती के 'परंपरागत' औपन्यासिक ढाँचे को छोड़कर या उसे परिवर्तित करके एक ऐसी कथ्यात्मक, नेरेटिव विधा का अन्वेषण करते, जो होरी की नियति और मर्यादा, उसकी हताशा और नैतिकता के अनुकूल अपना निजी 'कलात्मक स्पेस' निर्धारित कर सकती। यह इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि घटनाओं के प्रति होरी का संबंध वैसा द्वंद्वात्मक, समय-अनुशासित नहीं है, जैसा पश्चिम के उपन्यास-पात्रों का साधारणतः होता है। जब हम पहली बार उपन्यास में होरी को देखते है तो हमें एक झलक में उसकी अंतिम नियति का आभास मिल जाता है, एक ऐपिक पात्र की तरह उसकी नियति एक वाक्य, एक संकेत, एक उड़ती हुई प्रतिक्रिया में अंतर्निहित है। कितना भिन्न है होरी का चरित्र पश्चिम के क्लासिक उपन्यास-पात्रों से, जो एक घटना से दूसरी घटना की तरफ़ बढ़ते हुए अपने को उद्घाटित करते हैं, एक आयाम को छोड़कर नितांत नया, गुणात्मक रूप से भिन्न आयाम ग्रहण करते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि समूचे उपन्यास में होरी बदलता नहीं, या अलग-अलग मौक़ों पर उसकी प्रतिक्रियाएँ नहीं बदलती, किंतु यह बदलाव, ये अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ वास्तव में एक स्थिर चरित्र की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। वह चरित्र नहीं बदलता, उसके 'चित्र' बदलते हुए भी एक आयामी धुरी पर क़ायम रहते हैं; एक ऐसे वृक्ष की तरह जो हवा के थपेड़ों से कभी झुकता है, कभी सिर उठाता है, लेकिन अपनी ज़मीन नहीं छोड़ता।

    वह पात्र, जिसका जीवन किसी पश्चिमी उपन्यास में नहीं मिलता, क्या उसी पश्चिमी उपन्यास की विधा उसके जीवन के लिए अनुकूल थी? क्या यही कारण नहीं है कि बरसों से हम ‘गोदान' को एक मिश्रित प्रतिक्रिया में प्रस्तुत और महसूस करते आए हैं गर्व और संकोच के मिले-जुले भाव में एक उत्कृष्ट उपन्यास लेकिन...

    इस 'लेकिन' के आगे हम पुनः उस बिंदु पर लौट आते हैं जहाँ से हर विधा का सृजनात्मक पूर्ण परीक्षण शुरू होता है। यह एक जोख़िमपूर्ण एडवेंचर है, क्योंकि एक ऐसा क्षण आता है जब अनुभव और विधा के बीच अंतर्विरोध किसी सुविधाजनक समझौते से नहीं सुलझाया जा सकता। उपन्यास के क्षेत्र में यह जोख़िम और भी बढ़ जाता है क्योंकि वह इतिहास और कविता के बीच एक ऐसे स्थल की खोज है जहाँ तर्कशील, आत्मसजग चेतना, विचारों और विश्वासों द्वारा नहीं बल्कि स्मृति और सांस्कृतिक अनुभवों में साँस लेती है। कविता की तरह वह भाषा और बिंबों में उतनी ही डूबी है, जितनी डूबने के बाद बाहर समय में अपने अनुभवों को परिभाषित करने को आतुर।

    एक आधुनिक भारतीय लेखक के लिए यह जोख़िम और भी अधिक विकट है; उपन्यास जैसी विधा के लिए उसे एक पश्चिमी लेखक की ही तरह आत्मसजग और तर्कशील होना होगा, किंतु इस विधा की सीमाओं पर उसे एक निर्वैयक्तिक, गैर-ऐतिहासिक, 'मिथक-संपन्न अँधेरी' स्मृतियों को उजागर करना होगा, उन्हें उजागर करने के लिए ख़ुद इस 'अँधेरे' में डूबना होगा। यह समूचा कार्यकलाप, यह एडवेंचर किसी आलोचनात्मक बौद्धिक योजना द्वारा नहीं, शुद्ध कल्पनाशील अनुभवों के बीच होगा। फ़ॉर्म का निर्माण नहीं, सृजन होता है। इसी 'कल्पनाशीलता' के आधार पर तोल्स्तोय ‘रूसी समाज का दर्पण' बने थे, अपने ऐतिहासिक, बौद्धिक ज्ञान के कारण नहीं।

    इतिहास और मिथक, समय और स्मृति इन दो उजले-अँधेरे छोरों के बीच भारतीय उपन्यास जिस ज़मीन को समेटेगा, उसके लिए जिस ‘फ़ॉर्म' को ढूँढ़ना होगा वहाँ उस ज़मीन पर भारतीय लेखक ने शुद्ध रूप के दर्शक रहेगा। एक विदेशी उपन्यासकार की तरह पूर्ण रूप से भोक्ता, एक औसत भारतीय की तरह वह तो इस अर्थ में एक अलगावग्रस्त (Alienated) बुर्जुआ लेखक बन पाया है जो अपने अलग आत्मसजग व्यक्तित्व के बाहर अपने अतीत, स्मृतियों और संस्कारों से अलग रह सके, इन संस्कारों और समृतियों से इतना अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है कि बाहर के अलगाव, अपने दो सौ वर्षों के यूरोपीय अनुभव से अर्जित आत्म-चेतना की उपेक्षा कर सके। वह बाहर भी है, भीतर भी, वैयक्तिक है तो निवैयक्तिक भी, समय से आक्रांत है तो इतिहास का अतिक्रमण करने का मिथक-बोध भी उसमें है। इन दोनों पाटों के बीच अंतर्द्वंद्व और इतिहास की उस जातीय विडंबना का दबाव हम जितनी तीव्रता से महसूस कर पाएँगे, उतना ही हमारा यह एडवेंचर प्रामाणिक और अर्थपूर्ण हो सकेगा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : निर्मल वर्मा

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