प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
—(सिंगरौली: 'जहाँ कोई वापसी नहीं' का संपादित अंश)
सिंगरौली-1983
वह धान रोपाई का महीना था—जुलाई का अंत—जब बारिश के बाद खेतों में पानी जमा हो जाता है। हम उस दुपहर सिंगरौली के एक क्षेत्र—नवागाँव गए थे। इस क्षेत्र की आबादी पचास हज़ार से ऊपर है, जहाँ लगभग अठारह छोटे-छोटे गाँव बसे हैं। इन्हीं गाँवों में एक का नाम है—अमझर—आम के पेड़ों से घिरा गाँव—जहाँ आम झरते हैं। किंतु पिछले दो-तीन वर्षों से पेड़ों पर सूनापन है, न कोई फल पकता है, न कुछ नीचे झरता है। कारण पूछने पर पता चला कि जब से सरकारी घोषणा हुई है कि अमरौली प्रोजेक्ट के अंतर्गत नवागाँव के अनेक गाँव उजाड़ दिए जाएँगे, तब से न जाने कैसे, आम के पेड़ सूखने लगे। आदमी उजड़ेगा, तो पेड़ जीवित रहकर क्या करेंगे?
टिहरी गढ़वाल में पेड़ों को बचाने के लिए आदमी के संघर्ष की कहानियाँ सुनी थीं, किंतु मनुष्य के विस्थापन के विरोध में पेड़ भी एक साथ मिलकर मूक सत्याग्रह कर सकते हैं, इसका विचित्र अनुभव सिर्फ़ सिंगरौली में हुआ।
मेरे लिए एक दूसरी दृष्टि से भी यह अनूठा अनुभव था। लोग अपने गाँवों से विस्थापित होकर कैसी अनाथ, उन्मूलित ज़िंदगी बिताते हैं, यह मैंने हिंदुस्तानी शहरों के बीच बसी मज़दूरों की गंदी, दम घुटती, भयावह बस्तियों और स्लम्स में कई बार देखा था, किंतु विस्थापन से पूर्व वे कैसे परिवेश में रहते होंगे, किस तरह की ज़िंदगी बिताते होंगे, इसका दृश्य अपने स्वच्छ, पवित्र खुलेपन में पहली बार अमझर गाँव में देखने को मिला। पेड़ों के घने झुरमुट, साफ़-सुथरे खप्पर लगे मिट्टी के झोंपड़े और पानी। चारों तरफ़ पानी। अगर मोटर-रोड की भागती बस की खिड़की से देखो, तो लगेगा जैसे समूची ज़मीन एक झील है, एक अंतहीन सरोवर, जिसमें पेड़, झोंपड़े, आदमी, ढोर-डाँगर आधे पानी में, आधे ऊपर तिरते दिखाई देते हैं, मानो किसी बाढ़ में सब कुछ डूब गया हो, पानी में धँस गया हो।
किंतु यह भ्रम है...यह बाढ़ नहीं, पानी में डूबे धान के खेत हैं। अगर हम थोड़ी सी हिम्मत बटोरकर गाँव के भीतर चलें, तब वे औरतें दिखाई देंगी जो एक पाँत में झुकी हुई धान के पौधे छप-छप पानी में रोप रही हैं; सुंदर, सुडौल, धूप में चमचमाती काली टाँगें और सिरों पर चटाई के किश्तीनुमा हैट, जो फ़ोटो या फ़िल्मों में देखे हुए वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते हैं। ज़रा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठाकर चौंकी हुई निगाहों से हमें देखती हैं—बिलकुल उन युवा हिरणियों की तरह, जिन्हें मैंने एक बार कान्हा के वन्यस्थल में देखा था। किंतु वे डरतीं नहीं, भागती नहीं, सिर्फ़ विस्मय से मुसकुराती हैं और फिर सिर झुकाकर अपने काम में डूब जाती हैं...यह समूचा दृश्य इतना साफ़ और सजीव है—अपनी स्वच्छ मांसलता में इतना संपूर्ण और शाश्वत—कि एक क्षण के लिए विश्वास नहीं होता कि आने वाले वर्षों में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा—झोंपड़े, खेत, ढोर, आम के पेड़—सब एक गंदी, 'आधुनिक' औद्योगिक कॉलोनी की ईंटों के नीचे दब जाएगा—और ये हँसती-मुसकुराती औरतें, भोपाल, जबलपुर या बैढ़न की सड़कों पर पत्थर कूटती दिखाई देंगी। शायद कुछ वर्षों तक उनकी स्मृति में अपने गाँव की तसवीर एक स्वप्न की तरह धुँधलाती रहेगी, किंतु धूल में लोटते उनके बच्चों को तो कभी मालूम भी नहीं होगा कि बहुत पहले उनके पुरखों का गाँव था—जहाँ आम झरा करते थे।
ये लोग आधुनिक भारत के नए 'शरणार्थी' हैं, जिन्हें औद्योगीकरण के झंझावात ने अपनी घर-ज़मीन से उखाड़कर हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया है। प्रकृति और इतिहास के बीच यह गहरा अंतर है। बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घरबार छोड़कर कुछ अरसे के लिए ज़रूर बाहर चले जाते हैं, किंतु आफ़त टलते ही वे दुबारा अपने जाने पहचाने परिवेश में लौट भी आते हैं। किंतु विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को उन्मूलित करता है, तो वे फिर कभी अपने घर वापस नहीं लौट सकते। आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ़ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका परिवेश और आवास स्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।
एक भरे-पूरे ग्रामीण अंचल को कितनी नासमझी और निर्ममता से उजाड़ा जा सकता है, सिंगरौली इसका ज्वलंत उदाहरण है। अगर यह इलाक़ा उजाड़ रेगिस्तान होता तो शायद इतना क्षोभ नहीं होता; किंतु सिंगरौली की भूमि इतनी उर्वरा और जंगल इतने समृद्ध हैं कि उनके सहारे शताब्दियों से हज़ारों वनवासी और किसान अपना भरण-पोषण करते आए हैं। 1926 से पूर्व यहाँ खैरवार जाति के आदिवासी राजा शासन किया करते थे, किंतु बाद में सिंगरौली का आधा हिस्सा, जिसमें उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के खंड शामिल थे, रीवा राज्य के भीतर शामिल कर लिया गया। बीस वर्ष पहले तक समूचा क्षेत्र विंध्याचल और कैमूर के पहाड़ों और जंगलों से घिरा हुआ था, जहाँ अधिकांशतः कत्था, महुआ, बाँस और शीशम के पेड़ उगते थे। एक पुरानी दंतकथा के अनुसार सिंगरौली का नाम ही 'सृंगावली' पर्वतमाला से निकला है, जो पूर्व-पश्चिम में फैली है। चारों ओर फैले घने जंगलों के कारण यातायात के साधन इतने सीमित थे कि एक ज़माने में सिंगरौली अपने अतुल प्राकृतिक सौंदर्य के बावजूद—'काला पानी' माना जाता था, जहाँ न लोग भीतर आते थे, न बाहर जाने का जोखिम उठाते थे।
किंतु कोई भी प्रदेश आज के लोलुप युग में अपने अलगाव में सुरक्षित नहीं रह सकता। कभी-कभी किसी इलाक़े की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है। दिल्ली के सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की आँखों से सिंगरौली की अपार खनिज संपदा छिपी नहीं रही। विस्थापन की एक लहर रिहंद बाँध बनने से आई थी, जिसके कारण हज़ारों गाँव उजाड़ दिए गए थे। इन्हीं नई योजनाओं के अंतर्गत सेंट्रल कोल फ़ील्ड और नेशनल सुपर थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन का निर्माण हुआ। चारों तरफ़ पक्की सड़कें और पुल बनाए गए। सिंगरौली, जो अब तक अपने सौंदर्य के कारण 'बैकुंठ' और अपने अकेलेपन के कारण 'काला पानी' माना जाता था, अब प्रगति के मानचित्र पर राष्ट्रीय गौरव के साथ प्रतिष्ठित हुआ। कोयले की खदानों और उन पर आधारित ताप विद्युत गृहों की एक पूरी शृंखला ने पूरे प्रदेश को अपने में घेर लिया। जहाँ बाहर का आदमी फटकता न था, वहाँ केंद्रीय और राज्य सरकारों के अफ़सरों, इंजीनियरों और विशेषज्ञों की क़तार लग गई। जिस तरह ज़मीन पर पड़े शिकार को देखकर आकाश में गिद्धों और चीलों का झुंड मँडराने लगता है, वैसे ही सिंगरौली की घाटी और जंगलों पर ठेकेदारों, वन-अधिकारियों और सरकारी कारिंदों का आक्रमण शुरू हुआ।
विकास का यह ‘उजला' पहलू अपने पीछे कितने व्यापक पैमाने पर विनाश का अँधेरा लेकर आया था, हम उसका छोटा-सा जायज़ा लेने दिल्ली में स्थित 'लोकायन' संस्था की ओर से सिंगरौली गए थे। सिंगरौली जाने से पहले मेरे मन में इस तरह का कोई सुखद भ्रम नहीं था कि औद्योगीकरण का चक्का, जो स्वतंत्रता के बाद चलाया गया, उसे रोका जा सकता है। शायद पैंतीस वर्ष पहले हम कोई दूसरा विकल्प चुन सकते थे, जिसमें मानव सुख की कसौटी भौतिक लिप्सा न होकर जीवन की ज़रूरतों द्वारा निर्धारित होती। पश्चिम जिस विकल्प को खो चुका था भारत में उसकी संभावनाएँ खुली थीं, क्योंकि अपनी समस्त कोशिशों के बावजूद अँग्रेज़ी राज हिंदुस्तान को संपूर्ण रूप से अपनी 'सांस्कृतिक कॉलोनी' बनाने में असफल रहा था। भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूज़ियम्स और संग्रहालयों में जमा नहीं थी वह उन रिश्तों से जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों—एक शब्द में कहें—उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ते थे। अतीत का समूचा मिथक संसार पोथियों में नहीं, इन रिश्तों की अदृश्य लिपि में मौजूद रहता था। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है—भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध बनाए रखने का हो जाता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह नहीं है कि शासक वर्ग ने औद्योगीकरण का मार्ग चुना, ट्रेजेडी यह रही है कि पश्चिम की देखादेखी और नक़ल में योजनाएँ बनाते—प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाज़ुक संतुलन किस तरह नष्ट होने से बचाया जा सकता है—इस ओर हमारे पश्चिम-शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं गया। हम बिना पश्चिम को मॉडल बनाए, अपनी शर्तों और मर्यादाओं के आधार पर, औद्योगिक विकास का भारतीय स्वरूप निर्धारित कर सकते हैं, कभी इसका ख़याल भी हमारे शासकों को आया हो, ऐसा नहीं जान पड़ता।
singrauli 1983
wo dhaan ropai ka mahina tha—julai ka ant—jab barish ke baad kheton mein pani jama ho jata hai. hum us duphar singrauli ke ek kshetr—navaganv ge the. is kshetr ki abadi pachas hazar se uupar hai, jahan lagbhag atharah chhote chhote gaanv base hain. inhin ganvon mein ek ka naam hai—amjhar—am ke peDon se ghira ganv—jahan aam jharte hain. kintu pichhle do teen varshon se peDon par sunapan hai, na koi phal pakta hai, na kuch niche jharta hai. karan puchhne par pata chala ki jab se sarkari ghoshna hui hai ki amrauli projekt ke antargat navaganv ke anek gaanv ujaaD diye jayenge, tab se na jane kaise, aam ke peD sukhne lage. adami ujDega, to peD jivit rahkar kya karenge?
tihri gaDhval mein peDon ko bachane ke liye adami ke sangharsh ki kahaniyan suni theen, kintu manushya ke visthapan ke virodh mein peD bhi ek saath milkar mook satyagrah kar sakte hain, iska vichitr anubhav sirf singrauli mein hua.
mere liye ek dusri drishti se bhi ye anutha anubhav tha. log apne ganvon se visthapit hokar kaisi anath, unmulit zindagi bitate hain, ye mainne hindustani shahron ke beech basi mazduron ki gandi, dam ghutti, bhayavah bastiyon aur slams mein kai baar dekha tha, kintu visthapan se poorv ve kaise parivesh mein rahte honge, kis tarah ki zindagi bitate honge, iska drishya apne svachchh, pavitra khulepan mein pahli baar amjhar gaanv mein dekhne ko mila. peDon ke ghane jhurmut, saaf suthre khappar lage mitti ke jhompDe aur pani. charon taraf pani. agar motar roD ki bhagti bas ki khiDki se dekho, to lagega jaise samuchi zamin ek jheel hai, ek anthin sarovar, jismen peD, jhompDe, adami, Dhor Dangar aadhe pani mein, aadhe uupar tirte dikhai dete hain, mano kisi baaDh mein sab kuch Doob gaya ho, pani mein dhans gaya ho.
kintu ye bhram hai. . . ye baaDh nahin, pani mein Dube dhaan ke khet hain. agar hum thoDi si himmat batorkar gaanv ke bhitar chalen, tab ve aurten dikhai dengi jo ek paant mein jhuki hui dhaan ke paudhe chhap chhap pani mein rop rahi hain; sundar, suDaul, dhoop mein chamchamati kali tangen aur siron par chatai ke kishtinuma hait, jo foto ya filmon mein dekhe hue viyatnami ya chini aurton ki yaad dilate hain. zara si aahat pate hi ve ek saath sir uthakar chaunki hui nigahon se hamein dekhti hain—bilkul un yuva hiraniyon ki tarah, jinhen mainne ek baar kanha ke vanyasthal mein dekha tha. kintu ve Dartin nahin, bhagti nahin, sirf vismay se musakurati hain aur phir sir jhukakar apne kaam mein Doob jati hain. . . ye samucha drishya itna saaf aur sajiv hai—apni svachchh mansalta mein itna sampurn aur shashvat—ki ek kshan ke liye vishvas nahin hota ki aane vale varshon mein sab kuch matiyamet ho jayega—jhompDe, khet, Dhor, aam ke peD—sab ek gandi, adhunik audyogik kauloni ki iinton ke niche dab jayega—aur ye hansti musakurati aurten, bhopal, jabalpur ya baiDhan ki saDkon par patthar kutti dikhai dengi. shayad kuch varshon tak unki smriti mein apne gaanv ki tasvir ek svapn ki tarah dhundhlati rahegi, kintu dhool mein lotte unke bachchon ko to kabhi malum bhi nahin hoga ki bahut pahle unke purkhon ka gaanv tha—jahan aam jhara karte the.
ye log adhunik bharat ke ne sharnarthi hain, jinhen audyogikran ke jhanjhavat ne apni ghar zamin se ukhaDkar hamesha ke liye nirvasit kar diya hai. prkriti aur itihas ke beech ye gahra antar hai. baaDh ya bhukamp ke karan log apna gharbar chhoDkar kuch arse ke liye zarur bahar chale jate hain, kintu aafat talte hi ve dubara apne jane pahchane parivesh mein laut bhi aate hain. kintu vikas aur pragti ke naam par jab itihas logon ko unmulit karta hai, to ve phir kabhi apne ghar vapas nahin laut sakte. adhunik audyogikran ki andhi mein sirf manushya hi nahin ukhaDta, balki uska parivesh aur avas sthal bhi hamesha ke liye nasht ho jate hain.
ek bhare pure gramin anchal ko kitni nasamjhi aur nirmamta se ujaDa ja sakta hai, singrauli iska jvlant udahran hai. agar ye ilaqa ujaaD registan hota to shayad itna kshobh nahin hota; kintu singrauli ki bhumi itni urvara aur jangal itne samriddh hain ki unke sahare shatabdiyon se hazaron vanvasi aur kisan apna bharan poshan karte aaye hain. 1926 se poorv yahan khairvar jati ke adivasi raja shasan kiya karte the, kintu baad mein singrauli ka aadha hissa, jismen uttar pardesh tatha madhya pardesh ke khanD shamil the, rivan rajya ke bhitar shamil kar liya gaya. bees varsh pahle tak samucha kshetr vindhyachal aur kaimur ke pahaDon aur janglon se ghira hua tha, jahan adhikanshatः kattha, mahua, baans aur shisham ke peD ugte the. ek purani dantaktha ke anusar singrauli ka naam hi sringavli parvatmala se nikla hai, jo poorv pashchim mein phaili hai. charon or phaile ghane janglon ke karan yatayat ke sadhan itne simit the ki ek zamane mein singrauli apne atul prakritik saundarya ke bavjud—kala pani mana jata tha, jahan na log bhitar aate the, na bahar jane ka jokhim uthate the.
kintu koi bhi pardesh aaj ke lolup yug mein apne algav mein surakshit nahin rah sakta. kabhi kabhi kisi ilaqe ki sampada hi uska abhishap ban jati hai. dilli ke sattadhariyon aur udyogapatiyon ki ankhon se singrauli ki apar khanij sampada chhipi nahin rahi. visthapan ki ek lahr rihand baandh banne se aai thi, jiske karan hazaron gaanv ujaaD diye ge the. inhin nai yojnaon ke antargat sentral kol feelD aur neshnal supar tharmal pauvar kaurporeshan ka nirman hua. charon taraf pakki saDken aur pul banaye ge. singrauli, jo ab tak apne saundarya ke karan baikunth aur apne akelepan ke karan kala pani mana jata tha, ab pragti ke manachitr par rashtriy gaurav ke saath pratishthit hua. koyle ki khadanon aur un par adharit taap vidyut grihon ki ek puri shrinkhla ne pure pardesh ko apne mein gher liya. jahan bahar ka adami phatakta na tha, vahan kendriy aur rajya sarkaron ke afasron, injiniyron aur visheshagyon ki qatar lag gai. jis tarah zamin par paDe shikar ko dekhkar akash mein giddhon aur chilon ka jhunD manDrane lagta hai, vaise hi singrauli ki ghati aur janglon par thekedaron, van adhikariyon aur sarkari karindon ka akrman shuru hua.
vikas ka ye ‘ujla pahlu apne pichhe kitne vyapak paimane par vinash ka andhera lekar aaya tha, hum uska chhota sa jayza lene dilli mein sthit lokayan sanstha ki or se singrauli ge the. singrauli jane se pahle mere man mein is tarah ka koi sukhad bhram nahin tha ki audyogikran ka chakka, jo svtantrta ke baad chalaya gaya, use roka ja sakta hai. shayad paintis varsh pahle hum koi dusra vikalp chun sakte the, jismen manav sukh ki kasauti bhautik lipsa na hokar jivan ki zarurton dvara nirdharit hoti. pashchim jis vikalp ko kho chuka tha bharat mein uski sambhavnayen khuli theen, kyonki apni samast koshishon kabavjud angrezi raaj hindustan ko sampurn roop se apni sanskritik kauloni banane mein asaphal raha tha. bharat ki sanskritik virasat yurop ki tarah myuziyams aur sangrhalyon mein jama nahin thi wo un rishton se jivit thi, jo adami ko uski dharti, uske janglon, nadiyon—ek shabd mein kahen—uske samuche parivesh ke saath joDte the. atit ka samucha mithak sansar pothiyon mein nahin, in rishton ki adrishya lipi mein maujud rahta tha. yurop mein paryavran ka parashn manushya aur bhugol ke beech santulan banaye rakhne ka hai—bharat mein yahi parashn manushya aur uski sanskriti ke beech paramprik sambandh banaye rakhne ka ho jata hai. svatantryottar bharat ki sabse baDi trejeDi ye nahin hai ki shasak varg ne audyogikran ka maarg chuna, trejeDi ye rahi hai ki pashchim ki dekhadekhi aur naqal mein yojnayen banate—prkriti, manushya aur sanskriti ke beech ka nazuk santulan kis tarah nasht hone se bachaya ja sakta hai—is or hamare pashchim shikshit sattadhariyon ka dhyaan kabhi nahin gaya. hum bina pashchim ko mauDal banaye, apni sharton aur maryadaon ke adhar par, audyogik vikas ka bharatiy svarup nirdharit kar sakte hain, kabhi iska khayal bhi hamare shaskon ko aaya ho, aisa nahin jaan paDta.
—(singraulih jahan koi vapsi nahin ka sampadit ansh)
singrauli 1983
wo dhaan ropai ka mahina tha—julai ka ant—jab barish ke baad kheton mein pani jama ho jata hai. hum us duphar singrauli ke ek kshetr—navaganv ge the. is kshetr ki abadi pachas hazar se uupar hai, jahan lagbhag atharah chhote chhote gaanv base hain. inhin ganvon mein ek ka naam hai—amjhar—am ke peDon se ghira ganv—jahan aam jharte hain. kintu pichhle do teen varshon se peDon par sunapan hai, na koi phal pakta hai, na kuch niche jharta hai. karan puchhne par pata chala ki jab se sarkari ghoshna hui hai ki amrauli projekt ke antargat navaganv ke anek gaanv ujaaD diye jayenge, tab se na jane kaise, aam ke peD sukhne lage. adami ujDega, to peD jivit rahkar kya karenge?
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mere liye ek dusri drishti se bhi ye anutha anubhav tha. log apne ganvon se visthapit hokar kaisi anath, unmulit zindagi bitate hain, ye mainne hindustani shahron ke beech basi mazduron ki gandi, dam ghutti, bhayavah bastiyon aur slams mein kai baar dekha tha, kintu visthapan se poorv ve kaise parivesh mein rahte honge, kis tarah ki zindagi bitate honge, iska drishya apne svachchh, pavitra khulepan mein pahli baar amjhar gaanv mein dekhne ko mila. peDon ke ghane jhurmut, saaf suthre khappar lage mitti ke jhompDe aur pani. charon taraf pani. agar motar roD ki bhagti bas ki khiDki se dekho, to lagega jaise samuchi zamin ek jheel hai, ek anthin sarovar, jismen peD, jhompDe, adami, Dhor Dangar aadhe pani mein, aadhe uupar tirte dikhai dete hain, mano kisi baaDh mein sab kuch Doob gaya ho, pani mein dhans gaya ho.
kintu ye bhram hai. . . ye baaDh nahin, pani mein Dube dhaan ke khet hain. agar hum thoDi si himmat batorkar gaanv ke bhitar chalen, tab ve aurten dikhai dengi jo ek paant mein jhuki hui dhaan ke paudhe chhap chhap pani mein rop rahi hain; sundar, suDaul, dhoop mein chamchamati kali tangen aur siron par chatai ke kishtinuma hait, jo foto ya filmon mein dekhe hue viyatnami ya chini aurton ki yaad dilate hain. zara si aahat pate hi ve ek saath sir uthakar chaunki hui nigahon se hamein dekhti hain—bilkul un yuva hiraniyon ki tarah, jinhen mainne ek baar kanha ke vanyasthal mein dekha tha. kintu ve Dartin nahin, bhagti nahin, sirf vismay se musakurati hain aur phir sir jhukakar apne kaam mein Doob jati hain. . . ye samucha drishya itna saaf aur sajiv hai—apni svachchh mansalta mein itna sampurn aur shashvat—ki ek kshan ke liye vishvas nahin hota ki aane vale varshon mein sab kuch matiyamet ho jayega—jhompDe, khet, Dhor, aam ke peD—sab ek gandi, adhunik audyogik kauloni ki iinton ke niche dab jayega—aur ye hansti musakurati aurten, bhopal, jabalpur ya baiDhan ki saDkon par patthar kutti dikhai dengi. shayad kuch varshon tak unki smriti mein apne gaanv ki tasvir ek svapn ki tarah dhundhlati rahegi, kintu dhool mein lotte unke bachchon ko to kabhi malum bhi nahin hoga ki bahut pahle unke purkhon ka gaanv tha—jahan aam jhara karte the.
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vikas ka ye ‘ujla pahlu apne pichhe kitne vyapak paimane par vinash ka andhera lekar aaya tha, hum uska chhota sa jayza lene dilli mein sthit lokayan sanstha ki or se singrauli ge the. singrauli jane se pahle mere man mein is tarah ka koi sukhad bhram nahin tha ki audyogikran ka chakka, jo svtantrta ke baad chalaya gaya, use roka ja sakta hai. shayad paintis varsh pahle hum koi dusra vikalp chun sakte the, jismen manav sukh ki kasauti bhautik lipsa na hokar jivan ki zarurton dvara nirdharit hoti. pashchim jis vikalp ko kho chuka tha bharat mein uski sambhavnayen khuli theen, kyonki apni samast koshishon kabavjud angrezi raaj hindustan ko sampurn roop se apni sanskritik kauloni banane mein asaphal raha tha. bharat ki sanskritik virasat yurop ki tarah myuziyams aur sangrhalyon mein jama nahin thi wo un rishton se jivit thi, jo adami ko uski dharti, uske janglon, nadiyon—ek shabd mein kahen—uske samuche parivesh ke saath joDte the. atit ka samucha mithak sansar pothiyon mein nahin, in rishton ki adrishya lipi mein maujud rahta tha. yurop mein paryavran ka parashn manushya aur bhugol ke beech santulan banaye rakhne ka hai—bharat mein yahi parashn manushya aur uski sanskriti ke beech paramprik sambandh banaye rakhne ka ho jata hai. svatantryottar bharat ki sabse baDi trejeDi ye nahin hai ki shasak varg ne audyogikran ka maarg chuna, trejeDi ye rahi hai ki pashchim ki dekhadekhi aur naqal mein yojnayen banate—prkriti, manushya aur sanskriti ke beech ka nazuk santulan kis tarah nasht hone se bachaya ja sakta hai—is or hamare pashchim shikshit sattadhariyon ka dhyaan kabhi nahin gaya. hum bina pashchim ko mauDal banaye, apni sharton aur maryadaon ke adhar par, audyogik vikas ka bharatiy svarup nirdharit kar sakte hain, kabhi iska khayal bhi hamare shaskon ko aaya ho, aisa nahin jaan paDta.
—(singraulih jahan koi vapsi nahin ka sampadit ansh)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।