1
वन्य कुसुमों की झालरें सुख शीतल पवन से विकंपित होकर चारों ओर झूल रही थीं। छोटे-छोटे झरनों की कुल्याएँ कतराती हुई बह रही थीं। लता-वितानों से ढँकी हुई प्राकृतिक गुफ़ाएँ शिल्प-रचना-पूर्ण सुंदर प्रकोष्ठ बनातीं, जिनमें पागल कर देने वाली सुगंध की लहरें नृत्य करती थीं। स्थान-स्थान पर कुंजों और पुष्प-शय्याओं का समारोह, छोटे-छोटे विश्राम-गृह, पान-पात्रों में सुगंधित मदिरा, भाँति-भाँति के सुस्वादु फल-फूलवाले वृक्षों के झुरमुट, दूध और मधु की नहरों के किनारे गुलाबी बादलों का क्षणिक विश्राम। चाँदनी का निभृत रंगमंच, पुलकित वृक्ष-फूलों पर मधु-मक्खियों की भन्नाहट, रह-रहकर पक्षियों की हृदय में चुभने वाली तान, मणिदीपों पर लटकती हुई मुकुलित मालाएँ। तिस पर सौंदर्य के छँटे हुए जोड़ों-रूपवान बालक और बालिकाओं का हृदयहारी हास-विलास! संगीत की अबाध गति में छोटी-छोटी नावों पर उनका जल-विलास! किसकी आँखें यह देखकर भी नशे में न हो जाएँगी-हृदय पागल, इंद्रियाँ विकल न हो रहेंगी। यही तो स्वर्ग है।
झरने के तट पर बैठे हुए एक बालक ने बालिका से कहा- ''मैं भूल-भूल जाता हूँ मीना, हाँ मीना, मैं तुम्हें मीना नाम से कब तक पुकारूँ?''
''और मैं तुमको गुल कहकर क्यों बुलाऊँ?''
''क्यों मीना, यहाँ भी तो हम लोगों को सुख ही है। है न? अहा, क्या ही सुंदर स्थान है! हम लोग जैसे एक स्वप्न देख रहे हैं! कहीं दूसरी जगह न भेजे जाएँ, तो क्या ही अच्छा हो!''
''नहीं गुल, मुझे पूर्व-स्मृति विकल कर देती है। कई बरस बीत गए—वह माता के समान दुलार, उस उपासिका की स्नेहमयी करुणा-भरी दृष्टि आँखों में कभी-कभी चुटकी काट लेती है। मुझे तो अच्छा नहीं लगता; बंदी होकर रहना तो स्वर्ग में भी...अच्छा, तुम्हें यहाँ रहना नहीं खलता?''
''नहीं मीना, सबके बाद जब मैं तुम्हें अपने पास ही पाता हूँ, तब और किसी आकांक्षा का स्मरण ही नहीं रह जाता। मैं समझता हूँ कि...''
''तुम ग़लत समझते हो...''
मीना अभी पूरा कहने न पाई थी कि तितलियों के झुंड के पीछे, उन्हीं के रंग के कौषेय वसन पहने हुए, बालक और बालिकाओं की दौड़ती हुई टोली ने आकर मीना और गुल को घेर लिया।
''जल-विहार के लिए रंगीली मछलियों का खेल खेला जाए।''
एक साथ ही तालियाँ बज उठीं। मीना और गुल को ढकेलते हुए सब उसी कलनादी स्रोत में कूद पड़े। पुलिन की हरी झाड़ियों में से वंशी बजने लगी। मीना और गुल की जोड़ी आगे-आगे और पीछे-पीछे सब बालक-बालिकाओं की टोली तैरने लगी। तीर पर की झुकी डालों के अंतराल में लुक-छिपकर निकलना, उन कोमल पाणि-पल्लवों से क्षुद्र वीचियों का कटना, सचमुच उसी स्वर्ग में प्राप्त था।
तैरते-तैरते मीना ने कहा- ''गुल, यदि मैं बह जाऊँ और डूबने लगूँ?''
''मैं नाव बन जाऊँगा, मीना!''
''और जो मैं यहाँ से सचमुच चली जाऊँ?''
''ऐसा न कहो; फिर मैं क्या करूँगा?”
''क्यों, क्या तुम मेरे साथ न चलोगे?''
इतने में एक दूसरी सुंदरी, जो कुछ पास थी, बोली- ''कहाँ चलोगे गुल? मैं भी चलूँगी, उसी कुंज में। अरे देखो, वह कैसा हरा-भरा अंधकार है!'' गुल उसी ओर लक्ष्य करके संतरण करने लगा। बहार उसके साथ तैरने लगी। वे दोनों त्वरित गति से तैर रहे थे, मीना उनका साथ न दे सकी, वह हताश होकर और भी पिछड़ने के लिए धीरे-धीरे तैरने लगी।
बहार और गुल जल से टकराती हुई डालों को पकड़कर विश्राम करने लगे। किसी को समीप में न देखकर बहार ने गुल से कहा- ''चलो, हम लोग इसी कुंज में छिप जाएँ।''
वे दोनों उसी झुरमुट में विलीन हो गए।
मीना से एक दूसरी सुंदरी ने पूछा- ''गुल किधर गया, तुमने देखा?''
मीना जानकर भी अनजान बन गई। वह दूसरे किनारे की ओर लौटती हुई बोली- ''मैं नहीं जानती।''
इतने में एक विशेष संकेत से बजती हुई सीटी सुनाई पड़ी। सब तैरना छोड़कर बाहर निकले। हरा वस्त्र पहने हुए, एक गंभीर मनुष्य के साथ, एक युवक दिखाई पड़ा। युवक की आँखें नशे में रंगीली हो रही थीं; पैर लडख़ड़ा रहे थे। सबने उस प्रौढ़ को देखते ही सिर झुका लिया। वे बोल उठे ''महापुरुष, क्या कोई हमारा अतिथि आया है?''
''हाँ, यह युवक स्वर्ग देखने की इच्छा रखता है''—हरे वस्त्र वाले प्रौढ़ ने कहा।
सबने सिर झुका लिया। फिर एक बार निर्निमेष दृष्टि से मीना की ओर देखा। वह पहाड़ी दुर्ग का भयानक शेख़ था। सचमुच उसे एक आत्म-विस्मृति हो चली। उसने देखा, उसकी कल्पना सत्य में परिणत हो रही है।
''मीना-आह! कितना सरल और निर्दोष सौंदर्य है। मेरे स्वर्ग की सारी माधुरी उसकी भीगी हुई एक लट के बल खाने में बँधी हुई छटपटा रही है।''—उसने पुकारा, ''मीना!''
मीना पास आकर खड़ी हो गई, और सब उस युवक को घेरकर एक ओर चल पड़े। केवल मीना शेख़ के पास रह गई।
शेख़ ने कहा- ''मीना, तुम मेरे स्वर्ग की रत्न हो।''
मीना काँप रही थी। शेख़ ने उसका ललाट चूम लिया, और कहा- ''देखो, तुम किसी भी अतिथि की सेवा करने न जाना। तुम केवल उस द्राक्षा-मंडप में बैठकर कभी-कभी गा लिया करो। बैठो, मुझे भी वह अपना गीत सुना दो।''
मीना गाने लगी। उस गीत का तात्पर्य था- ''मैं एक भटकी हुई बुलबुल हूँ। हे मेरे अपरिचित कुंज! क्षण-भर मुझे विश्राम करने दोगे? यह मेरा क्रंदन है... मैं सच कहती हूँ, यह मेरा रोना है, गाना नहीं। मुझे दम तो लेने दो। आने दो बसंत का वह प्रभात, जब संसार गुलाबी रंग में नहाकर अपने यौवन में थिरकने लगेगा और तब मैं तुम्हें अपनी एक तान सुनाकर केवल एक तान इस रजनी विश्राम का मूल्य चुकाकर चली जाऊँगी। तब तक अपनी किसी सूखी हुई टूटी डाल पर ही अंधकार बिता लेने दो। मैं एक पथ भूली हुई बुलबुल हूँ।''
शेख़ भूल गया कि मैं ईश्वरीय संदेशवाहक हूँ, आचार्य हूँ, और महापुरुष हूँ। वह एक क्षण के लिए अपने को भी भूल गया। उसे विश्वास हो गया कि बुलबुल तो नहीं हूँ, पर कोई भूली हुई वस्तु हूँ। क्या हूँ, यह सोचते-सोचते पागल होकर एक ओर चला गया।
हरियाली से लदा हुआ ढालुवाँ तट था, बीच में बहता हुआ वही कलनादी स्रोत यहाँ कुछ गंभीर हो गया था। उस रमणीय प्रदेश के छोटे-से आकाश में मदिरा से भरी हुई घटा छा रही थी। लडखड़ाते, हाथ-से-हाथ मिलाए, बहार और गुल ऊपर चढ़ रहे थे। गुल अपने आपे में नहीं है, बहार फिर भी सावधान है; वह सहारा देकर उसे ऊपर ले आ रही है।
एक शिला-खंड पर बैठे हुए गुल ने कहा- ''प्यास लगी है।''
बहार पास के विश्राम-गृह में गई, पान-पात्र भर लाई। गुल पीकर मस्त हो रहा था। बोला- ''बहार, तुम बड़े वेग से मुझे खींच रही हो; संभाल सकोगी? देखो, मैं गिरा?''
गुल बहार की गोद में सिर रखकर आँखें बंद किए पड़ा रहा। उसने बहार के यौवन की सुगंध से घबराकर आँखें खोल दीं। उसके गले में हाथ डालकर बोला- ''ले चलो, मुझे कहाँ ले चलती हो?''
बहार उस स्वर्ग की अप्सरा थी। विलासिनी बहार एक तीव्र मदिरा प्याली थी, मकरंद-भरी वायु का झकोर आकर उसमें लहर उठा देता है। वह रूप का उर्मिल सरोवर गुल उन्मत्त था। बहार ने हँसकर पूछा- ''यह स्वर्ग छोड़कर कहाँ चलोगे?''
''कहीं दूसरी जगह, जहाँ हम हों और तुम।''
''क्यों, यहाँ कोई बाधा है?''
सरल गुल ने कहा- ''बाधा! यदि कोई हो? कौन जाने!''
''कौन? मीना?''
''जिसे समझ लो।''
''तो तुम सबकी उपेक्षा करके मुझे, केवल मुझे ही, नहीं...''
''ऐसा न कहो''—बहार के मुँह पर हाथ रखते हुए गुल ने कहा।
ठीक इसी समय नवागत युवक ने वहाँ आकर उन्हें सचेत कर दिया। बहार ने उठकर उसका स्वागत किया। गुल ने अपनी लाल-लाल आँखों से उसको देखा। वह उठ न सका, केवल मद-भरी अँगड़ाई ले रहा था। बहार ने युवक से आज्ञा लेकर प्रस्थान किया। युवक गुल के समीप आकर बैठ गया, और उसे गंभीर दृष्टि से देखने लगा।
गुल ने अभ्यास के अनुसार कहा- ''स्वागत, अतिथि!''
''तुम देवकुमार! आह! तुमको कितना खोजा मैंने!''
''देवकुमार? कौन देवकुमार? हाँ, हाँ, स्मरण होता है, पर वह विषैली पृथ्वी की बात क्यों स्मरण दिलाते हो? तुम मर्त्यलोक के प्राणी! भूल जाओ उस निराशा और अभावों की सृष्टि को; देखो आनंद-निकेतन स्वर्ग का सौंदर्य!''
''देवकुमार! तुमको भूल गया, तुम भीमपाल के वंशधर हो? तुम यहाँ बंदी हो! मूर्ख हो तुम; जिसे तुमने स्वर्ग समझ रक्खा है, वह तुम्हारे आत्मविस्तार की सीमा है। मैं केवल तुम्हारे ही लिए आया हूँ।''
''तो तुमने भूल की। मैं यहाँ बड़े सुख से हूँ। बहार को बुलाऊँ, कुछ खाओ-पीओ...कंगाल! स्वर्ग में भी आकर व्यर्थ समय नष्ट करना! संगीत सुनोगे?''
युवक हताश हो गया।
गुल ने मन में कहा- ''मैं क्या करूँ? सब मुझसे रूठ जाते हैं। कहीं सहृदयता नहीं, मुझसे सब अपने मन की कराना चाहते हैं, जैसे मेरे मन नहीं है, हृदय नहीं है! प्रेम-आकर्षण! यह स्वर्गीय प्रेम में भी जलन! बहार तिनककर चली गई; मीना? यह पहले ही हट रही थी; तो फिर क्या जलन ही स्वर्ग है?''
गुल को उस युवक के हताश होने पर दया आ गई। यह भी स्मरण हुआ कि वह अतिथि है। उसने कहा- ''कहिए, आपकी क्या सेवा करूँ? मीना का गान सुनिएगा? वह स्वर्ग की रानी है!''
युवक ने कहा- ''चलो।''
द्राक्षा-मंडप में दोनों पहुँचे। मीना वहाँ बैठी हुई थी। गुल ने कहा- ''अतिथि को अपना गान सुनाओ।''
एक नि:श्वास लेकर वही बुलबुल का संगीत सुनाने लगी। युवक की आँखें सजल हो गईं, उसने कहा- ''सचमुच तुम स्वर्ग की देवी हो!''
''नहीं अतिथि, मैं उस पृथ्वी की प्राणी हूँ, जहाँ कष्टों की पाठशाला है, जहाँ का दु:ख इस स्वर्ग-सुख से भी मनोरम था, जिसका अब कोई समाचार नहीं मिलता।''—मीना ने कहा।
''तुम उसकी एक करुण-कथा सुनना चाहो, तो मैं तुम्हें सुनाऊँ!''—युवक ने कहा।
''सुनाइए''—मीना ने कहा।
2
युवक कहने लगा-
वाह्लीक, गांधार, कपिशा और उद्यान, मुसलमानों के भयानक आतंक में काँप रहे थे। गांधार के अंतिम आर्य-नरपति भीमपाल के साथ ही, शाहीवंश का सौभाग्य अस्त हो गया। फिर भी उनके बचे हुए वंशधर उद्यान के मंगली दुर्ग में, सुवास्तु की घाटियों में, पर्वत-माला, हिम और जंगलों के आवरण में अपने दिन काट रहे थे। वे स्वतंत्र थे।
देवपाल एक साहसी राजकुमार था। वह कभी-कभी पूर्व गौरव का स्वप्न देखता हुआ, सिंधु तट तक घूमा करता। एक दिन अभिसार प्रदेश का सिंधु तट वासना के फूल वाले प्रभात में सौरभ की लहरों में झोंके खा रहा था। कुमारी लज्जा स्नान कर रही थी। उसका कलसा तीर पर पड़ा था। देवपाल भी कई बार पहले की तरह आज फिर साहस भरे नेत्रों से उसे देख रहा था। उसकी चचंलता इतने से ही न रुकी, वह बोल उठा-
''ऊषा के इस शांत आलोक में किसी मधुर कामना से यह भिखारी हृदय हँस रहा था। और मानस-नंदिनी! तुम इठलाती हुई बह चली हो। वाह रे तुम्हारा इतराना! इसीलिए तो जब कोई स्नान करके तुम्हारी लहर की तरह तरल और आर्द्र वस्त्र ओढ़कर, तुम्हारे पथरीले पुलिन में फिसलता हुआ ऊपर चढ़ने लगता है, तब तुम्हारी लहरों में आँसुओं की झालरें लटकने लगती हैं। परंतु मुझ पर दया नहीं; यह भी कोई बात है!''
''तो फिर मैं क्या करूँ? उस क्षण की, उस कण की, सिंधु से, बादलों से, अंतरिक्ष और हिमालय से टहलकर लौट आने की प्रतिज्ञा करूँ? और इतना भी न कहोगी कि कब तक? बलिहारी!''
कुमारी लज्जा भीरु थी। वह हृदय के स्पंदनों से अभिभूत हो रही थी। क्षुद्र बीचियों के सदृश काँपने लगी। वह अपना कलसा भी न भर सकी और चल पड़ी। हृदय में गुदगुदी के धक्के लग रहे थे। उसके भी यौवन-काल के स्वर्गीय दिवस थे—फिसल पड़ी। धृष्ट युवक ने उसे संभालकर अंक में ले लिया।
कुछ दिन स्वर्गीय स्वप्न चला। जलते हुए प्रभात के समान तारा देवी ने वह स्वप्न भंग कर दिया। तारा अधिक रूप-शालिनी, कश्मीर की रूप-माधुरी थी। देवपाल को कश्मीर से सहायता की भी आशा थी। हतभागिनी लज्जा ने कुमार सुदान की तपोभूमि में अशोक-निर्मित विहार में शरण ली। वह उपासिका, भिक्षुणी, जो कहो, बन गई।
गौतम की गंभीर प्रतिमा के चरण-तल में बैठकर उसने निश्चय किया, सब दु:ख है, सब क्षणिक है, सब अनित्य है।
सुवास्तु का पुण्य-सलिल उस व्यथित हृदय की मलिनता को धोने लगा। वह एक प्रकार से रोग-मुक्त हो रही थी।
एक सुनसान रात्रि थी, स्थविर धर्मभिक्षु थे नहीं। सहसा कपाट पर आघात होने लगा। और 'खोलो! खोलो!' का शब्द सुनाई पड़ा। विहार में अकेली लज्जा ही थी। साहस करके बोली-
''कौन है?''
''पथिक हूँ, आश्रय चाहिए''—उत्तर मिला।
तुषारावृत अँधेरा पथ था। हिम गिर रहा था। तारों का पता नहीं, भयानक शीत और निर्जन निशीथ। भला ऐसे समय में कौन पथ पर चलेगा? वातायन का पर्दा हटाने पर भी उपासिका लज्जा झाँककर न देख सकी कि कौन है। उसने अपनी कुभावनाओं से डरकर पूछा- ''आप लोग कौन हैं?''
''आहा, तुम उपासिका हो! तुम्हारे हृदय में तो अधिक दया होनी चाहिए। भगवान् की प्रतिमा की छाया में दो अनाथों को आश्रय मिलने का पुण्य दें।''
लज्जा ने अर्गला खोल दी। उसने आश्चर्य से देखा, एक पुरुष अपने बड़े लबादे में आठ-नौ बरस के बालक और बालिका को लिए भीतर आकर गिर पड़ा। तीनों मुमूर्ष हो रहे थे। भूख और शीत से तीनों विकल थे। लज्जा ने कपाट बंद करते हुए अग्नि धधकाकर उसमें कुछ गंध-द्रव्य डाल दिया। एक बार द्वार खुलने पर जो शीतल पवन का झोंका घुस आया था, वह निर्बल हो चला।
अतिथि-सत्कार हो जाने पर लज्जा ने उसका परिचय पूछा। आगंतुक ने कहा- ''मंगली-दुर्ग के अधिपति देवपाल का मैं भृत्य हूँ। जगद्दाहक चंगेज़ ख़ाँ ने समस्त गांधार प्रदेश को जलाकर, लूट-पाटकर उजाड़ दिया और कल ही इस उद्यान के मंगली दुर्ग पर भी उन लोगों का अधिकार हो गया। देवपाल बंदी हुए, उनकी पत्नी तारादेवी ने आत्महत्या की। दुर्गपति ने पहले ही मुझसे कहा था कि इस बालक को अशोक-विहार में ले जाना, वहाँ की एक उपासिका लज्जा इसके प्राण बचा ले तो कोई आश्चर्य नहीं।''
यह सुनते ही लज्जा की धमनियों में रक्त का तीव्र संचार होने लगा। शीताधिक्य में भी उसे स्वेद आने लगा। उसने बात बदलने के लिए बालिका की ओर देखा। आगंतुक ने कहा- ''यह मेरी बालिका है, इसकी माता नहीं है''—लज्जा ने देखा, बालिका का शुभ्र शरीर मलिन वस्त्र में दमक रहा था। नासिका मूल से कानों के समीप तक भ्रू, युगल की प्रभव-शालिनी रेखा और उसकी छाया में दो उनींदे कमल संसार से अपने को छिपा लेना चाहते थे। उसका विरागी सौंदर्य, शरद के शुभ्र घन के आवरण में पूर्णिमा के चंद्र-सा आप ही लज्जित था। चेष्टा करके भी लज्जा अपनी मानसिक स्थिति को चंचल होने से न संभाल सकी। वह—''अच्छा, आप लोग सो रहिए, थके होंगे''—कहती हुई दूसरे प्रकोष्ठ में चली गई।
लज्जा ने वातायन खोलकर देखा, आकाश स्वच्छ हो रहा था, पार्वत्य प्रदेश के निस्तब्ध गगन में तारों की झिलमिलाहट थी। उन प्रकाश की लहरों में अशोक निर्मित स्तूप की चूड़ा पर लगा हुआ स्वर्ण का धर्मचक्र जैसे हिल रहा था।
दूसरे दिन जब धर्मभिक्षु आए, तो उन्होंने इन आगंतुकों को आश्चर्य से देखा, और जब पूरे समाचार सुने, तो और भी उबल पड़े। उन्होंने कहा- ''राज-कुटुम्ब को यहाँ रखकर क्या इस विहार और स्तूप को भी तुम ध्वस्त कराना चाहती हो? लज्जा, तुमने यह किस प्रलोभन से किया? चंगेज़ ख़ाँ बौद्ध है, संघ उसका विरोध क्यों करे?''
''स्थविर! किसी को आश्रय देना क्या गौतम के धर्म के विरुद्ध है? मैं स्पष्ट कह देना चाहती हूँ कि देवपाल ने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया, फिर भी मुझ पर उसका विश्वास था, क्यों था, मैं स्वयं नहीं जान सकी। इसे चाहे मेरी दुर्बलता ही समझ लें, परंतु मैं अपने प्रति विश्वास का किसी को भी दुरुपयोग नहीं करने देना चाहती। देवपाल को मैं अधिक-से-अधिक प्यार करती थी, और भी अब बिल्कुल निश्शेष समझकर उस प्रणय का तिरस्कार कर सकूँगी, इसमें संदेह है।''—लज्जा ने कहा।
''तो तुम संघ के सिद्धांत से च्युत हो रही हो, इसलिए तुम्हें भी विहार का त्याग करना पड़ेगा।''—धर्मभिक्षु ने कहा।
लज्जा व्यथित हो उठी थी। बालक के मुख पर देवपाल की स्पष्ट छाया उसे बार-बार उत्तेजित करती, और वह बालिका तो उसे छोड़ना ही न चाहती थी।
उसने साहस करके कहा- ''तब यही अच्छा होगा कि मैं भिक्षुणी होने का ढोंग छोड़कर अनाथों के सुख-दु:ख में सम्मिलित होऊँ।''
उसी रात को वह दोनों बालक-बालिका और विक्रमभृत्य को लेकर, निस्सहाय अवस्था में चल पड़ी। छद्मवेष में यह दल यात्रा कर रहा था। इसे भिक्षा का अवलंब था। वाह्लीक के गिरिव्रज नगर के भग्न पांथ-निवास के टूटे कोने में इन लोगों को आश्रय लेना पड़ा। उस दिन आहार नहीं जुट सका, दोनों बालकों के संतोष के लिए कुछ बचा था, उसी को खिलाकर वे सुला दिए गए। लज्जा और विक्रम, अनाहार से म्रियमाण, अचेत हो गए।
दूसरे दिन आँखे खुलते ही उन्होंने देखा तो वह राजकुमार और बालिका, दोनों ही नहीं! उन दोनों की खोज में ये लोग भी भिन्न-भिन्न दिशा को चल पड़े। एक दिन पता चला कि केकय के पहाड़ी दुर्ग के समीप कहीं स्वर्ग है, वहाँ रूपवान बालकों और बालिकाओं की अत्यंत आवश्यकता रहती है...
''और भी सुनोगी पृथ्वी की दुःख-गाथा? क्या करोगी सुनकर, तुम यह जानकर क्या करोगी कि उस उपासिका या विक्रम का फिर क्या हुआ?''
अब मीना से न रहा गया। उसने युवक के गले से लिपटकर कहा- ''तो...तुम्हीं वह उपासिका हो? आहा, सच कह दो।''
गुल की आँखों में अभी नशे का उतार था। उसने अँगड़ाई लेकर एक जँभाई ली, और कहा- ''बड़े आश्चर्य की बात है। क्यों मीना, अब क्या किया जाए?''
अकस्मात् स्वर्ग के भयानक रक्षियों ने आकर उस युवक को बंदी कर लिया। मीना रोने लगी, गुल चुपचाप खड़ा था, बहार खड़ी हँस रही थी।
सहसा पीछे से आते हुए प्रहरियों के प्रधान ने ललकारा- ''मीना और गुल को भी।''
अब उस युवक ने घूमकर देखा; घनी दाढ़ी-मूछों वाले प्रधान की आँखों से आँखें मिलीं।
युवक चिल्ला उठा- ''देवपाल।''
''कौन! लज्जा? अरे!''
''हाँ, तो देवपाल, इस अपने पुत्र गुल को भी बंदी करो, विधर्मी का कर्तव्य यही आज्ञा देता है।''—लज्जा ने कहा।
''ओह!''—कहता हुआ प्रधान देवपाल सिर पकड़कर बैठ गया। क्षण भर में वह उंमत्त हो उठा और दौड़कर गुल के गले से लिपट गया।
सावधान होने पर देवपाल ने लज्जा को बंदी करने वाले प्रहरी से कहा- ''उसे छोड़ दो।''
प्रहरी ने बहार की ओर देखा। उसका गूढ़ संकेत समझकर वह बोल उठा- ''मुक्त करने का अधिकार केवल शेख़ को है।''
देवपाल का क्रोध सीमा का अतिक्रम कर चुका था, उसने खड्ग चला दिया। प्रहरी गिरा। उधर बहार 'हत्या! हत्या! चिल्लाती हुई भागी।
3
संसार की विभूति जिस समय चरणों में लोटने लगती है, वही समय पहाड़ी दुर्ग के सिंहासन का था। शेख़ क्षमता की ऐश्वर्य-मंडित मूर्ति था। लज्जा, मीना, गुल और देवपाल बंदी-वेश में खड़े थे। भयानक प्रहरी दूर-दूर खड़े, पवन की भी गति जाँच रहे थे। जितना भीषण प्रभाव संभव है, वह शेख़ के उस सभागृह में था। शेख़ ने पूछा- ''देवपाल तुझे इस धर्म पर विश्वास है कि नहीं?''
''नहीं!''— देवपाल ने उत्तर दिया।
''तब तुमने हमको धोखा दिया?''
''नहीं, चंगेज़ के बंदी-गृह से छुड़ाने में जब समर-खंड में तुम्हारे अनुचरों ने मेरी सहायता की और मैं तुम्हारे उत्कोच या मूल्य से क्रीत हुआ, तब मुझे तुम्हारी आज्ञा पूरी करने की स्वभावत: इच्छा हुई। अपने शत्रु चंगेज़ का ईश्वरीय कोप, चंगेज़ का नाश करने की एक विकट लालसा मन में खेलने लगी, और मैंने उसकी हत्या की भी। मैं धर्म मानकर कुछ करने गया था, वह समझना भ्रम है।''
''यहाँ तक तो मेरी आज्ञा के अनुसार ही हुआ, परंतु उस अलाउद्दीन की हत्या क्यों की?''—दाँत पीसकर शेख़ ने कहा।
''यह मेरा उससे प्रतिशोध था!'' अविचल भाव से देवपाल ने कहा।
''तुम जानते हो कि इस पहाड़ के शेख़ केवल स्वर्ग के ही अधिपति नहीं, प्रत्युत हत्या के दूत भी हैं!'' क्रोध से शेख़ ने कहा।
''इसके जानने की मुझे उत्कंठा नहीं है, शेख़। प्राणी-धर्म में मेरा अखंड विश्वास है। अपनी रक्षा करने के लिए, अपने प्रतिशोध के लिए, जो स्वाभाविक जीवन-तत्व के सिद्धांत की अवहेलना करके चुप बैठता है, उसे मृतक, कायर, सजीवता विहीन, हड्डी-माँस के टुकड़े के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं समझता। मनुष्य परिस्थितियों का अँध-भक्त है, इसलिए मुझे जो करना था, वह मैंने किया, अब तुम अपना कर्तव्य कर सकते हो।''—देवपाल का स्वर दृढ़ था।
भयानक शेख़ अपनी पूर्ण उत्तेजना से चिल्ला उठा। उसने कहा- ''और, तू कौन है स्त्री? तेरा इतना साहस! मुझे ठगना!''
लज्जा अपना बाह्य आवरण फेंकती हुई बोली- ''हाँ शेख़, अब आवश्यकता नहीं कि मैं छिपाऊँ, मैं देवपाल की प्रणयिनी हूँ?''
''तो तुम इन सबको ले जाने या बहकाने आई थी, क्यों?''
''आवश्यकता से प्रेरित होकर जैसे अत्यंत कुत्सित मनुष्य धर्माचार्य बनने का ढोंग कर रहा है, ठीक उसी प्रकार मैं स्त्री होकर भी पुरुष बनी। यह दूसरी बात है कि संसार की सबसे पवित्र वस्तु धर्म की आड़ में आकांक्षा खेलती है। तुम्हारे पास साधन हैं, मेरे पास नहीं, अन्यथा मेरी आवश्यकता किसी से कम न थी।''—लज्जा हाँफ़ रही थी।
शेख़ ने देखा, वह दृप्त सौंदर्य! यौवन के ढलने में भी एक तीव्र प्रवाह था—
जैसे चाँदनी रात में पहाड़ से झरना गिर रहा हो! एक क्षण के लिए उसकी समस्त उत्तेजना पालतू पशु के समान सौम्य हो गई। उसने कहा- ''तुम ठीक मेरे स्वर्ग की रानी होने के योग्य हो। यदि मेरे मत में तुम्हारा विश्वास हो, तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ। बोलो!''
''स्वर्ग! इस पृथ्वी को स्वर्ग की आवश्यकता क्या है, शेख़? ना, ना, इस पृथ्वी को स्वर्ग के ठेकेदारों से बचाना होगा। पृथ्वी का गौरव स्वर्ग बन जाने से नष्ट हो जाएगा। इसकी स्वाभाविकता साधारण स्थिति में ही रह सकती है। पृथ्वी को केवल वसुंधरा होकर मानव जाति के लिए जीने दो, अपनी आकांक्षा के कल्पित स्वर्ग के लिए, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इस महती को, इस धरणी को नरक न बनाओ, जिसमें देवता बनने के प्रलोभन में पड़कर मनुष्य राक्षस न बन जाए, शेख़।''—लज्जा ने कहा।
शेख़ पत्थर-भरे बादलों के समान कड़कड़ा उठा। उसने कहा- ''ले जाओ, इन दोनों को बंदी करो। मैं फिर विचार करूँगा, और गुल, तुम लोगों का यह पहला अपराध है, क्षमा करता हूँ, सुनती हो मीना, जाओ अपने कुंज में भागो। इन दोनों को भूल जाओ।''
बहार ने एक दिन गुल से कहा- ''चलो, द्राक्षा-मंडप में संगीत का आनंद लिया जाए।'' दोनों स्वर्गीय मदिरा में झूम रहे थे। मीना वहाँ अकेली बैठी उदासी में गा रही थी-
''वही स्वर्ग तो नरक है, जहाँ प्रियजन से विच्छेद है। वही रात प्रलय की है, जिसकी कालिमा में विरह का संयोग है। वह यौवन निष्फल है, जिसका हृदयवान् उपासक नहीं। वह मदिरा हलाहल है, पाप है, जो उन मधुर अधरों को उच्छिष्ट नहीं। वह प्रणय विषाक्त छुरी है, जिसमें कपट है। इसलिए हे जीवन, तू स्वप्न न देख, विस्मृति की निद्रा में सो जा! सुषुप्ति यदि आनंद नहीं, तो दु:खों का अभाव तो है। इस जागरण से—इस आकांक्षा और अभाव के जागरण से—वह निर्द्वंद्व सोना कहीं अच्छा है मेरे जीवन!''
बहार का साहस न हुआ कि वह मंडप में पैर धरे, पर गुल, वह तो जैसे मूक था! एक भूल, अपराध और मनोवेदना के निर्जन कानन में भटक रहा था, यद्यपि उसके चरण निश्चल थे। इतने में हलचल मच गई। चारों ओर दौड़-धूप होने लगी। मालूम हुआ, स्वर्ग पर तातार के ख़ान की चढ़ाई है।
बरसों घिरे रहने से स्वर्ग की विभूति निश्शेष हो गई थी। स्वर्गीय जीव अनाहार से तड़प रहे थे। तब भी मीना को आहार मिलता। आज शेख़ सामने बैठा था। उसकी प्याली में मदिरा की कुछ अंतिम बूँदें थीं। जलन की तीव्र पीड़ा से व्याकुल और आहत बहार उधर तड़प रही थी। आज बंदी भी मुक्त कर दिए गए थे। स्वर्ग के विस्तृत प्रांगण में बंदियों के दम तोड़ने की कातर ध्वनि गूँज रही थी। शेख़ ने एक बार उन्हें हँसकर देखा, फिर मीना की ओर देखकर उसने कहा- ''मीना! आज अंतिम दिन है! इस प्याली में अंतिम घूँटें हैं, मुझे अपने हाथ से पिला दोगी?''
''बंदी हूँ शेख़! चाहे जो कहो।''
शेख़ एक दीर्घ निश्वास लेकर उठ खड़ा हुआ। उसने अपनी तलवार सँभाली। इतने में द्वार टूट पड़ा, तातारी घुसते हुए दिखलाई पड़े, शेख़ के पाप-दुर्बल हाथों से तलवार गिर पड़ी।
द्राक्षा के रूखे कुंज में देवपाल, लज्जा और गुल के शव के पास मीना चुपचाप बैठी थी। उसकी आँखों में न आँसू थे, न ओठों पर क्रंदन। वह सजीव अनुकंपा, निष्ठुर हो रही थी।
तातारों के सेनापति ने आकर देखा, उस दावाग्नि के अँधड़ में तृण-कुसुम सुरक्षित है। वह अपनी प्रतिहिंसा से अँधा हो रहा था। कड़ककर उसने पूछा- ''तू शेख़ की बेटी है?''
मीना ने जैसे मूर्छा से आँखें खोलीं। उसने विश्वास-भरी वाणी से कहा- ''पिता, मैं तुम्हारी लीला हूँ!''
सेनापति विक्रम को उस प्रांत का शासन मिला; पर मीना उन्हीं स्वर्ग के खंडहरों में उन्मुक्त घूमा करती। जब सेनापति बहुत स्मरण दिलाता, तो वह कह देती- ''मैं एक भटकी हुई बुलबुल हूँ। मुझे किसी टूटी डाल पर अंधकार बिता लेने दो! इस रजनी-विश्राम का मूल्य अंतिम तान सुनाकर जाऊँगी।''
मालूम नहीं, उसकी अंतिम तान किसी ने सुनी या नहीं।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कहानियाँ (पृष्ठ 36)
- रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
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