ऋतु गर्म हो या ठंडी, अच्छी हो या बुरी, इससे अधिक निश्चित बात और कोई न थी कि वह लँगड़ा आदमी शहतूत की टेढ़ी-मेढ़ी छड़ी के सहारे चलता हुआ यहाँ से अवश्य गुज़रेगा। उसके कंधे पर लटकती हुई खपच्चियों की बनी हुई टोकरी में एक फटी-पुरानी बोरी से ढके हुए ग्रोंडसील के बीज पड़े हुए थे। ग्रोंडसील घास की तरह एक छोटा-सा पौधा है, जिसमें पीले रंग के फूल लगते हैं। पालतू पक्षी इसके बीज शौक़ से खाते हैं। खुंबियों के मौसम में वह खुंबियाँ भी अख़बार में लपेटकर टोकरी के अंदर रख लेता है। उसका चेहरा सपाट व मज़बूत था। उसकी लाल दाढ़ी की रंगत भूरी होती जा रही थी और झुर्रियों भरे चेहरे से उदासी टपकती थी, क्योंकि उसकी टाँग में हर समय टीसें उठती थीं। एक दुर्घटना में उसकी यह टाँग कट गई थी और अब सही-सलामत टाँग से कोई दो इंच छोटी थी। टाँग की पीड़ा और काम में असमर्थता उसे हर समय इनसान के नश्वर होने का अहसास दिलाती थी। शक्ल से वह संपन्न न सही, सम्मानित अवश्य दिखाई देता था, क्योंकि उसका नीला ओवरकोट बहुत पुराना था। जुराबें, सदरी और टोपी निरंतर उपयोग से घिस-पिट गई थीं और बदलती हुई ऋतुओं ने उन पर स्पष्ट निशान छोड़े थे। दुर्घटना से पूर्व वह गहरे पानी में मछलियाँ पकड़ा करता था, लेकिन अब बेस-वाटर के क़स्बे में एक स्थान पर फुटपाथ के किनारे सुबह दस बजे से शाम सात बजे तक पालतू पक्षियों का खाना बेचकर जीवन के बुरे-भले दिन काट रहा था। राह चलती हुई सम्मानित महिलाओं में से किसी के मन में अपने पालतू पक्षी की सेवा का ख़याल आता तो वह उससे एकाध पिनी के बीज ख़रीद लेती।
जैसाकि वह बताता था, कई बार उसे बीज प्राप्त करने में बहुत कठिनाई होती थी। वह सुबह पाँच बजे बिस्तर से उठता। भाग-दौड़ में लंदन से देहात की ओर जाने वाली गाड़ी पकड़ता और उन खुले मैदानों में पहुँच जाता, जहाँ केनरी और अन्य पालतू पक्षियों की ख़ुराक मिलने की संभावना होती थी। वह बड़ी कठिनाइयों से अपनी असमर्थ टाँगें धरती पर घसीटता था। प्रकृति का अत्याचार देखिए कि धरती जिस पर वह घास के बीज ढूँढ़ता था, बहुत कम शुष्क होती थी। प्राय: उसे सिर झुकाकर कीचड़ और कुहरे में पीली छतरियों वाले छोटे-छोटे पौधे इकट्ठे करने होते। वह स्वयं कहा करता कि कम पौधों के बीज सही-सलामत मिलते थे। अधिकांश हिमपात के कारण नष्ट हो जाते थे। बहरहाल जो भाग्य में होता, मिल जाता। वह उसे लेकर गाड़ी के द्वारा लंदन वापस आता और फिर दिन-भर के अभियान पर निकल खड़ा होता। सुबह से शाम तक परिश्रम के बाद रात के नौ-दस बजे तक वह लड़खड़ाता घर की ओर चल देता। ऐसे अवसरों पर विशेषतः अनुपयुक्त परिस्थितियों में, उसकी आँखें, जो अभी तक समुद्र की अज्ञात विशालताएँ देखने की विशेषता से वंचित न हुई थीं, आत्मा की गहराइयों में छुपे हुए स्थायी दुःख का पता देतीं। उसकी यह स्थिति उस पक्षी से मिलती-जुलती थी, जो पंख कटने के बावजूद बार-बार उड़ने का प्रयत्न कर रहा हो।
कभी-कभार जब ग्रोंडसील के बीज न मिलते, असमर्थ टाँग में शिद्दत की पीड़ा उठती या कोई ग्राहक नज़र न आता तो बरबस उसके मुख से निकलता, कितना कठिन है यह जीवन!
टाँग की पीड़ा तो उसे सदा रहती थी, फिर भी वह अपने दु:ख, ग्रोंडसील बीज की कमी या ग्राहकों की लापरवाही की शिकायत बहुत कम करता था। इसलिए कि वह जानता था कि उसकी शिकायत पर कान धरने वाले बहुत कम होंगे। वह फुटपाथ पर चुपचाप बैठा या खड़ा रहकर गुज़रने वालों को देखता रहता था। बिलकुल उसी प्रकार जैसे कभी वह उन लहरों को देखा करता था, जो उसकी नाव से आकर टकराती थीं। उसकी कभी न रुकने वाली तहदार नीली आँखों से असाधारण धैर्य व सहनशीलता की भावनाएँ प्रकट होती थीं। अवचेतन रूप में ये भावनाएँ एक ऐसे व्यक्ति के धर्म को प्रकट करती थीं जो हर बड़ी से बड़ी कठिनाई में कहता हो, मैं आख़िरी दम तक लडूँगा।
यह बताना बहुत कठिन है कि दिन-भर फुटपाथ पर खड़े-खड़े वह क्या सोचता था! मगर उसकी सोच पुराने युग से संबंधित हो सकती थी। हो सकता है, वह गडोन के रेतीले किनारों के बारे में विचार करता हो या ग्रोंडसील की कलियों के बारे में चिंतातुर हो, जो अच्छी तरह खिलती न थीं। कभी टाँग उसकी चिंता का विषय बन जाती, तो कभी वह कुत्ते जो उसकी टोकरी देखते ही सूँघते हुए आगे बढ़ते और बहुत बदतमीज़ी का प्रदर्शन करते थे। संभवत: उसे अपनी पत्नी की चिंता भी थी, जो गठिए के पीड़ाजनक रोग से ग्रस्त थी। कभी वह मछेरा था, इसलिए अभी तक चाय के साथ हेरिंग मछली खाने की इच्छा होती थी। संभव है, वह यही सेचता हो कि मछली कैसे प्राप्त करें! या मकान का किराया भी देना था, इसकी चिंता भी उसे पागल करती होगी। या ग्राहकों की संख्या भी तो दिन ब दिन कम होती जा रही थी और एक बार फिर टाँग की पीड़ा की तीव्रता का अहसास! उफ्!
राह चलने वालों में से किसी के पास इतना समय न था कि एक क्षण रुककर उसकी ओर देखे। कभी-कभार कोई महिला अपने चहेते मियाँ मिट्ठू के लिए एकाध पीनी के बीज ख़रीदती और लपक-झपक आगे बढ़ जाती। सच बात तो यह है कि लोग उसकी ओर देखते भी क्यों! उसमें कोई ख़ास बात तो थी नहीं। बेचारा सीधा-सादा भूरी दाढ़ीवाला आदमी था। जिसके चेहरे की झुर्रियाँ बहुत गहरी और स्पष्ट थीं और जिसकी एक टाँग में नुक़्स था। उसके बीज भी इतने ख़राब होते थे कि लोग अपने पक्षियों को खिलाना पसंद न करते और साफ़ कह देते कि आजकल तुम्हारे ग्रोंडसील के बीज अच्छे नहीं होते और फिर साथ ही क्षमापूर्वक कहते, ऋतु भी ख़राब है।'
ऐसे अवसरों पर वह कुछ इस प्रकार उत्तर दिया करता था, जी...जी हाँ, मादाम! मौसम बड़ा ख़राब है। आप शायद नहीं जानतीं, यहाँ इस जगह मेरी टाँग की पीड़ा बढ़ गई है।
उसकी यह बात शत-प्रतिशत सच थी, लेकिन लोग उस पर अधिक ध्यान न देते और अपने काम से आगे बढ़ जाते। शायद वे समझते हों कि लँगड़े का हर बात में अपनी टाँग का ज़िक्र करना शोभा नहीं देता। प्रकटत: यही नज़र आता था कि वह अपनी ज़ख़्मी टाँग का हवाला देकर दूसरों की हमदर्दी प्राप्त करना चाहता है, पर असल बात यह है कि उस व्यक्ति में वह शर्म-लिहाज़ और शराफ़त मौजूद थी, जो गहरे पानी के मछेरों की विशेषता है, किंतु टाँग का ज़ख़्म इतना पुराना हो चुका है कि हर समय उसकी चिंता लगी रहती थी। यह दुःख और पीड़ाएँ उसके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थीं और वह चाहता तो भी उसके ज़िक्र से बाज नहीं आता। कई बार जब मौसम अच्छा होता और उसके गोंडसील ख़ूब फलदार होते तो उसे ग्राहकों की ओर से ऐसी सांत्वनाओं की ज़रूरत न पड़ती थी। ग्राहक भी ख़ुश हो उसे आधी पिनी के बजाय एक पिनी दे डालते। हो सकता है इस 'टिप' के कारण उसे अवचेतन रूप में अपनी टाँग का ज़िक्र करने की आदत हो गई हो।
वह कभी छुट्टी न करता था, पर कभी-कभार अपनी जगह से ग़ायब हो जाता। ऐसा उस समय होता था, जब उसकी टाँग की पीड़ा बहुत बढ़ जाती। वह इस स्थिति को कुछ इस प्रकार बयान करता, “आज तो तकलीफ़ों का पहाड़ आ पड़ा है।
बीमार पड़ता तो उसके ज़िम्मे ख़र्च बढ़ जाते। फिर जो काम पर लौटता तो पहले से अधिक परिश्रम करता। अच्छे बीजों की खोज में दूर-दूर निकल जाता और रात गए तक फुटपाथ पर खड़ा रहता ताकि बिक्री अधिक हो और छुट्टियों की क्षतिपूर्ति हो सके।
उसके लिए ख़ुशी का अवसर केवल एक था, और वह था क्रिसमस का त्योहार। कारण यह था कि क्रिसमस पर लोग अपने पालतू पक्षियों पर कुछ अधिक ही कृपालु हो जाते थे और उसकी ख़ूब बिक्री होती थी। बड़े दिन का कोई विशेष ग्राहक उसे छह पेंस की रक़म भी दे डालता। फिर भी वह बात अधिक सुखद न थी, क्योंकि आर्थिक परिस्थितियाँ अच्छी हों या बुरी, इन्हीं दिनों हर साल उसे दमे का रोग दबोच लेता था। रोग के दौरे के बाद उसका चेहरा और पीला पड़ जाता और नीली आँखों में अनिद्रा की धुंध दिखाई देती। यों लगता जैसे वह किसी ऐसे मछेरे का भूत हो, जो समुद्र में डूब गया हो। ऐसे समय में प्रात:काल के धुँधले प्रकाश में वह अधपके ग्रोंडसील के बीज टटोलता, जिन्हें पक्षी शौक़ से खा सकें, तो उसके पीले खुरदरे हाथ काँप-काँप जाते थे।
वह प्राय: कहा करता था, “आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि शुरू में इस मामूली-से काम के लिए अपने-आपको तैयार करने में कितनी कठिनाई पेश आई। उन दिनों टाँग का ज़ख़्म नया था और कई बार चलते हुए यों महसूस होता था, जैसे मेरी टाँग पीछे रह जाएगी। मैं इतना दुर्बल था कि कीचड़ में उसे घसीटना संसार का सबसे कठिन काम नज़र आता। ऊपर से पत्नी की बीमारी ने परेशान कर रखा था। उसे गठिया है। देखा आपने, मेरा जीवन सिर से पाँव तक दुःखों से भरा है!
यहाँ वह एक अविश्वसनीय अंदाज़ में मुस्कराता और फिर अपनी इस टाँग की ओर देखते हुए हुए, जो पीछे घिसट रही होती थी, गर्वीले ढंग से कहता, आप देखते हैं न! अब इसमें कोई जान नहीं रही। इसका मांस तो मर चुका है।”
उसे देखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह जानना बहुत कठिन था कि आख़िर इस ग़रीब अपंग को जीवन से क्या दिलचस्पी थी! स्थायी असहायता, दुःख और पीड़ा के स्याह परदों के नीचे वह थके-हारे अपने जर्जर पंख हिलाता रहता था। जीवन के प्रकाश को देखना बहुत कठिन था। इस व्यक्ति का जीवन से चिपटे रहना बिल्कुल अस्वाभाविक दिखाई देता था। भविष्य में उसके लिए आशा की कोई किरण न थी और यह बात तय थी कि भविष्य उसके वर्तमान से कहीं अधिक ख़राब और ख़स्ता होगा। रही अगली दुनिया, तो वह उसके बारे में बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से कहता, मेरी पत्नी का विचार है कि दूसरी दुनिया इस दुनिया से बहरहाल बुरी नहीं हो सकती और यदि वस्तुत: इस जीवन के बाद दूसरा जीवन है तो मैं समझता हूँ कि उसकी बात सही है।
फिर भी एक बात विश्वास से कही जा सकती है कि उसके मस्तिष्क में कभी यह विचार न आया था कि वह ऐसा जीवन क्यों व्यतीत कर रहा है! क्यों कष्ट उठा रहा है! यों अनुभव होता था, जैसे अपने कष्टों के बारे में सोचकर और अपनी सहनशीलता की इन कष्टों से तुलना करके इसे कोई आंतरिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। यह बात सुखदायक बहुत थी। वह मानवता के भविष्य का ज्ञाता था। दर्पण था। और ऐसी आशा थी, जो और कहीं दिखाई नहीं देती।
इस भरी-पूरी दुनिया में कोलाहल से आबाद सड़क के किनारे टोकरी के पास छड़ी के सहारे वह अपना निढाल, किंतु संकल्पपूर्ण चेहरा लिए इस महान् और असाधारण मानवीय गुण की एक जर्जर प्रतिमा की तरह खड़ा है, जिससे अधिक आशापूर्ण और उत्साहजनक भावना दुनिया में कोई नहीं। वह आशा के बिना प्रयत्न का एक जीवंत उदाहरण है। जीता-जागता प्रतिबिंब है।
ritu garm ho ya thanDi, achchhi ho ya buri, isse adhik nishchit baat aur koi na thi ki wo langDa adami shahtut ki teDhi meDhi chhaDi ke sahare chalta hua yahan se avashy guzrega. uske kandhe par latakti hui khapachchiyon ki bani hui tokari mein ek phati purani bori se Dhake hue gronDsil ke beej paDe hue the. gronDsil ghaas ki tarah ek chhota sa paudha hai, jismen pile rang ke phool lagte hain. paltu pakshi iske beej shauq se khate hain. khumbiyon ke mausam mein wo khumbiyan bhi akhbar mein lapetkar tokari ke andar rakh leta hai. uska chehra sapat va mazbut tha. uski laal daDhi ki rangat bhuri hoti ja rahi thi aur jhurriyon bhare chehre se udasi tapakti thi, kyonki uski taang mein har samay tisen uthti theen. ek durghatna mein uski ye taang kat gai thi aur ab sahi salamat taang se koi do inch chhoti thi. taang ki piDa aur kaam mein asmarthata use har samay insaan ke nashvar hone ka ahsas dilati thi. shakl se wo sanpann na sahi, sammanit avashy dikhai deta tha, kyonki uska nila overcoat bahut purana tha. juraben, sadri aur topi nirantar upyog se ghis pit gai theen aur badalti hui rituon ne un par aspasht nishan chhoDe the. durghatna se poorv wo gahre pani mein machhliyan pakDa karta tha, lekin ab bes water ke qasbe mein ek sthaan par phutpath ke kinare subah das baje se shaam saat baje tak paltu pakshiyon ka khana bechkar jivan ke bure bhale din kaat raha tha. raah chalti hui sammanit mahilaon mein se kisi ke man mein apne paltu pakshi ki seva ka khayal aata to wo usse ekaadh pini ke beej kharid leti.
jaisaki wo batata tha, kai baar use beej praapt karne mein bahut kathinai hoti thi. wo subah paanch baje bistar se uthta. bhaag dauD mein london se dehat ki or jane vali gaDi pakaDta aur un khule maidanon mein pahunch jata, jahan kenri aur any paltu pakshiyon ki khurak milne ki sambhavana hoti thi. wo baDi kathinaiyon se apni asmarth tangen dharti par ghasitta tha. prakrti ka attyachar dekhiye ki dharti jis par wo ghaas ke beej DhunDhata tha, bahut kam shushk hoti thi. prayah use sir jhukakar kichaD aur kuhre mein pili chhatriyon vale chhote chhote paudhe ikatthe karne hote. wo svayan kaha karta ki kam paudhon ke beej sahi salamat milte the. adhikansh himpat ke karan nasht ho jate the. baharhal jo bhagya mein hota, mil jata. wo use lekar gaDi ke dvara london vapas aata aur phir din bhar ke abhiyan par nikal khaDa hota. subah se shaam tak parishram ke baad raat ke nau das baje tak wo laDkhaData ghar ki or chal deta. aise avasron par visheshatः anupyukt paristhitiyon mein, uski ankhen, jo abhi tak samudr ki agyat vishaltayen dekhne ki visheshata se vanchit na hui theen, aatma ki gahraiyon mein chhupe hue sthayi duःkh ka pata detin. uski ye sthiti us pakshi se milti julti thi, jo pankh katne ke bavjud baar baar uDne ka prayatn kar raha ho.
kabhi kabhar jab gronDsil ke beej na milte, asmarth taang mein shiddat ki piDa uthti ya koi gerahak nazar na aata to barbas uske mukh se nikalta, kitna kathin hai ye jivan!
taang ki piDa to use sada rahti thi, phir bhi wo apne duhakh, gronDsil beej ki kami ya grahkon ki laparvahi ki shikayat bahut kam karta tha. isliye ki wo janta tha ki uski shikayat par kaan dharne vale bahut kam honge. wo phutpath par chupchap baitha ya khaDa rahkar guzarne valon ko dekhta rahta tha. bilkul usi prakar jaise kabhi wo un lahron ko dekha karta tha, jo uski naav se aakar takrati theen. uski kabhi na rukne vali tahdar nili ankhon se asadharan dhairya va sahanshilata ki bhavnayen prakat hoti theen. avchetan roop mein ye bhavnayen ek aise vekti ke dharm ko prakat karti theen jo har baDi se baDi kathinai mein kahta ho, main akhiri dam tak laDunga.
ye batana bahut kathin hai ki din bhar phutpath par khaDe khaDe wo kya sochta tha! magar uski soch purane yug se sambandhit ho sakti thi. ho sakta hai, wo gaDon ke retile kinaron ke bare mein vichar karta ho ya gronDsil ki kaliyon ke bare mein chintatur ho, jo achchhi tarah khilti na theen. kabhi taang uski chinta ka vishay ban jati, to kabhi wo kutte jo uski tokari dekhte hi sunghte hue aage baDhte aur bahut badatmizi ka pradarshan karte the. sambhavtah use apni patni ki chinta bhi thi, jo gathiye ke piDajnak rog se grast thi. kabhi wo machhera tha, isliye abhi tak chaay ke saath hering machhli khane ki ichha hoti thi. sambhav hai, wo yahi sechta ho ki machhli kaise praapt karen! ya makan ka kiraya bhi dena tha, iski chinta bhi use pagal karti hogi. ya grahkon ki sankhya bhi to din ba din kam hoti ja rahi thi aur ek baar phir taang ki piDa ki tivrata ka ahsas! uph!
raah chalne valon mein se kisi ke paas itna samay na tha ki ek kshan rukkar uski or dekhe. kabhi kabhar koi mahila apne chahete miyan mitthu ke liye ekaadh pini ke beej kharidti aur lapak jhapak aage baDh jati. sach baat to ye hai ki log uski or dekhte bhi kyon! usmen koi khaas baat to thi nahin. bechara sidha sada bhuri daDhivala adami tha. jiske chehre ki jhurriyan bahut gahri aur aspasht theen aur jiski ek taang mein nuqs tha. uske beej bhi itne kharab hote the ki log apne pakshiyon ko khilana pasand na karte aur saaf kah dete ki ajkal tumhare gronDsil ke beej achchhe nahin hote aur phir saath hi kshmapurvak kahte, ritu bhi kharab hai.
aise avasron par wo kuch is prakar uttar diya karta tha, ji. . . ji haan, madam! mausam baDa kharab hai. aap shayad nahin jantin, yahan is jagah meri taang ki piDa baDh gai hai.
uski ye baat shat pratishat sach thi, lekin log us par adhik dhyaan na dete aur apne kaam se aage baDh jate. shayad ve samajhte hon ki langDe ka har baat mein apni taang ka zikr karna shobha nahin deta. prakattah yahi nazar aata tha ki wo apni zakhmi taang ka havala dekar dusron ki hamdardi praapt karna chahta hai, par asal baat ye hai ki us vekti mein wo sharm lihaz aur sharafat maujud thi, jo gahre pani ke machheron ki visheshata hai, kintu taang ka zakhm itna purana ho chuka hai ki har samay uski chinta lagi rahti thi. ye duःkh aur piDayen uske jivan ka abhinn ang ban gai theen aur wo chahta to bhi uske zikr se baaz nahin aata. kai baar jab mausam achchha hota aur uske gonDsil khoob phaldar hote to use grahkon ki or se aisi santvnaon ki zarurat na paDti thi. gerahak bhi khush ho use aadhi pini ke bajay ek pini de Dalte. ho sakta hai is tip ke karan use avchetan roop mein apni taang ka zikr karne ki aadat ho gai ho.
wo kabhi chhutti na karta tha, par kabhi kabhar apni jagah se ghayab ho jata. aisa us samay hota tha, jab uski taang ki piDa bahut baDh jati. wo is sthiti ko kuch is prakar byaan karta, “aaj to taklifon ka pahaD aa paDa hai.
bimar paDta to uske zimme kharch baDh jate. phir jo kaam par lautta to pahle se adhik parishram karta. achchhe bijon ki khoj mein door door nikal jata aur raat gaye tak phutpath par khaDa rahta taki bikri adhik ho aur chhuttiyon ki kshatipurti ho sake.
uske liye khushi ka avsar keval ek tha, aur wo tha christmas ka tyohar. karan ye tha ki christmas par log apne paltu pakshiyon par kuch adhik hi kripalu ho jate the aur uski khoob bikri hoti thi. baDe din ka koi vishesh gerahak use chhah pens ki raqam bhi de Dalta. phir bhi wo baat adhik sukhad na thi, kyonki arthik paristhitiyan achchhi hon ya buri, inhin dinon har saal use dame ka rog daboch leta tha. rog ke daure ke baad uska chehra aur pila paD jata aur nili ankhon mein anidra ki dhundh dikhai deti. yon lagta jaise wo kisi aise machhere ka bhoot ho, jo samudr mein Doob gaya ho. aise samay mein pratahkal ke dhundhale parkash mein wo adhapke gronDsil ke beej tatolta, jinhen pakshi shauq se kha saken, to uske pile khuradre haath kaanp kaanp jate the.
wo prayah kaha karta tha, “aap kalpana bhi nahin kar sakte ki shuru mein is mamuli se kaam ke liye apne aapko taiyar karne mein kitni kathinai pesh i. un dinon taang ka zakhm naya tha aur kai baar chalte hue yon mahsus hota tha, jaise meri taang pichhe rah jayegi. main itna durbal tha ki kichaD mein use ghasitna sansar ka sabse kathin kaam nazar aata. upar se patni ki bimari ne pareshan kar rakha tha. use gathiya hai. dekha aapne, mera jivan sir se paanv tak duःkhon se bhara hai!
yahan wo ek avishvasniy andaz mein muskrata aur phir apni is taang ki or dekhte hue hue, jo pichhe ghisat rahi hoti thi, garvile Dhang se kahta, aap dekhte hain n! ab ismen koi jaan nahin rahi. iska maans to mar chuka hai. ”
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taang ki piDa to use sada rahti thi, phir bhi wo apne duhakh, gronDsil beej ki kami ya grahkon ki laparvahi ki shikayat bahut kam karta tha. isliye ki wo janta tha ki uski shikayat par kaan dharne vale bahut kam honge. wo phutpath par chupchap baitha ya khaDa rahkar guzarne valon ko dekhta rahta tha. bilkul usi prakar jaise kabhi wo un lahron ko dekha karta tha, jo uski naav se aakar takrati theen. uski kabhi na rukne vali tahdar nili ankhon se asadharan dhairya va sahanshilata ki bhavnayen prakat hoti theen. avchetan roop mein ye bhavnayen ek aise vekti ke dharm ko prakat karti theen jo har baDi se baDi kathinai mein kahta ho, main akhiri dam tak laDunga.
ye batana bahut kathin hai ki din bhar phutpath par khaDe khaDe wo kya sochta tha! magar uski soch purane yug se sambandhit ho sakti thi. ho sakta hai, wo gaDon ke retile kinaron ke bare mein vichar karta ho ya gronDsil ki kaliyon ke bare mein chintatur ho, jo achchhi tarah khilti na theen. kabhi taang uski chinta ka vishay ban jati, to kabhi wo kutte jo uski tokari dekhte hi sunghte hue aage baDhte aur bahut badatmizi ka pradarshan karte the. sambhavtah use apni patni ki chinta bhi thi, jo gathiye ke piDajnak rog se grast thi. kabhi wo machhera tha, isliye abhi tak chaay ke saath hering machhli khane ki ichha hoti thi. sambhav hai, wo yahi sechta ho ki machhli kaise praapt karen! ya makan ka kiraya bhi dena tha, iski chinta bhi use pagal karti hogi. ya grahkon ki sankhya bhi to din ba din kam hoti ja rahi thi aur ek baar phir taang ki piDa ki tivrata ka ahsas! uph!
raah chalne valon mein se kisi ke paas itna samay na tha ki ek kshan rukkar uski or dekhe. kabhi kabhar koi mahila apne chahete miyan mitthu ke liye ekaadh pini ke beej kharidti aur lapak jhapak aage baDh jati. sach baat to ye hai ki log uski or dekhte bhi kyon! usmen koi khaas baat to thi nahin. bechara sidha sada bhuri daDhivala adami tha. jiske chehre ki jhurriyan bahut gahri aur aspasht theen aur jiski ek taang mein nuqs tha. uske beej bhi itne kharab hote the ki log apne pakshiyon ko khilana pasand na karte aur saaf kah dete ki ajkal tumhare gronDsil ke beej achchhe nahin hote aur phir saath hi kshmapurvak kahte, ritu bhi kharab hai.
aise avasron par wo kuch is prakar uttar diya karta tha, ji. . . ji haan, madam! mausam baDa kharab hai. aap shayad nahin jantin, yahan is jagah meri taang ki piDa baDh gai hai.
uski ye baat shat pratishat sach thi, lekin log us par adhik dhyaan na dete aur apne kaam se aage baDh jate. shayad ve samajhte hon ki langDe ka har baat mein apni taang ka zikr karna shobha nahin deta. prakattah yahi nazar aata tha ki wo apni zakhmi taang ka havala dekar dusron ki hamdardi praapt karna chahta hai, par asal baat ye hai ki us vekti mein wo sharm lihaz aur sharafat maujud thi, jo gahre pani ke machheron ki visheshata hai, kintu taang ka zakhm itna purana ho chuka hai ki har samay uski chinta lagi rahti thi. ye duःkh aur piDayen uske jivan ka abhinn ang ban gai theen aur wo chahta to bhi uske zikr se baaz nahin aata. kai baar jab mausam achchha hota aur uske gonDsil khoob phaldar hote to use grahkon ki or se aisi santvnaon ki zarurat na paDti thi. gerahak bhi khush ho use aadhi pini ke bajay ek pini de Dalte. ho sakta hai is tip ke karan use avchetan roop mein apni taang ka zikr karne ki aadat ho gai ho.
wo kabhi chhutti na karta tha, par kabhi kabhar apni jagah se ghayab ho jata. aisa us samay hota tha, jab uski taang ki piDa bahut baDh jati. wo is sthiti ko kuch is prakar byaan karta, “aaj to taklifon ka pahaD aa paDa hai.
bimar paDta to uske zimme kharch baDh jate. phir jo kaam par lautta to pahle se adhik parishram karta. achchhe bijon ki khoj mein door door nikal jata aur raat gaye tak phutpath par khaDa rahta taki bikri adhik ho aur chhuttiyon ki kshatipurti ho sake.
uske liye khushi ka avsar keval ek tha, aur wo tha christmas ka tyohar. karan ye tha ki christmas par log apne paltu pakshiyon par kuch adhik hi kripalu ho jate the aur uski khoob bikri hoti thi. baDe din ka koi vishesh gerahak use chhah pens ki raqam bhi de Dalta. phir bhi wo baat adhik sukhad na thi, kyonki arthik paristhitiyan achchhi hon ya buri, inhin dinon har saal use dame ka rog daboch leta tha. rog ke daure ke baad uska chehra aur pila paD jata aur nili ankhon mein anidra ki dhundh dikhai deti. yon lagta jaise wo kisi aise machhere ka bhoot ho, jo samudr mein Doob gaya ho. aise samay mein pratahkal ke dhundhale parkash mein wo adhapke gronDsil ke beej tatolta, jinhen pakshi shauq se kha saken, to uske pile khuradre haath kaanp kaanp jate the.
wo prayah kaha karta tha, “aap kalpana bhi nahin kar sakte ki shuru mein is mamuli se kaam ke liye apne aapko taiyar karne mein kitni kathinai pesh i. un dinon taang ka zakhm naya tha aur kai baar chalte hue yon mahsus hota tha, jaise meri taang pichhe rah jayegi. main itna durbal tha ki kichaD mein use ghasitna sansar ka sabse kathin kaam nazar aata. upar se patni ki bimari ne pareshan kar rakha tha. use gathiya hai. dekha aapne, mera jivan sir se paanv tak duःkhon se bhara hai!
yahan wo ek avishvasniy andaz mein muskrata aur phir apni is taang ki or dekhte hue hue, jo pichhe ghisat rahi hoti thi, garvile Dhang se kahta, aap dekhte hain n! ab ismen koi jaan nahin rahi. iska maans to mar chuka hai. ”
use dekhne vale kisi bhi vekti ke liye ye janna bahut kathin tha ki akhir is gharib apang ko jivan se kya dilchaspi thee! sthayi ashayta, duःkh aur piDa ke syaah pardon ke niche wo thake hare apne jarjar pankh hilata rahta tha. jivan ke parkash ko dekhana bahut kathin tha. is vekti ka jivan se chipte rahna bilkul asvabhavik dikhai deta tha. bhavishya mein uske liye aasha ki koi kiran na thi aur ye baat tay thi ki bhavishya uske vartaman se kahin adhik kharab aur khasta hoga. rahi agli duniya, to wo uske bare mein baDe rahasyapurn Dhang se kahta, meri patni ka vichar hai ki dusri duniya is duniya se baharhal buri nahin ho sakti aur yadi vastutah is jivan ke baad dusra jivan hai to main samajhta hoon ki uski baat sahi hai.
phir bhi ek baat vishvas se kahi ja sakti hai ki uske mastishk mein kabhi ye vichar na aaya tha ki wo aisa jivan kyon vyatit kar raha hai! kyon kasht utha raha hai! yon anubhav hota tha, jaise apne kashton ke bare mein sochkar aur apni sahanshilata ki in kashton se tulna karke ise koi antrik prasannata praapt hoti hai. ye baat sukhdayak bahut thi. wo manavta ke bhavishya ka gyata tha. darpan tha. aur aisi aasha thi, jo aur kahin dikhai nahin deti.
is bhari puri duniya mein kolahal se abad saDak ke kinare tokari ke paas chhaDi ke sahare wo apna niDhal, kintu sankalppurn chehra liye is mahan aur asadharan manaviy gun ki ek jarjar pratima ki tarah khaDa hai, jisse adhik ashapurn aur utsahajnak bhavna duniya mein koi nahin. wo aasha ke bina prayatn ka ek jivant udaharn hai. jita jagata pratibimb hai.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 114-118)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : जॉन गाल्सवर्दी
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
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