एक आदमी पर्दा उठाकर कमरे से बाहर निकलता है। अर्दली बाहर प्रतीक्षारत लोगों में से एक आदमी को इशारा करता है। वह आदमी जल्दी-जल्दी अंदर जाता है।
सवेरे आठ बजे से यही क्रम जारी है। अभी दस बजे ए.डी.एम. साहब को दौरे पर भी जाना है, लेकिन भीड़ है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही। किसी की खेत की समस्या है तो किसी की सीमेंट की। किसी की चीनी की, तो किसी की लाइसेंस की। समस्याएँ ही समस्याएँ।
पौने दस बजे एक लंबी घंटी बजती है। प्रत्युत्तर में अर्दली भागा-भागा भीतर जाता है। ''कितने मुलाक़ाती हैं अभी?''
''हुज़ूर, सात-आठ होंगे''
''सबको एक साथ भेज दो।''
अगले क्षण कई लोगों का झुंड अंदर घुसता है, लेकिन दस-ग्यारह साल का एक लड़का अभी भी बाहर बरामदे में खड़ा है। अर्दली झुँझलाता है, ''जा-जा तू भी जा।''
''मुझे अकेले में मिला दो,'' लड़का फिर मिनमिनाता है।
इस बार अर्दली भड़क जाता है, ''आख़िर ऐसा क्या है, जो तू सबेरे से अकेले-अकेले की रट लगा रहा है। क्या है इस चिट्टी में, बोल तो, क्या चाहिए—चीनी, सीमेंट, मिट्टी का तेल?''
लड़का चुप रह जाता है। चिट्ठी वापस जेब में डाल लेता है।
अर्दली लड़के को ध्यान से देख रहा है। मटमैली-सी सूती क़मीज़ और पायजामा, गले में लाल रंग का गमछा, छोटे-कड़े-खड़े-रूखे बाल, नंगे पाँव। धूल-धूसरित चेहरा, मुरझाया हुआ। अपरिचित माहौल में किंचित संभ्रमित, अविश्वासी और कठोर। दूर देहात से आया हुआ लगता है।
कुछ सोचकर अर्दली आश्वासन देता है, ''अच्छा, इस बार तू अकेले में मिल ले।'' लेकिन जब तक अंदर के लोग बाहर आएँ, साहब ऑफ़िस-रूम से बेड-रूम में चले जाते हैं।
ड्राइवर आकर जीप पोंछने लगता है। फिर इंजन स्टार्ट करके पानी डालता है। लड़का जीप के आगे-पीछे हो रहा है।
थोड़ी देर में अर्दली निकलता है। साहब की मैगज़ीन, रूल, पान का डिब्बा, सिगरेट का पैकेट और माचिस लेकर। फिर निकलते हैं साहब, धूप-छाँही चश्मा लगाए। चेहरे पर आभिजात्य और गंभीरता ओढ़े हुए।
लड़के पर नज़र पड़ते ही पूछते हैं, ''हाँ, बोलो बेटे, कैसे?''
लड़का सहसा कुछ बोल नहीं पा रहा है। वह संभ्रम नमस्कार करता है।
''ठीक है, ठीक है।'' साहब जीप में बैठते हुए पूछते हैं, ''काम बोलो अपना, जल्दी, क्या चाहिए?''
अर्दली बोलता है, ''हुज़ूर, मैंने लाख पूछा कि क्या काम है, बताता ही नहीं। कहता है, साहब से अकेले में बताना है।''
''अकेले में बताना है तो कल मिलना, कल।''
जीप रेंगने लगती है। लड़का एक क्षण असमंजस में रहता है फिर जीप के बग़ल में दौड़ते हुए जेब से एक चिट्ठी निकालकर साहब की गोद में फेंक देता है।
''ठीक है, बाद में मिलना'', साहब एक चालू आश्वासन देते हैं। तब तक लड़का पीछे छूट जाता है। लेकिन चिट्ठी की गँवारू शक्ल उनकी उत्सुकता बढ़ा देती है। उसे आटे की लेई से चिपकाया गया है।
चिट्ठी खोलकर वे पढ़ना शुरू करते हैं—'सरब सिरी उपमा जोग, खत लिखा लालू की माई की तरफ़ से, लालू के बप्पा को पाँव छूना पहुँचे...''
अचानक जैसे करेंट लग जाता है उनको। लालू की माई की चिट्ठी! इतने दिनों बाद। पसीना चुहचुहा आया है उनके माथे पर। सन्न!
बड़ी देर बाद प्रकृतिस्थ होते हैं वे। तिरछी आँखों और बैक मिरर से देखते हैं—ड्राइवर निर्विकार जीप चलाए जा रहा है। अर्दली ऊँघते हुए झूलने लगा है।
वे फिर चिट्ठी खोलते हैं—''आगे समाचार मालूम हो कि हम लोग यहाँ पर राज़ी-ख़ुशी से हैं और आपकी राज़ी-ख़ुशी भगवान से नेक मनाया करते हैं। आगे, लालू के बप्पा को मालूम हो कि हम अपनी याद दिलाकर आपको दुखी नहीं करना चाहते, लेकिन कुछ ऐसी मुसीबत आ गई है कि लालू को आपके पास भेजना ज़रूरी हो गया है। लालू दस महीने का था, तब आप आख़िरी बार गाँव आए थे। उस बात को दस साल होने जा रहे हैं। इधर दो-तीन साल से आपके चाचा जी ने हम लोगों को सताना शुरू कर दिया है। किसी न किसी बहाने से हमको, लालू को और कभी-कभी कमला को भी मारते-पीटते रहते हैं। जानते हैं कि आपने हम लोगों को छोड़ दिया है, इसलिए गाँव भर में कहते हैं कि 'लालू' आपका बेटा नहीं है।
वे चाहते हैं कि हम लोग गाँव छोड़कर भाग जाएँ तो सारी खेती-बारी, घर दुवार पर उनका क़ब्ज़ा हो जाए। आज आठ दिन हुए, आपके चाचा जी हमें बड़ी मार मारे। मेरा एक दाँत टूट गया। हाथ-पाँव सूज गए हैं। कहते हैं—गाँव छोड़कर भाग जाओ, नहीं तो महतारी-बेटे का मूँड़ काट लेंगे। अपने हिस्से का महुए का पेड़ वे ज़बरदस्ती कटवा लिए हैं। कमला अब सत्तरह वर्ष की हो गई है। मैंने बहुत दौड़-धूप कर एक जगह उसकी शादी पक्की की है। अगर आपके चाचा जी मेरी झूठी बदनामी लड़के वालों तक पहुँचा देंगे तो मेरी बिटिया की शादी भी टूट जाएगी। इसलिए आप से हाथ जोड़कर विनती है कि एक बार घर आकर अपने चाचा जी को समझा दीजिए। नहीं तो लालू को एक चिट्ठी ही दे दीजिए, अपने चाचा जी के नाम। नहीं तो आपके आँख फेरने से तो हम भीगी बिलार बने ही हैं, अब यह गाँव-डीह भी छूट जाएगा।
राम खेलावन मास्टर ने अख़बार देखकर बताया था कि अब आप इस ज़िले में हैं। इसी जगह पर लालू को भेज रही हूँ।''
चिट्ठी पढ़कर वे लंबी साँस लेते हैं। उन्हें याद आता है कि लड़का पीछे बंगले पर छूट गया है। कहीं किसी को अपना परिचय दे दिया तो? लेकिन अब इतनी दूर आ गए है कि वापस लौटना उचित नहीं लग रहा है। फिर वापस चलकर सबके सामने उससे बात भी तो नहीं की जा सकती है। उन्हें प्यास लग आई है। ड्राइवर से कहते हैं, ''जीप रोकना, प्यास लगी है।'' पानी और चाय पीकर सिगरेट सुलगाया उन्होंने। तब धीरे-धीरे प्रकृतिस्थ हो रहे हैं। उनके मस्तिष्क में दस साल पुराना गाँव उभर रहा है। गाँव, जहाँ उनका प्रिय साथी था—महुए का पेड़, जो अब नहीं रहा। उसी की जड़ पर बैठकर सवेरे से शाम तक 'कंपटीशन' की तैयारी करते थे वे। गाँव जहाँ उनकी उस समय की प्रिय बेटी कमला थी। जिसके लाल-लाल नरम होंठ कितने सुंदर लगते थे। महुए के पेड़ पर बैठकर कौआ जब 'काँ-काँ!' बोलता तो ज़मीन पर बैठी नन्हीं कमला दुहराती—काँ! काँ! कौआ थक-हारकर उड़ जाता तो वह ताली पीटती थी। वह अब सयानी हो गई है। उसकी शादी होने वाली हैं एक दिन हो भी जाएगी। विदा होते समय अपने छोटे भाई का पाँव पकड़कर रोएगी। बाप का पाँव नहीं रहेगा पकड़कर रोने के लिए। भाई आश्वासन देगा कंधा पकड़कर, आफ़त-बिपत में साथ देने का। बाप की शायद कोई घुँधली-सी तस्वीर उभरे उसके दिमाग़ में।
फिर उनके दिमाग़ में पत्नी के टूटे दाँतवाला चेहरा घूम गया। दीनता की मूर्ति, अति परिश्रम-कुपोषण और पति की निष्ठुरता से कृश, सूखा शरीर, हाथ-पाँव सूजे हुए, मार से। बहुत ग़रीबी के दिन थे, जब उनका गौना हुआ था। इंटर पास किया था उस साल। लालू की मार्इ बलिष्ठ कद-काठी की हिम्मत और जीवटवाली महिला थी, निरक्षर लेकिन आशा और आत्मविश्वास की मूर्ति। उसे देखकर उनके मन में श्रद्धा होती थी उसके प्रति। इतनी आस्था हो ज़िंदगी और परिश्रम में तो संसार की कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं रह सकती। बी.ए. पास करते-करते कमला पैदा हो गई थी। उसके बाद बेरोज़गारी के वर्षो में लगातार हिम्मत बँधाती रहती थी। अपने गहने बेचकर प्रतियोगिता परीक्षा की फ़ीस और पुस्तकों की व्यवस्था की थी उसने। खेती-बारी का सारा काम अपने ज़िम्मे लेकर उन्हें परीक्षा की तैयारी के लिए मुक्त कर दिया था। रबी की सिंचार्इ के दिनों में सारे दिन बच्ची को पेड़ के नीचे लिटाकर कुएँ पर पुर हाँका करती थी। बाज़ार से हरी सब्ज़ी ख़रीदना संभव नहीं था, लेकिन छप्पर पर चढ़ी हुर्इ नेनुआ की लताओं को वह अगहन-पूस तक बाल्टी भर-भर कर सींचती रहती थी, जिससे उन्हें हरी सब्ज़ी मिलती रहे। रोज़ सबेरे ताज़ी रोटी बनाकर उन्हें खिला देती और ख़ुद बासी खाकर लड़की को लेकर खेत पर चली जाती थी। एक बकरी लार्इ थी वह अपने मायके से, जिससे उन्हें सबेरे थोड़ा दूध या चाय मिल सके। रात को सोते समय पूछती, ''अभी कितनी किताब और पढ़ना बाक़ी है, साहबीवाली नौकरी पाने के लिए।''
वे उसके प्रश्न पर मुस्करा देते, ''कुछ कहा नहीं जा सकता। सारी किताबें पढ़ लेने के बाद भी ज़रूरी नहीं कि साहब बन ही जाएँ।''
ऐसा मत सोचा करिए,'' वह कहती, ''मेहनत करेंगे तो भगवान उसका फल ज़रूर देंगे।''
यह उसी के त्याग, तपस्या और आस्था का परिणाम था कि एक ही बार में उनका सेलेक्शन हो गया था। परिणाम निकला तो वे ख़ुद आश्चर्यचकित थे। घर आकर एकांत में पत्नी को गले से लगा लिया था। वाणी अवरूद्ध हो गई थी। उसको पता लगा तो वह बड़ी देर तक निस्पंद रोती रही, बेआवाज़। सिर्फ़ आँसू झरते रहे थे। पूछने पर बताया, ख़ुशी के आँसू हैं ये।
गाँव की औरतें ताना मारती थीं कि ख़ुद ढोएगी गोबर और भतार को बनाएगी कप्तान, लेकिन अब कोई कुछ नहीं कहेगा, मेरी पत बच गई।
वे भी रोने लगे थे उसका कंधा पकड़कर।
जाने कितनी मनौतियाँ माने हुए थी वह। सत्यनारायण...संतोषी...शुक्रवार...विंध्याचल... सब एक-एक करके पूरा किया था। ज़रा-जीर्ण कपड़े में पुलकती घूमती उसकी छवि, जिसेकहते हैं, राजपाट पा जाने की ख़ुशी।
सर्विस ज्वाइन करने के बाद एक-डेढ़ साल तक वे हर माह के द्वितीय शनिवार और रविवार को गाँव जाते रहे थे। पिता, पत्नी, पुत्री सबके लिए कपड़े-लत्ते तथा घर की अन्य छोटी-मोटी चीज़ें, जो अभी तक पैसे के अभाव के कारण नहीं थीं, वे एक-एक करके लाने लगे थे। पत्नी को पढ़ाने के लिए एक ट्यूटर लगा दिया था। पत्नी की देहाती ढंग से पहनी गई साड़ी और घिसे-पिटे कपड़े उनकी आँखों में चुभने लगे थे। एक-दो बार शहर ले जाकर फ़िल्म वग़ैरह दिखा लाए थे, जिसका अनुकरण कर वह अपने में आवश्यक सुधार ले आए। खड़ी बोली बोलने का अभ्यास कराया करते थे, लेकिन घर-गृहस्थी के अथाह काम और बीमार ससुर की सेवा से इतना समय वह न निकाल पाती, जिससे पति की इच्छा के अनुसार अपने में परिवर्तन ला पाती। वह महसूस करती थी कि उसके गँवारपन के कारण वे अक्सर खीज उठते और कभी-कभी तो रात में कहते कि उठकर नहा लो और कपड़े बदलो, तब आकर सोओ। भूसे जैसी गंध आ रही है तुम्हारे शरीर से। उस समय वह कुछ न बोलती। चुपचाप आदेश का पालन करती, लेकिन जब मनोनुकूल वातावरण पाती तो मुस्कराकर कहती, ''अब मैं आपके 'जोग' नहीं रह गई हूँ, कोई शहराती 'मेम' ढूँढ़िए अपने लिए।''
''क्यों, तुम कहाँ जाओगी?''
''जाउँगी कहाँ, यहाँ रहकर ससुरजी की सेवा करूँगी। आपका घर-दुवार सँभालूँगी। जब कभी आप गाँव आएँगे, आपकी सेवा करूँगी''
''तुमने मेरे लिए इतना दुख झेला है, तुम्हारे ही पुण्य-प्रताप से आज मैं धूल से आसमान पर पहुँचा हूँ, गाढ़े समय में सहारा दिया है। तुम्हें छोड़ दूँगा तो नरक में भी जगह न मिलेगी मुझे?''
लेकिन उनके अंदर उस समय भी कहीं कोई चोर छिपा बैठा था, जिसे वे पहचान नहीं पाए थे।
जिस साल लालू पैदा हुआ, उसी साल पिता जी का देहांत हो गया। क्रिया-कर्म करके वापस गए तो मन गाँव से थोड़ा-थोड़ा उचटने लगा था। दो बच्चों की प्रसूति और कुपोषण से पत्नी का स्वास्थ्य उखड़ गया था। शहर की आबोहवा तथा साथी अधिकारियों के घर-परिवार का वातावरण हीन भावना पैदा करने लगा था। ज़िंदगी के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगा था। गाँव कर्इ-कर्इ महीनों बाद आने लगे थे। और आने पर पत्नी जब घर की समस्याएँ बताती तो लगता, ये किसी और की समस्याएँ हैं। इनसे उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है। वे शहर में अपने को 'अनमैरिड' बताते थे। इस समय तक उनकी जान-पहचान जिला न्यायाधीश की लड़की ममता से हो चुकी थी और उसके सान्निध्य के कारण पत्नी से जुड़ा रहा-सहा रागात्मक संबंध भी अत्यंत क्षीण हो चला था।
तीन-चार महीने बाद फिर गाँव आए तो पत्नी ने टोका था, ''इस बार क़ाफ़ी दुबले हो गए हैं। लगता है, क़ाफ़ी काम रहता है, बहुत गुमसुम रहने लगे हैं, क्या सोचते रहते हैं?''
वे टाल गए थे। रात में उसने कहा, ''इस बार मैं भी चलूँगी साथ में। अकेले तो आपकी देह गल जाएगी।''
वे चौंक गए थे, ''लेकिन यहाँ की खेती-बारी, घर-दुवार कौन देखेगा? अब तो पिताजी भी नहीं रहे।''
''तो खेती-बारी के लिए अपना शरीर सुखाइएगा?''
''तुम तो फ़ालतू में चिंता करती हो,'' लेकिन वह कुछ और सुनना चाहती थी, बोली थी, ''फिर आप शादी क्यों नहीं कर लेते वहाँ किसी पढ़ी-लिखी लड़की से? मैं तो शहर में आपके साथ रहने लायक भी नहीं हूँ।''
''कौन सिखाता है तुम्हें इतनी बातें?''
''सिखाएगा कौन? यह तो सनातन से होता आया है। मैं तो आपकी सीता हूँ। जब तक बनवास में रहना पड़ा, साथ रही, लेकिन राजपाट मिल जाने के बाद तो सोने की सीता ही साथ में सो हेगी। लालू के बाबू, सीता को तो आगे भी बनवास ही लिखा रहता है।''
''चुपचाप सो जाओ।'' उन्होंने कहा, लेकिन सोई नहीं वह। बड़ी देर तक छाती पर सिर रखकर पड़ी रही फिर बोली, ''एक गीत सुनाऊँगी आपको। मेरी माँ कभी-कभी गाया करती थी।'' फिर बड़े करूण स्वर में गाती रही थी वह, जिसकी एकाध पंक्ति ही अब उन्हें याद है—'' सौतनिया संग रास रचावत, मों संग रास भुलान, यह बतिया कोऊ कहत बटोही, त लगत करेजवा में बान, सँवरिया भूले हमें...''
वे अंदर से हिल गए और उसे दिलासा देते रहे कि वह भ्रम में पड़ गई है, पर वह तो जैसे भविष्यद्रष्टा थी। आगत, जो अभी उनके सामने भी बहुत स्पष्ट नहीं था, उसने साफ़ देख लिया था। उनके सीने में उसने कहीं 'ममता' की गंध पा ली थी।
उस बार गाँव से आए तो फिर पाँच-छह महीने तक वापस जाने का मौक़ा नहीं लग पाया। इसी बीच ममता से उनका विवाह हो गया। शादी के दूसरे तीसरे महीने गाँव से पत्नी का पत्र आया कि कमला को चेचक निकल आई है। लालू भी बहुत बीमार है। मौक़ा निकालकर चले आइए। लेकिन गाँव वे पत्र मिलने के महीने भर बाद ही जा सके। कोई बहाना ही समझ में नहीं आ रहा था, जो ममता से किया जा सकता। दोनों बच्चे तब तक ठीक हो चुके थे, लेकिन उनके पहुँचने के साथ ही उसकी आँखें झरने-सी झरनी शुरू हो गई थीं। कुछ बोली नहीं थी। रात में फिर वही गीत बड़ी देर तक गाती रही थी। उनका हाथ पकड़कर कहा था, ''लगता है, आप मेरे हाथों से फिसले जा रहे हैं और मैं आपको सँभाल नहीं पा रही हूँ।'' वे इस बार कोई आश्वासन नहीं दे पाए थे। उसका रोना-धोना उन्हें क़ाफ़ी अन्यमनस्क बना रहा था। वे उकताए हुए से थे। अगले ही दिन वे वापस जाने को तैयार हो गए थे। घर से निकलने लगे तो वह आधे घंटे तक पाँव पकड़कर रोती रही थी। फिर लड़की को पैरों पर झुकाया था, नन्हें लालू को पैरों पर लिटा दिया था। जैसे सब कुछ लुट गया हो, ऐसी लग रही थी वह, दीन-हीन-मलिन।
वे जान छुड़ाकर बाहर निकल आए थे। वही उनका अंतिम मिलन था। तब से दस साल के क़रीब होने को आए, वे न कभी गाँव गए, न ही कोई चिट्टी-पत्री लिखी।
हाँ, क़रीब साल भर बाद पत्नी की चिट्ठी ज़रूर आई थी। न जाने कैसे उसे पता लग गया था, लिखा था—कमला नई अम्मा के बारे में पूछती है। कभी ले आइए उनको गाँव। दिखा-बता जाइए कि गाँव में भी उनकी खेती-बारी, घर-दुवार है। लालू अब दौड़ लेता है। तेवारी बाबा उसका हाथ देखकर बता रहे थे कि लड़का भी बाप की तरह तोता-चश्म होगा। जैसे तोते को पालिए-पोसिए, खिलाइए-पिलाइए, लेकिन मौक़ा पाते ही उड़ जाता है। पोस नहीं मानता। वैसे ही यह भी...तो मैंने कहा, 'बाबा, तोता पंछी होता है, फिर भी अपनी आन नहीं छोड़ता, ज़रूर उड़ जाता है, तो आदमी होकर भला कोई कैसे अपनी आन छोड़ दे? पोसना कैसे छोड़ दे? मैं तो इसे इसके बापू से भी बड़ा साहब बनाऊँगी...'
उन्होंने पत्र का कोई उत्तर नहीं भेजा था। हाँ, वह पत्र ममता के हाथों में ज़रूर पड़ गया था, जिसके कारण महीनों घर में रोना-धोना और तनाव व्याप्त रहा था।...और क़रीब नौ साल बाद आज यह दूसरा पत्र है।
पत्र उनके हाथों में बड़ी देर तक काँपता रहा और फिर उसे उन्होंने जेब में रख लिया। मन में सवाल उठने लगे—क्या मिला उसको उन्हें आगे बढ़ाकर? वे बेरोज़गार रहते, गाँव में खेती-बारी करते। वह कंधे से कंधा भिड़ाकर खेत में मेहनत करती। रात में दोनों सुख की नींद सोते। तीनों लोकों का सुख उसकी मुट्ठी में रहता। छोटे से संसार में आत्मतुष्ट हो जीवन काट देती। उन्हें आगे बढ़ाकर वह पीछे छूट गई। माथे का सिंदूर और हाथ की चूड़ियाँ निरंतर दुख दे रही हैं उसे।
सारे दिन किसी कार्यक्रम में उनका मन नहीं लगता।
शाम को जीप वापस लौट रही है। उनके मस्तिष्क में लड़के का चेहरा उभर आया है—जैसे मरूभूमि में खड़ा हुआ अशेष जिजीविषा वाला बबूल का कोई शिशु झाड़, जिसे कोई झंझावात डिगा नहीं सकता। कोई तपिश सुखा नहीं सकती। उपेक्षा की धूप में जो हरा-भरा रह लेगा, अनुग्रह की बाढ़ में जो गल जाएगा।
जीप गेट के अंदर मुड़ती है तो गेट से सटे चबूतरे पर लड़का औंधा लेटा दिखाई देता है। मच्छरों से बचने के लिए उसने अँगौछे से सारा शरीर ढँक लिया है। जीप आगे बढ़ जाती है।
अंदर उनकी चार साल की बेटी टी.वी. देख रही है। आहट पाकर दौड़ी आती है और पैरों से लिपट जाती है। फिर महत्त्वपूर्ण सूचना देती है तर्जनी उठाकर, ''पापा, पापा, ओ बदमाश लड़का, बरामदे तक घुस आया था। मम्मी पूछती, तो बोलता नहीं था। भगाती तो भागता नहीं था। मैंने अपनी खिलौना मोटर फेंककर मारा, उसका माथा कटने से ख़ून बहकर मुँह में जाने लगा तो थू-थू करता हुआ भागा। और पापा, वह ज़रूर बदमाश था। ज़रा भी नहीं रोया। बस, घूर रहा था। बाहर चपरासियों के लड़के मार रहे थे, लेकिन मम्मी ने मना करवा दिया।''
वाश-बेसिन की तरफ़ बढ़ते हुए वे ममता से पूछते हैं, ''कौन था?''
''शायद आपके गाँव से आया है। भेंट नहीं हुई क्या?''
''मैं तो अभी चला आ रहा हूँ, कहाँ गया?''
''नाम नहीं बताता था, काम नहीं बताता था, कहता था, सिर्फ़ साहब को बताऊँगा। फिर लड़के तंग करने लगे तो बाहर चला गया।''
''कुछ खाना-पीना?''
''पहले यह बताइए, वह है कौन?'' एकाएक ममता का स्वर कर्कश और तेज़ हो गया, ''उस चुड़ैल की औलाद तो नहीं, जिसे आप गाँव का राज-पाट दे आए हैं? ऐसा हुआ तो ख़बरदार, जो उसे गेट के अंदर भी लाए, ख़ून पी जाऊँगी।''
वे चुपचाप ड्राइंगरूम में आकर सोफ़े पर निढाल पड़ गए हैं। चक्कर आने लगा है। शायद रक्तचाप बढ़ गया है।
बाहर फागुनी जाड़ा बढ़ता जा रहा है।
सवेरे उठकर वे देखते हैं चबूतरे पर 'गाँव' नहीं है।
वे चैन की साँस लेते हैं।
kirr kirr kirr ghanti bajti hai.
ek adami parda uthakar kamre se bahar nikalta hai. ardali bahar pratiksharat logon mein se ek adami ko ishara karta hai. wo adami jaldi jaldi andar jata hai.
sabre aath baje se yahi kram jari hai. abhi das baje e. d. em. sahab ko daure par bhi jana hai, lekin bheeD hai ki kam hone ka naam hi nahin le rahi. kisi ki khet ki samasya hai to kisi ki cement ki. kisi ki chini ki, to kisi ki laisens ki. samasyayen hi samasyayen.
paune das baje ek lambi ghanti bajti hai. pratyuttar mein ardali bhaga bhaga bhitar jata hai. kitne mulaqati hain abhi?
huzur, saat aath honge
sabko ek saath bhej do.
agle kshan kari logon ka jhunD andar ghusta hai, lekin das gyarah saal ka ek laDka abhi bhi bahar baramde mein khaDa hai. ardali jhunjhlata hai, ja ja tu bhi ja.
mujhe akele mein mila do, laDka phir minaminata hai.
is baar ardali bhaDak jata hai, akhir aisa kya hai, jo tu sabere se akele akele ki rat laga raha hai. kya hai is chitti mein, bol to, kya chahiye—chini, cement, mitti ka tel?
laDka chup rah jata hai. chitthi vapas jeb mein Daal leta hai.
ardali laDke ko dhyaan se dekh raha hai. matmaili si suti qamiz aur payajama, gale mein laal rang ka gamchha, chhote kaDe khaDe rukhe baal, nange paanv. dhool dhusarit chehra, murjhaya hua. aprichit mahaul mein kinchit sambhrmit, avishvasi aur kathor. door dehat se aaya hua lagta hai.
kuch sochkar ardali ashvasan deta hai, achchha, is baar tu akele mein mil le. lekin jab tak andar ke log bahar ayen, sahab auphis room se bed room mein chale jate hain.
Draivar aakar jeep ponchhne lagta hai. phir engine start karke pani Dalta hai. laDka jeep ke aage pichhe ho raha hai.
thoDi der mein ardali nikalta hai. sahab ki maigzin, rool, paan ka Dibba, cigarette ka packet aur machis lekar. phir nikalte hain sahab, dhoop chhanhi chashma lagaye. chehre par abhijaty aur gambhirta oDhe hue.
laDke par nazar paDte hi puchhte hain, haan, bolo bete, kaise?
laDka sahsa kuch bol nahin pa raha hai. wo sambhram namaskar karta hai.
theek hai, theek hai. sahab jeep mein baithte hue puchhte hain, kaam bolo apna, jaldi, kya chahiye?
ardali bolta hai, huzur, mainne laakh puchha ki kya kaam hai, batata hi nahin. kahta hai, sahab se akele mein batana hai.
akele mein batana hai to kal milna, kal.
jeep rengne lagti hai. laDka ek kshan asmanjas mein rahta hai phir jeep ke baghal mein dauDte hue jeb se ek chitthi nikalkar sahab ki god mein phenk deta hai.
theek hai, baad mein milna, sahab ek chalu ashvasan dete hain. tab tak laDka pichhe chhoot jata hai. lekin chitthi ki ganvaru shakl unki utsukta baDha deti hai. use aate ki leri se chipkaya gaya hai.
chitthi kholkar ve paDhna shuru karte hain—sarab siri upma jog, khat likha lalu ki mari ki taraf se, lalu ke bappa ko paanv chhuna pahunche. . .
achanak jaise current lag jata hai unko. lalu ki mari ki chitthi! itne dinon baad. pasina chuhchuha aaya hai unke mathe par. sann!
baDi der baad prakrtisth hote hain ve. tirchhi ankhon aur baik mirar se dekhte hain—Draivar nirvikar jeep chalaye ja raha hai. ardali unghte hue jhulne laga hai.
ve phir chitthi kholte hain—age samachar malum ho ki hum log yahan par razi khushi se hain aur apaki razi khushi bhagvan se nek manaya karte hain. aage, lalu ke bappa ko malum ho ki hum apni yaad dilakar aapko dukhi nahin karna chahte, lekin kuch aisi musibat aa gari hai ki lalu ko aapke paas bhejna zaruri ho gaya hai. lalu das mahine ka tha, tab aap akhiri baar gaanv aaye the. us baat ko das saal hone ja rahe hain. idhar do teen saal se aapke chacha ji ne hum logon ko satana shuru kar diya hai. kisi na kisi bahane se hamko, lalu ko aur kabhi kabhi kamla ko bhi marte pitte rahte hain. jante hain ki aapne hum logon ko chhoD diya hai, isliye gaanv bhar mein kahte hain ki lalu aapka beta nahin hai.
ve chahte hain ki hum log gaanv chhoDkar bhaag jayen to sari kheti bari, ghar duvar par unka kabza ho jaye. aaj aath din hue, aapke chacha ji hamein baDi maar mare. mera ek daant toot gaya. haath paanv sooj gaye hain. kahte hain—ganv chhoDkar bhaag jao, nahin to mahtari bete ka moonD kaat lenge. apne hisse ka mahuve ka peD ve zabardasti katva liye hain. kamla ab sattarah varsh ki ho gari hai. mainne bahut dauD dhoop kar ek jagah uski shadi pakki ki hai. agar aapke chacha ji meri jhuthi badnami laDkevalon tak pahuncha denge to meri bitiya ki shadi bhi toot jayegi. isliye aap se haath joDkar vinti hai ki ek baar ghar aakar apne chacha ji ko samjha dijiye. nahin to lalu ko ek chitthi hi de dijiye, apne chacha ji ke naam. nahin to aapke ankh pherne se to hum bhigi bilar bane hi hain, ab ye gaanv Deeh bhi chhoot jayega.
raam khelavan master ne akhbar dekhkar bataya tha ki ab aap is zile mein hain. isi jagah par lalu ko bhej rahi hoon.
chitthi paDhkar ve lambi saans lete hain. unhen yaad aata hai ki laDka pichhe bangle par chhoot gaya hai. kahin kisi ko apna parichai de diya to? lekin ab itni door aa gaye hai ki vapas lautna uchit nahin lag raha hai. phir vapas chalkar sabke samne usse baat bhi to nahin ki ja sakti hai. unhen pyaas lag aari hai. Draivar se kahte hain, jeep rokna, pyaas lagi hai. pani aur chaay pikar cigarette sulgaya unhonne. tab dhire dhire prakrtisth ho rahe hain. unke mastishk mein das saal purana gaanv ubhar raha hai. gaanv, jahan unka priy sathi tha—mahuve ka peD, jo ab nahin raha. usi ki jaD par baithkar sabere se shaam tak kamptishan ki taiyari karte the ve. gaanv jahan unki us samay ki priy beti kamla thi. jiske laal laal naram honth kitne sundar lagte the. mahuve ke peD par baithkar kaua jab kaan kaan! bolta to zamin par baithi nanhin kamla duhrati—kan! kaan! kaua thak harkar uD jata to wo tali pitti thi. wo ab sayani ho gari hai. uski shadi hone vali hain ek din ho bhi jayegi. vida hote samay apne chhote bhari ka paanv pakaDkar roegi. baap ka paanv nahin rahega pakaDkar rone ke liye. bhari ashvasan dega kandha pakaDkar, aafat bipat mein saath dene ka. baap ki shayad kori ghundhali si tasvir ubhre uske dimagh mein.
phir unke dimagh mein patni ke tute dantvala chehra ghoom gaya. dinta ki murti, ati parishram kuposhan aur pati ki nishthurta se krish, sukha sharir, haath paanv suje hue, maar se. bahut garibi ke din the, jab unka gauna hua tha. inter paas kiya tha us saal. lalu ki mari balishth kad kathi ki himmat aur jivatvali mahila thi, nirakshar lekin aasha aur atmavishvas ki murti. use dekhkar unke man mein shardha hoti thi uske prati. itni astha ho zindagi aur parishram mein to sansar ki kori bhi vastu alabhy nahin rah sakti. b. e. paas karte karte kamla paida ho gari thi. uske baad berozagar ke varsho mein lagatar himmat bandhati rahti thi. apne gahne bechkar pratiyogita pariksha ki fees aur pustakon ki vyavastha ki thi usne. kheti bari ka sara kaam apne zimme lekar unhen pariksha ki taiyari ke liye mukt kar diya tha. rabi ki sinchari ke dinon mein sare din bachchi ko peD ke niche litakar kuen par pur hanka karti thi. bazar se hari sabzi kharidna sambhav nahin tha, lekin chhappar par chaDhi huri nenua ki lataon ko wo aghan poos tak balti bhar bhar kar sinchti rahti thi, jisse unhen hari sabzi milti rahe. roz sabere tazi roti banakar unhen khila deti aur khu basi khakar laDki ko lekar khet par chali jati thi. ek bakri lari thi wo apne mayke se, jisse unhen sabere thoDa doodh ya chaay mil sake. raat ko sote samay puchhti, abhi kitni kitab aur paDhna baqi hai, sahbivali naukari pane ke liye.
ve uske parashn par muskra dete, kuch kaha nahin ja sakta. sari kitaben paDh lene ke baad bhi zaruri nahin ki sahab ban hi jayen.
aisa mat socha kariye, wo kahti, mehnat karenge to bhagvan uska phal zarur denge.
ye usi ke tyaag, tapasya aur astha ka parinaam tha ki ek hi baar mein unka selekshan ho gaya tha. parinaam nikla to ve khu ashcharyachkit the. ghar aakar ekaant mein patni ko gale se laga liya tha. vani avruddh ho gari thi. usko pata laga to wo baDi der tak nispand roti rahi, beavaz. sirf ansu jharte rahe the. puchhne par bataya, khushi ke ansu hain ye.
gaanv ki aurten tana marti theen ki khu Dhoegi gobar aur bhatar ko banayegi kaptan, lekin ab kori kuch nahin kahega, meri pat bach gari.
ve bhi rone lage the uska kandha pakaDkar.
jane kitni manautiyan mane hue thi wo. satyanarayan. . . santoshai. . . shukravar. . . vindhyachal. . . sab ek ek karke pura kiya tha. zara jeern kapDe mein pulakti ghumti uski chhavi, jise kahte hain, rajapat pa jane ki khushi.
service jvain karne ke baad ek DeDh saal tak ve har maah ke dvitiy shanivar aur ravivar ko gaanv jate rahe the. pita, patni, putri sabke liye kapDe latte tatha ghar ki any chhoti moti chijen, jo abhi tak paise ke abhav ke karan nahin theen, ve ek ek karke lane lage the. patni ko paDhane ke liye ek tutor laga diya tha. patni ki dehati Dhang se pahni gari saDi aur ghise pite kapDe unki ankhon mein chubhne lage the. ek do baar shahr le jakar film vaghairah dikha laye the, jiska anukarn kar wo apne mein avashyak sudhar le aaye. khaDi boli bolne ka abhyas karaya karte the, lekin ghar grihasthi ke athah kaam aur bimar sasur ki seva se itna samay wo na nikal pati, jisse pati ki ichha ke anusar apne mein parivartan la pati. wo mahsus karti thi ki uske ganvarapan ke karan ve aksar kheej uthte aur kabhi kabhi to raat mein kahte ki uthkar nha lo aur kapDe badlo, tab aakar soo. bhuse jaisi gandh aa rahi hai tumhare sharir se. us samay wo kuch na bolti. chupchap adesh ka palan karti, lekin jab manonukul vatavarn pati to muskrakar kahti, ab main aapke jog nahin rah gari hoon, kori shahrati mem DhunDhiye apne liye.
kyon, tum kahan jaogi?
jaungi kahan, yahan rahkar sasurji ki seva karungi. aapka ghar duvar sanbhalungi. jab kabhi aap gaanv ayenge, apaki seva karungi
tumne mere liye itna dukh jhela hai, tumhare hi punny pratap se aaj main dhool se asman par pahuncha hoon, gaDhe samay mein sahara diya hai. tumhein chhoD dunga to narak mein bhi jagah na milegi mujhe?
lekin unke andar us samay bhi kahin kori chor chhipa baitha tha, jise ve pahchan nahin pae the.
jis saal lalu paida hua, usi saal pita ji ka dehant ho gaya. kriya karm karke vapas gaye to man gaanv se thoDa thoDa uchatne laga tha. do bachchon ki prasuti aur kuposhan se patni ka svaasthy ukhaD gaya tha. shahr ki abohva tatha sathi adhikariyon ke ghar parivar ka vatavarn heen bhavna paida karne laga tha. zindagi ke prati drishtikon badalne laga tha. gaanv kari kari mahinon baad aane lage the. aur aane par patni jab ghar ki samasyayen batati to lagta, ye kisi aur ki samasyayen hain. inse unhen kuch lena dena nahin hai. ve shahr mein apne ko anamairiD batate the. is samay tak unki jaan pahchan jila nyayadhish ki laDki mamta se ho chuki thi aur uske sannidhy ke karan patni se juDa raha saha ragatmak sambandh bhi atyant kshain ho chala tha.
teen chaar mahine baad phir gaanv aaye to patni ne toka tha, is baar qafi duble ho gaye hain.
lagta hai, qafi kaam rahta hai, bahut gumsum rahne lage hain, kya sochte rahte hain?
ve taal gaye the. raat mein usne kaha, is baar main bhi chalungi saath mein. akele to apaki deh gal jayegi.
ve chaunk gaye the, lekin yahan ki kheti bari, ghar duvar kaun dekhega? ab to pitaji bhi nahin rahe.
to kheti bari ke liye apna sharir sukhaiyega?
tum to faltu mein chinta karti ho, lekin wo kuch aur sunna chahti thi, boli thi, phir aap shadi kyon nahin kar lete vahan kisi paDhi likhi laDki se? main to shahr mein aapke saath rahne layak bhi nahin hoon.
kaun sikhata hai tumhein itni baten?
sikhayega kaun? ye to sanatan se hota aaya hai. main to apaki sita hoon. jab tak banvas mein rahna paDa, saath rahi, lekin rajapat mil jane ke baad to sone ki sita hi saath mein so hegi. lalu ke babu, sita ko to aage bhi banvas hi likha rahta hai.
chupchap so jao. unhonne kaha, lekin sori nahin wo. baDi der tak chhati par sir rakhkar paDi rahi phir boli, ek geet sunaungi aapko. meri maan kabhi kabhi gaya karti thi. phir baDe karun svar mein gati rahi thi wo, jiski ekaadh pankti hi ab unhen yaad hai— sautaniya sang raas rachavat, mon sang raas bhulan, ye batiya kou kahat batohi, t lagat karejva mein baan, sanvriya bhule hamein. . .
ve andar se hil gaye aur use dilasa dete rahe ki wo bhram mein paD gari hai, par wo to jaise bhavishyadrashta thi. aagat, jo abhi unke samne bhi bahut aspasht nahin tha, usne saaf dekh liya tha. unke sine mein usne kahin mamta ki gandh pa li thi.
us baar gaanv se aaye to phir paanch chhah mahine tak vapas jane ka mauqa nahin lag paya. isi beech mamta se unka vivah ho gaya. shadi ke dusre tisre mahine gaanv se patni ka patr aaya ki kamla ko chechak nikal aari hai. lalu bhi bahut bimar hai. mauka nikalkar chale aiye. lekin gaanv ve patr milne ke mahine bhar baad hi ja sake. kori bahana hi samajh mein nahin aa raha tha, jo mamta se kiya ja sakta. donon bachche tab tak theek ho chuke the, lekin unke pahunchne ke saath hi uski ankhen jharne si jharni shuru ho gari theen. kuch boli nahin thi. raat mein phir vahi geet baDi der tak gati rahi thi. unka haath pakaDkar kaha tha, lagta hai, aap mere hathon se phisle ja rahe hain aur main aapko sanbhal nahin pa rahi hoon.
ve is baar kori ashvasan nahin de pae the. uska rona dhona unhen qafi anyamnask bana raha tha. ve uktaye hue se the. agle hi din ve vapas jane ko taiyar ho gaye the. ghar se nikalne lage to wo aadhe ghante tak paanv pakaDkar roti rahi thi. phir laDki ko pairon par jhukaya tha, nanhen lalu ko pairon par lita diya tha. jaise sab kuch lut gaya ho, aisi lag rahi thi wo, deen heen malin.
ve jaan chhuDakar bahar nikal aaye the. vahi unka antim milan tha. tab se das saal ke qarib hone ko aaye, ve na kabhi gaanv gaye, na hi kori chitti patri likhi.
haan, qarib saal bhar baad patni ki chitthi zarur aari thi. na jane kaise use pata lag gaya tha, likha tha—kamla nari amma ke bare mein puchhti hai. kabhi le aiye unko gaanv. dikha bata jaiye ki gaanv mein bhi unki kheti bari, ghar duvar hai. lalu ab dauD leta hai. tevari baba uska haath dekhkar bata rahe the ki laDka bhi baap ki tarah tota chashm hoga. jaise tote ko paliye posiye, khilaiye pilaiye, lekin mauqa pate hi uD jata hai. pos nahin manata. vaise hi ye bhi. . . to mainne kaha, baba, tota panchhi hota hai, phir bhi apni aan nahin chhoDta, zarur uD jata hai, to adami hokar bhala kori kaise apni aan chhoD de? posna kaise chhoD de? main to ise iske bapu se bhi baDa sahab banaungi. . .
unhonne patr ka kori uttar nahin bheja tha. haan, wo patr mamta ke hathon mein zarur paD gaya tha, jiske karan mahinon ghar mein rona dhona aur tanav vyaapt raha tha. . . . aur qarib nau saal baad aaj ye dusra patr hai.
patr unke hathon mein baDi der tak kanpta raha aur phir use unhonne jeb mein rakh liya. man mein saval uthne lage—kya mila usko unhen aage baDhakar? ve berozgar rahte, gaanv mein kheti bari karte. wo kandhe se kandha bhiDakar khet mein mehnat karti. raat mein donon sukh ki neend sote. tinon lokon ka sukh uski mutthi mein rahta. chhote se sansar mein atmtusht ho jivan kaat deti. unhen aage baDhakar wo pichhe chhoot gari. mathe ka sindur aur haath ki chuDiyan nirantar dukh de rahi hain use.
sare din kisi karyakram mein unka man nahin lagta.
shaam ko jeep vapas laut rahi hai. unke mastishk mein laDke ka chehra ubhar aaya hai—jaise marubhumi mein khaDa hua ashesh jijivisha vala babul ka kori shishu jhaaD, jise kori jhanjhavat Diga nahin sakta. kori tapish sukha nahin sakti. upeksha ki dhoop mein jo hara bhara rah lega, anugrah ki baaDh mein jo gal jayega.
jeep gate ke andar muDti hai to gate se sate chabutre par laDka aundha leta dikhari deta hai. machchharon se bachne ke liye usne angauchhe se sara sharir Dhank liya hai. jeep aage baDh jati hai.
andar unki chaar saal ki beti t. vi. dekh rahi hai. aahat pakar dauDi aati hai aur pairon se lipat jati hai. phir mahattvapurn suchana deti hai tarjani uthakar, papa, papa, o badmash laDka, baramde tak ghus aaya tha. mammy puchhti, to bolta nahin tha. bhagati to bhagta nahin tha. mainne apni khilauna motor phenkkar mara, uska matha katne se khoon bahkar munh mein jane laga to thu thu karta hua bhaga. aur papa, wo zarur badmash tha. zara bhi nahin roya. bus, ghoor raha tha. bahar chaprasiyon ke laDke maar rahe the, lekin mammy ne mana karva diya.
vaash besin ki taraf baDhte hue ve mamta se puchhte hain, kaun tha?
shayad aapke gaanv se aaya hai. bhent nahin hui kyaa?
main to abhi chala aa raha hoon, kahan gaya?
naam nahin batata tha, kaam nahin batata tha, kahta tha, sirf sahab ko bataunga. phir laDke tang karne lage to bahar chala gaya.
kuch khana pina?
pahle ye bataiye, wo hai kaun? ekayek mamta ka svar karkash aur tez ho gaya, us chuDail ki aulad to nahin, jise aap gaanv ka raaj paat de aaye hain? aisa hua to khabardar, jo use gate ke andar bhi laye, khoon pi jaungi.
ve chupchap Draingrum mein aakar sofe par niDhal paD gaye hain. chakkar aane laga hai. shayad raktachap baDh gaya hai.
bahar faguni jaDa baDhta ja raha hai.
sabere uthkar ve dekhte hain chabutre par gaanv nahin hai.
ve chain ki saans lete hain.
kirr kirr kirr ghanti bajti hai.
ek adami parda uthakar kamre se bahar nikalta hai. ardali bahar pratiksharat logon mein se ek adami ko ishara karta hai. wo adami jaldi jaldi andar jata hai.
sabre aath baje se yahi kram jari hai. abhi das baje e. d. em. sahab ko daure par bhi jana hai, lekin bheeD hai ki kam hone ka naam hi nahin le rahi. kisi ki khet ki samasya hai to kisi ki cement ki. kisi ki chini ki, to kisi ki laisens ki. samasyayen hi samasyayen.
paune das baje ek lambi ghanti bajti hai. pratyuttar mein ardali bhaga bhaga bhitar jata hai. kitne mulaqati hain abhi?
huzur, saat aath honge
sabko ek saath bhej do.
agle kshan kari logon ka jhunD andar ghusta hai, lekin das gyarah saal ka ek laDka abhi bhi bahar baramde mein khaDa hai. ardali jhunjhlata hai, ja ja tu bhi ja.
mujhe akele mein mila do, laDka phir minaminata hai.
is baar ardali bhaDak jata hai, akhir aisa kya hai, jo tu sabere se akele akele ki rat laga raha hai. kya hai is chitti mein, bol to, kya chahiye—chini, cement, mitti ka tel?
laDka chup rah jata hai. chitthi vapas jeb mein Daal leta hai.
ardali laDke ko dhyaan se dekh raha hai. matmaili si suti qamiz aur payajama, gale mein laal rang ka gamchha, chhote kaDe khaDe rukhe baal, nange paanv. dhool dhusarit chehra, murjhaya hua. aprichit mahaul mein kinchit sambhrmit, avishvasi aur kathor. door dehat se aaya hua lagta hai.
kuch sochkar ardali ashvasan deta hai, achchha, is baar tu akele mein mil le. lekin jab tak andar ke log bahar ayen, sahab auphis room se bed room mein chale jate hain.
Draivar aakar jeep ponchhne lagta hai. phir engine start karke pani Dalta hai. laDka jeep ke aage pichhe ho raha hai.
thoDi der mein ardali nikalta hai. sahab ki maigzin, rool, paan ka Dibba, cigarette ka packet aur machis lekar. phir nikalte hain sahab, dhoop chhanhi chashma lagaye. chehre par abhijaty aur gambhirta oDhe hue.
laDke par nazar paDte hi puchhte hain, haan, bolo bete, kaise?
laDka sahsa kuch bol nahin pa raha hai. wo sambhram namaskar karta hai.
theek hai, theek hai. sahab jeep mein baithte hue puchhte hain, kaam bolo apna, jaldi, kya chahiye?
ardali bolta hai, huzur, mainne laakh puchha ki kya kaam hai, batata hi nahin. kahta hai, sahab se akele mein batana hai.
akele mein batana hai to kal milna, kal.
jeep rengne lagti hai. laDka ek kshan asmanjas mein rahta hai phir jeep ke baghal mein dauDte hue jeb se ek chitthi nikalkar sahab ki god mein phenk deta hai.
theek hai, baad mein milna, sahab ek chalu ashvasan dete hain. tab tak laDka pichhe chhoot jata hai. lekin chitthi ki ganvaru shakl unki utsukta baDha deti hai. use aate ki leri se chipkaya gaya hai.
chitthi kholkar ve paDhna shuru karte hain—sarab siri upma jog, khat likha lalu ki mari ki taraf se, lalu ke bappa ko paanv chhuna pahunche. . .
achanak jaise current lag jata hai unko. lalu ki mari ki chitthi! itne dinon baad. pasina chuhchuha aaya hai unke mathe par. sann!
baDi der baad prakrtisth hote hain ve. tirchhi ankhon aur baik mirar se dekhte hain—Draivar nirvikar jeep chalaye ja raha hai. ardali unghte hue jhulne laga hai.
ve phir chitthi kholte hain—age samachar malum ho ki hum log yahan par razi khushi se hain aur apaki razi khushi bhagvan se nek manaya karte hain. aage, lalu ke bappa ko malum ho ki hum apni yaad dilakar aapko dukhi nahin karna chahte, lekin kuch aisi musibat aa gari hai ki lalu ko aapke paas bhejna zaruri ho gaya hai. lalu das mahine ka tha, tab aap akhiri baar gaanv aaye the. us baat ko das saal hone ja rahe hain. idhar do teen saal se aapke chacha ji ne hum logon ko satana shuru kar diya hai. kisi na kisi bahane se hamko, lalu ko aur kabhi kabhi kamla ko bhi marte pitte rahte hain. jante hain ki aapne hum logon ko chhoD diya hai, isliye gaanv bhar mein kahte hain ki lalu aapka beta nahin hai.
ve chahte hain ki hum log gaanv chhoDkar bhaag jayen to sari kheti bari, ghar duvar par unka kabza ho jaye. aaj aath din hue, aapke chacha ji hamein baDi maar mare. mera ek daant toot gaya. haath paanv sooj gaye hain. kahte hain—ganv chhoDkar bhaag jao, nahin to mahtari bete ka moonD kaat lenge. apne hisse ka mahuve ka peD ve zabardasti katva liye hain. kamla ab sattarah varsh ki ho gari hai. mainne bahut dauD dhoop kar ek jagah uski shadi pakki ki hai. agar aapke chacha ji meri jhuthi badnami laDkevalon tak pahuncha denge to meri bitiya ki shadi bhi toot jayegi. isliye aap se haath joDkar vinti hai ki ek baar ghar aakar apne chacha ji ko samjha dijiye. nahin to lalu ko ek chitthi hi de dijiye, apne chacha ji ke naam. nahin to aapke ankh pherne se to hum bhigi bilar bane hi hain, ab ye gaanv Deeh bhi chhoot jayega.
raam khelavan master ne akhbar dekhkar bataya tha ki ab aap is zile mein hain. isi jagah par lalu ko bhej rahi hoon.
chitthi paDhkar ve lambi saans lete hain. unhen yaad aata hai ki laDka pichhe bangle par chhoot gaya hai. kahin kisi ko apna parichai de diya to? lekin ab itni door aa gaye hai ki vapas lautna uchit nahin lag raha hai. phir vapas chalkar sabke samne usse baat bhi to nahin ki ja sakti hai. unhen pyaas lag aari hai. Draivar se kahte hain, jeep rokna, pyaas lagi hai. pani aur chaay pikar cigarette sulgaya unhonne. tab dhire dhire prakrtisth ho rahe hain. unke mastishk mein das saal purana gaanv ubhar raha hai. gaanv, jahan unka priy sathi tha—mahuve ka peD, jo ab nahin raha. usi ki jaD par baithkar sabere se shaam tak kamptishan ki taiyari karte the ve. gaanv jahan unki us samay ki priy beti kamla thi. jiske laal laal naram honth kitne sundar lagte the. mahuve ke peD par baithkar kaua jab kaan kaan! bolta to zamin par baithi nanhin kamla duhrati—kan! kaan! kaua thak harkar uD jata to wo tali pitti thi. wo ab sayani ho gari hai. uski shadi hone vali hain ek din ho bhi jayegi. vida hote samay apne chhote bhari ka paanv pakaDkar roegi. baap ka paanv nahin rahega pakaDkar rone ke liye. bhari ashvasan dega kandha pakaDkar, aafat bipat mein saath dene ka. baap ki shayad kori ghundhali si tasvir ubhre uske dimagh mein.
phir unke dimagh mein patni ke tute dantvala chehra ghoom gaya. dinta ki murti, ati parishram kuposhan aur pati ki nishthurta se krish, sukha sharir, haath paanv suje hue, maar se. bahut garibi ke din the, jab unka gauna hua tha. inter paas kiya tha us saal. lalu ki mari balishth kad kathi ki himmat aur jivatvali mahila thi, nirakshar lekin aasha aur atmavishvas ki murti. use dekhkar unke man mein shardha hoti thi uske prati. itni astha ho zindagi aur parishram mein to sansar ki kori bhi vastu alabhy nahin rah sakti. b. e. paas karte karte kamla paida ho gari thi. uske baad berozagar ke varsho mein lagatar himmat bandhati rahti thi. apne gahne bechkar pratiyogita pariksha ki fees aur pustakon ki vyavastha ki thi usne. kheti bari ka sara kaam apne zimme lekar unhen pariksha ki taiyari ke liye mukt kar diya tha. rabi ki sinchari ke dinon mein sare din bachchi ko peD ke niche litakar kuen par pur hanka karti thi. bazar se hari sabzi kharidna sambhav nahin tha, lekin chhappar par chaDhi huri nenua ki lataon ko wo aghan poos tak balti bhar bhar kar sinchti rahti thi, jisse unhen hari sabzi milti rahe. roz sabere tazi roti banakar unhen khila deti aur khu basi khakar laDki ko lekar khet par chali jati thi. ek bakri lari thi wo apne mayke se, jisse unhen sabere thoDa doodh ya chaay mil sake. raat ko sote samay puchhti, abhi kitni kitab aur paDhna baqi hai, sahbivali naukari pane ke liye.
ve uske parashn par muskra dete, kuch kaha nahin ja sakta. sari kitaben paDh lene ke baad bhi zaruri nahin ki sahab ban hi jayen.
aisa mat socha kariye, wo kahti, mehnat karenge to bhagvan uska phal zarur denge.
ye usi ke tyaag, tapasya aur astha ka parinaam tha ki ek hi baar mein unka selekshan ho gaya tha. parinaam nikla to ve khu ashcharyachkit the. ghar aakar ekaant mein patni ko gale se laga liya tha. vani avruddh ho gari thi. usko pata laga to wo baDi der tak nispand roti rahi, beavaz. sirf ansu jharte rahe the. puchhne par bataya, khushi ke ansu hain ye.
gaanv ki aurten tana marti theen ki khu Dhoegi gobar aur bhatar ko banayegi kaptan, lekin ab kori kuch nahin kahega, meri pat bach gari.
ve bhi rone lage the uska kandha pakaDkar.
jane kitni manautiyan mane hue thi wo. satyanarayan. . . santoshai. . . shukravar. . . vindhyachal. . . sab ek ek karke pura kiya tha. zara jeern kapDe mein pulakti ghumti uski chhavi, jise kahte hain, rajapat pa jane ki khushi.
service jvain karne ke baad ek DeDh saal tak ve har maah ke dvitiy shanivar aur ravivar ko gaanv jate rahe the. pita, patni, putri sabke liye kapDe latte tatha ghar ki any chhoti moti chijen, jo abhi tak paise ke abhav ke karan nahin theen, ve ek ek karke lane lage the. patni ko paDhane ke liye ek tutor laga diya tha. patni ki dehati Dhang se pahni gari saDi aur ghise pite kapDe unki ankhon mein chubhne lage the. ek do baar shahr le jakar film vaghairah dikha laye the, jiska anukarn kar wo apne mein avashyak sudhar le aaye. khaDi boli bolne ka abhyas karaya karte the, lekin ghar grihasthi ke athah kaam aur bimar sasur ki seva se itna samay wo na nikal pati, jisse pati ki ichha ke anusar apne mein parivartan la pati. wo mahsus karti thi ki uske ganvarapan ke karan ve aksar kheej uthte aur kabhi kabhi to raat mein kahte ki uthkar nha lo aur kapDe badlo, tab aakar soo. bhuse jaisi gandh aa rahi hai tumhare sharir se. us samay wo kuch na bolti. chupchap adesh ka palan karti, lekin jab manonukul vatavarn pati to muskrakar kahti, ab main aapke jog nahin rah gari hoon, kori shahrati mem DhunDhiye apne liye.
kyon, tum kahan jaogi?
jaungi kahan, yahan rahkar sasurji ki seva karungi. aapka ghar duvar sanbhalungi. jab kabhi aap gaanv ayenge, apaki seva karungi
tumne mere liye itna dukh jhela hai, tumhare hi punny pratap se aaj main dhool se asman par pahuncha hoon, gaDhe samay mein sahara diya hai. tumhein chhoD dunga to narak mein bhi jagah na milegi mujhe?
lekin unke andar us samay bhi kahin kori chor chhipa baitha tha, jise ve pahchan nahin pae the.
jis saal lalu paida hua, usi saal pita ji ka dehant ho gaya. kriya karm karke vapas gaye to man gaanv se thoDa thoDa uchatne laga tha. do bachchon ki prasuti aur kuposhan se patni ka svaasthy ukhaD gaya tha. shahr ki abohva tatha sathi adhikariyon ke ghar parivar ka vatavarn heen bhavna paida karne laga tha. zindagi ke prati drishtikon badalne laga tha. gaanv kari kari mahinon baad aane lage the. aur aane par patni jab ghar ki samasyayen batati to lagta, ye kisi aur ki samasyayen hain. inse unhen kuch lena dena nahin hai. ve shahr mein apne ko anamairiD batate the. is samay tak unki jaan pahchan jila nyayadhish ki laDki mamta se ho chuki thi aur uske sannidhy ke karan patni se juDa raha saha ragatmak sambandh bhi atyant kshain ho chala tha.
teen chaar mahine baad phir gaanv aaye to patni ne toka tha, is baar qafi duble ho gaye hain.
lagta hai, qafi kaam rahta hai, bahut gumsum rahne lage hain, kya sochte rahte hain?
ve taal gaye the. raat mein usne kaha, is baar main bhi chalungi saath mein. akele to apaki deh gal jayegi.
ve chaunk gaye the, lekin yahan ki kheti bari, ghar duvar kaun dekhega? ab to pitaji bhi nahin rahe.
to kheti bari ke liye apna sharir sukhaiyega?
tum to faltu mein chinta karti ho, lekin wo kuch aur sunna chahti thi, boli thi, phir aap shadi kyon nahin kar lete vahan kisi paDhi likhi laDki se? main to shahr mein aapke saath rahne layak bhi nahin hoon.
kaun sikhata hai tumhein itni baten?
sikhayega kaun? ye to sanatan se hota aaya hai. main to apaki sita hoon. jab tak banvas mein rahna paDa, saath rahi, lekin rajapat mil jane ke baad to sone ki sita hi saath mein so hegi. lalu ke babu, sita ko to aage bhi banvas hi likha rahta hai.
chupchap so jao. unhonne kaha, lekin sori nahin wo. baDi der tak chhati par sir rakhkar paDi rahi phir boli, ek geet sunaungi aapko. meri maan kabhi kabhi gaya karti thi. phir baDe karun svar mein gati rahi thi wo, jiski ekaadh pankti hi ab unhen yaad hai— sautaniya sang raas rachavat, mon sang raas bhulan, ye batiya kou kahat batohi, t lagat karejva mein baan, sanvriya bhule hamein. . .
ve andar se hil gaye aur use dilasa dete rahe ki wo bhram mein paD gari hai, par wo to jaise bhavishyadrashta thi. aagat, jo abhi unke samne bhi bahut aspasht nahin tha, usne saaf dekh liya tha. unke sine mein usne kahin mamta ki gandh pa li thi.
us baar gaanv se aaye to phir paanch chhah mahine tak vapas jane ka mauqa nahin lag paya. isi beech mamta se unka vivah ho gaya. shadi ke dusre tisre mahine gaanv se patni ka patr aaya ki kamla ko chechak nikal aari hai. lalu bhi bahut bimar hai. mauka nikalkar chale aiye. lekin gaanv ve patr milne ke mahine bhar baad hi ja sake. kori bahana hi samajh mein nahin aa raha tha, jo mamta se kiya ja sakta. donon bachche tab tak theek ho chuke the, lekin unke pahunchne ke saath hi uski ankhen jharne si jharni shuru ho gari theen. kuch boli nahin thi. raat mein phir vahi geet baDi der tak gati rahi thi. unka haath pakaDkar kaha tha, lagta hai, aap mere hathon se phisle ja rahe hain aur main aapko sanbhal nahin pa rahi hoon.
ve is baar kori ashvasan nahin de pae the. uska rona dhona unhen qafi anyamnask bana raha tha. ve uktaye hue se the. agle hi din ve vapas jane ko taiyar ho gaye the. ghar se nikalne lage to wo aadhe ghante tak paanv pakaDkar roti rahi thi. phir laDki ko pairon par jhukaya tha, nanhen lalu ko pairon par lita diya tha. jaise sab kuch lut gaya ho, aisi lag rahi thi wo, deen heen malin.
ve jaan chhuDakar bahar nikal aaye the. vahi unka antim milan tha. tab se das saal ke qarib hone ko aaye, ve na kabhi gaanv gaye, na hi kori chitti patri likhi.
haan, qarib saal bhar baad patni ki chitthi zarur aari thi. na jane kaise use pata lag gaya tha, likha tha—kamla nari amma ke bare mein puchhti hai. kabhi le aiye unko gaanv. dikha bata jaiye ki gaanv mein bhi unki kheti bari, ghar duvar hai. lalu ab dauD leta hai. tevari baba uska haath dekhkar bata rahe the ki laDka bhi baap ki tarah tota chashm hoga. jaise tote ko paliye posiye, khilaiye pilaiye, lekin mauqa pate hi uD jata hai. pos nahin manata. vaise hi ye bhi. . . to mainne kaha, baba, tota panchhi hota hai, phir bhi apni aan nahin chhoDta, zarur uD jata hai, to adami hokar bhala kori kaise apni aan chhoD de? posna kaise chhoD de? main to ise iske bapu se bhi baDa sahab banaungi. . .
unhonne patr ka kori uttar nahin bheja tha. haan, wo patr mamta ke hathon mein zarur paD gaya tha, jiske karan mahinon ghar mein rona dhona aur tanav vyaapt raha tha. . . . aur qarib nau saal baad aaj ye dusra patr hai.
patr unke hathon mein baDi der tak kanpta raha aur phir use unhonne jeb mein rakh liya. man mein saval uthne lage—kya mila usko unhen aage baDhakar? ve berozgar rahte, gaanv mein kheti bari karte. wo kandhe se kandha bhiDakar khet mein mehnat karti. raat mein donon sukh ki neend sote. tinon lokon ka sukh uski mutthi mein rahta. chhote se sansar mein atmtusht ho jivan kaat deti. unhen aage baDhakar wo pichhe chhoot gari. mathe ka sindur aur haath ki chuDiyan nirantar dukh de rahi hain use.
sare din kisi karyakram mein unka man nahin lagta.
shaam ko jeep vapas laut rahi hai. unke mastishk mein laDke ka chehra ubhar aaya hai—jaise marubhumi mein khaDa hua ashesh jijivisha vala babul ka kori shishu jhaaD, jise kori jhanjhavat Diga nahin sakta. kori tapish sukha nahin sakti. upeksha ki dhoop mein jo hara bhara rah lega, anugrah ki baaDh mein jo gal jayega.
jeep gate ke andar muDti hai to gate se sate chabutre par laDka aundha leta dikhari deta hai. machchharon se bachne ke liye usne angauchhe se sara sharir Dhank liya hai. jeep aage baDh jati hai.
andar unki chaar saal ki beti t. vi. dekh rahi hai. aahat pakar dauDi aati hai aur pairon se lipat jati hai. phir mahattvapurn suchana deti hai tarjani uthakar, papa, papa, o badmash laDka, baramde tak ghus aaya tha. mammy puchhti, to bolta nahin tha. bhagati to bhagta nahin tha. mainne apni khilauna motor phenkkar mara, uska matha katne se khoon bahkar munh mein jane laga to thu thu karta hua bhaga. aur papa, wo zarur badmash tha. zara bhi nahin roya. bus, ghoor raha tha. bahar chaprasiyon ke laDke maar rahe the, lekin mammy ne mana karva diya.
vaash besin ki taraf baDhte hue ve mamta se puchhte hain, kaun tha?
shayad aapke gaanv se aaya hai. bhent nahin hui kyaa?
main to abhi chala aa raha hoon, kahan gaya?
naam nahin batata tha, kaam nahin batata tha, kahta tha, sirf sahab ko bataunga. phir laDke tang karne lage to bahar chala gaya.
kuch khana pina?
pahle ye bataiye, wo hai kaun? ekayek mamta ka svar karkash aur tez ho gaya, us chuDail ki aulad to nahin, jise aap gaanv ka raaj paat de aaye hain? aisa hua to khabardar, jo use gate ke andar bhi laye, khoon pi jaungi.
ve chupchap Draingrum mein aakar sofe par niDhal paD gaye hain. chakkar aane laga hai. shayad raktachap baDh gaya hai.
bahar faguni jaDa baDhta ja raha hai.
sabere uthkar ve dekhte hain chabutre par gaanv nahin hai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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