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कोश—एक परिचय

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अज्ञात

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कोश—एक परिचय

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    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    अदृश्य की आड़ के पीछे छिपी हैं कुछ ऐसी सुरंगें, जो अपने गुप्त रास्तों से शब्दों को जन्मकथा तक ले जाती हैं।

    —राजेश जोशी 

    कुछ पढ़ते समय जब किसी शब्द का अर्थ अथवा उसका संदर्भ आपके ज़ेहन में स्पष्ट नहीं होता तब आप क्या करते हैं? ज़ाहिर है आपके मन में फ़ौरन शब्दकोश का ध्यान आता होगा। चंद्रिका भी आपकी तरह परेशान हुई। आइए जानें कि उसकी समस्या कैसे हल हुई।

    पढ़ते-पढ़ते चंद्रिका को ऐसा लगा जैसे स्वादिष्ट भोजन करते हुए दाँतों के बीच अचानक एक कंकड़ी आ फँसी हो। सारा मज़ा किरकिरा हो रहा था। चंद्रिका गर्मी की छुट्टियों के दौरान घर में लेटी किसी और ही दुनिया की सैर कर रही थी लेकिन अचानक वहाँ से वापस लौटना पड़ा। समस्या के समाधान के लिए वह लता दीदी के कमरे में भागी लेकिन वह भी कहीं बाहर गई हुई थी।

    चंद्रिका के लिए अब कोई चारा नहीं था। जिस उपन्यास के काल्पनिक जगत का वह आनंद ले रही थी अब उसे आगे पढ़‌ने की इच्छा नहीं हो रही थी। उपन्यास पढ़ते-पढ़ते खाने में कंकड़ी की तरह एक शब्द अचानक बीच में आकर उसके आनंद में खलल डाल रहा था। शब्द का अर्थ चंद्रिका को पता नहीं था। बग़ैर अर्थ जाने वह आगे बढ़ना नहीं चाहती थी, मानो कोई ब्रेक लग गया हो।

    शब्द था—विदग्ध। यह शब्द उसको मुँह चिढ़ा रहा था और यह पराजय भाव चंद्रिका को स्वीकार्य नहीं था।

    लेटे-लेटे वह इसी शब्द के बारे में सोचने लगी। सोचते-सोचते उसे ऐसा लगा जैसे सामने खिड़की से कोई छाया-सी अंदर आई और उसके सामने खड़ी हो गई।

    अरे! यह तो कोई परी है। चंद्रिका उसे देखकर चौंकी। थोड़ी घबराई भी। मगर तुरंत ही उसने स्वयं को संभाल लिया। साहस बटोर कर उसने परी से पूछा “तुम कौन हो और यहाँ किसलिए आई हो”।

    “मैं चंद्रिका हूँ। शब्दलोक से आई हूँ”।

    “मगर चंद्रिका तो मेरा नाम है”।

    “हाँ! मैंने ही तुम्हें अपना नाम उधार दिया है। घबराना मत। मैं इस बात की कोई फ़ीस या किराया नहीं लेती”, शब्दपरी चंद्रिका हँसते हुए परिहास के स्वर में बोली।

    “और हाँ। मैं तुम्हारी समस्या भी सुलझा सकती हूँ। विदग्ध भी मेरे लोक में ही रहता है। बहुत अच्छा लड़‌का है। मैं उससे तुम्हारी दोस्ती करा दूँगी। इसके बाद वह तुम्हें कभी परेशान नहीं करेगा।”

    चंद्रिका ने शब्दपरी से कहा—”मगर तुम्हारे लोक के जो दूसरे निवासी हैं वे तो मुझे परेशान करते रहेंगे।”

    शब्दपरी बोली—“मैं तुम्हें अपने लोक के सारे रहस्य समझा दूँगी। फिर तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी। मेरे लोक के समस्त निवासी तुम्हारे मित्र बन जाएँगे। चलो मैं तुम्हें अपने लोक में ले चलती हूँ।”

    “मगर मैं चलूँगी कैसे? मेरे पास तो तुम्हारी तरह पंख हैं नहीं।” चंद्रिका ने थोड़ा आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा।

    “चिंता मत करो। मैं तुम्हारे लिए फूलों का रथ लेकर आई हूँ। चली चलते हैं।” चंद्रिका अपनी हमनाम शब्दपरी के साथ फूलों के रथ पर कुछ समय तक उड़ती रही। अब फूलों का रथ एक विशाल नगर के ऊपर था। चद्रिका ने रथ से नीचे देखा। नगर की विशेषता यह थी कि इसमें एक अत्यंत प्रशस्त राजमार्ग था और सारे भवन इस राजमार्ग के एक ही तरफ़ पंक्तिबद्ध रूप में निर्मित थे। राजमार्ग के दूसरी तरफ़ कुछ भी नहीं था।

    “हमारे लोक में नागरिकों को शब्द कहा जाता है। यह एक आदर्श लोकतंत्र है और यहाँ सभी शब्द समान हैं। कोई छोटा-बड़ा नहीं, कहीं ऊँच-नीच नहीं। यहाँ इतनी सुंदर व्यवस्था है कि किसी राजा या शासक की ज़रूरत भी नहीं होती।”

    “कौन-सा शब्द इस राजमार्ग के किनारे कहाँ रहेगा, इस बात पर क्या कोई विवाद नहीं होता?” चंद्रिका ने पूछा।

    शब्दपरी बोली—”हमने इसके लिए नियम निर्धारित कर रखे हैं। हर शब्द अनुशासन का पक्का है। बिना किसी बलप्रयोग के वह अपनी जगह ख़ुद ले लेता है। जब किसी नए शब्द को यहाँ की नागरिकता मिलती है तो वह भी यहाँ के नियमों के आधार पर ही इस राजमार्ग के किनारे अपनी जगह ले लेता है। यहाँ के भवन भी ऐसे हैं कि वे थोड़ा-थोड़ा आगे खिसककर नए शब्द को उसका सही स्थान अपने आप दे देते हैं।”

    चंद्रिका की अगली जिज्ञासा थी “नए शब्दों को आपके लोक की नागरिकता क्या आसानी से मिल जाती है?”

    शब्दपरी ने गर्वभाव से कहा—”नागरिकता के लिए तो हज़ारों शब्द कोशिश करते हैं मगर वह इतनी आसानी से नहीं मिलती। जब तक किसी शब्द और उसके अर्थ या अर्थों को तुम्हारे समाज की मान्यता नहीं मिल जाती तब तक हम अपने लोक में उसे प्रवेश की भी अनुमति नहीं देते, नागरिकता तो दूर की बात है। हमारे लोक की नागरिकता एक बहुत बड़ा सम्मान है, जिसके लिए ‘शब्दों’ को लंबे समय तक कोशिश करनी होती है।”

    हिंदवी
    रथ नीचे उतरा और शब्दलोक के प्रवेश द्वार से होता हुआ राजमार्ग पर धीरे-धीरे चलने लगा। चंद्रिका ने पूछा “शब्दपरी, तुम्हारे लोक की आबादी क्या होगी?”

    “अभी तो हमारे लोक की आबादी लगभग पाँच लाख है। जैसा कि मैंने तुम्हें बताया, हमारे लोक में नए शब्द भी जुड़ते रहते हैं।” 

    शब्दपरी ने आगे कहा—”जिस प्रकार तुम्हारी पृथ्वी पर नए नगरों को योजनाबद्ध ढंग से खंडों और उपखंडों में बाँटा जाता है और फिर हर मकान को एक संख्या प्रदान करते हैं उसी प्रकार हमारे लोक को भी पहले खंडों में बाँटा गया है और फिर उस खंड में हर शब्द के भवन को हमारे नियम के अनुसार क्रमवार व्यवस्थित किया गया है।” चंद्रिका का अगला सवाल था—”यहाँ खंडों का नामकरण कैसे करते हैं?”

    यहाँ खंडों के नाम वर्णमाला के अक्षरों पर रखे गए हैं। जैसे, ‘क खंड’ ‘च खंड’ ‘प खंड’ आदि। इन खंडों का क्रम भी वर्णमाला के अक्षरों के क्रम के ही अनुसार है। हाँ, दो महत्त्वपूर्ण अंतर हैं? 

    “वे क्या?”

    “पहला अंतर तो यह है कि हिंदी वर्णमाला ‘अ’ से शुरू होती है मगर इस लोक का पहला खंड ‘अं खंड’ है। इसके बाद ‘अ खंड’, ‘आ खंड’, ‘इ खंड’ इत्यादि वर्णमाला के क्रम से ही आते हैं।”

    “दूसरा अंतर क्या है?”

    “हिंदी वर्णमाला में संयुक्ताक्षर क्ष, त्र, ज्ञ, श्र वर्णमाला के अंत में आते हैं। लेकिन हमारे शब्द लोक में ये उन वर्षों के अंत्याक्षर के साथ आते हैं।”

    “बात पूरी तरह से समझ में नहीं आई” चंद्रिका ने भोलेपन से कहा। 

    सब समझ जाओगी। बस इस राजमार्ग पर मेरे साथ आगे चलो।

    फूलों का रथ अब राजमार्ग पर चलने लगा। एक ओर प्रकृति का अक्षत सौंदर्य था और दूसरी ओर शब्दों के भवन थे। पहला खंड ‘अं’ खंड था। फिर ‘अ’ खंड, ‘आ’ खंड, ‘इ’ खंड, ‘ई’ खंड आदि एक-एक कर आने लगे।

    स्वर वर्गों से नामित आख़िरी खंड ‘औ’ खंड था। फिर व्यंजन वर्ण से नामित पहला खंड ‘क’ खंड आ गया।

    शब्दपरी बोली—अब व्यंजन वर्षों से नामित खंड शुरू हो रहे हैं। इन खंडों की एक ख़ास बात यह है कि ये उपखंडों में विभाजित हैं। खंड के भीतर के उपखंडों को व्यंजन पर लगी मात्रा द्वारा नामित किया जाता है।”

    चंद्रिका फिर बोल पड़ी, “बात पूरी तरह समझ में नहीं आई।”

    शब्दपरी ने समझाया, हमें व्यंजनों में आवश्यकतानुसार मात्राएँ भी लगानी होती हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए हमें व्यंजन नामित खंडों को मात्राओं के आधार पर उपखंडों में बाँटना होता है। अब ‘क’ खंड की ही बात लो। हम इसके सामने से अभी गुज़र रहे हैं। देखो, पहला उपखंड ‘क’ है। इस उपखंड में ‘क’ से शुरू होने वाले ‘शब्दों’ के भवन हैं। पहले ‘के’ फिर ‘क’ उपखंड, ‘का’ उपखंड इत्यादि एक-एक कर आते जाएँगे।

    रथ आगे बढ़ रहा था। ‘क’ खंड के विभिन्न उपखंड एक-एक कर गुज़रने लगे। ‘क’ ‘क’, ‘का’, ‘कि’, ‘की’, ‘कु’, ‘कू’, ‘के’, ‘के’ और ‘को’ उपखंडों से गुज़रते हुए रथ ‘कौ’ उपखंड तक पहुँच चुका था। तभी चंद्रिका के मन में एक सवाल उठा।

    मेरी हमनाम जी, विभिन्न मात्राओं से नामित उपखंड तो नज़र आए मगर वे सारे शब्द इस लोक में कहाँ निवास करते हैं जहाँ दो व्यंजन मिलकर संयुक्ताक्षर बनाते हैं। अभी हम ‘क’ खंड का नज़ारा देख रहे हैं। मगर ‘क्यारी’, ‘क्रंदन’, ‘क्रीड़ा’ इत्यादि शब्द तो नज़र ही नहीं आए!

    शब्दपरी बोली यह तुमने अच्छा सवाल उठाया। हमारे लोक में इसके भी निश्चित नियम हैं। अब ‘क’ खंड की ही बात लो। ‘कं’ उपखंड से चलते-चलते हम ‘कौ’ उपखंड तक पहुँच चुके हैं। इसके बाद संयुक्ताक्षर का उपखंड शुरू होगा।

    शब्दपरी ने सच ही कहा था। ‘की’ उपखंड के तुरंत बाद ‘क’ उपखंड शुरू हो गया। ‘क्या’. ‘क्यारी’, ‘क्यों’, जैसे शब्द आने लगे।

    ध्यान देने योग्य बातें :-

    . शब्दकोश, शब्दों का ख़ज़ाना है। इसमें एक भाषा-भाषी समुदाय में प्रयुक्त होने वाले शब्दों को संचित किया जाता है। 

    . शब्दकोश में शब्दों की व्युत्पत्ति, स्रोत, लिंग, शब्द-रूप एवं विभिन्न संदर्भपरक अथों के चारे में जानकारी दी जाती है। 

    . हिंदी शब्दकोश में हिंदी वर्णमाला का अनुसरण किया जाता है परंतु अं से प्रारंभ होने वाले शब्द सबसे पहले दिए जाते हैं। 

    . यद्यपि हिंदी वर्णमाला में कुछ संयुक्त व्यंजन सबसे अंत में आते हैं परंतु शब्दकोश में उन्हें उस क्रम में रखा जाता है जिन व्यंजनों से मिलकर वे बने हैं, जैसे क्+ष=क्ष, ज्+र=त्र, श्+र=श्र।

    . स्वर रहित व्यंजन से प्रारंभ होने वाले शब्द उस व्यंजन में इस्तेमाल होने वाले सभी स्वरों के बाद में रखे जाते हैं, जैसे ‘क्या’ शब्द ‘कौस्तुभ’ के बाद ही आएगा।

    शब्दपरी बोल पड़ी, “मैंने तुम्हें कुछ देर पहले बताया था कि ‘क्ष’ ‘त्र’ ‘श्र’ जैसे वर्णों से शुरू होने वाले शब्द इन वर्णों के प्रथमाक्षर के साथ आते हैं।”

    चंद्रिका ने याद करते हुए कहा, “हाँ और आपकी बात मेरी समझ में नहीं आई थी।” शब्दपरी समझाने की मुद्रा में बोली, “देखो, अब ‘क्ष’ का ही उदाहरण लो। यह ‘क’ और ‘ष’ के योग से बना हुआ संयुक्ताक्षर है। इस संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर यानी प्रथमाक्षर ‘क’ है अतः यह इसी उपखंड में आगे जाकर है।”

    रथ की यात्रा जारी थी। चंद्रिका ने ध्यान दिया कि ‘क’ प्रथमाक्षर से शुरू होने वाले शब्द एक-एक कर सामने से गुज़र रहे थे। क्रम वर्णमाला का ही था। हाँ, वे दो नियम भी लागू हो रहे थे, जो शब्दपरी ने शुरू में बताए थे। ‘क’ और ‘य’ से मिलकर बने संयुक्ताक्षरों से शुरू होने वाले शब्दों से आगे बढ़ते हुए दोनों ‘क’ और ‘र’ से बने संयुक्ताक्षर ‘क्र’ से शुरू होने वाले शब्दों के भवन आए। ‘क्रंदन’ और ‘क्रंदित’ के बाद ‘क्र’ का नंबर आया और ‘क्रम’, ‘क्रमशः’ इत्यादि शब्दों के भवन आए। फिर ‘क्रा’, ‘क्रि’ इत्यादि से प्रारंभ होने वाले शब्दों के भवन आते गए।

    ‘क्र’ के बाद ‘क्ल’ एवं ‘क्व’ से शुरू होने वाले शब्द आए। फिर शुरू हुआ ‘क्ष’ से प्रारंभ होने वाले शब्दों के भवनों का सिलसिला। यह इस लोक के नियमों के अनुसार ही था चूँकि ‘क्ष’ संयुक्ताक्षर ‘क’ और ‘प’ से मिलकर बना है अतः इसे ‘क’ और ‘व’ से मिलकर बने ‘क्व’ संयुक्ताक्षर से शुरू होने वाले शब्दों के बाद ही आना था।

    चंद्रिका ख़ुश होकर बोली—” अब बात मेरी समझ में आ गई। इसका अर्थ यह हुआ कि चूँकि ‘त्र’ संयुक्ताक्षर ‘त’ और ‘र’ वर्षों से मिलकर बना है, अतः इससे शुरू होने वाले शब्दों के भवन ‘त’ खंड में नियमानुसार निर्धारित स्थलों पर आएँगे।”

    शब्दपरी प्रशंसा भाव से मुस्कुराई— “हाँ, बिलकुल ठीक। ‘ज्ञ’ संयुक्ताक्षर ‘ज’ और ‘ञ’ वर्णों के संयोग से बना है। अतः इससे प्रारंभ होने वाले शब्दों के भवन ‘ज’ खंड में अपने निर्धारित स्थानों पर आएँगे। ‘श्र’ संयुक्ताक्षर ‘श’ और ‘र’ वर्णों से मिलकर बना है। अतः इससे शुरू होने वाले शब्दों के निवास स्थल ‘श’ खंड में होंगे।”

    रथ चलता जा रहा था। थोड़ी देर में ‘च’ खंड आ गया। इस लोक के नियमों के हिसाब से पहले ‘च’ उपखंड आया। चंद्रिका ख़ुशी से चिल्ला पड़ी। शब्दपरी बोली “लो तुम्हारा उपखंड तो आ गया। तुम्हारा घर तो इसी उपखंड में होगा।”

    “बिलकुल ठीक”—थोड़ी ही देर में इस राजमार्ग के किनारे मेरा घर आने वाला है।” 

    ‘च’ उपखंड में निवास करने वाले शब्दों के भवन एक-एक कर आते जा रहे थे। पहले उन शब्दों के भवन थे जिनका दूसरा वर्ण ‘क’ से शुरू होता था। यानी यहाँ भी नियम वही था जो पहले वर्ण के लिए था।

    धीरे-धीरे उन शब्दों के भवन आए जिनका दूसरा वर्ण ‘द’ था। ‘चंदन’, ‘चंदेल’ इत्यादि शब्दों के बाद ‘द’ और ‘र’ के संयुक्ताक्षर ‘द्र’ का नंबर आया। इस क्रम का पहला शब्द ‘चंद्र’ था।

    संदर्भ-ग्रंथ :-

    • जिस प्रकार ‘शब्दकोश’ में शब्दों के अर्थ दिए होते हैं उसी प्रकार ‘संदर्भ-ग्रंथों’ में मानव द्वारा संचित ज्ञान को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

    • संदर्भ-ग्रंथ कई प्रकार के होते हैं। संदर्भ ग्रंथ का सबसे विशद रूप 'विश्व ज्ञान कोश' है। इसमें मानव द्वारा संचित हर प्रकार की जानकारी और सूचना का संक्षिप्त संकलन होता है।

    • संदर्भ-ग्रंथों के अन्य महत्त्वपूर्ण प्रकार हैं ‘साहित्य कोश’ और ‘चरित्र कोश साहित्य कोश’ में साहित्यिक विषयों से संबंधित जानकारियाँ संकलित होती हैं। ‘चरित्र कोश’ में साहित्य, संस्कृति, विज्ञान आदि क्षेत्रों के महान व्यक्तियों के व्यक्तित्व और कृतित्त्व के बारे में जानकारी संकलित होती है।

    • संदर्भ-ग्रंथ गागर में सागर के समान हैं। जब भी किसी विषय पर तुरंत जानकारी की आवश्यकता होती है, संदर्भ-ग्रंथ हमारे काम आते हैं।

    • संदर्भ-ग्रंथों में जानकारियों का सिलसिलेवार संकलन 'शब्दकोश' के नियमों के अनुसार ही होता है।

    फिर नियमानुसार इन शब्दों के भवन आए जिनका दूसरा वर्ण ‘द्रा’ था। ‘चंद्रा’ ‘चंद्रायण’ इत्यादि शब्दों के बाद ‘द्रि’ की बारी आते ही नियमानुसार पहले ‘चंद्रिकांबुज’ और फिर ‘चंद्रिका’ का भवन आ गया। भवन के बाहर ‘चंद्रिका’ की पट्टिका को देखकर चंद्रिका का ख़ुशी से उछलना स्वाभाविक था। 

    रथ अब तेज़ी से दौड़ने लगा। थोड़ी ही देर में ‘व’ खंड आ गया। इस खंड के उपखंड एक-एक कर गुज़रने लगे। ‘वि’ उपखंड के आते ही चंद्रिका का उतावलापन बढ़ने लगा। इस लोक के नियमों द्वारा निर्धारित क्रम के अनुसार थोड़ी देर में ‘विदग्ध’ शब्द का भवन भी आ गया। 

    शब्दपरी ने रथ रोका। दोनों रथ से उतरकर भवन के दरवाज़े पर पहुँचे। वहाँ ‘विदग्ध’ की पट्टिका लगी थी। इस पट्टिका के नीचे संगमरमर की एक और बड़ी पट्टिका थी।

    जिज्ञासावश चंद्रिका पट्टिका के सामने रुक गई और लिखी इबारत को पढ़ने लगी। 

    विदग्ध—वि. (सं.) नागर; निपुण; पंडित; रसिक; रसज्ञ; जला हुआ; जठराग्नि से पका हुआ; पचा हुआ; नष्ट; गला हुआ; जो जला या पचा न हो; सुंदर; भद्रतापूर्ण। पु. चतुर या धूर्त आदमी; रसिक; एक घास।

    शब्दपरी बोली, “इस लोक में हर भवन के बाहर यह संगमरमर की पट्टिका होती है जिस पर ‘शब्द’ का परिचय होता है। यह ज़रूरी है कि शब्द से मिलने और मित्रता करने के पहले तुम उसके बारे में पहले से ही जान लो।”

    चंद्रिका ने कहा—”शब्दपरी तुमने शब्द के अर्थ को लेकर तो मेरी समस्या सुलझा दी। मैं देख रही हूँ कि विदग्ध शब्द के कई अर्थ दिए हुए हैं। किसी लेखन में जहाँ जैसा संदर्भ होगा वहाँ वैसा ही अर्थ लागू होगा। मगर एक बात समझ में नहीं आई।”

    “वह क्या?”

    “संगमरमर की पट्टिका पर कुछ संकेताक्षर भी लिखे हैं। उनके अर्थ क्या है?” 

    शब्दपरी बोली—“वि. का अर्थ यह है कि विदग्ध एक विशेषण है। पु. से यह अभिप्राय है यह शब्द पुलिंग है। (सं.) से यह मतलब निकलता है कि विदग्ध संस्कृत का शब्द है।” 

    चंद्रिका अब विदग्ध के बारे में पूरी तरह से जान चुकी थी और उससे मिलने के लिए उत्सुक हो रही थी। शब्दपरी ने द्वार की घंटी बजाई। दरवाज़ा खुलने पर एक सुदर्शन व्यक्ति सामने दिखाई पड़ा। यही विदग्ध था। अपने मेहमानों का स्वागत करते हुए वह उन्हें घर के अंदर ले गया।

    “विदग्ध, यह है पृथ्वी की मेरी हमनाम—चंद्रिका। तुमने इसे बहुत परेशान किया है” शब्दपरी बोली। विदग्ध ने जवाब दिया, “कोई बात नहीं मैं इनसे माफ़ी माँगता हूँ। मगर इस बहाने इन्होंने हमारे लोक को तो देख लिया।” 

    चंद्रिका बोली—“नहीं-नहीं, कोई बात नहीं, सच कहूँ तो वह परेशानी ही वरदान साबित्त हुई।”

    विदग्ध ने कहा—आगे आपको हमारे किसी भी साथी से कोई परेशानी नहीं होगी।” 

    फिर विदग्ध ने एक मोटी पुस्तक निकाली और चंद्रिका को देते हुए बोला, “आप इसे मेरी तरफ़ से उपहार के रूप में रख लीजिए। यह इस लोक की निर्देशिका है। इसे ‘शब्दकोश’ कहते हैं।” 

    चंद्रिका ने इस पुस्तक के पन्ने पलटे। प्रारंभ के दो पृष्ठों पर एक ‘संकेत सूची’ थी। इसमें संगमरमर पट्टिका पर प्रयुक्त होने वाले संकेतों के अर्थ दिए गए थे जैसे ‘पु—पुलिंग’, ‘स्त्री—स्त्रीलिंग’ इत्यादि।

    हिंदवी

    हिंदवी

    इसके बाद ‘अ’, ‘आ’ इत्यादि हर खंड में निवास करने वाले शब्दों की सूची थी। इन शब्दों को इस पुस्तक में ठीक उसी प्रकार सजाया गया था जैसे राजमार्ग के किनारे भवनों को क्रमवार निर्मित किया गया था। वही वर्णमाला क्रम और वे ही दो महत्त्वपूर्ण नियम। लेकिन चंद्रिका ने एक बात और देखी। इस पुस्तक के हर पृष्ठ के शीर्ष पर दो शब्दों का जोड़ा दिया हुआ था। जैसे ‘उत्तरण-उत्थान’, ‘जड़-जन’ आदि।

    “इसका क्या उद्देश्य है?” चंद्रिका ने पूछा।

    विदग्ध बोला, “यह हमारे साथियों की तलाश को आसान बनाता है। हर पृष्ठ के ऊपर दिए गए शब्द युग्म का पहला शब्द उस पृष्ठ का पहला शब्द होता है। दूसरा शब्द पृष्ठ के आख़िरी शब्द को दर्शाता है। इस प्रकार पूरे पृष्ठ पर किसी शब्द को तलाशने की ज़रूरत नहीं होती, शब्द-युग्म को देखकर ही पता चल जाता है कि इस पृष्ठ पर इच्छित शब्द का होना संभव है या नहीं।”

    विदग्ध को चंद्रिका ने धन्यवाद दिया। फिर दोनों बाहर निकले। 

    “चलो मैं तुम्हें वापस छोड़ दूँ”—शब्दपरी ने कहा। 

    फूलों का रथ एक बार फिर हवा में उड़ रहा था। 

    वापसी यात्रा के दौरान चंद्रिका ने देखा कि रथ किसी और लोक के ऊपर से गुज़र रहा है। 

    “यह कौन-सा लोक है?” 

    “जैसे हमारा ‘शब्दलोक’ है वैसे ही इस लोक को विश्वज्ञान लोक कहते हैं।” 

    “हाँ, यहाँ भी वैसा ही राजमार्ग है और वैसे ही मार्ग के एक तरफ़ भवन बने हुए है”—चंद्रिका ने कहा।

    शब्दपरी बोली, “विश्वज्ञान लोक में भी भवनों को उसी प्रकार क्रमवार व्यवस्थित किया गया है जिस प्रकार हमारे शब्दलोक में। अंतर यह है कि हमारे यहाँ ‘शब्द’ निवास करते हैं और इस लोक में ‘जानकारियों’ का निवास है।”

    “क्या मतलब?”

    मतलब यह कि तुम्हें मानव ज्ञान से संबंधित जो भी सूचना या जानकारी चाहिए वह इस लोक के निवासियों से मिल जाएगी। शब्दपरी आगे बोली, “इस लोक की निर्देशिका विश्वज्ञान कोश के नाम से जानी जाती है।”

    चंद्रिका यह जानकर बड़ी ख़ुश हुई। अब जब उसे किसी विषय पर संक्षिप्त जानकारी की ज़रूरत होगी तो उसे ज़्यादा भटकना नहीं पड़ेगा। एक ही स्थान पर उसे हर विषय की संक्षिप्त जानकारी मिल जाएगी।

    रथ अब किसी अन्य लोक के ऊपर से उड़ रहा था। शब्दपरी बोली, “यह चरित्र-लोक है। यहाँ भी जानकारियाँ ही निवास करती हैं। अंतर यह है कि ये जानकारियाँ विचारकों, साहित्यकारों. वैज्ञानिकों आदि के संक्षिप्त परिचय और उपलब्धियों तक ही सीमित रहती हैं। जानकारियों को क्रमवार रूप से व्यवस्थित करने का नियम हमारी तरह ही है।”

    “यानी जब भी मुझे किसी भी क्षेत्र के महान व्यक्ति के बारे में जानना होगा तो मेरी मदद इस लोक के निवासी करेंगे।”

    “हाँ चंद्रिका, यह भी जान लो कि यहाँ निर्देशिका को व्यक्ति कोश या चरित्र कोश कहते हैं।”

    थोड़ी देर में एक और लोक आया। शब्दपरी ने बताया कि यह ‘साहित्य लोक’ है। यहाँ साहित्य से संबंधित विषयों की जानकारियाँ निवास करती हैं। इस लोक की निर्देशिका साहित्य कोश कही जाती है।

    “मैं समझती हूँ जानकारियों के क्रमबद्ध प्रस्तुतिकरण का नियम इस लोक में भी वही होगा।” 

    “हाँ चाँद्रिका, बिलकुल ठीक”—शब्दपरी बोली। रथ अब पृथ्वी के निकट पहुँच रहा था।

    थोड़ी देर में चंद्रिका का घर आ गया। चंद्रिका को वापस छोड़ने के बाद शब्दपरी फिर छाया में बदल गई और धीरे-धीरे विलीन हो गई। चंद्रिका की अचानक आँख खुली। तो क्या सब कुछ सपना था? मगर सामने तो वही पुस्तक रखी थी। अगर सब कुछ सपना था तो वह पुस्तक आई कहाँ से? इसका रहस्य भी खुल गया। लता दीदी कमरे में आईं। 

    “तुम्हारे जन्मदिन पर मैंने तुम्हें उपहार देने का वायदा किया था। तुम्हारा उपहार सामने है। पढ़ने में तुम्हारी अभिरुचि को देखते हुए मैंने सोचा कि तुम्हारे लिए ‘शब्दकोश’ से बेहतर कोई उपहार नहीं हो सकता।”

    “धन्यवाद दीदी। तुमने मेरे दिल की आवाज़ सुन ली।” फिर वह लता दीदी से लिपट गई।

    हिंदवी

    स्रोत :
    • पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 193)
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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