सागर-यात्रा
sagar yatra
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा आठवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
दस भारतीयों ने एक नौका में दुनिया का चक्कर लगाया था। उस नौका का नाम 'तृष्णा' था। यह पहला ऐसा भारतीय अभियान था जो विश्व यात्रा पर निकला था। उसी दल के एक सदस्य के यात्रा-वर्णन के कुछ अंश—
नौका पर जीवन
नौका पर जीवन अति व्यस्त था। हमारे पास स्वचालन की व्यवस्था नहीं थी अतः तृष्णा के चक्के (व्हील) चौबीसों घंटे सँभालने के लिए आदमियों की ज़रूरत थी। हम हर घंटे बाद चक्का सँभालने का काम बदलते। एक चक्का सँभालता तो दूसरा जहाज़ों, द्वीपों और ह्वेल मछलियों आदि पर नज़र रखता।
जो लोग चौकसी से हटते वे अपने कपड़े बदलते, खाना खाते, पढ़ते, रेडियो सुनते और अपनी ड्यूटी के अन्य कार्य जैसे रेडियो की जाँच, इंजन को जाँच तथा व्यंजन सूची के अनुसार भोजन बनाने के लिए राशन देने का काम निबटाते।
एक सदस्य 'माँ की भूमिका' (मदर वाच) निभाता। उसे खाना पकाने, बर्तन माँजने, शौचालय की सफ़ाई जैसे काम करने पड़ते ताकि नौका स्वच्छ रहे।
'माँ की भूमिका' बारी-बारी से सबको करनी पड़ती। एकमात्र यही ड्यूटी ऐसी थी जिसके बाद आदमी पूरी रात आराम कर पाता। पाँच दिनों में केवल एक बार बारी आती और यदि मौसम ठीक रहता तो नींद आ पाती।
इस कठिन दिनचर्या के कारण शतरंज खेलने के लिए या किसी और मनोरंजन के लिए समय ही नहीं मिलता था और न ही बोरियत के लिए वक़्त था। व्यस्तता ख़ूब थी।
दिन में एक बार हम नौका पर 'ख़ुशी का घंटा' बिताते।
अभियान दल के सभी सदस्य 16.00 बजे डेक पर आते और एक घंटा मिल-जुलकर बिताते। मदर वाच अधिकारी सबके लिए उनकी इच्छानुसार चाय-कॉफ़ी बनाता या शीतल पेय देता। वह कुछ नाश्ता भी बनाता।
पानी की समस्या
एक बार बौछार आई, मैं बाहर को भागा, अपना शरीर तर किया और शरीर तथा बालों में साबुन लगा डाला। आकाश में बादल जमकर छाए थे और मुझे विश्वास था कि कुछ देर में पानी बरसेगा। अचानक वर्षा थम गई। मैंने पाँच मिनट और फिर दस मिनट तक प्रतीक्षा की लेकिन वर्षा का नामो-निशान नहीं था। साबुन की चिपचिपाहट और ठंडक के कारण समुद्री पानी में नहाने का फ़ैसला किया। यह सबसे ग़लत काम था। गंदगी, साबुन और समुद्री जल ने मेरे शरीर पर एक मोटी, चिपचिपी और खुजलाहटवाली परत जमा दी, जो आसानी से छूटती नहीं है। मुझे उस परत को छुड़ाने के लिए कंघी और ब्रुश का सहारा लेना पड़ा। छाती, हाथ और पैरों पर उन्हें फेरने से ही छुटकारा मिला। नैतिक शिक्षा यही है कि जब नौका पर स्नान करना हो तो अपने पास पर्याप्त पानी रखो या विशेष समुद्री-जल साबुन का प्रयोग करो—समुद्री जल में साधारण साबुन का उपयोग मत करो।
नौका पर पहनने के लिए केवल दो जोड़ी कपड़े होने के कारण हमें उन्हें बार-बार धोना पड़ता। नौका पर कपड़े सुखाने के लिए हमने उसके चारों ओर एक तार बाँध रखा था जिसमें हम क्लिप लगाकर कपड़े सुखाते। तेज़ हवाओं के कारण अथवा पाल की रस्सियाँ बाँधते समय कभी-कभी कपड़े ग़ायब भी हो जाते।
तुफ़ानों का सामना
हम सब इस अभियान के ख़तरों को जानते थे। हमें यह भी ज्ञात था कि शायद हम कभी वापस न लौट सके, शुरू में हो हमें ख़राब मौसम का सामना करना पड़ा। हम रुकना नहीं चाहते थे, इसलिए मरम्मत का काम चलती नौका में ही करने की ठानी। कैप्टन ऐसे मौसम में 15 मीटर ऊँचे मस्तूल पर चढ़े और उन्होंने एंटीना की मरम्मत की। यदि थोड़ी-सी भी असावधानी हो जाती तो वे आसानी से मस्तूल से टपककर समुद्र की गहराइयों में समा सकते थे।
मेडागास्कर के पास एक तूफ़ान आया और 12 मीटर ऊँची समुद्र की लहरें हमारी नौका पर टूट पड़ी और उसे पानी से भर दिया। अभियान दल के सदस्य अनेक बार समुद्र में गिर गए लेकिन सौभाग्य से उन्हें वापस नौका पर खींच लिया गया क्योंकि उन्होंने नौका से जुड़ी रस्सियों को अपनी बेल्ट से बाँध रखा था।
केप ऑफ़ गुड होप का चक्कर लगाते समय भी हम ख़तरनाक तूफ़ान से टकराए। हवा की गति थी 120 किलोमीटर प्रति घंटा और समुद्री लहरों की ऊँचाई 15 मीटर। हर क्षण, मौत को आमंत्रण दे रहा था। हम केप से पाँच किलोमीटर दूर बह गए। हमें लगा कि हमारी नौका किसी चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो जाएगी। हमने अपने जीवन रक्षक उपकरण खो दिए, रेडियो सैट बेकार हो गया, एरियल टूट गए और पूरी दुनिया से अगले 15 दिनों के लिए हमारा रेडियो संपर्क टूट गया। भारतीय समाचारपत्रों ने ख़बर छाप दी कि 'तृष्णा' लापता है, जिस कारण हमारे परिवारजन और मित्रगण बुरी तरह घबरा गए। एक दल हमारी तलाश में भेजा गया लेकिन वह असफल होकर लौट गया।
अनुभव बढ़ने के साथ हम नौका को निश्चित राह पर बनाए रखने में सफल रहे।
मुंबई वापसी
प्रथम भारतीय नौका अभियान दल विश्व की परिक्रमा कर 54,000 किलोमीटर की दूरी मापकर 470 दिन की ऐतिहासिक यात्रा के बाद, 10 जनवरी, 1987 को 6.00 बजे मुंबई बंदरगाह पहुँचा। जैसे ही तृष्णा के दस सदस्यीय अभियान दल ने गेटवे ऑफ़ इंडिया की सीढ़ियों पर क़दम रखे, भीड़ ख़ुशी से चिल्ला उठी, आतिशबाज़ी छोड़ी गई, बंदूक़ें दाग़ी गईं और हमारे स्वागत में सायरन बजाए गए। हममें से कई अपने परिवारों से साढ़े पंद्रह माह से बिछुड़े हुए थे। 'आपका स्वागत है, स्वागत है, पापा', 'हमें आपकी याद आती थी' जैसे प्लेकार्ड हाथों में थामें हमारे बच्चों ने हमें सचमुच रुला दिया। लेकिन यहाँ केवल हमारे परिवार ही स्वागत में नहीं खड़े थे बल्कि पूरा गेटवे ऑफ़ इंडिया मित्रों और शुभचिंतकों से अटा पड़ा था।
10 जनवरी, 1987 को तृष्णा पर 'फ़र्स्ट डे कवर' और स्मारक टिकिट जारी किए गए। उसके बाद तृष्णा को खींचकर पानी से बाहर निकाला गया और रेल के दो वैगनों पर लादा गया ताकि गणतंत्र दिवस परेड में उसे शामिल किया जा सके।
तृष्णा 6 दिनों में दिल्ली पहुँच गई किंतु हमारी समस्याएँ समाप्त नहीं हुईं। उसे उतारने के लिए लंबी भुजा वाली क्रेन चाहिए थी। दिल्ली की व्यस्त सड़कों पर नौका ले जाने के लिए न केवल वृक्षों की डालियाँ छाँटनी पड़ी बल्कि बिजली और टेलीफ़ोन के तारों को भी ऊँचा उठाना पड़ा। पूरी रात मेहनत करने के बाद हम जैसे-तैसे 23 जनवरी को परेड की फुल ड्रेस रिहर्सल के लिए झाँकी तैयार कर सके। गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने वाली तृष्णा की झाँकी अब तक बनी सबसे बड़ी झाँकियों में से एक थी।
यह पहला अवसर था जब हममें से किसी ने गणतंत्र दिवस परेड में भाग लिया। हम सेना की टुकड़ी के अंग थे और 26 जनवरी को जब हम राजपथ से गुज़रे तो हमारा तालियों से ज़ोरदार स्वागत हुआ। सागर यात्रा की साहसिक एवं संघर्षपूर्ण स्मृति आज भी हमें रोमांचित कर देती है।
- पुस्तक : दुर्वा (भाग-3) (पृष्ठ 37)
- रचनाकार : टी. स. एस. चौधरी
- प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
- संस्करण : 2008
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