हिंदी में कबीर और दादू के समान कितने ही संतों ने कविताएँ लिखी हैं। उनकी रचनाओं में कला का विशेष सौष्ठव न होने पर भी सत्य की ज्योति है। कविता में कला और शक्ति का विलक्षण सम्मिश्रण तुलसीदास और सूरदास की रचनाओं में हुआ है। ये दोनों हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इसी समय हिंदी के प्रायः सभी कवियों ने राम और कृष्ण का यशोगान करने के लिए पद लिखे हैं। उनकी कविता में प्रेम और भक्ति ही का वर्णन है। परंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इन भक्त कवियों की गणना शृंगार रस के आचार्यों में नहीं है। मध्ययुग में हिंदी-साहित्य का उद्गम भक्ति-रस की प्रेरणा से हुआ था और थोड़े ही समय में उसकी छाप समग्र भारतवर्ष पर पड़ गई थी। संवत् 1144 से 1680 तक हिंदी साहित्य इसी की तरंगों में आगे बढ़ता गया। जिन कवियों का उसे गर्व है, उनका आविर्भाव इसी काल में हुआ। मीराबाई इत्यादि की रचनाओं का आदर सभी समय होता रहेगा। राधा-कृष्ण की भक्ति से गद्गद होकर उन्होंने भी शृंगार रस की अवतारणा की थी; परंतु इन्होंने अपनी कल्पना को पवित्र, संयत और निर्मल रखा था। इनके बाद भी हिंदी-साहित्य की बराबर उन्नति होती गई, परंतु कवि का लक्ष्य बदल गया। वह धर्म की ओर न जाकर केवल शृंगार रस का उपासक रह गया। तब हिंदी में शृंगार रस के काव्यों की वृद्धि होने लगी। शृंगार रस के आचार्य थे केशवदास। उनकी रसिक-प्रिया रसिकों के और कवि-प्रिया कवियों के गले का हार हो गई। सेनापति, मतिराम, बिहारी, देव, दास, पद्माकर आदि जितने कवि हुए, सभी शृंगार रस के आचार्य थे।
इस भावोन्माद को भक्तिवाद से उत्तेजना अवश्य मिली थी। मनुष्य मात्र का यह स्वभाव है कि जब उसकी क्रिया-शक्ति निर्बल हो जाती है, तब उसकी भाव-शक्ति ख़ूब प्रबल रहती है। बाल्य-काल में क्रिया-शक्ति क्षीण रहती है। इसीलिए उस समय बालकों के हृदय में भिन्न-भिन्न कल्पनाओं और भावों की तरंगें उठा करती हैं। जब वृद्धावस्था आती है तब क्रिया-शक्ति फिर निर्बल हो जाती है। यही कारण है कि वृद्ध भावों के इतने वशीभूत होते हैं। मुसलमानों के राजत्व काल में हिंदू-राजनैतिक स्वत्वों से हीन थे। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी, पर पराधीनता ने उनको उत्साह शून्य और शक्तिहीन बना दिया था। मुसलमानों की प्रभुता उत्तर भारत पर अक्षुण्ण थी किंतु जहाँ उनकी प्रभुता अच्छी तरह नहीं स्थापित हो पाई थी, वहाँ हिंदू बिल्कुल क्षीण पराक्रम नहीं हो गए थे। यही कारण है कि रामदास ने भक्ति के साथ निष्काम कर्म का उपदेश देकर दक्षिण भारत में जो शक्ति उत्पन्न कर दी थी, उससे उत्तर भारत के हिंदू प्रायः वंचित से थे। दासत्व की शृंखलाओं में बद्ध उत्तर भारत के श्रीमान् सभी बातों में अपने सम्राटों का अनुकरण करने लगे थे। महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म संवत् 1535 में हुआ था। उनके उपदेशों ने हिंदी साहित्य में अमृतवर्षा की और वैष्णव-साहित्य का उद्भव हुआ। वैष्णव-साहित्य और धर्म का विशेषत्व यह है कि वह मनुष्यों में भगवान के स्वरूप को उपलब्ध करना चाहता है। ईश्वर के विराट और अचिंत्य स्वरूप से वह दूर रहता है। प्रेम में भय नहीं रहता, इसलिए वैष्णव कवियों ने पिता, माता, स्वामी, सखा आदि पारिवारिक स्नेह में ही लीला-मय का लीला विकास देखा। जितने वैष्णव-कवि हुए वे सभी पार्थिव प्रलोभनों से दूर रहकर भगवद्-भक्ति में निरत रहते थे। सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि कवियों की गणना वैष्णव कवियों में की जाती है।
वैष्णव-साहित्य ख़ूब लोकप्रिय हुआ, क्योंकि वह सरस और सरल था। परंतु हिंदी में वही एक साहित्य नहीं था बौद्ध-धर्म के पतन के बाद भारत में जो नवीन संस्कृत-साहित्य प्रचलित हुआ था, उसके आधार पर भी हिंदी में एक दूसरा साहित्य बन रहा था। उसकी ओर भी हम एक दृष्टि डालना चाहते हैं।
मुसलमानों के आने के पहले भी भारतवर्ष में धार्मिक विद्वेष था। बौद्ध और जैन-धर्मों ने हिंदू-धर्म पर कुठाराघात किए थे परंतु अंत में हिंदू-धर्म ने बौद्ध-धर्म का उच्छेद कर डाला और जैन धर्म की प्रभुता लुप्त कर दी। बौद्ध-धर्म के प्राबल्य काल में प्राकृत साहित्य का प्रचार बढ़ा था, पर हिंदू धर्म के अभ्युदय से नवीन संस्कृत-साहित्य का आविर्भाव हुआ। हिंदू-धर्म का यह संस्कृत साहित्य खंडन और मंडनात्मक ग्रंथों से ही पूर्ण था। दर्शन, धर्म, व्याकरण और काव्य की शास्त्रीय विवेचना में ही तत्कालीन हिंदू-विद्वानों ने ख़ूब परिश्रम किया था। भगवान शंकराचार्य के समय से कबीर की उत्पत्ति तक जितने ग्रंथ बने हैं, प्रायः सभी आलोचनात्मक हैं। उनमें तात्विक संश्लेषण और विश्लेषण ही है। श्री हर्ष इसी काल के कवि हैं। उनका पांडित्य इतना प्रखर है कि सर्व साधारण उनकी ओर ताकने का साहस नहीं कर सकते। इस प्रकार यह साहित्य कुछ ही लोगों में सीमाबद्ध हो गया था। इसी समय में संस्कृत में शृंगार-रस का तूफ़ान आ गया। कितने ही काव्य, नाटक, प्रहसन आदि रचे गए, उनमें से कुछ तो अश्लीलता की सीमा तक पहुँच गए। पर इस साहित्य का प्रचार सर्व साधारण में नहीं था। काव्य-कला के निष्णात कवि और शास्त्रों के मर्मज्ञ पंडित सर्व साधारण से पृथक होकर राज-सभा के आभूषण हो गए थे राज-चिह्नों में उनकी गणना होने लगी थी। मुग़लकाल में जब विद्या रसिक मुग़ल बादशाहों ने विद्वानों को राज सभा में स्थान दिया तब छोटे-छोटे अधिपति भी कवियों का सम्मान करने लगे। इन कवियों ने नवीन संस्कृत का अनुकरण कर काव्य-रचना की। कालिदास के बाद संस्कृत कवियों में शब्दों का आडंबर और अलंकारों का प्रचार बढ़ने लगा था। साहित्य कला के मर्मज्ञों ने काव्य के लिए सूक्ष्मातिसूक्ष्म नियम बनाए थे। इन राज-कवियों ने उन्हीं नियमों का अनुसरण किया। प्रायः सभी ने अलंकार-शास्त्र पर एकाध ग्रंथ लिखा है। इन कवियों ने जो साहित्य-निर्माण किया है, वह वैष्णव-साहित्य से सर्वथा पृथक है। पंडितराज जगन्नाथ जिस कोटि के कवि हैं, उसी में केशव, बिहारी, मतिराम और पद्माकर की गणना होनी चाहिए। सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि जितने स्त्री-पुरुष भक्तों में आदरणीय माने गए हैं, उन सबने सांसारिक वैभव का परित्याग कर ऐहिक वासनाओं के दमन करने की चेष्टा की है। यही उनका प्रधान लक्ष्य रहा है, परंतु क्या यही बात बिहारी, मतिराम आदि शृंगार रस के आचार्यों के विषय में भी कही जा सकती है? क्या उन्होंने भक्ति के आवेश में आकर सांसारिक वैभव की कामना छोड़ी है? शृंगार रस के वर्णन में तो उन्होंने अपनी कृष्ण-भक्ति की पराकाष्ठा दिखलाई, परंतु क्या उन्होंने अपने जीवन में भी कभी भक्तिवाद प्रदर्शित किया था? उनके नख-शिख वर्णन में आध्यात्मवाद अथवा भक्तिवाद देखना अन्याय है।
कविवर बिहारीलाल अथवा मतिराम राजसभा के रत्न थे। उनकी प्रतिभा उसी में अवरुद्ध थी। उन्हें कोई विश्व कवि नहीं कहेगा। उनकी कृति विद्वानों की शोभा हो सकती है, पर वह सर्व साधारण की संपत्ति नहीं है। वह विलास की सामग्री है, पर पूजा का पात्र नहीं है। उससे मस्तिष्क में उत्तेजना पैदा हो सकती है, पर हृदय में शांति नहीं हो सकती। उनके भावों में तल्लीन होकर रसिक आत्मविस्मृत हो सकते हैं, पर उनमें जाग्रति नहीं आ सकती। अस्तु।
इतिहासज्ञों का कथन है कि मुग़लों का शासनकाल हिंदी-साहित्य के लिए सुवर्ण युग है। इसमें संदेह नहीं कि मुग़ल बादशाहों ने हिंदी साहित्य के प्रति जो अनुराग प्रदर्शित किया, उससे हिंदी साहित्य की अच्छी वृद्धि हुई। कहने की ज़रूरत नहीं कि मुग़ल सम्राटों का अनुकरण कर अन्य श्रीमानों ने भी हिंदी के कवियों का अच्छा सत्कार किया। इस समय हिंदी में जितने भी बड़े-बड़े कवि हुए, प्रायः सभी किसी-न-किसी राजा के आश्रित थे। श्रीमानों की संरक्षकता में हिंदी-साहित्य की वृद्धि तो हुई, परंतु कवि जनता के प्रतिनिधि नहीं रह सके। राजसभाओं में ही कवि सम्मानित हुए, उन्होंने जनता के हृदयगत भावों को व्यक्त करने की चेष्टा नहीं की। हिंदू समाज में जीवन की गति किधर है और उसको किस दिशा की ओर परिवर्तित कर देने से समाज का कल्याण होगा, यह कविप्रिया अथवा रसिक-प्रिया के समान ग्रंथों का उद्देश्य नहीं था। ऐसी रचनाएँ किसी-न-किसी महाराज की सेवा के उपलक्ष्य में लिखी गई थीं, अतएव उनमें कदाचित् उन्हीं के मनोविनोद की ओर कवियों का ध्यान था। अपना कला-नैपुण्य प्रदर्शित करने के लिए इन्होंने साहित्य-शास्त्र का मंथन कर डाला, पर जीवन का रहस्य ढूँढ़ने के लिए मनुष्य समाज की पर्यालोचना नहीं की।
मुगलों का प्रभुत्व क्षीण होने पर लोग एक बार फिर भारतवर्ष में हिंदू राज्य का स्वप्न देखने लगे। उत्तर में सिक्खों ने और दक्षिण में मरहठों ने स्वाधीनता के लिए युद्ध किया। कहा जाता है कि मुग़लों के पतन का सबसे बड़ा कारण यह था कि औरंगजेब ने हिंदू-धर्म के विनाश के लिए प्रयास किया था। इसमें संदेह नहीं कि हिंदुओं पर धार्मिक अत्याचार हुए, पर आश्चर्य की बात यह है कि जिस प्रांत पर सबसे अधिक अत्याचार हुए वहाँ मुग़लों के विरुद्ध वैसी उत्तेजना नहीं थी, जैसी सिक्खों अथवा मरहठों में थी। कुछ विद्वान महाकवि भूषण को जातीय कवि समझते हैं। पर भूषण की ओजस्विनी कविता उसी भाषा में लिखी गई थी, जिसके अधिकांश बोलने वाले अत्याचार सहकर भी अकर्मण्य बने हुए थे। मरहठों के प्रति उनकी सहानुभूति अवश्य थी, पर वह सहानुभूति क्रिया-हीन थी। चतुर मरहठों ने अपने राज्य-विस्तार के लिए उस सहानुभूति से पूरा लाभ उठाया। उन्होंने हिंदी भाषा-भाषी प्रांतों पर अधिकार कर लिया। तो भी उन प्रांतों के अधिवासियों में जाग्रति का कोई लक्षण नहीं दिखाई दिया। मुग़लों का प्रभुत्व नष्ट हुआ और कुछ काल के लिए हिंदू महाराष्ट्र का आधिपत्य स्थापित भी हुआ तो देश की अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उसी प्रकार पंजाब में हिंदू-सिक्खों का अधिकार हो जाने पर भी वहाँ हिंदी-साहित्य की कुछ भी श्रीवृद्धि नहीं हुई। हम जानना चाहते हैं कि लोगों में यह उदासीनता क्यों थी? सच बात यह है कि मरहठे, सिक्ख अथवा राजपूत मुग़लों के विरुद्ध अवश्य खड़े हुए, परंतु देश उनके साथ नहीं था। मुगलों के विरुद्ध जो युद्ध हुआ वह स्वाधीनता के लिए जनता का युद्ध नहीं था। जनता सर्वथा उदासीन थी। भूषण ने औरंगजेब के विरुद्ध अपने जो भाव प्रकट किए हैं, वे जनता के भाव नहीं हैं। भूषण ने अपने जिन आश्रयदाताओं का यशोगान किया है उन पर देश की अचल श्रद्धा नहीं थी। भूषण भले ही इस संशय में पड़े रहें कि वे साहू की प्रशंसा करें या छत्रसाल की, पर देश इन दोनों के प्रति उदासीन था। यदि यह बात न होती, यदि सचमुच समग्र भारतवर्ष में स्वाधीनता के भाव जाग्रत हुए होते, तो देश में वह शक्ति उत्पन्न हुई होती जो अदम्य होती । उस शक्ति के प्रभाव से तत्कालीन साहित्य का स्वरूप ही कुछ दूसरा हो जाता। उन भावों की पुष्टि के लिए सैकड़ों कवि उत्पन्न हुए होते। पर हम देखते हैं कि हिंदी में भूषण के समान दो ही कवि उधर आकृष्ट हुए और अन्य कवि शृंगार-रस में ही निमग्न रहे। यह नहीं कहा जा सकता कि हिंदी-भाषा-भाषी प्रांतों के अधिवासियों में शौर्य का अभाव है। सेनाओं में इन लोगों की संख्या उपेक्षणीय नहीं; समरभूमि में ये लोग अच्छा पराक्रम दिखलाते थे। इन्हीं लोगों की सहायता से ब्रिटिश साम्राज्य तक स्थापित हुआ। फिर भी इस जाति ने स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए कभी प्रबल चेष्टा नहीं की। इसका क्या कारण है? हमारी समझ में तो इसका कारण यही है कि इनके सामने स्वाधीनता के आदर्श कभी उपस्थित नहीं किए गए। तुलसीदास और सूरदास ने उन्हें धर्म-श्रेष्ठ आदर्श दिखलाए पर हिंदी में स्वाधीनता का आदर्श दिखलाने के लिए कोई भी तुलसीदास अथवा सूरदास उत्पन्न नहीं हुआ। राजसभा की शोभा बढ़ाने वाले और राजाओं से अपरिमित पुरस्कार पाने वाले कवि जनता के कवि नहीं हो सकते। इन कवियों ने धन और कीर्ति की आशा से जिस साहित्य की सृष्टि की है, वह जातीयता के भावों से सर्वथा शून्य है। इनकी रचनाओं में हम जिस वैभव का दर्शन करते हैं, वह उनके आश्रय दाताओं का वैभव नहीं।
भारतवर्ष के इतिहास में सबसे विलक्षण बात यह हुई है कि जब देश में जातीयता के प्रचार के लिए किसी ने मतभेदों को दूर करने की चेष्टा की, तब वे तो दूर हुए नहीं, उलटे उनकी संख्या में और वृद्धि हो गई। गुरुनानक ने मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए ज्ञान की जो धारा प्रवाहित की थी, वह अंत में सिक्खों के संप्रदाय में ही अवरुद्ध हो गई। कबीर, दादू, चैतन्य आदि जितने धर्म गुरुओं ने प्रेम के आधार पर जातीयता की सृष्टि करनी चाही, उतने ही संप्रदायों की वृद्धि हुई तुकाराम, नामदेव आदि दक्षिण के धर्म प्रचारकों ने जिस महाराष्ट्र जाति को धर्म के बंधन से दृढ़कर प्रबल बना दिया था, वही जाति राजनैतिक स्पर्धा से स्वयं अपने पतन का कारण हुई। यही कारण है कि मध्ययुग के आरंभ में भारतीय साहित्य में जिन धार्मिक भावों ने एक नवीन शक्ति उत्पन्न कर दी थी, वे बिलकुल शिथिल हो गए। इधर भाव-स्रोत अवरुद्ध हुआ उधर हिंदी के सभा-कवियों ने कला-सौष्ठव के प्रदर्शन में अपनी शक्ति लगा दी। शायद ही किसी देश के साहित्य में कवियों ने कला के द्वारा अपने व्यक्तित्व को छिपाया हो जितना हिंदी के परवर्ती कवियों ने। कबीर, सूरदास, तुलसीदास के समान कवियों की रचनाओं में उनके हृदय के भाव फूट पड़ते हैं। पर बिहारी सतसई के समान काव्यों में हम कवि का यथार्थ दर्शन करते ही नहीं। उन्हें हम जब देखते हैं तब एक कल्पित राज्य में ही विहार करते पाते हैं। अपनी कल्पना के सौंदर्य में वे ऐसे डूब गए हैं कि दूसरी ओर उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। वर्षा ऋतु में मेघागम देखकर वे किसी कल्पित वियोगिनी के विरह-दुःख से विकल हो गए हैं। पर देश के हाहाकार से उनका चित्त विकृत नहीं हुआ। जब मुग़ल साम्राज्य की श्मशान भूमि में चितानल जल रहा था, तब हिंदी के कवि किसी कल्पित नायिका को तरह-तरह के उपदेश दे रहे थे। वे क्या सचमुच उनके हृदय के भाव थे? हमारी समझ में यहाँ कवि की कला मात्र है, उनका व्यक्तित्व नहीं। यही कारण है कि हमें उनकी कला प्राणहीन मालूम होती है। यथार्थ कवि का दर्शन हम तभी करते हैं, जब अंतर्वेदना से पीड़ित हो वे पुकार उठते हैं—'व्याध हू ते विहद असाधु हौं अजामिल लौं, ग्राह ते गुनाही कहो किन में गिनाओगे।' यहाँ कवि को न तो राजसभा का ध्यान है और न अपनी कला का। वह एक बार अपने अंतर्जगत की दृष्टि डालकर संसार से अपने को ऊँचा उठा ले जाता है—वहाँ, जहाँ स्वयं विश्वनाथ है।
कृत्रिमता के इस युग में भारतीय समाज की रक्षा तुलसीदास के समान कवियों ने की। हिंदी-साहित्य के लिए तो तुलसीदास की कृति ही स्वर्ग-सोपान है। कार्लाइल ने ऐश्वर्य-मंडित ब्रिटिश साम्राज्य से अधिक मूल्यवान शेक्सपियर की रचना को समझा है। पर वैभवहीन भारत के लिए तो तुलसीदास का रामचरितमानस ही सर्वस्व है। विज्ञ लोग रसार्णव में डूबे रहें, परंतु अज्ञों ने रामचरितमानस को ही अपनाया। हिंदू-धर्म के आदर्शों की रक्षा तुलसीदास ने की। भिन्न-भिन्न संप्रदायों ने अपने-अपने सांप्रदायिक साहित्य से उपदेश ग्रहण किया, पर सांप्रदायिक साहित्य विहीन शिक्षा तुलसीदास जी देते रहे।
ब्रिटिश साम्राज्य के स्थापित होने पर भारतवर्ष में सर्वत्र शांति स्थापित हुई। पर यह शांति अकर्मण्यता की थी। क्रमशः यह अकर्मण्यता दूर हुई। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारत में फिर चेतनता आई। पाश्चात्य विज्ञान के आलोक में वे आत्म-परीक्षा में व्यस्त हुए। उन्हें अपनी स्थिति से असंतोष हुआ। असंतोष का यह भाव अब प्रबल होने लगा है। इसने साहित्य में भी प्रवेश किया और साहित्य के स्वरूप को ही बदल दिया। नवीन साहित्य की सृष्टि होने लगी। जिन भारतीय प्रांतों में इस साहित्य ने उन्नति की है, वहाँ हम कविता का एक नया ही आदर्श देखते हैं। यह आदर्श है मनुष्यत्व की विजय, स्वाधीनता और प्रेम।
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kavivar biharilal athva matiram rasasbha ke ratn the. unki pratibha usi mein avruddh thi. unhen koi vishv kavi nahin kahega. unki kriti vidvanon ki shobha ho sakti hai, par wo sarv sadharan ki sampatti nahin hai. wo vilas ki samagri hai, par puja ka paatr nahin hai. usse mastishk mein uttejna paida ho sakti hai, par hirdai mein shanti nahin ho sakti. unke bhavon mein tallin hokar rasik atmavismrit ho sakte hain, par unmen jagrati nahin aa sakti. astu.
itihasagyon ka kathan hai ki mughalon ka shasankal hindi sahity ke liye suvarn yug hai. ismen sandeh nahin ki mughal badshahon ne hindi sahity ke prati jo anurag pradarshit kiya, usse hindi sahity ki achchhi vriddhi hui. kahne ki zarurat nahin ki mughal samraton ka anukarn kar any shrimanon ne bhi hindi ke kaviyon ka achchha satkar kiya. is samay hindi mein jitne bhi baDe baDe kavi hue, praya sabhi kisi na kisi raja ke ashrit the. shrimanon ki sanrakshakata mein hindi sahity ki vriddhi to hui, parantu kavi janta ke pratinidhi nahin rah sake. rajasbhaon mein hi kavi sammanit hue, unhonne janta ke hridaygat bhavon ko vyakt karne ki cheshta nahin ki. hindu samaj mein jivan ki gati kidhar hai aur usko kis disha ki or parivartit kar dene se samaj ka kalyan hoga, ye kavipriya athva rasik priya ke saman granthon ka uddeshy nahin tha. aisi rachnayen kisi na kisi maharaj ki seva ke uplakshy mein likhi gai theen, atev unmen kadachit unhin ke manovinod ki or kaviyon ka dhyaan tha. apna kala naipunya pradarshit karne ke liye inhonne sahity shaastr ka manthan kar Dala, par jivan ka rahasy DhunDhne ke liye manushya samaj ki paryalochana nahin ki.
muglon ka prabhutv kshain hone par log ek baar phir bharatvarsh mein hindu saaः raajy ka svapn dekhne lage. uttar mein sikkhon ne aur dakshain mein marahthon ne svadhinata ke liye yudh kiya. kaha jata hai ki mughalon ke patan ka sabse baDa karan ye tha ki aurangjeb ne hindu dharm ke vinash ke liye prayas kiya tha. ismen sandeh nahin ki hinduon par dharmik attyachar hue, par ashchary ki baat ye hai ki jis praant par sabse adhik attyachar hue vahan mughalon ke viruddh vaisi uttejna nahin thi, jaisi sikkhon athva marahthon mein thi. kuch vidvan mahakavi bhushan ko jatiy kavi samajhte hain. par bhushan ki ojasvini kavita usi bhasha mein likhi gai thi, jiske adhikansh bolne vale attyachar sahkar bhi akarmany bane hue the. marahthon ke prati unki sahanubhuti avashy thi, par wo sahanubhuti kriya heen thi. chatur marahthon ne apne raajy vistar ke liye us sahanubhuti se pura laabh uthaya. unhonne hindi bhasha bhashai pranton par adhikar kar liya. to bhi un pranton ke adhivasiyon mein jagrati ka koi lachchhan nahin dikhai diya. mughalon ka prabhutv nasht hua aur kuch kaal ke liye hindu maharashtr ka adhipaty sthapit bhi hua to desh ki avastha mein koi parivartan nahin hua. usi prakar punjab mein hindu sikkhon ka adhikar ho jane par bhi vahan hindi sahity ki kuch bhi shrivriddhi nahin hui. hum janna chahte hain ki logon mein ye udasinata kyon thee? sach baat ye hai ki marahthe, sikkh athva rajput mughalon ke viruddh avashy khaDe hue, parantu desh unke saath nahin tha. muglon ke viruddh jo yudh hua wo svadhinata ke liye janta ka yudh nahin tha. janta sarvatha udasin thi. bhushan ne aurangjeb ke viruddh apne jo bhaav prakat kiye hain, ve janta ke bhaav nahin hain. bhushan ne apne jin ashraydataon ka yashogan kiya hai un par desh ki achal shardha nahin thi. bhushan bhale hi is sanshay mein paDe rahen ki ve sahu ki prashansa karen ya chhatrsal ki, par desh in donon ke prati udasin tha. yadi ye baat na hoti, yadi sachmuch samagr bharatvarsh mein svadhinata ke bhaav jagrat hue hote, to desh mein wo shakti utpann hui hoti jo adamy hoti. us shakti ke prabhav se tatkalin sahity ka svarup hi kuch dusra ho jata. un bhavon ki pushti ke liye saikDon kavi utpann hue hote. par hum dekhte hain ki hindi mein bhushan ke saman do hi kavi udhar akrisht hue aur any kavi shringar ras mein hi nimagn rahe. ye nahin kaha ja sakta ki hindi bhasha bhashai pranton ke adhivasiyon mein shaury ka abhav hai. senaon mein in logon ki sankhya upekshanaiy nahin; samarbhumi mein ye log achchha parakram dikhlate the. inhin logon ki sahayata se british samrajy tak sthapit hua. phir bhi is jati ne svadhinata praapt karne ke liye kabhi prabal cheshta nahin ki. iska kya karan hai? hamari samajh mein to iska karan yahi hai ki inke samne svadhinata ke adarsh kabhi upasthit nahin kiye gaye. tulsidas aur surdas ne unhen dharm shreshth adarsh dikhlaye par hindi mein svadhinata ka adarsh dikhlane ke liye koi bhi tulsidas athva surdas utpann nahin hua. rajasbha ki shobha baDhane vale aur rajaon se aprimit puraskar pane vale kavi janta ke kavi nahin ho sakte. in kaviyon ne dhan aur kirti ki aasha se jis sahity ki sirishti ki hai, wo jatiyata ke bhavon se sarvatha shunya hai. inki rachnaon mein hum jis vaibhav ka darshan karte hain, wo unke ashray dataon ka vaibhav nahin.
bharatvarsh ke itihas mein sabse vilakshan baat ye hui hai ki jab desh mein jatiyata ke parchar ke liye kisi ne matbhedon ko door karne ki cheshta ki, tab ve to door hue nahin, ulte unki sankhya mein aur vriddhi ho gai. gurunanak ne manushya maatr ke kalyan ke liye gyaan ki jo dhara prvahit ki thi, wo ant mein sikkhon ke sanpraday mein hi avruddh ho gai. kabir, dadu, chaitany aadi jitne dharm guruon ne prem ke adhar par jatiyata ki sirishti karni chahi, utne hi samprdayon ki vriddhi hui tukaram, namadev aadi dakshain ke dharm prcharkon ne jis maharashtr jati ko dharm ke bandhan se driDhkar prabal bana diya tha, vahi jati rajanaitik spardha se svayan apne patan ka karan hui. yahi karan hai ki madhyayug ke arambh mein bharatiy sahity mein jin dharmik bhavon ne ek navin shakti utpann kar di thi, ve bilkul shithil ho gaye. idhar bhaav srot avruddh hua udhar hindi ke sabha kaviyon ne kala saushthav ke pradarshan mein apni shakti laga di. shayad hi kisi desh ke sahity mein kaviyon ne kala ke dvara apne vyaktitv ko chhipaya ho jitna hindi ke parvarti kaviyon ne. kabir, surdas, tulsidas ke saman kaviyon ki rachnaon mein unke hirdai ke bhaav phoot paDte hain. par bihari satasi ke saman kavyon mein hum kavi ka yatharth darshan karte hi nahin. unhen hum jab dekhte hain tab ek kalpit raajy mein hi bihar karte pate hain. apni kalpana ke saundarya mein ve aise Doob gaye hain ki dusri or unki drishti jati hi nahin. varsha ritu mein meghagam dekhkar ve kisi kalpit viyogini ke virah duःkh se vikal ho gaye hain. par desh ke hahakar se unka chitt vikrt nahin hua. jab mughal samrajy ki shmshaan bhumi mein chitanal jal raha tha, tab hindi ke kavi kisi kalpit nayika ko tarah tarah ke updesh de rahe the. ve kya sachmuch unke hirdai ke bhaav the? hamari samajh mein yahan kavi ki kala maatr hai, unka vyaktitv nahin. yahi karan hai ki hamein unki kala pranhin malum hoti hai. yatharth kavi ka darshan hum tabhi karte hain, jab antarvedana se piDit ho ve pukar uthte hain vyaadh hu te vihad asadhu haun ajamil leen, graah te gunahi kaho kin mein ginaoge. yahan kavi ko na to rajasbha ka dhyaan hai aur na apni kala ka. wo ek baar apne antarjagat ki drishti Dalkar sansar se apne ko uncha utha le jata hai—vahan jahan svayan vishvanath hai.
kritrimta ke is yug mein bharatiy samaj ki rakhsha tulsidas ke saman kaviyon ne ki. hindi sahity ke liye to tulsidas ki kriti hi svarg sopan hai. karlail ne aishvary manDit british samrajy se adhik mulyavan shakespeare ki rachna ko samjha hai. par vaibhavhin bharat ke liye to tulsidas ka ramacharitmanas hi sarvasv hai. vij~n log rasarnav mein Dube rahen, parantu agyon ne ramacharitmanas ko hi apnaya. hindu dharm ke adarshon ki rakhsha tulsidas ne ki. bhinn bhinn samprdayon ne apne apne sanpradayik sahity se updesh grahn kiya, par sanpradayik sahity vihin shiksha tulsidas ji dete rahe.
british samrajy ke sthapit hone par bharatvarsh mein sarvatr shanti sthapit hui. par ye shanti akarmanyata ki thi. kramash ye akarmanyata door hui. pashchaty sabhyata ke prabhav se bharat mein phir chetanta i. pashchaty vigyan ke aalok mein ve aatm pariksha mein vyast hue. unhen apni sthiti se asantosh hua. asantosh ka ye bhaav ab prabal hone laga hai. isne sahity mein bhi pravesh kiya aur sahity ke svarup ko hi badal diya. navin sahity ki sirishti hone lagi. jin bharatiy pranton mein is sahity ne unnati ki hai, vahan hum kavita ka ek naya hi adarsh dekhte hain. ye adarsh hai manushyatv ki vijay, svadhinata aur prem.
hindi mein kabir aur dadu ke saman kitne hi santon ne kavitayen likhi hain. unki rachnaon mein kala ka vishesh saushthav na hone par bhi saty ki jyoti hai. kavita mein kala aur shakti ka vilakshan sammishran tulsidas aur surdas ki rachnaon mein hua hai. ye donon hindi ke sarvashreshth kavi hain. isi samay hindi ke praya sabhi kaviyon ne raam aur krishn ka yashogan karne ke liye pad likhe hain. unki kavita mein prem aur bhakti hi ka varnan hai. parantu hamein ye smarn rakhna chahiye ki in bhakt kaviyon ki ganana shringar ras ke acharyon mein nahin hai. madhyayug mein hindi sahity ka udgam bhakti ras ki prerna se hua tha aur thoDe hi samay mein uski chhaap samagr bharatvarsh par paD gai thi. sanvat 1144 se 1680 tak usi se hindi sahity isi ki tarangon mein aage baDhta gaya. jin kaviyon ka use garv hai, unka avirbhav isi kaal mein hua. mirabai ityadi ki rachnaon ka aadar sabhi samay hota rahega. radha krishn ki bhakti se gadgad hokar unhonne bhi shringar ras ki avtarna ki thee; parantu inhonne apni kalpana ko pavitra, sanyat aur nirmal rakha tha. inke baad bhi hindi sahity ki barabar unnati hoti gai, parantu kavita ka lakshya badal gaya. wo dharm ki or na jakar keval shringar ras ka upasak rah gaya. tab hindi mein shringar ras ke kavyon ki vriddhi hone lagi. shringar ras ke acharya the keshavdas. unki rasik priya rasikon ke aur kavi priya kaviyon ke gale ka haar ho gai. senapati, matiram, bihari, dev, daas, padmakar aadi jitne kavi hue, sabhi shringar ras ke acharya the.
is bhavonmad ko bhaktivad se uttejna avashy mili thi. manushya maatr ka ye svbhaav hai ki jab uski kriya shakti nirbal ho jati hai, tab uski bhaav shakti khoob prabal rahti hai. baaly kaal mein kriya shakti kshain rahti hai. isiliye us samay balkon ke hirdai mein bhinn bhinn kalpanaon aur bhavon ki tarangen utha karti hain. jab vriddhavastha aati hai tab kriya shakti phir nirbal ho jati hai. yahi karan hai ki vriddh bhavon ke itne vashibhut hote hain. musalmanon ke rajatv kaal mein hindu rajanaitik svatvon se heen the. unki arthik sthiti achchhi thi, par paradhinata ne unko utsaah shunya aur shaktihin bana diya tha. musalmanon ki prabhuta uttar bharat par akshaunn thi kintu jahan unki prabhuta achchhi tarah nahin sthapit ho pai thi, vahan hindu bilkul kshain parakram nahin ho gaye the. yahi karan hai ki ramdas ne bhakti ke saath nishkam karm ka updesh dekar dakshain bharat mein jo shakti utpann kar di thi, usse uttar bharat ke hindu praya vanchit se the. dasatv ki shrrinkhlaon mein baddh uttar bharat ke shriman sabhi baton mein apne samraton ka anukarn karne lage the. mahaprabhu vallbhacharya ka janm sanvat 1535 mein hua tha. unke updeshon ne hindi sahity mein amritvarsha ki aur vaishnav sahity ka udbhav hua vaishnav sahity aur dharm ka visheshatv ye hai ki wo manushyon mein bhagvan ke svarup ko uplabdh karna chahta hai. ishvar ke virat aur achintya svarup se wo door rahta hai. prem mein bhay nahin rahta. isliye vaishnav kaviyon ne pita, mata, svami, sakha aadi parivarik sneh mein hi lila mai ka lila vikas dekha. jitne vaishnav kavi hue ve sabhi parthiv prlobhnon se door rahkar bhagvad bhakti mein nirat rahte the. surdas, tulsidas, mirabai aadi kaviyon ki ganana vaishnav kaviyon mein ki jati hai.
mahakavi vallabhacharya ka janm sanvat 1535 mein hua tha. unek updeshon ne hindi sahity mein amritvarsha ki aur vaishnav sahit ka udbhav hua. vaishnav sahity aur dharm ka visheshatv ye hai ki wo manushyon mein bhagvan ko uplabdh kahna chahta hai. ishvar ke virat aur achintya svarup se wo door rahta hai. praim mein bhay nahin rahta. isliye vaishnav kaviyon nen pita, mata, svami, sakha aadi parivarik sneh mein hi lila mai ka lila vikas dekha. jitne vaishnav kavi hue ve sabhi parthiv prlobhnon se door rahkar bhagvad bhakti mein nirat rahte the. surdas, tulsidas, mirabai aadi kaviyon ki ganana vaishnav kaviyon mein ki jati hai.
vaishnav sahity khoob lokapriy hua, kyonki wo saras aur saral tha. parantu hindi mein vahi ek sahity nahin tha bauddh dharm ke patan ke baad bharat mein jo navin sanskrit sahity prachalit hua tha, uske adhar par bhi hindi mein ek dusra sahity ban raha tha. uski or bhi hum ek drishti Dalna chahte hain.
musalmanon ke aane ke pahle bhi bharatvarsh mein dharmik vidvesh tha. bauddh aur jain dharmon ne hindu dharm par kutharaghat kiye the parantu ant mein hindu dharm ne bauddh dharm ka uchchhed kar Dala aur jain dharm ki prabhuta lupt kar di. bauddh dharm ke prabaly kaal mein prakirt sahity ka parchar baDha tha, par hindu dharm ke abhyuday se navin sanskrit sahity ka avirbhav hua. hindu dharm ka ye sanskrit sahity khanDan aur manDnatmak granthon se hi poorn tha darshan, dharm, vyakaran aur kaavy ki shastriy vivechana mein hi tatkalin hindu vidvanon ne khoob parishram kiya tha bhagvan shankrachary ke samay se kabir ki utpatti tak jitne granth bane hain, praya sabhi alochanatmak hain. unmen tatvik sanshleshan aur vishleshan hi hai. shri harsh isi kaal ke kavi hain. unka panDity itna prakhar hai ki sarv sadharan unki or takne ka sahas nahin kar sakte. is prakar ye sahity kuch hi logon mein simabaddh ho gaya tha. isi samay mein sanskrit mein shringar ras ka tufan aa gaya kitne hi kaavy, naatk, prahsan aadi rache gaye, unmen se kuch to ashlilata ki sima tak pahunch gaye. par is sahity ka parchar sarv sadharan mein nahin tha. kaavy kala ke nishnaat kavi aur shastron ke marmaj~n panDit sarv sadharan se prithak hokar raaj sabha ke abhushan ho gaye the raaj chihnon mein unki ganana hone lagi thi mughalkal mein jab viddya rasik mughal badshahon ne vidvanon ko raaj sabha mein sthaan diya tab chhote chhote adhipti bhi kaviyon ka samman karne lage. in kaviyon ne navin sanskrit ka anukarn kar kaavy rachna ki. kalidas ke baad sanskrit kaviyon mein shabdon ka aDambar aur alankaron ka parchar baDhne laga tha. sahity kala ke marmagyon ne kaavy ke liye sukshmatisukshm niyam banaye the. in raaj kaviyon ne unhin niymon ka anusarn kiya. praya sabhi ne alankar shaastr par ekaadh granth likha hai. in kaviyon ne jo sahity nirman kiya hai, wo vaishnav sahity se sarvatha prithak hai. panDitraj jagannath jis koti ke kavi hain, usi mein keshav, bihari, matiram aur padmakar ki ganana honi chahiye. surdas, tulsidas, mirabai aadi jitne istri purush bhakton mein adarnaiy mane gaye hain, un sabne sansarik vaibhav ka parityag kar aihik vasnaon ke daman karne ki cheshta ki hai. yahi unka pardhan lakshya raha hai, parantu kya yahi baat bihari, matiram aadi shringar ras ke acharyon ke vishay mein bhi kahi ja sakti hai? kya unhonne bhakti ke avesh mein aakar sansarik vaibhav ki kamna chhoDi hai? shringar ras ke varnan mein to unhonne apni krishn bhakti ki parakashtha dikhlai, parantu kya unhonne apne jivan mein bhi kabhi bhaktivad pradarshit kiya tha? unke nakh shikh varnan mein adhyatmvad athva bhaktivad dekhana annyaye hai.
kavivar biharilal athva matiram rasasbha ke ratn the. unki pratibha usi mein avruddh thi. unhen koi vishv kavi nahin kahega. unki kriti vidvanon ki shobha ho sakti hai, par wo sarv sadharan ki sampatti nahin hai. wo vilas ki samagri hai, par puja ka paatr nahin hai. usse mastishk mein uttejna paida ho sakti hai, par hirdai mein shanti nahin ho sakti. unke bhavon mein tallin hokar rasik atmavismrit ho sakte hain, par unmen jagrati nahin aa sakti. astu.
itihasagyon ka kathan hai ki mughalon ka shasankal hindi sahity ke liye suvarn yug hai. ismen sandeh nahin ki mughal badshahon ne hindi sahity ke prati jo anurag pradarshit kiya, usse hindi sahity ki achchhi vriddhi hui. kahne ki zarurat nahin ki mughal samraton ka anukarn kar any shrimanon ne bhi hindi ke kaviyon ka achchha satkar kiya. is samay hindi mein jitne bhi baDe baDe kavi hue, praya sabhi kisi na kisi raja ke ashrit the. shrimanon ki sanrakshakata mein hindi sahity ki vriddhi to hui, parantu kavi janta ke pratinidhi nahin rah sake. rajasbhaon mein hi kavi sammanit hue, unhonne janta ke hridaygat bhavon ko vyakt karne ki cheshta nahin ki. hindu samaj mein jivan ki gati kidhar hai aur usko kis disha ki or parivartit kar dene se samaj ka kalyan hoga, ye kavipriya athva rasik priya ke saman granthon ka uddeshy nahin tha. aisi rachnayen kisi na kisi maharaj ki seva ke uplakshy mein likhi gai theen, atev unmen kadachit unhin ke manovinod ki or kaviyon ka dhyaan tha. apna kala naipunya pradarshit karne ke liye inhonne sahity shaastr ka manthan kar Dala, par jivan ka rahasy DhunDhne ke liye manushya samaj ki paryalochana nahin ki.
muglon ka prabhutv kshain hone par log ek baar phir bharatvarsh mein hindu saaः raajy ka svapn dekhne lage. uttar mein sikkhon ne aur dakshain mein marahthon ne svadhinata ke liye yudh kiya. kaha jata hai ki mughalon ke patan ka sabse baDa karan ye tha ki aurangjeb ne hindu dharm ke vinash ke liye prayas kiya tha. ismen sandeh nahin ki hinduon par dharmik attyachar hue, par ashchary ki baat ye hai ki jis praant par sabse adhik attyachar hue vahan mughalon ke viruddh vaisi uttejna nahin thi, jaisi sikkhon athva marahthon mein thi. kuch vidvan mahakavi bhushan ko jatiy kavi samajhte hain. par bhushan ki ojasvini kavita usi bhasha mein likhi gai thi, jiske adhikansh bolne vale attyachar sahkar bhi akarmany bane hue the. marahthon ke prati unki sahanubhuti avashy thi, par wo sahanubhuti kriya heen thi. chatur marahthon ne apne raajy vistar ke liye us sahanubhuti se pura laabh uthaya. unhonne hindi bhasha bhashai pranton par adhikar kar liya. to bhi un pranton ke adhivasiyon mein jagrati ka koi lachchhan nahin dikhai diya. mughalon ka prabhutv nasht hua aur kuch kaal ke liye hindu maharashtr ka adhipaty sthapit bhi hua to desh ki avastha mein koi parivartan nahin hua. usi prakar punjab mein hindu sikkhon ka adhikar ho jane par bhi vahan hindi sahity ki kuch bhi shrivriddhi nahin hui. hum janna chahte hain ki logon mein ye udasinata kyon thee? sach baat ye hai ki marahthe, sikkh athva rajput mughalon ke viruddh avashy khaDe hue, parantu desh unke saath nahin tha. muglon ke viruddh jo yudh hua wo svadhinata ke liye janta ka yudh nahin tha. janta sarvatha udasin thi. bhushan ne aurangjeb ke viruddh apne jo bhaav prakat kiye hain, ve janta ke bhaav nahin hain. bhushan ne apne jin ashraydataon ka yashogan kiya hai un par desh ki achal shardha nahin thi. bhushan bhale hi is sanshay mein paDe rahen ki ve sahu ki prashansa karen ya chhatrsal ki, par desh in donon ke prati udasin tha. yadi ye baat na hoti, yadi sachmuch samagr bharatvarsh mein svadhinata ke bhaav jagrat hue hote, to desh mein wo shakti utpann hui hoti jo adamy hoti. us shakti ke prabhav se tatkalin sahity ka svarup hi kuch dusra ho jata. un bhavon ki pushti ke liye saikDon kavi utpann hue hote. par hum dekhte hain ki hindi mein bhushan ke saman do hi kavi udhar akrisht hue aur any kavi shringar ras mein hi nimagn rahe. ye nahin kaha ja sakta ki hindi bhasha bhashai pranton ke adhivasiyon mein shaury ka abhav hai. senaon mein in logon ki sankhya upekshanaiy nahin; samarbhumi mein ye log achchha parakram dikhlate the. inhin logon ki sahayata se british samrajy tak sthapit hua. phir bhi is jati ne svadhinata praapt karne ke liye kabhi prabal cheshta nahin ki. iska kya karan hai? hamari samajh mein to iska karan yahi hai ki inke samne svadhinata ke adarsh kabhi upasthit nahin kiye gaye. tulsidas aur surdas ne unhen dharm shreshth adarsh dikhlaye par hindi mein svadhinata ka adarsh dikhlane ke liye koi bhi tulsidas athva surdas utpann nahin hua. rajasbha ki shobha baDhane vale aur rajaon se aprimit puraskar pane vale kavi janta ke kavi nahin ho sakte. in kaviyon ne dhan aur kirti ki aasha se jis sahity ki sirishti ki hai, wo jatiyata ke bhavon se sarvatha shunya hai. inki rachnaon mein hum jis vaibhav ka darshan karte hain, wo unke ashray dataon ka vaibhav nahin.
bharatvarsh ke itihas mein sabse vilakshan baat ye hui hai ki jab desh mein jatiyata ke parchar ke liye kisi ne matbhedon ko door karne ki cheshta ki, tab ve to door hue nahin, ulte unki sankhya mein aur vriddhi ho gai. gurunanak ne manushya maatr ke kalyan ke liye gyaan ki jo dhara prvahit ki thi, wo ant mein sikkhon ke sanpraday mein hi avruddh ho gai. kabir, dadu, chaitany aadi jitne dharm guruon ne prem ke adhar par jatiyata ki sirishti karni chahi, utne hi samprdayon ki vriddhi hui tukaram, namadev aadi dakshain ke dharm prcharkon ne jis maharashtr jati ko dharm ke bandhan se driDhkar prabal bana diya tha, vahi jati rajanaitik spardha se svayan apne patan ka karan hui. yahi karan hai ki madhyayug ke arambh mein bharatiy sahity mein jin dharmik bhavon ne ek navin shakti utpann kar di thi, ve bilkul shithil ho gaye. idhar bhaav srot avruddh hua udhar hindi ke sabha kaviyon ne kala saushthav ke pradarshan mein apni shakti laga di. shayad hi kisi desh ke sahity mein kaviyon ne kala ke dvara apne vyaktitv ko chhipaya ho jitna hindi ke parvarti kaviyon ne. kabir, surdas, tulsidas ke saman kaviyon ki rachnaon mein unke hirdai ke bhaav phoot paDte hain. par bihari satasi ke saman kavyon mein hum kavi ka yatharth darshan karte hi nahin. unhen hum jab dekhte hain tab ek kalpit raajy mein hi bihar karte pate hain. apni kalpana ke saundarya mein ve aise Doob gaye hain ki dusri or unki drishti jati hi nahin. varsha ritu mein meghagam dekhkar ve kisi kalpit viyogini ke virah duःkh se vikal ho gaye hain. par desh ke hahakar se unka chitt vikrt nahin hua. jab mughal samrajy ki shmshaan bhumi mein chitanal jal raha tha, tab hindi ke kavi kisi kalpit nayika ko tarah tarah ke updesh de rahe the. ve kya sachmuch unke hirdai ke bhaav the? hamari samajh mein yahan kavi ki kala maatr hai, unka vyaktitv nahin. yahi karan hai ki hamein unki kala pranhin malum hoti hai. yatharth kavi ka darshan hum tabhi karte hain, jab antarvedana se piDit ho ve pukar uthte hain vyaadh hu te vihad asadhu haun ajamil leen, graah te gunahi kaho kin mein ginaoge. yahan kavi ko na to rajasbha ka dhyaan hai aur na apni kala ka. wo ek baar apne antarjagat ki drishti Dalkar sansar se apne ko uncha utha le jata hai—vahan jahan svayan vishvanath hai.
kritrimta ke is yug mein bharatiy samaj ki rakhsha tulsidas ke saman kaviyon ne ki. hindi sahity ke liye to tulsidas ki kriti hi svarg sopan hai. karlail ne aishvary manDit british samrajy se adhik mulyavan shakespeare ki rachna ko samjha hai. par vaibhavhin bharat ke liye to tulsidas ka ramacharitmanas hi sarvasv hai. vij~n log rasarnav mein Dube rahen, parantu agyon ne ramacharitmanas ko hi apnaya. hindu dharm ke adarshon ki rakhsha tulsidas ne ki. bhinn bhinn samprdayon ne apne apne sanpradayik sahity se updesh grahn kiya, par sanpradayik sahity vihin shiksha tulsidas ji dete rahe.
british samrajy ke sthapit hone par bharatvarsh mein sarvatr shanti sthapit hui. par ye shanti akarmanyata ki thi. kramash ye akarmanyata door hui. pashchaty sabhyata ke prabhav se bharat mein phir chetanta i. pashchaty vigyan ke aalok mein ve aatm pariksha mein vyast hue. unhen apni sthiti se asantosh hua. asantosh ka ye bhaav ab prabal hone laga hai. isne sahity mein bhi pravesh kiya aur sahity ke svarup ko hi badal diya. navin sahity ki sirishti hone lagi. jin bharatiy pranton mein is sahity ne unnati ki hai, vahan hum kavita ka ek naya hi adarsh dekhte hain. ye adarsh hai manushyatv ki vijay, svadhinata aur prem.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।