पाकिस्तान की सैर का प्रोग्राम बनाते समय यह ध्यान नहीं आया कि उसका प्रभाव मेरी बूढ़ी माँ पर क्या पड़ेगा! उन्हें मेरा वहाँ जाना बिलकुल पसंद नहीं। मैं कहता हूँ, 'माता जी, ज़रा सोचिए तो सही, मैं पिंडी जाऊँगा, भेरा जाऊँगा, अपने पुराने घर देखूँगा, बचपन के दोस्तों से मिलूँगा।
'अब कहाँ की दोस्ती और कहाँ के घर-बार! उन स्थानों से अब हमारा क्या नाता रह गया है?'
वह तो ठीक है, पर सैर-सपाटा करने में क्या हर्ज है?'
'तू तो बेटा, सैर-सपाटे में लगा रहेगा और बीच में मेरी जान टंगी रहेगी। बड़े मूर्ख लोग हैं वे। उनका क्या भरोसा?'
'नहीं, वे सब बातें ख़त्म हो गई हैं। अब तो रोज़ ही लोग आते-जाते हैं। रत्ती-माशा भी कोई ख़तरा नहीं है। अच्छा लो, तुम्हें फ़िक्र चिंतन हो इसलिए मैं हर दूसरे-तीसरे दिन तार भेज दिया करूँगा।'
चल तो पड़ा घर से मगर माताजी का चेहरा मुर्झाया हुआ था। मेरा मज़ा आधा रह गया। मुझे मालूम था कि मेरे लौटने की घड़ी तक उन्हें सुख-दुःख की चिंता लगी रहेगी।
दिल्ली स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर बड़ी देर तक भटकने के बाद पता चला कि पाकिस्तान वाला डिब्बा गाड़ी के बिलकुल आख़ीर में लगा हुआ है। उस डिब्बे तक पहुँचा तो दिल बैठ गया। बड़ा ही गंदा था। ऐसा लगा जैसे पाकिस्तान की सवारियों के साथ अछूतों का-सा व्यवहार किया गया हो, जैसे उनके साथ मिलते ही मैं भी अपने देशवासियों से अलग कर दिया गया हूँ। बैठे हुए दिल से मैंने सामान भीतर रखवाया और कुली को विदा कर दिया।
अच्छा, जो होगा देखा जाएगा, अब तो ओखली में सिर दिया ही है। ऊपरवाली बर्थ पर एक यात्री का बिस्तर बिछा हुआ था, पर वह कहीं गया हुआ था। न जाने कैसा आदमी होगा? न जाने उसके साथ कैसी निभेगी? डिब्बे के आसपास फ़िल्म एक्टर को देखने के लिए भीड़ जमा हो जाती है। आज एक आदमी भी क़रीब नहीं फटका, जैसे पाकिस्तान जाना कोई बहुत बड़ा अपराध हो।
डिब्बे की ख़स्ता हालत देखकर फिर दुःख हुआ। ख़राब डिब्बे लगाने का अर्थ अगर पाकिस्तानियों का अपमान करना है तो इससे अपने देश का भी तो अपमान होता है। जब यह डिब्बा लाहौर पहुँचेगा तो वहाँ के लोग हमारी रेलवेज़ के बारे में कैसी धारणाएँ बनाएँगे? पराए देश को जानेवाले डिब्बे तो विशेषरूप से तड़क-भड़कवाले होने चाहि जिससे रोब पड़े!
मेरा साथी आ गया। पक्का रंग, ख़ूब कद्दावर और भरा-भरा जिस्म। चटक कलेजी रंग की तहमद बाँधे हुए। उसको देखकर मैं घबरा-सा गया, और अपनी रक्षा के लिए सचेत रहने की सोची। बड़ा कट्टर पाकिस्तानी लग रहा था। पर बाद को शीघ्र ही पता चल गया कि वे हिंदू सज्जन हैं और केवल जालन्धर तक जा रहे हैं। बोलचाल जिला शाहपुर की थी, जो मेरा अपना पुश्तैनी वतन है। मैं भेरे का और वे सरगोधा के निकले। बड़े मौजी तबियत के व्यक्ति थे। रात काफ़ी देर तक उनसे बातें होती रहीं। वे पुनर्वास विभाग के अफ़सर हैं। पाकिस्तान के कई चक्कर लगा चुके हैं।
दिल्ली से गाड़ी चलने से पहले ही हम दोनों काफ़ी घुल-मिल गए। डिब्बे के बाहर दर्शकों की भीड़ भी हमेशा की तरह ही हो गई थी। शुरु-शुरु में मुझमें भय पैदा होने के कारण भ्रम के सिवाय और कुछ नहीं था। जैसे भ्रम पैदा हुआ वैसे ही मर भी गया। डिब्बे को सबसे पीछे जोड़ने का कारण केवल यह था कि अमृतसर पहुँचकर उसे आसानी से काटकर दूसरे प्लेटफ़ार्म पर ले जाया जा सके। डिब्बे के घटिया होने का भी इस मित्र ने कारण बताया। यह डिब्बा वास्तव में उस गाड़ी का भाग है जो केवल अमृतसर और लाहौर के बीच चलती है। केवल तीस मील की दूरी होने के कारण हमारी रेलवेज़ को अच्छा इंजन या अच्छे डिब्बा लगाने में कोई लाभ नहीं। पाकिस्तान से अमृतसर पहुँचते ही अधिकतर यात्री दिल्ली, कलकत्ता, बंबई आदि दूर-दूर के स्थानों के लिए तेज़ रफ़्तार गाड़ियों में सवार हो जाते हैं। इसमें भेद-भाव की कोई बात नहीं। यह सेवा भी केवल भारत ही करता है। पाकिस्तान की कोई गाड़ी सरहद पार करके इधर नहीं आती।
मेरे सहयात्री ने मुझे विश्वास दिलाया कि मेरी पाकिस्तानी यात्रा बड़ी मनोरंजक होगी। मेहमान-नवाज़ी उन लोगों में ख़त्म हो गई है, उन्होंने कहा, पर आपको सिर-आँखों पर लेंगे। और किसी प्रकार का आपको कोई ख़तरा भी नहीं है, अपनी मर्ज़ी से जहाँ चाहें जा सकेंगे। बातचीत ज़रा सोच-समझकर कीजिएगा। खुफ़िया पुलिस आपकी हर गतिविधि पर नज़र रखेगी।
बातचीत के दौरान वे बड़ी देर तक चुप हो जाते थे, जैसे पाकिस्तानियों के विषय में पूरी तरह राय न निर्धारित कर सके हों या शायद उन्हें वहाँ की अपनी कोई यात्रा याद आ रही हो। एक ओर वे दिल खोलकर प्रशंसा करते थे तो निंदा भी अच्छी-ख़ासी करते। “हो आइए, आप ख़ुद ही सब कुछ देख लेंगे। इस बार तो आपको ख़ूब मज़ा आएगा, पर दोबारा जाने को शायद दिल न चाहे।
बड़े ही मिलनसार और विचारवान सज्जन थे। मुझे गहरी नींद में सोता देखकर चुपचाप किसी इधर के ही स्टेशन पर उतर गए थे, जिससे सुबह तड़के हाथ-मुँह आदि धोने से मेरी नींद में विज न पड़े। पर जब गाड़ी जालन्धर पहुँची तब मैं जाग चुका था। यह देखकर वे मुझे बड़े प्रेम से नमस्कार करने आए और अपने हाथ में लिया हुआ उपन्यास मुझे भेंट कर गए।
10 अक्टूबर, 1962
जब गाड़ी जालन्धर स्टेशन से चली तो कंबल में सिर-मुँह लपेटकर थोड़ी देर और सो लेने को जी चाहा। गाड़ी के सफ़र में यह सुबह-सुबह की नींद सचमुच बड़ी प्यारी होती है।
मन में पाकिस्तान-यात्रा की सफलता की प्रार्थना करते वक़्त ये पंक्तियाँ उभर आई :
भुखां लै के चलिआं रबा लाहवीं,
आसां दी टहिणी ते फुल खिड़ावी।
ग़ैर-मुल्कीए हो गए मेरे वतनी,
होर उन्हां नूँ नां हुण गैर बणावीं।
साढ़े आठ बजे गाड़ी अमृतसर स्टेशन पर पहुँची। मकानों की दीवारों पर उर्दू और गुरुमुखी में अजीब-अजीब विज्ञापन लिखे हुए थे। एक में तो बड़ी ललकार थी, 'ऐनक तोड़ सुरमा'। लाहौर शहर की दीवारों पर पता नहीं कैसे-कैसे विज्ञापन पढ़ने को मिलेंगे? पिछली बार लाहौर का स्टेशन तब देखा था जब दीवारें गिर रही थीं, आग जल रही थी!
गाड़ी रुकते ही थैला लटकाए एक आदमी, जिसका लिबास बनियों-सा और आँखें डाकुओं जैसी थीं, भारतीय पैसे पाकिस्तानी पैसों में बदलने के लिए आ पहुँचा।
सरमायेदारी निज़ाम में हर आदमी की अंतरात्मा बेईमान हो जाती है। मेरी जेब में कुल मिलाकर 110 रुपए थे। यदि सबके सब बदलवा लूँ तो संभव है कस्टमवाले मुझे सभी पैसे ले जाने दें। वैसे तो पचहत्तर रुपए ही देश के बाहर ले जाने की आज्ञा है। मैंने सौ का नोट उसे पकड़ाया और अपने लालच की तस्दीक़ करने के लिए पूछा, क्या पचहत्तर ही...?
हाँ जी, और हम आपको कौन-से ज़ियादा देंगे। उसने बात काटते हुए 25 रुपए के भारतीय नोट और शेष धन पाकिस्तानी नोटों में जल्दी-जल्दी गिन दिया और चलता बना। उसकी इस फुर्ती ने मुझे सकते में डाल दिया। न जाने कौन आदमी था कौन नहीं? न जाने असली नोट दिए हैं कि नक़ली? भला मुझे एक अनजान आदमी से सौदा करने की क्या जल्दी थी? अब अगर वह जाली नोट थमा गया हो तो मैं क्या करूँगा? और लाहौर पहुँचकर क्या होगा? बम्बई से चलते वक़्त डा० नज़ीर अहमद को, जिन्होंने मुझे पाकिस्तान आने का निमंत्रण दिया था, तार अवश्य दे दिया था और दिल्ली से चलने से पहले उनका उत्तर भी आ गया था। फिर भी जाते ही उनसे पैसे तो नहीं माँगे जा सकते। क्या मालूम उन्होंने मेरे ठहरने का प्रबंध किसी होटल में किया हो? और मुझे ख़ुद पर ग़ुस्सा आने लगा। बेकायदा काम करने का मुझे लोभ ही क्यों हुआ? विदेश-यात्रा का इतना अनुभव होते हुए भी मैं कैसे भूल गया कि सरहदी पड़ावों पर कई प्रकार की चार सौ बीसें होती हैं। और चार सौ बीसी करनेवालों को शह ही लोगों के दिलों में छिपे लोभ से मिलती है। ...इतने में एक रेलवे कर्मचारी मुझे पहचानकर मेरे पास आ गया। मैंने उससे उस आदमी के बारे में पूछा। उसने बताया कि ख़ास-ख़ास लोगों को ही नक़दी बदलने का ठेका मिला हुआ है, और मैंने कोई नावाजिब बात नहीं की। एक और भ्रम दूर हो गया।
प्लेटफ़ार्म पर बहुत-से लोग केले ख़रीद रहे थे। पाकिस्तान में अच्छी क़िस्म का केला नहीं होता, फिर यहाँ भाव आठ आने दर्जन है और लाहौर में तीन रुपए दर्जन! मैंने भी पाँच दर्जन ख़रीदकर टोकरी में रखवा लिए। अपने मेज़बान के लिए सौगात का काम देंगे।
डिब्बा बग़लवाले प्लेटफ़ार्म पर पाकिस्तान जानेवाली गाड़ी से जोड़ दिया गया। वातावरण फिर कुछ उखड़ा-उखड़ा और बनावटी-बनावटी-सा लगा। सरहदी जगहों पर पुलिस और कस्टम के अफ़सरों की बहुलता के कारण अचानक ऐसा अनुभव होना स्वाभाविक भी है।
फ़िल्म-अभिनेता होने पर जहाँ बहुत-सी परेशानियाँ हैं वहाँ लाभ भी कम नहीं है। सबसे बड़ा लाभ यह है कि हर कोई मदद बड़े चाव से और बेग़र्ज़ होकर करता है। मुझे ख़ाकी वर्दी वाले अफ़सरों ने बड़े प्रेम से अपने पास बैठा लिया और कहा, आप अपने सामान की चिंता न करें। डिब्बे में ही हम उसकी जाँच कर लेंगे।
डेढ़ घंटा मैं वहाँ बैठा रहा और उनका कार्य-प्रणाली देखता रहा। उनका काम बड़ी सिरदर्दी का है और डयूटी लंबी है। पाकिस्तान जानेवाली सवारियाँ ज़ियादा से ज़ियादा कपड़ा भारत से ले जाने का प्रयत्न करती हैं, क्योंकि. यहाँ से वहाँ महँगा है।
एक बड़ा बाँका मुसलमान युवक मेरे पास बैठे अफ़सर को ख़ुश करने की बड़े चुस्त ढंग से कोशिश कर रहा था। वह सिल्क की नीली कोरी तहमद बाँधे है, जिसको वह निश्चय ही पाकिस्तान पहुँचकर बेच देगा। दस-बारह और चादरें उसके सामान में है। अफ़सर ने पाँच माफ़ कर दी हैं पर वह तीन और बिना टैक्स दिए ले जाना चाहता है। कभी हाथ जोड़ता है, कभी अफ़सर के पैर दबाने लगता है। मेरठ की तरफ़ का आदमी है शायद। बाल बड़ी अच्छी तरह काढ़े हुए हैं, मुँह में पान, बोस्की की क़मीज़, बटन खुले हुए! उसका व्यवहार एक सुघड़ विदूषक अभिनेता-सा है। आख़िर जब उसका सामान पास हो गया तो उसने अपनी जेब से सुगंधित चुरुटों का पैकेट निकाला और चुरुट बाँटने शुरु कर दिए। कोई भी उन्हें, लेने को तैयार नहीं था पर वह ज़बर्दस्ती हम लोगों की जेबों में एक-एक चुरुट छोड़ गया, 'किसी और को पिला देना!' जंगले के पार जाकर उसने अपना सामान गाड़ी में रखवाया और फिर आकर जंगले के पास खड़ा हो गया। उसकी आँखों में अपनेपन की भावना थी, जैसे कह रही हों, 'तुम्हें कैसे समझाऊँ कि मैं तुम्हारा अपना ही आदमी हूँ। भारतीय होने का मुझे उतना ही अभिमान है जितना तुम्हें। मुझे अपने से अलग मत समझो!'
उसका आधा परिवार पाकिस्तान में है और आधा हिंदुस्तान में। अपने किसी संबंधी के ब्याह में वह कुछ दिनों के लिए लाहौर जा रहा है। अफ़सरों ने मुझे बताया कि इस गाड़ी के यात्रियों में बड़ी संख्या ऐसे ही लोगों की होती है।
गाड़ी छूटी तो मेरी आँखें सरहद की प्रतीक्षा में चौड़ी होने लगीं। एक सिक्योरिटी अफ़सर मेरे साथ आकर बैठ गया था। यह गाड़ी को सरहद तक पहुँचाकर उतर जाएगा। सरहद की दूसरी ओर पाकिस्तानी अफ़सर उसकी जगह ले लेगा।
अटारी स्टेशन पर गाड़ी का ड्राइवर और फ़ायरमैन मुझे लिवाने आ गए। मुझे उनके इंजन में बैठकर सरहद की झाँकी देखने का निमंत्रण दिया गया था। यह कैसी झाँकी होगी? क्या दोनों तरफ़ पुलिस और फ़ौज का पहरा होगा? क्या कोई कांटेदार तार बिछाए गए होंगे? ये तार कितनी दूर तक बिछाए गए होंगे? इंजन टांगे में जुते बूढ़े घोड़े की तरह हचकोले खाता चल रहा था। दोनों ओर विशाल मरुस्थल-सा दिखाई पड़ रहा था। अचानक एक पेड़ के नीचे कुछ सिपाही लेटे हुए आराम करते दिखाई दिए। तभी ड्राइवर ने कहा, बस जी, यही हद है। और थोड़ी देर बाद मैं खेतों में मुसलमान किसानों, उनकी औरतों और बच्चों को देख रहा था।
अब मैं पाकिस्तान में था, मुसलमानों के देश में, एक ग़ैरमुल्क में। पर ये मनुष्य तो मैंने पहले भी देखे थे। ये तो मेरे लिए न नए हैं न पराए। इनमें कौन-सी अनोखी बात देखने की मुझमें इतनी उत्सुकता थी? हाँ, एक अंतर अवश्य था, कहीं भी कोई सिख-सरदार नज़र नहीं पड़ रहा था।
पाकिस्तान का पहला स्टेशन वाघा आ गया। गाड़ी रुकी। मैं प्लेटफ़ार्म पर उतरा। थोड़ा टहलकर जब अपने डिब्बे की तरफ़ वापस जा रहा था, एक सफ़ेद दाढ़ीवाले वृद्ध यात्री ने खिड़की से लटककर मुझसे हाथ मिलाया, फिर कहा, बलराज साहनी साहब, चन्द अल्फ़ाज़ इस नाचीज़ से भी सुनते जाइए। मेरी उम्र के आदमी को फ़िल्में देखने का बहुत कम शौक़ होता है, मगर आपकी फ़िल्में मैं हमेशा देखता हूँ, और मुझे आपको देखकर जो मुसर्रत हुई है मैं बयान नहीं कर सकता। आप इंसानी जज़्बात को हक़ीक़त बनाकर पेश करते हैं। आपकी फ़िल्में अख़लाक़ी और तमद्दुनी एतिबार से बहुत बुलंद होती हैं। आपसे दरख़्वास्त है कि अपने इंसानी मेयार को कभी मत छोडिएगा। अल्लाह आपको हर नेमत से माला-माल करे।
मैं उस वृद्ध की ओर देखता ही रह गया। मेरे मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल सका। पर जब अपने डिब्बे में पहुँचा तो मेरे भीतर जज़्बातों का तूफ़ान-सा उमड़ रहा था।
डिब्बे में ठेठ लाहौरी ज़बान बोलनेवाले पाकिस्तानी सिक्योरिटी अफ़सर आ गए थे। गाड़ी में यही एक फ़र्स्ट क्लास का डिब्बा था, इसलिए अफ़सर यहीं आकर बैठते थे। तीस एक साल की उम्र थी, देखने में सुंदर, गोरे-चिट्टे। उन्होंने मेरा पासपोर्ट देखा, एक फ़ार्म भरने को दिया। उनके अंदाज़ से मुझ साफ़ लग रहा था कि वे मेरे नाम से परिचित हैं, पर इस बात पर विश्वास करना नहीं चाहते। एक बात से मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि उन्होंने मेरे साथ अँग्रेज़ी या उर्दू में बोलने की चेष्टा नहीं की। उनके साथ पंजाबी में बातचीत करके मुझे बड़ा आनंद आ रहा था, और परदेसी होने का एहसास घटता जा रहा था।
“लाहौर में आप कहाँ ठहरेंगे? उन्होंने पूछा।
मैंने बड़े शौक़ से उनको अपनी जेब के एक तार निकालकर दिखाया जो मुझे अमृतसर से चलने के कुछ देर पूर्व मिला था, और जिसने मेरी सारी चिंताएँ दूर कर दी थीं।
कृपा करके हिंदुस्तानी मुसाफ़िर बलराज साहनी से मिलिए और उनसे कहिए कि वे गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर के प्रिंसिपल के यहाँ ठहरेंगे—डा० नज़ीर अहमद” गाड़ी रुकी तो उतरने से पहले मैंने खिड़की में से झाँककर लाहौर स्टेशन की बुर्जियों की ओर देखा। मुझे लाहौर कभी भी ज़ियादा याद नहीं आता था। अधिकतर रावलपिंडी के लिए ही जी तड़पता था। इसके कई कारण थे। एक तो मैं बचपन से वहाँ के पहाड़ देखने का आदी था। जब पिंडी छोड़कर गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर के न्यू होस्टल में पहुँचा तो उसकी छत पर से किसी ओर भी कोई पर्वत श्रृंखला न देखकर मुझे ऐसा लगा था जैसे प्रकृति के किसी बहुत बड़े नियम का उल्लंघन हो गया हो।
फिर पिंडी एक छोटा शहर था। वहाँ अँग्रेज़ी राज्य की कुटिलनीतियाँ लोक-जीवन पर पूरी तरह से हावी नहीं हुई थीं। मुहल्लेदारियाँ और बिरादरी के मेल-मिलाप प्रचलित थे, दोस्तियों में स्निग्धता और मिठास थी। शराफ़त की क़द्र की जाती थी। फ़िरक़ापरस्ती का ज़हरीला पौधा अवश्य बढ़ रहा था पर मज़बूत अभी नहीं हो सका था। पर लाहौर केंद्रीय शहर होने के कारण नए फ़ैशन की 'सभ्यता' के रंग में रंग चुका था। यहाँ पैसे और असर-रसूख के आदर्शों ने पुराने ढंग के रिवाज एकदम ख़त्म कर दिए थे। जैसे भी हो आगे बढ़ने के लिए हर प्रकार के हीले, अच्छे या बुरे, जायज़ प्रमाणित किए जा चुके थे। और इसीलिए मैं लाहौर को कभी भी अपना नहीं कह सका। पर आज लाहौर स्टेशन के बुर्ज देखकर पता नहीं मुझे क्या हो गया। ऐसा लगा जैसे उनके लिए मेरी आत्मा युग-युग से तरस रही थी। भीतर के किसी ढंके सोते में से प्यार और आदर फूट पड़ा। फुटबोर्ड से नीचे पैर रखने से पहले मैंने हाथ से धरती को प्रणाम किया।
डा० नजीर अहनद (गवर्नमेंट कालेज, लाहौर के प्रिंसिपल) मुझे लेने के लिए यूनिवर्सिटी की एक आवश्यक मीटिंग से उठकर आ गए थे। उनके रसूख ने कस्टम, पासपोर्ट की कठिन घाटियाँ मिनिटों में पार करवा दी; यही नहीं अफ़सरों ने बड़े आदर से मुझे चाय भी पिलाई। डा० नजीर अहमद बड़े संतुष्ट थे कि उनके पाहुन को सामान वग़ैरा खोलने का कष्ट नहीं उठाना पड़ा, पर मैं इस उतावली से ज़रा भी संतुष्ट नहीं था। मेरा दिल एक बार फिर प्लेटफ़ार्म पर जाकर घूमने को मचल रहा था।
शाम के चार बजे है। मैं काफ़ी देर तक सो चुका हूँ। बदन में ताज़गी आ गई है। जी चाहता है अभी सड़कों पर निकल पडूँ। गवर्नमेंट कॉलेज के टावर की वही पुरानी घड़ी टन-टन करती है। शायद ग्यारह बजाए हैं उसने। वही पुरानी बेपरवाही उसकी, जिसके बारे में तरह-तरह के लतीफ़े गढ़े जाते थे। अजीब-सी झनझनाहट होती है उसकी टन-टन सुनकर। कोई भी याद स्पष्ट नहीं हो रही थी- केवल एक गहरा एहसास, एक सांत्वना-सी, जैसे तेज़ कड़कड़ाती धूप से दूर-दूर तक उड़ाने भरकर लौटा हुआ भूखा-प्यासा पक्षी घोंसले का आनंद ले रहा हो। दूर से टाँगों की घंटियाँ, कॉलेज के सामने फल बेचनेवालों की आवाजें।
जिस बंगले में मैं ठहरा था, पुराने वक़्तों में वह जी०डी०सौंधी साहब की रिहाइशगाह थी। वही हल्की-हल्की रौशनीवाले ठंडे ठंडे कमरे, जालीदार और दरवाज़े ग़ुसलख़ाने में तौलिया फैलाने वाला रैक। यह सब कुछ 'भवानी जंक्शन' फ़िल्म में बड़ी यथार्थता पूर्वक दिखलाया गया था। वैसे फ़िल्म बड़ी घटिया थी, फिर भी बम्बई के सिनेमा हॉल में बैठा-बैठा आज से दस साल पहले, मैं लाहौर के लिए तड़प उठा था।
हमारे समय में इन बंगलों में घुसते हुए टाँगे काँपने लगती थीं। प्रोफ़ेसरों का बड़ा धमाकेदार 'अँग्रेज़ी-डर' होता था। पर आजकल यह बात नहीं रही। बाहर से घंटी बजते ही डा० नज़ीर अहमद ख़ुद दौड़कर बाहर जाते हैं, कोई दरबान नहीं है, कोई वरदीवाला पहरेदार नहीं है। नज़ीर साहब ने मुझे अपना सोनेवाला कमरा दे दिया है। उसमें कपड़ों की आलमारी न होने का उन्हें खेद था। कहने लगे, यार, मेरे पास वार्डरोब नहीं है, तुम्हें तकलीफ़ होगी। दरअसल मेरे पास इतने कपड़े ही नहीं है। अगर तुझे ज़रूरत हो तो तकल्लुफ़ मत करना मैं मंगवा दूँगा। कितना अच्छा लगा था मुझे यह सुनकर। मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था कि गवर्नमेंट कालेज, लाहौर का प्रिंसपल ऐसा भी हो सकता है।
डा० नजीर कमरे में आए और कहा, “आओ, बाहर लॉन में बैठ के चाय पिएँ। उनके कहने के अंदाज़ में कोई विशेषता नहीं है, फिर भी ऐसा लगा जैसे मेरी इच्छाओं को मेरे बिना कहे ही समझते हों। और शायद इसीलिए चाय के बाद मुझे मोटर में बिठाकर घुमाने निकल पड़े। ज़िला कचहरीवाले मोड़ पर से हम रावी रोड पर मुड़े। गवर्नमेंट कॉलेज के फाटक के पास एक मील-पत्थर हुआ करता था। न्यू होस्टल के सड़क पार करके कॉलेज जाते हुए मैं अकसर उस पर निगाह फेंककर जाया करता था 'रावलपिंडी- 178 मील, गुजरांवाला- 26 मील, जेहलम-117मील...' अब इस मील के पत्थर का शरीर बढ़कर चौगुना हो गया है, और उसपर कितनी ही और दरियों का विवरण लिखा हुआ है: 'कराची-867 मील, मुलतान-263...।' यह निकल गई सेंट्रल ट्रेनिंग कॉलेज की ओर जानेवाली सड़क! इसी ओर रैटीगन रोड और मेरे फूफाजी का घर था। उनके पास ही प्रोफ़ेसर रुचिराम रहते थे। शायद पारसियों का एक मंदिर भी था, जिसके बग़ल की गली में से होकर प्रोफ़ेसर गुलबहारसिंह और प्रोफ़ेसर मदनगोपाल सिंह के यहाँ जाया करते थे। यह भाटी की ओर से आने वाली सड़क मिल गई। यह 'गुरुदत्त भवन' आ गया। देखें तो सही, अब यहाँ क्या बोर्ड लगा है? ड्राइवर मोटर इतनी तेज़ क्यों भगाए लिए जा रहा है?
कॉलेज के ज़माने में रावी रोड की सैर साइकिल या टाँगे पर किया करते थे। आज यह मोटर बेरहमी से दिमाग़ में जुगराफ़िया बदलती जा रही है। जो स्थान मेरी कल्पना में दर-दर थे अब वे चप्पे-चप्पे के अंदर पर आ गए थे। पलक झपकने में जामा मस्जिद के आलीशान गुंबद दिख गए फिर मंटो पार्क-इसे अब मुहम्मद इक़बाल पार्क कहते हैं। लाहौर की तस्वीर एकदम सरल और संक्षिप्त हो गई है। गोल बाग़ की गोलाई बड़े नुमाइशी ढंग से शहर के गिर्द घूम रही थी। गुरु अर्जुनदेव की समाधि, महाराजा रणजीत सिंह की समाधि, पुराना क़िला, सारे स्थानों के चित्र फिर से दिमाग़ में जड़े। भला विद्यार्थी जीवन में इस ओर आता ही कब था? तब मैं साहब बहादुर था। गोरों की तरह सोला हैट लगाए माल रोड और मैक्लोड रोड को ही नापा करता था। बहुत हुआ तो कभी निसबत रोड का राउंड मार लिया। पर अब के एकदम देशी आदमी बनकर लाहौर की गलियों के चक्कर लगाऊँगा! शहर की फ़सील में ऊची-सी ढकी पर एक पुराना दरवाज़ा दिखाई पड़ा (नाम भूल गया!...क़ाबली दरवाज़ा?) मुझे शहर की ओर ललचाई नज़रें फेंकते देखकर डा० नज़ीर ने तजवीज़ पेश की कि इस दरवाज़े के पीछे एक तंग गली में, उनका पुश्तैनी मकान है, चलकर एक रात वहाँ रहा जाए। कितना ख़ुश हुआ मैं इस बात पर! पाकिस्तान आने का सबसे बड़ा लोभ ही मुझे यही था। (जी भरकर) अपनी पंजाबी बोली सुनना-माझी, लहिंदी, पोठोहारी, मेरी अपनी मातृ-बोलियाँ जिनसे मैंने अपनी आयु का इतना बड़ा भाग विमुख रहकर बिता दिया था। कितना बड़ा गुनाह किया था मैंने। पर फिर भी उन्होंने मुझे नहीं बिसराया। मुझे पछताते और अपनी ओर लौट के आते देखकर उन्होंने बाँहें फैलाकर मुझे गले से लगा लिया। मुठ्ठियाँ भर-भर के अनमोल रत्न मेरी जेबों में भरने शुरू कर दिए, जैसे बचपन में मेरी माँ रेवड़ियों, पिन्नियों और चिलगोज़ों से मेरी जेबें भरा करती थीं। कितनी प्यारी है लाहौर-वालों की बोली। यहाँ यह इतनी ताज़ी और निखरी-निखरी-सी लगती है, जैसे खेतों में लहलहाती सुनहरी सरसों, जैसे झरनों से बहता पानी! बंबई में मेरे अनेकों मित्र यही बोली बोलते हैं, पर वहाँ यह कानों को कुछ बासी-बासी-सी लगती है।
ताँगानुमा रेहड़ियों में बाँके घोड़े जोतकर शाम को सैर के लिए निकलना छैलों का ख़ास शौक़ है। मलमल का सफ़ेद कुर्ता या फ़तूई, तहमद और हाथों में फूलों के गजरे। कितने हसीन गोरे-गोरे और शोहदे-शोहदे-से चेहरे हैं इनके। यूँ पलक झपकने में निकल जाते हैं। (दोस्त की मोटर है नहीं तो अभी गाली दे देता!) वह निकल गया! कितना ख़ूबसूरत जवान था! इतना ख़ूबसूरत आदमी तो दुनिया में कम ही देखने को मिलेगा।
वारिसशाह की बात याद आ गई—नाज़ाँ पालिआ दुध मलाइआं वे।
मन ने पलटा खाया, 'छोड़ भी यार, ये तो मुसलमान हैं, ग़ैर-मुल्की हैं! कितने हिन्दू मार चुके हैं, कितना आग लगाई हैं, कितनी औरतों की आबरू लूटी है, कैसे भूल गया वे सब बातें?...'
अच्छा, ठीक है! अब मैं इनको ग़ैर समझ के ही देखूगा... पर हाय, करूँ तो क्या करूँ? ये फिर भी मुसलमान नहीं दिखते, ग़ैर नहीं लगते—जो कुकर्म जिसने किए हैं स्वयं ही उनका हिसाब देगा, मुझे तो किसीने न्यायाधीश नहीं बनाया?
बाग़वान पुरे में अच्छी-ख़ासी नई आबादी है। बढ़िया-बढ़िया और पक्के-पक्के बंगले हैं, आवागमन भी बहुत है। पर पुराने डिज़ाइन के लाहौरी ताँगे नज़र नहीं आ रहे। ड्राइवर ने बताया कि अब हर जगह पेशावरी ताँगों का चलन हो गया है। पिंडी में केवल तीन सवारियाँ बैठती थीं, यहाँ अब भी चार ही का दस्तूर है। हम पिंडी वाले लाहौरी टाँगों को 'दिचकू-दिचकू' कहकर मज़ाक़ किया करते थे। आख़िर पिंडी की जीत हुई न! बड़ी ख़ुशी हुई सोच के। पर दूसरे दिन फिर मन में वही विचार उठ पड़ें... 'पिंडी और लाहौर से तुझे क्या लेना? ख़्वाह-मख़्वाह पराई छाछ पर मूछे मुँड़वा रहा है।'
'चलो जी, मैं बेगाना तो बेगाना सही। पर पिंडी और लाहौर को यहाँ, के ताँगों को जी भर के देखने की तो छूट है न मुझे! सदा सलामत रहें ये। इन्हें कभी गर्म हवा न लगे। इनकी मुरादें पूरी हों। इनके बच्चे जिएँ...'
यह सिख नेशनल कॉलेज की इमारत थी। इस हिसाब से वह नई नहर की तरफ़ से आनेवाली सड़क... हाँ, ठीक ही तो है... यहीं पास में पीर मियाँ मीर का मज़ार है, जिसने अमृतसर में सिखों के सोने के हरि-मंदिर की नींव का पत्थर रखा था। दाराशिकोह का गुरू था वह दाराशिकोह, जिसने उपनिषदों के अनुवाद फ़ारसी में करवाए थे। पर अब ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं का कोई अर्थ नहीं निकलता।
शालीमार बाग़ जा पहुँचे, जहाँ पच्चीस साल पहले मैंने सिगरेट पी थी, और खाँसते-खाँसते मेरा बुरा हाल हो गया था। मैं और मेरा एक प्यारा दोस्त साइकिलों पर सवार होते और यूँही बेमतलब शालीमार की ओर निकल पड़ते थे। दिल में कुछ इस तरह की दबी-दबी आशाएँ हुआ करती थीं कि आज ज़रूर कोई हसीना मिलेगी, मेरी ओर मद-भरी नज़रों से देखेगी, फिर हमारी दोस्ती हो जाएगी और जीवन में कोई उन्माद-भरी लहर आएगी। पर शाम तक हमारे सारे महल ढह जाते थे। सिवाए बेमतलब चक्कर लगाने के, फटी-फटी नज़रों से चारों ओर देखने के, और सिगरेट फूँक-फूँककर जंटलमैनी दिखाने के लिए और कुछ हाथ नहीं लगता था। हाँ, बारह मील साइकिल पर पैर मारने से भूख ज़रूर तेज़ हो जाती थी, जिसे शाँत करने के लिए कभी 'स्टिफ़ल्ज़' और कभी 'लॉरेंग' जा पहुँचते थे। वहाँ पहुँचते-पहुँचते सोई हुई हसरतों के नाग़ पर फिर चौक पड़ते थे। शायद रेस्तराँ में ही कोई सुंदरी प्रतीक्षा कर रही हो!
भविष्य का सूर्य अब अतीत के पहाड़ों के पीछे जा छुपा था। केवल धीरे-धीरे फीकी पड़ती जा रही यादों की लाली आकाश में रह गई थी। कर लिए रोमाँस जितने करने थे, खेल लिए जितने खेल खेलने थे। अब तो वह जो किसीने कहा—बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे,
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।
डाक्टर नज़ीर अहमद ने मुझे मेरे ख़याल पर छोड़ दिया है। चाय मंगाते हैं। चुपचाप सरू के एक पेड़ के नीचे घास पर बैठकर चुस्की लेते हैं। शाम की ख़ामोशी की आवाज़ें सुनते हैं। रह-रहकर बीती बातें फुलझड़ियों की तरह छूट-छूट पड़ती हैं, जैसे आज यहाँ चिराग़ों का मेला लगा हो।... आख़िर प्यार हुआ भी तो था एक लड़की से, सारी उम्र एक उसी के नाम की ही माला जपी थी। उस मेहराबदार दरवाज़े के दोनों ओर बने और छोटे-छोटे चबूतरों पर खड़े होकर हमने बारी-बारी से एक-दूसरे के फोटो खींचे ये उसके सारे परिवार को शालीमार की पिकनिक के लिए किस तरह एड़ी से चोटी तक का ज़ोर लगाकर प्रेरित करता था... कितने निवेदन, कितनी राजनीति, कितनी मिन्नतें।
पूरे जोश-ख़रोश से इसी दरवाज़े में से होकर कभी गाँव के लोग चिराग़ों के मेल की रौनक़ देखने आते होंगे। वहाँ, उस जगह पर बादशाह बैठता होगा। तालाब के दोनों किनारों पर बनी बारहदरियों में से चरागों और फ़व्वारों की झिलमिल में अपने ज़रा लिबासों को ग़लतान करते हुए गीतकार, नर्तक और नर्तकियाँ चलकर हुज़ूर के रूबरू पेश होते होंगे और अपनी कलाएँ दिखाते होंगे...!
फिर मन में वही बेतुके विचार सिर उठाने लगे। लाहौरवाला शाहजहाँ वास्तव में पाकिस्तानी था, आगरेवाला शाहजहाँ हिंदुस्तानी था...पर नहीं। बार-बार ऐसी कसक और टीमें नहीं उठने देना चाहिए। राजनीति के दाँव-पेचों से मेरा क्या वास्ता? मैं एक मेहमान हूँ, डाक्टर नज़ीर मेरे मेज़बान हैं। इस प्रकार के प्रश्न दिल में उठाना ही शिष्टता से बाहर की बात है। यह चाहे कितना भी मुझे प्यारा क्यों न हो, फिर भी अब यह शालीमार पराया है। इस हिसाब से डाक्टर नज़ीर भी पराए हैं। पर क्यों बार-बार उनसे पूछने का जी चाहता है, 'नज़ीर साहब, आपकी और मेरी मुलाक़ात बहुत पुरानी नहीं। पिछले साल, जब आप बंबई आए थे तभी तो पहली बार आपसे मिला था। फिर आपके पास बैठकर मुझे इतना सुकून, क्यों मिलता है, जो बंबई में मेरे लिए नायाब है?’ अभी नहीं, पर पूछूँगी अवश्य। डॉक्टर नज़ीर निस्संदेह एक असाधारण व्यक्ति हैं।
फिर बाहर आकर मोटर में बैठते समय एक अधेड़-सी भिखारन, उंगली पकड़े एक आठ वर्ष की बच्ची, काफ़ी मैले, फटे-पुराने कपड़े, हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाई, “भइया जीते रहो, कभी तत्ती वही न लगे। अल्लाह तेरी मुरादें पूरी करे, इक़बाल बढ़ाए, तेरे बच्चे जिएँ...”
यह कमबख़्त आँखें क्यों चू-चू पड़ती है। यह औरत मेरी क्या लगती है? यह पाकिस्तानी, मैं हिंदुस्तानी...
dilli, 6 aktubar, 1962
pakistan ki sair ka program banate samay ye dhyan nahin aaya ki uska prabhaw meri buDhi man par kya paDega! unhen mera wahan jana bilkul pasand nahin main kahta hoon, mata ji, zara sochiye to sahi, main pinDi jaunga, bhera jaunga, apne purane ghar dekhunga, bachpan ke doston se milunga
ab kahan ki dosti aur kahan ke ghar bar! un sthanon se ab hamara kya nata rah gaya hai?
wo to theek hai, par sair sapata karne mein kya harj hai?
tu to beta, sair sapate mein laga rahega aur beech mein meri jaan tangi rahegi baDe moorkh log hain we unka kya bharosa?
nahin, we sab baten khatm ho gai hain ab to roz hi log aate jate hain ratti masha bhi koi khatra nahin hai achchha lo, tumhein fir chintan ho isliye main har dusre tisre din tar bhej diya karunga
chal to paDa ghar se magar mataji ka chehra murjhaya hua tha mera maza aadha rah gaya mujhe malum tha ki mere lautne ki ghaDi tak unhen sukh duःkh ki chint lagi rahegi
dilli station ke pletfarm par baDi der tak bhatakne ke baad pata chala ki pakistan wala Dibba gaDi ke bilkul akhir mein laga hua hai us Dibbe tak pahuncha to dil baith gaya baDa hi ganda tha aisa laga jaise pakistan ki sawariyon ke sath achhuton ka sa wywahar kiya gaya ho, jaise unke sath milte hi main bhi apne deshwasiyon se alag kar diya gaya hoon baithe hue dil se mainne saman bhitar rakhwaya aur kuli ko wida kar diya
achchha, jo hoga dekha jayega, ab to okhli mein sir diya hi hai uparwali berth par ek yatri ka bistar bichha hua tha, par wo kahin gaya hua tha na jane kaisa adami hoga? na jane uske sath kaisi nibhegi? Dibbe ke asapas film ektar ko dekhne ke liye bheeD jama ho jati hai aaj ek adami bhi qarib nahin phatka, jaise pakistan jana koi bahut baDa apradh ho
Dibbe ki khasta haalat dekhkar phir duःkh hua kharab Dibbe lagane ka arth agar pakistaniyon ka apman karna hai to isse apne desh ka bhi to apman hota hai jab ye Dibba lahore pahunchega to wahan ke log hamari relwez ke bare mein kaisi dharnayen banayenge? paraye desh ko janewale Dibbe to wisheshrup se taDak bhaDakwale hone chahi jisse rob paDe!
mera sathi aa gaya pakka rang, khoob qaddawar aur bhara bhara jism chatak kaleji rang ki tahmad bandhe hue usko dekhkar main ghabra sa gaya, aur apni rakhsha ke liye sachet rahne ki sochi baDa kattar pakistani lag raha tha par baad ko sheeghr hi pata chal gaya ki we hindu sajjan hain aur kewal jalandhar tak ja rahe hain bolachal jila shahpur ki thi, jo mera apna pushtaini watan hai main bhere ka aur we sargodha ke nikle baDe mauji tabiyat ke wekti the raat kafi der tak unse baten hoti rahin we punarwas wibhag ke afsar hain pakistan ke kai chakkar laga chuke hain
dilli se gaDi chalne se pahle hi hum donon kafi ghul mil gaye Dibbe ke bahar darshkon ki bheeD bhi hamesha ki tarah hi ho gai thi shuru shuru mein mujhmen bhay paida hone ke karan bhram ke siway aur kuch nahin tha jaise bhram paida hua waise hi mar bhi gaya Dibbe ko sabse pichhe joDne ka karan kewal ye tha ki amaritsar pahunchakar use asani se katkar dusre pletfarm par le jaya ja sake Dibbe ke ghatiya hone ka bhi is mitr ne karan bataya ye Dibba wastaw mein us gaDi ka bhag hai jo kewal amaritsar aur lahore ke beech chalti hai kewal tees meel ki duri hone ke karan hamari relwez ko achchha injan ya achchhe Dibba lagane mein koi labh nahin pakistan se amaritsar pahunchte hi adhiktar yatri dilli, kalkatta, bambai aadi door door ke sthanon ke liye tez raftar gaDiyon mein sawar ho jate hain ismen bhed bhaw ki koi baat nahin ye sewa bhi kewal bharat hi karta hai pakistan ki koi gaDi sarhad par karke idhar nahin aati
mere sahyatri ne mujhe wishwas dilaya ki meri pakistani yatra baDi manoranjak hogi mehman nawazi un logon mein khatm ho gai hai, unhonne kaha, par aapko sir ankhon par lenge aur kisi prakar ka aapko koi khatra bhi nahin hai, apni marzi se jahan chahen ja sakenge batachit zara soch samajhkar kijiyega khufiya police apaki har gatiwidhi par nazar rakhegi
batachit ke dauran we baDi der tak chup ho jate the, jaise pakistaniyon ke wishay mein puri tarah ray na nirdharit kar sake hon ya shayad unhen wahan ki apni koi yatra yaad aa rahi ho ek or we dil kholkar prshansa karte the to ninda bhi achchhi khasi karte “ho aiye, aap khu hi sab kuch dekh lenge is bar to aapko khoob maza ayega, par dobara jane ko shayad dil na chahe
baDe hi milansar aur wicharawan sajjan the mujhe gahri neend mein sota dekhkar chupchap kisi idhar ke hi station par utar gaye the, jisse subah taDke hath munh aadi dhone se meri neend mein wij na paDe par jab gaDi jalandhar pahunchi tab main jag chuka tha ye dekhkar we mujhe baDe prem se namaskar karne aaye aur apne hath mein liya hua upanyas mujhe bhent kar gaye
10 october, 1962
jab gaDi jalandhar station se chali to kambal mein sir munh lapetkar thoDi der aur so lene ko ji chaha gaDi ke safar mein ye subah subah ki neend sachmuch baDi pyari hoti hai
man mein pakistan yatra ki saphalta ki pararthna karte waqt ye panktiyan ubhar i ha
bhukhan lai ke chalian raba lahwin,1
asan di tahini te phul khiDawi 2
ghair mulkiye ho gaye mere watani,
hor unhan noon nan hun gair banawin
saDhe aath baje gaDi amaritsar station par pahunchi makanon ki diwaron par urdu aur gurumukhi mein ajib ajib wigyapan likhe hue the ek mein to baDi lalkar thi, ainak toD surma lahore shahr ki diwaron par pata nahin kaise kaise wigyapan paDhne ko milenge? pichhli bar lahore ka station tab dekha tha jab diwaren gir rahi theen, aag jal rahi thee!
gaDi rukte hi thaila latkaye ek adami, jiska libas baniyon sa aur ankhen Dakuon jaisi theen, bharatiy paise pakistani paison mein badalne ke liye aa pahuncha
sarmayedari nizam mein har adami ki antratma beiman ho jati hai meri jeb mein kul milakar 110 rupae the yadi sabke sab badalwa loon to sambhaw hai kastamwale mujhe sabhi paise le jane den waise to pachhattar rupae hi desh ke bahar le jane ki aagya hai mainne sau ka not use pakDaya aur apne lalach ki tasdiq karne ke liye puchha, kya pachhattar hi ?
han ji, aur hum aapko kaun se ziyada denge usne baat katte hue 25 rupae ke bharatiy not aur shesh dhan pakistani noton mein jaldi jaldi gin diya aur chalta bana uski is phurti ne mujhe sakte mein Dal diya na jane kaun adami tha kaun nahin? na jane asli not diye hain ki naqli? bhala mujhe ek anjan adami se sauda karne ki kya jaldi thee? ab agar wo jali not thama gaya ho to main kya karunga? aur lahore pahunchakar kya hoga? bambai se chalte waqt Da० nazir ahmad ko, jinhonne mujhe pakistan aane ka nimantran diya tha, tar awashy de diya tha aur dilli se chalne se pahle unka uttar bhi aa gaya tha phir bhi jate hi unse paise to nahin mange ja sakte kya malum unhonne mere thaharne ka prbandh kisi hotel mein kiya ho? aur mujhe khu par ghussa aane laga bekayada kaam karne ka mujhe lobh hi kyon hua? widesh yatra ka itna anubhaw hote hue bhi main kaise bhool gaya ki sarhadi paDawon par kai prakar ki chaar sau bisen hoti hain aur chaar sau bisi karnewalon ko shah hi logon ke dilon mein chhipe lobh se milti hai itne mein ek railway karmachari mujhe pahchankar mere pas aa gaya mainne usse us adami ke bare mein puchha usne bataya ki khas khas logon ko hi naqdi badalne ka theka mila hua hai, aur mainne koi nawajib baat nahin ki ek aur bhram door ho gaya
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Dibba baghalwale pletfarm par pakistan janewali gaDi se joD diya gaya watawarn phir kuch ukhDa ukhDa aur banawati banawati sa laga sarhadi jaghon par police aur custam ke afasron ki bahulta ke karan achanak aisa anubhaw hona swabhawik bhi hai
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DeDh ghanta main wahan baitha raha aur unka kary pranali dekhta raha unka kaam baDi sirdardi ka hai aur Dayuti lambi hai pakistan janewali swariyan ziyada se ziyada kapDa bharat se le jane ka prayatn karti hain, kyonki yahan se wahan mahnga hai
ek baDa banka musalman yuwak mere pas baithe afsar ko khush karne ki baDe chust Dhang se koshish kar raha tha wo silk ki nili kori tahmad bandhe hai, jisko wo nishchay hi pakistan pahunchakar bech dega das barah aur chadren uske saman mein hai afsar ne panch maf kar di hain par wo teen aur bina tax diye le jana chahta hai kabhi hath joDta hai, kabhi afsar ke pair dabane lagta hai merath ki taraf ka adami hai shayad baal baDi achchhi tarah kaDhe hue hain, munh mein pan, boski ki qamiz, button khule hue! uska wywahar ek sughaD widushak abhineta sa hai akhir jab uska saman pas ho gaya to usne apni jeb se sugandhit churuton ka packet nikala aur churut bantne shuru kar diye koi bhi unhen, lene ko taiyar nahin tha par wo zabardasti hum logon ki jebon mein ek ek churut chhoD gaya, kisi aur ko pila dena! jangle ke par jakar usne apna saman gaDi mein rakhwaya aur phir aakar jangle ke pas khaDa ho gaya uski ankhon mein apnepan ki bhawna thi, jaise kah rahi hon, tumhein kaise samjhaun ki main tumhara apna hi adami hoon bharatiy hone ka mujhe utna hi abhiman hai jitna tumhein mujhe apne se alag mat samjho!
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Da० najir ahnad (gawarnment kalej, lahore ke prinsipal) mujhe lene ke liye uniwersity ki ek awashyak miting se uthkar aa gaye the unke rasukh ne custam, passport ki kathin ghatiyan miniton mein par karwa dee; yahi nahin afasron ne baDe aadar se mujhe chay bhi pilai Da० najir ahmad baDe santusht the ki unke pahun ko saman waghaira kholne ka kasht nahin uthana paDa, par main is utawli se zara bhi santusht nahin tha mera dil ek bar phir pletfarm par jakar ghumne ko machal raha tha
sham ke chaar baje hai main kafi der tak so chuka hoon badan mein tazgi aa gai hai ji chahta hai abhi saDkon par nikal paDun gawarnment college ke tower ki wahi purani ghaDi tan tan karti hai shayad gyarah bajaye hain usne wahi purani beparwahi uski, jiske bare mein tarah tarah ke latife gaDhe jate the ajib si jhanajhnahat hoti hai uski tan tan sunkar koi bhi yaad aspasht nahin ho rahi thi kewal ek gahra ehsas, ek santwna si, jaise tez kaDkaDati dhoop se door door tak uDane bharkar lauta hua bhukha pyasa pakshi ghonsle ka anand le raha ho door se tangon ki ghantiyan, college ke samne phal bechnewalon ki awajen
jis bangle mein main thahra tha, purane waqton mein wo ji०d०saundhi sahab ki rihaishgah thi wahi halki halki raushniwale thanDe thanDe kamre, jalidar aur darwaze ghusalkhane mein tauliya phailane wala rack ye sab kuch bhawani jankshan film mein baDi yatharthta purwak dikhlaya gaya tha waise film baDi ghatiya thi, phir bhi bambai ke cinema hall mein baitha baitha aaj se das sal pahle, main lahore ke liye taDap utha tha
hamare samay mein in banglon mein ghuste hue tange kanpne lagti theen profesron ka baDa dhamakedar angrezi Dar hota tha par ajkal ye baat nahin rahi bahar se ghanti bajte hi Da० nazir ahmad khu dauDkar bahar jate hain, koi darban nahin hai, koi wardiwala pahredar nahin hai nazir sahab ne mujhe apna sonewala kamra de diya hai usmen kapDon ki almari na hone ka unhen khed tha kahne lage, yar, mere pas warDrob nahin hai, tumhein taklif hogi darasal mere pas itne kapDe hi nahin hai agar tujhe zarurat ho to takalluf mat karna main mangwa dunga kitna achchha laga tha mujhe ye sunkar main kabhi kalpana bhi nahin kar sakta tha ki gawarnment kalej, lahore ka prinspal aisa bhi ho sakta hai
Da० najir kamre mein aaye aur kaha, “ao, bahar lawn mein baith ke chay piyen unke kahne ke andaz mein koi wisheshata nahin hai, phir bhi aisa laga jaise meri ichchhaon ko mere bina kahe hi samajhte hon aur shayad isiliye chay ke baad mujhe motor mein bithakar ghumane nikal paDe zila kachahriwale moD par se hum rawi roD par muDe gawarnment college ke phatak ke pas ek meel patthar hua karta tha new hostel ke saDak par karke college jate hue main aksar us par nigah phenkkar jaya karta tha rawalpinDi 178 meel, gujranwala 26 meel, jehlam 117meel ab is meel ke patthar ka sharir baDhkar chauguna ho gaya hai, aur uspar kitni hi aur dariyon ka wiwarn likha hua haih karachi 867 meel, multan 263 ye nikal gai central trening college ki or janewali saDak! isi or raitigan roD aur mere phuphaji ka ghar tha unke pas hi professor ruchiram rahte the shayad parasiyon ka ek mandir bhi tha, jiske baghal ki gali mein se hokar professor gulabharsinh aur professor madangopalsinh ke yahan jaya karte the ye bhati ki or se anewali saDak mil gai ye gurudatt bhawan aa gaya dekhen to sahi, ab yahan kya board laga hai? Draiwar motor itni tez kyon bhagaye liye ja raha hai?
college ke zamane mein rawi roD ki sair cycle ya tange par kiya karte the aaj ye motor berahmi se dimagh mein jugrafiya badalti ja rahi hai jo sthan meri kalpana mein dar dar the ab we chappe chappe ke andar par aa gaye the palak jhapakne mein jama masjid ke alishan gumbad dikh gaye phir manto park ise ab muhammad iqbaal park kahte hain lahore ki taswir ekdam saral aur sankshipt ho gai hai gol bagh ki golai baDe numaishi Dhang se shahr ke gird ghoom rahi thi guru arjundew ki samadhi, maharaja ranjit sinh ki samadhi, purana qila, sare sthanon ke chitr phir se dimagh mein jaDe bhala widyarthi jiwan mein is or aata hi kab tha? tab main sahab bahadur tha goron ki tarah sola hat lagaye mal roD aur maikloD roD ko hi napa karta tha bahut hua to kabhi nisbat roD ka raunD mar liya par ab ke ekdam deshi adami bankar lahore ki galiyon ke chakkar lagaunga! shahr ki fasi mein uchi si Dhaki par ek purana darwaza dikhai paDa (nam bhool gaya! qabli darwaza?) mujhe shahr ki or lalchai nazren phenkte dekhkar Da० nazir ne tajwiz pesh ki ki is darwaze ke pichhe ek tang gali mein, unka pushtaini makan hai, chalkar ek raat wahan raha jaye kitna khush hua main is baat par! pakistan aane ka sabse baDa lobh hi mujhe yahi tha (ji bharkar) apni panjabi boli sunna majhi, lahindi, pothohari, meri apni matri boliyan jinse mainne apni aayu ka itna baDa bhag wimukh rahkar bita diya tha kitna baDa gunah kiya tha mainne par phir bhi unhonne mujhe nahin bisraya mujhe pachhtate aur apni or laut ke aate dekhkar unhonne banhen phailakar mujhe gale se laga liya muththiyan bhar bhar ke anmol ratn meri jebon mein bharne shuru kar diye, jaise bachpan mein meri man rewaDiyon, pinniyon aur chilgozon se meri jeben bhara karti theen kitni pyari hai lahore walon ki boli yahan ye itni tazi aur nikhri nikhri si lagti hai, jaise kheton mein lahlahati sunahri sarson, jaise jharnon se bahta pani! bambai mein mere anekon mitr yahi boli bolte hain, par wahan ye kanon ko kuch basi basi si lagti hai
tanganuma rehaDiyon mein banke ghoDe jotkar sham ko sair ke liye nikalna chhailon ka khas shauq hai malmal ka safed kurta ya fatui, tahmad aur hathon mein phulon ke gajre kitne hasin gore gore aur shohde shohde se chehre hain inke yoon palak jhapakne mein nikal jate hain (dost ki motor hai nahin to abhi gali de deta!) wo nikal gaya! kitna khubsurat jawan tha! itna khubsurat adami to duniya mein kam hi dekhne ko milega
warisshah ki baat yaad aa gai ha
nazan palia dudh malaian we 3
man ne palta khaya, chhoD bhi yar, ye to musalman hain, ghair mulki hain! kitne hindu mar chuke hain, kitna aag lagai hain, kitni aurton ki aabru luti hai, kaise bhool gaya we sab baten?
achchha, theek hai! ab main inko ghair samajh ke hi dekhuga par hay, karun to kya karun? ye phir bhi musalman nahin dikhte, ghair nahin lagte—jo kukarm jisne kiye hain swayan hi unka hisab dega, mujhe to kisine nyayadhish nahin banaya?
baghwan pure mein achchhi khasi nai abadi hai baDhiya baDhiya aur pakke pakke bangle hain, awagaman bhi bahut hai par purane design ke lahauri tange nazar nahin aa rahe Draiwar ne bataya ki ab har jagah peshawari tangon ka chalan ho gaya hai pinDi mein kewal teen swariyan baithti theen, yahan ab bhi chaar hi ka dastur hai hum pinDi wale lahauri tangon ko dichku dichku kahkar mazaq kiya karte the akhir pinDi ki jeet hui n! baDi khushi hui soch ke par dusre din phir man mein wahi wichar uth paDen pinDi aur lahore se tujhe kya lena? khwah makhwah parai chhachh par muchhe munDawa raha hai
chalo ji, main begana to begana sahi par pinDi aur lahore ko yahan, ke tangon ko ji bhar ke dekhne ki to chhoot hai na mujhe! sada salamat rahen ye inhen kabhi garm hawa na lage inki muraden puri hon inke bachche jiyen
ye sikh neshnal college ki imarat thi is hisab se wo nai nahr ki taraf se anewali saDak han, theek hi to hai yahin pas mein peer miyan meer ka mazar hai, jisne amaritsar mein sikhon ke sone ke hari mandir ki neenw ka patthar rakha tha darashikoh ka guru tha wo darashikoh, jisne upanishdon ke anuwad farsi mein karwaye the par ab aisi aitihasik ghatnaon ka koi arth nahin nikalta
shalimar bagh ja pahunche, jahan pachchis sal pahle mainne cigarette pi thi, aur khanste khanste mera bura haal ho gaya tha main aur mera ek pyara dost saikilon par sawar hote aur yunhi bematlab shalimar ki or nikal paDte the dil mein kuch is tarah ki dabi dabi ashayen hua karti theen ki aaj zarur koi hasina milegi, meri or mad bhari nazron se dekhegi, phir hamari dosti ho jayegi aur jiwan mein koi unmad bhari lahr ayegi par sham tak hamare sare mahl Dah jate the siwaye bematlab chakkar lagane ke, phati phati nazron se charon or dekhne ke, aur cigarette phoonk phunkakar jantalamaini dikhane ke liye aur kuch hath nahin lagta tha han, barah meel cycle par pair marne se bhookh zarur tez ho jati thi, jise shant karne ke liye kabhi stifalz aur kabhi laureng ja pahunchte the wahan pahunchte pahunchte soi hui hasarton ke nagh par phir chauk paDte the shayad restaran mein hi koi sundri pratiksha kar rahi ho!
bhawishya ka surya ab atit ke pahaDon ke pichhe ja chhupa tha kewal dhire dhire phiki paDti ja rahi yadon ki lali akash mein rah gai thi kar liye romans jitne karne the, khel liye jitne khel khelne the ab to wo jo kisine kaha−
bazicha e atfal hai duniya mere aage,
hota hai shab o roz tamasha mere aage
Daktar nazir ahmad ne mujhe mere khayal par chhoD diya hai chay mangate hain chupchap saru ke ek peD ke niche ghas par baithkar chuski lete hain sham ki khamoshi ki awazen sunte hain rah rahkar biti baten phulajhaDiyon ki tarah chhoot chhoot paDti hain, jaise aaj yahan chiraghon ka mela laga ho akhir pyar hua bhi to tha ek laDki se, sari umr ek usi ke nam ki hi mala japi thi us meharabadar darwaze ke donon or bane aur chhote chhote chabutron par khaDe hokar hamne bari bari se ek dusre ke photo khinche ye uske sare pariwar ko shalimar ki picnic ke liye kis tarah eDi se choti tak ka zor lagakar prerit karta tha kitne niwedan kitni rajaniti kitni minnten
pure josh kharosh se isi darwaze mein se hokar kabhi ganw ke log chiraghon ke mel ki raunaq dekhne aate honge wahan, us jagah par badashah baithta hoga talab ke donon kinaron par bani barahadariyon mein se charagon aur fawwaron ki jhilmil mein apne zara libason ko ghaltan karte hue gitakar, nartak aur nartakiyan chalkar huzur ke rubaru pesh hote honge aur apni kalayen dikhate honge !
phir man mein wahi betuke wichar sir uthane lage lahaurwala shahajhan wastaw mein pakistani tha, agrewala shahajhan hindustani tha par nahin bar bar aisi kasak aur timen nahin uthne dena chahiye rajaniti ke danw pechon se mera kya wasta? main ek mehman hoon, Daktar nazir mere mezban hain is prakar ke parashn dil mein uthana hi shishtata se bahar ki baat hai ye chahe kitna bhi mujhe pyara kyon na ho, phir bhi ab ye shalimar paraya hai is hisab se Daktar nazir bhi paraye hain par kyon bar bar unse puchhne ka ji chahta hai, nazir sahab, apaki aur meri mulaqat bahut purani nahin pichhle sal, jab aap bambari aaye the tabhi to pahli bar aapse mila tha phir aapke pas baithkar mujhe itna sukun, kyon milta hai, jo bambari mein mere liye nayab hai?’ abhi nahin, par puchhungi awashy doctor nazir nissandeh ek asadharan wekti hain
phir bahar aakar motor mein baithte samay ek adheD si bhikharan, ungli pakDe ek aath warsh ki bachchi, kafi maile, phate purane kapDe, hath phailakar giDagiDari, “bhaiya jite raho, kabhi tatti wahi na lage allah teri muraden puri kare, iqbaal baDhaye, tere bachche jiyen ”
ye kambakht ankhen kyon chu chu paDti hai ye aurat meri kya lagti hai? ye pakistani, main hindustani
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1 mitana 2 khilana
3 doodh malai aur nazon se pala hai
dilli, 6 aktubar, 1962
pakistan ki sair ka program banate samay ye dhyan nahin aaya ki uska prabhaw meri buDhi man par kya paDega! unhen mera wahan jana bilkul pasand nahin main kahta hoon, mata ji, zara sochiye to sahi, main pinDi jaunga, bhera jaunga, apne purane ghar dekhunga, bachpan ke doston se milunga
ab kahan ki dosti aur kahan ke ghar bar! un sthanon se ab hamara kya nata rah gaya hai?
wo to theek hai, par sair sapata karne mein kya harj hai?
tu to beta, sair sapate mein laga rahega aur beech mein meri jaan tangi rahegi baDe moorkh log hain we unka kya bharosa?
nahin, we sab baten khatm ho gai hain ab to roz hi log aate jate hain ratti masha bhi koi khatra nahin hai achchha lo, tumhein fir chintan ho isliye main har dusre tisre din tar bhej diya karunga
chal to paDa ghar se magar mataji ka chehra murjhaya hua tha mera maza aadha rah gaya mujhe malum tha ki mere lautne ki ghaDi tak unhen sukh duःkh ki chint lagi rahegi
dilli station ke pletfarm par baDi der tak bhatakne ke baad pata chala ki pakistan wala Dibba gaDi ke bilkul akhir mein laga hua hai us Dibbe tak pahuncha to dil baith gaya baDa hi ganda tha aisa laga jaise pakistan ki sawariyon ke sath achhuton ka sa wywahar kiya gaya ho, jaise unke sath milte hi main bhi apne deshwasiyon se alag kar diya gaya hoon baithe hue dil se mainne saman bhitar rakhwaya aur kuli ko wida kar diya
achchha, jo hoga dekha jayega, ab to okhli mein sir diya hi hai uparwali berth par ek yatri ka bistar bichha hua tha, par wo kahin gaya hua tha na jane kaisa adami hoga? na jane uske sath kaisi nibhegi? Dibbe ke asapas film ektar ko dekhne ke liye bheeD jama ho jati hai aaj ek adami bhi qarib nahin phatka, jaise pakistan jana koi bahut baDa apradh ho
Dibbe ki khasta haalat dekhkar phir duःkh hua kharab Dibbe lagane ka arth agar pakistaniyon ka apman karna hai to isse apne desh ka bhi to apman hota hai jab ye Dibba lahore pahunchega to wahan ke log hamari relwez ke bare mein kaisi dharnayen banayenge? paraye desh ko janewale Dibbe to wisheshrup se taDak bhaDakwale hone chahi jisse rob paDe!
mera sathi aa gaya pakka rang, khoob qaddawar aur bhara bhara jism chatak kaleji rang ki tahmad bandhe hue usko dekhkar main ghabra sa gaya, aur apni rakhsha ke liye sachet rahne ki sochi baDa kattar pakistani lag raha tha par baad ko sheeghr hi pata chal gaya ki we hindu sajjan hain aur kewal jalandhar tak ja rahe hain bolachal jila shahpur ki thi, jo mera apna pushtaini watan hai main bhere ka aur we sargodha ke nikle baDe mauji tabiyat ke wekti the raat kafi der tak unse baten hoti rahin we punarwas wibhag ke afsar hain pakistan ke kai chakkar laga chuke hain
dilli se gaDi chalne se pahle hi hum donon kafi ghul mil gaye Dibbe ke bahar darshkon ki bheeD bhi hamesha ki tarah hi ho gai thi shuru shuru mein mujhmen bhay paida hone ke karan bhram ke siway aur kuch nahin tha jaise bhram paida hua waise hi mar bhi gaya Dibbe ko sabse pichhe joDne ka karan kewal ye tha ki amaritsar pahunchakar use asani se katkar dusre pletfarm par le jaya ja sake Dibbe ke ghatiya hone ka bhi is mitr ne karan bataya ye Dibba wastaw mein us gaDi ka bhag hai jo kewal amaritsar aur lahore ke beech chalti hai kewal tees meel ki duri hone ke karan hamari relwez ko achchha injan ya achchhe Dibba lagane mein koi labh nahin pakistan se amaritsar pahunchte hi adhiktar yatri dilli, kalkatta, bambai aadi door door ke sthanon ke liye tez raftar gaDiyon mein sawar ho jate hain ismen bhed bhaw ki koi baat nahin ye sewa bhi kewal bharat hi karta hai pakistan ki koi gaDi sarhad par karke idhar nahin aati
mere sahyatri ne mujhe wishwas dilaya ki meri pakistani yatra baDi manoranjak hogi mehman nawazi un logon mein khatm ho gai hai, unhonne kaha, par aapko sir ankhon par lenge aur kisi prakar ka aapko koi khatra bhi nahin hai, apni marzi se jahan chahen ja sakenge batachit zara soch samajhkar kijiyega khufiya police apaki har gatiwidhi par nazar rakhegi
batachit ke dauran we baDi der tak chup ho jate the, jaise pakistaniyon ke wishay mein puri tarah ray na nirdharit kar sake hon ya shayad unhen wahan ki apni koi yatra yaad aa rahi ho ek or we dil kholkar prshansa karte the to ninda bhi achchhi khasi karte “ho aiye, aap khu hi sab kuch dekh lenge is bar to aapko khoob maza ayega, par dobara jane ko shayad dil na chahe
baDe hi milansar aur wicharawan sajjan the mujhe gahri neend mein sota dekhkar chupchap kisi idhar ke hi station par utar gaye the, jisse subah taDke hath munh aadi dhone se meri neend mein wij na paDe par jab gaDi jalandhar pahunchi tab main jag chuka tha ye dekhkar we mujhe baDe prem se namaskar karne aaye aur apne hath mein liya hua upanyas mujhe bhent kar gaye
10 october, 1962
jab gaDi jalandhar station se chali to kambal mein sir munh lapetkar thoDi der aur so lene ko ji chaha gaDi ke safar mein ye subah subah ki neend sachmuch baDi pyari hoti hai
man mein pakistan yatra ki saphalta ki pararthna karte waqt ye panktiyan ubhar i ha
bhukhan lai ke chalian raba lahwin,1
asan di tahini te phul khiDawi 2
ghair mulkiye ho gaye mere watani,
hor unhan noon nan hun gair banawin
saDhe aath baje gaDi amaritsar station par pahunchi makanon ki diwaron par urdu aur gurumukhi mein ajib ajib wigyapan likhe hue the ek mein to baDi lalkar thi, ainak toD surma lahore shahr ki diwaron par pata nahin kaise kaise wigyapan paDhne ko milenge? pichhli bar lahore ka station tab dekha tha jab diwaren gir rahi theen, aag jal rahi thee!
gaDi rukte hi thaila latkaye ek adami, jiska libas baniyon sa aur ankhen Dakuon jaisi theen, bharatiy paise pakistani paison mein badalne ke liye aa pahuncha
sarmayedari nizam mein har adami ki antratma beiman ho jati hai meri jeb mein kul milakar 110 rupae the yadi sabke sab badalwa loon to sambhaw hai kastamwale mujhe sabhi paise le jane den waise to pachhattar rupae hi desh ke bahar le jane ki aagya hai mainne sau ka not use pakDaya aur apne lalach ki tasdiq karne ke liye puchha, kya pachhattar hi ?
han ji, aur hum aapko kaun se ziyada denge usne baat katte hue 25 rupae ke bharatiy not aur shesh dhan pakistani noton mein jaldi jaldi gin diya aur chalta bana uski is phurti ne mujhe sakte mein Dal diya na jane kaun adami tha kaun nahin? na jane asli not diye hain ki naqli? bhala mujhe ek anjan adami se sauda karne ki kya jaldi thee? ab agar wo jali not thama gaya ho to main kya karunga? aur lahore pahunchakar kya hoga? bambai se chalte waqt Da० nazir ahmad ko, jinhonne mujhe pakistan aane ka nimantran diya tha, tar awashy de diya tha aur dilli se chalne se pahle unka uttar bhi aa gaya tha phir bhi jate hi unse paise to nahin mange ja sakte kya malum unhonne mere thaharne ka prbandh kisi hotel mein kiya ho? aur mujhe khu par ghussa aane laga bekayada kaam karne ka mujhe lobh hi kyon hua? widesh yatra ka itna anubhaw hote hue bhi main kaise bhool gaya ki sarhadi paDawon par kai prakar ki chaar sau bisen hoti hain aur chaar sau bisi karnewalon ko shah hi logon ke dilon mein chhipe lobh se milti hai itne mein ek railway karmachari mujhe pahchankar mere pas aa gaya mainne usse us adami ke bare mein puchha usne bataya ki khas khas logon ko hi naqdi badalne ka theka mila hua hai, aur mainne koi nawajib baat nahin ki ek aur bhram door ho gaya
pletfarm par bahut se log kele kharid rahe the pakistan mein achchhi qim ka kela nahin hota, phir yahan bhaw aath aane darjan hai aur lahore mein teen rupae darjan! mainne bhi panch darjan kharidkar tokari mein rakhwa liye apne mezban ke liye saugat ka kaam denge
Dibba baghalwale pletfarm par pakistan janewali gaDi se joD diya gaya watawarn phir kuch ukhDa ukhDa aur banawati banawati sa laga sarhadi jaghon par police aur custam ke afasron ki bahulta ke karan achanak aisa anubhaw hona swabhawik bhi hai
film abhineta hone par jahan bahut si pareshaniyan hain wahan labh bhi kam nahin hai sabse baDa labh ye hai ki har koi madad baDe chaw se aur begharz hokar karta hai mujhe khaki wardi wale afasron ne baDe prem se apne pas baitha liya aur kaha, aap apne saman ki chinta na karen Dibbe mein hi hum uski jaanch kar lenge
DeDh ghanta main wahan baitha raha aur unka kary pranali dekhta raha unka kaam baDi sirdardi ka hai aur Dayuti lambi hai pakistan janewali swariyan ziyada se ziyada kapDa bharat se le jane ka prayatn karti hain, kyonki yahan se wahan mahnga hai
ek baDa banka musalman yuwak mere pas baithe afsar ko khush karne ki baDe chust Dhang se koshish kar raha tha wo silk ki nili kori tahmad bandhe hai, jisko wo nishchay hi pakistan pahunchakar bech dega das barah aur chadren uske saman mein hai afsar ne panch maf kar di hain par wo teen aur bina tax diye le jana chahta hai kabhi hath joDta hai, kabhi afsar ke pair dabane lagta hai merath ki taraf ka adami hai shayad baal baDi achchhi tarah kaDhe hue hain, munh mein pan, boski ki qamiz, button khule hue! uska wywahar ek sughaD widushak abhineta sa hai akhir jab uska saman pas ho gaya to usne apni jeb se sugandhit churuton ka packet nikala aur churut bantne shuru kar diye koi bhi unhen, lene ko taiyar nahin tha par wo zabardasti hum logon ki jebon mein ek ek churut chhoD gaya, kisi aur ko pila dena! jangle ke par jakar usne apna saman gaDi mein rakhwaya aur phir aakar jangle ke pas khaDa ho gaya uski ankhon mein apnepan ki bhawna thi, jaise kah rahi hon, tumhein kaise samjhaun ki main tumhara apna hi adami hoon bharatiy hone ka mujhe utna hi abhiman hai jitna tumhein mujhe apne se alag mat samjho!
uska aadha pariwar pakistan mein hai aur aadha hindustan mein apne kisi sambandhi ke byah mein wo kuch dinon ke liye lahore ja raha hai afasron ne mujhe bataya ki is gaDi ke yatriyon mein baDi sankhya aise hi logon ki hoti hai
gaDi chhuti to meri ankhen sarhad ki pratiksha mein chauDi hone lagin ek sikyoriti afsar mere sath aakar baith gaya tha ye gaDi ko sarhad tak pahunchakar utar jayega sarhad ki dusri or pakistani afsar uski jagah le lega
atari station par gaDi ka Draiwar aur fayarmain mujhe liwane aa gaye mujhe unke injan mein baithkar sarhad ki jhanki dekhne ka nimantran diya gaya tha ye kaisi jhanki hogi? kya donon taraf police aur fauj ka pahra hoga? kya koi kantedar tar bichhaye gaye honge? ye tar kitni door tak bichhaye gaye honge? injan tange mein jute buDhe ghoDe ki tarah hachkole khata chal raha tha donon or wishal marusthal sa dikhai paD raha tha achanak ek peD ke niche kuch sipahi lete hue aram karte dikhai diye tabhi Draiwar ne kaha, bus ji, yahi had hai aur thoDi der baad main kheton mein musalman kisanon, unki aurton aur bachchon ko dekh raha tha
ab main pakistan mein tha, musalmanon ke desh mein, ek ghairmulk mein par ye manushya to mainne pahle bhi dekhe the ye to mere liye na nae hain na paraye inmen kaun si anokhi baat dekhne ki mujhmen itni utsukta thee? han, ek antar awashy tha, kahin bhi koi sikh sardar nazar nahin paD raha tha
pakistan ka pahla station wagha aa gaya gaDi ruki main pletfarm par utra thoDa tahalkar jab apne Dibbe ki taraf wapas ja raha tha, ek safed daDhiwale wriddh yatri ne khiDki se latakkar mujhse hath milaya, phir kaha, balraj sahani sahab, chand alfaz is nachiz se bhi sunte jaiye meri umr ke adami ko filmen dekhne ka bahut kam shauq hota hai, magar apaki filmen main hamesha dekhta hoon, aur mujhe aapko dekhkar jo musarrat hui hai main byan nahin kar sakta aap insani jazbat ko haqiqat banakar pesh karte hain apaki filmen akhlaqi aur tamadduni etibar se bahut buland hoti hain aapse darkhwast hai ki apne insani meyar ko kabhi mat chhoDiyega allah aapko har nemat se mala mal kare
main us wriddh ki or dekhta hi rah gaya mere munh se ek shabd bhi nahin nikal saka par jab apne Dibbe mein pahuncha to mere bhitar jazbaton ka tufan sa umaD raha tha
Dibbe mein theth lahauri zaban bolnewale pakistani sikyoriti afsar aa gaye the gaDi mein yahi ek first class ka Dibba tha, isliye afsar yahin aakar baithte the tees ek sal ki umr thi, dekhne mein sundar, gore chitte unhonne mera passport dekha, ek farm bharne ko diya unke andaz se mujh saf lag raha tha ki we mere nam se parichit hain, par is baat par wishwas karna nahin chahte ek baat se mujhe baDi khushi hui ki unhonne mere sath angrezi ya urdu mein bolne ki cheshta nahin ki unke sath panjabi mein batachit karke mujhe baDa anand aa raha tha, aur pardesi hone ka ehsas ghatta ja raha tha
“lahore mein aap kahan thahrenge? unhonne puchha
mainne baDe shauq se unko apni jeb ke ek tar nikalkar dikhaya jo mujhe amaritsar se chalne ke kuch der poorw mila tha, aur jisne meri sari chintayen door kar di theen
kripa karke hindustani musafi balraj sahani se miliye aur unse kahiye ki we gawarnment college, lahore ke prinsipal ke yahan thahrenge —Da० nazir ahmad” gaDi ruki to utarne se pahle mainne khiDki mein se jhankakar lahore station ki burjiyon ki or dekha mujhe lahore kabhi bhi ziyada yaad nahin aata tha adhiktar rawalpinDi ke liye hi ji taDapta tha iske kai karan the ek to main bachpan se wahan ke pahaD dekhne ka aadi tha jab pinDi chhoDkar gawarnment college, lahore ke new hostel mein pahuncha to uski chhat par se kisi or bhi koi parwat shrrinkhla na dekhkar mujhe aisa laga tha jaise prakrti ke kisi bahut baDe niyam ka ullanghan ho gaya ho
phir pinDi ek chhota shahr tha wahan angrezi rajy ki kutilnitiyan lok jiwan par puri tarah se hawi nahin hui theen muhalledariyan aur biradri ke mel milap prachalit the, dostiyon mein snigdhata aur mithas thi sharafat ki qadr ki jati thi firqaprasti ka zahrila paudha awashy baDh raha tha par mazbut abhi nahin ho saka tha par lahore kendriy shahr hone ke karan nae faishan ki sabhyata ke rang mein rang chuka tha yahan paise aur asar rasukh ke adarshon ne purane Dhang ke riwaj ekdam khatm kar diye the jaise bhi ho aage baDhne ke liye har prakar ke hile, achchhe ya bure, jayaz pramanait kiye ja chuke the aur isiliye main lahore ko kabhi bhi apna nahin kah saka par aaj lahore station ke burj dekhkar pata nahin mujhe kya ho gaya aisa laga jaise unke liye meri aatma yug yug se taras rahi thi bhitar ke kisi Dhanke sote mein se pyar aur aadar phoot paDa phutborD se niche pair rakhne se pahle mainne hath se dharti ko parnam kiya
Da० najir ahnad (gawarnment kalej, lahore ke prinsipal) mujhe lene ke liye uniwersity ki ek awashyak miting se uthkar aa gaye the unke rasukh ne custam, passport ki kathin ghatiyan miniton mein par karwa dee; yahi nahin afasron ne baDe aadar se mujhe chay bhi pilai Da० najir ahmad baDe santusht the ki unke pahun ko saman waghaira kholne ka kasht nahin uthana paDa, par main is utawli se zara bhi santusht nahin tha mera dil ek bar phir pletfarm par jakar ghumne ko machal raha tha
sham ke chaar baje hai main kafi der tak so chuka hoon badan mein tazgi aa gai hai ji chahta hai abhi saDkon par nikal paDun gawarnment college ke tower ki wahi purani ghaDi tan tan karti hai shayad gyarah bajaye hain usne wahi purani beparwahi uski, jiske bare mein tarah tarah ke latife gaDhe jate the ajib si jhanajhnahat hoti hai uski tan tan sunkar koi bhi yaad aspasht nahin ho rahi thi kewal ek gahra ehsas, ek santwna si, jaise tez kaDkaDati dhoop se door door tak uDane bharkar lauta hua bhukha pyasa pakshi ghonsle ka anand le raha ho door se tangon ki ghantiyan, college ke samne phal bechnewalon ki awajen
jis bangle mein main thahra tha, purane waqton mein wo ji०d०saundhi sahab ki rihaishgah thi wahi halki halki raushniwale thanDe thanDe kamre, jalidar aur darwaze ghusalkhane mein tauliya phailane wala rack ye sab kuch bhawani jankshan film mein baDi yatharthta purwak dikhlaya gaya tha waise film baDi ghatiya thi, phir bhi bambai ke cinema hall mein baitha baitha aaj se das sal pahle, main lahore ke liye taDap utha tha
hamare samay mein in banglon mein ghuste hue tange kanpne lagti theen profesron ka baDa dhamakedar angrezi Dar hota tha par ajkal ye baat nahin rahi bahar se ghanti bajte hi Da० nazir ahmad khu dauDkar bahar jate hain, koi darban nahin hai, koi wardiwala pahredar nahin hai nazir sahab ne mujhe apna sonewala kamra de diya hai usmen kapDon ki almari na hone ka unhen khed tha kahne lage, yar, mere pas warDrob nahin hai, tumhein taklif hogi darasal mere pas itne kapDe hi nahin hai agar tujhe zarurat ho to takalluf mat karna main mangwa dunga kitna achchha laga tha mujhe ye sunkar main kabhi kalpana bhi nahin kar sakta tha ki gawarnment kalej, lahore ka prinspal aisa bhi ho sakta hai
Da० najir kamre mein aaye aur kaha, “ao, bahar lawn mein baith ke chay piyen unke kahne ke andaz mein koi wisheshata nahin hai, phir bhi aisa laga jaise meri ichchhaon ko mere bina kahe hi samajhte hon aur shayad isiliye chay ke baad mujhe motor mein bithakar ghumane nikal paDe zila kachahriwale moD par se hum rawi roD par muDe gawarnment college ke phatak ke pas ek meel patthar hua karta tha new hostel ke saDak par karke college jate hue main aksar us par nigah phenkkar jaya karta tha rawalpinDi 178 meel, gujranwala 26 meel, jehlam 117meel ab is meel ke patthar ka sharir baDhkar chauguna ho gaya hai, aur uspar kitni hi aur dariyon ka wiwarn likha hua haih karachi 867 meel, multan 263 ye nikal gai central trening college ki or janewali saDak! isi or raitigan roD aur mere phuphaji ka ghar tha unke pas hi professor ruchiram rahte the shayad parasiyon ka ek mandir bhi tha, jiske baghal ki gali mein se hokar professor gulabharsinh aur professor madangopalsinh ke yahan jaya karte the ye bhati ki or se anewali saDak mil gai ye gurudatt bhawan aa gaya dekhen to sahi, ab yahan kya board laga hai? Draiwar motor itni tez kyon bhagaye liye ja raha hai?
college ke zamane mein rawi roD ki sair cycle ya tange par kiya karte the aaj ye motor berahmi se dimagh mein jugrafiya badalti ja rahi hai jo sthan meri kalpana mein dar dar the ab we chappe chappe ke andar par aa gaye the palak jhapakne mein jama masjid ke alishan gumbad dikh gaye phir manto park ise ab muhammad iqbaal park kahte hain lahore ki taswir ekdam saral aur sankshipt ho gai hai gol bagh ki golai baDe numaishi Dhang se shahr ke gird ghoom rahi thi guru arjundew ki samadhi, maharaja ranjit sinh ki samadhi, purana qila, sare sthanon ke chitr phir se dimagh mein jaDe bhala widyarthi jiwan mein is or aata hi kab tha? tab main sahab bahadur tha goron ki tarah sola hat lagaye mal roD aur maikloD roD ko hi napa karta tha bahut hua to kabhi nisbat roD ka raunD mar liya par ab ke ekdam deshi adami bankar lahore ki galiyon ke chakkar lagaunga! shahr ki fasi mein uchi si Dhaki par ek purana darwaza dikhai paDa (nam bhool gaya! qabli darwaza?) mujhe shahr ki or lalchai nazren phenkte dekhkar Da० nazir ne tajwiz pesh ki ki is darwaze ke pichhe ek tang gali mein, unka pushtaini makan hai, chalkar ek raat wahan raha jaye kitna khush hua main is baat par! pakistan aane ka sabse baDa lobh hi mujhe yahi tha (ji bharkar) apni panjabi boli sunna majhi, lahindi, pothohari, meri apni matri boliyan jinse mainne apni aayu ka itna baDa bhag wimukh rahkar bita diya tha kitna baDa gunah kiya tha mainne par phir bhi unhonne mujhe nahin bisraya mujhe pachhtate aur apni or laut ke aate dekhkar unhonne banhen phailakar mujhe gale se laga liya muththiyan bhar bhar ke anmol ratn meri jebon mein bharne shuru kar diye, jaise bachpan mein meri man rewaDiyon, pinniyon aur chilgozon se meri jeben bhara karti theen kitni pyari hai lahore walon ki boli yahan ye itni tazi aur nikhri nikhri si lagti hai, jaise kheton mein lahlahati sunahri sarson, jaise jharnon se bahta pani! bambai mein mere anekon mitr yahi boli bolte hain, par wahan ye kanon ko kuch basi basi si lagti hai
tanganuma rehaDiyon mein banke ghoDe jotkar sham ko sair ke liye nikalna chhailon ka khas shauq hai malmal ka safed kurta ya fatui, tahmad aur hathon mein phulon ke gajre kitne hasin gore gore aur shohde shohde se chehre hain inke yoon palak jhapakne mein nikal jate hain (dost ki motor hai nahin to abhi gali de deta!) wo nikal gaya! kitna khubsurat jawan tha! itna khubsurat adami to duniya mein kam hi dekhne ko milega
warisshah ki baat yaad aa gai ha
nazan palia dudh malaian we 3
man ne palta khaya, chhoD bhi yar, ye to musalman hain, ghair mulki hain! kitne hindu mar chuke hain, kitna aag lagai hain, kitni aurton ki aabru luti hai, kaise bhool gaya we sab baten?
achchha, theek hai! ab main inko ghair samajh ke hi dekhuga par hay, karun to kya karun? ye phir bhi musalman nahin dikhte, ghair nahin lagte—jo kukarm jisne kiye hain swayan hi unka hisab dega, mujhe to kisine nyayadhish nahin banaya?
baghwan pure mein achchhi khasi nai abadi hai baDhiya baDhiya aur pakke pakke bangle hain, awagaman bhi bahut hai par purane design ke lahauri tange nazar nahin aa rahe Draiwar ne bataya ki ab har jagah peshawari tangon ka chalan ho gaya hai pinDi mein kewal teen swariyan baithti theen, yahan ab bhi chaar hi ka dastur hai hum pinDi wale lahauri tangon ko dichku dichku kahkar mazaq kiya karte the akhir pinDi ki jeet hui n! baDi khushi hui soch ke par dusre din phir man mein wahi wichar uth paDen pinDi aur lahore se tujhe kya lena? khwah makhwah parai chhachh par muchhe munDawa raha hai
chalo ji, main begana to begana sahi par pinDi aur lahore ko yahan, ke tangon ko ji bhar ke dekhne ki to chhoot hai na mujhe! sada salamat rahen ye inhen kabhi garm hawa na lage inki muraden puri hon inke bachche jiyen
ye sikh neshnal college ki imarat thi is hisab se wo nai nahr ki taraf se anewali saDak han, theek hi to hai yahin pas mein peer miyan meer ka mazar hai, jisne amaritsar mein sikhon ke sone ke hari mandir ki neenw ka patthar rakha tha darashikoh ka guru tha wo darashikoh, jisne upanishdon ke anuwad farsi mein karwaye the par ab aisi aitihasik ghatnaon ka koi arth nahin nikalta
shalimar bagh ja pahunche, jahan pachchis sal pahle mainne cigarette pi thi, aur khanste khanste mera bura haal ho gaya tha main aur mera ek pyara dost saikilon par sawar hote aur yunhi bematlab shalimar ki or nikal paDte the dil mein kuch is tarah ki dabi dabi ashayen hua karti theen ki aaj zarur koi hasina milegi, meri or mad bhari nazron se dekhegi, phir hamari dosti ho jayegi aur jiwan mein koi unmad bhari lahr ayegi par sham tak hamare sare mahl Dah jate the siwaye bematlab chakkar lagane ke, phati phati nazron se charon or dekhne ke, aur cigarette phoonk phunkakar jantalamaini dikhane ke liye aur kuch hath nahin lagta tha han, barah meel cycle par pair marne se bhookh zarur tez ho jati thi, jise shant karne ke liye kabhi stifalz aur kabhi laureng ja pahunchte the wahan pahunchte pahunchte soi hui hasarton ke nagh par phir chauk paDte the shayad restaran mein hi koi sundri pratiksha kar rahi ho!
bhawishya ka surya ab atit ke pahaDon ke pichhe ja chhupa tha kewal dhire dhire phiki paDti ja rahi yadon ki lali akash mein rah gai thi kar liye romans jitne karne the, khel liye jitne khel khelne the ab to wo jo kisine kaha−
bazicha e atfal hai duniya mere aage,
hota hai shab o roz tamasha mere aage
Daktar nazir ahmad ne mujhe mere khayal par chhoD diya hai chay mangate hain chupchap saru ke ek peD ke niche ghas par baithkar chuski lete hain sham ki khamoshi ki awazen sunte hain rah rahkar biti baten phulajhaDiyon ki tarah chhoot chhoot paDti hain, jaise aaj yahan chiraghon ka mela laga ho akhir pyar hua bhi to tha ek laDki se, sari umr ek usi ke nam ki hi mala japi thi us meharabadar darwaze ke donon or bane aur chhote chhote chabutron par khaDe hokar hamne bari bari se ek dusre ke photo khinche ye uske sare pariwar ko shalimar ki picnic ke liye kis tarah eDi se choti tak ka zor lagakar prerit karta tha kitne niwedan kitni rajaniti kitni minnten
pure josh kharosh se isi darwaze mein se hokar kabhi ganw ke log chiraghon ke mel ki raunaq dekhne aate honge wahan, us jagah par badashah baithta hoga talab ke donon kinaron par bani barahadariyon mein se charagon aur fawwaron ki jhilmil mein apne zara libason ko ghaltan karte hue gitakar, nartak aur nartakiyan chalkar huzur ke rubaru pesh hote honge aur apni kalayen dikhate honge !
phir man mein wahi betuke wichar sir uthane lage lahaurwala shahajhan wastaw mein pakistani tha, agrewala shahajhan hindustani tha par nahin bar bar aisi kasak aur timen nahin uthne dena chahiye rajaniti ke danw pechon se mera kya wasta? main ek mehman hoon, Daktar nazir mere mezban hain is prakar ke parashn dil mein uthana hi shishtata se bahar ki baat hai ye chahe kitna bhi mujhe pyara kyon na ho, phir bhi ab ye shalimar paraya hai is hisab se Daktar nazir bhi paraye hain par kyon bar bar unse puchhne ka ji chahta hai, nazir sahab, apaki aur meri mulaqat bahut purani nahin pichhle sal, jab aap bambari aaye the tabhi to pahli bar aapse mila tha phir aapke pas baithkar mujhe itna sukun, kyon milta hai, jo bambari mein mere liye nayab hai?’ abhi nahin, par puchhungi awashy doctor nazir nissandeh ek asadharan wekti hain
phir bahar aakar motor mein baithte samay ek adheD si bhikharan, ungli pakDe ek aath warsh ki bachchi, kafi maile, phate purane kapDe, hath phailakar giDagiDari, “bhaiya jite raho, kabhi tatti wahi na lage allah teri muraden puri kare, iqbaal baDhaye, tere bachche jiyen ”
ye kambakht ankhen kyon chu chu paDti hai ye aurat meri kya lagti hai? ye pakistani, main hindustani
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।