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इकाई- III साहित्यशास्त्र

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हिन्दवी डेस्क

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इकाई- III साहित्यशास्त्र

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    भारतीय काव्यशास्त्र से अभिप्राय है संस्कृत भाषा में प्रस्तुत काव्यशास्त्र। संस्कृत काव्यशास्त्र का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ नाट्यशास्त्र है और अंतिम प्रख्यात एवं महत्त्वपूर्ण ग्रंथ रसगंगाधर है।

    काव्यशास्त्र के लिए वाल्मीकि रामायण में 'क्रियाकल्प' नाम मिलता है। वात्स्यायन ने कामसूत्र में चौंसठ कलाओं में एक कला गिनाई है—'काव्य क्रियाकल्प'। इस विद्या को राजशेखर ने अपने ग्रंथ काव्यमीमांसा में 'साहित्यविधा' कहा है और भोजराज ने इसे 'काव्यशास्त्र' नाम दिया है।

    कवि-कर्म से तात्पर्य

    अभिनवगुप्त ने 'ध्वन्यालोक लोचन' में कहा है कि 'कवनीयं काव्य' अर्थात कवि-कर्म एक शाब्दिक निर्मिति है। भारतीय संस्कृति में 'कवि' शब्द अनेक अर्थच्छायाएँ रखता है। यहाँ तक कि 'कवि' शब्द 'ईश्वर', 'ब्रह्म' और 'प्रजापति' का पर्याय रहा है।

    काव्यं लोकोत्तरवर्णनानिपुणं कवि-कर्म...'(काव्य-प्रकाश, प्रथमोल्लास) कवि-कर्म को 'काव्य-संसार' कहा गया और कवि को इस संसार का स्रष्टा या ब्रह्मा 'अपारे काव्यसंसारे कवि रेव प्रजापतिः।' (आदिपुराण, 339: 10)

    ध्यान देने की बात है कि भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य पर एक स्वतंत्र इकाई के रूप में भी चिंतन-मनन हुआ है। भरत मुनि ने नाटक पर आधारित काव्य लक्षण प्रस्तुत किया।

    भरत ने लोक-कल्याणकारी काव्य के सात लक्षण माने—

    1. मृदु ललित पदावली

    2. गूढ़ शब्दार्थहीनता

    3. सर्वसुगमता

    4. युक्तिमत्ता

    5. नृत्य में उपयोग किए जाने की योग्यता

    6. रस के अनेक स्रोतों को प्रवाहित करने का गुण

    7. संधियुक्तता।

    इनमें से पाँचवें और सातवें लक्षण में नाटक (दृश्य काव्य) पर बल है, शेष में गुण, रीति, अलंकार औचित्य, रस आदि का निर्देश।

    अग्निपुराणकार ने कहा 'वाग्वैदग्ध्य प्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम्।'

    संस्कृत आचार्यों द्वारा दिए गए काव्य लक्षण 

    भामह : 

    अलंकारवादी भामह का काव्य लक्षण इस प्रकार है—'शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्' (काव्यालंकार 1/16) अर्थात शब्द और अर्थ दोनों का सहभाव काव्य है। भामह ने अपने ग्रंथ 'काव्यांलकार' में अपने से पहले की दो विचारधाराओं का उल्लेख किया है। एक विचारधारा अर्थालंकारों को काव्य-सौंदर्य का मूलाधार मानती है तथा दूसरी शब्दालंकारों को। किंतु दोनों विचारधाराएँ काव्य-सौंदर्य का आधार अलंकारों में ही खोजती हैं। अर्थालंकारवादी भामह तथा शब्दालंकारवादी दंडी दो भिन्न विचारधाराओं की एकता अलंकार युग में प्रस्तुत करते हैं।

    दंडी :

    आचार्य दंडी ने काव्य के शरीर पर विचार करते हुए कहा कि 'शरीरंतावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली' ही काव्य है। उनके द्वारा निरूपित 'शरीरं तावदिष्टार्थ...' का 'तावद्' शब्द वाक्यालंकारों के लिए भी प्रयुक्त हुआ। उनका मत है कि केवल उसी शब्द-समूह (पदावली) को काव्य-शरीर कहा जा सकता है जो काव्य के लिए अभिलक्षित सरसता से युक्त हो और कवि-प्रतिभा से युक्त सुंदर पदावली से व्यवच्छिन्न हो। इष्टार्थ-युक्त पदावली का अर्थ यह भी है कि ऐसे पदों में 'योग्यता', 'आकांक्षा', 'आसक्ति' आदि विशेषताएँ भी विद्यमान हों। कारण, जिन पदों में वाक्यत्व की योग्यता नहीं होती।

    वे 'काव्य' नहीं कहे जा सकते। पदावली का 'इष्टार्थत्व' ही काव्यार्थ में चमत्कार की सृष्टि करता है जिसमें लोकोत्तर आह्लादत्व का भाव पूरी तरह अंतर्मुक्त है।

    वामन :

    भामह मानते थे शब्दालंकार और अर्थालंकार से विशिष्ट शब्दार्थ काव्य है। केवल शब्द और अर्थ को काव्य मानना तो प्रचलन है—'काव्यशब्दोऽयं गुणालंकारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तते। शब्दार्थमात्र वचनोऽत्र गृह्यते।' (काव्यलंकार-सूत्र-वृत्तिः)।

    वामन यह भी कहते हैं कि काव्य के शोभा कारण-धर्म को अलंकार कहते हैं। 'सौन्दर्यमलंकारः 'अलंकृतिरलंकारः', 'काव्य शोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः।' इस प्रकार वामन ने काव्य की ग्राह्यता को 'सौंदर्य' से निबद्ध कर दिया। वामन के अनुसार दोष-रहित, सगुण, सालंकार शब्दार्थ काव्य है।

    वामन का प्रदेय यह माना जा सकता है कि उन्होंने दंडी के मार्ग को 'रीति' में नए ढंग से विस्तार दिया तथा अलंकार से आगे गुण की चर्चा करते विचार को आगे बढ़ाया।

    रुद्रट :

    अलंकारवादी आचार्य रुद्रट ने काव्य का लक्षण किया 'ननु शब्दार्थों काव्यम्' रुद्रट का कहना है कि शब्दार्थ निश्चय ही काव्य है।

    काव्य लक्षण के निरूपण में चमत्कारमय शब्दार्थ संबंध के सौंदर्य को काव्य मानने का आग्रह करने वाले आचार्यों में हेमचंद्र, विद्यानाथ, वाग्भट्ट जयदेव आदि प्रमुख हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं—

    हेमचंद्र :

    अदोषौ सगुणौ सालंकारौ च शब्दार्थौ काव्यम् (काव्यानुशासन)।

    विद्यानाथ :

    गुणालंकार सहितौ शब्दों दोष वर्जितौ। (प्रताप रुद्रयशोभूषण)।

    वाग्भट्ट :

    शब्दार्थौ निर्दोषौ सगुणौ प्रायः सालंकारौ काव्यम् (काव्यानुशासन)।

    जयदेव :

    निर्दोषा लक्षणावती सरीतिर्गुणभूषणा।
    सालंकार रसानेकवृत्तिर्वाक्काव्यनाम भाक्॥ (चन्द्रालोक)

    भोज :

    निर्दोष गुणवत्काव्यमलंकारैरलंकृतम्।
    रसाविन्तं कविं कुर्वन प्रीति कीर्ति च विदंति॥ (सरस्वती कंठाभरण)

    आनंदवर्धन :

    काव्यलक्षण-प्रसंग में इनके दो कथन उल्लेख्य हैं जो काव्य के बाह्य एवं आंतरिक रूप की ओर संकेत करते हैं।

    'शब्दार्थ-शरीरं तावत् काव्यम्' 'ध्वनिरात्मा काव्यस्य।' इन कथनों के अनुसार-काव्य उस शब्दार्थ-रूप शरीर को कहते हैं जिसकी आत्मा ध्वनि (व्यंग्यार्थ) है। यद्यपि यह लक्षण काव्य के आंतरिक तत्व ध्वनि की ओर सर्वप्रथम संकेत करता है, किंतु स्वयं 'ध्वनि' शब्द अत्यंत व्याख्यापेक्ष है।

    कुंतक :

    उन्होंने 'वक्रोक्ति' को काव्य का व्यापक गुण मानते हुए उसे काव्य की आत्मा कहा।

    वक्रता को 'वैचित्र्य' तथा 'वैदग्ध्य भंगी भणिति' अर्थात् विदग्ध व्यक्ति के कहने का विशेष गुण कहा। काव्य के भाव-पक्ष की कला-पक्षीय व्याख्या करते हुए उन्होंने काव्य का लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत किया—

    शब्दार्थों सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि।
    बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदास्ह्लादकारिणी॥ (वक्रोक्तिजीवितम)

    यहाँ 'वक्रोक्ति' से तात्पर्य है—विशिष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा के भंडार में अनेक शब्द होते हैं।

    मम्मट :

    मम्मट ने 'दोषरहित, गुणसहित और कभी-कभार अनलंकृत, शब्द और अर्थमयी रचना को काव्य' कहा है—तदोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि (काव्य-प्रकाश)। इसमें दोषों के अभाव और गुणों के भाव को प्रधानता प्रदान की गई है और अलंकारों को नितांत आवश्यक नहीं माना है।

    विश्वनाथ :

    साहित्य- दर्पणकार विश्वनाथ रसवादी आचार्य हैं। उन्होंने अपने पक्ष को सामने रखते हुए काव्य का लक्षण किया है—वाक्यं रसात्मकं काव्यम्। (साहित्य-दर्पण, परिच्छेद-1) अर्थात रसयुक्त वाक्य काव्य है।

    राजशेखर :

    राजशेखर ने काव्य के लिए कहा है—'गुणवदलंकृतं च वाक्यमेव काव्यम्' (काव्य-मीमांसा)

    अर्थात् गुणों और अलंकारों से युक्त वाक्य का नाम काव्य है।' राजशेखर मानते थे कि अतिशयोक्तिपूर्ण होने से न तो कोई काव्य त्याज्य होता है न असत्य। क्योंकि काव्य में जो अर्थवाद या अतिशयोक्ति होती है—उसका समर्थन शास्त्र और लोक दोनों करते हैं।

    पंडितराज जगन्नाथ :

    उन्होंने कहा कि काव्य शब्द में होता है। रमणीयतार्थ प्रतिपादक शब्द काव्य है। उन्होंने काव्य लक्षण निरूपण इस प्रकार किया—'रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्।' पाश्चात्य काव्यशास्त्र में काव्य लक्षण।

    ड्राइडन :

    'काव्य भावपूर्ण तथा छंदोबद्ध भाषा में प्रकृति का अनुकरण है।'

    मैथ्यू आर्नल्ड :

    'काव्य सत्य और काव्य-सौंदर्य के सिद्धांतों द्वारा निर्धारित उपबंधों के अधीन जीवन की आलोचना का नाम काव्य है।' यहाँ 'आलोचना' का अर्थ है समग्र जीवन की समीक्षा।

    विलियम वर्डसवर्थ (1770-1850) :

    कविता से संबंधित पूर्ववर्ती सिद्धांत-वाक्यों को अस्वीकार करते हुए कहा 'कविता बलवती भावनाओं का सहज उच्छलन होती है। शांत अवस्था में भाव के स्मरण से उसका उद्भव होता है।'

    सैमुअल टेलर कॉलरिज :

    सैमुअल टेलर कॉलरिज ने जैव-सिद्धांत को काव्य संबंधी अपनी धारणा में स्थान दिया। कॉलरिज के अनुसार कविता की परिभाषा 'कविता रचना का वह प्रकार है जो वैज्ञानिक कृतियों से इस अर्थ में भिन्न है कि उसका तात्कालिक प्रयोजन आनंद है, सत्य नहीं। और रचना के सभी प्रकारों से उसका अंतर यह है कि संपूर्ण से वही आनंद प्राप्त होना चाहिए जो उसके प्रत्येक घटक खंड (अवयव) से प्राप्त होने वाली स्पष्ट संतुष्टि के अनुरूप हो।'

    शैली :

    'सामान्यतः कविता को कल्पना की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है।'

    ली हंट :

    'कल्पनात्मक आवेग का नाम कविता है।'

    आई.ए. रिचर्डस :

    आई.ए. रिचर्डस ने माना कि काव्य अनुभूति है, जीवनानुभूति है। 'प्रिंसिपल्स ऑफ़ लिटरेरी क्रिटिसिज़्म' में रिचर्डस ने कविता की परिभाषा पर विचार किया है। रिचर्डस केवल अनुभूति को कविता मानते हैं। इसी तर्क से वे कविता की परिभाषा अनुभूति के आधार पर करते हैं 'कविता अनुभूतियों का एक ऐसा वर्ग है जो मानक अनुभूति से, प्रत्येक विशेषता में भिन्न होती हुई भी, किसी विशेषता में एक ख़ास मात्रा में भिन्न नहीं होती।'

    टी. एस. एलियट :

    एलियट ने कहा—कविता या कला, कवि के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं है क्योंकि उसे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करनी ही नहीं है वह तो अभिव्यक्ति का एक माध्यम मात्र है जो केवल माध्यम है, व्यक्तित्व नहीं।' (The poet has, not a personality to express, but a particular medium, which is only a medium and not a personality.) 'काव्य भाव का स्वच्छंद प्रवाह नहीं, भाव से मुक्ति या पलायन है। वह व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व से मुक्ति है।

    हिंदी के विद्वानों द्वारा दिए गए काव्य-लक्षण :

    साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है।—बालकृष्ण भट्ट

    ज्ञान-राशि के संचित कोष का नाम साहित्य है।—महावीरप्रसाद द्विवेदी

    अंत:करण की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता है।—महावीरप्रसाद द्विवेदी

    जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग के समकक्ष मानते हैं।—रामचंद्र शुक्ल

    कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है।—रामचंद्र शुक्ल

    काव्य संसार के प्रति कवि की भावप्रधान, किंतु वैयक्तिक संबंधों से मुक्त मानसिक प्रतिक्रियाओं, कल्पना के साँचे में ढली हुई, श्रेय की प्रेयरूपा प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है।—डॉ. गुलाबराय

    काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है जिसका संबंध विश्लेषण या विज्ञान से नहीं है।—जयशंकर प्रसाद

    कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है।—सुमित्रानंदन पंत

    कविता कवि विशेष की भावनाओं का चित्रण है और वह चित्रण इतना ठीक है कि उसके जैसी ही भावनाएँ दूसरे के हृदय में आविर्भूत हो जाती हैं।—महादेवी वर्मा

    काव्य तो प्रकृत मानव अनुभूतियों का नैसर्गिक कल्पना के सहारे ऐसा सौंदर्यमय चित्रण है, जो मनुष्य मात्र में स्वभावतः अपने अनुरूप भायोच्छवास और सौंदर्य-संवेदन उत्पन्न करता है। इसी सौंदर्य-संवेदन को भारतीय पारिभाषिक शब्दावली में 'रस' कहते हैं।—नंददुलारे वाजपेयी

     

    काव्य हेतु :

    'हेतु' का शाब्दिक अर्थ है कारण, अतः 'काव्य हेतु' का अर्थ हुआ काव्य की उत्पत्ति का कारण। किसी व्यक्ति में काव्य रचना की सामर्थ्य उत्पन्न कर देने वाले कारण काव्य हेतु कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि काव्य 'कार्य' है और 'हेतु' कारण है। बाबू गुलाबराय ने काव्य हेतु पर विचार करते हुए लिखा है—हेतु का अभिप्राय उन साधनों से है, जो कवि की काव्य रचना में सहायक होते हैं।

    काव्य के निमित्त कारण को काव्य हेतु कहा जाता है। काव्य रचना कर सकने की सामर्थ्य हर व्यक्ति में नहीं होती। जो व्यक्ति अपनी अनुभूतियों को सुंदर, विलक्षण, व्यंजनात्मक रूप में अभिव्यक्त कर लेते हैं वे ही कवि हैं, क्योंकि उनकी अभिव्यक्ति साधारणजन से भिन्न होती है।

    भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य हेतुओं पर पर्याप्त विचार किया गया है और तीन काव्य हेतु माने गए हैं :-

    1. प्रतिभा 
    2. व्युत्पत्ति
    3. अभ्यास

    इनमें से प्रतिभा सर्वप्रमुख काव्य हेतु है जिसे काव्यत्व का बीज माना गया है। 'प्रतिभा' के अभाव में कोई व्यक्ति काव्य रचना नहीं कर सकता।

    काव्य हेतुओं पर सर्वप्रथम 'अग्निपुराण' में विचार किया गया और प्रतिभा, वेदज्ञान तथा लोकव्यवहार को काव्य हेतु के रूप में स्वीकार किया गया—

    नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा। 
    कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा॥ —अग्निपुराण

    अर्थात् लोक में नरत्व दुर्लभ है और उसमें विद्यावान नर होना दुर्लभ है। कवित्व परम दुर्लभ है और कविता करने की शक्ति (प्रतिभा) तो और भी दुर्लभ है।

    संस्कृत काव्यशास्त्र में आचार्यों ने 'काव्य हेतु' पर पर्याप्त विचार-विमर्श किया है।

    प्रमुख संस्कृत आचार्यों के 'काव्य हेतु' से संबंधित मत कालक्रमानुसार

    1. आचार्य भामह का मत-आचार्य भामह ने अपने ग्रंथ 'काव्यालंकार' में स्वीकार किया है कि गुरु के उपदेश से जड़ बुद्धि भी शास्त्र अध्ययन करने में समर्थ हो सकता है, किंतु काव्य तो किसी 'प्रतिभाशाली' द्वारा ही रचा जा सकता है।

    गुरुदेशादध्येतुं शास्त्रंजड़‌धिममोऽप्यलम्।
    काव्यं तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावतः॥

    निश्चय ही भामह 'प्रतिभा' को काव्य का प्रधान हेतु स्वीकार करते हैं, किंतु एक अन्य श्लोक में वे स्वीकार करते हैं कि शब्दशास्त्र को जानने वालों की सेवा और उपासना करके, शब्द का तथा शब्दार्थ का ज्ञान करके तथा अन्य कवियों के कृतित्व का अध्ययन करके ही काव्य रचना में प्रवृत्त होना चाहिए। स्पष्ट है कि भामह 'प्रतिभा' के साथ-साथ 'व्युत्पत्ति' (शास्त्र ज्ञान) एवं 'अभ्यास' को भी काव्य हेतुओं में स्थान देने के पक्षधर हैं।

    2. आचार्य दंडी का मत-आचार्य दंडी ने अपने ग्रंथ 'काव्यादर्श' में प्रतिभा, आनंद अभियोग (अभ्यास) और लोकव्यवहार एवं शास्त्रज्ञान को काव्य हेतुओं के रूप में मान्यता दी है। उनके अनुसार— 

    नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहु निर्मलम्। 
    आनन्दाश्चयाभियोगो अस्याः कारणं काव्य संपदा॥

    अर्थात् नैसर्गिक प्रतिभा, निर्मल शास्त्र ज्ञान और बढ़ा-चढ़ा अभ्यास काव्य संपत्ति में कारण होते हैं। नैसर्गिक प्रतिभा से उनका तात्पर्य जन्मजात प्रतिभा से है, जो ईश्वर प्रदत्त होती है। इस प्रतिभा को अर्जित नहीं किया जा सकता। प्रतिभा के अभाव में निम्नकोटि की काव्य रचना निरंतर अभ्यास एवं शास्त्र ज्ञान से हो सकती है।

    3. आचार्य वामन का मत—आचार्य वामन ने अपने ग्रंथ 'काव्यालंकार सूत्रवृत्ति' में प्रतिभा को जन्मजात गुण मानते हुए इसे प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया है—

    कवित्व बीजं प्रतिभानं कवित्वस्य बीजम्

    वे लोक व्यवहार, शास्त्रज्ञान, शब्दकोश आदि की जानकारी को भी काव्य हेतुओं में स्थान देते हैं। एक अन्य स्थान पर वे काव्य हेतुओं में प्रतिभा को कवित्व का बीज स्वीकार करते हैं जो जन्म-जन्मांतर के संस्कार से शक्ति रूप में कवि में विद्यमान होती है। अभियोग, वृद्ध सेवा, अवेक्षण, अवधान आदि से ही उत्तम काव्य का निर्माण कर सकना संभव हो पाता है।

    4. आचार्य रुद्रट का मत-आचार्य 'रुद्रट' ने अपने ग्रंथ 'काव्यालंकार' में प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को काव्य हेतु स्वीकार किया है। प्रतिभा के वे दो भेद मानते हैं सहजा और उत्पाद्या। सहजा प्रतिभा कवि में जन्मजात होती है और यही काव्य निर्माण का मूल हेतु है जबकि उत्पाद्या प्रतिभा लोकशास्त्र एवं अभ्यास से व्युत्पन्न होती है। यह सहजा प्रतिभा को संस्कारित एवं परिष्कृत करती है।

    5. आचार्य मम्मट का मत-आचार्य 'मम्मट' ने अपने ग्रंथ 'काव्यप्रकाश' में काव्य हेतुओं पर विचार करते हुए लिखा है— 

    शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्र काव्यायवेक्षणात्।
    काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे॥

    अर्थात् काव्य के तीन हेतु हैं—शक्ति, (प्रतिभा), लोकशास्त्र का अवेक्षण तथा अभ्यास। वे एक अन्य स्थान पर यह भी कहते हैं शक्तिः कवित्व बीजरूपः अर्थात् 'शक्ति' काव्य का बीज संस्कार है, जिसके अभाव में काव्य रचना संभव ही नहीं है। जिसे अन्य आचार्य 'प्रतिभा' कहते हैं, उसी को मम्मट ने 'शक्ति' कहा है।

    6. केशव मिश्र—'प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्ति विभूषणं' अर्थात् प्रतिभा काव्य का कारण है तथा व्युत्पत्ति उसे विभूषित करती है।

    7. हेमचंद्र इन्होंने अपने ग्रंथ 'शब्दानुशासन' में लिखा है प्रतिभाऽस्य हेतुः प्रतिभा नवन्वोन्मेषशालिनी प्रज्ञा अर्थात् प्रतिभा काव्य का हेतु है, तथा नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा को प्रतिभा कहते हैं।

    8. राजशेखर प्रतिभा व्युत्पत्ति मिश्रः समवेते श्रेयस्यौ इति अर्थात् प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों समवेत रूप में काव्य के श्रेयस्कर हेतु हैं।

    वे प्रतिभा के दो भेद स्वीकारते है :-

    (1) कारयित्री, (ii) भावयित्री।

    कारयित्री प्रतिभा जन्मजात होती है तथा इसका संबंध कवि से है। भावयित्री प्रतिभा का संबंध सहृदय पाठक या आलोचक से है।

    9. पंडितराज जगन्नाथ इन्होंने अपने ग्रंथ 'इस गंगाधर' में 'प्रतिभा' को ही प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया है—

    तस्य च कारणं कविगता केवलं प्रतिभा

    उक्त विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि काव्य के तीन प्रमुख हेतु हैं :-

    1. प्रतिभा
    2. व्युत्पत्ति 
    3. अभ्यास

    काव्य हेतुओं का स्वरूप :

    (1) प्रतिभा : प्रतिभा वह शक्ति है जो किसी व्यक्ति को काव्य रचना में समर्थ बनाती हैं। राजशेखर ने प्रतिभा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है—सा शक्तिः केवल काव्य हेतुः। आचार्य भट्टतीति के अनुसार प्रतिभा उस प्रज्ञा का नाम है जो नित नवीन रसानुकूल विचार उत्पन्न करती है।

    'प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिमा मताः'

    आचार्य वामन का मत है कि प्रतिभा जन्म से प्राप्त संस्कार—है जिसके बिना काव्य रचना संभव नहीं है।

    आचार्य अभिनव गुप्त ने प्रतिभा की परिभाषा करते हुए लिखा है—'प्रतिभा अपूर्व वस्तु निर्माण क्षमा प्रज्ञा' अर्थात् प्रतिभा प्रज्ञा का वह रूप है जिसमें अपूर्व की सृष्टि करने की क्षमता होती है। कवि इसी के बल पर काव्य-सर्जना में समर्थ होता है।

    वक्रोक्ति संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य कुंतक ने प्रतिभा उस शक्ति को माना है जो शब्द और अर्थ में अपूर्व सौंदर्य श्री सृष्टि करती है, नाना प्रकार के अलंकारों, उक्ति वैचित्र्य आदि का विधान करती है।

    प्रतिभा प्रथमोद्भेद समये यत्र वक्रता।
    शब्दाभिभेय योरन्तः स्फुरतीव विभाव्यते॥

    महिम भट्ट 'प्रतिभा' को कवि का तृतीय नेत्र मानते हैं जिससे समस्त भावों का साक्षात्कार होता है। प्रतिभा नवीन सृजन में सहायक होने वाली शक्ति है। प्रतिभा के अभाव में काव्य सृजन करने वाला कवि उपहास का पात्र बनता है।

    आचार्य मम्मट ने प्रतिभा को एक नया नाम दिया। वे इसे 'शक्ति' कहते हैं और काव्य का बीज स्वीकार करते हैं जिसके बिना काव्य की रचना असंभव है।

    'शक्तिः कवित्व बीज रूपः संस्कार विशेषः' अर्थात् शक्ति (प्रतिभा) कवित्व का बीजरूप संस्कार विशेष है। जिसके बिना काव्य सृजन नहीं हो सकता।

    आचार्यों ने प्रतिभा का जो स्वरूप यहाँ स्पष्ट किया है उससे हम निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं :-

    (1) प्रतिभा काव्य का मूल हेतु है।

    (2) यह ईश्वर प्रदत्त शक्ति है।

    (3) प्रतिभा नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा है।

    (4) प्रतिभा के बल पर ही कवि अपूर्व शब्दों, अपूर्व भावों, अलंकारों, उक्ति वैचित्र्य आदि का विधान करता है।

    (5) प्रतिभा दो प्रकार की होती है कारयित्री प्रतिभा और भावयित्री प्रतिभा।

    कारयित्री प्रतिभा वह होती है जिसके बल पर कवि कविता लिखता है और भावयित्री प्रतिभा वह होती है जिसके बल पर कोई पाठक कविता को समझता है।

    सभी-आचार्यों ने प्रतिभा के महत्व को स्वीकार किया है और इसे काव्य का मूल हेतु माना है।

    डॉ. नगेंद्र ने प्रतिभा को असाधारण कोटि की मेधा मानते हुए कहा है कि प्रतिभा को नीरस और साधारण वातावरण अच्छे नहीं लगते वह असाधारणता में खुलकर खेलती है।

    (2) व्युत्पत्ति : व्युत्पत्ति का शाब्दिक अर्थ है निपुणता, पांडित्य या विद्वत्ता। ज्ञान की उपलब्धि को भी व्युत्पत्ति कहा गया है। यह ज्ञानोपलब्धि शास्त्रों के अध्ययन और लोक व्यवहार के अवेक्षण से होती है। विद्वानों का मत है कि साहित्य के गहन चिंतन-मनन से कवि की उक्ति में सौंदर्य का समावेश हो जाता है और उसकी रचना सुव्यवस्थित हो जाती है। 

    • रुद्रट ने यह बताया है कि छंद, व्याकरण, कला, पद और पदार्थ के उचित अनुचित का सम्यक् ज्ञान ही व्युत्पत्ति कहा जाता है।

    आचार्य मम्मट ने व्युत्पत्ति को एक नया नाम दिया है—निपुणता। यह निपुणत्ता चराचर जगत के निरीक्षण और काव्य आदि के अध्ययन से प्राप्त होती है।

    राजशेखर के अनुसार उचितानुचित विवेकौ व्युत्पत्तिः। अर्थात् उचित अनुचित का विवेक ही व्युत्पत्ति है।

    संस्कृत आचार्यों ने व्युत्पत्ति को काव्य हेतुओं में दूसरा स्थान दिया है। व्युत्पत्ति के बल पर ही कोई व्यक्ति यह निर्णय कर पाता है कि किस स्थान पर किस शब्द का प्रयोग उचित होगा। सच तो यह है कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति समवेत रूप में ही काव्य रचना के हेतु हैं जैसे लावण्य के बिना रूप फीका लगता है वैसे ही रूप के बिना लावण्य भी आकर्षक नहीं लगता।

    व्युत्पत्ति दो प्रकार की होती है :-

    (1) शास्त्रीय

    शास्त्रीय व्युत्पत्ति शास्त्रों के अध्ययन से तथा लौकिक व्युत्पत्ति लोक के निरीक्षण से उत्पन्न होती है। प्रथम प्रकार की व्युत्पत्ति से जहाँ काव्य में सौंदर्य एवं व्यवस्था का समावेश होता है वहीं लौकिक व्युत्पत्ति से विषय की सम्यक् प्रस्तुति संभव होती है। कवि की अभिव्यक्ति दोषरहित, मार्मिक एवं प्रभावकारी तभी होती है जब वह लोक एवं शास्त्र की व्युत्पत्ति से युक्त हो।

    (2) लौकिक

    लोक और शास्त्र का अध्ययन कवि को त्रुटियों से बचाता है। वर्ण्य विषय का ज्ञान, ऋतु ज्ञान, देश ज्ञान, भौगोलिक जानकारी आदि से कविता में त्रुटि आने की संभावना नहीं रहती अन्यथा मूर्ख कवि रेगिस्तान में धान की खेती का वर्णन कर सकता है। शब्द शिल्प और भाषा पर अधिकार बहुज्ञता से ही होता है अतः कवि को निरंतर सजग रहने की आवश्यकता होती है तभी वह उत्तम काव्य की रचना करने में समर्थ हो पाता है।

    (3) अभ्यास

    काव्य निर्माण का तीसरा हेतु अभ्यास है। भामह ने लिखा है कि शब्दार्थ के स्वरूप का ज्ञान करके सतत अभ्यास द्वारा उसकी उपासना करनी चाहिए, साथ ही अन्य कवियों के कृतित्व का अध्ययन भी करना चाहिए। जिससे अभ्यास नित्यप्रति दृढ़ होता जाए। आचार्य वामन ने भी अभ्यास को महत्व देते हुए लिखा है—'अभ्यासोहि कर्मसु कौशलं भावहिति।' अर्थात् अभ्यास के द्वारा ही कवि कर्म में कुशलता प्राप्त की जा सकती है।

    आचार्य दंडी ने तो अभ्यास को ही काव्य का प्रमुख हेतु माना है। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति के अभाव में केवल अभ्यास से ही काव्य रचना में कोई कुशल हो सकता है। सरस्वती की साधना से और शास्त्रों के श्रवण से कोई भी व्यक्ति सफल कवि बन सकता है। दंडी की यह धारणा अन्य आचार्यों ने स्वीकार नहीं की। प्रतिभा के अभाव में काव्य रचना संभव ही नहीं है। फिर कोरा अभ्यास व्यक्ति को कैसे कवि बना सकता है, किंतु अभ्यास के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। प्रारंभ में प्रतिभा संपन्न कवि भी अच्छी कचित्ता नहीं लिख पाते। निरंतर अभ्यास से ही उनकी कविता निखरती है। जो कवि कीर्ति चाहते हैं उन्हें आलस्य को त्यागकर सरस्वती की उपासना करनी चाहिए और निरंतर कवि कर्म का अभ्यास करते रहना चाहिए।

    हिंदी के रीतिकालीन आचार्यों ने काव्य हेतुओं पर विचार तो किया है पर वे कोई नवीन उद्भावना नहीं कर सके।

    भिखारीदास 'कविता' करने की 'शक्ति' जन्मजात मानते हैं—सक्ति कवित्त बनाइवे की जिन जन्म नछत्र में दीनी विधाता।

    आचार्य श्रीपति ने अपने ग्रंथ 'काव्य सरोज' में काव्य हेतुओं का उल्लेख इस प्रकार किया है—

    शक्ति, निपुणता, लोकमत वित्पति अरु अभ्यास। 
    अरु प्रतिभा ते होत है ताको ललित प्रकास॥ 

    आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के अनुसार कवि के लिए जिस बात की सबसे अधिक ज़रूरत होती है, वह प्रतिभा है।

    डॉ. नगेंद्र 'प्रतिभा' को चेतना मानते हैं जो अनुभूति, चिंतन, विचार, संकल्प तथा कल्पना, आदि क्रियाएँ संपादित करती है।

    पाश्चात्य विचारकों ने भी अपने ढंग से काव्य हेतुओं पर विचार किया है।

    यहाँ कुछ प्रमुख मत प्रस्तुत हैं :-

    1. अरस्तू के अनुसार कवि की प्रतिभा जन्मजात होती है। कवि को वे A man of born talent मानते हैं।

    2. होरेतु इन्होंने प्रतिभा और अभ्यास को काव्य हेतु माना है—For my part I fail to see the use of study without wit or of wit without training.

    3. क्रोचे (Croce) ने स्वयं प्रकाश ज्ञान (Intu-tion) और बाह्यभिव्यंजना (Expression) की महत्ता स्वीकारते हुए काव्य हेतुओं में वस्तुतः 'प्रतिभा' और 'अभ्यास' को ही महत्व दिया है।

    4. टी. एस. ईलियट महान रचना तभी जन्म लेती जब प्रौढ़ सभ्यता, प्रौढ़ भाषा और प्रौढ़ कलाकार एक साथ जुड़े हों। प्रौढ़ता से उनका तात्पर्य 'अभ्यास' से हैं। 'प्रतिभा' की महत्ता भी उन्होंने स्वीकार की है।

    उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि प्रतिभा व्युत्पत्ति और अभ्यास ही प्रमुख काव्य हेतु हैं, किंतु प्रतिभा सर्वप्रमुख है जिसे व्युत्पत्ति और अभ्यास से निरंतर निखारा जा सकता है। वस्तुतः ये तीनों समन्वित रूप में हो काव्य के हेतु हैं जिन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार पानी को बार-बार छानने से वह निर्दोष हो जाता है और बर्तन को बार-बार माँजने से वह चमक उठता है उसी प्रकार व्युत्पत्ति और अभ्यास से प्रतिभा को निर्दोष और आकर्षक बनाया जा सकता है।

    काव्य प्रयोजन :

    काव्य प्रयोजन का तात्पर्य है 'काव्य रचना का उद्देश्य'। काव्य किस उद्देश्य से लिखा जाता है और किस उद्देश्य से पढ़ा जाता है इसे दृष्टिगत रखकर काव्य प्रयोजनों पर कवि और पाठक की दृष्टि से विस्तृत विचार-विमर्श काव्यशास्त्र में किया गया है। काव्य प्रयोजन काव्य प्रेरणा से अलग है, क्योंकि काव्य प्रेरणा का अभिप्राय है काव्य की रचना के लिए प्रेरित करने वाले तत्व जबकि काव्य प्रयोजन का अभिप्राय है काव्य रचना के अनंतर (बाद में) प्राप्त होने वाले लाभ। 

    काल-क्रमानुसार विभिन्न आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट काव्य प्रयोजन

    (1) भरत मुनि 'नाट्य शास्त्र' के रचयिता भरत मुनि ने नाटक के प्रयोजनों पर विचार करते हुए लिखा है— 

    धर्म्यं यशस्यम् आयुष्यं हितं बुद्धि विवर्धनम्। 
    लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति॥

    भरत मुनि द्वारा निर्दिष्ट इन प्रयोजनों में भौतिक प्रयोजनों का व्यापक उल्लेख है, किंतु काव्य का प्रधान उद्देश्य आनंद प्राप्ति है जिसका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया है। एक अन्य स्थान पर उन्होंने नाटक का उद्देश्य दुःखार्त व्यक्ति को सुख और शांति की प्राप्ति करना बताया है—

    दुखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्। 
    विश्रान्तिजननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति॥

    नाटक काव्य का ही एक रूप है अतः भरतमुनि द्वारा निर्दिष्ट इन प्रयोजनों को 'काव्य प्रयोजन' स्वीकार किया जा सकता है।

    (2) भामह

    आचार्य भामह ने अपने ग्रंथ काव्यालंकार में काव्य प्रयोजनों की चर्चा करते हुए लिखा है—

    धर्मार्थ काम मोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च। 
    करोति कीर्ति प्रीतिश्च साधुकाव्य निबन्धनम्॥

    अर्थातु धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति कलाओं में निपुणता के साथ-साथ उत्तम काव्य से कीर्ति और प्रीति (आनंद) की भी प्राप्ति होती है। भामह के प्रयोजन व्यापक है तथा इनमें कवि और पाठक दोनों के काव्य प्रयोजनों की चर्चा है।

    (3) आचार्य वामन वामन के अनुसार—

    काव्यं सद्द्रष्टा द्रष्टार्थ प्रीति-कीर्ति-हेतुत्वात्।

    अर्थात काव्य में दो प्रमुख प्रयोजन हैं :-

    1. प्रीति अथवा आनंद साधना जो काव्य का दृष्ट प्रयोजन है।

    2. कीर्ति अथवा यश प्राप्ति, जो काव्य का अदृष्ट प्रयोजन है।

    (4) आचार्य कुंतक वक्रोक्ति संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य कुंतक ने अपने ग्रंथ 'वक्रोक्ति जीवितम' में काव्य-प्रयोजनों का उल्लेख करते हुए कहा है—

    धर्मादि साधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः। 
    काव्यबन्योऽभिजातानां हृदयाह्लादकारकः॥

    अर्थात् काव्य धर्मादि सिद्धि का साधन होने के साथ-साथ आह्लाद उत्पन्न करने वाला होता है। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए वे यह भी कहते हैं—

    चतुर्वर्गफलास्वादमप्यातिक्रम्य तद्विदाम।
    काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते॥

    काव्य रूपी अमृत सहृदयों के अंत:करण में चतुर्वर्ग फलस्वाद से भी बढ़कर आनंद उत्पन्न करने वाला होता है। वे व्यवहार ज्ञान, आनंदोपलब्धि एवं पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि को काव्य प्रयोजन मानते हैं।

    (5) आचार्य मम्मट ने अपने ग्रंथ 'काव्यप्रकाश' में काव्य प्रयोजनों पर विस्तृत चर्चा की है। उनके अनुसार—

    काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारयिदे शिवेतरक्षतये। 
    सद्यः परिनिर्वृत्तये कान्तासम्मित तयोपदेशयुजे॥

    अर्थात् काव्य यश के लिए, अर्थ प्राप्ति के लिए, व्यवहार ज्ञान के लिए, अमंगल शांति के लिए, अलौकिक आनंद की प्राप्ति के लिए और कांता के समान मधुर उपदेश प्राप्ति के लिए प्रयोजनीय होते हैं।

    मम्मट ने मूलतः छः काव्य प्रयोजन बताए हैं जो निम्नवत हैं :-

    1.यश प्राप्ति, 2. अर्थ प्राप्ति, 3. लोक व्यवहार ज्ञान, 4. अनिष्ट का निवारण या लोकमंगल, 5. आत्मशांति या आनंदोपलब्धि, तथा 6. कांतासम्मित उपदेश। इनमें से काव्य की रचना करने वाले कवि के प्रयोजन हैं—यश प्राप्ति, अर्थ प्राप्ति, आत्मशांति तथा काव्य का अस्वादन करने वाले पाठक के काव्य प्रयोजन हैं—लोक व्यवहार ज्ञान, अमंगल की शांति, आनंदोपलब्धि और कांतासम्मित उपदेश। मम्मट के ये काव्य प्रयोजन अत्यंत व्यापक हैं।

    1. यश प्राप्ति : यश प्राप्ति की इच्छा से कविगण काव्य रचना में प्रवृत्त होते रहे हैं। अतः यश प्राप्ति को मम्मट ने काव्य का प्रमुख प्रयोजन माना है। काव्य रचना करके अनेक महाकवियों ने अक्षय यश प्राप्त किया है।

    रीतिकालीन कवि आचार्य कुलपति, दैव और भिखारीदास ने भी अपने काव्य प्रयोजनों में यश प्राप्ति को विशेष स्थान दिया है।

    2. अर्थ प्राप्ति : काव्य रचना का एक प्रयोजन धन प्राप्ति भी रहा है। धनोपार्जन की इच्छा से रीतिकालीन कवियों ने राजदरबारों में आश्रय ग्रहण किया। कहते हैं कि बिहारी को प्रत्येक दोहे की रचना के लिए एक अशर्फ़ी प्राप्त होती थी। आधुनिक युग में कवि सम्मेलनों में अनेक कवि अपनी कविताओं को गाकर, सुनाकर अच्छा-ख़ासा धन पैदा कर रहे हैं। इस प्रकार कविता धनोपार्जन का माध्यम बन गई है। इसीलिए संभवतः मम्मट ने अर्थ प्राप्ति को काव्य प्रयोजनों में स्थान दिया है।

    3. व्यवहार ज्ञान : आचार्य मम्मट ने व्यवहार ज्ञान को भी काव्य का प्रयोजन माना है। रामायण आदि महाकाव्यों के अनुशीलन से पाठकों को उचित व्यवहार की शिक्षा प्राप्त होती है। संस्कृत में बहुत-सा साहित्य इसी प्रयोजन को ध्यान मे रखकर लिखा गया था। पंचतंत्र, हितोपदेश, नीतिशतकं जैसे ग्रंथ व्यवहार ज्ञान की शिक्षा देने के लिए लिखे गए। काव्य के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि हम कैसा व्यवहार करें।

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने चिंतामणि में यह स्वीकार किया है कि काव्य से व्यवहार ज्ञान होता है—यह धारणा कि काव्य व्यवहार का बाधक है, उसके अनुशीलन से अकर्मण्यता आती है, ठीक नहीं। कविता तो भाव प्रसार द्वारा कर्मण्य के लिए कर्मक्षेत्र का और विस्तार कर देती है।

    4. शिवेतरक्षतये 'शिवेतर' का अर्थ है—अमंगल और 'क्षतये' का अर्थ है—विनाश। इसका तात्पर्य है कि काव्य अमंगल का विनाश करता है और कल्याण का विधान करता है। अपने युग और समाज को अनिष्ट से बचाने के लिए अनेक कवियों ने काव्य रचनाएँ लिखी हैं। कभी-कभी कवि व्यक्तिगत अमंगल को दूर करने के लिए भी काव्य रचना करता है।

    5. आत्मशांति : काव्य पढ़ने के साथ ही तुरंत आनंद का अनुभव होता है और परम शांति की प्राप्ति होती है। काव्य का रसास्वादन करने से अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है। वस्तुतः आनंदोपलब्धि ही काव्य का प्रमुख प्रयोजन है। काव्य का रसास्वादन करते समय पाठक को समाधिस्थ योगी के समान अलौकिक आनंद प्राप्त होता है। कुछ समय के लिए वह अपनी सत्ता को भूलकर काव्य के आनंद में लीन हो जाता है। इसीलिए काव्यानंद को 'ब्रह्मानंद सहोदर' कहा गया है। काव्य की रचना करके कवि को भी यही आनंद मिलता है और काव्य का रसास्वादन करके पाठक को भी ऐसे ही आनंद की अनुभूति होती है। इस प्रकार काव्य का प्रयोजन कवि और पाठक दोनों से संबंधित है। काव्य में डूबा हुआ मन साधारणीकरण की स्थिति में पहुँचकर रसमग्न हो जाता है और यही रसमग्नता आयु परमशांति अर्थात् आनंद प्रदान करती है। आचायों ने इसी कारण इस प्रयोजन को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन कहा है।

    6. कांता सन्मित उपदेश काव्य प्रियतमा के समान मधुर उपदेश देने वाला है।

    उपदेश तीन प्रकार के होते हैं :-

    1. प्रभु सम्मित उपदेश, 2. मित्र सम्मित उपदेश, तथा 3. कांता सम्मित उपदेश।

    वेदशास्त्रों का उपदेश प्रभु सम्मित (स्वामी के उपदेश) जैसा है। वह हितकर तो है पर रुचिकर नहीं। पुराणों इतिहास आदि का उपदेश मित्रतुल्य उपदेश है, जिसकी अवहेलना भी की जा सकती है, किंतु काव्य का उपदेश कांता सम्मित उपदेश है जो हितकर भी है, रुचिकर भी है और जिसकी अवहेलना भी नहीं की जा सकती।

    जिस प्रकार कांता (प्रेयसी) मधुर हावभावों से पुरुष को मुग्ध करके उसे अपनी इच्छानुकूल नीति मार्ग पर ले जाती है। उसी प्रकार काव्य भी मधुर कथा के द्वारा उच्च आदशों की शिक्षा देता है; जिस प्रकार मिठाई के लोभ में बालक कटु औषधि खा लेता है, उसी प्रकार रस के मधुर आस्वाद से मिश्रित शिक्षा काव्य द्वारा सरलता से कराई जा सकती है।

    हिंदी आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट काव्य प्रयोजन :

    हिंदी आचार्यों ने काव्य प्रयोजन पर जो विचार व्यक्त किए हैं वे प्रायः संस्कृत आचार्यों जैसे हैं। यहाँ हम कुछ प्रमुख उद्धरण प्रस्तुत कर रहे हैं :-

    गोस्वामी तुलसीदास के काव्य प्रयोजन-रामचरितमानस में तुलसीदास ने दो स्थानों पर काव्य प्रयोजनों की चर्चा की है :

    (i) स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा

    (ii) कीरति भनिति भूति भल सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होइ॥

    वे काव्य के दो प्रयोजन मानते हैं :-

    (a) स्वान्तः सुख, (b) लोक मंगल।

    वही कविता श्रेष्ठ होती है जो गंगा के समान सबका हित करने वाली हो।

    2. भिखारीदास द्वारा निर्दिष्ट काव्य प्रयोजन—

    एक लहैं, तप पुंजन के फल, ज्यों तुलसी अरु सूर गुसाईं। एक लहैं बहु संपत्ति केशव, भूषण ज्यों बर बीर बड़ाई॥ एकन्ह को जस-ही सों प्रयोजन, है रसखानि रहीम की नाई। दास कवित्तन्ह की चरचा बुद्धिवंतन को सुख वै सब ठाई॥

    यहाँ यश प्राप्ति, फल प्राप्ति, आनंद प्राप्ति आदि को काव्य प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया गया है।

    3. मैथिलीशरण गुप्त का मत—गुप्तजी काव्य का प्रयोजन केवल मनोरंजन नहीं अपितु उपदेश स्वीकार करते हुए लिखते हैं—केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए। उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत—आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने काव्य प्रयोजनों पर विस्तार से विचार किया है। वे काव्य का प्रमुख प्रयोजन रसानुभूति मानते हैं।

    कविता का अंतिम लक्ष्य जगत में मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उसके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन है।

    कविता से केवल मनोरंजन के उद्देश्य का विरोध करते हुए वे लिखते हैं—मन को अनुरंजित करना उसे सुख या आनंद पहुँचाना ही यदि कविता का अंतिम लक्ष्य माना जाए तो कविता भी विलास की एक सामग्री हुई।...काव्य का लक्ष्य है जगत और जीवन के मार्मिक पक्ष को गोचर रूप में लाकर सामने रखना।

    प्रसिद्ध विद्वान आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्य का लक्ष्य मानव हित एवं लोकमंगल मानते हैं। उनके अनुसार—मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता, परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न कर सके, जो उसे परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।”

    प्रेमचंद भी काव्य या साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन नहीं मानते। उनके अनुसार साहित्य का लक्ष्य मानव विवेक को जाग्रत करना है—साहित्य का उद्देश्य हमारा मनोरंजन करना नहीं है। यह काम तो भाटों, मदारियों, विदूषकों और मसखरों का है। साहित्यकार का पद इनसे बहुत ऊँचा है। वह हमारे विवेक को जाग्रत करता है, हमारी आत्मा को तेजोद्दीप्त बनाता है।

    पाश्चात्य समीक्षाशास्त्र में काव्य प्रयोजन पर कला के संदर्भ में विचार किया गया है। इस संबंध में दो प्रमुख मत हैं।

    कलावादियों के अनुसार कला का एकमात्र प्रयोजन सौंदर्य सृष्टि है और इसीलिए वे कला कला के लिए सिद्धांत के समर्थक हैं, जबकि उपयोगितावादियों के अनुसार कला का उद्देश्य लोकहित का विधान करना है।

     

    रस सिद्धांत :

    रस' शब्द के विभिन्न अर्थ

    यह उल्लेख्य है कि 'रस' शब्द काव्यानंद का पर्याय तो है ही, साथ ही यह शब्द अन्य तीन अर्थों में कुल मिलाकर निम्नोक्त चार अर्थों में प्रयुक्त होता है।

    1. पदार्थों का रस, अर्थात, मधुर अम्ल, लवण, कटु कषाय और तिक्त ये षडस्स अथवा 'आस्वाद'।

    2. आयुर्वेद का रस, अर्थात् किसी एक अथवा अनेक ओषधियों से आयुर्वेदीय प्रक्रिया द्वारा तैयार किया गया द्रव। यह द्रव (स्स) भी उपर्युक्त मधुर आदि छह आस्वादों में से किसी एक अथवा एकाधिक आस्वाद से युक्त होता है, पर इसमें रोग विनाशक अथवा शक्तिदायक गुण भी रहता है। वैदिक कालीन 'सोमस्स' में प्रयुक्त 'स्स' शब्द इसी औषधीय गुण का द्योतक है।

    3. साहित्य का रस काव्य का रस जिसे काव्य सौंदर्य, काव्यास्वाद काव्यानंद तथा काव्याहलाद भी कहते हैं। यही 'स्स' ही हमारा वर्णनीय विषय है। इस पर आगे प्रकाश डाला जा रहा है।

    4. मोक्ष या भक्ति का रस या ब्रहमानंद आत्मा द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का आनंद जो आत्मानंद का वाचक होता है। उल्लेख्य है कि काव्य रस को 'ब्रह्मानंद-सहोदर' कहा भी गया है।

     

    रस के अंग रसाभिव्यक्ति के साधन :

    रस निष्पत्ति के संबंध में भरत का प्रख्यात सिद्धांत-कथन (सूत्र) है विभावानुभाव व्यमिचारिसंयोगाद्र रसनिष्पत्तिः। इस कथन का तात्पर्य यह है कि स्थायी भाव का संयोग जब विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव अथवा संचारी भाव से होता है तो स्थायी भाव 'रस' रूप में निष्पन्न हो जाता है। ये चारों रस के अंग कहलाते हैं। अब इनका स्वरूप प्रस्तुत है—

    1. स्थायी भाव : सहृदय के अंत:करण में जो मनोविकार वासना रूप से सदा विद्यमान रहते हैं तथा जिन्हें अन्य कोई भी अविरूद्ध अथवा विरुद्ध भाव दबा नहीं सकता उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। यह स्थायी भाव ही (रस रूप) आस्वाद का अंकुरकंद अर्थात् मूलभूत है।'

    जिस प्रकार मिट्टी में पूर्व-विद्यमान गंध जल का संयोग पाकर प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार स्थायी भाव विभाव, अनुभाव और व्यभिवारी भाव के संयोग से व्यक्त होने पर साहित्यिक भाषा में 'रस' नाम से पुकारे जाते हैं। जिस प्रकार किसी खट्टे पदार्थ के संयोग से दूध 'दही' के रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार विभाव आदि के संयोग से स्थायी भाव अपने चर्व्यमाण रूप में परिणत होकर 'रस' नाम से अभिहित होते हैं।

    स्थायी भावों की संख्या सामान्यतः नौ मानी जाती है रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, विस्मय और निर्वेद। कई आचार्य निर्वेद को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार स्थायी भाव आठ हैं। ये क्रमशः निम्नोक्त रसों के रूप में निष्पन्न (अथवा अभिव्यक्त) होते हैं—शृंगार, हास्य, करूण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स, अ‌द्भुत और शांत। इनके अतिरिक्त एक अन्य रस वत्सल रस भी माना जाता है जिसका स्थायी भाव 'वात्सल्य' है।

    2. विभाव : रस के कारण को विभाव कहते हैं। लोक में जो पदार्थ सामाजिक के हृदय में वासना रूप से स्थित रति, उत्साह, शोक आदि भावों के उ‌द्बोधक हैं, वे काव्य-नाटकादि में वर्णित होने पर शास्त्रीय शब्दों में विभाव कहलाते हैं। विभाव के दो भेद हैं :- आलंबन विभाव और उद्दीपन विभाव।

    क) आलंबन विभाव काव्य-नाटकदि में वर्णित जिन पात्रों को आलंबन करके सामाजिक के रत्यादि स्थायी भाव स्सरूप में अभिव्यक्त (परिणत) होते हैं, उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं, जैसे शृंगार रस में नायक नायिका आदि। आलंबन-विभाव के दो भेद हैं, विषय और आश्रय। विषय को 'आलंबन' भी कहते हैं। जिस पात्र के प्रति किसी के मन में भाव जागरित होते हैं वह आश्रय कहलाता है, उदाहरणार्थ, 'अभिज्ञान शकुंतलम्' नाटक में दुष्यंत के मन में शकुंतला को देखकर भाव रति भाव जागृत होता है। शांकुतला को 'आलंबन' कहेंगे और दुष्यंत को 'आश्रय'।

    ख) उद्दीपन विभा वे कहलाते हैं जो रस को उद्दीप्त करते हैं—अर्थात् जो रत्यादि स्थायी भावों को उद्दीप्त करके उनकी आस्वादन योग्यता बढ़ाते हैं और इस प्रकार उन्हें रसावस्था तक पहुँचाने में सहायक होते हैं।

    उद्दीपन विभाव दो प्रकार के माने गए हैं :- (1) आलंबन-गत चेष्टाएँ, (2) बाह्य वातावरण। उदाहरण के रूप में, शृंगार रस में दुष्यंत (आश्रय) के रतिभाव को अधिक तीव्र करने वाली शकुंतला (आलंबन) की कटाक्ष, भुजा-विक्षेप आदि चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव कहलाती हैं। इसी प्रकार शृंगार रस में नदी तट, पुष्पवाटिका, चाँदनी रात इत्यादि बाह्य वातावरण, जोकि आश्रय के स्थायी भावों को उद्दीपन करता है, 'उद्दीपन विभाव' कहलाता है।

    3. अनुभाव : रत्यादि स्थायी भावों को प्रकाशित करने वाली आश्रय की बाह्य चेष्टाएँ जो लोक में कार्य कही जाती हैं, काव्य-नाटक में वर्णित अथवा दर्शित होने पर अनुभाव कहलाती हैं। उदाहरणार्थ विप्रलम्भ शृंगार में विरह-व्याकुल नायक द्वारा सिसकियों भरना, अपने बाल नोचना, आँखों फाड़े शून्य की ओर ताकना आदि बाह्य चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं। इसी प्रकार संयोग शृंगार में रति जागरित होने पर दुष्यंत का सानुराग अवलोकन, अंगसंचालन् भ्रूविक्षेप इत्यादि ये सभी आश्रयगत बाह्य चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती है। अनुभाव के चार रूप माने गए हैं आंगिक, वाचिक, आहार्य (वेशभूषा) और सात्विक। सात्विक भाव आठ माने गए हैं—स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु, वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय। अनुभाव के उक्त चार रूपों में से प्रथम तीन अनुभाव 'यत्नज' कहलाते हैं, क्योंकि नाटक में तो इनके निर्वहण में आश्रय को चेष्टा करनी पड़ती उदाहरणार्थ कुद्ध परशुराम द्वारा कुल्हाड़ा उठाना आदि बाह्य चेष्टाएँ आंगिक अनुभाव हैं, आँखें लाल हो जाना आदि सात्त्विक अनुभाव।

    4. संचारी भाव (व्यभिचारी भाव) अस्थिर मनोविकार अथवा चित्तवृत्तियाँ 'संचारी भाव' कहलाती हैं, ये विकार आश्रय और आलंबन के मन में उन्मग्न और निर्मग्न होते रहते हैं। संचारी शब्द का अर्थ है साथ-साथ चलना तथा संचरणील होना।

    संचारी भाव स्थायी भावों के सहकारी कारण हैं, उन्हें रसावस्था तक ले चलते हैं, पर स्वयं बीच में जलतरंगवत् आविर्भूत तथा तिरोभूत होते रहते हैं।

    'संचारी भाव, मन के विकार हैं, ये शरीर के धर्म नहीं है। यद्यपि मनोविकारों की कोई संख्या नियत नहीं की जा सकती, तथपि सुविधा के लिए संचारी भावों की संख्या 33 निर्धारित की गई है निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, चिंता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीड़ा, चापल्य, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क। किंतु संचारी भावों की यह 33 संख्या कम से कम संख्या की ही द्योतक है, संचारी भाव तो अनंत हो सकते हैं। स्वयं इन 33 संचारी भावों के पारस्परिक मिश्रण से ही यह संख्या सहस्रों तक पहुँच सकती है। संचारी भावों को 'व्यभिचारी भाव' भी कहते हैं, क्योंकि ये प्रत्येक स्थायी भाव के साथ विशेष रूप से अभिमुख होकर उसके अनुकूल (सहायक) बन कर चलते हैं। प्रत्येक स्थायी भाव का रस नियत है, पर प्रत्येक संचारी भाव का स्थायी भाव नियत नहीं है। एक संचारी भाव कई स्थायी भावों के साथ अभिमुख होकर चलता है, अतः यह 'व्यभिवारी भाव' भी कहलाता है।

    अंततः उल्लेख्य है कि रसास्वादन-प्रक्रिया में यद्यपि विभाव, अनुभाव और व्यमिचारीभाव खंडशः एक-एक करके प्रतीत होते हैं (यह अलग प्रश्न है कि उनकी यह खंडशः प्रतीति अति त्वरित होने के कारण लक्षित नहीं होती); पर रस-प्रतीति में ये तीनों अखंड एवं संश्लिष्ट रूप में ही सहायक होते हैं, तभी रस को भी 'अखंड' अथवा 'विभादिसमूहालंबनात्मक' माना गया है।

    इसके अतिरिक्त रस-प्रतीति में विभावादि समान रूप से सहायक होते हैं। यही कारण है कि किसी रचना में विभावादि में से केवल, किसी एक का वर्णन होने पर भी शेष दो भावों की समान रूप से आक्षेप द्वारा स्वतः प्रतीति होने पर ही रसचर्वणा संभव है, अन्यथा नहीं।

    निष्कर्ष यह कि लौकिक कारण, कार्य, और सहकारी कारण काव्य-नाटक में, व्यंजना वृत्ति के बल पर, क्रमशः विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव नामों से अभिहित होते हैं। ये विभावादि सहृदय के स्थायी भावों को जब भाव के भोग या चर्व्यमाण स्थिति तक पहुँचा देते हैं, तो इन्हें 'रस' नाम से पुकारा जाता है।'

    काव्यशास्त्र में 'रस' शब्द से तात्पर्य है काव्य-सौंदर्य का आस्वादन। इस आस्वादन में बाधा डालने वाली स्थिति को 'रस विघ्न' नाम दिया गया है। रस विघ्न के आठ प्रकार हैं रस-दोष, भाव-दोष, रसाभास, भावाभास, भावोदय, भावसंधि, भावशबलता और भावशांति। भारतीय काव्यशास्त्र में रस-विघ्न के कारणों का विवेचन कवि और सहृदय दोनों की दृष्टियों से किया गया है। 'रस' व्यवहार का अनौचित्य 'रस विध्न' कहलाता है।

    रस-दोष : 'रस' अथवा भाव का अपने वाचक शब्द द्वारा कथन रसास्वाद में बाधा उत्पन्न करता है। इसके पीछे तर्क यह है कि काव्य में रस अथवा भाव की व्यंजना होती है, कथन की नहीं। कथन तो दोष है। जैसे 'साकेत में यह तथ्य कथन कौशल्या क्या करती थी, चुप-चुप धीरज धरती थी यहाँ धृति का कथन है अभिव्यक्ति नहीं। इसलिए रस-दोष है।

    भाव-दोष : भाव का अपर्याप्त कथन भाव-दोष है। प्रायः इसमें विभाव की स्थिति गड़बड़ होती है। अनुचित आलंबन के प्रति झुकाव भाव-दोष है, जैसे पुरुष का बकरी के प्रति रतिपरक आकर्षण।

    रसाभास और भावाभास जहाँ रस अथवा भाव की व्यंजना में किसी कारणवश अनौचित्य झलकने लगे, वहाँ क्रमशः रसाभास अथवा भावाभास माना जाता है। उदाहरणार्थ—

    1. नायिका का उपनायक-विषयक अथवा बहुपुरूष-विषयक प्रेम।

    2. एक नर का, अथवा नरों का, एक समय पर अथवा अनेक समयों पर बहुत-सी नारियों से प्रेम।

    3. उभयनिष्ठ रति न होना, अर्थात् नायक या नायिका में से केवल एक का दूसरे के प्रति प्रेम-वर्णन।

    4. श्रेष्ठ का नीच के प्रति अथवा नीच का श्रेष्ठ के प्रति प्रेम वर्णन।

    5. नायिका द्वारा मान करने के अनंतर मानशंति न होना।

    6. पशु-पक्षी विषयक प्रेम, आदि।

    ज्ञातव्य है कि स्थायी भाव की अनौचित्यपूर्ण अभिव्यक्ति में रसाभास माना जाएगा और संचारी भाव की अनौचित्यपूण अभिव्यक्ति में भावाभास।

    भावोदय, भावसंधि और भावशबलता जहाँ एक भाव का उदय (वर्णन) हो वहाँ भावोदय माना जाता है, जहाँ दो भावों का वर्णन हो वहाँ भावसंधि और जहाँ दो से अधिक भावों का वर्णन हो वहाँ भावशबलता मानी जाती है।

    भावशांति—जहाँ एक भाव उदित, होकर शांत हो जाए।

    संस्कृत-काव्यशास्त्र के इतिहास में रस आदि से अंत तक किसी न किसी रूप में निरूपित होता रहा है। आद्याचार्य भरत ने रस-विषयक प्रायः सभी सामग्री साक्षात् रूप से अथवा प्रकारांतर से प्रस्तुत की थी। उन्होंने अपने प्रख्यात ग्रंथ 'नाटयशास्त्र' के छठे और सातवें अध्याय में रस और भाव का विवेचन किया है।

    रस के संबंध में उनके प्रख्यात कथन सूत्र :

    1. 'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति' का आशय यह है कि सहृदय के हृदय में वासना-रूप से स्थित रति आदि स्थायी भावों का संयोग अब काव्य-नाटक में वर्णित विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव से हो जाता है तो स्थायी भाव रस-रूप में ऐसे निष्पन्न (अभिव्यक्त) हो जाता है जैसे दूध खट्टे पदार्थ के संयोग से दही, पनीर आदि के रूप में परिणत हो जाता है रति नामक स्थायी भाव शृंगार रस के रूप में, शोक नामक स्थायी भाव करुण रस के रूप में निष्पन्न (अभिव्यक्त) हो जाता है। उल्लेख्य है कि उक्त कथन की व्याख्या परवर्ती अनेक आचार्यों ने की। इनमें से चार आचार्यों के नाम अति विख्यात हैं—भट्ट लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, और अभिनवगुप्त।

    2. भरत ने मूल रस चार माने हैं शृंगार, रौद्र, वीर और वीभत्स। फिर इनसे उन्होंने क्रमशः हास्य, करूण, अ‌द्भुत और भयानक रसों की उत्पत्ति मानी है।

    3. उन्होंने भावों की संख्या निम्नोक्त रूप में 49 बताया है 8 स्थायी भाव, 33 व्यभिचारी भाव, और 8 सात्त्विक भाव। 8 स्थायी भावों के अनुसार उन्होंने 8 रस माने हैं, किंतु 'नाटयशास्त्र' के एक संस्करण में निर्वेद नामक नवाँ स्थायी भाव भी स्वीकार किया गया है तथा इसके भी अनुसार एक अन्य नवाँ रस शांत रस भी माना गया है। 

    4. उन्होंने रस के विषय में यह प्रश्न भी उठाया है कि इसे 'आस्वाद' माने अथवा 'आस्वाद्य'। पर वे रस को आस्वाद ही मानते हैं न कि आस्वाद्य। भोजन की सामग्री आस्वाद्य (आस्वादनीय, भोत्य) कहलाती है, और इसे खाने के आनंद को आस्वाद कहते हैं। भरत की दृष्टि में रस की विभाव आदि सामग्री तो आस्वाद्य है, पर इसकी निष्पत्ति आस्वाद (काव्यानंद) में होती है।

    5. शृंगार रस के आलंबन विभाव के प्रसंग के अंतर्गत उन्होंने नायक-नायिका भेद का वर्णन किया है।

    6. अलंकार, गुण, दोष, वर्णयोजना और छंद के प्रसगों में उन्होंने निर्दिष्ट किया कि इनका प्रयोग रस को लक्ष्य में रखकर करना चाहिए।

    भरत के पश्चात् भामह-पर्यंत काव्यशास्त्र का लिखित इतिहास नहीं मिलता। भामह, दंडी और उ‌द्भट यद्यपि अलंकारवादी थे, फिर भी इन्होंने रस को समुचित स्थान देते हुए रसवत्, प्रेमस्वत् ऊर्जस्वि और समाहित अलंकार माने जो कि रस से संबंधित हैं। भामह और दंडी ने तथा आगे चलकर वामन ने रस को महाकाव्य के लिए एक आवश्यक तत्व के रूप में स्वीकृत किया। भामह का कथन है कि 'कटु ओषधि के समान शास्त्रचर्चा भी रस के संयोग से मधुवत् बन जाती है।'

    वामन ने निर्दिष्ट किया कि वैदर्भी आदि वृत्तियों का प्रयोग रस के अनुकूल करना चाहिए। उन्होंने शृंगार रस का प्राधान्य स्वीकार किया और कवियों को स्स के लिए प्रयत्नशील रहने का आदेश दिया। इनके अनंतर आनंदवर्धन ने रस के प्रति आदर प्रकट करते हुए अनेक कथन प्रस्तुत किए।

    1. रस के संपर्क से प्रचलित अर्थ उस प्रकार नूतन रूप में आभासित होने लगते हैं जिस प्रकार वसंत के संपर्क से दूमाँ।

    2. ध्वनि-तत्व के अनेक भेदों के होने पर भी कवि को केवल रसादिमय ध्वनि-काव्य में ही अवधानवान् रहना चाहिए।

    (ध्वन्यालोक) 

    इनके बाद कुंतक ने रस को काव्य का अमृत एवं अंतश्चमत्कार का वितानक मानते हुए प्रकारांतर से इसे सर्वप्रमुख काव्य-प्रयोजन के रूप में घोषित किया। उन्होंने रस को प्रबंधवक्रता के लिए अनिवार्यतः स्वीकार किया।


    अग्निपुराणकार के अनुसार काव्य में यद्यपि वाणी की विदग्धता की प्रधानता (अनिवार्यता) रहती है, तथापि उसका जीवित (आत्मा) तो रस ही है—वाम्वैध्यप्रधानेऽपि रस एवाऽत्र जीवितम्।

    इसके अतिरिक्त दंडी और विश्वनाथ के बीच काव्य-पुरुष-रूपक भी सुलझता और स्थिर होता चला गया, और काव्य के समी प्रमुख तत्व अलंकार, गुण, रीति, दोष किसी न किसी रूप से रस से ही संबंध कर दिए गए, जैसे कि अलंकार और गुण को नित्य रूप से। इसी प्रकार रीति को भी रस की अंतर्गत माना गया गुणों के अभिव्यंजक वर्णों के माध्यम से। इतना ही नहीं, दोष को तभी स्वीकार किया गया जब वह रस का अपकर्षक हो, अन्यथा नहीं। आगे चलकर विश्वनाथ ने तो रस को ही काव्य की आत्मा घोषित करते हुए काव्य लक्षण को रस पर आधारित कर दिया 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्'। इससे रस की महता और भी अधिक बढ़ गई।

    हिंदी में रस-विवेचन

    रीतिकाल के आचार्य कवि तो संस्कृत के आचार्यों के 'रस निरूपण' से संबंधित विचारों का ही हिंदी अनुवाद करते रहे। किंतु हिंदी के आधुनिककाल में रस और रस सिद्धांत पर नवीन दृष्टियों से विचार किया गया है।

    रीतिकाल में चिंतामणि, कुलपति, देव, भिखारीदास, श्रीपति, सोमनाथ, प्रतापसिंह आदि अनेक आचार्यो ने मम्मट-रचित 'काव्य प्रकाश' और विश्वनाथ-रचित 'साहित्यदर्पण' के आधार पर रसों के अंगों स्थायी भाव तथा विभावादि पर प्रकाश डालते हुए रस के स्वरूप को भी उजागर किया। इस प्रसंग में कुलपति का यह कथन देखिए जिसमें उन्होंने रस को अलौकिक, आनंदस्वरूप तथा ब्रह्मास्वाद-सहोदर माना।

    रीतिकालीन आचार्यों की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता है कि इनमें से अधिकांश ने शृंगार रस के आलंबन-विभाव के अंतर्गत नायक-नायिका-भेद का प्रतिपादन करते हुए इनके स्वरचित उदाहरण प्रस्तुत किए है। ये उदाहरण अति सरस तथा विपुल मात्रा में हैं, और इनमें से अधिकतर में जीवन के मार्मिक पक्षों का उ‌द्घाटन है। इस प्रसंग में कुछ एक आचार्यों ने (जैसे तोष, रसलीन, भिखारीदास आदि ने) उस युग के अनुकूल नायक एवं नायिका के कुछ नवीन भेद अवश्य जोड़े, पर कुल मिलाकर इन आचार्यों का लक्षण पक्ष शास्त्रीय दृष्टि से प्रायः शिथिल है। इसका कारण यह कि ये तथाकथित आचार्य मूलतः कवि थे और विभिन्न विषयों से संबंधित पधों की रचना करने के उद्देश्य से इन्होंने काव्यशास्त्रीय अंगों का सहारा लिया।

    आधुनिक काल

    इधर आधुनिक काल में आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, डॉ. श्यामसुन्दरदास, अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध', बाबू गुलाबराय, जयशंकर प्रसाद, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. नगेंद्र ने रस का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए रस को चाहे वह शृंगार, हास्य आदि रस हों अथवा करुण, बीभत्स आदि सब को आनंदस्वरूप माना है। किंतु आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कविता क्या है नामक निबंध में करूण रस में आनंद-प्राप्ति को अस्वीकार करते हुए अपना यह प्रख्यात कथन प्रस्तुत किया है 'जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है।' (चिंतामणि, भाग-1, पृ. 141 तथा 247) उन्हीं के शब्दों में उक्त कथन से उनका तात्पर्य यह है कि रस दशा में अपनी पृथक सत्ता की भावना का परिहार हो जाता है, अर्थात् काव्य में प्रस्तुत विषय को हम...निर्विशेष, शुद्ध और मुक्त हृदय द्वारा ग्रहण करते है इसी को पाश्चात्य समीक्षा पद्धति में अहं का विसर्जन और निःसंगता कहते हैं। इसी को चाहे रस का लोकोत्तर या ब्रह्मास्वादसहोदरत्व कहिए, चाहे विभावन-व्यापार का अलौकिकत्व।' (चिंतामणि, भाग-1, पृ.141 तथा 247)

    उपर्युक्त दोनों कथनों से आचार्य शुक्ल का अभिप्राय यह है कि काव्य अथवा नाटकों में कालिदास आदि रचनाकारों द्वारा दुष्यंत, शकुंतला आदि पात्र अनुकार्य अर्थात् वास्तविक पात्र अपने युग के पात्र नहीं होते, वे अनुकार्य के आधार पर रचनाकारों द्वारा निर्मित किए गए होते हैं मानो वे रचनाकारों के मानस पुत्र हों। जब हम इन कृतियों को पढ़ते हैं तो उस समय हम किसी विशेष भावना से चाहे यह धार्मिक हो या राजनीतिक संवलित नहीं होते। उस समय हमारा हृदय अपने पराए की भेद बुद्धि से मुक्ति या निर्विशेष होता है, शुद्ध और मुक्त होता है।

    परिणामतः रचनाकार की युगीन मानसिकता के अनुरूप वाल्मीकि के राम हमारे लिए महान मानव होते हैं, तुलसी के राम भगवान और माइकेल मधुसूदन दत्त के राम अति सामान्य जन होते है।

    इस प्रकार आचार्य शुक्ल शृंगार तथा करुण दोनों प्रसंगों में रस को लौकिक आनंद नहीं कहते, न लोकोंतर आनंद कहते हैं। वे रस को ऐसा आस्वाद अनुभव या हृदय की मुक्तावस्था स्वीकार करते हैं जिसमें पाठक अथवा दर्शक का मन रजोगुण और तमोगुण से अस्पृष्ट होकर प्रायः सत्वगुण से युक्त हो जाता है 'रजस्तमोभ्याम् अस्पृष्टं मनः सत्वमिहोच्यते, और इसी अवस्था में वह सामान्य मानव न कहा जाकर 'सहृदय' कहलाता है और लोकोत्तर आनंद को प्राप्त करता है।

    इसी प्रसंग में डॉ. नगेंद्र का प्रख्यात कथन है 'काव्यानुभूति में एक ओर ऐंद्रिय अनुभूति की स्थूलत एवं तीव्रता (ऐंद्रियता एवं कटुता) नहीं होती और दूसरी ओर बौद्धिक अनुभूति की अरूपता नहीं होती, और इसलिए—वह (काव्यानुभूति) पहली से (ऐन्द्रिय अनुभूति से) अधिक शुद्ध परिष्कृत तथा दूसरी से (बौद्धिक अनुभूति से) अधिक सरस होती है।' (रस सिद्धांत, पृ.119) इस कथन से डॉ. नगेंद्र का अभिप्राय यह है कि काव्य की अनुभूति एक ओर तो लौकिक अनुभूति से अर्थात् लौकिक प्रेमी एवं प्रेमिका की रति से जन्य अनुभूति से अथवा दो अभिन्न मित्रों के स्नेह से जन्य अनुभूति से अथवा पुत्र के प्रति वात्सल्य से जन्य अनुभूति से भिन्न होती है; और दूसरी ओर यह (काव्य अनुभूति) बौद्धिक अनुभूति से, अर्थात् विभिन्न शास्त्रों, विज्ञान के सिद्धांतों, गणित के फ़ार्मूलों को रचने अथवा पढ़ने से प्राप्त अनुभूति से भी भिन्न होती है।

    इस प्रकार काव्य की अनुभूति (क) लौकिक अनुभूति की अपेक्षा अधिक शुद्ध-परिष्कृत होती है, तथा (ख) बौद्धिक अनुभूति की अपेक्षा अधिक सरस।

    निष्कर्ष-स्वरूप डॉ. नगेन्द्र काव्य द्वारा प्राप्त अनुभूति (आनंद अथवा रस) को लौकिक और बौद्धिक अनुभूतियों (आनंदों) से उत्कृष्ट मानते हैं। उधर भारतीय काव्यशास्त्र भी इसी कारण रस को 'लोकोत्तर' कहते है। लोकोत्तर का अर्थ है लोक से ऊपर उठा हुआ उदात्त अनुभव!

     

    अलंकार-सिद्धांत (अलंकार संप्रदाय) :

    'अलंकार' शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ अलंकार' शब्द की व्युत्पत्ति प्रायः दो प्रकार से की जाती है :- करणपरक और भावपरक।

    1. करणपरक करण अथवा उपकरण कहते हैं साधन (इन्स्ट्रूमेंट) को जिसके द्वारा कोई कार्य किया जाता है। 

    (क) 'अलक्रियतेऽनेन इति अलंकार' अर्थात जिसके द्वारा अलंकृत किया जाता है, शोभा की जाती है, अथवा (ख) 'अलंकरोति इति अलंकार अर्थात् जो अलंकृत करता है, शोभित करता है। इस प्रकार की व्युत्पत्ति करणपरक मानी जाती है।

    2. भावपरक यहाँ 'भाव' शब्द से तात्पर्य है सिद्धि। 'अलंकृतिः अंलकार' अर्थात् अलंकरण (शोभा, सौंदर्य, सजावट) को अलंकार कहते हैं। इस प्रकार की व्युत्पत्ति को भावपरक माना जाता है।

    अलंकारवादी आचार्य और इनका अलंकार-सिद्धांत

    भरत के 'नाट्यशास्त्र' में हमें केवल चार अलंकारों के नाम मिलते हैं—उपमा, रूपक, दीपक और यमक। भरत के बाद इस दृष्टि से भामह (छठी शती) का नाम उल्लेखनीय है। इन्हें (अलंकार सिद्धांत) का प्रवर्तक माना जाता है। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम है 'काव्यालंकार'। भामह ने 37 अलंकारों का निरूपण किया तथा अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व घोषित किया। भामह का अनुकरण दंडी ने किया और भामह और दंडी का उ‌द्भट ने इन तीनों अलंकारवादी अचार्यों की मान्यताओं से स्पष्ट है कि वे अलंकार को काव्य का सर्वस्व एवं अनिवार्य तत्व स्वीकार करते थे—

    1.भामह ने अलंकार को काव्य का एक आवश्यक सौंदर्य-विधायक या आभूषक तत्व मानते हुए कहा कि—

    क) अनेक आचार्यों द्वारा प्रस्तुत रूपक आदि अलंकार काव्य में आवश्यक हैं। जिस प्रकार किसी नारी का सुंदर मुख भी आभूषणों के बिना शोभित नहीं होता उसी प्रकार अलंकार के बिना कविता सुशोभित नहीं होती—रूपकादिरलंकारस्तथान्दयैर्बहुधोदितः।

    आभूषणों के बिना सुंदर स्त्री के चेहरे पर भी चमक नहीं आती ('काव्यलंकार' भामह, 1.13)

    ख) अर्थ-मर्मज्ञों की वाणी अलंकारों के द्वारा उस प्रकार शोभित होती है, जिस प्रकार नारी आभूषणों से शोभित होती है। अनेन वागर्थविदामलंकृता वह स्त्रियोचित जले हुए श्रृंगार से चमकती है। ('काव्यलंकार, भामह, 3.58)

    2. ये आचार्य काव्य के सभी शोभाकर धर्मों को 'अलंकार' नाम से अभिहित करने के पक्ष में हैं। दंडी के शब्दों में 'काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारन प्रचक्षते।' (काव्यादर्श 2.1) इसका तात्पर्य यह है कि अनुप्रास, उपमा आदि तो अलंकार हैं ही गुण, रस, ध्वनि आदि अनेक काव्य-तत्व भी इसी नाम से अभिहित होते हैं। ये आचार्य रस को रसवद अलंकार कहते हैं, भाव को प्रेयस्वद् अलंकार रसाभास तथा भावाभास को ऊर्जस्यि अलंकार तथा भावशांति को समाहित अलंकार। इसी प्रकार इन तीनों आचार्यों के अनुसार गुण, ध्वनि, प्रबंधकाव्यत्व, नाट्यसंधि आदि भी 'अलंकार' नाम से अभिहित होते हैं।

    निष्कर्षत: अलंकारवादियों के मत में

    'अलंकार' व्यापक अर्थ का द्योतक है, संकुचित अर्थ का नहीं। अर्थात् 'अलंकार' काव्य-सौंदर्य या काव्य-चमत्कार के उत्पादक सभी प्रकार के साधनों का वाचक है, केवल अनुप्रास, उपमा आदि का नहीं। और इसी कारण, 'अलंकार' काव्य का अनिवार्य साधन है चाहें तो परवर्ती शब्दावली में कह सकते है कि अलंकारवादी आचार्यों को यह स्वीकृत था कि 'अलंकार काव्य की आत्मा है', यद्यपि उन्होंने 'आत्मा' शब्द का कहीं इस अर्थ में प्रयोग नहीं किया। पर वे 'अलंकार' को ही काव्य का प्राण-तत्व मानते थे।

    अलंकार के प्रकार

    काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्वों को अलंकार कहते हैं। मुख्यतः अलंकार के तीन प्रकार है :-

    1) शब्दालंकार

    2) अर्थालंकार

    3) उभयालकार

    जब कुछ विशेष शब्दों के कारण काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है, तो वहीं शब्दालंकार होता है।

    जहाँ कथन में अर्थगत सौंदर्य होता है, उसे अर्थालंकार कहते हैं। कहीं-कहीं कथन में शब्दगत और अर्थगत दोनों प्रकार का सौंदर्य होता है तो वहीं उभयालंकार होता है।

    शब्दालंकार :

    परिभाषा एवं प्रकार

    जिस अलंकार में शब्दों के द्वारा कोई चमत्कार उत्पन्न होता है और उन शब्दों की जगह यदि समानार्थी दूसरे शब्दों को रखने से वह चमत्कार समाप्त हो जाता है अर्थात् भाषा के सौंदर्य को बढ़ाने वाले शब्दालंकार होते हैं।

    शब्दालंकार के प्रमुख रूप है :-

    1) अनुप्रास

    2) यमक

    3) वक्रोक्ति

    4) श्लेष

    5) चित्र

    6) पुनरुक्ति

    7) वीप्सा

    1.अनुप्रास : वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते हैं अर्थात् जहाँ बार-बार समान वर्णों की आवृत्ति हो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। अनु अर्थात् बार-बार एवं प्रास अर्थात् पास-पास रखना।

    अनुप्रास के पाँच भेद होते हैं :-

    1) छेकानुप्रास

    2) वृत्यनुप्रास

    3) श्रुत्यनुप्रास

    4) लाटानुप्रास

    5) अन्त्यानुप्रास

    छेकानुप्रास : जहाँ एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति केवल एक बार होती है, यहाँ छेकानुप्रास होता है।

    वृत्यनुप्रास : जहाँ पर एक ही वर्ण या अनेक वर्ण की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है।

    श्रुत्यनुप्रास : जहाँ कंठ, तालु आदि किसी एक की आवृत्ति होती है।

    लाटानुप्रास : जहाँ पर शब्द और अर्थ एक ही रहते हैं; किंतु अन्य पद के साथ अन्वय करने पर अर्थ भिन्न हो जाता है वहाँ लाटानुप्रास होता है।

    अन्त्यानुप्रास : जब छंद के अंतिम चरण में स्वर या व्यंजन की समता हो, वहाँ अन्त्यानुप्रास होता है।

    2) यमक अलंकार : भिन्न-भिन्न अर्थों को प्रकट करने वाले समान शब्दों या वाक्यों की क्रमशः आवृत्ति को यमक अलंकार कहते हैं। यथा—

    कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
    या खाए बौराय जग, वा पाए बौराय॥

    यहाँ कनक शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है किंतु उसका अर्थ भिन्न-भिन्न है अतः यमक अलंकार है।

    3) श्लेष अलंकार : जहाँ एक शब्द से अनेक अर्थों की व्यंजना हो, वहाँ श्लेष अलंकार होता है। यथा—

    'रहिमन पानी राखिए; बिन पानी सब सून, पानी गए न ऊबरे; मोती, मानुष चून।'

    यहाँ 'पानी' शब्द के तीन अर्थ हैं—मोती के पक्ष में चमक, मनुष्य के पक्ष में प्रतिष्ठा एवं आटे के पक्ष में जल। अतः यहाँ श्लेष अलंकार है।

    4) वक्रोक्ति : जहाँ कंठ की विशेष ध्वनि के कारण अर्थ की जगह दूसरा अर्थ कल्पित किया जाए वहाँ वक्रोक्ति होती है। यथा—

    'हैं री सखी कृष्णचंद्र? चन्द्र कहूँ कृष्ण होत?
    तब हंसि राधे कहि मोरपछवारे हैं?'

    5) चित्रालंकार : जब शब्दों का इस प्रकार प्रयोग किया जाता है, जिससे विशेष चित्र बन जाते हैं। इसमें वर्ण की व्यवस्था का वैचित्रय होता है।

    6) पुनरुक्ति : भावको अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए जब एक ही बात को बार-बार कहा जाए, वहाँ पुनरुक्ति अलंकार होता है—

    उदाहरण- निर्मल जल अंतस्तल भर के उछल-उछल कर छल-छल करके थल-थल तरके कल-कल झरके।

    उपर्युक्त उदाहरण में उछल-उछल, छल-छल, थल-थल एवं कल-कल शब्दों के प्रयोग से भाव अधिक रुचिकर बन गया है अतः यहाँ पुनरुक्ति अलंकार है।

    7) वीप्सा : जब किसी आकस्मिक भाव को प्रभावित करने के लिए शब्दों की आवृत्ति की जाए तो वहाँ वीप्सा अलंकार होता है यथा—

    शिव शिव शिव! कहते हो यह क्या, ऐसा फिर मत कहना।
    राम राम! यह बाट भूलकर मित्र कभी मत गहना।

    यहाँ पर शिव शिव शिव अथवा राम राम शब्दों के द्वारा 'घृणा' आकस्मिक भाव के आने से शब्दों के आवृत्ति हुई है अतः यहाँ वीप्सा अलंकार है।

    पुनरुक्ति अलंकार द्वारा वक्तव्य की पुष्टि होती है और वीप्सा द्वारा मन का आकस्मिक भाव स्पष्ट होता है। यही पुनरुक्ति अलंकार और वीप्सा अलंकार में अंतर होता है।

    अर्थालंकार :

    जिन शब्दों द्वारा जिस अलंकार की सृष्टि होती हो, उन शब्दों के बदलने पर भी वह अलंकार बना रहे, वो अर्थालंकार होता है। 'अग्निपुराण' में कहा गया है, जो अर्थों को अलंकृत करते हैं वे अर्थालंकार हैं।

    प्रमुख अर्थालंकार के प्रकार 

    अलंकार किसी प्रकार के चमत्कार पर आधारित होते हैं। ये चमत्कार जिन आधारों पर आधारित हैं। वे निम्नलिखित हैं :-

    क) साम्यमूलक अर्थालंकार
    उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, भ्रम, सन्देह आदि।

    ख) वैषम्यमूलक अर्थालंकार
    असंगति, विरोधाभास, विशम।

    ग) श्रृंखलामूलक अर्थालंकार
    एकावली, कारणमाला।

    घ) न्यायमूलक अर्थालंकार
    यथासंख्य, तद्गुण, लोकोक्ति आदि।

    ङ) कारण-कार्य संबंध अर्थालंकार
    हेतूत्प्रेक्षा, विभावना, अतिषयोक्ति आदि।

    च) निषेधमूलक अर्थालंकार
    व्यतिरेक, अपद्धति आदि।

    छ) गूढार्थ-प्रतीति मूलक अर्थालंकार
    समासोक्ति, पर्यायोक्ति, ब्याजजनिन्दा आदि।

    प्रमुख अर्थालंकार

    उपमा : अलंकार में उपमा का सर्वाधिक महत्व है। समान धर्म के आधार पर जहाँ किसी एक वस्तु की तुलना या समानता किसी दूसरी वस्तु से की जाती है; वहाँ उपमा अलंकार होता है।

    उपमा के चार अंग होते हैं :-

    1) उपमेय : जिस वस्तु का वर्णन या तुलना की जाए उसे उपमेय कहते हैं।

    2) उपमान : जिसकी उपमा दी जाए अथवा जिस वस्तु से उपमेय की समानता या तुलना की जाए उसे उपमान कहते हैं।

    3) साधारण धर्म : उपमेय और उपमान में जो रूप-गुण-कर्म का साम्य दिखाया जाता है, वह धर्म है।

    4) वाचक : उपमेय और उपमान की समता बताने वाले सादृश्यमूलक शब्द वाचक कहलाते हैं।

    उदाहरण 'हरि पद कोमल कमल से'

    इसमें 'हरिपद' का वर्णन किया जा रहा है अतः उपमेय है।

    इनकी समता कमल से की गई है अतः कमल उपमान है। इन दोनों के बीच कोमलता का गुण है, अतः साधारण धर्म है तथा 'से' शब्द वाचक है।

    उपमा के दो भेद होते हैं :-

    1) पूर्णोपमा

    2) लुप्तोपमा

    जिस उपमा में उपमा के चारों अंग प्रत्यक्ष हैं उसे पूर्णोपमा कहते हैं। इन अंगों के लुप्त होने से विभिन्न प्रकार की लुप्तोपमा होती है। लुप्तोपमा में तीन अंगों तक के लोप की कल्पना की गई है जिसमें—

    उपमेय लुप्तोपमा, उपमान लुतोपमा, साधारणर्धमलुप्तोपमा, वाचक लुप्तोपमा, मालोपमा।

    रूपक उपमेय पर उपमान का अभेद रूप से आरोप होने को रूपक अलंकार कहते है। उदाहरण—

    'ओ चिंता की पहली रेखा अरे विश्व वन की व्याली ज्वालामुखी स्फोट के भीषण प्रथम कम्प-सी मतवाली।'

    रूपक के तीन मुख्य भेद हैं :-

    1)सर्वागंरूपक जहाँ पर उपमान का उपमेय में अंगों सहित आरोप होता है, वहाँ सर्वागंरूपक होता है—

    'उदित उदय गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग विक से सन्त सरोज सब हरशे लोचन भृंग।'

    यहाँ मंच, रघुवर, संत, लोचन आदि उपमेयों पर बालसूर्य, उदयगिरि, सरोज आदि उपमानों का आरोप किया जाता है अतः सांगरूपक है।

    2) निरंगरूपक जहाँ संपूर्ण अंगों का साम्य नहीं, वरन् केवल एक अंग का ही आरोप किया जाता है।

    3) परंपरित रूपक जहाँ पर प्रधान रूपक एक अन्य रूपक पर आश्रित रहता है और वह बिना दूसरे रूपक के स्पष्ट नहीं होता, वहाँ पर परंपरित रूपक होता है—

    'सुनिय वासु गुण ग्राम जासु नाम अध-खगबधिक'

    उत्प्रेक्षा : जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना की जाए वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यह संभावना वस्तु रूप में, हेतु रूप में और फल रूप में की जा सकती है। इसके तीन प्रमुख भेद हैं :-

    वस्तुत्प्रेक्षा, हेतुत्प्रेक्षा एवं फलोत्प्रेक्षा।

    वस्तुत्प्रेक्षा : एक वस्तु की दूसरी वस्तु के रूप में संभावना करने की वस्तुत्प्रेक्षा कहते हैं। यथा-

    'वाजि बली रघुवंसिन के मनों सूरज के रथ चूमन चाहँ।'

    हेतुत्प्रेक्षा : जहाँ अहेतु में अर्थात् जो कारण न हो, उसमें हेतु की संभावना की जाए वहाँ हेतुत्प्रेक्षा होती है। यथा-

    'रवि अभाव लखि रैनि में दिन लखि चंद्र विहीन। सतत उदित इहिं हेतु जनु यश प्रताप मुख कीन।

    फलोत्प्रेक्षा : जहाँ अफल में अर्थात् वास्तविक फल न हो उसमें फल की कल्पना की जाती है, वहाँ फलोत्प्रेक्षा होती है जैसे-

    'पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा। 
    मकुहिरकाइ लेहू हम्ह पासा॥

    अतिशयोक्ति : प्रस्तुत को बढ़ा-चढ़ाकर कहने को अतिशयोक्ति अलंकार कहते हैं।

    इसके मुख्य पाँच भेद होते हैं :-

    रूपकातिश्योक्ति, भेदकातिशयोक्ति, सम्बन्धातिशयोक्ति, असम्बन्धातिशयोक्ति, कारणातिशयोक्ति।

    उदाहरणार्थ—

    'अब जीवन की कपि आस न कोय
    कनगुरिया की मुदरी कंगना होय।'

    यहाँ शरीर की दुर्बलता को बताने के लिए अँगूठी को कंगन होना बताया गया है, अतः अतिशयोक्ति अलंकार है।

    संदेह : जहाँ किसी वस्तु की समानता मालूम न हो पाए कि यह वस्तु वही है या कोई अन्य। यहाँ संदेह अलंकार होता है—

    'कँधो व्योम वीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु
    कँधो चली मेरु तैं कृसानुसरि भारी है।

    विभावना : कारण के बिना कार्य का होना वर्णन होने पर विभावना अलंकार होता है। जैसे-

    'बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना 
    कर बिनु करम करइ विधि नाना।

    दृष्टांत अलंकार : जहाँ उपमेय, उपमान और साधारण धर्म का बिंब-प्रतिबिंब भाव हो वहाँ दृष्टांत अलंकार होता है। यथा-

    'मुनियों की दुर्दशा देख रघुपति घबराये 
    निज दुख मन से तुरंत उन्होंने दूर भगाये
    वज्रपात के तुल्य कभी शरपात नहीं है 
    ग्रीष्मपात-सा दुसह कभी हिमपात नहीं है।

    प्रतीप अलंकार : जहाँ उपमान को उपमेय बनाया जाए अथवा उपमेय से उपमान का निरादर कराया जाए, वहाँ प्रतीप अलंकार होता है। प्रतीप का आशय 'उलटा' है। यथा-

    'राम रावरे बदन की, सरवरि करत मयंक 
    ते कबिगन झूठे जगत, लखि मलीस सकलंक।

    यहाँ कल्पित उपमेय मयंक के साथ कल्पित उपमान राम मुख की समता ही अयोग्य बतलाई गई है।

    अपहनुति : उपमेय का निषेध करके उपमान की स्थापना करने को अपहनुति अलंकार कहते हैं। अपहनुति से तात्पर्य छिपाना है। यथा-

    'मैं जो कहा रघुवीर कृपाला 
    बंधु न होई भार यह काला।'

    भ्रान्तिमान् : संदेह अलंकार में संदेह बना रहता है परंतु भ्रांतिमान् में समानता के कारण एक वस्तु को दूसरी समझ लिया जाता है। इसे भ्रांतिमान अलंकार कहते हैं—

    'बिल बिचारि प्रसिवन लग्यौं नाग शुंड में व्याल
    ताहू कारी ऊख भ्रम लियो उठाव उताल।'

    यहाँ सर्प को हाथी की सूंड में बिल होने की भ्रांति हुई हाथी को भी सर्प में काले गन्ने की भ्रांति हुई।

    दीपक अलंकार : जहाँ पर प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत का एक ही धर्म स्थापित किया जाता है वहाँ दीपक अलंकार होता है।

    दीपक अलंकार के कई भेद होते हैं—

    1) कारकदीपक
    2) देहलीदीपक
    3) मालादीपक
    4) आवृत्तिरदीपक

    प्रतिवस्तूपमा : जहाँ उपमेय और उपमान वाक्यों में विभिन्न शब्दों के भेद से एक ही धर्म का कथन होता है वहाँ पर प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है।

    निदर्शना अलंकार जब कोई बात बिंब प्रतिबिंब भाव से समझाई जाती है वहाँ निदर्शना अलंकार होता तब है।

    इसके मुख्य तीन भेद होते हैं :-

    1) जब उपमेय और उपमान वाक्यों का अंत में पर्यवसान उपमा में होता है।
    2) जहाँ सद् या असद् व्यवहार से सद् अथवा असद् का बोध कराया जाता है।
    3) जहाँ पर जो संभावित या असंभावित व्यापारों में संबंध स्थापित किया जाता है।

    अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार—जहाँ अप्रस्तुत का वर्णन, प्रस्तुत के वर्णन के लिए किया जाए, वहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार होता है अथवा अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत लक्षित होता हो।

    अर्थान्तरन्यास अलंकार—जहाँ सामान्य कथन के द्वारा विशेष का एवं विशेष से सामान्य का समर्थन किया जाता है वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है।

    व्याजस्तुति अलंकार—जहाँ निंदा के वाक्यों द्वारा स्तुति एवं स्तुति के वाक्यों द्वारा निंदा प्रकट होती है, वहाँ व्याजस्तुति अलंकार होता है।

    विरोधाभास अलंकार—जब किसी जाति, क्रिया, गुण एवं द्रव्य में वास्तव में विरोध न हो किंतु विरोध का आभास दिखाई दे तो वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है।

    परिसंख्या अलंकार—जब किसी वस्तु को अपने वास्तविक स्थान से ग़ायब करके किसी विशिष्ट स्थान पर आरोपित कर दिया जाता है वहाँ परिसंख्यालंकार होता है।

    उन्मीलित—जहाँ पर किसी वस्तु का मीलित अवस्था से फिर प्रकट होना वर्णित होता है वहाँ उन्मीलित अलंकार होता है।

    व्याजोक्ति—जहाँ किसी रहस्य को छिपाने के लिए कोई बहाना बनाया जाए, वहाँ व्याजोक्ति अलंकार होता है।

    पाश्चात्य अलंकार :

    मानवीकरण (Personification)

    भावों में या भावनाओं में, मानवीय गुणों का, उसके कार्यों को आरोपण कराना ही मानवीकरण अलंकार है। इससे भाषा में चमत्कार एवं वक्रता दिखाई देती है जो उसे प्रभावी बनाता है।

    ध्वन्यर्यव्यंजना (Onomatopoeia)

    जहाँ शब्दों की ध्वनि के माध्यम से प्रसंग एवं अर्थ का बोध कराया जाता है अथवा एक रूपाकार वंचित की व्यंजना काव्यगत शब्दों की ध्वनि के माध्यम से की जाती है वहाँ ध्वन्यर्थ व्यंजना अलंकार होता है।

    विशेषण विपर्यय या विशेषणयत्यय :

    जब किसी कथन में विशेषण की जहाँ जगह है वहाँ से अभिधावृत्ति से हटाकर लक्षणा के माध्यम से उसे दूसरी जगह स्थापित करने से काव्य का सौष्ठव बढ़ जाता है, वहाँ विशेषणविपर्यय अलंकार होता है।

     

    रीति संप्रदाय :

    रीति संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन (8वीं शती) माने जाते हैं। यद्यपि रीति शब्द का काव्य-शास्त्र में प्रयोग वामन से पहले भी प्राप्त होता है पर उसका व्यवस्थित स्वरूप और विस्तृत व्याख्या सर्वप्रथम वामन ने ही प्रस्तुत की। 'रीति' शब्द की व्युत्पत्ति 'रीङ्' धातु में 'ऋन्' प्रत्यय के योग से हुई है, जिसका अर्थ है—मार्ग, पंथ, गति, शैली आदि। आचार्य वामन ने अपने ग्रंथ काव्यालंकार सूत्रवृत्ति में 'रीति' की परिभाषा देते हुए कहा है—विशिष्ट पद रचना रीतिः

    अर्थात् विशेष प्रकार की पद रचना को रीति कहते हैं। 'विशिष्ट' को स्पष्ट करते हुए वे पुनः कहते हैं—'विशेषो गुणात्मा'

    अर्थात् यह विशिष्टता 'गुण' से आती है, अर्थात् काव्य में गुणात्मक पद रचना को रीति कहते हैं। गुणात्मकता से उनका अभिप्राय ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि काव्य गुणों से है।

    उक्त विवेचन के आधार पर रीति की परिभाषा निम्न शब्दों में की जा सकती है—प्रसाद, ओज, माधुर्य आदि गुणों से युक्त पद रचना रीति है। इसीलिए रीति संप्रदाय को गुण संप्रदाय भी कहा जाता है।

    आचार्य वामन ने 'गुणों' को विशेष महत्व दिया। उनके अनुसार 'गुण' काव्य के नित्य धर्म हैं, जिनकी अनुपस्थिति में काव्य का अस्तित्व असंभव है। गुणों को काव्य का शोभाकारक धर्म मानते हुए वे लिखते हैं—काव्य शोभायाः कर्तारौ धर्माः गुणाः।

    अर्थात् गुण काव्य के शोभाकारक धर्म हैं। अतः वामन के अनुसार-शब्दगत और अर्थगत सौंदर्य से संपन्न पदयोजना को रीति कहते हैं। अलंकार को वे काव्य का अनित्य धर्म मानते है, जो काव्य की शोभा को अतिशय करने वाला तत्व है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि वामन 'गुणों' की सत्ता को काव्य में अनिवार्य मानते हैं, किंतु अलंकारों को काव्य का अनिवार्य तत्व नहीं मानते।

    आचार्य दंडी अलंकार को काव्य का शोभाकारक धर्म मानते हैं अतः यह कहना उचित होगा कि दंडी जिसे अलंकार कहते हैं, वामन उसी तत्व को गुण कहते हैं।

    गुणों के भेद : आचार्य वामन के अनुसार गुण दो प्रकार क्रे होते हैं—1. शब्दगत, 2. अर्थगत।

    इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत दस-दस गुण हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं—1. ओज, 2. प्रसाद, 3. श्लेष, 4. समता, 5. समाधि, 6. माधुर्य, 7. सौकुमार्य, 8. उदारता, 9. अर्थव्यक्ति, 10. कांति।

    इस प्रकार वामन ने कुल बीस गुण माने हैं—दस शब्दगत और दस अर्थगत।

    वामन के परवर्ती आचार्यों ने गुणों की इस संख्या को स्वीकार नहीं किया। भोजराज ने 24 गुण बताए हैं जबकि आचार्य मम्मट ने गुणों की संख्या केवल तीन तक सीमित कर दी और इनके अंतर्गत माधुर्य, प्रसाद और ओज को ही स्वीकार किया। वामन द्वारा बताए हुए इन गुणों में अधिकांश काव्य तत्व निहित हैं। रीति इन गुणों से ही समन्वित है, जिससे उसका काव्य फलक अत्यंत व्यापक हो गया है। इस व्यापकता के कारण ही वामन ने रीति को काव्य की आत्मा मानते हुए कहा—रीतिरात्मा काव्यस्य।

    रीति के भेद :

    आचार्य वामन ने रीति के तीन भेद किए हैं—

    (1) वैदर्भी, (2) गौड़ी, (3) पांचाली।

    (1) वैदर्भी रीति : इसमें माधुर्य व्यंजक वर्णों की योजना की जाती है जो श्रुति मधुर एवं संगीतात्मक होते हैं। ललित पदयोजना के कारण यह शृंगार, करुण, हास्य रसों की अभिव्यक्ति में सहायक होती है। आचार्य वामन ने इसमें श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सौकुमार्य, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कांति और समाधि—इन दस गुणों का समावेश माना है, जबकि मम्मट ने इसके मूल में केवल 'माधुर्य' गुण को ही स्वीकार किया है।

    (2) गौड़ी रीति : गौड़ी रीति में ओजपूर्ण वर्णों की योजना की जाती है। संयुक्त व्यंजन, ट वर्ग, श, ष, आदि वर्णों का प्रयोग बहुलता से होता है। पदयोजना दीर्घ समासों से युक्त होती है। परुष वणों के कारण यह रीति, वीर, वीभत्स, रौद्र और भयानक रसों के लिए उपयुक्त मानी जाती है। वीर एवं रौद्र रसों का यह मूल आधार है। दीर्घ सामासिक पदावली वातावरण को प्रकाशित करती जान पड़ती है। सौकुमार्य एवं माधुर्य गुणों का अभाव होने से इसे परुषा वृत्ति भी कहा गया है। ओज गुण की व्यंजना के सभी उपादान इस छंद में उपलब्ध हैं।

    (3) पांचाली रीति : माधुर्य और सौकुमार्य गुणों से युक्त, गाढ़बंध से रहित, शिथिल पद वाली वह रचना जिसमें लघु समासों का प्रयोग किया गया हो पांचाली रीति कहलाती है। यह वैदर्भी और गौड़ी के बीच की रीति है। पद योजना यथासंभव कोमलता लिए रहती है। इसलिए मम्मट ने इसे कोमला वृत्ति कहा है। दूसरा मूल गुण 'प्रसाद' होता है।

    वामन के अनुसार—वैदर्भी रीति में सभी गुण रहते हैं। जबकि गौड़ी में केवल दो गुण ओज और कांति विद्यमान होते हैं। पांचाली में भी केवल दो ही गुण माधुर्य और सौकुमार्य रहते हैं। इन तीनों रीतियों के भीतर काव्य इस प्रकार समाविष्ट हो जाता है, जिस प्रकार रेखाओं के भीतर चित्र।

    वामन ने वैदर्भी रीति को सर्वश्रेष्ठ माना है, क्योंकि इसमें सभी बीसों गुण विद्यमान रहते हैं। इसीलिए वे रीति को काव्य की आत्मा भी स्वीकार करते हैं।

    परवर्ती आचार्यों आनंदवर्धन, मम्मट और विश्वनाथ ने इसी आधार पर वामन की मान्यताओं का खंडन किया। यद्यपि वैदर्भी रीति की श्रेष्ठता उन्होंने भी स्वीकार की, क्योंकि यह करुण और शृंगार जैसे सुकोमल रसों के बाह्य रूप को विधान करती है।

    आचार्य वामन के परवर्ती आचार्यों ने वामन द्वारा प्रतिपादित रीति सिद्धांत का अनुमोदन एवं अनुकरण नहीं किया। कई आचार्यों ने तो वामन का उपहास तक किया है।

    रीति का खंडन करने पर भी परवर्ती आचार्यों ने रीति को किसी-न-किसी रूप में स्वीकार अवश्य किया है—भले ही उसका नामकरण किसी और रूप में क्यों न किया हो।

    (1) आचार्य कुंतक का मत—वक्रोक्ति को काव्य का प्राण मानने वाले आचार्य कुंतक ने रीति को उस अर्थ में स्वीकार नहीं किया जो वामन को अभिप्रेत था। उन्होंने रीति को एक नई दिशा प्रदान की और उसे कवि के स्वभाव से संबंध माना। उन्होंने रीति के लिए नए नाम सुझाए, जो निम्न हैं :-

    1. सुकुमार मार्ग (वैदर्भी रीति)

    2. विचित्र मार्ग (गौड़ी रीति)

    3.मध्यम मार्ग (पांचाली रीति) 

    (2) मम्मट द्वारा रीति विवेचन आचार्य मम्मट ने रीति को वृत्ति का पर्याय मानते हुए इसे वृत्यनुप्रास नामक शब्दालंकार के अंतर्गत निरूपित किया। उन्होंने वृत्ति की निम्न परिभाषा की—वृत्तिः नियतवर्णगतोरसविषयोव्यापारः

    अर्थात् नियत वर्णों का रस विषयक व्यापार वृत्ति (रीति) उन्होंने तीन वृत्तियों और तीन ही गुणों को स्वीकार किया है। उन्होंने 'वर्णगुम्फ' को रीति का भेदक तत्व मानते हुए केवल तीन गुणों— माधुर्य, ओज, प्रसाद को मान्यता दी तथा तीन वृत्तियों स्वीकार कीं :-

    1. उपनागरिका वृत्ति—जिसे वामन ने वैदर्भी रीति कहा उसे ही मम्मट ने उपनागरिका वृत्ति की संज्ञा प्रदान की है। माधुर्य गुण से युक्त होती है और शृंगार, करुण आदि कोमल रसों का उपकार करती है।

    2. परुषा वृत्ति—ओज गुण के व्यंजक वर्षों से युक्त रचना को मम्मट ने परुषा वृत्ति कहा है। इसे वामन के अनुसार गौड़ी रीति कहा गया है। यह वीर, रौद्र आदि कठोर रसों का उपकार करती है।

    3. कोमला वृत्ति—प्रसाद गुण से युक्त रचना को पांचाली रीति या कोमला वृत्ति की संज्ञा प्रदान की गई है।

    आचार्य विश्वनाथ ने रीति को 'पद संघटना' का नाम दिया, पर उसे काव्य की आत्मा स्वीकार नहीं किया। उनके अनुसार पद संघटना रीतिः अंग संस्था विशेषवत् उपकर्जी रसादीनाम्।

    अर्थात् रीति तो पद संघटना मात्र है, वह काव्य का स्वरूपाधायक तत्व नहीं है। केवल शरीर के अंगों की बनावट के समान शब्दार्थ रूप काव्य शरीर का उपकार करती हुई काव्य की आत्मा रस का प्रकारांतर से उपकार कर देती है।

    आनंदवर्धंत ने भी रीति पर विचार किया है और पद संघटना का नाम देकर उसका मूल आधार समास को माना है। यह गुणों पर अवलंबित है और रसों को अभिव्यक्त करती है।

    उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्यों ने वामन के रीति सिद्धांत को पूर्णतः स्वीकार तो नहीं किया पर वे उसकी नितांत उपेक्षा भी न कर सके। रीति भले ही काव्य का अनिवार्य तत्व न हो, पर उसका महत्व किसी-न-किसी रूप में अवश्य है।

     

    ध्वनि संप्रदाय :

    भारतीय काव्यशास्त्र में ध्वनि संप्रदाय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ध्वनि-सिद्धांत को व्यवस्थित करने का श्रेय आनंदवर्धन को है जिन्होंने अपने ग्रंथ 'ध्वन्यालोक' में ध्वनि सिद्धांत की स्थापना की। ध्वनि सिद्धांत से पहले काव्यशास्त्र में तीन महत्त्वपूर्ण सिद्धांत अलंकार, रस और रीति का प्रवर्तन हो चुका था। अतः ध्वनि सिद्धांत के अंतर्गत प्रबल एवं पुष्ट तर्कों के आधार पर ध्वनि को काव्य की आत्मा स्वीकार करते हुए उक्त सभी सिद्धांतों का पुनः मूल्यांकन किया गया।

    ध्वनि का अर्थ और स्वरूप आनंदवर्धन के अनुसार जहाँ अर्थ स्वयं को तथा शब्द अभिधेय अर्थ को गौण करके प्रतीयमान को प्रकाशित करता है उस काव्य विशेष को विद्वानों ने ध्वनि काव्य कहा है।

    इसका अभिप्राय यह है कि ध्वनि में व्यंग्यार्थ (प्रतीयमान अर्थ) का होना ही पर्याप्त नहीं है अपितु प्रतीयमान अर्थ का वाच्यार्थ से अधिक महत्त्वपूर्ण होना भी आवश्यक है। सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जहाँ व्यंयार्थ प्रमुख हो और वाच्यार्थ गौण हो वहीं ध्वनि मानी जा सकती है। उदाहरण के लिए यह दोहा देखिए—

    माली आवत देख के कलियन करी पुकार।
    फूली-फूली चुन लई काल हमारी बार॥

    यहाँ 'माली' और 'कली' वाला अर्थ वाच्यार्थ है जो गौण है जबकि जीवन की क्षणभंगुरता को व्यंजित करने वाला अर्थ 'व्यंग्यार्थ' है और वही प्रमुख भी है। व्यंग्यार्थ की प्रमुखता के कारण यह ध्वनि काव्य का उदाहरण है।

    आनंदवर्धन ने काव्य के तीन भेद किए हैं :- (1) ध्वनि काव्य, (2) गुणीभूत व्यंग्य काव्य, (3) चित्र काव्य।

    जहाँ व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ से सुंदर हो वहाँ ध्वनि काव्य होता है। जहाँ वाच्यार्थ की तुलना में व्यंग्यार्थ कम सुंदर है वहाँ गुणीभूत व्यंग्य काव्य होता है और जहाँ केवल वाच्यार्थ होता है उसे चित्र काव्य कहते हैं। इन तीनों प्रकार के काव्यों को उन्होंने क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम कोटि का काव्य माना है।

    प्रतीयमान अर्थ : काव्यशास्त्र में तीन शब्द शक्तियों का उल्लेख किया गया है :- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। इनमें से व्यंजना का संबंध ध्वनि से है। व्यंजना वह शब्द शक्ति है जो मुख्यार्थ या लक्ष्यार्थ के झीने पर्दे में छिपे हुए व्यंग्यार्थ को स्पष्ट कर काव्य के वास्तविक लावण्य को व्यक्त करती है। व्यंजना का संबंध व्यंजना से व्यक्त अर्थ को व्यंग्यार्थ या प्रतीयमान अर्थ कहा जाता है। आनंदवर्धन ने प्रतीयमान अर्थ की प्रशंसा करते हुए इसे ही काव्य की आत्मा स्वीकार किया है। उनके अनुसार—

    प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वसत्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्।
    यत् तत् प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवांगनासु॥

    अर्थात् प्रतीयमान अर्थ कुछ और ही वस्तु है जो रमणियों के प्रसिद्ध अवयवों (मुख, नेत्र, आदि) से भिन्न लावण्य के समान महाकवियों की वाणी में भाषित होता है।

    ध्वनि संप्रदाय का विकास

    (1) आनंदवर्धन

    यद्यपि आनंदवर्धन ने 'ध्वन्यालोक' में इस बात को स्वीकार किया है कि ध्वनि सिद्धांत की परंपरा उनसे पहले भी वर्तमान थी, किंतु उसके पुष्ट प्रमाण न मिलने के कारण हम आनंदवर्धन को ही ध्वनि सिद्धांत का प्रथम आचार्य मानते हैं। उन्होंने अपने ग्रंथ ध्वन्यालोक में ध्वनि सिद्धांत का विस्तृत विवेचन करते हुए ध्वनि को काव्य की आत्मा सिद्ध किया। व्यंजना को ध्वनि का आधारभूत तत्व मानते हुए आनंदवर्धन ने व्यंजना के मूल में अभिधा और लक्षणा दोनों शब्द शक्तियों को माना है और इसी आधार पर उन्होंने ध्वनि के दो भेद किए हैं—अभिधामूला ध्वनि और लक्षणामूला ध्वनि। आनंदवर्धन अलंकार, रस, रीति आदि सभी के मूल में ध्वनि को ही स्वीकार करते हैं और ध्वनि काव्य को ही उत्तम काव्य मानते हैं।

    (2) अभिनव गुप्त

    'अभिनव गुप्त' ने ध्वन्यालोक की टीका 'ध्वन्यालोक लोचन' नाम से लिखी जो अत्यंत लोकप्रिय सिद्ध हुई है। इस ग्रंथ के द्वारा उन्होंने ध्वनि सिद्धांत को पल्लवित और विकसित किया और इस बात को स्पष्ट किया कि ध्वनिवादियों की व्यंजनाशक्ति ही रस की अभिव्यक्ति कर सकती है क्योंकि रस, भाव आदि का बोध व्यंग्य रूप में ही हुआ करता है। अपने इस विवेचन द्वारा अभिनव गुप्त ने रस सिद्धांत और ध्वनि सिद्धांत को परस्पर प्रगाढ़ रूप से जोड़ दिया। अभिनव गुप्त ने रस की सम्यक् पुष्टि के लिए ध्वनि सिद्धांत को महत्व प्रदान किया और सिद्ध किया कि रस वाच्य न होकर व्यंग्य होता है। उन्होंने यह भी स्थापित किया कि 'रस' ध्वनि ही काव्य की आत्मा है। दूसरे शब्दों में वे ध्वनि सौंदर्य से युक्त रसात्मक काव्य को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।

    (3) मम्मट

    ध्वनि सिद्धांत के विरोधियों ने ध्वनि के विरोध में जो तर्क दिए थे मम्मट ने उनका विद्वत्तापूर्ण ढंग से खंडन किया और इस प्रकार ध्वनि सिद्धांत को सुदृढ़ आधार प्रदान किया इसीलिए मम्मट को 'ध्वनि प्रस्थापन परमाचार्य' कहा जाता है। अपने ग्रंथ काव्यप्रकाश में मम्मट का मत है कि रस कभी अभिधा से वाच्य नहीं हो सकता। जहाँ विभावादि का चित्रण होता है वहीं रसानुभूति होती है अतः रसानुभूति को विभावादि पर आश्रित माना जाता है। शृंगारादि पदों (अभिधा) पर नहीं। इससे स्पष्ट है कि रस प्रतीति के लिए व्यंजना का अस्तित्व मानना आवश्यक है। मम्मट ने व्यंजना शक्ति की सत्ता को स्वीकार किया और ध्वनिवादी आचार्यों की मान्यताओं में एकरूपता लाने का ऐतिहासिक कार्य संपन्न किया।

    ध्वनि के सामान्यतः दो भेद किए गए हैं :-

    (1) अभिधामूला ध्वनि

    (2) लक्षणामूला ध्वनि

    अभिधामूला ध्वनि में अभिधेयार्थ से व्यंग्यार्थ ध्वनित होता है, जबकि लक्षणामूला ध्वनि में लक्ष्यार्थ से व्यंग्यार्थ की प्रतीति ती है।

    अभिधामूला ध्वनि को पुनः दो वर्गों में बाँटा गया है :-

    (1) असंलक्ष्य क्रम ध्वनि

    (2) संलक्ष्य क्रम ध्वनि

    जहाँ वाच्यार्थ के साथ-साथ ही व्यंग्यार्थ ध्वनित होता है, दोनों के बीच समय का अंतराल प्रतीत नहीं होता वहाँ असंलक्ष्य क्रम ध्वनि होती है, जबकि वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ की प्रतीति में समय का अंतराल होने पर संलक्ष्य क्रम ध्वनि होती है।

    आनंदवर्धन ने ध्वनि के तीन भेद किए हैं—रसध्वनि, अलंकारध्वनि, वस्तुध्वनि। इनमें से रसध्वनि को ध्वनि संप्रदाय में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। वस्तुध्वनि में 'कथ्य' व्यंग्य रूप में होता है तथा वाच्यार्थ के माध्यम से व्यंग्यार्थ का बोध होता है।

    अलंकार ध्वनि वस्तुतः अलंकार पर आधारित व्यंजना है। व्यंग्यार्थ की प्रतीति अलंकार पर आधृत होती है।

    रस ध्वनि ही काव्य में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। ध्वनिवादी यह तो स्वीकार करते हैं कि 'रस' श्रेष्ठतम काव्य तत्व है, पर वे काव्य की आत्मा पद पर 'ध्वनि' को ही प्रतिष्ठित करते हैं।

    वस्तुतः ध्वनि के सैकड़ों भेदोपभेद किए गए जिससे यह संप्रदाय अत्यंत व्यापक रूप से विचार-विमर्श का विषय बना।

    काव्य की आत्मा 'ध्वनि' ध्वनि सिद्धांत निश्चय ही अलंकार, रीति, वक्रोक्ति सिद्धांतों से अधिक व्यापक है तथा इसका विवेचन भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप में किया गया है। ध्वनि को काव्य का प्राणतत्व स्वीकार करते हुए ध्वनि संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य आनंदवर्धन कहते हैं—

    काव्यस्य आत्मा ध्वनिरितिः

    अर्थात् “काव्य की आत्मा ध्वनि है। अन्य आचार्यों ने ध्वनि को रस व्यंजना का माध्यम मात्र माना है, वे ध्वनि के स्थान पर 'रस' को वरीयता देते हैं। वस्तुतः ध्वनि सिद्धांत ने रस सिद्धांत के रहस्य को खोल दिया, अतः इसे रस सिद्धांत का पूरक ही कहना चाहिए। आनंदवर्धन ने भी 'रसध्वनि' को सर्वश्रेष्ठ माना है। इस प्रकार वे भी रस के महत्व को नकार नहीं सके। अभिनव गुप्त ने तो रस और ध्वनि का ऐसा समन्वय किया है कि परवर्ती आचार्यों ने ध्वनि युक्त सरस काव्य को ही सर्वश्रेष्ठ कहा है। ध्वनि द्वारा रस की ही व्यंजना की जाती है।

     

    वक्रोक्ति संप्रदाय :

    वक्रोक्ति संप्रदाय के प्रवर्तन का श्रेय आचार्य कुंतक को है। उन्होंने अपने ग्रंथ 'वक्रोक्ति जीवितम' में वक्रोक्ति को काव्य का अनिवार्य तत्व स्वीकार करते हुए इसे काव्य की आत्मा कहा। काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति शब्द का प्रयोग कुंतक से पहले भी उपलब्ध होता है, पर यह उस अर्थ में नहीं मिलता, जिस अर्थ में कुंतक ने इसका प्रयोग किया है।

    वक्रोक्ति का अर्थ—वक्रोक्ति शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-वक्र+उक्ति। वक्र का अर्थ है—कुटिल या विलक्षण और उक्ति का अर्थ है-कथन। अतः वक्रोक्ति से अभिप्राय है बाँकपन या विलक्षणता से भरा हुआ कथन।

    किसी बात को सामान्य ढंग से व्यक्त करने में सरसता नहीं आती, अतः उसे चमत्कारिक ढंग से या विलक्षणता से कहना ही वक्रोक्ति है। भावों की अभिव्यक्ति के लिए कवि सामान्य मनुष्यों द्वारा अपनाए गए मार्गों से भिन्न विलक्षणता या वक्रता का आश्रय लेता है। कथन की यह विलक्षण भंगिमा ही वक्रोक्ति है।

    वक्रोक्ति का इतिहास—काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति का प्रयोग प्रारंभ से ही होता रहा है। भामह, दंडी आदि अलंकारवादी आचार्यों ने वक्रोक्ति का निरूपण करने का प्रयास किया है। भामह वक्रोक्ति को अतिशयोक्ति का पर्यायवाची स्वीकार करते हैं। उन्होंने सभी अलंकारों के मूल में वक्रोक्ति को ही स्वीकार किया है—

    सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते।

    यत्नो अस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया बिना।

    इस प्रकार भामह ने वक्रोक्ति को व्यापक अर्थ में ग्रहण किया और सभी अलंकारों के मूल में इस वक्रोक्ति को ही स्वीकार किया। वक्रोक्ति की परिभाषा उन्होंने निम्न शब्दों में दी— 'लोकातिक्रान्तगोचरं वचनम्'

    अर्थात् 'लोक की साधारण कथन प्रणाली से भिन्न उक्ति ही वक्रोक्ति है। भामह अलंकारवादी आचार्य थे और अलंकार को काव्य का मूल तत्व स्वीकार करते थे तथा इन अलंकारों में वक्रोक्ति की अनिवार्यता भी मानते थे। उनका मत था कि वक्रोक्ति रहित वाक्य काव्य न रहकर वार्ता मात्र रह जाता है।

    आचार्य दंडी ने काव्य को दो भागों में विभक्त किया है—

    (1) स्वभावोक्ति और (2) वक्रोक्ति। 

    वक्रोक्ति को वे अर्थालंकारों का सामूहिक रूप मानते हैं और श्लेष इस वक्रोक्ति के सौंदर्य में वृद्धि करता है। आगे चलकर वक्रोक्ति की सीमा संकुचित होती गई और आचार्य वामन ने वक्रोक्ति को एक-दूसरे ही रूप में स्वीकार किया। उन्होंने वक्रोक्ति को अर्थालंकारों में से एक विशेष अलंकार माना है और इसकी निम्न परिभाषा दी है—सादृश्यात् लक्षणा वक्रोक्तिः।

    अर्थात् सादृश्य पर आश्रित लक्षणा (गौणी लक्षणा) ही वक्रोक्ति है, पर वामन के मत को परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार नहीं किया। अलंकारवादी आचार्यों ने इसे एक अलंकार विशेष ही माना और इस प्रकार इसे संकुचित अर्थ ही प्रदान किया। आचार्य रुद्रट ने वक्रोक्ति को एक अलंकार मानकर इसके दो भेद किए—(1) काकु वक्रोक्ति (2) श्लेष वक्रोक्ति।

    ध्वनिवादी आचार्य, आनंदवर्धन और अभिनवगुप्त ने वक्रोक्ति को पुनः महत्व प्रदान किया और इसे समग्र अलंकारों का मूल तत्व स्वीकार किया। संक्षेप में कुंतक से पहले वक्रोक्ति का यही स्वरूप था।

    कुंतक द्वारा वक्रोक्ति विवेचन आचार्य कुंतक ने अपने ग्रंथ 'वक्रोक्ति जीवित' में वक्रोक्ति के स्वरूप और महत्व की विशद व्याख्या की है और इसे काव्य का प्राण तत्व स्वीकार करते हुए लिखा—

    वक्रोक्तिः काव्य जीवितम्

    अर्थात् वक्रोक्ति काव्य की आत्मा है। वक्रोक्ति की परिभाषा करते हुए वे कहते हैं—'वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगी भणितिरुच्यते।'

    अर्थात् वैदग्ध्यपूर्ण विचित्र उक्ति ही वक्रोक्ति है। वैदग्ध्य का अर्थ है—विलक्षणता, भंगी का तात्पर्य है—भंगिमा और भणिति का अर्थ है कथन। इस प्रकार वक्रोक्ति का अर्थ हुआ कथन की वह भंगिमा, जो विलक्षणता से युक्त हो। कुंतक ने वक्रोक्ति के लिए काव्य में तीन बातों की आवश्यकता मानी है— 1. कवि कौशल, 2. चमत्कार, 3. उक्ति। कुंतक के वक्रोक्ति विवेचन में निम्न तथ्य उल्लेखनीय हैं—

    1. वक्रोक्ति एक कथन प्रणाली या प्रतिपादन पद्धति है। वह अलंकार्य न होकर अलंकार है, किंतु इतनी महत्त्वपूर्ण है कि उसे काव्यात्मा पद पर कुंतक ने प्रतिष्ठित किया है।

    2. प्रसिद्ध कथन प्रणाली से भिन्न कथन प्रणाली वक्रोक्ति का आधारभूत तत्व है। लोक एवं शास्त्र से भिन्न कथन पद्धति, ही वक्रोक्ति है।

    3. काव्यगत चारुता, चमत्कार, वक्रता, विदग्धता, शोभा और विच्छिति का मूल आधार कुंतक वक्रोक्ति को मानते हैं। यह कवि कौशल पर निर्भर है।

    4. वक्रोक्ति शब्द क्रीड़ा या निकृष्ट काव्य कौतुक न होकर सहृदयों को आनंदित करने वाला कवि कौशल है—इस बात पर कुंतक ने अत्यधिक बल दिया है। वक्रोक्ति का सौंदर्य शब्द और अर्थ दोनों में निहित होता है अर्थात् उक्ति की विचित्रता शब्द में भी होती है और अर्थ में भी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि शब्द और अर्थ अलंकार्य होते हैं और उनको अलंकृत करने वाला तत्व वक्रोक्ति है।

    आचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति के छ: भेद माने हैं :-

    1. वर्ण-विन्यास वक्रता

    2. पद-पूर्वार्द्ध वक्रता

    3. पद-परार्द्ध वक्रता

    4. वाक्य वक्रता

    5. प्रकरण वक्रता

    6. प्रबंध वक्रता।

    1. वर्ण-विन्यास वक्रता : व्यंजन वर्णों की ऐसी व्यवस्था एवं विन्यास जिससे सौंदर्य का विधान हो, वर्ण-विन्यास वक्रता कहलाती है। यमक और अनुप्रास अलंकार इसी के अंतर्गत आते हैं। वर्णों की कर्णप्रियता एवं बार-बार आवृत्ति भी इसी वक्रता का परिणाम है।

    2. पद-पूर्वार्द्ध वक्रता : पद से तात्पर्य सविभक्तिक शब्द से है। पद के दो भाग किए जा सकते हैं—(1) प्रकृति (2) प्रत्यय।

    प्रकृति पद का पूर्वार्द्ध होती है और प्रत्यय पद का परार्द्ध। वह वक्रता, जो पद के पूर्वार्द्ध (अर्थात् प्रकृति) पर आधारित होती है, पद पूर्वार्द्ध वक्रता कहलाती है इसे प्रकृति वक्रता भी कहते हैं। कुंतक ने इसके नौ भेद माने हैं। यह वक्रता लिंग, क्रिया, भाव, वृत्ति, विशेषण, उपचार आदि पर आधारित होती है।

    3. पद-परार्द्ध वक्रता : पद के परार्द्ध में 'प्रत्यय' रहता है। यह वक्रता इसी भाग में स्थापित की जाती है। इसे प्रत्यय वक्रता भी कहते हैं। इसके आठ भेद होते हैं—(1) काल वैचित्र्य वक्रता, (2) कारक वक्रता, (3) संख्या वक्रता, (4) पुरुष-वक्रता, (5) उपग्रह वक्रता, (6) प्रत्यय वक्रता, (7) उपसर्ग वक्रता, (8) निपात वक्रता।

    4. वाक्य वक्रता : वाक्य वक्रता को वस्तु वक्रता या वाच्य वक्रता भी कहते हैं। यह कवि की प्रतिभा पर आश्रित होती है। अतः यह वक्रता भी विविध रूप में पाई जाती है। कुंतक ने इसके अंतर्गत अलंकारों का विवेचन किया है। अलंकारों में वे चारुत्व के अतिरिक्त वैचित्र्य और कवि प्रतिभा को भी विशेष महत्व देते हैं।

    5. प्रकरण वक्रता : वाक्यों के संयोग से प्रकरण बनता है। एक प्रबंध काव्य में अनेक प्रकरण होते हैं। इन प्रकरणों या प्रसंगों को औचित्यपूर्ण तथा प्रभावशाली बनाना ही प्रकरण वक्रता का प्रयोजन है। अनेक लालित्यपूर्ण और सरस प्रसंगों से प्रकरण में सौंदर्य का समावेश किया जाता है। यह वक्रता भी कवि की कुशलता पर निर्भर है। इसके नौ भेद बताए गए हैं।

    6. प्रबंध बक्रता : जब संपूर्ण प्रबंध में वक्रता होती है, तब उसे प्रबंध वक्रता कहते हैं। प्रबंध वक्रता के अंतर्गत प्रबंधात्मक काव्य रूपों का वस्तु कौशल अपेक्षित होता है। प्रबंध का योग सर्वाधिक व्यापक है और सभी प्रकार की वक्रताओं का सहयोग इसमें अपेक्षित होता है। कुंतक ने इसके छः भेद किए हैं।

    वक्रोक्ति सिद्धांत और अभिव्यंजनावाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पाश्चात्य अभिव्यंजनावाद को भारतीय वक्रोक्ति सिद्धांत का, विलायती उत्थान बताया है। पाश्चात्य समीक्षाशास्त्र में अभिव्यंजनावाद पर विचार करने का श्रेय इटली के विद्वान् 'क्रोचे' (Croce) को है। क्रोचे की मान्यता थी कि कला का संबंध स्वयं प्रकाश ज्ञान (Intuition) से है, जबकि कुंतक शास्त्रीय ज्ञान को भी कला से संबंधित मानते हैं। क्रोचे ने उक्ति की सहजता और स्वाभाविकता में काव्य का सौंदर्य माना है, जबकि कुंतक वक्रता या विचित्रता को ही सौंदर्य का मूल आधार स्वीकार करते हैं। क्रोचे ने मानसिक अभिव्यंजना को प्रमुख माना है तथा वाच्य अभिव्यक्ति उनके लिए गौण है। जबकि कुंतक ने वाच्य (शाब्दिक) अभिव्यक्ति की ही चर्चा की है। वे क्रोचे की तरह मानसिक अभिव्यक्ति की कल्पना नहीं करते।

    इसके अतिरिक्त इन दोनों सिद्धांतों में एक बहुत बड़ा अंतर यह भी है कि क्रोचे केवल कवि की आत्म तुष्टि को ही काव्य का लक्ष्य मानता है, जो मानसिक अभिव्यक्ति से पूरा हो जाता है। जबकि कुंतक इसके स्थान पर सहृदय के मन को प्रसन्नता प्रदान करना काव्य का लक्ष्य स्वीकार करते हैं। यही कारण है कि डॉ. गणपति चंद्र गुप्त ने वक्रोक्ति सिद्धांत और अभिव्यंजनावाद को अलग-अलग माना है और वे इस संबंध में शुक्ल जी के मत से सहमत नहीं हैं।

    आगे चलकर डॉ. नगेंद्र ने अभिव्यंजनावाद और वक्रोक्तिवाद में कुछ साम्य भी खोजा है, जो निम्नलिखित है :- 

    1. दोनों सिद्धांत अभिव्यंजना को ही काव्य का प्राण तत्व मानते हैं।

    2. दोनों ने काव्य में कल्पना तत्व को प्रमुखता दी है।

    3. दोनों ही मूलतः उक्ति को अखंड, अविभाज्य और अद्वितीय मानते हैं।

    4. दोनों ने ही अलंकार और अलंकार्य का भेद नहीं माना है।

    5. दोनों ही सफल अभिव्यंजना अथवा सौंदर्य अभिव्यंजना में श्रेणियां स्वीकार नहीं करते।

    वक्रोक्ति सिद्धांत का महत्व—वक्रोक्ति में व्यापक रूप में रीति, अलंकार, ध्वनि, रस आदि सभी पूर्व प्रचलित सिद्धांतों का थोड़ा बहुत समन्वय हो जाता है। वक्रोक्ति के विभिन्न भेदों पर दृष्टिपात करने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कवि कौशल और काव्य-सौंदर्य दोनों ही वक्रोक्ति में समाहित हैं।

     

    औचित्य संप्रदाय :

    औचित्य को काव्य में विशेष महत्व प्रदान करने वाले आचार्य क्षेमेंद्र थे। यद्यपि मूलतः क्षेमेंद्र ध्वनिवादी आचार्य थे, परंतु उन्होंने अपने ग्रंथ 'औचित्य विचार चर्चा' मैं औचित्य को व्यापक काव्य तत्व में रूप में प्रतिष्ठित कर उसे काव्य की आत्मा स्वीकार किया।

    औचित्यं रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्

    अर्थात् रस से सिद्ध काव्य पर स्थिर जीवित (प्राणतत्व) औचित्य है। रस की सत्ता होने पर ही काव्य सिद्ध होता है और तब उस समय स्थिर जीवन के रूप में औचित्य का जन्म होता है, अर्थात् औचित्य के बिना रस की सत्ता संभव ही नहीं है। रस को स्थिर जीवनी शक्ति प्रदान करने वाला तत्व औचित्य है, अतः वही काव्य का प्राण तत्व है।

    क्षेमेंद्र से पूर्व भी आचार्यों ने औचित्य पर विचार किया है, परंतु उसे काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य क्षेमेंद्र को ही है। भरत मुनि ने अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र में नायक के स्वरूप, अभिनय, वेशभूषा आदि के लिए औचित्य की आवश्यकता पर बल देते हुए लिखा है—

    वयोऽनुरूपः प्रथमस्तु वेषो वेषानुरूपश्च गतिः प्रचारः। 
    गतिप्रचारानुगतं च पाठ्यं पाठ्यानुरूपोऽभिनयश्च कार्यः॥

    अर्थात् आयु के अनुसार वेश, वेश के अनुरूप क्रिया, गति प्रचार के अनुरूप पाठ्य और पाठ्य के अनुरूप अभिनय होना चाहिए।

    औचित्य का ध्यान न रखने से उपहास होता है। भरत का निम्न श्लोक इस प्रसंग में सारगर्भित है:

    अदेशजो हि वेषश्तु न शोभां जनयिष्यति।
    मेखलोरसि बन्धे च हास्यायेवोपजायते॥

    अर्थात् जो जिस देश का वेश है, जो आभूषण जिस अंग में पहना जाता है, उससे भिन्न देश या अंग में उसका विधान करने पर वह शोभा नहीं पाता। यदि कोई करधनी को गले में पहन ले तो वह उपहास का ही पात्र होगा।

    आचार्य क्षेमेंद्र के अनुसार—

    कंठे मेखलया नितंब फलके तारेण हारेण वा। 
    पाणौ नूपुरबन्धनेन चरणे केयूरपाशेन वा॥

    शौर्येण प्रणते रिपौ करुणया नायान्ति के हास्यता। 
    मौचित्येन बिना रुचिं प्रतनुते नालंकृतिर्नो गुणाः॥

    अर्थात् कंठ में मेखला, नितंब पर दीप्तिमय हार, चरणों पर केयूर धारण करने तथा शरणागत व्यक्ति पर शौर्य एवं शत्रु पर करुणा दिखाने से कौन उपहास का पात्र नहीं हो जाता। सत्य है कि औचित्य के बिना न अलंकार शोभा प्रदान करते हैं और न गुण ही आकृष्ट कर सकते हैं।

    वस्तुतः औचित्य का अर्थ है उपयुक्त सामंजस्य। रस इस सामंजस्य या संतुलन का नियामक है तथा इसका महत्व न केवल काव्य जगत में अपितु व्यावहारिक जगत में भी है। देशकाल एवं परिस्थिति के अनुरूप औचित्यपूर्ण व्यवहार ही सदाचार कहा जाता है। सौंदर्य एवं कला के क्षेत्र में भी औचित्य का विशेष महत्व है।

    भरत के अतिरिक्त अन्य आचार्यों ने भी बाद में औचित्य पर ध्यान दिया। ध्वनिकार आनंदवर्धन ने काव्य के प्राणभूत रस के साथ औचित्य का घनिष्ठ संबंध स्थापित किया है।

    अनौचित्याद् ऋते नान्यद रसभंगस्य कारणम्।
    प्रसिद्धौचित्यबन्धतु रसस्योपनिषत्परा॥

    अर्थात् अनौचित्य के अतिरिक्त रसभंग का कोई कारण ही नहीं है और औचित्य ही रस का परम रहस्य है। वस्तुतः क्षेमेंद्र ने औचित्य विवेचना का मूल आधार भरत और आनंदवर्धन के मत को ही बनाया है और उन्हीं से सामग्री ग्रहण की है।

    आचार्य क्षेमेंद्र ने औचित्य की परिभाषा देते हुए लिखा है।

    उचितं प्राहुराचार्याः सदृशं किल यस्य यत्।
    उचितस्य चयो भावस्तदौचित्यं प्रचक्षते॥

    अर्थात् जो वस्तु जिसके अनुरूप होती है, उसे उचित कहा जाता है और उचित का भाव ही औचित्य है।

    औचित्य के प्रकार

    काव्य में इस औचित्य के छः भेद बताए गए हैं :- (1) अलंकार औचित्य, (2) गुण औचित्य, (3) संगठन औचित्य, (4) प्रबंध औचित्य, (5) रीति औचित्य (6) रस औचित्य।

    अलंकार औचित्य से अभिप्राय यह है कि काव्य में अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से मुख्य भाव की पुष्टि के लिए होना चाहिए। उनका स्वतंत्र एवं पृथक् अस्तित्व उचित नहीं है।‌ गुण औचित्य से तात्पर्य यह है कि काव्य में रसानुकूल गुणों की योजना होनी चाहिए। प्रसाद, माधुर्य और ओज गुणों से संपन्न कविता तदनुसार प्रभाव उत्पन्न करेगी।

    संगठन औचित्य में चार बातों पर विचार किया जाता है :-

    (i) रस का औचित्य, (ii) विषय का औचित्य, (iii) वक्ता का औचित्य, और (iv) वाच्य का औचित्य।

    सम्यक सामासिक पद रचना को संगठन औचित्य कहा जाता है।

    प्रबंध औचित्य से अभिप्राय यह है कि प्रबन्ध काव्य में प्रख्यात एवं कल्पित कथा का उचित अनुपात होना चाहिए। कोई कथा रस प्रतिकूल नहीं होनी चाहिए और संपूर्ण घटनाएँ देश काल स्वभाव आदि के अनुसार होनी चाहिए।

    रीति औचित्य का अभिप्राय यह है कि विविध गुणों के अनुकूल वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली आदि रीतियों का प्रयोग होना चाहिए।

    रस औचित्य का अभिप्राय यह है कि विभाव, अनुभाव, संचारी भाव आदि का वर्णन करने में औचित्य का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए। मुख्य रस का विवेचन किस प्रकार होना चाहिए? अंग रस किस प्रकार मुख्य रस को विकसित करते हैं? रसों में पारस्परिक विरोध किस प्रकार होता है? कौन सा रस किस रस के साथ किस विधि से निबद्ध होने पर अपनी विरुद्धता का परिमार्जन करता है? यह सारा विवेचन रसौचित्य का विषय है। यदि काव्य में इस रसौचित्य का ध्यान नहीं रखा जाएगा तो अनेक दोष उत्पन्न हो जाएँगे।

    इस विवेचन से स्पष्ट है कि काव्य निर्माण में विविध अनुकूलताओं पर ध्यान देना ही औचित्य है। इसका ध्यान रखने से काव्य में सरसता आती है, उसकी शोभा बढ़ती है, भाव प्रेषणीयता में वृद्धि होती है और काव्य सहृदयों के लिए आह्लादकारी बन जाता है। काव्य के सभी सिद्धांत अपने स्थान पर भले ही उपस्थित हों, परंतु यदि उनमें औचित्य का निर्वाह नहीं किया गया है तो ऐसा काव्य अनेक दोषों से युक्त हो जाएगा और उसकी प्रभावोत्पादकता समाप्त हो जाएगी।

    औचित्य का महत्व प्रतिपादित करते हुए क्षेमेंद्र ने कहा है कि काव्य में गुण और अलंकार यदि उचित रूप में विन्यस्त होते हैं तो काव्य के भूषण कहे जाते हैं और यदि ये उचित रूप में विन्यस्त नहीं होते तो ये ही काव्य के दूषण बन जाते हैं। स्पष्ट है कि अलंकार और गुण को भूषण बनाने वाला तत्व औचित्य ही है—

    उचितस्थानविन्यासदलंकृतिसंकृतिः।
    औचित्यादच्युता नित्यं भवन्त्येव गुणा गुणाः॥ 

    औचित्य को सर्व प्रमुख काव्य तत्व मानते हुए क्षेमेंद्र ने उसे काव्य की आत्मा कहा है 

    अलंकारास्त्वलं गुणाः एव गुणाः सदा। 
    औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं॥

    क्या औचित्य काव्य की आत्मा है? प्रश्न यह उठता है कि क्या काव्य के ऐसे व्यापक तत्व औचित्य को काव्य की आत्मा माना जा सकता है? यह तो निर्विवाद है कि औचित्य एक व्यापक तत्व है। अलंकार योजना, रस योजना, वाक्य विन्यास, पद रचना, प्रबंधत्व आदि सभी में औचित्य का भाव आवश्यक है। औचित्य से अलंकार भाव निरूपण में सहायक बनते हैं, वर्ण विन्यास में चारुता और रसानुकूलता आती है उद्देश्य कथन में सहज आकर्षण उत्पन्न हो जाता है।

    फिर भी औचित्य को काव्य की आत्मा नहीं कहा जा सकता। औचित्य काव्य का पथ प्रदर्शक तो हो सकता है किंतु यह काव्य का मूल तत्व नहीं है।

    काव्य का अंतरंग तत्व होने पर भी औचित्य की महत्ता रस पर टिकी हुई है। रस से पृथक् औचित्य का अस्तित्व नहीं है। इस बात को आचार्य अभिनव गुप्त ने पहले ही बताया था। आचार्य क्षेमेंद्र भी इस बात को स्वीकार करते हैं क्योंकि वे रस सिद्ध काव्य का ही स्थिर जीवित (प्राणतत्व) औचित्य को मानते हैं, रसहीन काव्य का नहीं।

    निष्कर्ष रूप में औचित्य काव्य का नितांत अंतरंग गूढ़ और अति सूक्ष्म तत्व है, किंतु यह काव्य की आत्मा नहीं है।

     

    रस-निष्पत्ति :

    भारतीय काव्यशास्त्र में रस संप्रदाय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य भरत मुनि माने जाते हैं जिन्होंने अपने ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' में इसका पर्याप्त विवेचन किया है। भरत मुनि द्वारा दिया गया रस सूत्र ही इस संप्रदाय का मूल आधार माना जाता है। यह रस सूत्र निम्नवत् है—विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद्रस निष्पत्तिः।

    अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

    रस सूत्र की व्याख्या करने से पूर्व हमें इसके विभिन्न अवयवों पर भी संक्षेप में विचार कर लेना चाहिए।

    (1) विभाव : भाव के उद्बोधक कारणों को विभाव कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं—(i) आलंबन विभाव, और (ii) उद्दीपन विभाव।

    (2) अनुभाव : भाव का बोध कराने वाले कारणों को अनुभाव कहते हैं—अनुभावो भावबोधकः

    ये चार प्रकार के होते हैं :-

    (i) कायिक, (ii) वाचिक, (iii) सात्विक, (iv) आहार्य।

    (3) व्यभिचारी भाव : इन्हें संचारी भाव भी कहते हैं, क्योंकि ये सभी रसों में संचरण करते हैं। स्थायी भाव के पोषक कारणों को व्यभिचारी भाव कहा जाता है। इनकी संख्या तैंतीस है।

    भरत मुनि का मत : भरत मुनि ने रस निष्पत्ति का जो उदाहरण दिया है उससे उनके विचारों का पता चलता है। उनके अनुसार—जैसे कई प्रकार के व्यंजन और औषधि द्रव्यों के संयोग से 'रस' निष्पन्न हुआ करता है वैसे ही नाना भावों के इकट्ठे होने पर रस निष्पन्न हो जाता है। जिस प्रकार गुड़ आदि द्रव्यों, व्यंजनों और औषधियों से षटरस बनते हैं उसी प्रकार स्थायी भाव नाना भावों से युक्त होकर रस बनता है।

    इस उद्धरण से स्पष्ट है कि भरत का दृष्टिकोण वस्तुपरक है अर्थात् वे रस को आस्वाद्य मानते हैं, आस्वाद नहीं, अर्थात् रस एक पदार्थ है जिसकी निष्पत्ति रंगमंच पर होती है और दर्शक (सामाजिक) उसका आस्वाद हर्ष, शोक, आदि के रूप में अनुभव करते हैं। रस निष्पत्ति से उनका अभिप्राय है रस की निर्मिति या निर्माण। वे यह मानते हैं कि स्थायी भाव ही विभावादि के संयोग से रस बनता है। संयोग का अर्थ लेते हैं मिलन, संघटन या संश्लिष्टि।

    भरत के मत का सार

    1. रस आस्वाद्य है, आस्वाद नहीं अर्थात् वह अनुभूति का विषय है, अनुभूति नहीं।

    2. रस का स्थान है रंगमंच।

    3. स्थायी भाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस रूप में बदल जाता है।

    4. यह स्थायी भाव सामाजिक का नहीं है अपितु रंगमंच पर अभिनय करने वाले नायक-नायिका, आदि का है।

    5. भरत के अनुसार निष्पत्ति का अर्थ है निर्मिति और संयोग का अर्थ है संश्लिष्टि। 

    रस सूत्र के व्याख्याता आचार्य

    रस सूत्र की व्याख्या जिन चार आचार्यों ने की उन्हें रस सूत्र के व्याख्याता आचार्य कहा जाता है। इन आचार्यों के नाम और इनके द्वारा प्रतिपादित मत का नाम इस प्रकार है :-

    1. भट्ट लोल्लट का उत्पत्तिवाद या आरोपवाद,

    2. आचार्य शंकुक का अनुमितिवाद,

    3. भट्ट नायक का भुक्तिवाद,

    4. आचार्य अभिनव गुप्त का अभिव्यक्तिवाद।

    (1) भट्ट लोल्लट का मत

    भट्ट लोल्लट का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, किंतु अभिनव गुप्त और मम्मट ने अपने ग्रंथों में जो उद्धरण दिए हैं उनसे लोल्लट के मत का पता चलता है। वे रस सूत्र के प्रथम व्याख्याता हैं। उनके अनुसार—रत्यादि स्थायी भाव नायिकादि विभावों द्वारा उत्पन्न होकर, उद्यान, आदि उद्दीपनों द्वारा उद्दीप्त होकर, कटाक्ष, भुजक्षेप, आदि अनुभावों अर्थात् बाह्य व्यंजकों द्वारा प्रतीति योग्य बनकर और उत्कंठा, आदि व्यभिचारियों द्वारा पुष्ट होकर राम, आदि अनुकायों में रस रूप से रहता है। समानता के कारण नट में वह रस आरोपित होकर सामाजिकों को नटों के अभिनय कौशल द्वारा चमत्कृत कर देता है।

    संयोग का अर्थ भट्ट लोल्लट के इस उद्धरण से यह पता चलता है कि संयोग एक मिश्रित प्रक्रिया है जिसके तीन चरण हैं :-

    1. स्थायी भाव और विभावादि का संबंध स्थायी भाव उत्पन्न होता है, विभावादि उसके उत्पादक कारण हैं अर्थात् इन दोनों में उत्पाद्य-उत्पादक संबंध है।

    2. स्थायी भाव और अनुभाव का संबंध स्थायी भाव अनुभावों से ही प्रतीति योग्य बनते हैं अर्थात् स्थायी भाव प्रतीत्य है और अनुभाव प्रतीतक। इस संबंध को प्रतीत्य-प्रतीतक संबंध कहेंगे।

    3. स्थायी भाव और व्यभिचारी भाव का संबंध-स्थावी भाव पोष्य है और व्यभिचारी भाव पोषक। इस संबंध को पोष्य-पोषक संबंध कहेंगे।

    स्पष्ट है कि संयोग एक मिश्रित प्रक्रिया है जिसे निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं:

    संयोग = उत्पाद्य-उत्पादक + प्रतीत्य-प्रतीतक + पोष्य-पोषक संबंध

    निष्पत्ति का अर्थ : प्रायः आलोचक ये मानते हैं कि भट्ट लोल्लट के अनुसार निष्पत्ति का अर्थ है—उत्पत्ति। इसीलिए उनके मत को उत्पत्तिवाद कहा जाता है, किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है। भट्ट लोल्लट रस की निष्पत्ति को एक मिश्रित प्रक्रिया मानते हैं जो तीन चरणों में पूरी होती है-उत्पत्ति, प्रतीति और पुष्टि। अतः निष्पत्ति= उत्पत्ति+ प्रतीति + पुष्टि। डॉ. नगेंद्र ने इन तीनों व्यापारों के समन्वित रूप के लिए एक नया नाम दिया है—'उपचिति'। अतः डॉ. नगेंद्र के अनुसार भट्ट लोल्लट निष्पत्ति का अर्थ मानते हैं—उपचिति।

    आरोपवाद-लोल्लट के मत को आरोपवाद भी कहते हैं, क्योंकि उन्होंने रस निष्पत्ति का जो उदाहरण दिया है उसके अनुसार—रस मूलतः अनुकार्य (मूल पात्र) में रहता है, परन्तु अभिनय कुशलता के कारण दर्शक नट पर मूल पात्र (अर्थात् राम आदि) का आरोप कर लेता है और इस प्रकार उसमें रस की प्रतीति कर चमत्कृत होता है। इस आरोप के कारण ही लोल्लट के मत को 'आरोपवाद' कहा जाता है।

    रस का आश्रय भट्ट लोल्लट के अनुसार रस की स्थिति राम, आदि मूल पात्रों में होती है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो पात्र रंगमंच पर नहीं हैं वे रसानुभूति करते हैं। उनका तात्पर्य केवल यही है कि वस्तु रूप में रस की सामग्री राम, आदि अनुकार्यों में है जो अभिनय कुशलता से नट-नटी में आरोपित कर लिया जाता है। स्पष्ट है कि रस का स्थान रंगमंच है। इस प्रकार उनका मत भरत से अधिक भिन्न नहीं है।

    लोल्लट के मत का सार

    (1) रस की सत्ता वस्तुगत है।

    (2) मूल पात्रों में निहित रस के अवयवों का आरोप अभिनय कुशलता से नट-नटी पर कर लिया जाता है। इस प्रकार लोल्लट का मत नाटक में अभिनय कुशलता पर सर्वाधिक बल देता है।

    (3) संयोग का अर्थ है उत्पाथ-उत्पादक, प्रतीत्य-प्रतीतक और पोष्य-पोषक संबंध और निष्पत्ति का अर्थ है—उपचिति।

    (4) लोल्लट के मत को उत्पत्तिवाद या आरोपवाद भी कहते हैं।

    (5) लोल्लट के मत की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि उन्होंने केवल रस की वस्तुगत स्थिति पर विचार किया और रसानुभूति प्रक्रिया में सामाजिकों की पूर्णतः उपेक्षा की।

    (2) आचार्य शंकुक का मत

    रस सूत्र के दूसरे व्याख्याता आचार्य शंकुक हैं। वे नैयायिक (न्यायशास्त्री) थे, अतः उनकी व्याख्या का मूल आधार न्यायशास्त्र का अनुमान प्रमाण है।

    प्रमाण तीन प्रकार के होते हैं :-

    1. प्रत्यक्ष प्रमाण जो सामने उपस्थित हो।

    2. अनुमान प्रमाण-ज्ञात से अज्ञात का ज्ञान, जैसे धुएं को देखकर आग का अनुमान।

    3. आप्त प्रमाण-किसी अधिकारी विद्वान या शास्त्र वचन को आधार मानकर उसे प्रमाण मानना।

    अनुमितिवाद :आचार्य शंकुक ने भट्ट लोल्लट के मत को भ्रमपूर्ण कहा है। उनका कहना है कि अनुकार्य और उसके भावों का नट-नटी में आरोप नहीं किया जाता अपितु उनका अनुमान कर लिया जाता है। इसीलिए उनका मत अनुमानवाद या अनुमितिवाद कहलाता है। ज्ञात से अज्ञात का ज्ञान अनुमान प्रमाण से होता है, जैसे- धुएँ को देखकर आग का अनुमान कर लिया जाता है, उसी प्रकार रंगमंच पर उपस्थित नट-नटी को देखकर राम, आदि अनुकार्यों और उनके स्थायी भाव का अनुमान दर्शक कर लेता है। यह अनुमान सामान्य अनुमान से भिन्न कला संबंधी अलौकिक अनुमान है जिसे 'चित्र तुरंग न्याय' से समझा जा सकता है।

    चित्र तुरंग न्याय (ज्ञान)

    चित्र तुरंग ज्ञान चारों लोक प्रसिद्ध ज्ञानों से विलक्षण ज्ञान है।

    ये चारों लोक प्रसिद्ध ज्ञान निम्नवत् हैं :-

    (1) सम्यक् ज्ञान-रस्सी को रस्सी समझना।

    (2) मिथ्या ज्ञान-रस्सी को साँप समझना।

    (3) संशय ज्ञान-रस्सी है या साँप ऐसा संशय रहना।

    (4) सादृश्य ज्ञान-रस्सी जैसा है ऐसा समझना।

    परंतु चित्र तुरंग ज्ञान इन सबसे विलक्षण है। घोड़े का चित्र देखकर 'यह घोड़ा है' ऐसा ज्ञान चित्र तुरंग ज्ञान है। इसी ज्ञान के आधार पर सामाजिक (सहृदय दर्शक) नाटक देखते समय नट में राम, आदि का अनुमान कर लेते हैं और फिर उस अनुमान किए गए नट में स्थायी भाव का भी अनुमान कर लिया जाता है।

    यद्यपि अन्य विषयक अनुमान में सुख का अनुमान करने से सुख नहीं मिलता। उदाहरण के लिए, गर्मी से व्याकुल पथिक वट वृक्ष की छाया का अनुमान कर ले तो उसका ताप नहीं मिटता, किंतु काव्य और नाटकों के विलक्षण प्रभाव द्वारा अनुमान किया गया आनंद भी सहृदय सामाजिकों की वासना के कारण आस्वादनीय बन जाता है, क्योंकि काव्य में शिक्षित नट के अभिनय कौशल से विभावादि बनावटी होने पर भी वास्तविक प्रतीत होते हैं।

    संयोग का अर्थ : शंकुक के अनुसार संयोग का अर्थ है—अनुमाप्य-अनुमापक संबंध अर्थात् स्थायी भाव अनुमाप्य है और विभावादि अनुमापक या अनुमान कराने वाले कारण हैं। डॉ. नगेंद्र ने आचार्य शंकुक के मत की व्याख्या करते हुए कहा है कि शंकुक की व्याख्या से 'संयोग' का अर्थ है- गम्य-गमक संबंध अर्थात् स्थायी भाव गम्य है और विभावादि गमक।

    निष्पत्ति का अर्थ : शंकुक के अनुसार निष्पत्ति का अर्थ है अनुमिति या अनुमान।

    रस की स्थिति शंकुक भी भट्ट लोल्लट के ही समान रस की सत्ता वस्तुगत मानते हैं। उनके अनुसार रस अनुकार्य में रहता है जो अनुमानित होकर नट-नटी में आ जाता है।

    शंकुक के मत की समीक्षा

    शंकुक के मत पर कई प्रश्न चिह्न लगे हैं यथा-

    1. अनुमान बुद्धि का विषय है, अनुभूति का नहीं।

    2. अनुमान के आधार पर सामाजिक को भाव की अनुभूति नहीं हो सकती भले ही शंकुक ने इसे कला संबंधी विलक्षण अनुमान कहा है, किंतु फिर भी अनुमान तो अनुमान ही है।

    3. शंकुक के चित्र तुरंग ज्ञान से काव्य में अभिनय तत्व प्रमुख हो गया और काव्य तत्व गौण हो गया।

    4. शंकुक ने रस की वस्तुगत व्याख्या में लोल्लट की भ्रांति का निवारण चित्र तुरंग ज्ञान से किया है किंतु रस की स्थिति अभी भी रंगमंच पर ही रही। सामाजिक की भूमिका उसमें भी प्रमुख नहीं हो पाई।

    (3) ट्ट नायक का मत

    रस सूत्र के तीसरे व्याख्याता भट्ट नायक हैं। इनका मत 'भुक्तिवाद' कहलाता है, क्योंकि वे न तो रस की उत्पत्ति मानते हैं, न अनुमिति अपितु उनके अनुसार रस की भुक्ति होती है अर्थात् सामाजिक रस रूप में परिणत अपने ही स्थायी भाव का भोग करता है। सामाजिक के हृदय में रस की भुक्ति के लिए काव्य के विभिन्न व्यापार ही उद्बोधक कारण होते हैं।

    शब्द रूप काव्य के तीन व्यापार होते हैं :-

    1. अभिधा व्यापार

    2. भावकत्व व्यापार

    3. भोजकत्व व्यापार

    अभिधा व्यापार से काव्य के सामान्य और आलंकारिक अर्थों का बोध होता है जबकि भावकत्व व्यापार साधारणीकरण करता है। इस व्यापार द्वारा विभावादि सामान्य प्रतीत होते हैं अर्थात् सीता, सीता न रहकर कामिनी मात्र प्रतीत होती है और रति आदि स्थायी भाव ही व्यक्तिगत संबंधों से मुक्त होकर सामान्य प्रतीत होते हैं। विभावादि मेरे हैं या पराए हैं—इस प्रकार की व्यक्ति विशिष्ट संबंध भावना हट जाती है परिणामतः विभावादि और उनके क्रिया व्यापार सामान्य बन जाते हैं।

    शब्द रूप काव्य का तीसरा व्यापार है- भोजकत्व व्यापार। इस व्यापार द्वारा साधारणीकृत स्थायीभाव का रस रूप में भोग होता है।निष्पत्ति और संयोग का अर्थ-भट्ट नायक के अनुसार 'निष्पत्ति' का अर्थ है— 'भुक्ति' और 'संयोग' का अर्थ है- 'भोज्य-भोजक संबंध' अर्थात् स्थायी भाव भोज्य है और विभावादि भोग कराने वाले कारण।

    रस की स्थिति (स्थान)—भट्ट नायक के अनुसार रस का स्थान है सहृदय सामाजिक का चित्त अर्थात् सहृदय सामाजिक अपने ही स्थायी भाव का रस रूप में भोग करता है। इस प्रकार भट्ट नायक के अनुसार रस की स्थिति वस्तुगत न होकर आत्मगत हो गई।

    भट्ट नायक के मत की समीक्षा—

    1. भट्ट नायक का मत भुक्तिवाद कहलाता है।

    2. रस निष्पत्ति में भट्ट नायक का सबसे बड़ा योगदान है साधारणीकरण का सिद्धांत जिसके बिना रस निष्पत्ति हो ही नहीं सकती।

    3. भट्ट नायक ने रस की आत्मपरक व्याख्या की। उनसे पहले के आचार्यों ने रस की स्थिति रंगमंच पर मानकर रस की वस्तुपरक व्याख्या की थी, किंतु भट्ट नायक ने पहली बार यह स्वीकार किया कि रस का स्थान है सहृदय का चित्त।

    4. रस की भुक्ति का जो स्वरूप भट्ट नायक ने रखा उससे रस की वस्तुगत सत्ता सर्वथा समाप्त नहीं हुई, क्योंकि रस अब भी आस्वाद्य ही रहा।

    5. भट्ट नायक ने भावकत्व एवं भोजकत्व नामक जिन व्यापारों की कल्पना की है उनका कोई शास्त्रीय प्रमाण नहीं है।

    6. रस ब्रह्मानंद के समान है, किंतु ब्रह्मानंद नहीं है इस बात का प्रतिपादन सर्वप्रथम भट्ट नायक की व्याख्या से ही हुआ, क्योंकि रसास्वाद की स्थिति में सत्व का उद्रेक हो जाता है और रजस एवं तमस का शमन हो जाता है जबकि ब्रह्मानंद की स्थिति में एकमात्र सत्व ही शेष बचता है रजस और तमस पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं।

    (4) अभिनव गुप्त का मत

    आचार्य अभिनव गुप्त रस सूत्र के चौथे व्याख्याता है। उनके मत से रस की अभिव्यक्ति होती है इसलिए उनका मत अभिव्यक्तिवाद कहलाता है। सहृदयों के चित्त में वासना रूप से स्थित स्थायी भाव विभावादि के प्रभाव से रस रूप में उसी प्रकार व्यक्त हो जाते हैं, जिस प्रकार जल के छीटे देने से मिट्टी में व्याप्त गंध व्यक्त हो जाती है।

    रस का स्वरूप यद्यपि भट्ट नायक ने रस की आत्मपरक व्याख्या की जिससे नाटक एवं काव्य से हटकर रस का स्थान सहृदय का चित्त हो गया फिर भी रस रहा आस्वाद्य ही। उसकी वस्तुपरक सत्ता का सर्वथा लोप नहीं हुआ यह कार्य अभिनव गुप्त की व्याख्या से हुआ उन्होंने रस को चर्वणा आनंद रूप कहा। विभावादि के प्रभाव से सहृदय के चित्त के रति आदि स्थायी भाव व्यक्त होकर व्यंजना के अलौकिक व्यापार से आस्वाद्य बन जाते हैं। उनका आस्वाद ही रस है।

    अभिनव गुप्त ध्वनिवादी आचार्य थे अतः उन्होंने रस को व्यंग्य माना है, वह न तो अभिधा का व्यापार है, न लक्षणा का विषय, अपितु वह तो व्यंजना का व्यापार है। अभिनवगुप्त भट्ट नायक के साधारणीकरण सिद्धांत को स्वीकार तो करते हैं, किंतु उसे भावकत्व व्यापार न मानकर व्यंजना का व्यापार मानते हैं। व्यंजना के इस विभावन व्यापार से सहृदय के चित्त में स्थित रति आदि स्थायीभाव के रसास्वाद का अनुभव होता है। काव्य में व्यंजनाशक्ति की महिमा से ही रस की अभिव्यक्ति होती है।

    संयोग और निष्पत्ति का अर्थ

    अभिनव गुप्त के मत से निष्पत्ति का अर्थ है-अभिव्यक्ति और संयोग का अर्थ है-व्यंग्य-व्यंजक संबंध अर्थात् स्थायी भाव व्यंग्य है तथा विभावादि व्यंजक कारण हैं।

    अभिनव गुप्त ने 'रस निष्पत्ति' के संबंध में चार क्रमबद्ध (स्थितियों) की परिकल्पना की है:

    1. प्रथम चरण में रंगमंच पर व्यक्ति अथवा स्थिति का प्रत्यक्ष बोध होता है

    2. द्वितीय चरण में रंगमंच के वातावरण के प्रभाव से कथावस्तु का विशेषत्व (विशिष्ट भाव) समाप्त होने लगता है और पात्र तथा स्थितियाँ सामान्य रूप में प्रतीत होने लगती हैं। इस स्थिति में व्यक्ति विशेष का बोध तो नहीं होता, किंतु द्वैत बना रहता है।

    3. तृतीय चरण में चित्त में स्थित स्थायी भाव न तो अपने रह जाते हैं और न अन्य से उनका किसी प्रकार का संबंध रहता है। विभावादि में विशेषत्व का लोप होने के कारण अन्तःकरण में स्थित स्थायीभाव साधारणीकृत होकर उद्‌बुद्ध होने लगते हैं।

    4. अंतिम स्थिति में सहृदय सामाजिक साधारणीकृत रूप में उद्बुद्ध अपने ही स्थायी भाव का रस रूप में भोग करता है।

    अभिनव गुप्त के मत की समीक्षा 

    1. अभिनव गुप्त ने रस की नितांत आत्मपरक व्याख्या की है और रस को आस्वाद्य रूप बताया। उनकी व्याख्या से ही रसानुभूति में सामाजिक के महत्व की पूर्ण प्रतिष्ठा हुई।

    2. अभिनव गुप्त ने काव्य के आस्वाद्य को आलौकिक आनंद मानते हुए रस की अलौकिकता पर प्रकाश डाला है। रस की अभिव्यक्ति कैसे होती है इसका समुचित उत्तर देते हुए उन्होंने उन शंकाओं का समाधान किया है जो अभी तक समीक्षकों के लिए समस्या बनी हुई थीं।

    3. रस व्यंग्य है, व्यंजना का व्यापार है अतः रस ध्वनि काव्य की आत्मा है, ऐसा मान लेने पर रस सम्प्रदाय और ध्वनि संप्रदाय दोनों का महत्व स्थापित हो गया।

    4. रस का स्वरूप नितांत आत्मपरक मान लेने से पूरा बल सहृदयता पर पड़ जाता है और काव्य की सत्ता गौण हो जाती है यही उनके मत की सबसे बड़ी दुर्बलता है।

    प्राचीन आचार्यों ने रस निष्पत्ति संबंधी जो मत दिए हैं—उन्हीं के आलोक में आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. नगेंद्र जैसे विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किए। आचार्य शुक्ल दो प्रकार की रसानुभूति मानते हैं— उत्तम कोटि की रसानुभूति और मध्यम कोटि की रसानुभूति। जहाँ सहृदय का तादात्म्य आश्रय के साथ होता है वहां उत्तम कोटि की रसानुभूति होती है, किंतु जब सहृदय आश्रय का शीलद्रष्टा होता है तब उसका तादात्य कवि की अनुभूति के साथ होता है यह मध्यम कोटि की रसानुभूति है। डॉ. नगेंद्र ने रस निष्पत्ति की व्याख्या 'रस सिद्धांत' नामक ग्रंथ में की है और इसे व्यापक मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों से जोड़ दिया है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि रस सूत्र की व्याख्या से जो चिंतन मनन हुआ उसने काव्यशास्त्र का बहुत उपकार किया है।

    साधारणीकरण : रस निष्पत्ति के प्रसंग में 'साधारणीकरण' शब्द का विशिष्ट महत्व है। भारतीय रस-चिंतन के अंतर्गत साधारणीकरण पर विचार करने की लंबी परंपरा विद्यमान रही है! 'साधारणीकरण' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम भट्टनायक (10वीं शताब्दी) ने रस-निष्पत्ति संबंधी प्रख्यात् सूत्र 'विभावानुभावव्यभि चारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति' की व्याख्या के भीतर किया है। भट्टनायक ने भरत-सूत्र के व्याख्याकार भट्टलोल्लट (उत्पत्तिवाद या आरोपवाद), शंकुक (अनुमितिवाद) के व्याख्यागत दोषों का परिहार करने के लिए अपने सिद्धांत भोगवाद या भुक्तिवाद के अंतर्गत साधारणीकरण की प्रतिष्ठा की। काव्य में वर्णित विशिष्ट पात्रों के 'भाव', 'सहृदय साधारण' या सर्वसाधारण के आस्वाद के विषय किस प्रकार हो जाते हैं? काव्यानुभूति के आस्वाद के इस मौलिक प्रश्न पर पर्याप्त ध्यान केंद्रित किया गया है। इसी प्रश्न का समाधान है साधारणीकरण सिद्धांत। व्यापक अर्थों में 'साधारणीकरण' को 'काव्यानुभूति की प्रक्रिया' कहा जा सकता है।

    इस प्रक्रिया का गहरा संबंध काव्य-सम्प्रेषण व्यापार से है। आज लगभग सभी विद्वान इस बात से सहमत हैं कि साधारणीकरण सिद्धांत के बीज भरत मुनि (तीसरी-चौथी शताब्दी) के 'नाट्यशास्त्र' में विद्यमान है। भरतमुनि का यह कथन 'सामान्य गुणयोगेने रसा निष्पद्यन्ते' अर्थात् जब पाठक भावों को सामान्य रूप से 'मैं' और 'पर' की भावना से मुक्त होकर ग्रहण करते हैं तब रस की निष्पत्ति होती है। परंतु साधारणीकरण सिद्धांत का निश्चित उल्लेख भट्टनायक के मत में ही मिलता है। भट्टनायक का ग्रंथ 'हृदय दर्पण' आज उपलब्ध नहीं है। किंतु आचार्य अभिनवगुप्त ने अपने ग्रंथ 'अभिनवभारती' में भट्टनायक का मत उद्धृत किया है। उसी के आधार पर भट्टनायक के मत की जानकारी आज उपलब्ध है। अभिनवगुप्त ने भट्टनायक के साधारणीकरण सिद्धांत को उद्धृत करते हुए उसका अपने ढंग से संशोधन किया है।

    भट्टनायक के अनुसार काव्य में तीन व्यापार होते हैं अभिधा, भावकत्व एवं भोगकत्व या भोजकत्व।

    यहाँ यह प्रश्न उठता है कि इन तीन व्यापारों का अर्थ क्या है।

    जहाँ तक अभिधा-व्यापार का संबंध हैं, वह तो शब्द को आधार बनाकर चलने वाले सभी शास्त्रों में मिलता है, किंतु शेष दो व्यापार काव्य-शब्दों की अपनी विशेषता है। इन्हीं दो विशिष्ट व्यापारों के कारण काव्य अन्य शब्दधारी शास्त्रों से विशिष्ट एवं विलक्षण होता है। काव्य में अभिधा व्यापार वाच्यार्थ को उपस्थित करने की क्षमता रखता है। किंतु वास्तविक कार्य भावकत्व एवं भोजकत्व व्यापारों के द्वारा ही संपन्न होता है। भावकत्व व्यापार विशिष्ट विभावादिकों को साधारणीकृत रूप में उपस्थित करने के साथ सामाजिक या सहृदय की 'निज-मोह-संकटता का निवारण' करते हुए रसों को भावित कर देता है तथा भोजकत्व व्यापार के द्वारा उन भावित रसों का भोग होता है। इस प्रकार, अभिधा व्यापार वाच्यार्थ-विषयक है, भावकत्व रसादि विषयक और भोजकत्व सहृदय या सामाजिक विषयक। इन्हीं तीन व्यापारात्मक अंशों के आधार पर काव्य के शब्द अन्य शास्त्रादिक के शब्दों से विशिष्ट एवं विलक्षण हो जाते हैं।

    साधारणीकरण से भट्टनायक का तात्पर्य

    भट्टनायक के इस कथन का विश्लेषण करने पर निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं :-

    1. साधारणीकरण विभावादि व्यापार का होता है।

    2. भावकत्व-व्यापार का प्राण है साधारणीकरण।

    3. भावकत्व व्यापार द्वारा भाव्यमान स्थायी भाव ही रस रूप में परिणत हो जाता है।

    4. साधारणीकरण रसास्वाद से पूर्व की प्रक्रिया है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो रस के विभिन्न अवयवों को अपने-अपने वैशिष्ट्य से मुक्त कर आस्वाद्य रूप में प्रस्तुत कर देती है।

    5. अभिधा व्यापार की सीमा सामान्य पद-पदार्थ तक ही है। इससे आगे के कार्य भावकत्व तथा भोजकत्व व्यापार के द्वारा होते हैं। कवि पूरे प्रयास से भाषा को दोषों से बचाता है तथा गुणों-अलंकारों से अलंकृत करता है।

    संस्कृत आचार्यों द्वारा साधारणीकरण की व्याख्या और विवेचन

    आधुनिक समीक्षा में साधारणीकरण को लेकर बहुत से प्रश्न उठाए जाते हैं—

    1. साधारणीकरण किसका होता है?

    2. इस व्यापार की प्रक्रिया एवं स्वरूप क्या है?

    3. काव्यास्वाद में साधारणीकरण की स्थिति एवं महत्व क्या है?

    इन प्रश्नों को दृष्टि में रखने पर यह जिज्ञासा भी उठती है कि भट्टनायक को किस-किस का साधारणीकरण अभिप्रेत है। भट्टनायक विभावादि का साधारणीकरण मानते हैं। यहाँ सीधा प्रश्न उठता है कि अभिनवगुप्त तक ने साधारणीकरण के सिद्धांत-कथन में यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया कि विभावाददि के अंतर्गत साधारणीकरण के लिए अमुक-अमुक वस्तुओं को लिया जा सकता है। उनकी वस्तुपक्षीय सामग्री को देखने से तो यही लगता है कि विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों का ही साधारणीकरण उन्हें अभिप्रेत है। इसका कारण है कि उनका पूरा रस-चिंतन भरत के सूत्र 'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः' के प्रसंग में ही आया है। भरत के मूल कथन में 'विभावादि' आने से भट्टनायक या अभिनवगुप्त को इसे अलग से स्पष्ट करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। भट्टनायक ने विषय-पक्ष (विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव) का साधारणीकरण से अभिप्रेत अर्थ लिया। विषयि-पक्ष अर्थात् प्रमाता या समाजिक की सत्ता तथा स्थायी भावों के साधारणीकरण पर वे मौन ही रहे। केवल उन्होंने प्रमाता-चेतना (सामाजिक) के मोह संकटता निवारण की स्पष्ट बात कही है। भट्टनायक 'निविड निज मोह संकटता निवारण' को भावकत्व व्यापार की सीमा में देखते हैं पर सत्वोद्रेक को 'संविद् विश्रान्ति' के साथ रखकर भोजकत्व व्यापार के अंतर्गत देखते हैं। इसीलिए वे सामाजिक की सत्ता के साधारणीकरण की बात नहीं उठाते। भट्टनायक का ग्रंथ 'हृदय दर्पण' उपलब्ध न होने से भी उनकी बात को समझने में कठिनाई रही है। अभिनवगुप्त ने 'अभिनवभारती' में उनके मत को 'हृदय दर्पण' से उद्धृत किया है। अभिनवगुप्त 'प्रत्यभिज्ञा-वृत्ति-विमर्शिनी' में 'यथाहः मीमांसकाग्रणोभट्टनायकः' से जाहिर है कि वे उन्हें मीमांसक ही मानते हैं और मीमांसा की सीमाओं के भीतर ही भट्टनायक के मत का खंडन करते हैं।

    आचार्य अभिनवगुप्त

    अभिनवगुप्त ने भट्टनायक के मत में संशोधन कर साधारणीकरण को अपने ही ढंग से प्रस्तुत किया—वाक्यार्थ के ज्ञान के उपरांत साधारणीकरण नामक व्यापार द्वारा सहृदय की कुछ इस प्रकार की मानसी एवं साक्षात्कारात्मिका प्रतीति होती है कि जिसके द्वारा काव्य अथवा नट आदि सामग्री (दृश्य काव्य में) में वर्णित देश, काल, प्रमाता आदि की विषय-सीमा नष्ट हो जाती है। अर्थात् ये नियामक कारणों के बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं। वस्तुतः यही साधारणीकरण व्यापार है।

    अभिनवगुप्त के मतानुसार—

    1.साधारणीकरण विभावादि का ही नहीं होता, स्थायी भाव का भी होता है। जिस प्रकार विभावादि स्थायी भाव के कारण होते हैं, उसी प्रकार विभावादि का साधारणीकरण भी स्थायी भाव के साधारणीकरण का कारण होता है।

    2. स्थायी भाव के साधारणीकरण का अर्थ है देशकाल के बंधन, व्यक्ति-संसर्ग आदि से मुक्ति। व्यक्ति चेतना से मुक्त हो जाने पर भाव की ऐंद्रिय सुख-दुःख भावना भी नष्ट हो जाती है।

    3. काव्यास्वाद की प्रक्रिया में भाव का साधारणीकरण वैयक्तिक न रहकर सामूहिक क्रिया है। यह एक सामाजिक की अनुभूति न होकर सामूहिक अनुभूति है।

    साधारणीकरण का सार है स्थायी भाव का साधारणीकरण।

    4. अभिनवगुप्त की उपर्युक्त व्याख्या को आचार्य मम्मट के 'काव्य-प्रकाश' की टीका में इस प्रकार दिया गया है—

    1. भावकत्व ही एक विशिष्ट अर्थ में साधारणीकरण है।

    2. भावकत्व व्यापार के द्वारा ही विभावादि तथा स्थायी भाव का साधारणीकरण होता है।

    3. साधारणीकरण का अभिप्राय है व्यक्ति संसर्गों से मुक्त होकर विभावों का विशेष से सामान्य हो जाना (सीतादि विशेष पात्रों का कांतात्व आदि सामान्य रूप में उपस्थित होना)।

    4. स्थायी भाव और अनुभाव के साधारणीकरण का अभिप्राय है अपने-पराए के व्यक्ति संबंधों से छूट जाना।

    आचार्य विश्वनाथ

    संस्कृत के परवर्ती सभी शास्त्रकार प्रायः भट्टनायक तथा अभिनवगुप्त के साधारणीकरण सिद्धांत की पुष्टि करते रहे। केवल आचार्य विश्वनाथ और पंडितराज जगन्नाथ ने चिंतन के कुछ मौलिक संकेत दिए। विश्वनाथ (14वीं शताब्दी) ने दो भिन्न स्थापनाओं का संकेत दिया। विश्वनाथ के अनुसार पाठक या प्रमाता का आश्रय के साथ अभेद संबंध स्थापित हो जाता है। अर्थात् साधारणीकृत स्थिति में रत्यादि स्थायी भाव का उसी रूप में अनुभव होने लगता है और इस रसानुभूति के समय 'परस्य न परस्येति ममेति न ममेतिच' (यह दूसरे का है, यह दूसरे का नहीं है यह मेरा है, यह मेरा नहीं है) इस प्रकार का भेद का नष्ट हो जाता है।

    1. विभावादि के विभावन-व्यापार के कारण सहृदय या प्रमाता आश्रय से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस प्रकार सामान्य-जन देव-महापुरुष आदि के कार्यों तथा अनुभूतियों का आस्वादन कर सकता है। देवताओं-महापुरुषों से तादात्म्य साधारणीकरण के परिणामस्वरूप घटित होता है।

    2. काव्यास्वाद के समय काव्य के विभावादि का 'मेरे हैं अथवा मेरे नहीं हैं दूसरे के हैं अथवा दूसरे के नहीं हैं' इस संबंध भावना का परिहार हो जाता है। उन्होंने कहा कि—

    परस्य न परस्येति ममेति न ममेति च
    तदास्वादे विभावादिः परिच्छेदो न विद्यते। (साहित्यदर्पण, 3-13)

    पंडितराज जगन्नाथ 

    पंडितराज जगन्नाथ (17-18वीं शताब्दी ई.) ने नव्य-न्याय दर्शन के प्रकाश में आश्रय के साथ तादात्म्य या अभेद को स्वीकार तो कर लिया किंतु साधारणीकरण व्यापार के स्थान पर 'दोष-दर्शन' की स्थापना कर डाली। 'दोष-दर्शन' की स्थापना का अर्थ है पाठक को व्यंजना वृत्ति से आलंबन विषयक रति का ज्ञान। इसके बाद सहृदयता के कारण पाठक के मन में एक दोष-भावना जाग्रत होती है जिससे उसकी आत्मा कल्पित विभावादि से आच्छादित हो जाती है और उसमें सीपी के टुकड़े में चाँदी की प्रतीति सदृश इस दोष के कारण अनिर्वचनीय सत्-रूप रति आदि चित्तवृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती है। इन्हीं चित्तवृत्तियों के आत्म-चैतन्य द्वारा प्रकाशित होने को रसास्वाद कहते हैं। इस 'दोष-दर्शन' की कल्पना के आधार पर ही वे आश्रय से तादात्म्य की स्वीकृति दे सके।

    हिंदी विद्वानों द्वारा साधारणीकरण संबंधी चिंतन और विवेचन

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल

    हिंदी-आलोचना के प्रथम आधुनिक आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साधारणीकरण सिद्धांत पर गंभीरता से विचार किया। आ. शुक्ल ने अपने प्रसिद्ध लेख 'साधारणीकरण और व्यक्तिवैचित्र्यवाद' में साधारणीकरण सिद्धांत पर मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया। यह चिंतन इतना मौलिक है कि काव्यशास्त्र की शास्त्रबद्ध जड़ता से मुक्त होकर नवीन दृष्टि प्रदान करता है। आचार्य शुक्ल ने वर्तमान की चुनौतियों का सामना करने के लिए इस सिद्धांत का पुनर्नवा रूप 'लोकधर्म सिद्धांत' के पोषण एवं समर्थन के लिए प्रस्तुत किया। हालाँकि उनके चिंतन में विश्वनाथ के मत की अनुगूँज मिलती है, लेकिन व्याख्यान-विश्लेषण उनका मौलिक है। साधारणीकरण सिद्धांत से संबंधित आ. शुक्ल की स्थापनाएँ निम्नलिखित हैं :-

    1. किसी काव्य का श्रोता या पाठक जिन विषयों को मन में लाकर रति, करुणा, क्रोध, उत्साह इत्यादि भावों तथा सौंदर्य, रहस्य गांभीर्य आदि भावनाओं का अनुभव करता है, वे अकेले उसी के हृदय से संबंध रखने वाले नहीं होते, मनुष्य मात्र के हृदय में विद्यमान भावनाओं की भावनात्मक सत्ता (मनुष्य मात्र के हृदय में विद्यमान भावनाओं) पर प्रभाव डालने वाले होते हैं।

    2. जब तक किसी भाव का कोई विषय इस रूप में नहीं लाया जाता कि वह सामान्यतः सबके उसी भाव का आलंबन हो सके, तब तक उसमें रसोद्बोधन की पूर्ण शक्ति नहीं आती। इसी रूप में लाया जाना हमारे यहाँ 'साधारणीकरण' कहलाता है।

    3. सच्चा कवि वही होता है जिसे लोक-हृदय की पहचान हो, जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को देख सके। इसी लोक-हृदय में हृदय के लीन होने की दशा का नाम रस-दशा है।

    4. जब तक रस के वर्णन में आलंबन का चित्रण इस रूप में न होगा कि वह मनुष्य मात्र के क्रोध का पात्र हो सके तब तक वह वर्णन भाव-प्रदर्शन मात्र रहेगा, उसका भाव और विभाव पक्ष या तो शून्य अथवा अशक्त होगा। पर भाव और विभाव दोनों पक्षों के सामंजस्य के बिना पूरी और सच्ची रसानुभूति हो नहीं सकती।

    5. काव्य का विषय सदा 'विशेष' होता है, 'सामान्य' नहीं, वह व्यक्ति सामने लाता है 'जाति' नहींl बिंब जब होगा तब विशेष या व्यक्ति का ही होगा, सामान्य या जाति का नहीं।

    6.साधारणीकरण का अभिप्राय यह है कि पाठक या श्रोता के मन में जो व्यक्ति-विशेष या वस्तु- विशेष आती है वह जैसे काव्य में वर्णित 'आश्रय' के भाव का आलंबन होती है वैसे ही सब सहृदय पाठकों या श्रोताओं के भाव का आलंबन हो जाती है।

    7. इससे सिद्ध हुआ कि साधारणीकरण आलंबनत्व धर्म का होता है। व्यक्ति तो विशेष ही रहता है पर उसमें प्रतिष्ठा ऐसे सामान्य धर्म की ही रहती है जिसके साक्षात्कार से सब पाठकों या श्रोताओं के मन में एक ही भाव का उदय थोड़ा-बहुत होता है। विभावादि सामान्य रूप में प्रतीत होते हैं' इसका तात्पर्य यही है कि रसमग्न पाठक के मन में यह भेदभाव नहीं रहना कि यह आलंबन मेरा है या दूसरे का। थोड़ी देर के लिए पाठक या श्रोता का हृदय लोक का सामान्य हृदय हो जाता है।' (चिंतामणि, भाग-1, पृ.227-230)

    8. साधारणीकरण में आलंबन द्वारा भाव की अनुभूति प्रथम कवि में चाहिए, फिर उसके वर्णित पात्र में और फिर श्रोता या पाठक में। विभाव द्वारा जो साधारणीकरण किया गया है, वह तभी चरितार्थ होता है।' (रस-मीमांसा, पृ.99)

    9.'लोक-हृदय की यह सामान्य अंतर्भूमि परखकर हमारे यहाँ 'साधारणीरण-सिद्धांत' की प्रतिष्ठा की गई है। वह सामान्य अंतर्भूमि कल्पित या कृत्रिम नहीं है।' (चिंतामणि, भाग-1, पृ.237)

    बाबू गुलाबराय

    बाबू गुलाबराय ने 'सिद्धांत और अध्ययन' में आलंबन के विषयगत अस्तित्व पर बल देकर कहा है कि 'जनता के मन में भी परंपरागत संस्कारों से एक सामान्य भावना बनी रहती है, वही आलंबन का विषयगत अस्तित्व है। जो बात सबके मन में रहती हो वह मानसिक रहती हुई विषयनिष्ठता धारण कर लेती है।' (पृ. 213) निष्कर्ष यह कि सहृदय का तादात्म्य काव्य-निबद्ध कवि की अनुभूति से होता है। 'रामचरितमानस', 'साकेत' और 'राम की शक्ति पूजा' की काव्य-संवेदना की अनुभूति एक-सी नहीं उसमें कवि-अनुभूति की भिन्नता का अनुभव रहता है।

    डॉ. नगेंद्र

    साधारणीकरण के प्रश्न पर डॉ. नगेंद्र ने सभी कोणों से विचार किया है। उनके विचारों का सार 'रीति-काव्य की भूमिका' के अनुसार इस प्रकार है—

    1. साधारणीकरण का अर्थ है काव्य के भावन द्वारा पाठक या श्रोता का भाव की 'सामान्य' भूमि पर पहुँच जाना दुष्यंत की शकुंतला के प्रति रति के भाव का उस अवस्था में पहुँच जाना कि यह रति शकुंतला के प्रति दुष्यंत की रति न रहकर पुरुष की स्त्री के प्रति साधारण रति-मात्र रह जाए।

    भट्टनायक और अभिनवगुप्त इसका भी निषेध करते हैं कि हम दुष्यंत के स्थान पर अपने को और शकुंतला के स्थान पर अपनी प्रेयसी को देखने लगते हैं, क्योंकि एक तो अपनी रति का प्रकाशन लज्जास्पद है, दूसरे यह भी संभव है कि हमारा किसी व्यक्ति-विशेष से प्रेम ही न हो। उस समय शुक्ल जी कहते हैं कि हमारे सामने कल्पित सुंदरी का चित्र आएगा, परंतु किसी कल्पित सुंदरी का चित्र आना व्यक्तिगत रति का नहीं, साधारण रति का रूप है। दूसरे, यदि भाव मधुर न होकर कटु है (जैसे राम का रावण पर क्रोध देखकर मेरा भी अपने शत्रु के प्रति क्रोध जाग्रत हो जाता है) तो मेरा यह अनुभव प्रत्यक्ष होने के कारण कटु ही होगा। रस इसे नहीं कहते। वास्तव में यह सब कुछ होता तो साधारणीकरण की आवश्यकता ही क्यों होती?

    प्रश्न उठता है कि साधारणीकरण किसका होता है? 'मानस' में पुष्प वाटिका के प्रसंग को पढ़ते हुए मुझे तीन व्यक्तियों की चेतना है अपनी (सतदय की), राम की (आश्रय की) तथा सीता की (आलंबन की)। इसके अतिरिक्त एक अव्यक्त व्यक्तित्व और है कवि का। मेरे (सहृदय के) व्यक्तिगत आलंबन का भी एक अव्यक्त व्यक्तित्व हो सकता है।

    क्या साधारणीकरण आश्रय का होता है? अर्थात् क्या राम का व्यक्तित्व सभी सहृदयों का व्यक्तित्व हो जाता है और स्पष्ट शब्दों में क्या सभी सहृदय अपने को राम समझ कर रति का अनुभव करते हैं? नहीं। यहाँ शायद नायक का व्यक्तित्व प्रेय होने के कारण और भाव मधुर होने के कारण आपको 'हाँ' कहने का लोभ हो जाए। परंतु जहाँ आश्रय अप्रिय है और भाव कटु है वहाँ इसकी संभावना कैसे हो सकती है।

    नगेंद्र ने सर्वांग का साधारणीकरण माना है। 'अतः काव्य प्रसंग या रस के समस्त अवयवों का साधारणीकरण मानने की अपेक्षा कवि भावना का साधारणीकरण मानव मनोविज्ञान के अधिक अनुकूल है। दोनों के साथ इसकी संगति बैठ जाती है। वस्तुतः यह दोनों के बीच अनुस्यूत संबंध सूत्र है और वर्तमान में रस-सिद्धांत के सबसे समर्थ प्रतिष्ठापक आचार्य शुक्ल को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं है।' (रस सिद्धांत, पृ. 208)

    प्रो. निर्मला जैन ने आ. केशव प्रसाद मिश्र, आ. शुक्ल और डॉ. नगेंद्र के मतों पर समग्रता में विचार करने के बाद यह प्रश्न उठाया है कि 'भट्टनायक जिस रस-सामग्री के बार-बार भावन से साधारणीकरण की चर्चा करते हैं अथवा शुक्ल जी जिसमें आलंबन पर सबसे अधिक बल देते हैं वह कवि की अनुभूति का शब्द मूर्त रूप है। परंतु सहृदय की चित्तवृत्ति के साधारणीकरण के बिना रसानुभूति कैसे सिद्ध होगी यह स्पष्ट नहीं होता।' (रस सिद्धांत और सौंदर्यशास्त्र, पृ.175) एक गंभीर बौद्धिक बहस के बाद प्रो. निर्मला जैन आख़िरकार डॉ. नगेंद्र के इस कथन से सहमत हो जाती हैं कि 'साधारणीकरण रसास्वाद का समरूप, सहचारी या संचारी नहीं, वह तो कारण है।'

    आचार्य केशव प्रसाद मिश्र के मत की परिसीमा यह है कि 'वे सहृदय के चित्त की एकतानता और साधारणीकरण को एक मानकर चले। वस्तुतः ये स्सानुभूति की प्रक्रिया के सोपान हैं, जिनमें पूर्वापर अथवा चरम स्थिति है जो संविद विश्रांति है रस है।' (वही, पृ.176) हिंदी के विद्वानों की साधारणीकरण संबंधी धारणाओं को जाँचने-परखने के बाद प्रो. जैन को कहना पड़ा है कि 'वस्तुतः भट्टनायक ने भावकत्व और भोजकत्व शक्तियों की कल्पना करके साधारणीकरण और रसास्वाद की चरमस्थिति में एक जो क्रम निर्धारित किया है, वह यों ही उड़ा देने की बात नहीं है। उन्हें भावकत्व या भोजकत्व व्यापार न कहकर भले ही व्यंजना-व्यापार के आधार पर समझा दिया जाए किंतु साधारणीकरण और रसास्वादन के मध्यक्रम चाहे कितना ही अलक्षित क्यों न हो, क्रम निश्चय ही वर्तमान रहता है। (वही, पृ.176)

    शब्द की 'शक्ति' अर्थ को व्यक्त करने का व्यापार है। शब्द का 'कारण' जिसके द्वारा कार्य का संपादन होता है उसे 'व्यापार' कहा जाता है। जिस प्रकार घड़ा बनाने के लिए मिट्टी, चाक, दंड तथा कुम्हार आदि कारण हैं और चाक का घूमना वह व्यापार है जिससे घड़ा बनता है, उसी तरह अर्थ-बोध कराने में शब्द कारण है तथा अर्थ का बोध कराने वाले व्यापार अभिघा-लक्षणा-व्यंजना तथा तात्पर्यवृत्ति आदि हैं। भारतीय आचार्यों ने इन्हीं को 'शक्ति' या 'वृत्ति' नाम दिया है। आचार्य विश्वनाथ ने इसे 'शक्ति' नाम दिया है तो मम्मट ने 'वृत्ति'।

    भारतीय आचार्यों ने अर्थ के तीन प्रमुख भेद किए हैं वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ। एक चौथे प्रकार के अर्थ-तात्पर्य-वृत्ति या तात्पर्यार्थ को भी कुछ आचार्यों ने स्वीकृति दी है किंतु इसके संबंध में मतभेद रहा है। वाच्यार्थ की उपलब्धि अभिधा-व्यापार से होती है। अर्थात् साक्षात् संकेत दिए गए अर्थ का जो शब्द अभिधा-व्यापार द्वारा बोध कराता है वाचक कहलाता है। वाचक शब्दों से प्राप्त अर्थ को वाच्यार्थ कहते हैं। लक्ष्यार्थ में लक्षणा शब्द-शक्ति और व्यंग्यार्थ में व्यंजना-शक्ति सक्रिय रहती हैं।

     

    अभिधा शब्द-शक्ति :

    प्रसिद्ध अर्थ अथवा साक्षात् संकेतित अर्थ के बोधक व्यापार (मूल कारण) को अभिधा शब्द-शक्ति कहते हैं। पाठक अथवा श्रोता को अभिधा से जो अर्थ मिलता है उसे मुख्यार्थ कहते हैं क्योंकि सामान्य मानव जीवन भाषा के अभिधा-व्यापार से ही चलता है। अभिधा-व्यापार की लोक व्यापकता को देखते हुए कुछ आचार्यों ने अभिधा को लक्षणा-व्यंजना की तुलना में ज़्यादा महत्व दिया है 'अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा क्षीण/अधम व्यंजना रस कुटिल उलटी कहत प्रवीन' जैसे कथन इसी चिंतन परंपरा की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं। हम इस कथन से पूरी तरह सहमत न भी हो तो भी यह तो स्पष्ट है कि इसमें अर्थ की स्पष्टता, निश्वितता और भाषा की स्वच्छता का गुण है। पश्चिम में भी 'क्लैरिटी', 'पर्सपिक्युटी' को गद्य और पद्य, दोनों में महत्व दिया गया है। कारण, मुख्यार्थ के बिना लक्षणा-व्यंजना का कार्य हो ही नहीं सकता है। अभिधा में लक्षणा-व्यंजना से ज़्यादा लोक-विस्तार है।

    वाचक शब्द उन शब्दों को कहते हैं जो मुख्यार्थ अथवा साक्षात् संकेतित अर्थ का बोध कराते हैं। वाचक को संकेतित शब्द भी कहते हैं। अभिधा-शक्ति द्वारा ज्ञात अर्थ 'वाच्यार्थ' कहलाता है। वाच्यार्थ के अन्य नाम हैं प्रसिद्धार्थ, मुख्यार्थ, साक्षात संकेतित। साक्षात संकेतित का अर्थ शब्द के गुण, जाति, द्रव्य तथा क्रिया से निर्धारित होता है। अभिधा-शक्ति के द्वारा तीन प्रकार के शब्दों का बोध हो जाता है—रूढ़, यौगिक, योगरूढ़। रूढ़ शब्द वे शब्द कहलाते हैं जिनका अर्थ-बोध लोक-प्रचलन की समुदाय-शक्ति द्वारा होता है। इनकी व्युत्पत्ति नहीं होती जैसे घोड़ा, गढ़ आदि। यौगिक शब्द उन शब्दों को कहते हैं जिनका अर्थ-बोध (प्रकृति और प्रत्यय) की शक्ति द्वारा होता है जैसे सुधांशु, दिनकर दिवाकर आदि। योगरूढ़ शब्द उन शब्दों को कहते हैं जिनका अर्थ-बोध अवयवों की शक्ति के सहयोग से होता है। ये शब्द यौगिक होते हुए भी रूढ़ होते हैं, जैसे 'जलज' का यौगिक अर्थ है जल से उत्पन्न, पर योगरूढ़ अर्थ है कमल।

    लक्षणा शब्द-शक्ति

    साहित्य में लक्षणा शब्द-शक्ति वहाँ होती है जहाँ लक्षक या लाक्षणिक शब्द का प्रयोग हो। मम्मट के अनुसार—

    मुख्यार्थबाधे तद्योगेरुदितोऽथ प्रयोजनात।
    अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत सा लक्षणा रोपिता क्रिया॥

    (काव्य-प्रकाश)

    अर्थात् मुख्य अर्थ के बाधित होने पर रूढ़ि अथवा प्रयोजन के कारण जिस शक्ति (क्रिया) के द्वारा मुख्य अर्थ से संबंध रखने वाला अन्य अर्थ लक्षित हो, उसे लक्षणा-व्यापार शक्ति कहते हैं। इस भाँति लक्षणा के लिए तीन बातें आवश्यक हैं :-

    (1) मुख्यार्थ में बाधा, (2) मुख्यार्थ का अमुख्यार्थ (लक्ष्यार्थ) के साथ योग या आवश्यक संबंध; और (3) रूढ़ि अथवा प्रयोजन का कारण रूप में विद्यमान होना। यहाँ लक्षणा मूलतः अर्थ का व्यापार है शब्द में वह आरोपित है। 

    (2) रूढ़ि अथवा प्रयोजन के आधार पर लक्षणा के दौ प्रमुख भेद हैं रूढ़ा और प्रयोजनवती लक्षणा। इन दोनों के क्रमशः उदाहरण हैं (क) कर्मणि कुशलः (ख) गंगायां घोषः।

    रूढ़ा लक्षणा

    कुशल शब्द का अर्थ होता है कुश (घास) को उखाड़कर लाने में चतुर। इस कार्य के लिए चतुरता ज़रूरी है, अपने हाथ को क्षति ग्रस्त किए बिना कुश को उखाड़ना या उखाड़ने की कला-विधि में चतुर। जब हम कहते हैं कि कोई व्यक्ति कार्य-कुशल है तो हमारा अभिप्राय होता है कि वह कार्य करने में कुशल या दक्ष या प्रवीण है। व्यवहार में यही अर्थ प्रचलित हो गया। किंतु, मुख्यार्थ से संबद्ध होने पर भी वह उससे भिन्न है। रूढ़ा लक्षणा का अर्थ है जहाँ मुख्यार्थ से संबद्ध होने पर भी वह उससे भिन्न है। जहाँ मुख्यार्थ रूढ़ि के कारण लक्ष्यार्थ का बोध कराए वहाँ रूढ़ा लक्षणा मानी जाती है। किसी भी भाषा के सभी मुहावरे और लोकोक्तियाँ रूढ़ा लक्षणा के अंतर्गत आ जाते हैं जैसे 'आँख का तारा' होना, 'आँख का काँटा' होना आदि।

    प्रयोजनवती लक्षणा

    जहाँ मुख्यार्थ किसी प्रयोजन के कारण लक्ष्यार्थ का बोध कराए, वहाँ प्रयोजनवती लक्षणा मानी जाती है। 'गंगायां घोषः' का अभिधा में अर्थ होगा गंगा में अहीरों की बस्ती है। कहने वाले का प्रयोजन है कि गंगा तट पर जहाँ अहीरों की बस्ती है वहाँ वही शीतलता और पावनता है जो गंगा की धारा में है। यहाँ 'प्रयोजन' व्यंजना का विषय है। इसी कारण, प्रयोजनवती लक्षणा को 'व्यंजनाश्रित' स्वीकार किया गया है और उसे नया नाम दिया गया है 'सव्यंग्या लक्षणा'। आचार्यों ने इस प्रश्न पर बहुत विवाद किया है कि लक्षण 'पद' में होता है अथवा 'वाक्य' में। अधिकांश आचार्य उसे पद का ही व्यापार मानते हैं किंतु विश्वनाथ ने लक्षणा को पद के अतिरिक्त वाक्य की शक्ति के रूप में भी माना है।

    साहित्य-दर्पणकार विश्वनाथ ने लक्षणा के अस्सी भेद माने हैं रूढ़ा के सोलह और प्रयोजनवती के चौंसठ भेदा मम्मट ने लक्षणा के तेरह भेद और उपभेद माने। प्रयोजनवती लक्षणा के दो भेद हैं गौड़ी लक्षणा और शुद्धा लक्षणा। इन दोनों के दो-दो उपभेद हैं उपादान लक्षणा और लक्षण-लक्षणा। इस प्रकार ये चार हैं फिर इन चारों के दो-दो उपभेद हैं सारोपा और साध्यवसाना। गौण कहते हैं सादृश्य संबंध को और शुद्धा कहते हैं सादृश्य से इतर संबंध को। उपादान लक्षणा में शब्द के मुख्यार्थ का त्याग नहीं होता और साथ में अन्य अर्थ का भी आक्षेप होता है। लक्षण-लक्षणा में शब्द अन्य अर्थ की सिद्धि के लिए अपने को अर्पित कर देता है। 'गंगायां घोषः' में गंगा शब्द का अर्थ 'तट' किया जाए तो लक्षण-लक्षणा होगी और 'गंगा-तट' अर्थ किया जाए तो उपादान लक्षणा। संस्कृत के आचार्यों ने लक्षणा के इतने भेद-प्रभेद किए हैं कि आज के पाठक की बुद्धि चकरा जाती है। अतः लक्षणा के भेद-प्रभेदों की यहाँ चर्चा अनावश्यक है। केवल हमें इतना ही जानना, पर्याप्त है कि लक्षणा का अर्थगत महत्व है। पाश्चात्य काव्यशास्त्र में 'मेटाफ़र' को लक्षणा का प्रमुख रूप माना जा सकता है। सरोपा लक्षणा और रूपक अलंकार का संबंध बहुत निकट का रहा है। रूपक केवल काव्य के अलंकरण का ही साधन नहीं रहा है अपितु अर्थ की लाक्षणिक अभिव्यक्ति में उसकी भूमिका का बहुत महत्व है। सारोपा लक्षणा में विषयी और विषय दोनों का शब्द द्वारा कथन किया जाता है जैसे 'वह निरा बैल है' का अर्थ है वह गँवार है। बैल के स्वरूप को 'वह' पर आरोपित कर दिया सरोपा लक्षणा है।

    व्यंजना शब्द-शक्ति :

    अभिधा और लक्षणा के अतिरिक्त शब्द की तीसरी शक्ति का नाम व्यंजना है। विद्वानों ने 'व्यजना' शब्द की व्युत्पत्ति की ओर प्रायः ध्यान दिया है 'अंजन' शब्द में 'वि' उपसर्ग लगाने से 'व्यंजन' शब्द निर्मित होता है। अतः व्यंजन शब्द का अर्थ हुआ 'एक विशेष प्रकार का अंजन'। 'आँख में लगा हुआ अंजन जिस प्रकार दृष्टि-दोष को दूर कर उसे निर्मल बना देता है, उसी प्रकार व्यंजना-शक्ति शब्द के मुख्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ को पीछे छोड़ती हुई उसके मूल में छिपे हुए अकथित अर्थ द्योतित करती है।' (हिंदी साहित्य कोश, भाग-1, संपा. धीरेंद्र वर्मा) अभिधा-लक्षणा अपने अर्थ का बोध कराकर जब विस्त हो जाती हैं तब जिस शब्द-शक्ति के द्वारा 'व्यंग्यार्थ' ज्ञात होता है, उसे व्यंजना-शक्ति कहते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में 'व्यंग्यार्थ' के लिए अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं ध्वन्यार्थ आक्षेपार्थ, सूथ्यर्थि प्रतीयमानार्थ आदि। अभिधा और लक्षणा का संबंध प्रायः शब्द से होता है, किंतु व्यंजना शब्द के साथ अर्थ पर भी आधारित रहती है। अर्थात् वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ तीनो ही नवीन अर्थ-व्यंजना का साक्षात्कार बुद्धिमान पाठकों को कराते हैं। इतना ही नहीं, एक व्यग्यार्थ दूसरे व्यंग्यार्थ की और दूसरा व्यंग्यार्थ तीसरे व्यंग्यार्थ की व्यंजना करा सकता है। ज़ाहिर है कि व्यंजना शब्द-शक्ति से शब्द का सूक्ष्मतर गहनतर अर्थ-व्यंजित अथवा ध्वनित होता है।

    वैयाकरणों के 'स्फोटवाद' सिद्धांत में भी 'व्यंजना' की महिमा का संकेत है। किंतु 'व्यंजना' की संपूर्ण महिमा को संस्कृत काव्यशास्त्र का ध्वनि सिद्धांत स्थापित करता है। आचार्य आंदवर्द्धन ने 'ध्वन्यालोक' में व्यंजना-शक्ति के निरूपण से पहले पूरा ध्यान उन तीन मतों के खंडन पर केंद्रित किया है जो व्यंजना के अस्तित्व को ही अस्वीकार करते हैं। अभाववादी व्यंजना शक्ति को अस्वीकार करते हैं। लक्षणावादी आचार्यों का तर्क है कि व्यंजना का समाहार लक्षणा में ही हो जाता है तो अलग से मानने की आवश्यकता ही नहीं है। अभाववादी या अनुमानवादी महिम भट्ट ने 'व्यक्ति-विवेक' में व्यंजना को अस्वीकार करते हुए तर्क दिया था कि शब्द का अर्थ अनुमानाश्रित होता है व्यंजनाश्रित नहीं। किंतु विचार-परंपरा में महिमभट्ट के मत को स्वीकृति नहीं मिली और तीसरे वर्ग के आचार्यों ने कहा कि व्यंजना का अस्तित्व है लेकिन वह 'अनिवर्धनीय' है। 'ध्वन्यालोक' में इन तीनों मतों को निराधार सिद्ध करने के बाद व्यंजना की अपार-व्याप्ति की प्रतिष्ठा का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य अभिनवगुप्त की अतलदर्शी प्रतिभा ने 'ध्वन्यालोक लोचन' तथा 'अभिनव भारती' में ध्वनि की महिमा को अनन्यता प्रदान की। पीछे से मम्मट, विश्वनाथ तथा रसगंगाधरकार ने व्यंजना अथवा ध्वनि को महत्ता के उच्चतम शिखर पर पहुँचा दिया।

    व्यंग्यार्थ की महत्ता के अनुपात से ही काव्य के तीन भेद किए गए उत्तम काव्य अर्थात् ध्वनि काव्य, मध्यम काव्य अर्थात गुणीभूत व्यंग्य काव्य और अधम काव्य अर्थात् चित्र काव्य। ध्वनि तीन प्रकार की होती है रस-ध्वनि, अलंकार ध्वनि, वस्तु ध्वनि। इन तीनों में रस-ध्वनि ही सर्वश्रेष्ठ है।

    सेठ कन्हैयालाल पोद्दार ने 'व्यंजना' का सारांश इन शब्दों में दिया है

    1. लक्षणा में जो प्रयोजन रूप व्यंग्यार्थ होता है, जिसके लिए लक्षणा की जाती है, उसका बोध लक्षणा द्वारा न होकर केवल व्यंजना द्वारा ही हो सकता है।

    2. असंलक्ष्य क्रम व्यंग्य में रस-भावादि व्यंग्य रहते हैं जो न तो अभिधा के वाच्यार्थ हैं न लक्षणा के लक्ष्यार्थ।

    3. समान अर्थ के बोधक शब्दों का अभिघेवार्थ सर्वत्र एक ही होता है, परंतु व्यंग्यार्थ भिन्न हो सकते हैं।

    व्यंजना शब्द-शक्ति के भेद

    भारतीय आचार्यों ने इसके दो भेद माने हैं—(क) शाब्दी व्यंजना, और (ख) आर्थी व्यंजना।

    शाब्दी व्यंजना :

    शब्द पर आधारित व्यंजना अभिधामूला तथा लक्षणामूला दो प्रकार की होती है।

    क)अभिधामूला शाब्दी व्यंजना 'काव्य-प्रकाश' के अनुसार जब संयोग आदि के द्वारा शब्द का वाच्यार्थ नियंत्रित हो जाता है तब व्यंजना ऐसे अर्थ का द्योतन कर दिया करती है जिसे कभी वाच्यार्थ नहीं कहा जा सकता। अनेकार्थी शब्दों के एक अर्थ में नियंत्रित हो जाने के बाद जिस शक्ति द्वारा उन शब्दों से दूसरा अर्थ ध्वनित होता है उसे अभिधामूला शाब्दी व्यंजना कहते हैं। अनेकार्थी शब्दों को एक अर्थ में नियंत्रित करने के चौदह कारण बताए गए हैं—संयोग, विप्रयोग, साहचर्य, विरोध, अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्य सन्निधि, सामर्थ्य, औचित्य, देश, काल, व्यक्ति तथा स्वर।

    ख) लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना लक्षणा में शब्द का मुख्यार्थ बाधित रहता है। अतः जिस प्रयोजन की सिद्धि के लिए लक्षणा का सहारा लिया जाता है उस प्रयोजन की व्यंजना करने वाली शक्ति को लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना कहते हैं। स्पष्ट बात यह कि लक्षणा (प्रयोजनवती लक्षणा) ही व्यंजना के प्रयोजन का आधार बनती है। 'काव्य-प्रकाश' के मत से प्रयोजनवती लक्षणा के बारह भेद हैं, स्व मिलाकर चौंसठ भेद हैं। ये सभी भेद लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना के उदाहरण हैं। 'गंगायां घोषः की लक्षणा का अर्थ 'मेरा गाँव गंगा के समीप है' व्यंग्यार्थ से ही लिया जाएगा अर्थात् गंगा के समीप गाँव में शीतलता पवित्रता है।

    आर्थी व्यंजना

    बोधत्व, काकु, वाक्य, वाच्य, सन्निधि, प्रस्ताव, देश, काल तथा चेष्टा आदि की विलक्षणता के कारण आर्थी व्यंजना के दस भेद हैं। कुछ विद्वान आर्थी व्यंजना के केवल तीन भेद मानते हैं वाच्य सम्भवा, लक्ष्य सम्भवा; तथा व्यंग्य सम्भवा। कारण, अर्थ के तीन भेद हैं वाच्य, लक्ष्य और व्यंग्य। वस्तुतः व्यंजना में अर्थ-संभावनाओं की कोई सीमा नहीं है। अतः उसके दस या तीस भेदों की बात व्यर्थ है। शास्त्रकारों ने जिन भेदों की चर्चा की है वे तो उदाहरण मात्र हैं।

    पाश्चात्य काव्यशास्त्र में व्यंजना के सादृश्य अर्थ की बात प्राचीनकाल से होती चली आई है तथा शैली पर विचार करने वाले सभी आचार्यों ने वाच्यार्थ से भिन्न लक्ष्यार्थ व्यंग्यार्थ की चर्चा की। 'विट', 'ह्यूमर', 'सेटायर', 'आयस्नी' की चर्चा में व्यंग्यार्थ की बात है। रिचर्डस ने 'इमोटिव मीनिंग' तथा 'कंटेक्स्चुयल मीनिंग' में व्यंजना-व्यापार का ही संकेत दिया है।

    एम्पसन ने 'एम्बिग्युटी थियरी' (अनेकार्थकता के सिद्धांत) में व्यंजना-वृत्ति की अनंतता को ही संकेतित किया है। एफ. आर लीविस तथा टिलयर्ड ने 'ऑब्लीक मीनिंग' की बात व्यंजना के संदर्भ में ही कही हैं। वास्तव में 'ऑब्लीक मीनिंग तो व्यंजना का लगभग पर्याय है। सार-संक्षेप यह कि काव्यार्थ या व्यंग्यार्थ या काव्य की अनंत अर्थ-संभावनाओं की बात देश-विदेश में सदैव मान्य रही है।

    तात्पर्या-वृत्ति

    अभिधा वृत्ति द्वारा वाक्यगत प्रत्येक पद का वाच्यार्थ ज्ञात हो चुकने के बाद जिस वृत्ति द्वारा उन पदों के अन्वित अर्थ (तात्पर्य) का ज्ञान होता है उसे तात्पर्या-वृत्ति कहा जाता है। काव्य की इस चतुर्थ-शक्ति के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। अभिनवगुप्त, मम्मट आदि ध्वनिवादी आचार्यों ने 'तात्पर्या-वृत्ति' को व्यंजना से पृथक माना है किंतु परवर्ती टीकाकारों ने तात्पर्या-वृत्ति से व्यंजना को अभिन्न सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इस बात पर सभी एकमत हैं कि तात्पर्य की स्थिति पद में वाक्यार्थ में होती है।

    कुमारिल भट्ट की चिंतन-परंपरा के मीमांसकों के मत से अभिधा-शक्ति के द्वारा प्रत्येक पद का अलग-अलग अर्थ ही ज्ञात होता है, इसका अन्वित अर्थ ज्ञात नहीं होता अर्थात् वाक्यार्थ ज्ञात नहीं होता। अभिधा-वृत्ति का क्षेत्र प्रत्येक पद के अर्थ निर्देश तक सीमित है। संपूर्ण वाक्य के 'तात्पर्य' निर्देश के लिए अन्य वृत्ति चाहिए, वह है तात्पर्या-वृत्ति। अभिधावृत्ति से प्रोक्त अर्थों का आपस में 'तात्पर्य' वृत्ति के द्वारा अन्वय-संबंध स्थापित करना पड़ता है।

    गुण :

    गुण का लक्षण एवं स्वरूप

    गुण का स्पष्ट लक्षण वामन और आनंदवर्धन ने प्रस्तुत किया, और मम्मट तथा विश्वनाथ ने इस दिशा में आनंदवर्धन का अनुकरण किया। हाँ, वामन से पूर्व भी गुण के लक्षण के संबंध में भरत और दंडी संकेत अवश्य कर चुके थे।

    भरत—भरत ने पहले प्रगूढ़, अर्थांतर, आदि दस दोष बताए और फिर श्लेष, प्रसाद आदि दस गुण। उनके अनुसार दस गुण उक्त दस दोषों के विपर्यस्त है।'—अर्थात् उनसे विपरीत अथवा अन्यथा-स्थित हैं, अथवा उनके अभावात्मक हैं।

    भरत की उक्त धारणा को प्रकारांतर से इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है कि दोष यदि काव्य के विघातक हैं तो गुण काव्य के विधायक।

    दंडी—भरत से ही लगभग मिलता-जुलता लक्षण दंडी ने प्रस्तुत किया है—दोष यदि काव्य की विपत्ति के लिए होता है तो गुण काव्य की संपत्ति के लिए। अर्थात् दोष काव्याविघातक तत्व है तो गुण काव्यविधायक।

    दंडी ने काव्य के दो मार्ग माने—वैदर्भ और गौड। दंडी-सम्मत दस गुण वैदर्भ मार्ग के प्राण हैं, और इसी कारण यह मार्ग गौड मार्ग की अपेक्षा उत्कृष्ट है।

    वामन के शब्दों में काव्य की शोभा करने वाले धर्मगुण कहाते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि दंडी ने यही लक्षण अलंकार का प्रस्तुत किया था। दूसरे शब्दों में, दंडी जिसे अलंकार कहते थे, वामन ने उसे गुण नाम दिया। वामन ने उक्त दस गुणों को शब्दगत भी माना और अर्थगत भी और इस प्रकार बीस गुणों का प्रतिपादन किया। वामन के अनुसार गुण रीति पर आश्रित हैं। इसका तात्पर्य यह है कि गुणों के समावेश का नाम रीति है—ओज और क्रांंती गुणों के समावेश का नाम गौडीया रीति है, माधुर्य और सौकुमार्य गुणों के समावेश का नाम पांचाली रीति तथा दस गुणों के समावेश का नाम वैदर्भी रीति।'

    आनंदवर्धन ने गुणों के स्वरूप में नितांत परिवर्तन कर दिया, तथा गुणों की संख्या भी दस के स्थान पर तीन मानी—माधुर्य, ओज और प्रसाद। अब तक गुण का स्वरूप बाह्यपरक था। भरत, दंडी और वामन ने स्पष्ट रूप से अथवा प्रकारांतर से गुणों को काव्य का अर्थात् शब्दार्थ का धर्म माना था। किंतु आनंदवर्धन ने इसे प्रथम बार रस से संबद्ध करके इसे एक आंतरिक तत्व का द्योतक बना दिया। उनके अनुसार गुण का लक्षण है—जो काव्य के अंगीभूत अर्थात् रस का अवलंबन करते हैं वे गुण कहाते हैं।'

    मम्मट और विश्वनाथ ने आनंदवर्धन प्रस्तुत उक्त धारणा का आधार ग्रहण कर गुण के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट किया। इन दोनों आचार्यों के मतानुसार कुल मिलाकर गुणों का स्वरूप इस प्रकार है—

    गुण रस का धर्म होने के कारण उसके साथ अचल भाव से रहता है और उसका उत्कर्षक (साधक) है, साथ ही वह गौण रूप से शब्दार्थ का भी धर्म है।

    इस लक्षण का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है— 

    (1) जिस प्रकार शौर्य आदि गुण आत्मा के धर्म हैं, उसी प्रकार माधुर्य आदि तीन गुण भी रस के धर्म हैं।

    (2) रसयुक्त रचना में गुण की स्थिति अचल (नित्य) है।

    (3) गुण रस के सदा उत्कर्षक अर्थात् साधक होते हैं।

    (4) जिस प्रकार शौर्य प्रमुख रूप से तो आत्मा का धर्म है और गौण रूप से उसे शरीर का धर्म भी मान लिया जाता है—जैसे किसी स्थूलकाय किंतु कायर भी व्यक्ति को शूर कह देते हैं, उसी प्रकार गुण भी प्रमुख रूप से रस का धर्म है, किंतु साथ ही, गौण रूप से शब्दार्थ (रचना) का भी धर्म है, और गुण के इसी रचनापरक स्वरूप पर रीति आधारित है।

    गुण के स्वरूप का समग्रता स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है

    किसी रचना के वाच्यार्थ-बोध के उपरांत हमारा चित्त द्रुत होता है अथवा दीप्त (विस्तृत) होता है, और कभी-कभी त्वरित अर्थावबोध के कारण द्रुत अथवा दीप्त होने के साथ-साथ व्याप्त हो जाता है। चित्त की द्रुति, दीप्ति तथा व्याप्ति से जन्य क्रमशः आह्लाद, विस्तार और विकास को काव्यशास्त्रीय परिभाषा में क्रमशः माधुर्य, ओज और प्रसाद कहते हैं।

    'चित्तद्रुति' अर्थात् माधुर्य गुण की अनुभूति होते ही विषयानुसार शृंगार, करुण, हास्य, अद्भुत और शांत इन कोमल रसों का आस्वाद प्राप्त होता है। इसी प्रकार 'चित्तदीप्ति' अथवा ओज गुण की अनुभूति के तुरंत पश्चात् विषयानुसार वीर, रौद्र, भयानक और बीभत्स इन कठोर रसों का आस्वाद प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि चित्तवृत्ति और रसास्वाद में पूर्वापर-संबंध तथा नित्य-संबंध है, अर्थात् रसास्वाद से पहले चित्त का द्रुत अथवा दीप्त होना अनिवार्य है। चित्तवृत्ति रसास्वाद-रूप चरमावस्था तक ले जाने में साधक (मम्मट के शब्दों में, उत्कर्षक) बनती है। गुण का यही रूप रस का नित्य धर्म है।

    अब तीसरी चित्तवृत्ति 'चित्तव्याप्ति' अर्थात् प्रसाद गुण को लें। वाच्यार्थ का त्वरित अवबोध सहृदय के चित्त को एक प्रकार से व्याप्त कर लेता है, किंतु साथ ही चित्त की दुति अथवा दीप्त भी अनिवार्यतः होती है। इस प्रकार प्रसाद गुण की स्थिति अकेली नहीं मानी गई, माधुर्य और ओज में से किसी एक के साथ स्वीकृत की गई है। अस्तु! 'गुण रस का अचल धर्म है' इस कथन की उपर्युक्त व्याख्या है। अब गुणस्वरूप के दूसरे पहलू को लेते हैं। गुण को गौण रूप से शब्दार्थ (रचना) का भी धर्म कहा गया है। सामान्य नियम यह है कि शृंगार आदि कोमल रसों में कोमल वर्णयोजना का प्रयोग करना चाहिए और रौद्र आदि कठोर रसों में कठोर वर्ण-योजना का। रसानुकूल यही वर्णयोजना क्रमशः माधुर्य और ओज गुण कहलाती है। ऐसी वर्णयोजना जो त्वरित अर्थावबोध करा दे उसे प्रसाद गुण कहते हैं। इन्हीं रचनाद्योतक माधुर्य, ओज और प्रसाद तीन गुणों पर क्रमशः तीनों रीतियों-वैदर्भी, गौणी और पांचाली को आधारित माना गया है। यहाँ एक स्वाभाविक शंका उत्पन्न होती है कि शृंगार रस की रचना में कठोर वर्ण-योजना होने पर गुण की स्थिति क्या होगी। स्पष्टतः, ऐसे स्थलों में चित्तद्रुति होने के कारण रसगत गुण तो माधुर्य माना जाएगा, किंतु कठोर वर्ण-योजना के कारण रचनागत गुण ओज, और उसके अनुरूप गौड़ी रीति। हाँ, यहाँ 'वर्णप्रतिकूलता' रसदोष भी होगा। यदि ऐसे स्थलों में त्वरित अर्धावबोध भी होगा तो प्रसाद गुण की स्वीकृति भी होगी।

    इस प्रकार निम्नोक्त तत्वों में पारस्परिक संबंध स्थापित हो जाता है—(1) रस, (2) चित्तवृत्ति, (3) गुण : रस का नित्य धर्म, (4) गुण : शब्दार्थ (रचना) का गौण धर्म, (5) रीति, (6) वर्ण-प्रतिकूलता नामक रसदोष।

    तीन गुण :

    भरत, दंडी और वामन के विपरीत आनंदवर्धन ने केवल तीन गुण माने—माधुर्य, ओज, प्रसाद।' इसका लक्षण आनंदवर्धन ने प्रस्तुत किया, जिसे मम्मट और विश्वनाथ ने और अधिक स्पष्टता प्रदान की।

    इन आचार्यों के अनुसार तीनों गुणों का स्वरूप निर्दिष्ट करने से पूर्व यह उल्लेख्य है कि गुण को अंततः चित्तवृत्ति का पर्याय माना गया है। विभिन्न रसों की चर्वणा में सामाजिक के चित्त की तीन दशाएँ होती हैं—दुति, दीप्ति और व्याप्ति। थे तीनों चित्तवृत्तियाँ कही जाती हैं।

    चित्त के आर्द्र अथवा गलित होने को द्रुति कहते हैं।

    चित्त की अत्यंत उज्ज्वलता अथवा विस्तृति का नाम दीप्ति है।

    चित्त की व्यापकता अथवा विकास को व्याप्ति कहते हैं।

    ये चित्तवृत्तियाँ क्रमशः माधुर्य, ओज और प्रसाद से संबंधित हैं।

    अब तीनों गुणों का लक्षण प्रस्तुत है—

    1. माधुर्य : चित्त का द्रुति-रूप आह्लाद, जिसमें अंत:करण द्रवित हो जाए ऐसा आनंद-विशेष, माधुर्य गुण कहाता है।

    यह गुण संयोग शृंगार, करुण, विप्रलंभ शृंगार और शांत रसों में क्रम से बढ़ा हुआ रहता है।

    इस गुण के व्यंजक वर्ण ये हैं—ट, ठ, ड और ङ को छोड़कर शेष स्पर्श वर्णों (क से म तक वर्णों) का अपने वर्ग के अंतिम वर्ण के साथ इस प्रकार संयुक्त रहना कि पंचम वर्ण पहले आए और स्पर्श वर्ण पीछे। उदाहरण-ङ्क, ञ्च आदि। इनके अतिरिक्त रकार तथा लकार हृस्व स्वन से युक्त होने चाहिए।

    इस गुण में समास का सर्वथा अभाव होता है, या छोटा समास होता है। रचना मधुर होती है।

    2. ओज : चित्त का विस्तार-स्वरूप दीप्तत्व ओज कहाता है।

    वीर, बीभत्स और रौद्र रसों में क्रम से इस गुण की अधिकता रहती है।

    इस गुण के व्यंजक वर्ण ये हैं—वर्गों के पहले अक्षर क साथ मिला हुआ उसी वर्ग का दूसरा अक्षर, और तीसरे अक्षर के साथ मिला हुआ उसी वर्ग का चौथा अक्षर। जैसे-क्ख, ग्ध, त्थ, द्ध, च्छ, ज्झ आदि । इनके अतिरिक्त आगे या पीछे रकार से युक्त अक्षर। जैसे र्क, क्र, आदि, तथा ट, ठ, ड, ढ, श, ष ये सब ओज गुण के व्यंजक वर्ण हैं।

    इस गुण में लंबे-लंबे समास होते हैं और रचना उद्धत होती है।

    3. प्रसाद : वह रचना प्रसाद गुण-संपन्न कहाती है जो सामाजिक के हृदय में ठीक उसी प्रकार तुरंत व्याप्त हो जाती है जैसे—सूखे ईंधन में अग्नि झट व्याप्त हो जाती है, अथवा जैसे जल स्वच्छ वस्त्र में तुरंत व्याप्त हो जाता है।

    प्रसाद गुण के व्यंजक ऐसे सरल और सुबोध पद होते हैं जिनके सुनते ही इनके अर्थ की प्रतीति हो जाए।

    यह गुण सभी रसों में और सभी प्रकार की रचनाओं में रह सकता है।

    काव्य दोष :

    मुख्यार्थ का अपकर्ष जिससे होता है उसको दोष कहते हैं। मुख्यार्थ पद का अभिप्राय यहीं वाच्यार्थ नहीं अपितु रस है। इसलिए मुख्यतः रस के अपकर्षजनक कारण को दोष कहते हैं। दोष का विभाजन करते हुए आचार्य मम्मट ने सर्वप्रथम दोषों की तीन प्रकार से विभाजित किया रसदोष, पददोष एवं अर्थदोष। इसके पश्चात पददोष को पुनः पद-दोष, पदांश दोष, वाक्यदोष में विभाजित किया है।

    रस-दोष वे दोष है जिनसे रस की प्रतीति में प्रत्यक्ष रूप से वाधा उत्पन्न होती है, ऐसे दोषों की संख्या 13 है।

    पद-दोष :

    1. श्रुतिकटु (दुःश्रवता)-सुनने में कानों की कठोर लगने वाले शब्दों का प्रयोग।

    (क) कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम धृष्ठता।

    पर क्या न विषयोत्कृष्टता, करती विचारोत्कृष्टता॥ इसमें धृष्टता विषयोत्कृष्टता, विचारोत्कृष्टता पदों में श्रुतिकटुता है।

    (ख) सिद्ध्यर्थ गए सिद्धार्थकुमार। इसमें सिद्ध्यर्थ पद में यही दोष है।

    2. च्युतसंस्कृति-व्याकरण द्वारा असम्मत शब्दों का प्रयोग।

    (क) तव मुख की सौंद्रयता देती है आनंद।

    'सौंदर्य' शब्द शुद्ध है और 'सौंद्रयता' अशुद्ध।

    3. अप्रयुक्त-व्याकरण-सम्मत किंतु अप्रचलित शब्दों का प्रयोग।

    (क) नीरवता-सी शिलाचरण, टकराता फिरता पवमान।

    (ख) राजकुल भिक्षाचरण से लगा भरने पेट।

    पवमान और भिक्षाचरण शब्द शुद्ध तो हैं, पर पवन और भिक्षाटन के अर्थ में प्रचलित नहीं हैं।

    4. क्लिष्टता

    अत्यंत दुर्बोध शब्द का प्रयोग।

    कुंभज-पान-कुमारी-सहोदर आनन देखि लजात तिहारो 'कुंभज (अगस्त्य ऋषि) के पान (समुद्र) की कुमारी (लक्ष्मी) का भाई' अर्थात् चंद्रमा तुम्हारे मुख को देखकर लजाता है। इसी प्रकार 'क्षीरोदजाजन्मभू' का अर्थ जल-इस आधार पर करने में भी क्लिष्टता दोष है—'क्षीरोद' (समुद्र) से 'जा' (उत्पन्न लक्ष्मी) के 'जन्म' (उत्पत्ति = कमल) की 'भू' (भूति = जल)।

    इसी प्रकार असमर्थ, निहितार्थ, अनुचितार्थ, निरर्थक, अवाचक, अश्लील, ग्राम्य, नेयार्थ आदि भी पद-दोष माने गए हैं। अधिकतर पद-दोष पदांश-दोष भी होते हैं।

    वाक्य-दोष :

    1. वर्ण-प्रतिकूलता-वर्णनीय रस के प्रतिकूल वर्णों का प्रयोग।

    मुकुट की उटक लटक बिविकुंडल कौ।
    भौंह की मटक नेकि आँखन दिखाऊ रे॥

    शृंगार रस के इस पद्य में 'ट' (कठोर वर्ण) का प्रयोग इस रस के प्रतिकूल है। इसका प्रयोग वीर रस में करना चाहिए।

    2. न्यूनपदता-किसी पद के अभाव के कारण वाक्य में शैथिल्य।

    सहसा मैं उठ खड़ा हुआ बोल जाता हूँ।
    क्या मैं तुमसे कहूँ, नहीं कुछ भी पाता हूँ॥

    पाता हूँ से पूर्व 'कह' पद का प्रयोग करना चाहिए था।

    3. अधिकपदता-किसी अनावश्यक पद का प्रयोग।

    डसै तिहारे शत्रु को खंगलता अहिराज।

    यहाँ 'लता' के बिना भी वाक्य का अभीष्ट अर्थ ज्ञात हो जाता है।

    4. कथितपदता-एक बार कहे पद को फिर कह देना।

    इन म्लान मलिन अधरों पर, स्थिर न रही स्मिति की रेखा।

    5. समाप्तपुनरात्तता-वाक्य समाप्त हो जाने पर भी उसी से संबंधित पदों का प्रयोग करना।

    नासतु हैं घन तिमिर को विरहन कों दुख देत। 
    रजनीकर की कर अहो! कुमुदन को सुख देत॥

    चंद्रमा के संबंध में कथन तीसरे चरण में समाप्त हो जाने पर भी चौथे चरण में फिर कह दिया गया है।

    6. संकीर्ण-एक वाक्य के पद का दूसरे वाक्य में प्रयोग। छोड़ चंद्र गगन में उदय होत, अब मान। [अभीष्ट वाक्य है—चंद्र गगन में उदय होत, अब मान छोड़।]

    7. गर्भित- वाक्य के बीच में दूसरे वाक्य का आ जाना। काटूँ कैसे अब दिवस ये 'हे प्रिये! सोच तू' मैं,। छाई सारी दिशि घनघटा देख वर्षा ऋतु में। इसी प्रकार हतवृत्त, पतत्प्रकर्ष, अक्रम, प्रसिद्धिहत, आदि अन्य भी वाक्य-दोष हैं।

    अर्थदोष :

    1. पुनरुक्त- विभिन्न शब्द-प्रयोग द्वारा अर्थ की आवृत्ति है।

    2. धन्य कलंक- हीन जीना एक क्षण का, युग युग जीना सकलंक धिक्कार है। पहली पंक्ति के भावार्थ की आवृत्ति दूसरी पंक्ति में हुई है।

    3.दुष्क्रम- लोक अथवा शास्त्र-विरुद्ध क्रम। नृप! मोकों हय दीजिए अथवा मत्त गजेंद्र। किंतु लोक में क्रम यों होता है—पहले हाथी माँगना, न मिलने पर, फिर घोड़ा माँगना।

    4. संदिग्ध-संदेह-पूर्ण अर्थ।

    जीना चाहो देशहित या इन्द्रियसुख हेतु।

    प्रकरण के अभाव में यह निश्चयपूर्वक ज्ञात नहीं होता कि वक्ता देश-भक्ति का पक्ष ले रहा है अथवा विषय-वासना में लिप्त रहने का।

    इसी प्रकार प्रतिकूल-वर्ण, पतत्प्रकर्ष, अनवीकृत, साकांक्ष, सहचर-भिन्न, अश्लील आदि अन्य भी अनेक अर्थदोष हैं।

    रसदोष :

    1. स्वशब्दवाच्य-रस, स्थायिभाव, विभाव, अनुभाव और संचारिभाव में से किसी का स्वशब्द से कथन।

    यहाँ यह ज्ञातव्य है कि रस की निष्पत्ति व्यंजना शक्ति के माध्यम से मानी गई है, और इसी कारण रस को व्यंग्य माना गया है न कि वाच्य। इसका आशय यह है कि शृंगार, करुण, रति, शोक, स्वेद, स्तंभ, लज्जा, धीरज आदि शब्दों के प्रयोगमात्र से कोई भाव रस रूप में अभिव्यक्त नहीं हो जाता, अपितु वह वाच्यार्थ से भिन्न अर्थ में ही अभिव्यक्त होता है।

    2. विभाव और अनुभाव की कष्ट-कल्पना-विभाव या अनुभाव किस रस से सम्बद्ध हैं, यह जानने में कठिनाई।

    बैठी गुरुजन बीच सुनि बालम वंशी चारु। 
    सकल छाड़ि बन जाउ यह तिय हित करत विचारु॥

    'सकल छाड़ि बन जाउ' यह 'वाच्य अनुभाव' शृंगार से संबद्ध है अथवा शांत से-यह स्पष्ट नहीं है।

    3. प्रतिकूल-विभावादि का ग्रहण-वर्ण्य रस के विरोधी रस विभावादि सामग्री का ग्रहण।

    मान जाओ तनिक मुस्करा दो प्रिये, यह बीता समय लौट सकता नहीं।

    शृंगार रस के प्रसंग में बीते यौवन की चर्चा शांत रस की सामग्री का उल्लेख दोष-सूचक है।

    4. रस की बार-बार दीप्ति किसी रस, भाव आदि के परिपाक हो जाने पर भी उसका बार-बार वर्णन करना। जैसे- कालिदास के कुमारसंभव के चतुर्थ सर्ग में वर्णित रति-विलाप। इधर हिंदी में 'साकेत' के नवम सर्ग में, और 'प्रियप्रवास' के कई एक स्थलों में विप्रलम्भ का बार-बार वर्णन।

    5. अकांड (अनवसर) पर रस का प्रतिपादन जैसे, 'वेणीसंहार' नाटक के दूसरे अंक में अनेक वीरों के मरण का प्रसंग आरंभ होने पर दुर्योधन और भानुमति के संयोग-शृंगार का वर्णन। इधर हिंदी में 'रामचंद्रिका' में दशरथ-मरण के शोक-प्रसंग में राभ का कौशल्या के प्रति उपदेश।

    6. अकांड (अनवसर) पर रस का विच्छेद (भंग), अर्थात् अचानक रस-प्रसंग का परिवर्तन कर देना। जैसे, महावीरचरित (भवभूति-प्रणीत) नाटक के दूसरे अंक में राम तथा परशुराम के वीररसोत्पादक संवाद के अवसर पर राम का यह कथन-'अब मैं कंकण खोलने जा रहा हूँ।'

    7. अंग की अतिविस्तृति-जैसे, 'किरातर्जुनीय' के आठवें सर्ग में सुरांगनाओं का विलास-वर्णन। इधर हिंदी में 'पद्मावत' में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों, व्यंजनों आदि का वर्णन, 'प्रियप्रवास' में प्रकृति-वर्णन, 'जयद्रथ-वध' में स्वर्ग-वर्णन, आदि।

    8. अंगी की उपेक्षा- 'रत्नावली' के चौथे अंक में उदयन द्वारा सागरिका का विस्मरण-प्रसंग। इधर हिंदी में 'चंद्रगुप्त' नाटक में चाणक्य के प्रबल चरित्र-चित्रण की तुलना में चंद्रगुप्त जैसे पात्र की उपेक्षा, 'प्रेमाश्रम' में ज्ञानशंकर के प्रबल चरित्र के आगे प्रेमशंकर जैसे अंगी पात्र के महत्व में कमी आदि।

    9. प्रकृति का विपर्यय-जैसे 'कुमारसंभव' में शिव-पार्वती का संभोग-वर्णन, 'मेघनाद वध' में राम-लक्ष्मण की भीरुता, 'साकेत' में दशरथ और कैकेयी के प्रति लक्ष्मण की उद्दंडता, 'कामायनी' में इड़ा के प्रति मनु का पाशव व्यवहार आदि।

    10. अनंग-कथन, अर्थात् अप्रासंगिक वर्णन जैसे—'कर्पूरमंजरी' में राजा द्वारा नायिका तथा स्वयं अपने वसंत-वर्णन की उपेक्षा कर वंदिजनों द्वारा किए गए वसंत-वर्णन की प्रशंसा।'

     

    पाश्चात्य काव्यशास्त्र

    प्लेटो के काव्य सिद्धांत।

    अरस्तु अनुकरण सिद्धांत, त्रासदी विवेचन, विरेचन सिद्धांत।

    वर्ड्सवर्थ का काव्यभाषा सिद्धांत।

    टी. एस. इलिएट : निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत, परंपरा की अवधारणा।

    आई. ए. रिचर्ड्स : मूल्य सिद्धांत, संप्रेषण सिद्धांत तथा काव्य-भाषा सिद्धांत। रूसी रुपवाद। नई समीक्षा।

    मिथक, फन्तासी, कल्पना, प्रतीक, बिंब

     

    पाश्चात्य काव्यशास्त्र :

     

    पश्चिम में साहित्य-शास्त्र के विकास के संकेत पाँचवीं शती ईसा पूर्व के पहले से ही मिलने लगते हैं।

    सिओड, सोलन, पिंडार आदि की रचनाओं में काव्य, काव्य के हेतु तथा काव्य प्रयोजन संबंधी मान्यताओं का उल्लेख मिलता है।

    प्रसिद्ध नाटककार अरिस्तोफिनीस के नाटकों में भी हास्य-व्यंग्य के माध्यम से साहित्य के सिद्धांतों का उल्लेख हुआ है। किंतु एक सुसंबद्ध शास्त्र के रूप साहित्यालोचन के दर्शन हमें सबसे पहले प्लेटो में ही मिलते हैं।

    प्लेटो मूलतः आत्मवादी चिंतक हैं, उन्होंने कविता पर एक दार्शनिक की दृष्टि से विचार किया है।

    प्लेटो के शिष्य अरस्तु ने कविता पर अधिक वैज्ञानिक और व्यवस्थित दृष्टि से विचार किया। गुरु और शिष्य की मूल दृष्टि का अंतर उनके काव्य सिद्धांतों में दो जीवन-दृष्टियों का अंतर बनकर सामने आता है।

    अरस्तु के विवेचन के लगभग दो शताब्दियों तक साहित्य सिद्धांतों की विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं है। उनके बाद रोमन कवि हरिस (65-68 ई.पू.) की 'आर्स पोइटिका' (Ars Poetica) का साहित्य सिद्धांत के रूप में उल्लेख मिलता है उनका भाषा संबंधी सिद्धांत काव्यालोचन के क्षेत्र में उनकी एक विशेष देन है।

    ईसा की पहली शताब्दी में यूनानी चिंतक लोंगिनुस/लांजाइनस की कृति 'पेरीइप्सुस' में काव्य के संदर्भ में उदात्त को बहुत अधिक महत्व दिया गया।

    ईसा की तीसरी शताब्दी तक आते-आते आत्मवाद तथा वस्तुवाद क्रमशः नव्य-प्लेटोवाद और नव्य-अभिजात्यवाद के रूप में सामने आने लगा। इस समय प्लॉटिनस ने गहन दर्शन पर आधारित सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। नव्य-प्लेटोवाद का प्रभाव मध्ययुगीन धार्मिक चिंतन पर पड़ा। प्लेटो के काव्य सिद्धांत प्लेटो (अरिस्तोक्लीस) प्लेटो को माता-पिता ने 'अरिस्तोक्लीस' नाम दिया था।

    अरबी-फ़ारसी परंपरा में यही नाम 'अफ़लातून' के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

    लेकिन विश्व की अनेक भाषाओं में उन्हें प्लेटो नाम से ही जाना जाता है।

    जन्म- (427 ई.पू -347 ई.पू.)

    जन्म स्थान- एंथेस

    गुरु- सुकरात

    शिष्य- अरस्तु

    इनके दर्शन के प्रमुख विषय थे—

    1. प्रत्यय सिद्धांत

    2. आदर्श राज्य

    3. आत्मा की अमरत्व सिद्धि

    4. सृष्टि शास्त्र

    5. ज्ञान मीमांसा

    प्लेटो मूलतः प्रत्ययवादी विचारक होने के कारण ये आदर्श राज्य से कविता का बहिष्कार करते है। प्लेटो ने कविता को दार्शनिक, राजनीतिक, कूटनीतिज्ञ, नैतिक व उपयोगितावाद की दृष्टि से देखा, पर सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से नहीं देखा।

    विद्वान प्लेटो की 28 रचनाओं को प्रामाणिक कृतित्व के रूप में स्वीकार करते हैं जिनमें 27 संवाद और ग्यारह पत्रों का एक संग्रह शामिल है।

    प्लेटो के प्रमुख ग्रंथ :-

    1. द रिपब्लिक

    2. इओन

    3. एपोलॉजी

    4. फ्राइड्स

    5. क्रेटाइस

    6. सिंपोसियोन

    7. पोलितेइया

    8. फ्रेदुरु

    9. दि लॉज

    10. दि स्टेट्समैन

    प्लेटो एक प्रत्ययवादी या आत्मवादी दार्शनिक थे।

    इनका काव्यशास्त्र संबंधी कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है। 'इयोन', 'सिम्पोजियम' और 'रिपब्लिक' में ही इनकी काव्य संबंधी मान्यताएँ ज्ञात होती हैं।

    प्लेटो का स्पष्ट मत है कि साहित्य नैतिक संस्कारों के निर्माण का साधन होना चाहिए।

    प्लेटो स्वभाव और संस्कार से कवि हैं तथा शिक्षा और परिस्थिति से दार्शनिक।

    मूलत: प्लेटो प्रत्ययवादी (Idealist) दार्शनिक हैं। प्रत्ययवाद के अनुसार प्रत्यय अर्थात् विचार ही परम सत्य है, वह नित्य है, एक है, अखंड है और ईश्वर ही उसका स्रष्टा है।

    काव्य और कला के विषय में प्लेटो की मुख्य चिंता आदर्श राज्य में उनकी उपयोगिता है।

    उन्होंने 'एकेडमिया' नामक शिक्षण संस्था की स्थापना की जिसे यूरोप का प्रथम विश्वविद्यालय कहलाने का गौरव प्राप्त है। आगे चलकर इसे ही 'एकेडमी ऑफ़ प्लेटो' कहा जाने लगा।

    उनकी काव्य-रचना के कुछ अंश 'ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ़ ग्रीक वर्स' में संकलित हैं।

    प्लेटो का चिंतन संवादों में मुखरित हुआ है। उनका अंतिम संवाद 'लॉज' नाम से प्रसिद्ध है। प्लेटो के कुछ संवाद 'पोलितेइया', 'रिपब्लिक' तथा 'ईऑन' में संकलित हैं।

    प्लेटो ने काव्य और कला के संबंध में किसी स्वतंत्र ग्रंथ की रचना नहीं की है, संवादों में प्रसंगवश काव्य या कला की चर्चा आती रहती है। ऐसे संवादों में 'ईऑन' 'फंड्स', 'सिम्पोसिऑन' आदि का नाम लिया जा सकता है।

    काव्य और कला के विषय में प्लेटो की बुनियादी चिंता है 'रिपब्लिक' या आदर्श गणराज्य में उनकी उपयोगिता।

    प्लेटो ने काव्य और कला को देवी प्रेरणा का परिणाम माना है। उन्होंने अपने संवादों में अनेक स्थानों पर कवि के 'दिव्य पागलपन' (Divine Insanity) की चर्चा की है।

    प्लेटो ने प्रसिद्ध प्राचीन ग्रीक कवि होमर की कृतियों 'इलियड' और 'ओडसी' पर विचार करते हुए भी यह मत व्यक्त किया है कि उनकी कविताओं और चरित्रों में भावावेग और कल्पनातिरेक है।

    प्लेटो द्वारा कविता की दिव्य प्रेरणा की चर्चा एक प्रकार से काव्य की सृजन प्रक्रिया के संबंध में प्लेटो के विचार हैं जो 'ईऑन' नामक संवाद में मिलते हैं।

    अलौकिक शक्ति द्वारा अधिकृत कवि सृष्टा नहीं, उनका प्रवक्ता मात्र होता है।

    प्लेटो ने 'फंड्स' में काव्य-विक्षेप (दिव्य पागलपन) के चार प्रकारों की चर्चा की है जिसमें कवि को पैग़ंबर, धर्मगुरु और प्रेमी का समवर्गी सिद्ध किया गया है। 'ईऑन' प्लेटो के इन्हीं विचारों का विस्तार करता है।

    प्लेटो ने कवि की नैतिक ज़िम्मेदारी के प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया।

    प्लेटो ने काव्य को जीवन का अनुकरण मानते हुए इस क्रिया के लिए ग्रीक शब्द 'मीमेसिस' का प्रयोग किया था।

    जिसका अँग्रेज़ी अनुवाद 'इमीटेशन' हुआ। हिंदी में 'इमीटेशन' का अनुवाद 'अनुकरण किया गया है।

    प्लेटो ने 'अनुकरण' शब्द का प्रयोग दो संदर्भों में किया (1) विचार जगत और गोचर जगत के बीच संबंध की व्याख्या के लिए।

    (2) वास्तविक जगत और कला जगत के बीच संबंध निरूपण के लिए‌ विद्वान मानते हैं कि पहले का संबंध तत्व-मीमांसा से है एवं दूसरे का संबंध नैतिकता से।

    कला का प्रश्न नैतिक परिधि में आता है।

    जब कोई बढ़ई पलंग बनाता है तो वह लकड़ी के कुछ टुकड़े लेकर मनमाने ढंग से जैसे-तैसे नहीं जोड़ देता। उसके दिमाग़ में पलंग की एक पूर्वकल्पना, एक रूपरेखा रहती है, जिसके अनुसार वह लकड़ी के टुकड़ों को काटता और जोड़ता है। यह पूर्वकल्पना एक प्रत्यय (idea) के रूप में बढ़ई की चेतना में रहती है। प्लेटो के अनुसार यह प्रत्यय उस परम चैतन्य शक्ति में स्थित होता है और मानव की चेतना में प्रतिबिंबित होता है। यही मूल सत्य है और बाह्य जगत में पलंग आदि के रूप में इसकी जो अभिव्यक्ति होती है वह सत्य न होकर सत्य का अनुकरण मात्र है। अब कोई चित्रकार यदि पलंग का चित्र बनाता है, या कवि यदि पलंग पर कविता लिखता है तो उसके सामने वस्तु के रूप में बाह्य जगत में स्थित वही अनुकृति होती है जो मूल सत्य नहीं, उसका अनुकरण मात्र है। कलाकार/कवि उसी अनुकृति का अनुकरण करते हैं अतः उनकी कृतियाँ सत्य से तिगुनी दूर होती हैं। सत्य के अनुकरण का अनुकरण भर करने वाले रचनाकार या शिल्पी को सत्य का ज्ञान नहीं होता उसकी रचना में ज्ञान का जो भी अंश होता है, वह उसकी अप्रत्यक्ष, अस्पष्ट अनिश्चित तथा अधूरी जानकारी से उत्पन्न होता है। अतः उसे अज्ञान से ही उत्पन्न माना जाना चाहिए। आदर्श राज्य में ऐसी कविता या कलाकृति का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

    प्लेटो कविता मात्र के विरोधी नहीं थे। जिस कविता में ईश्वर की स्तुति अथवा साधुओं का गुणगान हो, उसपर उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। किंतु अपने समय में कविता का जो स्वरूप उन्होंने देखा था, वह उनके मत में इस आदर्श से बहुत दूर था और उसी के आधार पर उन्होंने कविता का विरोध किया तथा आदर्श राज्य में कवि का प्रवेश अवांछित माना।

    प्लेटो के अनुसार कविता नागरिक की नैतिकता को पुष्ट नहीं करती बल्कि उसे नीचा ही गिराती है।

    लोकप्रियता हासिल करने के लिए कवि इस प्रकार की आवेगमय और उन्मत्त स्थितियों का चित्रण करते हैं जो पाठकों में गुदगुदी पैदा करती हैं और उनके हीन कोटि के मनोवेगों और वासनाओं को उत्तेजित करती हैं। इस स्थिति में नागरिक भी आवेग में बह जाते हैं और उन नैतिकता का नियंत्रण नहीं रह पाता। इसके अतिरिक्त इस प्रकार का काव्य ऐंद्रिय उत्तेजना और हीन कोटि का आनंद प्रदान करता है। प्लेटो के अनुसार बुद्धिग्राह्य और बुद्धि को उत्तेजित करने वाला आनंद ही श्रेष्ठ आनंद है जो इस काव्य से नहीं मिलता। इन तमाम बातों को देखते हुए आदर्श राज्य के लिए ऐसा काव्य काम्य नहीं है।

    अरस्तु :

    यूनानी भाषा में अरस्तु का वास्तविक नाम है अरिस्तोतेल्स।

    अरस्तु का जन्म मकदूनिया के स्तगिरा नामक नगर में 384 ई. पू. में हुआ था।

    अरस्तु के गुरु प्लेटो थे, जिन्हे वे अपने विधापीठ का मस्तिष्क कहा करते थे।

    उन्होंने अपने जीवन में लगभग चार सौ ग्रंथों की रचना की जिनमें तर्कशास्त्र, भौतिकशास्त्र, मनोविज्ञान, ज्योतिषविज्ञान, राजनीतिशास्त्र, काव्यशास्त्र आदि। अनेक विषयों की सारगर्भित विवेचना मिलती है। उनके साहित्य-संबंधी विचार काव्यशास्त्र एवं भाषणशास्त्र में उपलब्ध होते हैं। इनकी उपलब्ध रचनाओं में साहित्य से संबद्ध दो ग्रंथ हैं।

    1. पेरिपोइतिकेस- काव्यशास्त्र से संबद्ध है। यह 26 अध्याय में विभाजित है।

    ‘काव्यशास्त्र’ की रचना के मूल में अरस्तु के दो उद्देश्य रहे हैं

    1. अपनी दृष्टि से यूनानी काव्य का वस्तुगत विवेचन-विश्लेषण।

    2. अपने गुरु प्लेटो द्वारा काव्य पर किए गए आक्षेपों को समाधान।

    3. तेखनेस रितिरिकेस-भाषण कला या भाषणशास्त्र से संबद्ध है।

    अरस्तु की दृष्टि वस्तुवादी थी और उन्होंने साहित्यिक रचनाओं को सामने रखकर साहित्य की ही दृष्टि से साहित्य का विवेचन किया।

    इस क्रम में उन्होंने अपने गुरु प्लेटो द्वारा कविता पर लगाए गए आक्षेपों का उत्तर दिया।

    अरस्तु ने जिन काव्यशास्त्रीय सिद्धांत का प्रतिपादन किया, उनमें से तीन सिद्धांत विशेष महत्त्व रखते हैं :-

    (i) अनुकरण सिद्धांत

    (ii) त्रासदी विवेचन

    (iii) विरेचन सिद्धांत

    अनुकरण सिद्धांत

    ‘अनुकरण’ की चर्चा करते समय प्लेटो की दृष्टि दार्शनिक और नैतिकतावादी थी और अरस्तु की सौंदर्यशास्त्रीय साहित्यशास्त्रीय चर्चा के लिए सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टि ही अधिक उपयुक्त है।

    प्लेटो जहाँ अनुकरण को पूरी तरह प्रतिकृति की चेष्टा मानते थे, अरस्तु के अनुसार यह पुनःसृजन का एक प्रकार है।

    अरस्तु के अनुसार कवि वस्तुओं (स्थितियों) के केवल बाहर से दिखाई देने वाले रूप (जैसी वे हैं) का ही चित्रण नहीं करता।

    वह उनके संभाव्य (जैसी वे हो सकती है) और आदर्श (जैसी उन्हें होना चाहिए) रूप का भी चित्रण करता है।

    इस प्रकार भी वह बाह्य यथार्थ की सीमा को पार कर जाता है।

    प्लेटो ने अनुकरण को जिस रूप में देखा था, वह केवल बाह्य जगत का मशीनी प्रत्यंकन था जबकि अरस्तु अनुकरण में संभावनाओं और आदर्श स्थितियों को भी समन्वित कर लेते हैं।

    उन्होंने रचनाकार को कोरे नकलनवीस या अनुकर्ता की भूमिका से उठाकर उसकी सर्जनात्मकता को भी स्वीकृति दी है। इसीलिए काव्य का सत्य कई बार जगत के यथार्थ से भी आगे बढ़ जाता हैं।

    अरस्तु आनंद को काव्य का मुख्य प्रयोजन मानते हैं। काव्य अनुकरण के माध्यम से रचा जाता है इसलिए उसमें बाह्य संसार का चित्रण भी होता है। काव्य का आस्वाद करते हुए श्रोता/पाठक को जब उसमें अपने जाने-पहचाने संसार की झलक मिलती है तो उसे एक विशेष प्रकार का आनंद होता है प्रत्यभिज्ञान या पहचान का आनंद। यह अनुकरण की वजह से ही हो पाता है।

    अरस्तु की अनुकरण संबंधी मान्यताओ को साहित्यशास्त्र में इतना महत्व दिया जाता है, पर स्वयं उन्होंने इस अवधारणा तथा इसकी प्रकृति की स्पष्ट व्याख्या नहीं की है, उनके उपलब्ध साहित्य में कहीं भी स्वतंत्र रूप से इस पर विचार किया गया नहीं दिखाई देता।

    अरस्तु के अनुसार काव्य की विषयवस्तु का चित्रण तीन रूपों में हो सकता है :-

    1. प्रतीयमान अर्थात् वस्तुएँ वास्तव में जैसी हैं या दिखाई देती हैं।

    2. संभाव्य अर्थात, वस्तुएँ जैसी हैं नहीं, मगर हो सकती हैं।

    3. आदर्श अर्थात, वस्तुओं को जैसा होना चाहिए।

    कविता जहाँ पहले वर्ग का चित्रण करती है, वहाँ उसे यथातथ्य अनुकरण माना जा सकता है। किंतु दूसरे और तीसरे वर्ग में जिन स्थितियों का चित्रण होता है। ये वास्तविक जगत में नहीं होतीं। इसलिए उनके चित्रण में बाह्य जगत का अनुकरण करने का प्रश्न ही नहीं उठता। इनमें कवि बाह्य जगत को आधार बनाता है किंतु फिर कल्पना तथा आदर्श भावना का सहारा लेकर उस वस्तु का चित्रण इस प्रकार करता है कि वह बाह्य, इंद्रियगोचर जगत की सीमा से बहुत ऊपर उठ जाती है। अरस्तु ऐसी रचनाओं को स्वीकृति देते हैं, इसी से स्पष्ट हो जाता है कि वे अनुकरण को सर्जनात्मक माते हैं।

    इतिहास तथा काव्य की तुलना करते हुए अरस्तु ने काव्य के सत्य को इतिहास के तथ्य से ऊँचा माना है, क्योंकि इतिहास केवल उन्हीं घटनाओं का उल्लेख करता है जो घटित हो चुकी हैं जबकि काव्य संभाव्य तथा आदर्श स्थितियों का भी अंकन करता है।

    इतिहास केवल बाह्य जगत की विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख तथा विवेचन करता है इसलिए वह मात्र विशेष की ही अभिव्यक्ति करता है। इसके विपरीत काव्य का सत्य घटना विशेष तक सीमित न रहकर ‘सामान्य’ होता है।

    इतिहास वस्तुपरक होता है जबकि काव्य-रचना में अनुभूति तथा विचार का आश्रय लिया जाता है। इसके अतिरिक्त श्रेष्ठ काव्य में दर्शन तत्व की प्रधानता होती है।

    अनुकरण के माध्यम से भयमूलक या त्रासमूलक वस्तु को भी इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है जिससे आनंद की अनुभूति हो।

    अरस्तु काव्य को प्रकृति का अनुकरण मानकर चलते हैं। इसीलिए डॉ. नगेंद्र के अनुसार—“अरस्तु का दृष्टिकोण अभावात्मक रहा है और त्रास और करुणा का विवेचन उसकी चरम सिद्धि रही है।”

    परवर्ती विद्वानों ने अरस्तु ‘अनुकरण’ मत की अलग-अलग तरह से व्याख्याएँ की जिन्हें तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है :-

    i. नवक्लासिकी व्याख्या

    ii. स्वच्छंदतावादी व्याख्या

    iii. रूपवादी या संरचनावादी व्याख्या

    अरस्तु का त्रासदी सिद्धांत :

    वस्तुतः अरस्तु के युग के पहले ही यूनान में त्रासदी का रूप विकसित हो चुका था और वही अरस्तु के विवेचन का आधार बना।

    त्रासदी ग्रीक साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा थी। इसका आरंभ मद्य देवता ‘दिओनिसिअस’ के सम्मान में होने वाले समारोह में माना जाता है। इस समारोह में कलाकार बकरे के सिर जैसा मुखौटा धारण करके नाचते-गाते थे।

    ईसा पूर्व छठी शताब्दी में थेसियस ने इस नृत्य गीत की श्रृंखला के बीच-बीच में छंदोबद्ध भाषणों की भी योजना की।

    त्रासदी का आरंभ यहीं से होता है। ईसा के पहले की पाँचवी शताब्दी आते-आते यूनान में त्रासदी एक परिपक्व विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी और एस्खिलुस, सोफ़ोक्लीज़ और यूरीपाइदिस जैसे नाटककार इस विधा को समृद्ध कर रहे थे।

    उस युग में त्रासदी के अतिरिक्त कामदी, महाकाव्य, गीतिकाव्य आदि विधाएँ भी प्रचलित थीं किंतु अरस्तु के ‘पेरि पोइतिकेस’ मैं सबसे अधिक महत्व त्रासदी को ही दिया गया है।

    त्रासदी की परिभाषा तथा प्रमुख तत्व

    अरस्तु ने त्रासदी को ‘किसी गंभीर स्वतःपूर्ण निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति’ माना है।

    ‘यह समाख्यान रूप में न होकर कार्य-व्यापार रूप में होती है। इसका माध्यम नाटक के विभिन्न भागों में तदनुरूप प्रयुक्त सभी प्रकार के आवरणों से अलंकृत भाषा होती है। उसमें करुणा तथा त्रास के उद्रेक के द्वारा इन, मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।’

    त्रासदी की प्रमुख विशेषताएँ हैं

    त्रासदी ‘कार्य की अनुकृति है।

    इसमें वर्णित कार्य गंभीर होता है, स्वतः पूर्ण होता है (अर्थात पूर्ण होने के लिए उसे किसी अन्य तत्व पर निर्भर नहीं रहना पड़ता), और उसका आयाम, अर्थात क्षेत्र तथा विस्तार निश्चित रहता है।

    यह समाख्यानात्मक (वर्णनात्मक) रूप में नहीं, बल्कि कार्य-व्यापार के रूप में प्रस्तुत की जाती है।

    कार्य-व्यापार की प्रधानता होते हुए भी इसका माध्यम भाषा होती है और वह भाषा नाटक के लिए उपयुक्त अलंकारों से युक्त होती है।

    इसमें करुणा और त्रास का उद्रेक होता है, और इस उद्रेक के द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।

    डॉ. नगेंद्र के मत में—“त्रासदी की इस परिभाषा के अनुसार कहा जा सकता है कि त्रासदी दृश्य-काव्य का एक भेद है। इसकी कथावस्तु गंभीर होती है। इसका एक निश्चित आयाम होता है और यह अपने आप में पूर्ण होती है, अर्थात् इसमें जीवन के गंभीर पक्ष का चित्रण होता है। त्रासदी के मूल भाव करुणा और त्रास होते हैं। इन भावों को उदबुद्ध पर विरेचन पद्धति से मानव-मन का परिष्कार त्रासदी का मुख्य उद्देश्य हैं। त्रासदी की शैली भावपूर्ण और अलंकृत होती हैं।”

    त्रासदी के अंग—

    अरस्तु ने त्रासदी के अंगों का विवेचन संरचनात्मक विश्लेषणात्मक पद्धति से किया है। उन्होंने त्रासदी के छह अनिवार्य अंग स्वीकार किए है :-

    1) कथानक (plot)

    2) चित्रण (character)

    3) पदावली (diction)

    4) विचार (thought)

    5) दृश्य-विधान (visual principles)

    6) गीत (song)

    इनमें से कथानक, चरित्र और विचार अनुकरण के विषय है, दृश्य-विधान अनुकरण की पद्धति है और पदावली और गीत अनुकरण के माध्यम है।

    (1) कथानक : इन 6 तत्वों में सबसे अधिक महत्व अरस्तु ने कथानक को दिया। वे कथावस्तु को प्रबंध काव्यमात्र का और विशेष रूप से त्रासदी का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग, त्रासदी की आत्मा मानते है। कथानक को अरस्तु सर्वोपरि महत्व देते थे इसका प्रमाण यह है कि उन्होंने जितने विस्तार से कथानक के विविध पक्षा पर विचार किया है, उतना किसी और तत्व पर नहीं। उन्होंने कथानक पर आधार विस्तार, संरचना, भेद, वस्तुविधान सभी दृष्टियों से विचार किया है।

    त्रासदी के कथानक के अरस्तु ने तीन मुख्य स्रोत स्वीकार किए हैं। दंतकथाएं, कल्पना और इतिहास।

    दंतकथा मूलक साहित्य को वे सर्वोत्तम मानते थे। क्यूँकि उसमे विद्यमान के साथ अविद्यमान के समन्वय का अवकाश होता है-सत्य के साथ कल्पना का। सत्यांश अपनी विश्वसनीयता के कारण महत्त्वपूर्ण होता और कल्पना अपनी संभाव्यता के कारण। शेष दो आधारों को वे उतना समृद्ध नहीं मानते थे, जितना दंतकथामूलक साहित्य को।

    महान त्रुटि (हमरशिया)- त्रासदी का नायक अतिमानव नहीं मानव होता है अतः उसमें मानवोचित गुण-दोष भी होते हैं। त्रासदी में उसके चरित्र में कोई ऐसी त्रुटि दिखाई जाती है जिसके कारण उसके जीवन में स्थिति विपर्यय घटित होता है। यह कोई नैतिक दोष नहीं होता क्योंकि तब उसे दर्शकों की सहानुभूति नहीं मिलेगी और उसका त्रास दर्शकों में त्रास जगाने में सफल नहीं होगा। दुष्ट पात्रों की दुर्दशा प्रेक्षकों में आनंद और संतोष जगाती है लेकिन जो पात्र दुष्ट नहीं होते उनकी दुर्दशा से प्रेक्षकों के मन में करुणा उपजती है। यह दुर्दशा उनकी किसी त्रुटि या चारित्रिक भूल या कमज़ोरी के कारण होती है जो अपने दुखद परिणाम के कारण ‘महान त्रुटि’ कहलाती है।

    कथावस्तु के मूल गुण : अरस्तु के अनुसार त्रासदी की कथावस्तु के 6 गुण हैं :-

    एकान्विति , पूर्णता, संभाव्यता, सहज विकास, कतुहल और साधारणीकरण।

    एकान्विति

    कथावस्तु की संरचनागत विशेषताओं में अरस्तु ने एकान्विति पर विशेष बल दिया है। एकान्विति से उनका तात्पर्य था कार्य व्यापार में एकता, अर्थात् कथानक में विविध प्रसंगों की अनिवार्यता। इसमें ऐसी घटनाएँ होनी चाहिए जिनमें परस्पर आवश्यक और संभाव्य संबंध हो तथा एक कार्य व्यापार उसका केंद्र बिंदु हो।

    पूर्णता

    पूर्ण कथानक से उनका तात्पर्य था—समूची क्रम योजना के अनुरूप आदि, मध्य और अवसान से युक्त कार्य-व्यापार।

    उनका तात्पर्य कथानक के प्रसंगों में अपेक्षित कार्य-कारण संबंध से था। इस प्रकार पूर्णता का अभिप्राय है—जिज्ञासा की क्रमिक पूर्ति की अनिवार्य व्यवस्था।

    संभाव्यता—इसका अभिप्राय यह है कि जो घटित हो चुका है, वही पर्याप्त नहीं है। अपितु जो घटित हो सकता है वह भी काम्य है। इसमें असंभाव्य घटनाएँ नहीं होनी चाहिए, क्यूँकि उन्हें मानव मन ग्रहण नहीं कर सकता है।

    सहज विकास

    सहज विकास से उनका अभिप्राय विभिन्न घटनाओं में सहज कार्य-कारण संबंध से था। साथ ही वह यह भी आवश्यक मानते थे कि नाटक के विभिन्न अंग, संवृत्ति, स्थिति-विपर्यय और अभिज्ञान आदि कथानक से सहज ही उदभूत हो।

    कुतूहल—कथानक कुतूहल पैदा करे, इसके लिए आवश्यक है कि घटनाएँ प्रेक्षक के सामने अचानक ही उपस्थित हो। पर यह आकस्मिकता संजोगजन्य ही नहीं होनी चाहिए। घटनाओं में आकस्मिकता में पूर्वापरता रहनी चाहिए, तभी श्रोता अपनी जिज्ञासा का समाधान कर पाता है।

    साधारणीकरण—कवि व नाटककार घटना-विन्यास से पूर्व अपने कथानक की सार्वभौम रूपरेखा बनाए, जिसके साथ सभी तादात्मय कर सके। प्रबंध-विधान को अरस्तु त्रासदी की रीढ़ मानते थे। उनका मत था कि घटनाओं का विन्यास करने से पूर्व रचनाकार के मन में कथानक की रूपरेखा स्पष्ट होनी चाहिए। ऐसी रूपरेखा जो देश काल के बंधनों से मुक्त सर्वगाह्य हो।

    अरस्तु के अनुसार कथानक दो प्रकार के होते है और उनकी प्रकृति का निर्णय कार्य के आधार पर होता है।

    सरल कथानक वह है जिसका कार्य-व्यापर इकहरा और अविच्छिन्न हो, अर्थात जिसमे स्थिति विपर्यय और अभिज्ञान के बिना ही भाग्य परिवर्तन हो जाता है।

    जबकि जटिल कथानक का आधार जटिल व्यापार होता है। ‘जटिल व्यापार वह है जहाँ भाग्य-परिवर्तन स्थिति-विपर्यय या अभिज्ञान अथवा दोनों के द्वारा घटित होता है।’ जटिल कथानक की प्रकृति इकहरी और गति सरल सपाट नहीं होती। विविध संदर्भों और आकस्मिक प्रसंग-योजनाओं से युक्त उसका घटना विधान अनेक जोड़ो और मोड़ो से गुज़रता हुआ चरम परिणीति को प्राप्त होता है।

    2) चरित्र-चित्रण—चरित्र-चित्रण का मूल आधार अरस्तु ने पात्रों के चरित्र को स्वीकार किया है। अरस्तु ने चरित्र-चित्रण के छह आधारभूत सिद्धांत स्वीकार किए हैं। रचना के चरित्र-चित्रण के लिए इस छह बातों का ध्यान रखना रचनाकार के लिए आवश्यक हैं :- भद्रता, औचित्य, जीवन के अनुकूल एकरूपता, संभाव्यता, सच्चाई और आदर्श।

    पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण बात उनके अनुसार यह है कि चरित्र भद्र हो। यदि उद्देश्य भद्र है तो चरित्र भी भद्र होगा। चरित्र की व्यंजना किसी भी वक्तव्य या कार्य-व्यापार से हो सकती है। अरस्तु स्त्री को कुछ निम्न स्तर का और दास को तो बिलकुल ही निकृष्ट जीव मानते थे। परंतु इस संभावना से इंकार नहीं करते थे कि भद्रता हर वर्ग के पात्र में संभव है।

    अरस्तु ने औचित्य को चरित्र का दूसरा गुण माना है। चरित्र के संदर्भ यह औचित्य स्वभाव और आचरण संबंधी होता है। चरित्र की तीसरी विशेषता वे यथार्थता और जीवन के प्रति सच्चाई स्वीकार करते है। इसी विशेषता की परिणति स्वाभाविकता और संगति में होती है।

    अरस्तु के अनुसार चरित्र का विकास इस रूप में होना चाहिए कि उनके अंत तक वही विशेषताएँ बनी रहे जो आरंभ दिखाई गई हो। यदि उसमें परिवर्तन दिखाया जाए तो इस परिवर्तन के लिए पर्याप्त में कारण होना चाहिए।

    चरित्र में स्वाभिकता और संगति को वे अनिवार्य मानते थे।

    चरित्र चित्रण के लिए अरस्तु ने चित्रकला को आदर्श माना। उन्होंने त्रासदीकार को परामर्श दिया कि जिस प्रकार चित्रकार मूल का प्रत्यांकन करते हुए भी सामान्य जीवन से अधिक सुंदर चित्र का निर्माण करता है, उसी प्रकार कवि को चाहिए कि वह चरित्र के गुण दोषों की स्वाभाविकता की रक्षा करते हुए भी, जीवन की तुलना में उन्हें अधिक परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करे।

    3) विचार—त्रासदी के तत्वों के महत्त्व क्रम की दृष्टि से अरस्तु ने तीसरा स्थान विचार को दिया है। अरस्तु के अनुसार विचार का अर्थ है परिस्थिति के अनुरूप संभव और संगत के प्रतिपादन की क्षमता।

    अरस्तु के अनुसार—“विचार के अंतर्गत ऐसा प्रत्येक प्रभाव आ जाता है जो वाणी द्वारा उत्पन्न हो, इसके उपविभाग हैं—प्रमाण और प्रतिवाद, करुणा, त्रास, क्रोध की उद्बुद्धि, अतिमूलन और उन्मूलन।”

    4) पदावली—पदावली से अरस्तु का अभिप्राय था शब्दार्थमय अभिव्यक्ति। उन्होंने त्रासदी का माध्यम अलंकृत भाषा को माना। अलंकृत की व्याख्या करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया—“अलंकृत भाषा से मेरा अभिप्राय ऐसी भाषा से है, जिसमें लय, सामंजस्य और गीत का समावेश होता है।”

    5) दृश्य विधान—अरस्तु मानते थे कि त्रासदी के प्रबल प्रभाव की अनुभूति दृश्य विधान (रंगमंचीय प्रस्तुति) के बिना भी संभव है। उन्होंने तर्क दिया कि दृश्य विधान कवि की अपेक्षा मंच शिल्प की कला पर अधिक निर्भर रहता है और इससे स्वतंत्र रूप से त्रासदी के प्रबल प्रभाव कि अनुभूति होती है, किंतु त्रासदी के मूल प्रभाव के लिए यह सर्वथा अनिवार्य नहीं है क्यूंकि दृश्य विधान एक बाह्य प्रसाधन है। इस प्रकार त्रासदी का आकर्षण प्रस्तुति सापेक्ष नहीं होता।

    6) गीत—अरस्तु ने गीत को भी त्रासदी का अभिन्न अंग माना है, जबकि उसका स्वतंत्र प्रयोग वृंदगान के अंतर्गत होता है। ग्रीक नाटकों में गायकों का समूह होता था जो ‘कोरस’ कहलाता था। ग्रीक नाटकों में वृंदगान (समूह गान) करने वाले इस कोरस की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। उनके अनुसार नाटक में वृंदगान का महत्त्व किसी पात्र से कम नही है। वह नाटक में आनंद तथा गंभीरता की सृष्टि करता है। और उसके प्रभाव की वृद्धि करता है।

    अरस्तु ने सभी विधाओं में त्रासदी को सर्वोच्च स्थान दिया है। कामदी, महाकाव्य आदि अन्य विधाओं पर बातचीत में भी उन्होंने त्रासदी को हीं संदर्भ बनाया है। त्रासदी की भाँति कामदी भी एक नाट्यविधा है किंतु वह जिस यथार्थ का चित्रण करती है वह सामान्य से नीचे दर्ज़ का होता है।

    अरस्तु काव्य दोषों के पाँच आधार माने है :-

    1) असंभव वर्णन–जो मन को अग्राह्य हो।

    2) आयुक्त वर्णन–जिसमें कार्य कारण भाव का अभाव हो

    3) अनैतिक वर्णन–जिसमें स्वीकृत मूल्यों की अपेक्षा हो।

    4) विरुद्ध वर्णन–जहाँ दो विरोधी वस्तुओं का वर्णन हो।

    5) शिल्पगत दोष–कला संबंधी भूल।

     

    विरेचन सिद्धांत :

    ग्रीक भाषा का कैथार्सिस (Catharsis) शब्द मूलतः चिकित्साशास्त्र का शब्द है और उसका बहु-प्रचलित हिंदी अनुवाद ‘विरेचन’ भी वैद्यक से जुड़ा है। इसका अर्थ है उपयुक्त औषधि के प्रयोग द्वारा शरीर को विकारों या अस्वास्थ्यकर तत्वों से मुक्त करके राहत प्रदान करना। परंपरा से वैद्यकी करने वाले परिवार में जन्म लेने के कारण अरस्तु इस शब्द और इसके सटीक अर्थ से भली-भाँति परिचित रहे होंगे।

    काव्यशास्त्र के संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले उन्होंने ही किया है।

    प्लेटो ने यह आक्षेप लगाया कि “कविता हमारी वासनाओं का दमन करने के स्थान पर उनका पोषण और सिंचन करती है।” इसी आक्षेप का उत्तर देते हुए अरस्तु ने कहा कि “त्रासदी में करुणा तथा त्रास के उद्रेक के द्वारा उन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।”

    अरस्तु के विवेचन में विरेचन का उल्लेख दो स्थानों पर मिलता है। एक उल्लेख त्रासदी की परिभाषा में, और दूसरा उल्लेख ‘राजनीति’ से संबद्ध ग्रंथ में संगीत के प्रभाव के संबंध में।

    अरस्तु का कहना है कि करुणा तथा त्रास अथवा आवेश कुछ व्यक्तियों में बड़े प्रबल होते हैं, किंतु देखा जाता है कि धार्मिक रागों के प्रभाव से वे शांत हो जाते हैं ‘मानो उनके आवेश का शमन और विरेचन हो गया हो’ (अरस्तु का काव्यशास्त्र, डॉ. नगेंद्र)। इसका अर्थ हुआ कि जिनका मन त्रासदायक भावों के कारण उद्विग्न हो, वे संगीत सुनकर शांत हो जाते हैं। इस शमन अर्थात् शांत हो जाने की स्थिति के साथ ही अरस्तु ने ‘विरेचन’ शब्द का भी प्रयोग किया है।

    चिकित्साशास्त्र के इस शब्द के इस लाक्षणिक प्रयोग से उनका आशय प्रतीत होता है कि जिस प्रकार रेचक औषधि के प्रभाव से शरीर के अस्वास्थ्यकर तत्व दूर हो जाते हैं और व्यक्ति राहत महसूस करता है, उसी प्रकार धार्मिक रागों को सुनकर व्यक्ति के मन के विकार दूर हो जाते हैं और वह शांति का अनुभव करता है।

    त्रासदी दर्शक/पाठक के मन में उमड़ते करुणा तथा त्रास के भावों का शमन कर देती है और उन्हें इन विकारों से मुक्त कर देती है।

    अरस्तु के परवर्ती व्याख्याकारों ने विरेचन के भिन्न-भिन्न अर्थ और व्याख्याएँ प्रस्तुत की। अरस्तु के व्याख्याकारों ने विरेचन के चार अर्थ किए :-

    1. चिकित्सापरक

    2. धर्मपरक

    3. कलापरक

    4. नीतिपरक

    चिकित्सापरक—वर्जीज़, डेचेज़ सरीखे विद्वानो ने विरेचन का चिकित्सा परक अर्थ प्रकट करते हुए कहा है कि जिस प्रकार रेचक द्वारा उदर की शुद्धि होती है, उसी प्रकार त्रासदी का विरेचन मन को शुद्ध करता है

    धर्मपरक—अरस्तु के व्याख्याकारों में प्रो. गिल्बर्ट मरे और लिवि ने विरेचन की धर्मपरक व्याख्या प्रस्तुत की है। धर्मपरक अर्थ की एक विशेष पृष्ठभूमि है। इसका संबंध धार्मिक उत्सवों से है।

    प्रो. गिल्बर्ट मरे का कथन है कि—“यूनान में दिओन्यूसस नामक देवता से संबद्ध उत्सव अपने आप में एक प्रकार की शुद्धि का प्रतीक था, जिसमें विगत् समय के कलुष और पाप एवं मृत्यु-संसर्गों से मुक्ति मिल जाती है। इस प्रकार बाह्य विकारों द्वारा आंतरिक विकारों की शांति का यह उपाय अरस्तु के समय में धार्मिक संस्थाओं में काफ़ी प्रचलित था। उन्होंने इसका लाक्षणिक प्रयोग उसी के आधार पर किया है और विरेचन का अर्थ हुआ—‘बाह्य उत्तेजना और अंत में उसके शमन द्वारा आत्मिक शुद्धि और शांति।”

    नीतिपरक अर्थ—बारनेज नामक जर्मन विद्वान ने विरेचन की नीतिपरक व्याख्या की है। उसके अनुसार मानव मन अनेक मनोविकारों से आक्रांत रहता है। जिनमें करुण और ‘भय’, मूलतः दुःखद मनोवेग हैं। त्रासदी रंगमंच पर अवास्तविक परिस्थितियों द्वारा इन्हें अतिरंजित रूप में प्रस्तुतकर कृत्रिम अस्पष्ट उपायों से प्रेक्षक के मन में वासना रूप में स्थित इन मनोवेगों के निराकरण और उसके परिणामस्वरूप मानसिक सामंजस्य की स्थापना करती है। अतः विरेचन का नीतिपरक अर्थ हुआ—मनोविकारों के उत्तेजन के उपरांत उद्वेग का शमन और तज्जन्य मानसिक विशदता। वर्तमान मनोविज्ञान तथा मनोविश्लेषण शास्त्र भी इस अर्थ की पुष्टि करते हैं। मानसिक स्वास्थ्य की साधक होने के कारण यह पद्धति नैतिक मानी गई है।

    कलापरक अर्थ—गेटे और अँग्रेज़ी के स्वच्छंदतावादी कवि आलोचकों में विरेचन के कलापरक अर्थ के संकेत मिलते हैं। अरस्तु के प्रसिद्ध व्याख्याकार प्रो. बूचर का अभिमत है कि विरेचन केवल मनोविज्ञान अथवा निदानशास्त्र के एक तथ्य विशेष का वाचक न होकर, एक कला-सिद्धांत का अभिव्यंजक है। इस प्रकार त्रासदी का कर्तव्य-कर्म केवल करुणा या त्रास के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना ही नहीं अपितु इन्हें एक सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है। इनको कला के माध्यम में ढालकर परिष्कृत और स्पष्ट करना है।

    विरेचन का अर्थ यहाँ व्यापक है—मानसिक संतुलन इसका पूर्व भाग मात्र है, परिणति उसकी कलात्मक परितोष का परिष्कार ही है जिसके बिना त्रासदी के कलागत आस्वाद का वृत्त पूरा नहीं होता।

    विरेचन से अरस्तु के तात्पर्य भावों का निष्कासन मात्र नहीं, वरन् उनका संतुलन भी है। इसी प्रकार प्रो. बूचर का अर्थ भी विचारणीय है। उनके अनुसार विरेचन के दो पक्ष है—

    1. अभावात्मक

    2. भावात्मक

    मनोवेगों के उत्तेजन और तत्पश्चात् उनके शमन से उत्पन्न मनःशांति उसका अभावात्मक पक्ष है तथा उसके उपरांत कलात्मक परितोष उसका भावात्मक पक्ष है। यह दूसरा पक्ष संभवतः अरस्तु की मान्यताओं की परिधि से बाहर है। विरेचन को भावात्मक रूप देना उचित नहीं है। अरस्तु का अभीष्ट केवल मन का सामंजस्य और तज्जन्य विमदता तक ही है, जिसके आधार पर वर्तमान आलोचक रिचर्ड्स ने ‘अंतवृत्तियों के समंजन’ का सिद्धांत प्रतिपादन किया है।

    नगेंद्र का मत है कि “विरेचन कला-स्वाद का साधक तो अवश्य है—समंजित मन कला के आनंद को अधिक तत्परता से ग्रहण करता है, परंतु विरेचन में कला-स्वाद का सहज अंतर्भाव नहीं है। अतएव विरेचन सिद्धांत को भावात्मक रूप देना कदाचित न्यायसंगत नहीं है।”

    वर्ड्सवर्थ :

    वर्ड्सवर्थ का जन्म 7 अप्रैल 1770 इंग्लैंड में हुआ। वर्ड्सवर्थ मूलतः कवि थे।

    वाद—स्वच्छंदतावाद

    प्रमुख रचनाएँ :-

    1. द प्रेल्यूड

    2. लंदन

    3. द सॉलिट

    4. माई हार्ट लीप्स

    5. साईमन ली

    6. वी आर सेवन

    7. गीतात्मक गाथागीत की प्रस्तावना

    8. ऑड टू ड्यूटी

    9. डैफोडिल्स

    10. गाईड टू द लेक्स

    प्रसिद्ध रचना - द प्रेल्यूड (1805)

    विलियम वर्ड्सवर्थ की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी मैरी के द्वारा आत्मकथा 'द ल्यूड' प्रकाशित करवाई गई।

    प्रथम प्रकाशित रचना—1793 में लिखी गई कविता संग्रह 'एन इवनिंग वॉक और डिस्क्रिप्टिव स्कैचस' है। 

    सन् 1795 ई में वर्ड्सवर्थ की कॉलरिज के संपर्क में आए।

    वर्ड्सवर्थ तथा कॉलरिज का साझा संकलन 'लिरिकल बैलेडस' का प्रथम संस्करण 1798 ई. में प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका वर्ड्सवर्थ ने 'एडवरटाइज़मेंट' शीर्षक से लिखी।

    लिरिकल बैलेड्स पुस्तक वर्ड्सवर्थ व कॉलरिज ने मिलकर लिखी थी जिसमें कुल 23 कविताओ का संग्रह था। 19 कविताएँ वर्ड्सवर्थ व 4 कविता कॉलरिज द्वारा लिखी गई थी।

    लिरिकल बैलेडस का प्रकाशन एक प्रयोग के रूप में था न कि एक निश्चित सिद्धांत के रूप में।

    लिरिकल बैलेडस के चार संस्करण प्रकाशित हुए :-

    लिरिकल बैलेडस द्वितीय संस्करण-1800 ई.

    लिरिकल बैलेडस तृतीय संस्करण-1802 ई.

    लिरिकल बैलेडस चतुर्थ संस्करण-1815 ई.

    लिरिकल बैलेडस द्वितीय संस्करण (1800 ई) स्वच्छंदतावादी आंदोलन का घोषणा पत्र माना जाता है। इसी संस्करण की भूमिका में वर्ड्सवर्थ की लिरिकल बैलेडस पर आलोचकों द्वारा लगाए गए आरोपो का प्रत्युत्तर दिया है।

    द्वितीय संस्करण की भूमिका ही 'प्रिफ़ेस टू लिरिकल बैलेडस' नाम से अँग्रेज़ी साहित्य में विख्यात हुई।

    वर्ड्सवर्थ ने काव्य में 'कल्पना शक्ति' पर विशेष बल दिया और काव्य में भाव तत्व को प्रतिष्ठित किया।

    वर्ड्सवर्थ का काव्यभाषा सिद्धांत :

    काव्य में ग्रामीणों की दैनिक भाषा का प्रयोग होना चाहिए। ग्रामीण जीवन में मनुष्य के भाव सरल, निष्कपट और सच्चे होते हैं तथा प्रकृति के निरंतर संपर्क से विकसित होते हैं इसलिए उनमें तादात्म्य सुगम होता है।

    गद्य और पद्य की भाषा में तात्विक भेद नहीं होता।

    प्राचीन कवियों का भावाबोध जितना सरल था, उनकी भाषा उतनी ही सहज थी। भाषा में कृत्रिमता और आडंबर बाद के कवियों की देन है।

    वर्ड्सवर्थ के पूर्व दांते ने काव्य में ग्रामीण भाषा के प्रयोग को हेय माना था। बाद के कवियों ने भी इसका समर्थन किया। अभिजात्य भाषा और बोल-चाल की भाषा का द्वंद्व पुराना है। इस द्वंद्व को वर्ड्सवर्थ ने 'लिरिकल बैलेड्स' के द्वारा पुनः विचारों का केंद्र बनाया।

    18 वीं सदी के नव अभिजात्यवाद में भाषा के दो रूप प्रचलित थे। उच्च भाषा जिसे संस्कृत जनों की भाषा कहते थे तथा दूसरी निम्न भाषा जो साधारण जनों की भाषा थी। कालांतर में उच्च भाषा कृत्रिम और दुर्बोध होती चली गई। इसीलिए इस भाषा के त्याग और ग्रामीण भाषा के प्रयोग पर वर्ड्सवर्थ ने बल दिया। वर्ड्सवर्थ रीतिबद्धता को अस्वाभाविक मानते थे। उनका कथन था कि “मैंने कई ऐसे अभिव्यंजना-प्रयोगों को जो स्वतः उचित और सुंदर हैं, बचाया है, क्योंकि निम्न कोटि के कवियों ने उनका इतना अधिक प्रयोग बार-बार किया है कि उनके प्रति ऐसी अरुचि उत्पन्न हो गयी है कि उसे किसी कला के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता है। वर्ड्सवर्थ का यह भी मत था कि सभी देशों के प्राचीनतम कवियों ने प्रायः वास्तविक घटनाओं के द्वारा उत्तेजित भावों के कारण कविताओं की रचना की है। उन्होंने प्राकृतिक रूप से तथा मनुष्य के रूप में लिखा है। चूँकि उनके भाव सशक्त थे, इसलिए उनकी भाषा निर्भीक और अलंकृत होती थी। बाद में निम्न कोटि के कवियों ने उस प्रभावपूर्ण भाषा का अनुकरण किया। यद्यपि उनमें उन भावों का उद्रेक नहीं था। इस प्रकार उस अलंकृत भाषा का यांत्रिक अनुकरण होने लगा। वर्ड्सवर्थ का मत है कि भाव एवं विचार तथा भाषा का संबंध स्वाभाविक है। जिस प्रकार का और जिस कोटि को भाव होगा, उसी प्रकार की और उसी कोटि की भाषा होगी।

    साधारण भाषा का अर्थ वर्ड्सवर्थ ने तुच्छ भाषा के रूप में नहीं माना। वर्ड्सवर्थ ने प्रारंभिक काव्यभाषा और साधारण भाषा का अंतर भी स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि प्रारंभ में काव्य की भाषा और साधारण भाषा में अंतर था।

    वर्ड्सवर्थ ने काव्यभाषा के विवेचन के अंत में यह विचार व्यक्त किया है—कल्पना और भाव की कृतियों की एक और केवल एक भाषा होनी चाहिए, चाहे वे कृतियाँ गद्य में हो या पद्य में। छंद इस प्रकार की कृतियों के लिए ऊपरी अथवा आकस्मिक तत्व होते हैं। डॉ. कृष्णदेव शर्मा के अनुसार वर्ड्सवर्थ ने प्रचलित शैली और रूढ़ भाषा को अनुपयोगी मानकर उसका विकास व्यक्तिवाद और भावात्मकता के आधार पर किया। उन्होंने परंपरागत शैली को विकृत, विरूपण, मिश्रित तथा भावहीन माना। डॉ. शांतिस्वरूप गुप्त ने वर्ड्सवर्थ की भाषागत विवेचना के संदर्भ में यह टिप्पणी की है—”जिस प्रकार जॉन डॉन ने अपनी काव्य-शैली को स्पेंसर की शैली से, ड्राइडन ने अपनी शैली को मैटाफिजिकल कवियों की कृत्रिम शैली से महान माना तथा आधुनिक युग में जिस प्रकार टी. एस. इलियट तथा एजरापाउंड प्रतिदिन की बोलचाल की भाषा के प्रयोग के समर्थक हैं, उसी प्रकार वर्ड्सवर्थ ने कहा कि उनकी अपनी भाषा शैली अधिक प्राकृतिक और स्वाभाविक है।

    वर्ड्सवर्थ के काव्य भाषा संबंधी मत की आलोचना

    कालरिज ने अपने ग्रंथ 'बायोग्राफिया लिटोरिया' में वर्ड्सवर्थ की विचारधारा की आलोचना करते हुए जो तर्क दिए वे इस प्रकार हैं—

    1. कालरिज के अनुसार ग्रामीण भाषा की शब्दावली अपर्याप्त और कामचलाऊ होती है उसमें काव्य की गहन, सूक्ष्म एवं विविध अनुभूतियों को व्यक्त कर सकने की क्षमता नहीं होती।

    2. वर्ड्सवर्थ काव्य में उस भाषा के प्रयोग पर बल देते हैं जो 'मनुष्यों की वास्तविक भाषा' है, अर्थात् वे कृत्रिमता से बचने की बात कहते हैं, किंतु कालरिज का मत है कि प्रत्येक मनुष्य की भाषा उसके ज्ञान, क्रिया, संवेदना, शिक्षा के स्तर आदि के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। अतः काव्य भाषा में स्वाभाविक भाषा का प्रयोग न होकर उस भाषा का प्रयोग होता है जो संस्कार रूप में कवि के मन पर अपना प्रभाव डाले रहती है।

    3. वर्ड्सवर्थ का यह भी कहना था कि ग्रामीण भाषा के दोषों को दूर करके उसमें से उन शब्दों को निकाल देना चाहिए जो अरुचि और जुगुप्सा उत्पन्न करने वाले हों। इस संबंध में कालरिज का कथन है कि जब ग्रामीण भाषा को दोषों से मुक्त करके परिष्कृत कर लिया गया हो, तो वह ग्रामीण भाषा कहाँ रहती है।

    4. कालरिज यह भी मानता है कि भावों के प्रबल आवेग की दशा में या तीव्र अनुभूति की दशा में वे ही शब्द कवि को सूझते हैं जो पहले से मन में विद्यमान हों, हाँ असाधारण उत्तेजना से वे समुदित हो जाते हैं।

    5. कालरिज ने गद्य-पद्य की भाषा की एकरूपता का विरोध किया उसके अनुसार—कोई शब्द या शब्द क्रम केवल गद्य के लिए होता है, तो कोई पद्य के लिए। इसलिए गद्य और पद्य की भाषा में अभेद स्वीकार्य नहीं है।

    सेमुअल टेलर कॉलरिज

    सेमुअल टेलर कॉलरिज (1772-1834) वर्ड्सवर्थ के साथ स्वच्छंदतावादी आंदोलन के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं।

    साहित्य समीक्षा को दर्शन और मनोविज्ञान से जोड़कर कॉलरिज ने नई समीक्षा प्रणाली विकसित की।

    उनकी सर्वाधिक चर्चित कृति ‘बायोग्राफ़िक लिटरेरिया’ 1817 में प्रकाशित हुई जिनमें काव्य सृजन-प्रक्रिया तथा कवि-प्रतिभा की गहन व्याख्या और कल्पना सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया।

    प्रमुख कृतियाँ :-

    पोयम्स

    द फ्रेंड (1817)

    एड्स टू रिफ्लेक्शन (1825)

    चर्च एंड स्टेट (1830)

    लिरिकल बैलेड्स (1798)

    कन्फेशंज ऑफ़ एन एनक्वारिया स्प्रिंट

    बायोग्राफिया लिटेररिया (1817)

    कॉलरिज का कल्पना और फ़ैंटेसी सिद्धांत :

    कल्पना का अँग्रेज़ी शब्द ‘इमेजीनेशन’ लैटिन के ‘इमेजीनेटिव’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है—मानसिक चित्रकी सृष्टि।

    कल्पना के साथ ही एक अन्य शब्द का प्रयोग भी किया जाता है—‘फ़ैन्सी’ जिसका अर्थ है—ललित कल्पना।

    इस शब्द का मूल जर्मन शब्द ‘फ़ैंटेसिया’ है जो अँग्रेज़ी तक पहुँचते-पहुँचते फ़ैन्सी रह गया।

    कॉलरिज के अनुसार ‘आलोचना का उद्देश्य साहित्य-रचना के नियमों का पता लगाना है, दूसरों के लिखे हुए पर निर्णय देना नहीं।’

    उनके चिंतन का केंद्र वह सृजन-प्रक्रिया है जिसके माध्यम से कविता रूप ग्रहण करती है। यही वजह है कि कविता की व्याख्या पर उनका उतना बल नहीं रहता जितना उसकी सृजन-प्रक्रिया पर।

    ‘बायोग्राफिया लिटरेरिया’ के तेरहवें अध्याय में कल्पना पर स्वतंत्र रूप से विचार किया।

    कॉलरिज कविता की परिभाषा देते है—कविता सर्वोत्तम शब्दों का सर्वोत्तम क्रम विधान है।

    सच्ची कविता वही है जिससे विविध भाग परस्पर अनुपात में छंदोविधान के साथ समंजित हों तथा उसके उद्देश्य एवं ज्ञात प्रभावों का उन्नयन करें।

    कॉलरिज ने सर्प का उदाहरण दिया—जिस प्रकार सर्प हर क़दम पर रुककर, आधा पीछे को चलकर उस प्रतिवर्ती गति से पुनः आगे चलने की शक्ति संचय करता है, उसी प्रकार पाठक को हर श्लोक पर रुककर उसका रसास्वादन ग्रहण करना चाहिए, उससे आगे पढ़ने की प्रेरणा पानी चाहिए। जो कविता पाठक को घोड़े की तरह सरपट भगाए, वह उत्तम नहीं कही जा सकती।

    ललित कल्पना (फँसी) और कल्पना (इमेजिनेशन)

    कॉलरिज से पहले ललित कल्पना (फँसी) और कल्पना (इमेजिनेशन) में कोई अंतर नहीं था। वे या तो परस्पर पर्याय थे या फिर एक ही शक्ति के निम्न और उच्च स्तर। कॉलरिज ने इनमें गुणात्मक अंतर माना।

    मन की जो शक्ति बिंब-विधान में सक्रिय रहती है और जो नियत, निश्चित तथा यांत्रिक है उसे उन्होंने ललित कल्पना कहा और मानव-मन के सर्जनात्मक पक्ष को कल्पना नाम दिया।

    कल्पना और ललित कल्पना जिस सामग्री को आधार रूप में ग्रहण करती है उसकी प्रकृति एक जैसे (स्थिर और निर्जीव) होती है। किंतु जहाँ कल्पना जिन पदार्थों का स्पर्श करती है उनमें जीवंतता का संचार कर देती है वहाँ ललित कल्पना उनका यांत्रिक रूप में संयोजन भर करती है।

    कॉलरिज के अनुसार, ललित कल्पना स्मृति का ही एक रूप है। ललित कल्पना ऐसी स्मृति है जो देश-काल के बंधन से मुक्त हो।

    वे एक ही शक्ति के उच्च और निम्न स्तर हैं। कल्पना और ललित कल्पना दोनों को ही आधार सामग्री स्मृति से मिलती है किंतु दोनों के परिणाम में अंतर है। कल्पना जहाँ उस सामग्री का कायाकल्प कर देती है, उसमें गुणात्मक अंतर ला देती है वहाँ ललित कल्पना उनका संयोजन भर करती है।

    कॉलरिज के शब्दों में, ‘यह अपनी संपूर्ण सामग्री, जो पहले से बनी-बनाई होती है, बराबर साहचर्य नियम द्वारा ग्रहण करती है।’

    ललित कल्पना का स्वरूप-निर्देश करते समय कॉलरिज के दिमाग़ में नव्य-शास्त्रवादी काव्य है जबकि कल्पना का विवेचन करते समय उनके मन में समसामयिक स्वच्छंदतावादी काव्य का बिंब रहता है।

    कल्पना और ललित कल्पना में गुणात्मक अंतर है। कॉलरिज ने ललित कल्पना को ‘देश-काल के बंधन से मुक्त स्मृति का एक प्रकार माना है।

    ललित कल्पना प्रत्यक्ष-बोध और स्मृति से उच्चतर है। लेकिन कल्पना से निम्नतर।

    यह स्थिर वस्तुओं का संयोजन मात्र करती है। किंतु कल्पना एक सर्जनात्मक और रूपायन करने वाली शक्ति है जो अनेक का एक में तथा एक का अनेक में साक्षात्कार करती है।

    कॉलरिज के शब्दों में ‘बुद्धि काव्य—आत्मा का शरीर है, ललित कल्पना उसका प्रसाधन है, किंतु विधायक कल्पना उसकी आत्मा है जो सर्वत्र व्याप्त रहते हुए प्रत्येक अंग को अनुप्राणित करती है।’

    प्रमुख और गौण कल्पना

    कॉलरिज के अनुसार, कल्पना के दो भेद हैं—प्रमुख और गौण।

    प्रमुख कल्पना हमारे संपूर्ण इंद्रियज्ञान का आधार है।

    प्रमुख कल्पना के सहयोग के बिना हमें इंद्रियों से जो कुछ प्राप्त होगा वह एकदम अव्यवस्थित, खंडित और गड्डमड्ड होगा।

    इंद्रियों के साथ प्रमुख कल्पना का सन्निकर्ष होने पर ही हमें दृश्य जगत का व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त होता है।

    मुख्य कल्पना की दूसरी विशेषता है जीवंतता यह एक ‘जीवंत शक्ति’ है। ‘जीवंत’ से कॉलरिज का आशय है सक्रिय (active) और जैविक (organic), इंद्रियज्ञान का आधार होने की वजह से मुख्य कल्पना का संबंध सभी चिंतनशील प्राणियों से है। चूँकि इसका संबंध मानव मात्र से है अर्थात् इसका क्षेत्र अत्यंत व्यापक और आधारभूत है अतः इसे ‘मुख्य कल्पना’ कहना उचित ही है।

    ‘प्रमुख कल्पना ‘सीमित मन में असीम सत्ता की आवृत्ति है।’

    कॉलरिज ईश्वर मानव-मन और कल्पना को एक ही स्तर पर रखते हैं, कल्पना को तो वे ईश्वर का अत्यंत विराट प्रतिरूप मानते हैं।

    गौण (या विधायक) कल्पना

    गौण (या विधायक) कल्पना ‘मुख्य कल्पना की प्रतिध्वनि’ है। ‘प्रतिध्वनि’ शब्द से ही संकेत मिलता है कि मुख्य कल्पना का पूर्व अस्तित्व गौण या विधायक कल्पना के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है।

    कॉलरिज इन दोनों में कोई गुणात्मक अंतर नहीं मानते। दोनों में जो अंतर है वह ‘मात्रा और कार्य-पद्धति’ का है, प्रकार का नहीं।

    विधायक कल्पना के लिए संवेदनशीलता अधिक चाहिए, आवयविक इकाई में ढालने की योग्यता अधिक चाहिए।

    दोनों की कार्य-पद्धति में अंतर यह है कि प्रमुख कल्पना जहाँ केवल निर्माण करती है वहाँ गौण कल्पना नाश और निर्माण दोनों।

    प्रमुख कल्पना का संबंध जहाँ मनुष्य मात्र से है यहाँ गौण या विधायक कल्पना कवि-कलाकार का विशेष वरदान है।

    प्रमुख कल्पना की तुलना में सूक्ष्मता और गहराई होने के बावजूद इसका आधारफलक अपेक्षाकृत सीमित होता है।

    इसका सीधा संबंध कवि रचनाकारों से है, व्यापक जन-समुदाय से नहीं। शायद इसीलिए कॉलरिज ने इसे ‘गौण कल्पना’ की संज्ञा दी है।

    विधायक कल्पना पुनःसृजन के उद्देश्य से संपूर्ण सामग्री का विलयन करती रहती है, उसे गलाती–पिघलाती रहती है।

    नाश और निर्माण (पुनःसृजन) दोनों करती है। प्रमुख कल्पना से प्राप्त सामग्री का गौण कल्पना नाश भी करती है और निर्माण भी।

    दृश्य जगत की सामान्य और असंबद्ध वस्तुएँ विधायक कल्पना से विशिष्ट और रमणीय बन जाती हैं साथ ही वे परंपर संबद्ध दिखाई देने लगती हैं।

    विधायक कल्पना की यह शक्ति ‘विरुद्धों के सामंजस्य’ में व्यक्त होती है।

    प्रतिभा (genius) और प्रज्ञा (talent) में भी कॉलरिज ने अंतर माना है।

    प्रतिभा जन्मजात होती है जबकि प्रज्ञा अर्जित।

    प्रतिभा कल्पना के समान जबकि प्रज्ञा ललित कल्पना के समान होती है।

    प्रतिभा में सर्जनशीलता है, नवनिर्माण की क्षमता है जबकि प्रज्ञा वस्तुओं का संयोजन अर्थात् उन्हें एक-साथ प्रस्तुत भर करती है।

    प्रतिभा आत्म-निर्भर या मौलिक होती है जबकि प्रज्ञा पराश्रित।

    टी. एस. इलियट

    जन्म- सेंट लूई में 26 सितंबर, 1888 ई. को हुआ था। 1925 ई. में लंदन के प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान फेबर एंड फेबर के निदेशक नियुक्त हुए। इसी संस्थान से 'दि क्राइटेरियन' नामक पत्रिका निकलती थी जो त्रैमासिक थी।

    'दि क्राइटेरियम' नामक पत्रिका में इनकी प्रसिद्ध काव्य रचना 'द वेस्टलैंड' प्रकाशित हुई है।

    'द वेस्टलैंड' रचना पर 1948 ई. में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

    प्रमुख कृतियाँ :-

    द सेक्रेड वुड (1920)

    होमेज टू जान ड्राइड्न (1924)

    द यूज ऑफ़ पोइट्री एंड द यूज ऑफ़ क्रिटिजिस्म (1933)

    सलेक्टेड एसेज (1934)

    एसेज एंसेंट एंड मोर्डेन (1936)

    एलिजाबेथियम एसेज (1938)

    पोइट्री एंड ड्रामा (1951)

    द थ्री यूजेज़ ऑफ़ पोइट्री (1953)

    सलेक्टेड प्रोज (1953)

    ऑन पोयट्री एंड पोयट्स (1957)

    अपने निबंध संग्रह द सेक्रेड वूड में संकलित निबंध हमेलेट एंड हिज प्रोब्लेंस (Hamlet and his problems) में वस्तुनिष्ठ समीकरण का उल्लेख किया है।

     

    निर्वैयक्तिकता सिद्धांत :

    टी. एस. एलियट की निर्वैयक्तिकता से संबंधित धारणा भारतीय काव्यशास्त्र में रस-सिद्धांत के अंतर्गत मिलने वाले सृजन प्रक्रिया के सिद्धांत साधारणीकरण' के बहुत नज़दीक है। किंतु एलियटीय निर्वैयक्तिकता को साधारणीकरण क पर्याय नहीं माना जा सकता है।

    एलियट ने काव्य सृजन में कवि व्यक्तित्व की तात्विक उपस्थिति से अपना विरोध बराबर दर्ज़ किया है।

    टी. एस. एलियट के अनुसार 'मेरा तात्पर्य यह है कि कवि के पास अभिव्यक्त करने के लिए 'व्यक्तित्व' नहीं, बल्कि एक विशेष माध्यम होता है, जो केवल माध्यम मात्र ही होता है व्यक्तित्व नहीं जिसमें विभिन्न प्रभाव और अनुभव विशिष्ट और अप्रत्याशित रूपों में संयुक्त हो जाते हैं। यह संभव है कि उन प्रभावों और अनुभवों का जो व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, कविता में कोई स्थान न हो और जो कविता में महत्त्वपूर्ण हों, उनकी भूमिका व्यक्ति में, व्यक्तित्व में, व्यक्तित्व विशेष में सर्वथा नगण्य हो।' एलियट के विचार से कविगत भाव और काव्यगत भाव की प्रकृति में मूलभूत अंतर होता है।

    कविगत अनुभूत भाव की प्रकृति प्रेरक घटना प्रसंगों से निर्धारित होती है जबकि काव्यगत भावों का चरित्र सृजन प्रक्रिया के दौरान सामान्य भावों के विशिष्ट उपयोग से निर्मित-सृजित होता है। कवि के द्वारा रचना में ऐसे भावों की सृष्टि भी संभव है जिनका वास्तविक जीवन में अनुभव ही न किया गया हो, कवि के निजगत भावों अनुभवों की विशिष्टता या असाधारणता कविता में व्यक्त भावों की जटिलता या असाधारणता के लिए एकदम महत्वहीन हो।

    एलियट ने निर्भ्रांभ शब्दों में कहा है कि कवि अपने व्यक्तिगत भावों के कारण उन भावों के कारण, जो उसके जीवन में विशिष्ट घटनाओं या स्थिति-परिस्थिति से उद्दीपन प्राप्त करते हैं, किसी भी रूप में न असाधारण होता है न दिलचस्प।

    कवि—विशेष के भाव सपाट सरल हो सकते हैं अनगढ़ हो सकते हैं। उसका काव्य-भाव बहुत संश्लिष्ट या जटिल होगा, किंतु यह जटिलता उन लोगों के भावों की सी नहीं होगी, जिनके भाव जीवन में बहुत जटिल या असाधारण होते हैं।

    कवि कर्म का क्षेत्र नए भावों की तलाश का क्षेत्र नहीं है बल्कि सामान्य भावों का उपयोग करना और उन्हें कविता का रूप देकर ऐसी अनुभूतियों को प्रगट करना है जो वास्तविक भाव में विद्यमान ही नहीं हैं। जिन भावों का उसने कभी अनुभव किया ही नहीं, वे समय पर उसके वैसे ही काम आते हैं जैसे उसके परिचित भाव।

    एलियट के मत से काव्य में स्थान पाने के लिए भावों का कवि के अनुभव की राह से आना ज़रूरी नहीं है।

    एलियट के अनुसार 'ईमानदार आलोचना और संवेदनात्मक परिशंसा का लक्ष्य कवि नहीं है बल्कि कविता है।' एलियट का कथन है कि 'कविता भावों का उन्मोचन नहीं है बल्कि भावों से मुक्ति है, वह व्यक्तित्व की अभिव्यंजना नहीं है बल्कि व्यक्तित्व से पलायन है।' निर्वयक्तीकरण की यह प्रक्रिया कला को विज्ञान की स्थिति के आसपास पहुँचाती दिखाई देती है।

    अपने मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए एलियट ने एक उत्प्रेरक का (catalytic) का दृष्टांत दिया है। 'प्लेटिनम के तार की मौजूदगी में (ऑक्सीजन और सल्फर डाइ ऑक्साइड) दोनों को मिलाया जाता है तो उनसे सल्फ्यूरस एसिड बन जाता है। यह संयोजन तभी घटित होता है जब प्लेटिनम मौजूद हो, फिर भी इस नव-निर्मित गैस में प्लेटिनम का कोई चिह्न नहीं बचता और स्वयं प्लेटिनम पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह निष्क्रिय, तटस्थ और अपरिवर्तित रहता है। कवि का मानस प्लेटिनम का तार है।' एलियट के अनुसार कलाकृति के आस्वादन से उत्पन्न अनुभूति किसी भी अन्य साधन से उत्पन्न, अनुभूति सेभिन्न होती है।

    एलियट मानते हैं कि कवि का मन एक ऐसा पात्र है जिसमें अनंत संवेदन, वाक्यांश, बिंब आदि संचित रहते हैं और वे तब तक उसमें वैसे ही पड़े रहते हैं जब तक सर्जन का क्षण नहीं आता।

    सर्जन के क्षण में वे अपना-अपना स्वरूप त्याग कर और नए रूपों में संयोजित होकर कला का विग्रह धारण कर लेते हैं।

    रचना में वैयक्तिक भाव पूरी तरह निर्वैयक्तिक रूप को प्राप्त कर अभिव्यक्त होता है। वे कहते भी हैं कि 'कविता का भाव निर्वैयक्तिक होता है और कवि इस निर्वैयक्तिकता को तब तक प्राप्त नहीं कर सकता जब तक वह करणीय कर्म के प्रति अपने आप को पूरी तरह समर्पित नहीं कर देता है।' एलियट पूरे विश्वास से कहते हैं कि कवि के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का प्रश्न ही निरर्थक है। कवि को व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करनी ही नहीं है। वह तो माध्यम मात्र है केवल माध्यम पर इस (कवि) माध्यम में संस्कार और अनुभूतियाँ अद्भुत रूप से संयोजित रहती हैं।

    एलियट ने रचना को स्वायत्त और निर्वैयक्तिक रूप में ग्रहण करने की माँग कवि और आलोचक दोनों से की।

    रचना के आस्वाद को लेकर एलियट ने कहा कि साहित्य के ईमानदार आलोचक में कलाकृति के द्वारा संप्रषित संवेगों के अतिरिक्त किसी और संवेग की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए।

    कलाकृति पर विचार करते समय आलोचक को हर तरह के दुराग्रह और आग्रहों से मुक्त निर्मल मानस का 'सहृदय' होना चाहिए। एलियट की यह धारणा भारतीय काव्यशास्त्र में 'सहृदय' की अवधारणा के बहुत नज़दीक है।

    टी. एस. एलियट का परंपरा सिद्धांत

    टी. एस. एलियट की समस्त आलोचना दृष्टि का आधार है उनका निबंध 'परंपरा और व्यक्तिगत प्रज्ञा (ट्रेडिशन एंड दि इंडिविजुअल टैलेंट)।

    'आफ्टर स्ट्रेन्ज गॉड्स' में एलियट ने कहा, 'किन्हीं मताग्रही विश्वासों को पूर्ण रूप से या प्रधान रूप से बनाए रखना ही परंपरा नहीं है; ये विश्वास तो परंपरा के निर्माणक्रम में रूप ग्रहण करते हैं।

    परंपरा से जो मेरा अभिप्राय है उसमें बहुत कुछ शामिल है। उसमें वे अभ्यासजन्य क्रियाकलाप, आदतें और रीति-रिवाज, अत्यंत महत्त्वपूर्ण धार्मिक कर्मकांडों से लेकर किसी अजनबी को अभिवादन करने के हमारे परंपरागत तरीक़े भी शामिल हैं जो एक ही स्थान पर बसे जन-समुदाय के बीच रक्त संबंधों को प्रकट करते हैं।' एलियट के लिए 'परंपरा' के व्यापक अर्थ के साथ एक संकुचित अर्थ भी था। संकुचित अर्थ था यूरोपीय परंपरा के अंतर्गत ईसाई धर्म परंपरा के विश्वास।

    संक्षेप में, एलियट की परंपरा और वैयक्तिक प्रज्ञा संबंधी मान्यताओं को इस प्रकार रखा जा सकता है—

    1. यूरोपीय परंपरा पर विचार करते हुए एलियट का यह मत बना कि 'प्रत्येक राष्ट्र, प्रत्येक प्रजाति की अपनी सर्जनात्मक ही नहीं, आलोचनात्मक मानसिकता भी हुआ करती है।'

    2. किसी रचनाकार की महत्व प्रतिष्ठा करते समय हम प्राय: उसकी वैयक्तिक विशिष्टताएँ खोजकर दिखाने का प्रयत्न करते हैं। उसके पूर्ववर्ती कवियों से उसकी भिन्नता को पहचानने में ही हमें प्रसन्नता होती है। किंतु यदि हम ठीक से खोजबीन करें तो पाएँगे कि किसी कवि की रचना के श्रेष्ठ ही नहीं, सर्वथा वैयक्तिक पक्ष भी वही होते हैं जिनमें उसके पूर्ववर्ती रचनाकारों का प्रभाव प्रभावशाली ढंग से व्यक्त हुआ होता है। ज़ाहिर है कि 'व्यक्तिगत प्रज्ञा' परंपरा से विच्छिन्न, निरपेक्ष या असंबद्ध वस्तु नहीं है। परंपरा से गहरे अर्थों में जुड़कर ही कवि अपनी वैयक्तिक सामर्थ्य को अधिक प्रभावी रूप में उजागर कर सकता है।

    3. रचनाकार के लिए परंपरा साँस की तरह सहज स्वाभाविक, अनिवार्य और नैसर्गिक क्रिया है। कुछ भी सोचते-सुनते-पढ़ते समय उसके गुण-दोषों का अहसास मानव विवेक स्वयं करता चलता है। अभिव्यक्ति या रचना प्रक्रिया में कभी परंपरा मौन होती है, कभी मुखर। कभी टकराहट संघर्ष की मुद्रा में होती है, कभी विपरीत दिशा में। लेकिन परंपरा का रचनाकार के साथ एक संघर्ष-संवाद बराबर चलता रहता है।

    4. एलियट ने ज़ोर देकर कहा कि 'परंपरा को दाय या विरासत के रूप में प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसकी प्राप्ति के लिए कठोर तप, साधना या श्रम आवश्यक है।'

    5. परंपरा का अर्थ है इतिहास बोध। कवि में 'इतिहास बोध होना चाहिए। इतिहास-बोध का तात्पर्य अतीत के अतीतत्व का ही नहीं है, अपितु उसकी वर्तमानता का अनुभव भी है।

    6. एलियट का मानना है कि 'परंपरा' कोई मृत वस्तु नहीं है जो मृत या निरर्थक है उसे 'परंपरा' की संज्ञा देना ही समीचीन नहीं है। वस्तुत: परंपरा एक सातत्य है. निरंतरता है, अविच्छिन्न प्रवाह है जो अतीत के साहित्यिक-सांस्कृतिक दाय अथवा धरोहर या विरासत से वर्तमान को संपन्न और सार्थक बनाती है तथा भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त करने का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। इस दृष्टि से परंपरा का विस्तार देश और काल दोनों में होता है।

    7. परंपरा के संदर्भ में विशेष बात यह है कि किसी भी कवि या कलाकार की अर्थवत्ता केवल अपने-आप अकेलेपन में नहीं होती। उसकी सही अर्थवत्ता, उसकी प्रशंसा दिवंगत या पूर्ववर्ती कवियों-कलाकारों की सापेक्षता में ही होती है।

    8. ध्यातव्य है कि कवि को अतीत या परंपरा का ज्ञान तो होना चाहिए किंतु यह ज्ञान इतना भारी न पड़े कि कवि चेतना को आक्रांत कर ले। 'कलाकार की प्रगति सतत आत्म-बलिदान में है, व्यक्तित्व के सतत आत्म-समर्पण में है। व्यक्तित्व के इस निर्वैयक्तीकरण से ही कला विज्ञान की स्थिति को प्राप्त कर सकती है।'

    आई. ए. रिचर्ड्स :

    ईवर आर्मस्ट्रांग रिचर्डस का जन्म 26 फ़रवरी, 1893 में हुआ तथा मृत्यु 7 सितंबर, 1979 में हुई।

    'नई समीक्षा' (न्यू क्रिटिसिज्म) को सैद्धांतिक आधार प्रदान करने वाले आलोचकों में वे अग्रणी माने जाते हैं।

    उन्होंने साहित्यिक चिंतन को नवीन आधार प्रदान करते हुए विज्ञान तथा मनोविज्ञान की सहायता से कविता की सार्थकता एवं महत्ता की महत्व-प्रतिष्ठा की है।

    सी. के. आग्डेन और जेम्स वुड के साथ सहयोगी लेखन के रूप में उनकी पहली कृति 'दि फाउंडेशन्स ऑफ़ एस्थेटिक्स' शीर्षक से 1922 में प्रकाशित हुई।

    उन्होंने लगभग बारह ग्रंथ लिखे जिनमें अंतिम ग्रंथ 'बियोंड' 1974 में आया।

    रिचर्डस की प्रसिद्धि का आधार ग्रंथ 'प्रिंसिपल्स ऑफ़ लिटरेरी क्रिटिसिज्म' को कहा जा सकता है।

    उनकी जो पुस्तक विद्वानों के बीच बहुचर्चित रही, वह है—'कॉलरिज ऑन इमेजिनेशन' (1934)।

    महत्वपूर्ण पुस्तकें :-

    'मेन्सियस ऑफ़ : द माइंड' (1931), 'एक्सपेरिमेंट्स इन मल्टिपिल डेफ़िनीशन' (1932),

    'बेसिक रूल्ज़ ऑफ़ रीजन ' (1933),

    'दि फिलासफ़ी ऑफ़ रेटरिक' (1936), 'इंटरप्रटेशन इन टीचिंग' (1938),

    'दि स्पेक्युलेटिव इंस्ट्रूमेंट्स' (1955), 'पोएट्रीज़ : देयर मीडिया एंड एंड्स' (1973), 'हाउ टु रीड ए पेज',

    'प्रैक्टिकल 'क्रिटिसिज्म',

    'साइंस एंड पोएट्री' आदि।

    रिचर्ड्स मनोविज्ञान एवं अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे।

    हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर थे।

    रिचर्ड्स बेथम और मील के उपयोगितावाद से प्रभावित थे।

    मूल्य सिद्धांत :

    रिचर्ड्स के अनुसार साहित्य का उद्देश्य 'मनुष्य की वृत्तियों में संतुलन स्थापित करना है। इससे मनुष्य के मन का परिष्कार होता है, जीवन में संतोष और सुख की प्राप्ति होती हैं। इसीलिए कविता जिस अनुपात में मानव-मन की वृत्तियों में सामंजस्य उत्पन्न करेगी उसी अनुपात में वह मूल्यवान होगी। उससे प्राप्त अनुभव मूल्यवान होगा, क्योंकि उस संतुलन में ही सौंदर्यानुभूति निहित होती है।

    कला तथा कलानुभूति जीवन के मानव व्यापारों से संबद्ध है उससे भिन्न नहीं है।

    काव्यानुभूति या कलानुभूति जीवनानुभूति का पर्याय है।

    मानव क्रियाओं में कला सर्वाधिक मूल्यवान किया है।

    किसी भी मानव-क्रिया का मूल्य इस बात से निर्धारित होता है कि उसमें मन में संतुलन और व्यवस्था उत्पन्न करने का सामर्थ्य कहाँ तक है।

    मूल्यांकन संबंधी हमारी धारणाओं का संबंध मानसिक उद्वेगों से रहता है। ये मानसिक उद्वेग दो प्रकार के होते हैं—प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक। प्रवृत्तिमूलक उद्वेगों में प्रमुख हैं—भूख, तृष्णा, वासना जबकि निवृत्तिमूलक उद्वेग-घृणा, निवेद, वितृष्णा आदि।

    जो हमारे प्रवृत्तिमूलक उद्वेगों को संतुष्ट करता है, वह हमारे लिए मूल्यवान है। वैयक्तिक तथा सामाजिक स्वरूप से जीवन का मूल्य माँगों की संगतिपूर्ण व्यवस्था पर निर्भर रहता है। साहित्य का मूल्य हमारे उद्वेगों में संगति और संतुलन स्थापित करने में निहित है।

    वह कविता और भी अधिक मूल्यवान है जो ऐसी आकांक्षाओं को संतुष्ट करती है जिनसे कम से कम वृत्तियाँ क्षुब्ध होती हों।

    काव्य सृजन से तथा काव्यानुशीलन से कवि एवं भावक की मनःस्थिति पूर्णतः संतुलित होकर 'शांति' प्राप्त करती है, अतः कविता अन्य मौलिक वस्तुओं की अपेक्षा अधिक मूल्यवान है।

    कविता का महत्व इसलिए भी है, क्योंकि वह हमें, जीवन के ऐसे अनुभव प्रदान करती है जो इस नितांत भौतिकवादी युग में मानव मन को संतुलित कर हमें शांति प्रदान करती है।

    रिचर्डस मूल्यवादी समीक्षक हैं और 'कला कला लिए' सिद्धांत के विरोधी हैं। उनके अनुसार कला तभी महान होती है यदि वह मानव सुख की अभिवृद्धि में निरत हों, पीड़ितों के उद्धार या हमारी पारस्परिक सहानुभूति के विस्तार में संलग्न हो। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रिचर्डस के इस सिद्धांत का समर्थन किया है।

    रिचर्ड्स की धारणा है कि अनुभव का मूल्य उसके उत्तरकालीन प्रभाव द्वारा आँका जाता है। वे साहित्य के इस प्रभाव मूल्य को स्वीकारते हुए कहते हैं कि जो कविता श्रोता या पाठक के मन को जितना अधिक प्रभावित कर सकती है, वह उतनी ही उत्कृष्ट कहलाएगी।” रिचर्ड्स उस साहित्य को महत्व देते हैं जिसमें आवेगों का संतुलन हो तथा बाह्य क्रिया के लिए तत्परता उत्पन्न हो।

    रिचर्ड्स का संप्रेषण सिद्धांत :

    रिचर्ड्स ने अपनी पुस्तक 'प्रिंसिपल ऑफ़ लिटेरेरी' क्रिटिसिज्म के चौथे और इक्कीसवें अध्याय में क्रमशः 'कम्युनिकेशन एंड द आटिस्ट' और 'ए थियोरी कम्युनिकेशन' उपशीर्षकों के तहत अपनी संप्रेषण संबंधी अवधारणा के मूलभूत विचार दर्ज़ किए हैं।

    संप्रेषण के लिए आवश्यक तत्त्व

    संप्रेषणीयता को प्रभावी बनाने के लिए जिन बातों की ज़रूरत होती है वे हैं।

    कवि या कलाकार की अनुभूति व्यापक, विस्तृत और प्रभावकारी होनी चाहिए।

    अनुभूति के क्षणों में आवेगों का व्यवस्थित ढंग से संतुलन होना चाहिए।

    वस्तु या स्थिति के पूर्ण बोध के लिए कलाकार या कवि में जागरूक निरीक्षण-शक्ति होनी चाहिए।

    कलाकार और प्रेक्षक के अनुभवों में तालमेल होना चाहिए। दोनों में अंतर हो, तो कल्पना की सहायता से उन्हें संप्रेषणीय बनाना चाहिए।

    संप्रेषण का अर्थ और स्वरूप

    रिचर्ड्स के अनुसार संप्रेषण कला का तात्त्विक धर्म है। कलाकार का अनुभव विशिष्ट और नव्य होने के कारण, उसकी संप्रेषणीयता, समाज के लिए मूल्यवान है। संप्रेषण से अभिप्राय एकात्म एकस्व अद्वितीय, एकमेक होना नहीं बल्कि एकसार होना, सदृश होना, संभाव्य होना, एकसूत्र होना, एकमत होना, एकरूप, एकतान होना इत्यादि है।

    रिचर्ड्स के संप्रेषण सिद्धांत के सारे समीकरण एक सत्तावाद व एकत्ववाद या अद्वैतभाव के विभ्रमों में नहीं बल्कि एकस्वरता, सहमति, एकरूपता, एकसूत्रता, एकीकृत, एकतानता, आदि के आलोक में ही सार्थक ढंग से खुलते हैं।

    सम्प्रेषण के विश्लेषण के उपक्रम में रिचर्ड्स मन की अलग-अलग सत्ता को आधारभूत तथ्य मानकर चलते हैं।

    उनका कहना है कि मन तो अलग-अलग है ही, दो मन (कवि और पाठक) की अनुभूतियाँ भी पृथक हैं। सम्प्रेषण की प्रक्रिया वहाँ घटित होती है जहाँ अलग-अलग व्यक्तियों की अनुभूतियों में प्रायः समानता हो। संप्रेषण तब घटित होता है जब एक मन अपने परिवेश के प्रति इस प्रकार से प्रतिक्रिया व्यक्त करता है कि दूसरा मन उससे प्रभावित हो जाता है और उस दूसरे मन में ऐसी अनुभूति उत्पन्न होती है, जो प्रथम मन की अनुभूति के समान और अंशत: उसके कारण उत्पन्न होती है।

    रिचर्ड्स ने 'संप्रेषण' को अलौकिक, अनिर्वचनीय, रहस्यमूलक और दुबोध्यता के घेरे से बाहर निकालकर उसके बारे में एक बोधगम्य और व्यवहारिक व्याख्या पद्धति के निर्माण का प्रयत्न किया है।

    विषय की रोचकता व रमणीयता से संप्रेषण में पूर्णता का समावेश होता है।

    कवि जब स्वयं अपनी अनुभूतियों के साथ एक रस नहीं हो जाता तब तक वे अनुभूतियाँ प्रेषणीयता का गुण ग्रहण नहीं कर सकती।

    संप्रेषण एक स्वाभाविक व्यापार है जिसमें निश्चय ही कवि प्रतिभा स्वत: अज्ञात रूप से कार्य करती है।

    अनुभूतियों का सहज प्रस्तुतीकरण उस प्रभाव दशा का निर्माण कर देता है जो कवि ने अनुभूत की थी।

    संप्रेषण की प्रक्रिया में भाषा का विशेष योगदान है। शब्दों के अर्थ बोध एवं बिंब ग्रहण से काव्यार्थ का बोध होता है।

    इस बोध से ही भावों एवं भावात्मक दृष्टि की अनुभूति होती है।

    एक कलाकार का अनुभव विशिष्ट और नया होने के कारण उसकी संप्रेषणयीता समाज के लिए मूल्यवान है।

    रचना में जितनी प्रबल और प्रभावशाली संप्रेषणयीता होती है उतना ही बड़ा कवि या कलाकार होता है।

    रिचर्ड्स का विचार है कि प्रेषणीयता को प्रभावी बनाने के लिए इन बातों की आवश्यकता होती है।

    कवि या कलाकार की अनुभूति व्यापक और प्रभावशाली होनी चाहिए। अनुभूति के क्षणों में आवेगों का व्यवस्थित ढंग से संतुलन होना चाहिए। वस्तु या स्थिति के पूर्ण बोध के लिए कवि में जागरूक निरीक्षण शक्ति होनी चाहिए।

    कवि के अनुभव और सामाजिक अनुभवों में तालमेल होना चाहिए। यदि दोनों में अंतर हो तो कल्पना की सहायता से भावों व विचारों का संप्रेषण होना चाहिए।

    रिचर्ड्स का काव्यभाषा सिद्धांत :

    रिचडर्स ही प्रथम आलोचक थे जिन्होंने सुनियोजित ढंग से काव्य भाषा पर विचार करते हुए काव्यभाषा संबंधी एक सिद्धांत की प्रतिष्ठा की। रिचडर्स केवल अनुभूति को कविता मानते है वे कहते हैं।

    'कविता अनुभूतियों से प्रत्येक विशेषता में भिन्न होती हुई भी किसी विशेषता में एक ख़ास मात्रा में अधिक भिन्न होती है। 'रिचडर्स की मान्यता है कि कविता कोई एक अनुभूति नहीं बल्कि अल्पाधिक समान अनुभूतियों का एक वर्ग है।

    रिचर्ड्स भाषा की दो श्रेणियाँ स्वीकार करते हैं :-

    1. वैज्ञानिक भाषा

    2. रागात्मक भाषा

    वैज्ञानिक भाषा में सूचनात्मक, तथ्यात्मक अथवा अभिधात्मक भाषा का प्रयोग होता है जबकि काव्य की भाषा रागात्मक होती है। काव्य की भाषा में भावात्मक अर्थ की प्रधानता होती है।

    वैज्ञानिक भाषा व रागात्मक भाषा में अंतर

    वैज्ञानिक भाषा मे निरूपण, निर्देशन अभिमत होता है जबकि रागात्मक भाषा में भाव का उदबोधन होता है।

    वैज्ञानिक भाषा सीधी सपाट होती है जबकि रागात्मक भाषा रमणीयता संपन्न होती है।

    रिचडर्स के अनुसार शब्दों में कोई अंतर्निहित साहित्यिक विशेषता नहीं होती।

    कोई अपने आप में न तो असुंदर होता है, न सुंदर।

    रिचर्ड्स ने 'प्रैक्टिकल क्रिटिसिज्म' में 'अर्थ' के चार प्रकार गिनाए हैं :-

    वाच्यार्थ (सेंस) : यह वस्तु स्थिति से परिचित कराने वाली शक्ति है।

    भाव (फीलिंग) : वक्ता की वह भावना जो शब्दों के प्रयोग से वह व्यक्त करना चाहता है।

    स्वर/लहज़ा (टोन) : टोन के माध्यम से लेखक का श्रोता या पाठक के प्रति दृष्टिकोण प्रकट होता है।

    अभिप्राय (इंटेंशन) : इसके द्वारा वक्ता/लेखक अपना अभिप्राय व्यक्त करता है।

    रिचडर्स ने कहा है समस्त अध्ययन की मौलिक कठिनाई अर्थबोध की समस्या है जो हमारा प्रस्थान बिंदु है।

    रिचडर्स के अनुसार अक्षरों के अनुक्रम से जन्य आकांक्षाओ, संतुष्टियों, निराशाओं तथा विस्मयों का ग्रंथन लय है।

    रिचडर्स के अनुसार छंद तो कालिक लयात्मक अनुक्रम का जटिलतर तथा विशिष्टतर रूप है।

    रिचडर्स ने छंद की गति का संबंध नृत्य से माना है।

    रिचडर्स ने छंद से काव्य का घनिष्ठ संबंध मानते हुए कहते है—कठिनतम तथा कोमलतम उक्तियों के लिए छंद प्रायः अनिवार्य साधन है।

    ‘नई समीक्षा’ अथवा ‘नई आलोचना’ (न्यू क्रिटिसिज्म)

    मूलत: इस आलोचनात्मक आंदोलन का उद्भव ‘आंग्ल—अमरीकी आलोचनात्मक प्रवृत्ति के रूप में हुआ। पाश्चात्य आलोचना के क्षेत्र में जब आलोचक की दृष्टि काव्य-कृति की अपेक्षा कृतिकार पर अधिकाधिक केंद्रित होने लगी तब इस रोमांटिक दृष्टिकोण के विरुद्ध विद्रोह का स्वर फूटने लगा। वहाँ ऐसे विद्रोही आलोचकों का ऐसा वर्ग उठ खड़ा हुआ जो आलोचक रचना (कलाकृति) को एक अखंड इकाई मानकर समीक्षा कर्म में प्रवृत्त होते हैं।

    इन्होंने इस धारणा पर भी पर्याप्त बल दिया कि किसी भी रचना का विवेचन–विश्लेषण उसकी समग्रता या संपूर्णता में ही करना चाहिए।
    पश्चिम में रचना या कृति की इस समीक्षा पद्धति को ‘नयी समीक्षा’ नाम दिया गया।

    इस शब्द-बंध का सर्वप्रथम प्रयोग कोलंबिया विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य के प्रोफ़ेसर जे.ई. स्पिनगार्न ने 1910 ई. में ‘दि न्यू क्रिटिसिज्म’ शीर्षक अपने लेख में किया।

    ‘नई समीक्षा’ को एक पद्धति विशेष के रूप में अपनाने की शुरूआत जान को रैन्सम की पुस्तक से होती है।

    रैन्सम की इस पुस्तक का नाम है ‘दि न्यू क्रिटिसिज्म’ जिसका प्रकाशन न्यू डायरेक्शंस, न्यूयार्क से 1941 ई. में हुआ।

    सच्चे अर्थों में नई समीक्षा का जन्म टी.एस. एलियट (1888-1965) के चिंतन से ही होता है। कुछ विद्वानों ने तो एलियट को ही ‘नई समीक्षा का जनक’ स्वीकार किया है।

    प्रमुख समीक्षक

    बीसवीं शताब्दी के चौथे-पाँचवे दशक में एलियट से परंपरा की दृष्टि और रिचर्डस से कृति के पाठ-विश्लेषण की गंभीर अध्यापन दृष्टि लेकर इंग्लैंड और अमेरिका में जो महत्त्वपूर्ण नए समीक्षक उभरे उनमें—जान को रैन्समन, एफ. आर. लीविस, केनेथवर्क, एलेन टेट ईवोर विन्टर्स, आर. पी. ब्लैकमर रॉबर्टपेन वारेन, क्लीन्थ ब्रुक्स तथा विलियम एम्पसन के नाम उल्लेखनीय हैं।

    नई समीक्षा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

    कृति का पाठ विश्लेषण अथवा केंद्र का आलोकन ‘नई समीक्षा’ ने आलोचना में कविता या कलाकृति पर पूरा ध्यान केंद्रित करते हुए कविता के सघन-विस्तृत विश्लेषण और घनिष्ठ पाठ की परंपरा को स्थापित किया।

    इस प्रयत्न के फलस्वरूप अनेक कविताओं की पाठ पर आधारित सूक्ष्म गहन व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई जिससे व्यावहारिक आलोचना के कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ सामने आए।

    कविता या कलाकृति को अखंडता में देखने का प्रबल आग्रह समीक्षकों ने साफ़ कहा कि कविता में रूपायित कवि की अनुभूति का तदाकार रूप में ग्रहण कविता की पूर्ण अन्विति कराने में समर्थ है कविता को खंड-खंड करते ही उसकी अखंडता का सौंदर्य बिखर जाता है।

    काव्य-भाषा की सर्जनात्मकता और विश्लेषण

    नया समीक्षक इस बात पर भरोसा करता है कि कविता एक विशिष्ट भाषिक संरचना है, शाब्दिक निर्मिति है।

    अनुभूति का भीतरी बाहरी तनाव भाषा ही ख़ास ढंग से झेलती और व्यक्त करती है।

    काव्य में परंपरा के प्रति लगाव

    नई समीक्षा के जनक टी. एस. एलियट ने काव्य में परंपरा के महत्व पर प्रकाश डाला है और परंपरा के निर्वाह पर बहुत अधिक ज़ोर दिया है। इस परंपरा प्रियता के कारण नए समीक्षकों को ‘क्लासिकल’ की ओर उन्मुख माना गया।

    कविता और विज्ञान की पृथकता पर बल

    नई समीक्षा ने विज्ञान के सत्य और कला के सत्य के बीच स्पष्ट भेद घोषित किया और विज्ञान की अनुभूति तथा कला की अनुभूति के अंतर को स्पष्ट किया।

    शुद्ध कविता की वकालत

    कविता में शुद्धता की वकालत रैन्समन ने शुरू की और कहा कि कविता में नीति-तत्त्व नहीं चाहिए। कविता का उद्देश्य मात्र कविता है।

    ऐतिहासिक समीक्षा का विरोध

    नई समीक्षा ने सर्वाधिक विरोध ऐतिहासिक आलोचना का किया क्योंकि ऐतिहासिक आलोचना के आलोचक कृति के अध्ययन के लिए युग-परिवेश, रचनाकार की विचारधारा, मनोभूमिका का अध्ययन ज़रूरी मानते हैं, जबकि नई समीक्षा इन सभी से मुक्त रहकर केवल कृति केंद्रित रहना चाहती है।

    रूसी रूपवाद

    रूस की समाजवादी क्रांति से ठीक पहले सन् 1914-1915 में मास्को/सेंट पीटर्सवर्ग ऐसे आलोचकों का केंद्र बना गया, जो साहित्य के एक 'कला-रूप के रूप में देख रहे थे और साहित्य को साहित्यिक कृतियों की 'आंतरिक गुणवत्ता या साहित्यिकता के आधार पर व्याख्यायित करने का प्रयास कर रहे थे।

    साहित्य की आलोचना इससे पूर्व सामाजिक यथार्थ, सांस्कृतिक सरोकार, दार्शनिक अंतर्भूमि एवं लेखकीय दृष्टि के आधार पर की जाती थी। ये आलोचक साहित्य को 'साहित्य के आधार' पर ही समझना चाहते थे, न कि सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और जीवनीपरक आधारों की सहायता से।

    सन् 1910 से 1920 तक रूपवाद का केंद्र मास्को ही रहा, जिसे 'ओपयाज' ने सूत्रबद्ध किया था। इसके बाद वह रोमन याकोब्सन रूस छोड़ देने के उपरांत प्राग में, तथा फिर अमेरिका में न्यूयार्क के साहित्य-संसार तक केंद्रित हो गया। लोव्स्की का सिद्धांत था कि 'कला एक उपकरण है।' तिन्यानोव का सिद्धांत हुआ कि 'कला उपकरणों की द्वंद्वात्मक व्यवस्था है।' 'मास्को' और 'पीटर्सबर्ग' रूपवादियों के दो प्रमुख केंद्र रहे हैं।

    रूपवाद के समर्थक

    बोरिस इकेनबाम, रेने वेलेक, रोमन जेकोबसन, जॉन मुकरोव्स्की , विक्टर श्कैलोब्सकी, बोरिस तोमरस्जेब्स्की आदि नाम उल्लेखनीय हैं।

    रूपवाद की प्रमुख मान्यताओं को निम्न बिंदुओं में समझा जा सकता है—

    रूपवाद साहित्य को स्वायत्त और स्वकेंद्रित मानता है। यह रचना को महत्त्व देता है, रचनाकार को नहीं।

    यह साहित्य के विषय की निश्चितता के प्रश्न को ख़ारिज करता है और साहित्य की सामाजिकता में विश्वास नहीं करता। इसका संबंध वर्तमान से होता है, इतिहास से नहीं।

    संरचनावाद, शैली विज्ञान जैसे महत्त्वपूर्ण आंदोलन रूपवाद से प्रभावित रहे हैं।

    रूपवाद परंपरा से चली आ रही काव्य-दृष्टि को नकाराता है।

    रूपवाद एक प्रकार का कलावादी आंदोलन है, किंतु इसके पीछे विज्ञान और तकनीक का परोक्ष प्रभाव है।

    साहित्याध्ययन जब समाज में निरपेक्ष दृष्टि से किया जाने लगा तब साहित्य के अध्ययन की प्रत्ययवादी अवधारणाएँ समाप्त हो गईं और समीक्षा पूर्णतः भाषागत हो गई। संरचना, उत्तर संरचना, विरूपीकरण, अनुपस्थिति की तलाश और नई समीक्षा आदि साहित्याध्ययन की पद्धतियाँ रूपवादी ही हैं।

    रूपवाद में भाषा पर सर्वाधिक बल दिया जाता है। साहित्य में प्रयुक्त भाषा विशिष्ट होती है। वस्तुतः वह भाषा का चयनित और उदात्त रूप होता है।

    कृति की भाषा का विश्लेषण-विवेचन रचना को नए ढंग से परखने का प्रयास है। भाषा का संरचनात्मक तत्व रूपवादी समीक्षा का प्रमुख घटक है।

    रीति और वक्रोक्ति संप्रदाय की भाषा विशेषताओं की तुलना रूपवाद के भाषा संबंधी विचारों से की जा सकती है।

    रूपवादी रूप (शब्द विधान) को अर्थ से भिन्न करना कठिन मानते हैं। शब्द शक्तियों के प्रसंग में भारतीय आचार्य यह स्वीकार करते हैं कि काव्य में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ शब्दकोशीय अर्थ से भिन्न अर्थ की ओर संकेत करते हैं।

    रूपवादी प्रजनात्मक व्याकरण के अंतर्गत इसका विश्लेषण करते हैं।

    रूपवादी काव्य वस्तु (कथ्य, प्लाट, कंटेंट) को नज़रअंदाज़ करके रूप के आधिपत्य पर बल देते हैं। रूप ही वह गवाक्ष है जहाँ से रचना की ओर झाँका जा सकता है। रूपवादी कविता को तकनीक, प्रविधि और रूप में निहित मानते हैं।

    रूसी रूपवादियों के अनुसार साहित्य को दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान, मार्क्सवाद आदि के आलोक में नहीं देखा जा सकता। रूपवादियों के अनुसार कृति की साहित्यिकता कृतिकार के विशिष्ट भाषा प्रयोगों में निहित है, उसे अन्यत्र खोजना व्यर्थ है।

    रूपवाद है—अपरिचित से परिचित होना। कविता में दिन-प्रतिदिन की भाषा अपरिचित बनाई जाती है। भाषा का यह नयापन ही कविता का 'रूप' है। निश्चय ही रूपवाद साहित्य की परंपरित और प्रचलित दृष्टि को नकारता है।

    मिथक

    मिथक यूनानी शब्द मिथॉस से बना हुआ है जिसका अर्थ है मुँह से निकला हुआ।

    मिथक शब्द अँग्रेज़ी के मिथ और ग्रीक शब्द माइथोस शब्द पर आधारित है। मिथ का प्रयोग कल्पित कथा व पौराणिक कथा के लिए के लिए किया जाता है।

    मिथकीय समीक्षा का प्रवर्तक नार्थप फ्राई को माना जाता है।

    अरस्तु ने अपने ग्रंथ पोयटिक्स में मिथक शब्द का प्रयोग मनगढ़ंत कथा के लिए किया है।

    लेवी स्ट्रॉक ने मिथक को विशुद्ध मानसिक, रूपात्मक क्रिया कहा है।

    मिथक में घटनाएँ बिना तर्क के स्वीकार कर ली जाती है। मिथक के क्रियाकलाप और कथा मानवेतर विशेषता देवताओं से संबंधित होती है। इसके लिए ‘दंतकथा’, ‘पुरावृत्त’, ‘पुराकथा’ जैसे- कई शब्द प्रयुक्त होते हैं।

    हिंदी में इस शब्द का पहला प्रयोग आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने किया।

    सामान्यतः मिथक कथारूप में ही मिलते हैं किंतु उनका केवल कथापरक होना ज़रूरी नहीं होता। कुछ घटनाएँ, प्रसंग तथा स्थितियाँ, कुछ मान्यताएँ तथा विश्वास भी ‘मिथक’ की श्रेणी में आते हैं—उदाहरण के लिए किसी पशु-पक्षी के विशेष व्यवहार से भविष्य की किसी शुभ या अशुभ संभावना को जोड़ना।

    मिथक का उद्भव प्रायः आदिम मानव के मनोवेगों प्रेम, घृणा, भय, संशय, आशा, उत्साह आदि से हुआ है।

    मिथक कथा व प्रसंग के रूप में हमारे समाने आते हैं किंतु मूलतः ये प्रतीक होते हैं।

    मिथक की रचना को केवल आदिम युग तक सीमित नहीं मान सकते। आज का मानव भी अपने समय, समाज तथा राजनीति से जुड़े प्रसंगों को लेकर मिथकों की रचना करता है। लेकिन इन मिथकों की प्रेरक मानसिकता तथा इनकी प्रकृति आदिम मिथकों से कुछ भिन्न होती है।

    ‘मिथक’ का उद्भव

    नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन में इन्हें मुख्यतः धर्म तथा कर्मकांड से जोड़ा गया है।

    समाजशास्त्र मिथकों को अबूझ विराट प्रकृति से नहीं बल्कि सामाजिक शक्तियों और प्रक्रियाओं से जोड़ता है।

    दुर्खीम तथा अन्य समाजशास्त्रियों ने माना है कि मिथक सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण तथा संचालन के लिए गढ़े हुए हैं।

    मनोविज्ञान तथा मनोविश्लेषणशास्त्र में मिथकों के अध्ययन को बहुत महत्व दिया गया है।

    युंग के मत के अनुसार मिथक का जन्म व्यक्ति के नहीं बल्कि समूह के मानस में होता है वह भी—चेतन मन में नहीं, अचेतन मन में।

    किसी मानव समाज के सामूहिक मानस में परंपरा से प्राप्त अनुभव संवेदना में ढलकर बिंबों का रूप ले लेते हैं। इन्हें युंग ने ‘आर्कटाइप’ (आद्यबिंब) का नाम दिया है।

    देवी-देवता, प्रकृत तथा अतिप्राकृत शक्तियाँ, स्वर्ग तथा नरक की अवधारणाएँ सृष्टि के रहस्यों से जुड़ी संकल्पनाएँ, जादू टोने आदि को लेकर अनेक आद्यबिंब किसी भी समाज के सामूहिक अवचेतन की गहराई में स्थित रहते हैं और मिथकों में प्रसंगों या कथाओं के रूप में इन बिंबों का संयोजन होता है।

    मिथक और साहित्य का संबंध

    मिथक तथा साहित्य, दोनों का ही मूल स्रोत मानव का मन है। दोनों में ही भिन्न कारणों से ही सही मानव की सर्जना शक्ति और कल्पनाशीलता सक्रिय होती है।

    मिथक और साहित्य का संबंध काफ़ी घनिष्ठ होता है क्योंकि मिथक साहित्य को महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रदान करता है।

    महाकाव्य, नाटक आदि में मिथकों के प्रयोग से गहनता और गरिमा आती है।

    मिथकों से चूँकि अनेक आसंग जुड़े हैं इसलिए इनका प्रयोग कथन को अधिक समस्त और संप्रेष्य बनाता है।

    साहित्य में मिथक का प्रयोग बिंब तथा प्रतीक की रचना के लिए और अन्योक्ति के रूप में भी होता है। इस रूप में इनके प्रयोग से कथन अधिक स्पष्ट हो जाता है, साथ ही उसमें अर्थ के अनेक स्तर खुलते हैं। उदाहरण के लिए—मुक्तिबोध की कविता ‘ब्रह्मराक्षस’, धर्मवीर भारती का नाटक ‘अंधा युग’ और कुँवर नारायण का काव्य ‘आत्मजयी’।

    भाषा के सामान्य पक्ष से अभिहित न हो पाने वाले तथ्यों को रचनाकार मिथक के माध्यम से अभिव्यक्त करता है।

    मिथकीय आलोचना पद्धति में मिथक तत्व को किसी कृति की आलोचना का आधार बनाया जाता है। वस्तुतः इस पद्धति पर मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण, नृतत्वशास्त्र और कुछ-कुछ समाजशास्त्र से जुड़ी दृष्टियों का प्रभाव है।

    मिथकीय दृष्टि से अध्ययन द्वारा कृति की रचना प्रक्रिया के मूल अर्थ और अभिप्राय तक पहुँचा जा सकता है।

    मिथकों की प्रतीकात्मकता, उनका बिंब-विधान, उनमें निहित आद्यरूप और आदिम विश्वास ये सब आलोचक की दृष्टि को दिशा देने में सहायक होते हैं।

    प्रतीक व प्रतीकवाद अपने रूप, गुण, कार्य या विशेषताओं के सादृश्य एवं प्रत्यक्षता के कारण जब कोई वस्तु या कार्य किसी अप्रस्तुत वस्तु, भाव, विचार, क्रियाकलाप, देश, जाति, संस्कृति आदि का प्रतिनिधित्व करता हुआ प्रकट किया जाता है, तब वह प्रतीक कहलाता है।

    प्रतीक भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत को, मूर्त और अमूर्त को मिलाने का माध्यम है।

    सौंदर्यशास्त्र में प्रतीकों का महत्व बहुत पहले से माना जाता रहा है क्योंकि वे अपने आशय को साफ़-साफ़ सपाट रूप में प्रस्तुत करने के स्थान पर सांकेतिक रूप से अर्थ की व्यंजना करते हैं।

    संकेत चूँकि अभिधापरक नहीं होते, अतः उनमें अर्थ की गहनता, गंभीरता तथा बहु स्तरीयता की गुंजाइश होती है। इससे रचना का सौंदर्य बढ़ जाता है। प्रतीकों की इस गहन अर्थवत्ता के कारण उनका उपयोग काव्य ही नहीं धर्म, नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, यहाँ तक कि गणित में भी होता रहा है।

    परिभाषा

    डॉ. नगेंद्र—“उपमान जब किसी पदार्थ विशेष के लिए रुढ़ हो जाता है तब प्रतीक बन जाता है।”

    डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी—कविता के लिए शाब्दिक प्रतीक होना एक आधारभूत शर्त है पर हर शाब्दिक प्रतीक कविता नहीं होता।

    बोरिस पास्तरनेक—प्रतीक अहम की कारा से निकलने के द्वार है।

    प्रतीक शब्द रूप में किसी अन्य पदार्थ की व्यंजना करता है।

    प्रतीक के प्रकार—विद्वानों ने प्रतीक के अनेक भेद विभिन्न आधारों पर बताए है।

    1. भावोत्प्रेरक प्रतीक–कमल, चंद्र, कुमुदिनी

    2. विचारोत्पादक प्रतीक–विभीषण (घर का भेदी)

    3. वैयक्तिक प्रतीक–कबीर की नलिनी जीवात्मा का प्रतीक

    4. परंपरागत प्रतीक–हँसा जीवात्मा का प्रतीक

    5. परंपरामुक्त प्रतीक–साँप (ईर्ष्यालु व्यक्ति का प्रतीक)

    6. भावपरक प्रतीक–छायावादी प्रतीक मैं नीर भरी दुःख की बदली

    7. व्याख्यात्मक प्रतीक–शेर (वीरता का प्रतीक)

    8. प्रतीकपरक प्रतीक–कमल, चाँदनी

    भागीरथ मिश्र के अनुसार प्रतीक के भेद :-

    प्राकृतिक प्रतीक

    सांस्कृतिक प्रतीक

    ऐतिहासिक प्रतीक

    जीवन व्यापार संबंधी

    शास्त्रीय/वैज्ञानिक प्रतीक

    संस्कार संबंधी प्रतीक

    पौराणिक प्रतीक

    आध्यात्मिक प्रतीक

    विशेषताएँ—

    प्रतीक मन में तुरंत किसी भावना को जाग्रत कर देता है।

    प्रतीक पर युग, देश, संस्कृति तथा मान्यताओ की छाप रहती है। प्रतीक अप्रस्तुत का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रस्तुत का नाम है। कवियों द्वारा प्रयुक्त प्रतीक प्रारंभ में व्यक्तिगत होते है पर धीरे धीरे रूढ़ हो जाते है।

    प्रतीकवाद :

    एक आंदोलन के रूप में प्रतीकवाद का उद्भव फ़्रांस में सन् 1886 से माना जाता है, जब विलिए व लील ऐडम (1838-89) का नाटक ‘एक्सेल’ प्रकाशित हुआ।

    लेकिन इससे भी पहले बॉदलेअर (1821-1867) और मलाएँ (1842-1898) की रचनाओं में यह प्रवृत्ति दिखाई देने लगी थी। फ़्रांस में ही बलें (1844 1896), रेंबो (1854-1891) ज्याँ मोरेआ (1855-1910) आदि कवियो और इंगलैंड में मेटरलिंक (1862-1949), डब्ल्यू. बी. येट्स ( 1865-1939), जे. एम. सिंज आदि रचनाकारों ने इस प्रवृत्ति को अपनाया।

    प्रमुख प्रवृत्तियाँ तथा मान्यताएँ :-

    बाह्य जगत के यथार्थ का तिरस्कार प्रतीकवादियों ने बाह्य जगत की घटनाओं, वस्तुओं या व्यक्तियों को क्षुद्र तथा महत्वहीन माना। उनके अनुसार इनकी अपेक्षा मनुष्य की आंतरिक संवेधनाएँ तथा अनुभव अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं और कला में इन्हीं को अभिव्यक्ति मिलनी चाहिए।

    प्रतीक की आवश्यकता इस सिद्धांत के अनुसार मानवीय मनोभाव तथा संवेग जटिल तथा व्यक्ति-विशिष्ट होते हैं। इनके अतिरिक्त अतिप्राकृत अनुभव भी कला के विषय होते हैं। इन तमाम अनुभवों को सामान्य यथार्थवादी भाषा तथा वर्णनों के माध्यम से संप्रेषित नहीं किया जा सकता। इनकी अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों का इस्तेमाल ज़रूरी है क्योंकि उनमें व्यंजना की अपार क्षमता होती है।

    वस्तु का प्रतीक में अंतरण प्रतीकवादियों ने बाहरी यथार्थ की अपेक्षा अंतर के यथार्थ को अधिक महत्व दिया।

    प्रतीक का स्वरूप रचनाकार की अभिव्यंजना के विषय तथा प्रतीक के बीच पूर्ण सादृश्य नहीं होता। किसी आसंग (association) या रुढ़ि के संबंध के कारण प्रतीक कोई विशेष अर्थ देने लगता है। किंतु यह भी रचनाकार के ऊपर है कि वह कब किस वस्तु को किस भाव के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करता है।

    प्रतीकवादियों ने वस्तु-जगत से केवल दृश्य प्रतीक ही नहीं, ध्वनि प्रतीक भी उठाए हैं। विशिष्ट ध्वनियों के प्रयोग के द्वारा इन्होंने विशिष्ट भावों की व्यंजना की चेष्टा की है।

    समाज तथा नैतिकता के नियमों का वर्जन प्रतीकवादियों ने काव्य की वस्तु के रूप में बाह्य जगत के यथार्थ को तो अस्वीकार किया ही, समाज तथा नैतिकता से साहित्य के संबंध को भी इन्होंने स्वीकार नहीं किया।

    साहित्य के रूप कविता की विशिष्ट लय तथा शब्दों की ध्वनि के माध्यम से अपने कथ्य को संप्रेषित करने पर इनका विशेष बल था इसीलिए इनकी रचनाएँ मुख्यतः प्रगीतात्मक रहीं।

    बिंब :

    प्रतीक जहाँ बाह्य जगत से सामग्री उठाकर उसे नया अर्थ देते हैं, बिंब बाहरी संसार की छवियों को लेकर विशेष संदर्भ में उन्हें इस प्रकार प्रयुक्त करते हैं कि रचनाकार का कथ्य अधिक स्पष्ट और अधिक प्रभावी हो उठता है।

    प्रतीकों के विपरीत बिंब इंद्रिय-संवेद्य होते हैं अर्थात् उनकी अनुभूति किसी न किसी इंद्रिय से जुड़ी रहती है।

    इसीलिए साहित्य में हमें दृश्य बिंबों के साथ ही श्रव्य, धाण और स्पर्श बिंबों का प्रयोग भी मिलता है।

    बिंब शब्द अँग्रेज़ी के इमेज शब्द का हिंदी रूपांतर है जिसका अर्थ हैं—मूर्त रूप प्रदान करना।

    बिंब के प्रवर्तक टी. ई. ह्यूम माने जाते है।

    रामचंद्र शुक्ल ने एस. फ्लिंट को प्रवर्तक माना।

    बिंब की विशेषताएँ— 

    भावों को उत्तेजित करने की शक्ति या सामर्थ्य

    नवीनता एवं ताज़गी

    वस्तु या घटना को प्रत्यक्ष करना

    रूप, सौंदर्य या गुण को हृदयंगम करना

    प्रसंग के प्रति अनुकूलता एवं सार्थकता

    परिभाषा

    केदारनाथ सिंह—बिंब वह शब्द चित्र है जो कल्पना के द्वारा ऐंद्रिय अनुभावों के आधार पर निर्मित होता है।

    आई. ए . रिचर्डस—बिंब एक दृश्य चित्र, संवेदना की अनुकृति एक विचार, एक मानसिक घटना, एक अलंकार अथवा दो भिन्न अनुभूतियों के तनाव से बनी एक भाव स्थिति में से कुछ भी हो सकता है।

    सी. डी. लेविस—काव्य बिंब एक ऐसा भावात्मक चित्र है जो रूपक आदि का आधार ग्रहण कर भावनाओं को तीव्र करता हुआ काव्यानुभूति को सादृश्य क पहुँचाने में समर्थ है।

    बिंब के तीन मूलभूत तत्व है—

    1. कल्पना 2. भाव 3. एन्द्रिकता

    कोई भी बिंब निम्न गुणों से युक्त होता है तभी काव्य के लिए उपयोगी बन पाता है। |

    बिंब के प्रमुख व्यापार एवं कार्य—

    किसी वस्तु, भाव या विचार को इंद्रियागोचर बनाने के मूल व्यापार के साथ-साथ बिंबयोजना अन्य कार्य भी सिद्ध करती है।

    1. काव्यार्थ को पूर्णतः स्पष्ट करना—बिंब किसी भी काव्य को हमारे मस्तिष्क में पूर्ण रूप से स्पष्ट करने में सहायता प्रदान करता है। 

    2. भाव को संप्रेषित एवं उत्तेजित करना—काव्य बिंब हमारे मन में उत्पन्न होने वाले भावों को दूसरों तक पहुँचाने में अत्यधिक सह्यता प्रदान करना करते है।

    3. वस्तु या घटना को प्रत्यक्ष करना—काव्य बिंब के प्रयोग से किसी वस्तु या घटना का एक वास्तविक रूप प्रकट किया जा सकता है।

    4. रूप, सौंदर्य या गुण को हृदयंगम बनाना काव्य बिंब किसी भी पदार्थ के वास्तविक रूप एवं सौंदर्य को अथवा उसके गुणों को हमारे सामने प्रकट करता है।

    बिंब के प्रकार :-

    • ऐंद्रिय बिंब

    • चाक्षुष बिंब

    • श्रव्य या नादात्मक बिंब 

    • स्पर्श्य बिंब

    • प्रातव्य बिंब

    • आस्वाद्य बिंब

    • काल्पनिक बिंब

    स्मृति बिंब

    कल्पित बिंब

    प्रेरक अनुभूति के आधार पर बिंब के प्रकार :-

    1. सरल बिंब

    2. मिश्रित बिंब

    3. तात्कालिक बिंब

    4. संकुल बिंब

    5. भावातीत बिंब

    6. विकीर्ण बिंब

    बिंबवाद :

    सन् 1909 के लगभग इंगलैंड में एक काव्य आंदोलन उभरा जिसमें बिंबों को महत्व देते हुए इन्हें ही कविता की प्रमुख तकनीक के रूप में अपनाया गया। यह आंदोलन Imagism अर्थात् 'बिंबवाद' कहलाया।

    इस सिद्धांत का उदय स्वच्छंदतावाद की अतिशय रोमानी, भावुक गीतिमयता के विरुद्ध विद्रोह के रूप में हुआ।

    उसकी आत्मपरकता तथा शिथिलता के विपरीत बिंबवाद में वस्तुपरकता, अनुशासन, व्यवस्था तथा सटीकता पर बल दिया गया।

    एक काव्यांदोलन के रूप में बिंबवाद के प्रवर्धन का श्रेय अँग्रेज़ कवि टी. ई. स्यूम (1883-1917) को है।

    इनके विचारों से प्रभावित कुछ अँग्रेज़ तथा अमेरिकी कवियों एज़्रा पाउंड, ऐमी लॉवेल, हिल्डा इलिटिल, रिचर्ड एल्डिंगटन, एफ.एस. फ्लिट' आदि ने 1912 के लगभग काव्य-लेखन का एक कार्यक्रम तय किया जिसमें भावावेगपूर्ण संगीतमय रोमानी काव्य-भाषा के स्थान पर चुस्त, तराशी हुई, सटीक, बिंबात्मक भाषा के प्रयोग का समर्थन किया गया।

    सन 1915 में इन्होंने अपना एक घोषणा-पत्र निकाला और सन 1924 में इनकी कविताओं का सहयोगी संकलन 'स्पेकुलेशन' नाम से प्रकाशित हुआ।

    प्रमुख प्रवृत्तियाँ तथा मान्यताएँ

    बिंबवादी आंदोलन भावात्मक अराजकता के विरुद्ध अनुशासन तथा संतुलन की स्थापना का आग्रह करता है।

    1. कविता की भाषा

    इनके अनुसार कविता में आम बोलचाल की सामान्य भाषा का प्रयोग होना चाहिए, आलंकारिक या किताबी भाषा का नहीं। वह भाषा प्रसाद गुण संपन्न किंतु शुष्क और स्पष्ट हो। उसमें शब्दावली भी सटीक हो और लगभग उपयुक्त नहीं बल्कि पूरी तरह उपयुक्त हो। शब्दों की व्याख्या न करनी पड़े, न उनके अर्थ में व्यतिक्रम हो।
    कविता की भाषा गद्य जैसी सहज-सरल किंतु अर्थ—गर्मित और व्यंजक होनी चाहिए। उसमें भावाकुलता नहीं होनी चाहिए किंतु वह संकेतात्मक तथा सूक्ष्म होनी चाहिए। उसमें केवल ऐसे शब्दों का नपा-तुला प्रयोग होना चाहिए जो इच्छित प्रभाव उत्पन्न कर सकें।

    2. कविता का कथ्य

    कविता का कथ्य सामान्य नहीं बल्कि गूढ़ तथा व्यापक हो, किंतु उसमें आर्द्रता या अस्पष्टता न हो।

    3. भावमयता का विरोध

    कविता में भावमयता और आर्द्रता का ह्यूम ने विशेष रूप से विरोध किया क्योंकि ये विशेषताएँ कविता को अस्पष्ट बना देती है। इसके विपरीत उन्होंने होरेस तथा पोप जैसे कवियों की चुस्त भाषा में रची हुई किंतु नीरस कविता को श्रेष्ठ माना क्योंकि वह स्पष्ट तथा संतुलित भाषा में लिखी गई है।

    4. बिंबों का महत्व

    बिंब-विधान के माध्यम से कवि विषय-वस्तु को अधिक गहराई से, अधिक स्पष्टता से और कम शब्दों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है।

    5. लघुता में भी सौंदर्य के दर्शन

    इसी बात से बिंबवाद की यह मान्यता भी जुड़ी हुई है कि छोटी-छोटी सामान्य वस्तुओं में भी सौंदर्य छिपा होता है और उनके सटीक सुनिश्चित, संक्षिप्त वर्णन के माध्यम से उस सुंदरता का साक्षात्कार हो सकता है।

    6. मूल्यों का अनुशासन

    बिंबवाद ने स्वच्छंदतावाद द्वारा प्रतिपादित मानववादी धारणा का विरोध किया क्योंकि इसके अनुसार मानव कमज़ोर तथा अधूरा प्राणी हैं। बिंबवाद इस कमज़ोर मानव के लिए वस्तुपरक नैतिक मूल्यों के अनुशासन तथा सामाजिक राजनीतिक नियंत्रण को आवश्यक मानता है। कविता के लिए भी मूल्यों का अनुशासन आवश्यक है किंतु यह कविता के विषय को चुनने में कवि को स्वतंत्र मानता है।

    7. छंद तथा लय

    बिंबवादियों के अनुसार कविता को नई मनोदशाओं की अभिव्यक्ति के लिए नई लय का सृजन करना चाहिए। मुक्त छंद में कवि की वैयक्तिकता अधिक अच्छी तरह अभिव्यक्त हो सकती है। इसलिए बिंबवाद ने उसे प्राथमिकता दी। किंतु साथ ही उसने यह भी माना कि रचनाकार को उसके अतिरिक्त अन्य प्रकार की लय का भी संधान करना चाहिए।

    फ़ैंटेसी

    ‘फ़ैंटेसी’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द ‘फ़ैंटेसिया’ से हुई है। फैंटेसी अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करती है।

    इसका संबंध फ़्रायड के ‘मनोविश्लेषणवाद’ से भी है। काव्य में फ़ैंटेसी का प्रयोग एक तकनीक के रूप में किया जाता है।

    लंबी कविताओं में कैनवास की व्यापकता को संक्षिप्त व सारगर्भित करने के लिए तथा उसकी गति में त्वरा पैदा करने के लिए रचनाकार फ़ैंटेसी का प्रयोग करता है।

    मुक्तिबोध ने फ़ैंटेसी का सर्वाधिक प्रयोग अपनी कविताओं में किया।

    फ़ैंटेसी के प्रयोग की दृष्टि से मुक्तिबोध की लंबी कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ महत्त्वपूर्ण है।

    प्रयोजन—तीन प्रयोजन माने जाते है:-

    1. यथार्थ से पलायन

    2. दोषयुक्त मानव या संसार के प्रति नवीन दृष्टिकोण से विचार

    3. मनोरंजन

    प्रमुख फ़ैंटेसी रचना—

    अँधेरे में- गजानन माधव मुक्तिबोध

    ब्रह्मराक्षस- गजानन माधव मुक्तिबोध

    चंद्रकांता- देवकीनंदन खत्री

    मुक्तिबोध ने कामायनी रचना को भी फ़ैंटेसी माना है। देवकीनंदन खत्री ने फ़ैंटेसी लेखन का प्रमुख प्रयोजन मनोरंजन व यथार्थ से पलायन माना है।

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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