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वर्ष 2026 की ‘इसक’-सूची

सूचियाँ सर्वत्र व्याप्त अव्यवस्था में एक व्यवस्था गढ़ती हैं। पर यह उनकी नियति है कि वे प्राय: संदिग्ध होती हैं। इस दृश्य में यह सजगता का दायित्व है कि वह सदा दे दिए गए से बाहर देखें और यह स्वीकार करे कि सूचियाँ अंतिम नहीं होतीं, लेकिन वे बहुत कुछ को अंतिम होने से बचा लेती हैं।

आज हिंदी में ‘आलोचना’ सिर्फ़ एक पत्रिका का नाम है; शेष सब कुछ टिप्पणी है, परिवारिकता है, मित्रता है, माँग है, संगठनबाज़ी है, विशेषण है, विस्मरण है...         

इस आतंक में हम एक बार और उपस्थित हैं। वर्ष 2021202220232024 और 2025 में हमने ‘हिन्दवी’ पर ‘इसक’ के अंतर्गत ऐसे 21 कवियों की कविताएँ प्रस्तुत कीं, जिन्होंने गए 25-26 वर्षों में हिंदी-कविता-संसार में अपनी अस्मिता और उपस्थिति को पाया और पुख़्ता किया। इसक—यानी 21वीं सदी की कविता का संक्षिप्त रूप—की परिकल्पना को प्रकट और स्पष्ट करते हुए हम कहते आए हैं कि इसक हमारी मुख्य योजनाओं में सम्मिलित है और यह हमारा वार्षिक आयोजन है। इस प्रसंग में ही अब प्रस्तुत है—इसक-2026

विनोद कुमार शुक्ल को समर्पित इसक की इस पाँचवीं सूची में हम ऐसे 21 कवियों की लगभग 400 कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं, जिनमें से कुछ के पहले कविता-संग्रह हालिया वर्षों में प्रकाशित हुए हैं, कुछ हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और वेबसाइट्स में/पर नियमित प्रकाशित हुए हैं, तो कुछ ने सीधे ‘फ़ेसबुक’ पर कविताएँ रचकर अपनी रचनात्मक अस्मिता अर्जित की है। कुछ हिंदी-विभाग से संबद्ध हैं तो कुछ संपादन से, कुछ कथित मुख्यधारा की कविता नहीं रचते तो कुछ कथित हाशिये की। भारतीय भौगोलिकताओं के वैविध्य से आते और उनमें सतत भटकते, विस्थापित होते हुए इन कवियों के सामने जीवन और आजीविका से जूझने के अनिवार्य प्रश्न और संकट बने हुए हैं। इन प्रश्नों के बीच इनमें से कुछ कवि कला और बौद्धिकता के विभिन्न अनुशासनों में संघर्षरत हैं और स्वयं को एक विशाल काम करने के लिए तैयार कर रहे हैं। इनके परिचय अभी संक्षिप्त हैं, लेकिन कविताएँ बड़ी हैं। इनके बारे कुछ बातें हम आगे करेंगे...   

इसक-2021, इसक-2022, इसक-2023, इसक-2024, इसक-2025 के बाद अब इसक-2026 के संदर्भ में भी हमारी कोशिश है कि नव वर्ष के आरंभिक 21 दिनों में हम इन 21 कवियों को और जान सकें। इस प्रसंग में इन कवियों से बातचीत, उनका गद्य, उनके उद्धरण, वीडियो, कविता-कार्ड्स... हम अपने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर जारी करेंगे। 

बहरहाल, वर्ष 2026 के लिए ‘हिन्दवी’ की इसक-सूची यह है :

अनस ख़ान 
ऋत्विक्
कृति राज 
जयंत शुक्ल 
ज्ञान प्रकाश आकुल 
दीपक जायसवाल
पूजा जिनागल
प्रतीक ओझा 
प्रत्यूष चंद्र मिश्र 
बलराम कांवट  
मानस भारद्वाज 
रवि यादव 
राकेश कुमार मिश्र
रिया रागिनी
विवेक भारद्वाज 
शशि शेखर  
शहबाज़ रिज़वी
समर्थ वाशिष्ठ 
सुदीप सोहनी
सौरभ राय 
हिमांशु विश्वकर्मा

प्रस्तुत सूची में दर्ज नाम अकारादि-क्रम में हैं। ‘हिन्दवी’ ने हिंदी-साहित्य-संसार में सक्रिय महत्त्वपूर्ण रचनाकारों, आलोचकों और संपादकों से परामर्श के पश्चात् यह सूची पूर्ण की है।

यहाँ अनस ख़ान की कविताएँ पढ़ते हुए हिंदी-कविता के नियमित और संवेदनशील पाठक सहज ही यह महसूस करेंगे कि आती हुई हिंदी-कविता अब वृद्धत्व और अकाल-वृद्धत्व दोनों से पूर्णतः मुक्त है। यह एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर राह है जिसके चिह्न ऋत्विक्, कृति राज और जयंत शुक्ल की कविताओं में भी नज़र आते हैं। 

ज्ञान प्रकाश आकुल हिंदी-कविता की मंचीय धारा से आते हैं; लेकिन उन्होंने अपने काव्य को मंच-मलिन नहीं होने दिया है, जबकि यूँ होता तो बहुत स्वाभाविक होता और कोई उनसे कुछ पूछने नहीं जाता। वह गीतसिद्ध हैं और लोक-संघर्ष और तनाव को अत्यंत मर्ममय ढंग से छंद में अभिव्यक्त करते हैं। 

दीपक जायसवाल की कविता अधबनी-सी लग सकती है, लेकिन वह कुछ अनकहा कह देने के यत्न में है। वह अगर और देखे, तब और बन सकती है। 

पूजा जिनागल के पास अभी कम कविताएँ हैं, लेकिन यों लगता है कि उन्होंने अपने दायरे के काफ़ी विषय छू लिए हैं। यह सुखद है कि उनकी अब तक प्रकाशित कविताओं में से एक भी कविता, कविता-विलासियों के लिए नहीं है। 

प्रतीक ओझा अनुपस्थित को कविता के हाथ का छाला बनाकर रखने की कला जानते हैं। यह हुनर अभाव के दर्शन में उत्पन्न होता है और संपन्नता अगर सजगता के साथ न आए तो नष्ट हो जाता है। यह एक रूढ़-रवायती वाक्य है, लेकिन कहना ही होगा कि प्रतीक ओझा इधर के सर्वाधिक संभावनाशील कवि हैं। वह अगर ऐसे काव्य-वाक्य संभव कर पाएँ; जिन्हें वह सही जगह तोड़ना और तोड़कर पूरा करना जानते हों, तब वह और बेहतर कविताएँ रच पाएँगे। उन्हें शब्द-संख्या के लिहाज़ से कुछ बहुत छोटी कविताओं पर काम करना चाहिए। 

प्रत्यूष चंद्र मिश्र, बलराम कांवट और मानस भारद्वाज इस अवधि में काफ़ी समय के कवि हैं। लेकिन तीनों अब अपने मुहावरे को पाए हुए प्रतीत हो रहे हैं। 

रवि यादव की विशेषता है कि वह प्रयोगजर्जर उपमाओं से बचते हैं। यह अगर अनायास है, तब उन्हें इस गुण के साथ प्रचलन के संतुलन से बचना होगा और अगर यह सायास है, तब उन्हें विमर्शात्मक होना होगा। उन्हें खड़ी बोली के व्याकरण-वर्तनी को भी ध्यान से देखने की ज़रूरत है। 

राकेश कुमार मिश्र भी काफ़ी समय से कविता के संसार में सक्रिय हैं। उनकी काफ़ी कविताएँ हम ले आएँ हैं। उनकी बिल्कुल नई कविताओं में उनकी प्रज्ञा का प्रभात दर्शनीय है :

जहाँ भी पहुँचा
देर से पहुँचा

जहाँ भी रहा बहुत कम रहा
जब भी रोया थोड़ा कम रोया
जब भी बोला थोड़ा कम बोला

अब तक मेरे हाथों जितना भी हो पाया
बहुत-बहुत कम हुआ

जो गुज़र गया वह सिर्फ़ समय नहीं था
जो बह गया वह सिर्फ़ दु:ख नहीं था 

रिया रागिनी ने अब तक कविताओं के प्रकाशन में बहुत कम रुचि दिखाई है। वह कला और विमर्श के अन्य अनुशासनों में स्वयं को एक लंबे समय से व्यस्त रखती आई हैं। व्यस्तता एक रिक्तता को मारकर, एक दूरगामी रिक्तता उत्पन्न करती है। इस दूरगामी में प्रवेश आपको आपके कवि में ले जाता है और आपका कवि आपको जन्म, लैंगिकता, संबंध, प्रेम, असुरक्षा, स्मृति, दर्द, देह, देहांत के विवशता-प्रसंग में।  

विवेक भारद्वाज की कविताएँ उनके सबसे पास की प्रकृति से निर्मित हैं। उनकी सरलता और भावनात्मकता उन्हें इस चकड़ दौर में क़ाबिल-ए-ग़ौर बनाती है। 

यह पहला अवसर है जब हम ‘इसक’ में एक स्मृति-शेष कवि [शशि शेखर] को शामिल कर रहे हैं। शशि शेखर का एक परिचय उनकी कविताओं के साथ ही पढ़ा जाना चाहिए। नई पीढ़ी की कवि अदिति शर्मा के सौजन्य से उनकी 25 कविताएँ गए नवंबर में हम प्रकाशित कर पाए। इन कविताओं में उपस्थित अस्तित्वगत विकलता, आत्मसंघर्ष और द्वंद्व इनके कवि को हिंदी कविता का एक नैतिक स्वर सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है।     

शहबाज़ रिज़वी हिंदी-उर्दू दोनों में नज़्में-ग़ज़लें कहते-रचते हैं। उनकी ज़ुबान में एक ख़ास रंग, संगीत, नरमी और उदासी है। वह ‘आहत-नैरंतर्य’ यहाँ नहीं है, जो हमारे कवियों को तेज़ आवाज़ और ग़ुस्से या पछतावे से भरता आया है; कभी-कभी सिर्फ़ तेज़ आवाज़ और ग़ुस्से या पछतावे से, कविता से नहीं! 

समर्थ वाशिष्ठ, सुदीप सोहनी और सौरभ राय भी इस अवधि में काफ़ी समय के कवि हैं। इधर डेढ़ दशक में शब्द के अनियंत्रित विस्तार ने सर्वाधिक हानि कविता को पहुँचाई है। इस स्थिति में समर्थ, सुदीप और सौरभ का सतत रचनात्मक बने रहना किसी प्रतिकार से कम नहीं है। 

हिमांशु विश्वकर्मा की कविता में आई दृश्यावलियाँ, स्मृतियाँ और वस्तुएँ उनकी कविता को एक विश्वसनीयता प्रदान करते हैं। आत्मानुभव और लोक-धर्म का एक साथ निर्वाह हिमांशु की कविताओं का सबसे मार्मिक संदर्भ है। 

इस सदी की हिंदी कविता को व्यापक स्थान और प्रसार मिले, ‘हिन्दवी’ की यह आकांक्षा अपने आरंभ से ही रही है। इस सिलसिले में स्त्री-कवियों पर एकाग्र एक भिन्न और विशिष्ट आयोजन नई सृष्टि नई स्त्री शीर्षक से हमने महिला दिवस के अवसर पर मार्च-2021 में संभव किया, उसकी दूसरी कड़ी मार्च-2022, तीसरी कड़ी मार्च-2023, चौथी कड़ी मार्च-2024 और पाँचवीं कड़ी मार्च-2025 में प्रस्तुत की। इस सिलसिले की छठी कड़ी मार्च-2026 में प्रस्तुत करना हमारी योजनाओं में है। इस प्रक्रिया में नामों के दुहराव से हम भरपूर बच रहे हैं, इसलिए यहाँ प्रस्तुत सूची में स्त्री-कवियों की संख्या कम है। इस अर्थ में देखें तो इक्कीसवीं सदी की हिंदी कविता का पूरा दृश्य समझने के लिए हमारा आग्रह है कि कविता-प्रेमी पाठक हमारे दोनों वार्षिक आयोजनों—इसक और नई सृष्टि नई स्त्री—से गुज़रें। 

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‘इसक’-समग्र के लिए यहाँ देखें : इसक-2021इसक-2022इसक-2023 इसक-2024इसक-2025इसक-2026

     

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