उस शाम मैं नरीमन प्वाइँट की उस फैंस पर लेटा था, जो कई किलोमीटर लंबी है और समुद्र तथा शहर को अपनी-अपनी सीमा को अहसास करवाती है। उस फैंस पर मेरे अलावा मेरे-जैसे कई और लोग भी बैठे थे। उनमें से कुछ लोग शहर की तरफ़ पीठ फेरकर बैठे थे और कुछ समुद्र की ओर, लेकिन मैंने दोनों पहलुओं पर टाँगें फैला रखी थीं और पीठ के बल लेटकर आसमान को देख रहा था। मेरी दाईं ओर समुद्री लहरों के थपेड़े थे और बाईं तरफ़ तेज़ रफ़्तार से बहती मुंबई।
मैं समुद्र और शहर से तटस्थ होकर मानसून के बादलों की धींगा-मस्ती देख रहा था और सोच रहा था कि काश, इस शहर में मेरा भी कोई दोस्त होता! मुंबई आने से पहले मैंने अपने शहर में दोस्ती यारी की एक बहुत जीवंत और सक्रिय हिस्सेदारीवाली ज़िंदगी गुज़ारी थी, और यहाँ जिस्मों की इतनी लथपथ नज़दीकियत के बावजूद कोई भी चीज़ मुझे छू नहीं पा रही थी।
मैं जब महानगरीय जीवन-शैली और अपनी क़स्बाई ज़िंदगी के बीच कोई संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था, तभी मुझे सेक्सोफ़ोन की आवाज़ सुनाई दी। सेक्सोफ़ोन शुरू से मेरा सबसे प्रिय वाद्य रहा है। रेडियो या रिकॉर्डों पर सेक्सोफ़ोन की धुनें सुनते हुए मुझे जिस भरे-पूरे आनंद का अहसास होता है, उसकी तुलना किसी भी तरह हार्दिक और शारीरिक मेल-मिलाप से की जा सकती है।
मैं तुरंत उठ बैठा जैसे मुझे दोस्त ने पुकारा हो। मैंने गर्दन फेरकर पीछे देखा। मुझसे थोड़ी दूर एक बूढ़ा सेक्सोफोनिस्ट समुद्र और डूबते सूरज को एक करुण धुन सुना रहा था। उसके कंधे पर एक चितकबरा कबूतर बैठा था। उसकी सफ़ेद दाढ़ी और लंबे बालों की एक लटकती हुई लट पर सूरज की अंतिम सुनहरी किरणें पड़ रही थीं। उसके साज़ का गोल किनारा भी एक सुनहरे तारे की तरह टिमटिमा रहा था। यह दृश्य इतना सिनेमैटिक था कि मैं उसे देखता ही रह गया।
जो धुन वह बजा रहा था वह कुछ जानी-पहचानी-सी लगा स्मृति पर ज़ोर देने पर याद आया, वह पेटेटेक्स की धुन ‘ब्लू सी एँड डार्क क्लाउड' बजा रहा था। पहले मुझे लगा यह बूढ़ा कोई विदेशी है, क्योंकि किसी देशी के हाथ और फेफड़े पर शहनाई और बाँसुरी के मामले में तो भरोसा किया जा सकता है, पर सेक्सोफ़ोन पर ऐसी धुन तो कभी एक शक्तिशाली लहर की तरह उठती है और पत्थरों से पछाड़ खाकर दूधिया फेन में तब्दील हो जाती है, तो कभी बादलों की तरह घुमड़कर बरस पड़ती है; कोई भी भारतीय इतने साफ़ ढंग से बजा सकता है—इसमें मुझे संदेह था। यह सिर्फ़ बिटनिक लोगों के उंमत्त और उद्दाम फेफड़ों के बूते की बात थी, जो किसी घराने के शास्त्रीय नियमों के दास नहीं होते।
मैं ज़रा और पास गया और मैंने देखा उस बूढ़े के कपड़े और उसका शरीर ख़ुद अपने प्रति की गई बेहरम लापरवाही से ग्रस्त और त्रस्त थे। उसकी हालत मानसिक रूप से विक्षिप्त किसी ऐसे लावारिस आदमी जैसी थी जो महीनों से नहाया न हो, जिसके सिर और दाढ़ी के बेतरतीब बाल आपस में चिपककर जटाओं में बदल जाते हैं, जिसके शरीर पर मैल की मोटी पर्तें जम जाती हैं और कपड़े इतने चिक्कट हो जाते हैं कि उसका असली रंग तक पहचान में नहीं आता।
मेरे अलावा अब कुछ और लोग भी वहाँ जमा हो गए। चूँकि वह कोई लोकप्रिय फ़िल्मी धुन नहीं बजा रहा था, इसलिए लोगों की दिलचस्पियाँ दूसरे आकर्षणों की तरफ़ फिसल गईं। लोगों के आने-जाने और पल-दो-पल के लिए ठिठककर खड़े होने का यह क्रम काफ़ी देर तक चलता रहा।
कुछ देर बाद हवा अचानक सपाटे से चलने लगी। फिर वह सपाटेदार हवा एक तूफान में बदल गई। उधर आसमान में मानसूनी बादलों का काला दल तेज़ी से आगे बढ़ा और इससे पहले कि कोई कुछ सोच पाता, मौसम की पहली बारिश ने मुंबई के चेहरे पर एक तमाचा जड़ दिया। मैंने इतनी अचानक आक्रामक बारिश पहले कभी नहीं देखी थी, सिर्फ़ सुना था कि मुंबई में बरसात किसी को माफ़ नहीं करती।
अगले ही पल लोग इधर-उधर भागने लगे, जैसे अचानक लाठी चार्ज शुरू हो गया हो। मैं लोगों ही हड़बड़ाहट में शामिल नहीं हुआ, क्योंकि वहाँ दूर-दूर तक न कोई शेड था, न सुरक्षित ठिकाना। इसलिए न तो भागने का कोई अर्थ था, न भीगने से बचने का कोई उपाय।
हवा और पानी के इस घमासान से हर चीज़ अस्त-व्यस्त हो गई, लेकिन वह बूढ़ा अभी तक उसी तंमयता से सेक्सोफ़ोन बजा रहा था। मौसम के इस बदले हुए मिज़ाज का उस पर कोई असर नहीं हुआ, सिर्फ़ धुन बदल गई। पहले वहाँ साहिल को सहलानेवाली छोटी-छोटी लहरें थीं, पर अब उसके फेफड़ों से अंधड़ उठ रहे थे, जैसे वह बाहर के तूफ़ान का समाना अंदर के तूफ़ान से कर रहा हो। जैसे-जैसे बारिश रौद्र रूप धारण कर रही थी, हवाएँ दहाड़ती हुई अपने चक्रवाती घेरे का विस्तार कर रही थीं और समुद की लहरें अपनी पूरी ऊँचाई, गति और ताक़त से साथ नरीमन प्वाइँट से उस पथरीले किनारे को ध्वस्त कर देने के लिए बिफर रही थीं, वैसे-वैसे उस बूढ़े की धमनियों से उसकी निरंकुश और प्रतिघाती भावनाएँ ख़ून को खौलाती हुई बाहर आ रही थीं। मुझे लगा, अगर यह तूफ़ान कुछ देर और नहीं थमा, तो यहाँ ख़ून-ख़राबे की नौबत आ सकती है।
और हुआ भी वही। हवा के एक तेज़ झपाटे के साथ एक बहुत ऊँची और ख़ार खाई हुई लहर आई और पथरीले किनारे को रौंदती हुई सड़क पर चढ़ गई—पूरे मेरिन ड्राइव पर समुद्री पानी का झाग ददोरे की तरफ़ फैल गया। जब लहर वापस लौटी, तब मैंने देखा—वह बूढ़ा लहर की पछाड़ खाकर सड़क पर लुढ़क गया था। मैं तुरंत उसकी तरफ़ लपका। मैंने उसे उठाना चाहा, मगर उसका शरीर इतना श्लथ हो गया था कि उठाते नहीं बना।
और तब मैं भी वहीं सड़क पर बैठ गया। मैंने अपनी जाँघ पर उसका शरीर खींच लिया। वह बहुत बुरी तरह हाँफ रहा था। मैंने उसके लंबे छितराए हुए बालों को उसके चेहरे से हटाया और ग़ौर से उसके चेहरे को देखा। वहाँ मुझे कुछ और नहीं, सिर्फ़ सूजन दिखाई दी—एक ऐसी सूजन, जो उन लोगों के चेहरों पर तब दिखाई देनी शुरू होती है जब वे अपने हर दुख और पीड़ा का इलाज शराब से करने लगते हैं।
मैं कुछ देर यूँ ही बैठा रहा। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उसकी साँसें अभी तक तेज़ थीं और हर साँस के साथ शराब के भभाके उठ रहे थे। मैंने उसके गाल को थपथपाया। उसने आँखें नहीं खोलीं। मैंने उसके कंधे झंझोड़े, मगर कोई बात नहीं बनी। मैं यह सोचकर घबरा उठा कि कहीं वह मेरी बाहों में दम न तोड़ दे। मैंने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। सड़क छाप लोगों को पनाह मिलना मुश्किल था और सड़क पर टैक्सियों और कारों का कारवाँ इतनी तेज़ी से गुज़र रहा था कि मैं तो क्या, कोई ज़लज़ला भी उसे रोक नहीं सकता था।
मेरे पीछे समुद्र अभी तक पछाड़ें खा रहा था और ऊपर आसमान में बादलों की एक और टुकड़ी किसी बड़े आक्रमण की तैयारी के साथ आगे बढ़ रही थी, मगर मैं उस बूढ़े को बाहों में लिए चुपचाप बैठा रहा। मैंने एक बार फिर उसके चेहरे पर नज़र डाली और मुझे लगा यह चेहरा जवानी में बहुत सुंदर रहा होगा। उम्र, कठिन हालात और ख़राब आदतों ने हालाँकि उसके चेहरे का सौंदर्य छीन लिया था, लेकिन फिर भी वह अर्थपूर्ण था और अभी सृजनात्मकता से रिक्त नहीं हुआ था।
चार-पाँच मिनट की बेहोशी के बाद उसने आँखें खोली। कुछ देर तक झिपझिपाने के बाद उसकी आँखें मेरे चेहरे पर स्थिर हो गईं। उसकी पलकें ख़ूब भारी थीं और आँखों के अंदर मरण और क्षरण से लिपटी एक काली और अशुभ छाया साफ़ दिखाई दे रही थी। मेरे चेहरे पर के मित्र-भाव ने उसे राहत दी होगी, तभी तो वह मंद-मंद मुस्काया और अपना हाथ मेरे कंधे पर रखकर उठ बैठा। कुछ ही देर में वह इस तरह बातें करने लगा जैसे कुछ हुआ ही न हो। मुझे उम्मीद नहीं थी कि वह यूँ चुटकियों में सहज और सजग हो जाएगा।
आमतौर पर पहली मुलाक़ातों में लोग 'क्या करते हो?', 'कहाँ रहते हो?' या 'कहाँ के रहनेवाले हो?' जैसे औपचारिक सवाल करते हैं, लेकिन उसने कुछ अजीब सवाल लिए -“तुम्हें बारिश में भीगना अच्छा लगता है?
—“तुम हवा से बात कर सकते हो?”
—क्या तुम्हें शराब पीने के बाद अपने भीतर एक दुखभरी ख़ुशी महसूस होती है?
मैंने इन तमाम सवालों का जवाब 'हाँ' में दिया तो वह ख़ुश हो गया।
“तब तो तुम्हें संगीत से भी लगाव होगा, है न?
“हाँ।” मैंने कहा, “ख़ासतौर से सेक्सोफ़ोन मुझे बेहद पंसद है।
“अरे वाह! तब तो अपनी ख़ूब जमेगी।” उसने बड़ी गर्मजोशी से अपना दायाँ हाथ ऊपर उठाया और मेरी हथेली से टकराकर एक पुरज़ोर ताली बजाई।
“आप बहुत अच्छा बजाते हैं। भारत में भी इतने परफेक्ट सेक्सोफ़ोन प्लेयर हैं यह मुझे मालूम नहीं था।”
अपनी तारीफ़ सुनकर ख़ुश होने के बजाए उसने कड़वा-सा मुँह बनाया और मेरी तरफ़ से ध्यान हटाकर गरजते-लरज़ते समुद्र को देखने लगा। बारिश की तेज़-रफ्तार बूँदें समुद्र के ठोस पानी से टकराकर धुआँ-धुआँ हो रही थीं। उस धुँधुवाते पानी को वह कुछ देर तक यूँ ही देखता रहा। फिर कुछ सोचकर अचानक मेरी तरह मुँह फेरा, “सुनो, तुम्हारे पास कुछ रूपए हैं?
मैं उसके इस अप्रत्याशित सवाल से ज़रा चौंका। अपनी जेब में हाथ डालते हुए मैंने सोचा—कहीं यह कोई मंतरबाज़ तो नहीं है? लेकिन जब मैंने देखा कि पैसा माँगते हुए उसके चेहरे पर किसी भी तरह की हीनता का बोध, कोई शर्म, झेप या लालच नहीं है तो मैं थोड़ा आश्वस्त हुआ। मैंने जेब से पर्स निकालकर पूछा, “कितने रूपए चाहिएँ?” उसने मेरे हाथ से पर्स ले लिया—उतनी ही सहजता से, जैसे मेरे पुराने दोस्त मेरे हाथ से सिगरेट का पैकेट ले लेते थे। उसने पर्स खोलकर सौ-सौ के चार-पाँच नोट निकाल लिए और पर्स मेरे हाथ में थमाकर बिना कुछ कहे जाने लगा।
“सुनो...!” मैं उसके पीछे लपका।
उसने मुड़कर मुझे देखा।
“अगर ज़रूरत है तो और ले लो।” मैंने पर्स की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “लेकिन एक शर्त है—आज की शाम... और हो सके तो रात भी तुम्हें मेरे साथ गुज़ारनी पड़ेगी।”
मैं कोई रंडी नहीं हूँ।”
उसने ये शब्द इतने कड़क लहजे में कह कि मैं सकपका गया। मैंने कहा, “नहीं-नहीं, दरअसल इस शहर में मेरा कोई दोस्त नहीं है। मैं तुम्हारे साथ थोड़ा वक़्त गुज़ारना चाहता हूँ।”
“मेरी दोस्ती इतनी सस्ती नहीं है। बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी।
“मैं कोई सौदा नहीं कर रहा हूँ। सिर्फ़ तुम्हारे साथ थोड़ा वक़्त गुज़ारना चाहता हूँ।”
क्यों? सिर्फ़ मेरे साथ क्यों?
“इसलिए कि शराब पीने के बाद मुझे अपने भीतर एक दुखभरी ख़ुशी महसूस होती है। मुझे बारिश में भीगना अच्छा लगता है, मैं हवा से बातें कर सकता हूँ, मुझे संगीत से प्यार है और ख़ासतौर से पेटेटेक्स का मैं मुरीद हूँ।
इस बार उसके ज़रा आश्चर्य से मुझे देखा। फिर मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुस्काया और मेरे गले में गलबहियाँ डालकर चलने लगा। उसने पूछा, “तुम पेटेटेक्स को कब से जानते हो?
“पाँच साल पहले मैंने रिकॉर्ड पर वह धुन सुनी थी, जिसे कुछ देर पहले तुम बजा रहे थे।
“नहीं, मैं उस धुन को नहीं बजा रहा था।” उसने तुरंत मेरी बात का खंडन किया, “वह धुन ही मुझे बजा रही थी।
“मैं समझा नहीं?
तुम समझोगे भी नहीं। इस बात को समझने में वक़्त लगता है।
उसके इस बुज़ुर्गाना लहजे से मुझे थोड़ी कोफ़्त हुई। फिर मुझे लगा—भले ही वह मेरे गले में हाथ डालकर चल रहा है, लेकिन आख़िरकार वह उम्र में मुझसे दोगुना बड़ा है, इसलिए उसके इस रवैये से मुझे कोई आश्चर्य या आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मैंने चलते-चलते यूँ ही पूछ लिया, “आपने सेक्सोफ़ोन बजाना कब से शुरू किया?
“पच्चीस साल पहले गोवा में एक हिप्पी ने मुझे इस मीठे ज़हर का स्वाद चखाया था। फिर धीरे-धीरे मुझे इसकी लत लग गई।
“क्या तुमने सारी ज़िंदगी इसी नशे में गुज़ार दी?
“नहीं, पहले मैं थोड़ा होश में रहता था और तब मैं सेक्सोफ़ोन के साथ वही सलूक करता था जो एक बदमिज़ाज घुड़सवार अपने घोड़े के साथ करता है। लेकिन जब से मैं नशे में रहने लगा हूँ तब से यह मेरे ऊपर सवार हो गया है। तुम शायद नहीं जानते—बदला लेने के मामले में इसके जितना शातिर और माहिर दूसरा कोई साज़ नहीं है। अभी कुछ ही देर पहले तुमने देखा होगा, वह मुझे कितनी बुरी तरह बजा रहा था। अगर समुद्र की ऊँची लहर ने मुझे उससे छुड़ाया न होता तो आज वह मेरी जान ही ले लेता।
“फिर तुम इस ज़हरीले नाग को हमेशा अपने साथ क्यों रखते हो?
उसने सेक्सोफ़ोन को बहुत अजीब नज़रों से देखा, फिर मुस्कुराने लगा, “कहानी ज़रा उलझी हुई है। चलो कहीं बैठकर बात करते हैं।
उसने मेरा हाथ अपने हाथ में थाम लिया। पटरी पर पैदल चलनेवालों में केवल हमी दो थे जो पानी से लिथड़ी हवा और हवा से लिपटे पानी से संसर्ग से रोमांचित हो रहे थे। उस गीली हवा ने अचानक हमारे भीतर प्यास जगा दी—एक ऐसी कुड़कुड़ाती प्यास, जो सिर्फ़ शराब से बुझाई जा सकती थी।
बूढ़े के हाथ की पकड़ अचानक मज़बूत हो गई। सड़क क्रॉस करने के लिए वह आगे बढ़ा और समुद्र किनारे की पटरी को छोड़कर सामने उस पटरी पर चढ़ गया जो मचलते हुए शहर की हलचलों के किनारे-किनारे काफ़ी दूर तक फैली थी।
कुछ ही देर बाद दोनों एक बीयर बार के सामने खड़े थे। दरवाज़े पर खड़े दरबान ने तपाक से सलाम बजाकर दरवाज़ा खोलने के बजाए ज़रा झिझकते हुए परेशान निगाहों से हमारे गीले लबादों को देखा, ख़ासतौर से बूढ़े के कीचड़ से सने फचफचाते जूतों और चिक्कट कपड़ों ने उसकी नाक-भौंह को सिकुड़ने के लिए मजबूर कर दिया, मगर चूँकि हम ग्राहक थे, कोई भिखारी नहीं, इसलिए मजबूरन उसे दरवाज़ा खोलना पड़ा।
हम अंदर दाख़िल हुए और फ़र्श पर बिछे ख़ूबसूरत कालीन पर बिना कोई तरस खाए अपने जूतों के बदनुमा धब्बे पीछे छोड़ते हुए हॉल के बीचोबीच पहुँच गए। हम जैसे ही कुर्सी पर बैठे, एक बहुत सजी-धजी लड़की हमारे पास आई। उसने पेशेवर मुस्कुराहट के साथ मुझसे हाथ मिलाया और बूढ़े के नज़दीक बैठकर उसकी गर्दन में अपनी बाँह डाल दी।
“हलो भाऊ अंकल! कहाँ थे इतने दिन? हमको भूल गए क्या?
“मस्का मत मार!” बूढ़े ने अपनी गर्दन से उसका हाथ हटा दिया, “जा जल्दी रम लेकर आ।
वह थोड़ी बनावटी नाराज़गी ज़ाहिर करती हुई उठकर जाने लगी। फिर अचानक एक ख़ास अदा से अपने बाल पीछे की ओर झटकते हुए मुझसे मुख़ातिब हुई, “क्या आप भी रम लेंगे?
मैंने 'हाँ' में गर्दन हिला दी। उसने एकाबारगी बहुत गहरी निगाहों से मुझे देखा, जैसे मुझे पूरे-का-पूरा एक ही बार में निगल लेना चाहती हो। मैंने नज़रें झुका लीं।
शराब के आने का इंतिज़ार करना बूढ़े ने ज़रूरी नहीं समझा। वह बिना किसी भूमिका के अपनी कहानी बताने लगा। उसके लहजे, बोलने के लिए चुने हुए शब्दों और अभिव्यक्ति में कोई तारतम्य नहीं था। एक सिलसिलेवार तरतीब से बोलते-बताने के बजाए वह यहाँ-वहाँ और जहाँ-तहाँ से टुकड़े बटोर रहा था। सेक्सोफ़ोन के बारे में बोलते-बोलते अचानक वह बार में काम करनेवाली लड़कियों के बारे में बोलने लगा। लड़कियों को फटकारने-पुचकारने के बाद उसने शराबनोशी पर अपना संक्षिप्त, मगर सारगर्भित व्याख्यान समाप्त होते ही वह अचानक एक कब्रिस्तान में घुस गया। अपने एक दोस्त की कब्र के सामने थोड़ी देर चुपचाप खड़े रहने के बाद वह लगभग भागते हुए बाहर निकला और फिर हाथ पकड़कर मुझे अपने पीछे खींचते हुए दादर की एक चाल में ले गया, जहाँ बीस-पच्चीस साल पहले वह अपने कुछ साज़िंदे साथियों के साथ रहता था। वे सब फ़िल्मों के लिए बैकग्राउंड म्यूज़िक कंपोज़ करते थे उस वक़्त की बेहतरीन आमदनी को बदतरीन ढंग से ख़र्च करते थे।
एक घंटे की बातचीत के बाद कुल मिलाकर जो ग्राफ बना, वह कई तरह के उतार-चढ़ाववाला ग्राफ था। उस पर और उसके तमाम साथियों पर कोई-न-कोई धुन सवार थी। वे उस तरह के धुनी लोग थे जो न तो दुनिया का कोई लिहाज़ करते हैं, न अपने-आपको कोई रियायत देते हैं; वे अपने लिए कोई संकीर्ण सीमा निर्धारित नहीं करते। उनमें कोई एक केंद्रीय भाव या विशेष गुण नहीं होता। वे गुणों और दुर्गुणों के बीच के फ़र्क़ को मिटाते हुए अपनी एक अलग और अजीब-सी हालत बना लेते हैं।
उसके उस दौर के लगभग सभी साथी संगीत और ख़ब्त के शिकार थे। उनमें से कुछ जो समझदार थे, बाद में फ़िल्मों में संगीत-निर्देशक या ए ग्रेड के आर्टिस्ट बन गए। बाक़ी सब वहीं के वहीं रहे, लेकिन उन दिनों काम लगातार मिलता था और आमदनी अच्छी होने को करण वे नए आकर्षणों और ललचानेवाले कामुक और सजीले बाज़ार के सामने अपने-आपको ख़र्च करने से नहीं रोक पाए। वे सब शराबी थे, जुआरी थे, वेश्यागामी और उधारखोर थे, मगर शुरू से आख़िर तक कलाकार थे। यही वे साज़िंदे थे, जिन्होंने भारतीय फ़िल्म संगीत को परवान चढ़ाया था। इसी पीढ़ी ने आज़ादी के बाद के भारतीय 'मन' की गहराइयाँ-ऊँचाइयाँ नापी थीं। इन्हीं बेसुरे पियक्कड़ों ने भावनाओं के सभी तार छेड़कर और साँस के साथ साँस मिलाकर अपने युग की धड़कनों को लय दी थी।
डेढ़-दो घंटे बाद जब हम बार से बाहर निकले तब आसमान में बादलों के बीच फिर कानाफूसी चल रही थी, लेकिन चूँकि हम पहले ही एक बड़े आँधी-तूफ़ान का सामना कर चुके थे और सिर्फ़ बाहर से ही नहीं, भीतर से भीग चुके थे, इसलिए अब किसी भी तरह के गीलेपन से हमें गुरेज़ नहीं था।
मेरा बूढ़ा दोस्त शराब के तीन प्यालों के बाद ज़रा कड़क हो गया था। उसने अपनी पीठ सीधी कर ली और सीना तानकर इतने गर्व से चलने लगा जैसे पूरे मुंबई का मालिक हो। उसके इस मालिकाना रवैये में दारू पीकर भड़ास निकालनेवाले किसी कमज़ोर और कायर आदमी की झूठी अकड़ नहीं, बल्कि एक मौलिक विरोध पर आधारित आक्रामकता थी।
हम दोनों चलते जा रहे थे बिना यह तय किए कि जाना कहाँ है। न उसे कहीं पहुँचने की जल्दी थी, न मुझे। हमारी उद्देश्यहीनता इस शहर की उद्देश्यपरक व्यवस्तताओं के साथ टक्करें ले रही थी। फुटपाथ पर वी.टी. की तरफ़ जानेवालों की एक तेज़ रफ़्तार भीड़ में हम दोनों किसी गीले लबादे की तरह उलझ गए थे। भीड़ की चुस्ती और फ़ुर्ती के बरअक्स हमारा ढीलापन सिर्फ़ थकान या नशे की वजह से नहीं था, बल्कि यह एक प्रतिक्रिया थी। मुझे अब यह पक्का भरोसा हो गया कि मेरा यह बूढ़ा दोस्त भी उस चुस्त-दुरुस्त और फटाफट कामयाबी के ख़िलाफ़ है जो मनुष्य से उसका निर्दोष आनंद छीन लेती है।
मैंने चलते-चलते उसके चेहरे पर निगाह डाली। वह मदमस्त था। उसकी चाल में बदलाव आ गया था। चलते-चलते वह एक दुकान के सामने अचानक रूक गया। दुकान के अगले हिस्से में एक बड़ा शो-केस था जिसमें तरह-तरह के वाद्य-यंत्र रखे गए थे। उनके बीच एक बहुत बड़ा इलेक्ट्रॉनिक की बोर्ड पड़ा था। वह बूढ़ा उस की-बोर्ड को बड़े ग़ौर से देखने लगा। मैंने सोचा-शायद उसमें कोई ग़ौर करने लायक़ विशेषता होगी, पर मैंने देखा—बूढ़े के चेहरे पर अचानक एक बड़ी लहर आई और एक ही पल में उसका मिज़ाज बदल गया। वह उस वाद्य की तरफ़ कुछ ऐसे अंदाज़ में देख रहा था मानो वह कोई उपकरण नहीं, बल्कि एक जीता-जागता शत्रु हो। एक ख़तरनाक तनाव और तीखी घृणा से उसका चेहरा कँपकँपाने लगा।
“तुम इसे जानते हो?” उसने की-बोर्ड की तरफ़ इशारा करते हुए मुझसे पूछा।
“हाँ।” मैंने कुछ सोचते हुए कहा, “यह एक जापानी सिंथेसाइज़र है।
“नहीं,” उसने ऊँची आवाज़ में कहा, “यह एक तानाशाह है! हत्यारा है! इसी की वजह से दास बाबू और फ्रांसिस की जान गई... यही हम सबकी बदहाली का एकमात्र ज़िम्मेदारी है।
मैंने बहुत आश्चर्य से शो-केस की तरफ़ देखा। उस कई पुश-बटनों और प्यानो जैसी चाबियोंवाले वाद्य में मुझे कोई ऐसी ख़तरनाक ख़ासियत नज़र नहीं आई।
शो-केस से नज़रें फेरकर जब मैंने बूढ़े की तरफ़ देखा, तो मुझे अपने चेहरे पर एक अजीब-सी ऐंठन नज़र आई। उसका शरीर कुछ इस तरह काँप रहा था मानो उसे तेज़ बुख़ार हो। उसकी इस अस्वाभाविक उत्तेजना से मुझे बेचैनी महसूस हुई। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और उसे फुसलाते हुए आगे ले चलने की कोशिश की। पहले तो वह टस-से-मस नहीं हुआ, लेकिन फिर जैसे कोई दौरा पड़ गया हो, उसने लपककर फुटपाथ से एक ईंट का अद्धा उठा लिया। मैंने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया और बड़ी मुश्किल से उसे काँच फोड़ने से रोका। मेरे इस हस्तक्षेप से वह और भी बिफर गया। उसने मुझे एक तरफ़ झटक दिया और फुटपाथ की भीड़ को बहुत वाहियात तरीक़े से धकेलते हुए आगे बढ़ा। उसके मुँह से अनर्गल वाक्यों और गालियों की बौछार लग गई। उसके अंदर उठे इस चक्रवर्ती तूफ़ान के रूख़ और गति का अनुमान लगाना मुश्किल था। सिर्फ़ इतना साफ़ समझ में आ रहा था कि उस चक्रवाती घेरे के केंद्र में वही इलेक्ट्रॉनिक इंस्ट्रूमेंट था जिसे वह भी नक़लचोर कहता था तो कभी हरामख़ोर।
फिर वह उन संगीत-कंपनियों को गालियाँ देने लगा जिन्होंने ऐसे नक़ली वाद्यों और साउँड रिकार्डिंग की नई और चालाक तकनीकों के सहारे भोंडे फ़िल्मी गीतों के ऑडियो कैसेट का होलसेल मार्केट फैला रखा था। बाद में वह उन लोगों को भी कोसने लगा जिन्होने ऐसे वाद्यों का निर्माण किया था, जो दूसरे तमाम वाद्यों की हू-ब-हू नक़ल करने में सक्षम थे। बाज़ार में आते ही संगीत के ठेकदारों ने उसे तुरंत अपना लिया था और उन साज़िंदों को काम मिलना बंद हो गया जो अर्से से केवल इसी काम या हुनर या कला के सहारे ज़िंदगी बसर कर रहे थे।
“अब इन हरामज़ादों को आख़िर कौन समझाने जाए? उनको तो सिर्फ़ अपना धंधा-फ़ायदा नज़र आता है। कला और कलाकार जाएँ भाड़ में! किसे ख़बर है कि पुराने साज़िंदे कहाँ हैं? किसे फ़िक्र है कि अगर वे बजाएँगे नहीं तो क्या करेंगे? जिस आदमी ने ज़िंदगी-भर वायलिन बजाई हो, क्या वह टमटम चला सकता है? क्या तबला बजानेवाले हाथ मसाज का काम कर सकते हैं? प्यानो पर थिरकनेवाली उँगलियों से अगर क़साई की दुकान में मुर्गियों की आँतें छँटवाई जाएँ तो कैसा लगेगा?
वह पता नहीं किससे सवाल कर रहा था। थोड़ी ही देर में वह यह भी भूल गया कि मैं उसके साथ हूँ। मुझे उसके चेहरे पर पागलपन के चिन्ह साफ़ दिखाई दिए। वह अचानक फुटपाथ से उतरकर सड़क क्रॉस करने लगा। वहाँ न तो जेब्रा क्रॉस था, न पैदल चलनेवालों के लिए कोई सिगनला चालू ट्रैफिक में उसके यूँ अचानक घुस जाने से एक साथ कई वाहनों का संतुलन बिगड़ गया। एक सिटी बस की चपेट में आने से वह बाल-बाल बचा, मगर उसे बचाने के चक्कर में एक टैक्सी मार्ग-विभाजक से टकरा गई और टैक्सी के अचानक रूकते ही पीछे तेज़ रफ़्तार से आती कई कारें और टैक्सियाँ असंतुलित हो गईं। टैक्सियों और कारों के ड्राइवर ग़ुस्से से फनफनाते हुए नीचे उतरे और बूढ़े को घेर लिया। ट्रैफ़िक हवलदार ने बूढ़े को जब उस घेरे से बाहर निकाला, तो मैंने देखा उनकी नाक और जबड़े से ख़ून बह रहा था। मगर वह ख़ून पोंछने या घाव को सहलाने के बजाए चेतावनी-भरे शब्दों में पता नहीं किसे गालियाँ बक रहा था। हवलदार ने उसका कॉलर पकड़ा और घसीटते हुए उसे सड़क के दूसरे किनारे तक ले गया।
ट्रैफ़िक नियंत्रित होने में थोड़ा समय लगा। इस बीच मेरी नज़रें बराबर बूढ़े का पीछा करती रहीं। वह लड़खड़ाते हुए फुटपाथ पर चढ़ा और मेरे देखते ही देखते अगले सर्कल में दाईं तरफ़ मुड़ गया।
पैदल चलनेवालों के लिए जैसे ही ट्रैफिक खुला, मैं तेज़ी से उस सर्कल की तरफ़ भागा। सर्कल का मोड़ मुड़ने के बाद मैंने नज़रें दौड़ाई। उस लंबे-गीले रास्ते में छतरियों के झुंड के बीच उसका भीगता और भागता हुआ शरीर मुझे दिखाई दिया। मैं बहुत मुश्किल से उसके क़रीब पहुँच पाया। मैंने झपटकर उसका कंधा पकड़ लिया। उसने मुड़कर मुझे देखा—उसके चेहरे पर घूँसों और थप्पड़ों के दाग़ उभर आए थे। नाक से भी अभी तक गाढ़ा लाल ख़ून टपक रहा था और आँखों में अजीब-सी अजनबीयत-सी थी। चौराहे के एक रेड सिगनल की रौशनी में उसका भावहीन, पथराया-सा चेहरा मुझे भयानक लगा।
तुम्हारा घर कहाँ है?” मैंने पूछा।
क़रीब से गुज़रते वाहनों के हॉर्न की वजह से शायद उसे मेरी बात समझ में नहीं आई।
“तुम्हारा घर कहाँ है?” मैंने इस बार उसके कान के पास अपना मुँह ले-जाकर पूछा। उसके चेहरे पर अब भी ठोस संवेदनहीनता छाई रही। तीसरी बार वही सवाल पूछने के बाद भी जब उसने उन्हीं भावशून्य आँखों से मुझे देखा तो मैं समझ गया कि बात हद से गुज़र गई है और अब शराब, ख़ून और बारिश से भीगी हुई उसकी देह को अकेले भटकने के लिए छोड़ देने से बड़ा कोई गुनाह नहीं हो सकता।
मैं बहुत परेशान हो गया। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। वह अगर सिर्फ़ बीमार होता, तो भी मैं उसे सँभाल लेता, मगर मामला दिमाग़ का था और उसके पागलपन में अगर मुझे वह युक्तिसंगत व्यवस्था न दिखती, जिसे हम ‘जिनियस' कहते हैं, तो शायद मैं उसे वहीं छोड़कर चला जाता, क्योंकि मुझ पर समाज-सेवा का दौरा कभी नहीं पड़ा था और न ही मेरे अंदर कोई ऐसा मदर टेरेसाई नर्म कोना था जिसमें मैं ऐसे पागलों और लावारिसों को पनाह देता।
मैं तेज़ी से सोच रहा था कि क्या करूँ। अचानक मुझे ख़याल आया कि शायद उस बीयर बारवाली लड़की को बूढ़े के घर का पता मालूम हो। मैंने तुरंत एक टैक्सी रुकवाई। बूढ़े को सहारा देकर टैक्सी में बैठाया और ड्राइवर को सेंडहर्स्ट रोड ले चलने को कहा।
जब हम वापस सेंडहर्स्ट रोड के बार में पहुँचे, तब रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे। ड्राइवर ने जैसे ही ब्रेक लगाया, बूढ़े का श्लथ शरीर मेरी गोद में लुढ़क गया। वह या तो सो रहा था या बेहोशी के आलम में था। मैंने उसे सँभालकर सीट पर लिटा दिया।
“तुम पाँच मिनट यहीं रुको, मैं अभी आता हूँ।” मैंने ड्राइवर से कहा और टैक्सी से नीचे उतर आया। ड्राइवर ज़रा पसोपश में पड़ गया। उसे संदेह था कि कहीं मैं बिना किराया दिए इस मुसीबत को उसके गले न मढ़ जाऊँ। मैंने पचास का एक नोट उसके हाथ में थमा दिया और सीढ़ियाँ चढ़कर बार में अंदर दाख़िल हुआ।
दरवाज़ा खुलते ही संगीत की बहुत तेज़ आवाज़ ने मुझ पर हमला किया। वह खोपड़ी को सनसना देनेवाला संगीत था। मैंने ध्वनियों का इतना भयंकर इस्तेमाल पहले कभी नहीं सुना था। कुछ देर की चकराहट के बाद हल्की नीली रौशनी में मैंने उस लड़की को खोजना शुरू कर किया। वह डाँसिंग फ़्लोर पर कुछ और लड़कियों के साथ नाच रही थी। मैंने आगे बढ़कर उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश की। वह एक मालदार आदमी को रिझाने के लिए बार-बार अपने बाल लहरा और कूल्हे मटका रही थी। सामने की कुर्सी पर बैठा वह अधेड़ ऐयाश, जिसके गले और उँगलियों में सोना बहुत अश्लील ढंग से चमक रहा था, उस लड़की की हर अदा पर सौ-सौ के नोट निछावर कर रहा था।
बहुत कोशिश और इशारे करने के बाद भी जब लड़की ने मेरी तरफ़ ध्यान नहीं दिया तो आख़िरकार मुझे भी जेब से नोट निकालने पड़े। नोट हाथ में आते ही मैंने देखा—बार के हर वेटर, स्टूअर्ट और डाँसर्स का ध्यान अब मेरी तरफ़ था। लड़की की तरफ़ मैंने सिर्फ़ एक नज़र से देखा और वह मुस्कुराती हुई मेरे पास आ गई। नोट उसके हाथ में देने से पहले मैंने दो—तीन बार ऊँची आवाज़ में कहा, “मुझे तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।
दूसरी आवाज़ों के कारण उसे मेरी बात समझ में नहीं आई। वह हाथ पकड़कर मुझे पिछले दरवाज़े की तरफ़ ले गई। दरवाज़े के उस तरफ़ रेस्तराँ का किचन था।
“हाँ बोलो जल्दी, क्या बात है? मैं अपना कस्टमर छोड़कर आई हूँ।
“शाम को मैं जिस बूढ़े के साथ आया था, क्या तुम उसे जानती हो?
“हाँ हाँ, वो मेरा रेगुलर कस्टमर तो नहीं है, पर आता है तो सबकी तबीअत ख़ुश कर देता है।
उसकी तबीयत ख़राब है... क्या तुम उसके घर का पता जानती हो?
“पक्का पता नहीं मालूम, लेकिन शायद वह दादर के कबूतरख़ाने के आसपास किसी चाल में रहता है। क्या तो नाम है उस चाल का... याद नहीं आ रहा अभी।
“देखिए, मैं इस शहर में नया हूँ। मुझे यहाँ के रास्तों के बारे में कुछ नहीं मालूम। क्या आप इस मामले में मेरी मदद कर सकती हैं?
नहीं।” उसने साफ़ मना कर दिया, “आप समझते क्यों नहीं? मैं अपनाकस्टमर छोड़कर नहीं जा सकती।
मैं चुप हो गया। बार से बाहर निकलते ही मैंने टैक्सी के पास जाकर खिड़की से अंदर झाँका। बूढ़ा अभी तक ज्यों का त्यों लेटा था—किसी लाश की तरह। मैंने दरवाज़ा खोला और अंदर सीट में धँस गया।
दादर ले चलो!” मैंने ड्राइवर से कहा। मुझे अपनी आवाज़ बहुत थकी हारी-सी जान पड़ी।
ड्राइवर ने तुरंत चाबी घुमाकर इंजन स्टार्ट किया। थोड़ी दूर जाकर एक यू टर्न मारा और लंबी-चौड़ी सड़क पर टॉप गियर में टैक्सी दौड़ा दी।
मैंने एक सिगरेट सुलगा ली और अपने विचारों को ख़ामोशी से चबाने लगा। यहाँ तक कि मेरी कनपटियाँ दुखने लगीं। उन चबाए हुए विचारों की लुगदी में से पता नहीं कब शून्य निकला और उस शून्य के बोझ से दबकर जाने कब मेरी आँखें मुँद गई।
ड्राइवर ने जब कंधा थपथपाकर मुझे नींद से जगाया तो कुछ समझ ही नहीं आया। मैंने अपना सिर ज़ोर से झटककर ख़ुमारी और नींद को दूर हड़काया और बूढ़े को होश में लाने के लिए हिलाया-डुलाया, लेकिन सिर्फ़ हूँ-हूँ करने के अलावा उसने कोई हरकत नहीं की। आख़िर नीचे उतरकर मैंने उसकी बाहों के नीचे हाथ डालकर उसे दरवाज़े से बाहर खींच लिया। मैं जब बूढ़े के शरीर को घसीटते हुए सड़क के किनारे ले-जा रहा था, तब मैंने देखा कि बावजूद बेहोशी के बूढ़े ने अपने बैग को नहीं छोड़ा था। उसका पूरा शरीर बेहोश था, लेकिन वह था पूरी तरह होश में था जिस हाथ से उसने बैग से बाहर झाँकती सेक्सोफ़ोन की गर्दन को पकड़ रखा था।
मैंने उसकी देह को कबूतरख़ाने की ग्रिल से टिका दिया। पलटकर टैक्सी का भाड़ा चुकाया और रिस्टवॉच की तरह देखा। सवा तीन बज रहे थे। यह रात और सुबह के बीच की ऐसी घड़ी थी जब न तो मैं कुछ कर सकता था, न कहीं जा सकता था। कुछ देर तक इधर-उधर की सोचने के बाद मैं भी बूढ़े के पास ग्रिल से पीठ टिकाकर बैठ गया।
रात के उस आख़िरी पहर में जब सारी हरकतें सो चुकी थीं और कहीं से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, मुझे अपने दिल की धड़कनें सुनाई दीं। मैं अपने बारे में सोचने लगा। अपने बाप की दौलत से दुश्मनी मोल लेने के बाद मैं जिस तरह से तुच्छ आमोद-प्रमोद में ज़िंदगी को ख़र्च कर रहा था, उसमें किसी समझदार अनुराग की कोई गुंजाइश नहीं थी। अपनी स्वतंत्र अप्रतिबद्धता की शेख़ी, जिसके लिए मैंने अपने कैरियर तक को लात मार दी थी, को क़ायम रखने के लिए मैं हमेशा जिस सूखी अकड़ का इस्तेमाल करता था, उसमें बारिश, शराब, ख़ून और सेक्सोफ़ोन की एक करुण धुन ने नमी ला दी थी। मैं उस नमी के नर्म आगोश में एक थके हुए बच्चे की तरह सो गया।
एक-साथ कई पंखों की फड़फड़ाहट ने मुझे नींद से जगाया। मैंने आँखें मलते हुए इधर-उधर देखा—बूढ़ा नदारद था। एक बार फिर पीठ के पीछे पंखों की फड़फड़ाहट सुनाई दी। मैंने पलटकर देखा, वह बूढ़ा कबूतरख़ाने के बीचोंबीच लेटा था और उसके जिस्म पर कई कबूतर चहल-क़दमी कर रहे थे, इतने अधिक कि उसका पूरा शरीर उनसे पट गया था। यहाँ तक कि चेहरा भी ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। मुझे संदेह हुआ, कहीं वह मर तो नहीं गया, लेकिन मुझे अपने इस बेवक़ूफ़ाना संदेह पर तुरंत शर्म आई, क्योंकि मरे हुओं पर कौए मँडराते हैं, कबूतर नहीं।
मैं कबूतरख़ाने की ग्रिल फाँदकर अंदर कूदा। मेरी इस कूद-फाँद से घबराकर सारे कबूतर उड़ गए। मैं बूढ़े के क़रीब पहुँचा और तब मुझे उसका चेहरा दिखाई दिया—स्वस्थ्य और मुस्कुराता हुआ चेहरा, जिसमें कहीं पिछली रात के उपद्रव के चिन्ह नहीं थे। उसके चेहरे और तमाम कपड़ों पर बाजरे, ज्वार और मकई के दाने चिपके हुए थे। शायद उसने ख़ुद अपने ऊपर कबूतरों का चारा फैला रखा था।
उसने स्नेह से मेरी तरफ़ हाथ बढ़ाया। मैंने जैसे ही उसके हाथ में हाथ दिया,एक कबूतर आकर फिर उसके हाथ पर आ बैठा, वहीं चितकबरा कबूतर, जिसके पैर में काला धागा बँधा था, जो कल शाम बूढ़े के कंधे पर बैठा था।
“तुम चुपचाप खड़े रहना। मेरा हाथ छुड़ाने की कोशिश मत करना। फिर देखना, यह धीरे-धीरे तुम्हें भी अपना दोस्त बना लेगा।
मैंने बूढ़े की बात पर सहमति में गर्दन हिलाई और ख़ुशी-भरे आश्चर्य के साथ देखा—वह कबूतर, जो हम दोनों के हाथों के 'मिलन' पर बैठा था, उसने झटके से गर्दन उठाकर सीधे मेरी आँखों में देखा। उसकी आँखों में कौतूहल और अजनबीपन था। कुछ देर तक मुझे देखते रहने के बाद उसने गर्दन झुकाई और दो-तीन क़दम आगे बढ़कर बूढ़े के हाथ से मेरे हाथ पर आ गया। मुझे उसके पंजे के खुरदरे स्पर्श से हल्की-सी सिहरन हुई, लेकिन मैंने अपने हाथ को काँपने नहीं दिया। उसने गर्दन उठाकर फिर मेरी तरफ़ देखा और ज़रा झिझकते हुए दो क़दम और आगे बढ़ा। कुछ देर तक मेरी विश्वसनीयता को आज़माने के बाद तीन-चार क़दम आगे बढ़कर मेरी कलाई और बाँह के बीच पहुँच गया। अब उसकी आँखों में कोई डर नहीं था। अगले ही पल वह झपटकर मेरे कंधे पर आ बैठा। मैंने धीरे-धीरे अपना हाथ आगे बढ़ाया और उसके पंखों को सहलाने लगा।
“यह पहले रॉबर्ट का दोस्त था।” बूढ़े ने मेरे कंधे पर बैठे कबूतर को बड़े प्यार से देखते हुए कहा।
“उसे गए कितने दिन हो गए?” मैंने कबूतर की देह पर हाथ फेरते हुए पूछा।
बूढ़ा कुछ देर चुप रहा। वह उस क्षण की याद से थोड़ा ग़मगीन हो गया। एक-दो पल की चुप्पी के बाद उसने बड़ी मुश्किल से मुँह खोला, “आज उसकी पहली बरसी है।
मैंने देखा, पिछली रात की वह यातना और हताश फिर उसके चेहरे पर मँडराने लगी। मैंने उसे उस सिकनेस से बाहर निकालने के लिए ज़ोर लगाकर उसके हाथ को अपनी ओर खींचा और उसकी बाँह में अपनी कलाई डालकर उसे खड़ा कर दिया। कहा, “चलो तुम्हें घर तक छोड़ दूँ।
उसने ज़रा आश्चर्य से मेरी तरफ़ देखा—“तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मैं यहाँ रहता हूँ?”
“कल जब तुम होश खो बैठे थे, तब मैं फिर उसी बार में गया था।
“लेकिन वहाँ तो मुझे कोई नहीं जानता, सिवाय उस लड़की के...।
“हाँ, उसी लड़की ने मुझे पता दिया।
क्या वह मेरे बारे में कुछ कह रही थी?
“नहीं, वह बहुत बिज़ी थी।
बूढ़े ने एक गहरी साँस ली। फिर उसके चेहरे का भाव बिगड़ गया, जैसे उसने कोई कड़वी चीज़ पी ली हो। वह मेरे कंधे का सहारा लेकर आगे बढ़ा। हम सड़क पार करके बाईं ओर से एक गली में मुड़ गए। उसने मेरी तरफ़ देखे बग़ैर पूछा, “जानते हो वह लड़की कौन थी?
मैंने इंकार में सिर हिलाया और जिज्ञासा से उसकी तरफ़ देखा। वह कुछ कहना चाहता था, पर कहते-कहते रह गया। उसके चेहरे पर फिर कड़वेपन को निगलने का कष्ट उभर आया।
आगे जाकर वह एक और पतली गली में मुड़ गया। वह मुश्किल से आठ-दस फीट चौडी गली थी, जिसके दोनों तरफ़ चालें थीं। लकड़ी के बरामदों और सिढ़ियोंवाली बहुत पुरानी गली और सीली हुई चालें, जिनके हर कोने में ठहरी हुई बासी हवा, उमस, ऊब और अँधेरे ने स्थाई क़ब्ज़ा कर लिया था।
चरमराती हुई सीढ़ियों पर रेलिंग के सहारे चढ़ने के बाद हम दूसरे माले की चौथी खोली के पास पहुँचे। उसने बहुत ज़ोर-ज़ोर से हाँफते हुए अपनी जेब से चाबी निकाली और दरवाज़े का ताला खोल दिया।
मैं अब चलता हूँ।” मैंने उससे विनम्र शब्दों में इजाज़त ली।
उसने ज़रा प्यार भरी नाराज़गी से मुझे देखा, “मैं अभी इतना गया-गुज़रा नहीं हूँ कि तुम्हें एक कप चाय भी ना पिला सकूँ।” वह हाथ पकड़कर मुझे अंदर खींच ले गया।
अंदर सामान के नाम पर सिर्फ़ एक पलँग और एक मेज़ थी। पलँग के ऊपर एक बहुत गंदा बिस्तर बिछा हुआ था जिसके सिरहाने-पैताने का कोई ठिकाना नहीं था। कमरे की दीवारों पर जब मेरी नज़र गई तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। दीवारों पर जगह-जगह कीलें गड़ी हुई थीं और उन पर तरह-तरह के वाद्य टँगे थे। सबसे पहले मेरी नज़र तबले पर गई उसका चमड़ा उधड़ गया था और उसके अंदर चिड़ियों ने घोंसला बना लिया था। तबले की बग़ल में एक टूटा हुआ वायलिन था, जिसके तार नदारद थे। दीवार के कोने में सारंगी थी, मकड़ी के जाले से घिरी हुई। सारंगी के ऊपर बाँसुरी लटक रही थी, जिसके छेदों में फ़फूँद जम गई थी और उसके माउथपीस को दीमक ने चाट लिया था। नीचे फ़र्श पर हारमोनियम पड़ा था, जिसकी हड्डी-पसली एक हो गई थी।
मैं तब तक इन अवशेषों का अवलोकन करता रहा था जब तक बूढ़ा बरामदे में जाकर किसी ‘छोकरे' को चाय के लिए आवाज़ देकर लौट नहीं आया। चाय लेकर जो छोकरा आया, उसने चाय की प्यालियाँ हमारे हाथ में थमाने की बजाए अपनी जेब से एक छोटी-सी नोटबुक और क़लम निकाली। बूढ़े ने दोनों चीज़ें हाथ से ले लीं। वह उस उधार-खाते के गँदे पन्नों को उलटने लगा। फिर एक पन्ने पर कुछ लिखने के लिए जैसे ही उसने क़लम आगे बढ़ाई, लड़के ने बीच में टोक दिया, “अभी की दो कटिंग मिला के सत्तर चाय हो जाएँगी। सेठ मेरे ऊपर बोम मार रेला है। जभी पइसा देंगा तभी चाय देना-अइसा बोलेला है...”
बूढ़े ने केवल एक बार उस लड़के की तरफ़ देखा। फिर जेब से रात के पानी में भीगे हुए नोट निकाले। एक पचास और एक सौ का नोट निकालकर लड़के के हाथ में थमाया, उधार-खाते को फाड़कर गैलरी से बाहर खुली सड़क पर फेंक दिया चाय की प्यालियाँ उसके हाथ में बहा दी।
लड़के पर उसके इस व्यवहार को कोई असर नहीं पड़ा। वह चुपचाप गिलास उठाकर चला गया।
कुछ देर तक वहाँ ख़ामोशी छाई रही। फिर अचानक उसके ऊपर दौरा पड़ “तुम बैठे रहना...मैं अभी आता हूँ।
उसने कड़वा-सा मुँह बनाया और गैलरी पार करे धड़ाधड़ सीढ़ियाँ उतर गया।
बुढ़ापे की तुनकमिज़ाजी कई बार बचपने की नादानी से भी बदतर साबित होती है और फिर इस बूढ़े का मामला तो और भी गड़बड़ था। मुझे लगा कि इस बखेड़ेबाज़ आदमी के साथ अगर मैं ज़ियादा देर तक रहा तो कभी भी किसी बड़े झंझट में फँस सकता हूँ। एक पल के लिए मुझे यह ख़याल आया कि चुपचाप यहाँ से खिसक जाऊँ, लेकिन मेरी जिज्ञासा अभी शाँत नहीं हुई थी। मैं और ज़ियादा गहराई में जाकर इस आदमी के भीतर के उस 'स्वर' को सुनना चाहता था, जो दुनिया के कई अंगड़-खंगड़ प्रलापों के नीचे दबा हुआ था।
मुझे एक डर यह भी था कि कहीं उस स्वर को खोजते-खोजते मैं इतना नीचे चला जाऊँ कि वापस ऊपर आना मुश्किल हो जाए, क्योंकि नीचे काई थी, उलझी हुई करूणा थी और कई पथरीले कटाव थे, जिनमें उलझ-फँसकर मैं डूब सकता था। लेकिन बावजूद इस डर के, मेरी मनःस्थिति उस लालची गोताख़ोर जैसी थी जो दक्षिणावर्त शंख पाने के लिए ज़िंदगी भर गोते लगाते रहता है, बिना जान की परवाह किए, बिना यह जाने कि जो चीज़ वह पाना चाहता है, उसकी असली पहचान क्या है।
जब पिछली बातें याद करता हूँ तो मुझे अपनी चरम जिज्ञासा के कारण अपने-आपको दोष देने का कोई कारण नज़र नहीं आता। मेरी उत्कंठा के पीछे छुपी हुई नीचता नहीं थी। मैं बस थोड़ा-सा उलझ गया था और चूँकि यह उलझन बहुत नाज़ुक थी इसलिए अपनी तमाम तटस्थता के बावजूद मैं इस चिपचिपाहट से ख़ुद को छुड़ा नहीं पा रहा था।
उसके अजाएबघर में उसका इंतिज़ार करते-करते आख़िर मैं थक गया रात की निशाचरी के कारण मेरा सिर भी सनसना रहा था। कुछ ही देर में मुझे झपकी लग गई।एक हल्की आहट से जब मेरी आँखें खुली तो मैंने देखा, वह मेरे सामने दो प्याले लेकर खड़ा था, लेकिन उसमें से चाय की ख़ुश्बू नहीं, देशी शराब के भभके उठ रहे थे। उसने एक गिलास मेरी तरफ़ बढ़ाया और दूसरा अपने होंठों से लगा लिया। एक ही साँस में पूरा गिलास ख़ाली करने के बाद उसने शर्ट की बाँह में मुँह पोंछा और बहुत अजीब नज़रों से मुझे देखा। उसकी सुर्ख़ आँखों और उसके अराजक तरीक़ों से स्पष्ट था कि वह कल की तुलना में आज ज़ियादा फॉर्म में है। उसका वह हाथ काँप रहा था, जिस हाथ में उसने मेरे लिए शराब का प्याला थाम रखा था।
यह मेरा नहीं, रॉबर्ट मास्टर का कमरा है। तुम अभी मेरे नहीं, रॉबर्ट मास्टर के मेहमान हो। रॉबर्ट-घराने के सुबह की शुरूआत दारू से होती है। अगर तुम्हें इस घराने के अदब-क़ायदों को सीखना है तो गिलास मुँह से लगा लो।
मैं धीरे-से मुस्काया और उसके हाथ से गिलास लेकर एक ही साँस में ख़ाली कर दिया।
“वेरी गुड...वेरीगुड! तुम भी हमारी लाइन के आदमी हो। जमेगी...अपनी-तुम्हारी ख़ूब जमेगी!”
उसने ख़ुशी से चहकते हुए फिर दो गिलास तैयार किए और हमने उस दिन का आगाज़ एक ऐसे ढंग से किया जिसका अंजाम कुछ भी हो सकता था।
शराब का पहला प्याला किसी बाज़ की तरह झपटते हुए मेरे सीने में उतरा था, दूसरे प्याले की शराब ज़रा धीरे-धीरे किसी चील की तरह मँडराने लगी। मैं धीर-धीरे बहुत ऊपर उठता चला गया, लेकिन नीचे की तमाम चीज़ें मुझे उतनी ही साफ़ नज़र आने लगीं। दूसरा गिलास ख़त्म करने के बाद मैंने दीवार पर लटकते वाद्यों को गहरी नज़र से देखा। इस बार मेरे देखने में कुछ फ़र्क़ था। कुछ ही देर पहले मेरे लिए ये चीज़ बेजान थीं, लेकिन अब उनमें से कोई अर्थ ध्वनित हो रहा था।
मुझे अपने इन दोस्तों से नहीं मिलवाओगे?” मैंने वाद्यों की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा।
बूढ़ा अपने गिलास में कँपकँपाती शराब को बड़े ग़ौर से देख रहा था। उसने भौंहें उठाकर मेरी तरफ़ देखा, फिर सीधे दीवार की तरफ़ नज़रें उठा दीं। वह बड़े अजीब ढंग से मुस्काया। गिलास ख़ाली करके उसने मेज़ पर रखा और दीवार के पास चला गया। सबसे पहले तबले पर हाथ रखा, “ये रफ़ीक़ ख़ान है। उस्ताद सलीमुद्दीन ख़ाँ साहब का सबसे छोटा और सबसे आवारा लौंडा। पहले कांग्रेस हाउस में किसी बाई के मुजरे में तबला बजाता था। बाद में फ़िल्म-लाइन में आ गया।” तबले को पीछे छोड़कर उसने सारंगी पर उँगली रखी, “और यह सलीम भी उसी का जोड़ीदार था। इनकी संगत में बाद में ये वासुकी प्रसाद और ये जमुनादास भी बिगड़ गए (उसका इशारा बाँसुरी और शहनाई की तरफ़ था)। ये चारों अपने फ़न और धुन के पक्के थे, मगर उनके जीवन में कोई लय-ताल नहीं थी। बहुत बेसुरे और बेताले थे चारों-के-चारों। मगर थे बहुत ईमानदार, इसमें कोई शक नहीं।” एक बार चारों वाद्यों को बहुत नाज़ और प्यार से देखने के बाद उसने ज़मीन पर पड़े हारमोनियम पर नज़र डाली, “यह नीतिन मेहता का हारमोनियम है। यह लौंडा सबसे ज़ियादा चालू था। पाँच साल पहले हमारे पास सा-रे-गा-मा सीखने आया था और आज बहुत पॉपुलर म्यूज़िक डारेक्टर है, क्योंकि इसकी उँगलियाँ हारमोनियम से फिसलकर तुरंत सिंथेसाइज़र पर चली गई थीं और नीयत संगीत से उचटकर धंधे पर लग गई थी। हर तरह के चाँस और स्कोप में अपनी टाँगें घुसेड़ेते हुए उसने एक ऐसा धुँधरा घोर मचाया कि कुछ समझना मुश्किल हो गया। बाद में उसे एक सिंधी पार्टनर मिल गया। उसने संगीत के धंधे को बहुत बड़े पैमाने पर इंवेस्टमेंट किया। पुराने साज़ और साज़िदों की जगह नए यंत्र आ गए। पहले रिकॉर्डिंग के दौरान डेढ़-दौ सौ साज़िदें जमा होते थे, पर अब तमाम साज़ों की आवाज़ों और उनके अलग-अलग इफेक्ट्स के लिए केवल एक ही इलेक्ट्रॉनिक यंत्र काफ़ी है। उस यंत्र के ख़िलाफ़, मैंने और रॉबर्ट ने कई बार आवाज़ बुलंद की। कई बार हमने ‘फ़िल्म आर्टिस्ट एसोसिएशन' को दरख़्वास्त दी कि इस यंत्र पर पाबंदी लगा दी जाए मगर अफ़सोस... न तो इस मामले में किसी ने हमारा साथ दिया और न आर्टिस्ट एसोसिएशन ने कोई कदम उठाया...”
अपने कुछ साथियों का परिचय देने और गुज़रे हुए हालात की लंबी तफ़सील पेश करने के बाद उसने सिगरेट का पैकेट जेब से निकाला, एक सिगरेट अपने होंठों के बीच रखकर उसने पैकेट मेरी तरफ़ बढ़ाया। मैंने भी चुपचाप सिगरेट सुलगा ली।
दो-तीन गहरे कश खींचने के बाद वह बहुत ग़ौर से और कुछ-कुछ सहानुभूतिपूर्ण नज़रों से वायलिन को देखने लगा—“सबसे ज़ियादा मुझे दास बाबू पर तरस आता था... बेचारे ए ग्रेड के आर्टिस्ट होते हुए भी सी-ग्रेड की ज़िंदगी जीते थी। बहुत शर्मीले और संजीदा आदमी थे। ट्रेजिक धुनों के लिए उन्हें ख़ासतौर से बुलाया जाता था। नीतिन मेहता जैसे हरामियों ने उसका बहुत मिसयूज़ किया। वह एक ही सिटिंग में उससे चार-पाँच धुनें रिकॉर्ड करवा लेता था। फिर उन धुनों को काट-छाँटकर अलग-अलग गानों और सिचुएशन्स में इस्तेमाल करता था। अपनी धुनों की इस दुर्गति से दास बाबू बहुत उदास हो जाते थे, मगर कभी किसी से शिकायत नहीं करते थे...
“एक बार एक गाने की कंपोजिंग के दौरान वे वायलिन बजाते-बजाते रोने लगे। उस गाने के अंत में मुझे एक लंबा पीस बजाना था, मगर मैं उठ गया और दास बाबू की बाँह पकड़कर स्टूडियो से बाहर निकल आया।
सिगरेट के ठूँठ को तिपाई पर पड़ी ऐश-ट्रे में मसलकर उसने कुर्सी नज़दीक खींच ली और अपने लड़खड़ाते हुए पाँव को संतुलित करते हुए कुर्सी पर बैठ गया, फिर बोला, “उस रात जब पूरी चाल सो गई, तब आधी रात के बाद मुझे दास बाबू की खोली से वायलिन की आवाज़ सुनाई दी और मैं देखे बग़ैर यह जान गया कि दास बाबू सिर्फ़ वायलिन नहीं बजा रहे थे, रो भी रहे थे। कुछ देर तक मैं चुपचाप सुनता रहा। मैंने पहले कभी दर्दनाक स्वर नहीं सुने थे। आख़िर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने अपना सेक्सोफ़ोन उठाया और उसकी पीठ सहलाने के लिए एक भारी स्वर उनकी खिड़की की तरफ़ उछाल दिया। मेरी हमदर्दी से पहले वे ठिठक गए, फिर उनका वायलिन एकदम फफक पड़ा। मैंने उसे रोने दिया। सेक्सोफ़ोन के चौड़े सीने पर सिर रखकर रोती वायलिन की उस धुन को मैं कभी नहीं भूलूँगा... वह बहुत लंबी, घुमावदार और इतनी कातर धुन थी कि सेक्सोफ़ोन जैसा दिलेर भी कुछ देर के लिए विचलित हो गया। लेकिन इससे पहले कि मैं अपना संतुलन खो देता, प्यानो के हल्के स्पर्श ने मुझे ढांढस बँधाया। रॉबर्ट का एक पुराना नोट हमारे स्वरों की तरफ़ बाहें फैलाते हुए आया और हम तीनों बग़लगीर हो गए।...
फिर हमारी यह तिकड़ी आगे बढ़ी, लेकिन कुछ ही देर बाद पीछे से सारंगी की आवाज़ आई और वह बहुत हड़बड़ी में हमारी तरफ़ दौड़ती चली आई जैसे हम उसका साथ छोड़कर कहीं जा रहे हों। हमने अपनी स्वरयात्रा में उसे भी शामिल कर लिया। हम उसे छोड़ नहीं सकते थे, क्योंकि वह बहुत भावुक थी और बात-बात में दुखी हो जाना उनके स्वभाव में शामिल था।...
“फिर बाँसुरी और शहनाई की भी नींद खुल गई। उन दोनों की अलसाई-सी, अँगड़ाइयाँ लेती आवाज़ें पहले बहुत सुस्त क़दमों से बाहर आईं, फिर यह देखकर कि हम बहुत दूर निकल गए हैं, दोनों ने एक-साथ अपनी चाल तेज़ कर दी और कुछ ही देर में वहाँ स्वरों का तूफ़ान घुमड़ने लगा। बिना किसी उद्देश्य और बिना किसी रिहर्सल के ख़ुद-ब-ख़ुद वहाँ एक ऐसा आर्केस्ट्रा शुरू हो गया, जिसका कोई पूर्वनिर्धारित 'शो' नहीं था, जिसे सुननेवाला कोई 'रसिक श्रोता' नहीं था, क्योंकि यह कोई कंपोजीशन नहीं, कुछ आवारागर्दो की अराजकता थी। हम सब एक-दूसरे के साथ धींगा-मस्ती कर रहे थे। हर स्वर अपने प्रतिद्वंद्वी स्वर को पीछे छोड़ आगे निकल जाना चाहता था। प्यानो मदमस्त हाथी की तरह सबको कुचल रहा था। सारंगी प्यानो की टाँगों के बीच से निकलकर उसे छकाती हुई आगे बढ़ गई। शहनाई की बेहद तेज़ और पतली धारवाली आवाज़ ने सारंगी के तार काट दिए, मगर साँस लेने के लिए जैसे ही शहनाई रूकी, बाँसुरी ने उस अंतराल में एक लंबी छलाँग लगाई और सबसे आगे निकल गई।...
“मैंने बाँसुरी को सबक सिखाने के लिए सेक्सोफ़ोन होंठों से लगाया, मगर अकस्मात मेरा ध्यान इस बात पर गया कि वायलिन की आवाज़ कहीं बिछड़ गई है। कुछ देर तक मैं ध्यान देकर सुनता रहा कि शायद दूसरी तेज़ आवाज़ों के कारण वायलिन की आवाज़ दब गई होगी, लेकिन नहीं, वह कहीं सुनाई नहीं दे रही थी। बाक़ी सब बहुत मस्ती में थे, इसलिए उन्हें कुछ पता नहीं चला, लेकिन मैं थोड़ा सजग था। ज़रा और ध्यान देने पर मुझे यह आभास हुआ कि संगीत की संगत में कहीं कुछ असंगत हो रहा है... मुझे किसी चीज़ के तोड़े जाने की आवाज़ सुनाई दे रही थी... ये स्वराघात बहुत भयानक थे। उनमें किसी चीज़ को हमेशा के लिए ख़त्म कर देनेवाला हत्यारापन था। दो-तीन बड़े आघातों के बाद वह आवाज़ बंद हो गई। मैं सोच में पड़ गया। मुझे हालाँकि यह समझ में नहीं आया कि वह किस चीज़ के पटकने या पीटने की आवाज़ थी, मगर यह तो साफ़ ज़ाहिर था कि वह आवाज़ दास बाबू की खोली से ही आई थी। मैंने सेक्सोफ़ोन मेज़ पर रख दिया और दरवाज़ा खोलकर बाहर गैलरी में निकल आया। सामने की चाल में सब खिड़की-दरवाज़े बंद थे। दास बाबू की खोली के दरवाज़े की दरारों से बल्ब की पीली रौशनी की लकीरें चमक रही थीं। बीच-बीच में उन चमकाती लकीरों को कोई परछाईं काट देती थी। वे लकीरें जब बार-बार और बहुत तेज़ी से कटने लगी, तब मुझे मालूम हुआ कि अंदर कोई छटपटा रहा है... मैं तेज़ी से सीढ़ियाँ चढ़ गया। दास बाबू की खोली के बंद दरवाज़े के सामने पहुँचकर मैंने अपने धड़धड़ाते सीने को एक हाथ से थामा और दूसरे हाथ से दरवाज़े को धकेला। अंदर दास बाबू फ़र्श पर गिरे पड़े थे। वायलियन के टुकड़ों के बीच फ़र्श पर वे अपना सीना थामें छटपटा रहे थे। मैंने लपककर उन्हें अपनी बाहों में ले लिया। मुझे देखकर उनके चेहरे पर हल्की सी राहत आई, मगर अगले ही पल किसी अज्ञात शक्ति ने उनके चेहरे पर पोंछा मार दिया।”
दास बाबू के जीवन के अंतिम क्षणों का जो भयानक वर्णन बूढ़े ने किया, वह काफ़ी देर तक एक फ़िल्म की तरह मेरी कल्पना में घूमता रहा। बूढ़े के चुप हो जाने के बावजूद उसके शब्द मेरे कानों में गूँजते रहे। मैं उस संत्रस्त कर देने वाले असर के जब बाहर आया, तब मैंने देखा, बूढ़ा किसी गहरी सोच में डूबा था। मैंने उसके मौन पर कोई दरार नहीं पड़ने दी।
हम दोनों पता नहीं कितनी देर चुप रहते, अगर हमारे मौन के बीच वह चितकबरा कबूतर न चला आया होता। वह पहले कमरे की दहलीज़ पर बैठा कोतूहल-भरी आँखें मटकाते हुए बारी-बारी से हम दोनों को देखता रहा, फिर उड़कर बूढ़े की गोद में जा बैठा। बूढ़ा हालाँकि किसी ख़याल में खोया था, लेकिन उसके हाथ आदतन कबूतर के पंखों को सहलाने लगे।
“वे इतने परेशान क्यों रहते थे?” मैंने ज़रा संकोच से पूछा।
कौन? बूढ़े ने मेरी तरफ़ देखकर पूछा।
“दास बाबू?” मैंने कहा।
बूढ़ा इस सवाल से फिर अपसेट हो गया। उसने फिर कड़वा-सा मुँह बनाया और अचानक खड़ा हो गया। उसका हाथ फिर काँपने लगा। उस कँपकँपाहट को क़ाबू में करने के लिए उसने मुट्ठी भींच ली। उसके चेहरे से लग रहा था कि वह फिर बिफर उठेगा, मगर वह कुछ नहीं कर पाया। अपने तशद्दुद से फड़फड़ाते होंठों से उसने दाँतों में भींच लिया।
उसकी हालत देखकर मैं भी सहम गया और कबूतर भी। उसने भयभीत नज़रों से बूढ़े को देखा और तुरंत पर फड़फड़ाते हुए कमरे से बाहर उड़ गया।
कुछ देर बाद मुझे पेट में मरोड़ हुई। मैं काफ़ी देर से अंडकोष के दबाब को भी टाल रहा था, लेकिन जब सहन नहीं हुआ तो मैं उठा और बीच में लटकते पर्दे को सरकाकर कमरे के दूसरे हिस्से में चला गया। वहाँ एक छोटी सी रसोई थी और रसोई से लगा एक टीन का दरवाज़ा। रसोई के प्लेटफ़ॉर्म पर बहुत-सी अंगड़-खंगड़ चीज़ें बेतरतीब पड़ी थीं। मैंने किसी चीज़ पर ध्यान नहीं दिया। मेरा ध्यान सिर्फ़ उस टीन के दरवाज़े पर था जिसके पीछे मेरी तात्कालिक यंत्रणा का निकास था।
संडास से बाहर आने के बाद मैंने ध्यान से सब चीज़ों को देखा। उन चीज़ों की अलग-अलग पहचान नहीं थी। वे सब एक संयुक्त कबाड़ में बदल चुकी थीं। आकार में बड़ा होने के कारण सिर्फ़ प्यानों अलग से पहचान में आ रहा था। मैं उसके पास गया, उसके ऊपर पड़े समान को इधर-उधर किया और ग़ौर से देखा, उसके दोनों फुट-पैडल टूटे हुए थे। की-बोर्ड की अधिकांश चाभियाँ भी उखड़ गई थीं। मैंने उसकी अंदरूनी हालत देखने के लिए लकड़ी के ढक्कन को ऊपर उठाया और अगले ही पल मुझे ढक्कन बंद कर देना पड़ा। अंदर कुछ भी नहीं था। न गद्दियाँ, न स्ट्रिग्स, न फेल्टहेमर। सिर्फ़ ख़ालीपन था और उस ख़ालीपन में से एक अजीब-सी बू आ रही थी। वहाँ कुछ मर गया था, जो सड़ रहा था...
पर्दा हटाकर मैं वापस कमरे के अगले हिस्से में आ गया।
“यह प्यानो क्या रौबर्ट मास्टर का है?” मैंने बुढ़ऊ से पूछा।
उसने हाँ में सिर हिलाया और चेहरा झुका लिया।
“वह इतना घायल क्यों है?” मैंने फिर एक मूर्खतापूर्ण सवाल कर डाला, मैं नहीं जानता था कि मेरा यह सवाल कितना ग़ैरवाजिब और ग़ैरज़रूरी था। उसने झल्लाई हुई नज़रों से मुझे देखा, फिर कुर्सी से उठा, कमरे से बाहर निकला, तेज़ क़दमों से गैलरी पार की और धड़ाधड़ सीढ़ियाँ उतरने लगा। मैं पहले तो हतप्रभ रह गया, फिर किसी अज्ञात ताक़त से वशीभूत होकर मैं भी उसके पीछे भागा। मैं जब तक सीढ़ियाँ उतरकर गली में आया, तब तक वह गली पार कर चुका था, और जब मैं गली से बाहर निकला तब वह सड़क क्रॉस कर रहा था। मैंने अपनी रफ़्तार तेज़ की, आते-जाते वाहनों से ख़ुद को बचाते हुए सड़क पार की और दौड़कर उसके पास पहुँच गया।
सुनो!” मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर हल्के दबाव से उसे अपनी ओर खींचा।
मेरी इस रूकावट से उसकी चाल लड़खड़ा गई—“क्या है? उसका स्वर बहुत बिफरा हुआ था—“क्यों मेरे पीछे पड़े हो? जाओ रास्ता नापो... मुझे किसी की हमदर्दी की ज़रूरत नहीं है।
लेकिन तुम जा कहाँ रहे हो?
“मैं कहीं भी जाऊँ, तुम कौन होते हो पूछनेवाले? तुम्हें क्या मतलब है?
“मतलब है।” मैंने इस बार ज़रा कड़ी आवाज़ में कहा, “तुम क्या मुझे कोई चूतिया समझते हो?” मैंने उसकी शर्ट को अपनी दोनों मुट्ठियों में भींच लिया।
मेरी इस अकस्मात चिड़चिड़ाहट से वह ज़रा ढीला पड़ गया। उसने मुँह बिचकाकर एक निश्वास छोड़ा और मैंने अपनी मुट्ठियाँ और कस लीं, “मैं जानता हूँ कि तुम बिलकुल गए-गुज़रे और नाकाम आदमी हो और इस भ्रम में जी रहे हो कि तुम्हारे जैसा तीसमारखाँ इस दुनिया में और कोई नहीं है। मैं यह भी जानता हूँ कि तुम ज़ियादा दिन जीनेवाले नहीं हो, क्योंकि तुम चाहते हो कि तुम्हारी मौत इतने दर्दनाक ढंग से हो कि दुनिया चौंक जाए। तुम इस तरह जो बदहाल ज़िंदगी जी रहे हो, वो इसलिए नहीं कि तुम बदहाल हो, इसलिए कि लोगों को अपनी तरफ़ आकर्षित कर सको... तुम अपने शरीर पर इन चिथड़ों को उसी तरह सजाकर रखते हो जिस तरह रंडियाँ अपने चेहरों को सजाती हैं...
नशे में चूँकि मैं भी था, इसलिए थोड़ा लाउड हो जाना स्वाभाविक था, “गो एँड फक योर आर्ट।” मैंने चिल्लाकर कहा, फिर तेज़ी से पलटकर तेज़ क़दमों से चौराहे की तरफ़ जाने लगा। कबूतरख़ाने के पास जाकर मैं स्टेशन की तरफ़ जानेवाली सड़क पर मुड़ने ही वाला था कि मुझे अपने कंधे पर उसके हाथ का दबाव महसूस हुआ।
मैंने मुड़कर देखना ज़रूरी नहीं समझा।
“तुम्हें परेशान करने का मेरा इरादा नहीं था।” उसकी आवाज़ में हल्का कंपन था, “तुम मेरी वजह से बहुत परेशान हो गए... जाओ अब कभी मेरे जैसे घनचक्करों के फेर में मत पड़ना।
मैंने पलटकर उसके दोनों कंधों पर अपने हाथ रख दिए, “देखो, मैं जानता हूँ रॉबर्ट और दास बाबू के बिना जीने में तुम्हें कितनी तकलीफ़ हो रही है, लेकिन शराब और व्यर्थ के चुतियापों में डूबकर क्या तुम उस महान दुःख का अपमान नहीं कर रहे हो? क्या उस दुःख को तुम सेक्सोफ़ोन के स्वरों के साथ सलीमेट (उदात्तीकरण) नहीं कर सकते?
उसने बहुत विवश निगाहों से मुझे देखा और नकारात्मक ढंग से सिर हिलाने लगा, जैसे मैंने उससे किसी मरी हुई चीज़ को ज़िंदा करने का आग्रह किया हो। मैं उसके आसक्ति-शून्य चेहरे को देखता रहा। वहाँ कोरी शून्यता थी। न कोई चाव था, न कोई भाव। अपने चेहरे को मेरी नज़रों से बचाने के लिए उसने मुँह फेर लिया और कबूतरों के झुंड को देखने लगा।
वे सब चुग्गा चुग रहे थे—शहर की भाग-दौड़, आपा-धापी और परेशानियों से निर्लिप्त और बेख़बर। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा और लोहे की ग्रिल के पास जा खड़ा हुआ। अंदर उस गोल घेरे में फड़फड़ाते असंख्य सलेटी, सफ़ेद और चितकबरे पंखों के शाँत सौंदर्य में से वह कुछ खोज रहा था, कोई ऐसी चीज़ जो उसकी तात्कालिक तकलीफ़ को ढँक दे।
वह काफ़ी देर तक यूँ ही खड़ा रहा। इस बीच उसने क़मीज़ की बाँह से दो बार अपनी आँखें पोंछी। उसकी पीठ मेरी तरफ़ थी, इसलिए देख नहीं पाया कि उसने अपनी आँखों में से क्या पोंछा था। कुछ देर बाद वह पलटा और सीधे मेरी आँखों की तरफ़ अपनी आँखें उठा दीं। उसने बहुत प्यार से मेरी तरफ़ देखा, फिर आगे बढ़कर अपनी बाँह मेरे कंधे में डाल दी और वापस मुझे अपने घर की तरफ़ ले जाने लगा। घर पहुँचाते ही वह किसी नदीदे की तरह चीज़ों पर टूट पड़ा। उसने एक पुराना कपड़ा उठाया और जो चीज़ हाथ में आई उसकी धूल झाड़ने लगा। फिर छत के कोनों में लटकते मकड़जालों पर झाडू फेर दिया। पूरे कमरे को अच्छे से झाड़ने-बुहारने के बाद उसने एक साफ़ कपड़े से तमाम वाद्यों को रगड़-रगड़कर चमका दिया। इस तमाम सफ़ाई अभियान के दौरान वह लगातार सीटी बजाता रहा। उसकी फूँक में धीरे-धीरे वज़न बढ़ता गया और कुछ ही देर में उसने अपनी देह और आत्मा के बिखरे हुए स्वरों को एक तरतीब में 'ट्यून' कर लिया।
कुछ देर बाद पर्दा हटाकर पीछे चला गया। उसके किचन-कम-बाथरूम से काफ़ी देर तक पानी बहने की आवाज़ आती रही। इस बीच मैंने कमरे की नई व्यवस्था पर निगाह डाली। अब सारे साज़ अपनी ग़रीबी और फटेहाली के बावजूद पूरे सम्मान के साथ चमक रहे थे। सिर्फ़ साज़ ही नहीं, पूरा असबाब अपनी असली रंगत में निखर आया था, सिर्फ़ एक एलबम को छोड़कर, जो कोने में पड़ी टेबल के एक किनारे उपेक्षित-सा पड़ा था। उसके कवर पर धूल जमी थी। मुझे उसकी बोसीदगी पर एतराज़ हुआ। मैंने कपड़ा उठाकर उसकी गर्द झाड़ दी और बिना कुछ सोचे-समझे उसे खोलकर देखने लगा। उसमें बहुत पुरानी तसवीरें थीं उसके तमाम यार-दोस्तों की।
कुछ तसवीरें स्टेज प्रोग्राम के दौरान खींची गई थीं और कुछ रिकॉर्डिंग स्टूडियो में। कहीं-कहीं पर एकाध प्राइज़-डिस्ट्रीब्यूशन और पार्टी के भी चित्र थे। वे उन दिनों के चित्र थे जब बूढ़ा जवान था। वह उन चित्रों में जिंदादिली और जवाँमर्दी की मिसाल की तरह मौजूद था।
लेकिन मध्यांतर के बाद एलबम की तस्वीरें ज़रा शाँत, थोड़ी उदास और अंत में बहुत पीड़ादायक होती चली गईं। एलबम में अंतिम पृष्ठों में दो पार्थिव शरीर शवयात्रा पर जाने से पहले की अंतिम घड़ियों के ज़ोरदार विलाप के बीच शाँत पड़े थे। एक शरीर अर्थी पर था, दूसरा ताबूत में। ताबूतवाले भाव के दोनों हाथ नदारद थे। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। क्या यह रॉबर्ट मास्टर की तस्वीर है? क्या उसके दोनों हाथ???...
इससे पहले कि मैं इस ख़ूनी अचंभे के बारे में कुछ सोच पाता, बूढ़ा पर्दा हटाकर बाहर आ गया और इस बार मैं उसे देखते ही रह गया। उसके शेव किए हुए चेहरे पर ग़ज़ब की रौनक़ थी। उसने स्वेड की भूरे रंग की पतलून और सफ़ेद शर्ट पहन रखी थी, जिसमें कहीं काई दाग़-धब्बा नहीं था। उसकी इस सेहतमंद, साफ़-सुथरी और पुरज़ोर एँट्री से मैं थोड़ा आश्वस्त हुआ। मुझे लगा कि वह अब स्थितियों की फेस करने की स्थिति में है।
वह पंखा खोलकर अपने लंबे बाल सुखा रहा था। उसके सफ़ेद और मुलायम बाल उसके लंबे और गोरे चेहरे पर सिर्फ़ लहरा ही नहीं, बल्कि तैर-से रहे थे।
“तुम अब बिलकुल सही लग रहे हो।” मैंने कहा।
उसने बालों पर ज़ोर-ज़ोर से उँगलियाँ चलाते हुए मेरी तरफ़ देखा—“क्या अब तक मैं ग़लत था?
“नहीं।” मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “अब तक तुम ग़लत और सही के बीच थे।
उसने सिर झटककर अपने बाल पीछे किए और बड़े ग़ौर से मेरी तरफ़ देखने लगा, “यार, तुम तो बड़े गुरू आदमी हो। तुम्हारे अंदर जो बैलेंस है, मुझे उससे जेलेसी हो रही है।
“मैं एक बनिए का बेटा हूँ।” मैंने हँसते हुए कहा, “इसलिए तराजू हमेशा साथ लेकर चलता हूँ, हालाँकि नाप-तोल में मुझे बहुत नफ़रत है। मैं तुम्हारी अनबैलेंस्ड और फक्कड़ ज़िंदगी से आकर्षित हुआ था और तुम मेरी बनियागिरी से प्रभावित हो, यह बड़ी विचित्र बात है!
थोड़ी देर तक वह मुझे निहारता रहा। फिर पहली बार उसने मेरे व्यक्तिगत मामले में दिलचस्पी दिखाई—और बहुत संजीदगी से पूछा, “तुम करते क्या हो?
“मैं फिलहाल कुछ नहीं कर रहा हूँ।” मैंने कहा।
“नहीं। मैं कैसे मान लूँ कि तुम फिलहाल कुछ नहीं कर रहे हो? तुम फिलहाल और कुछ नहीं तो एक बूढ़े और सनकी आदमी को तो बर्दाश्त कर ही रहे हो न? वह हँसने लगा।
नहीं।” मैंने भी उसकी हँसी का साथ दिया, “मैं तुम्हें बर्दाश्त नहीं, एंज्वाय कर रहा हूँ। तुम बहुत स्वादिष्ट और पचाने में उतने ही कठिन आदमी हो। तुम्हारे बाहर से कुरकरे और भीतर से रसीले स्वभाव में एक ख़ास तरह का ज़ायक़ा है।
वह और भी ज़ोर से हँसने लगा, फिर उसने अपना सेक्सोफ़ोनवाला बैग उठा लिया। मेज़ की दराज़ से एक गिफ़्ट पैकेट निकाला और मेरा हाथ पकड़कर घर से बाहर आ गया।
तुम्हारा घर मुझे घर-जैसा कम, रिहर्सलरूम-जैसा ज़ियादा लगता है।” मैंने जीना उतरते हुए का।
“दरअसल,” उसने सीढ़ियों से नीचे उतरने के बाद मेरे कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, “यह कमरा हम सबने मिलकर किराए पर लिया था, रिहर्सल के लिए। लेकिन बाद में यह अय्याशी का अड्डा बन गया और उन लोगों के लिए तो इससे बड़ी कोई पनाहगाह नहीं थी, जो घर से अलग हो गए थे या अलग कर दिए गए थे। मेरा और रॉबर्ट का खाना-पीना, नहाना-धोना, सोना-उठना सब यहीं होता था...”
वह एक बार फिर अपने विगत में लौट गया, लेकिन इस बार की वापसी कुछ अलग तरह की थी। उसके लहजे में किसी सदमें के तात्कालिक बयान की बौखलाहट नहीं, स्थिरता थी, एक व्यवस्थित प्रवाह था—
“बावजूद हर तरह की बदसलूकी के, हम सब आपस में एक थे। हमारे झगड़े कई बार मार-पीट की नौबत तक भी पहुँचते थे, लेकिन जब ‘संगत' होती थी तब सारी बातें भुला दी जाती थी, लेकिन एक अर्से बाद जब संगीत के धंधे में चेंज आया तो सब कुछ बदल गया। हमारा ग्रुप बिखर गया। सिर्फ़ एक ग्रेड के कुछ आर्टिस्ट बच गए। लेकिन सीनियर होने के बावजूद मुझे और रॉबर्ट को काम के मौक़े बहुत कम मिलते थे, क्योंकि जिस तरह की कंपोजिंग नए दौर में चल रही थी, उसमें नक़ल पर आधारित चुतियापों की बौछार थी और प्यानो या सेक्सोफ़ोन जैसे गंभीर वाद्यों की अकेले पीस के लिए कोई जगह नहीं थी।
चलते-चलते वह रूक गया। फिर मुझे खींचने लगा। उसने सड़क पार की और हम एक कैफ़े में घुस गए। नाश्ते का ऑर्डर देने के बाद वह कुछ देर चुप बैठा रहा। फिर बिना मेरी ओर देखे कुछ बुदबुदाने लगा, जैसे मुझसे नहीं, ख़ुद से बातें कर रहा हो, “साले नीतिन मेहता, एक तुम्ही होशियार निकले। बाक़ी सब बेवक़ूफ़ थे। अच्छा किया तुमने जो तबले-पेटी को लात मार दी। अगर तुमने नए साज़ और नए तौर-तरीक़े नहीं अपनाए होते तो तुम्हारा भी यही हाल होता। हम लोग चूतिये थे जो साज़ की आन और स्वरों की शुद्धता का राग अलापते रहे। रॉबर्ट तो अपने-आपको बहुत तीसमारखाँ समझता था, क्योंकि उसके जैसा प्यानो मास्टर पूरे मुंबई में कोई नहीं था। उसने तुम्हारे नए यंत्रों का मज़ाक़ उड़ाया था। वह उसे बच्चों का खिलौना और कंप्यूटर गेम कहता था। लेकिन आज उसी बच्चों के खिलौने के उसके 'हाथी' के चारों पाँव उखाड़ दिए। सिर्फ़ रॉबर्ट ही क्यों, उस समय तो ए ग्रेड का हर आर्टिस्ट इसी घमंड में रहता था कि उनके 'स्किल' को कोई मात नहीं दे सकता। लेकिन उनके 'स्किल' और मार्केट की ज़रूरत की बीच जो गैप आ गया था वो उन्हें दिखाई नहीं दिया।
बूढ़ा अपनी रौ में बोल रहा था और बटर-ब्रेड के साथ कॉफ़ी की घूट भी ले रहा था। मुँह के इस दोहरे इस्तेमाल के कारण उसके गले में ठसका लग गया। मैंने तुरंत पानी का गिलास उठाकर उसके मुँह से लगा दिया। पानी के प्रवाह में गले में फँसा ब्रेड का टुकड़ा नीचे उतर गया। थोड़ी देर खाँसने-खखारने को बाद उसने गहरी साँस ली और बड़ी हिकारत से सिर हिलाया, “आख़िर उनका घमंड ही उनके लिए ख़तरनाक साबित हुआ। सब गए भाड़ में। कौन बचा अब पुरानों में? कौन कहाँ है और क्या कर रहा है कुछ पता नहीं। कभी मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं। एक बार मैंने वासुकी प्रसाद को चौपाटी में बाँसुरी बेचते देखा। उसने बाँसकी पतली-पतली कमाचियों में बाँसुरियाँ सजारखी थीं। वह बाँसुरी बेच भी रहा था और बजा भी रहा था। मैं उससे मिला नहीं। सिर्फ़ उसका बजाना-बेचना देखता रहा। अचानक मेरे भीतर से एक सवाल उठा कि अगर सेक्सोफ़ोन पीतल के बजाए बाँस का होता और उसकी लागत भी बहुत कम होती, तो क्या मैं भी गली-गली में सेक्सोफ़ोन बेचता फिरता? मुझे अपने भीतर से हाँ या ना में कोई जवाब नहीं मिला...।
“और लाजवाब होना मेरे लिए हमेशा घातक होता है। हारकर मैंने ख़ूब ज़ियादा शराब पी ली और मेरे पैर लड़खडाने लगे। ख़ुद को किसी तरह सँभालते हुए मैं चर्नी रोड के एक ओवरहेड रास्ते को पार कर रहा था। रास्ता पार करने के बाद मैंने सीढ़ियाँ उतरने के लिए जैसे ही पहली सीढ़ी पर पैर रखा, मुझे सबसे अंतिम सीढ़ी पर रॉबर्ट मास्टर दिखाई दिया। उसने भी सहारे के लिए रेलिंग पकड़ रखी थी और नाराज़ नज़रों से सीढ़ियों की ऊँचाई को देख रहा था। वह अपनी नशे में डोलती लंबी-चौड़ी देह, हाइ-ब्लड प्रेशर से धकधकाते सीने और थकान से चूर पैरों की बिखरी हुई ताक़त को बटोर रहा था। सीढ़ियाँ चढ़ना तो दूर, वह खड़े रहने लायक़ हालत में भी नहीं था; मगर मुझे भरोसा था कि वह सीढ़ी चढ़ जाएगा। वह हार माननेवालों में से नहीं था, चाहे जीत जानलेवा ही क्यों न साबित हो।...
आख़िर उसने होंठ भींच लिए और एक-साथ दो-दो सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। जब वह ऊपर आया तो मैंने हाथ बढ़ाकर उसे अपनी तरफ़ खींच लिया। और बहुत चिंतित स्वर में पूछा, “कहाँ से आ रहे हो? कहाँ थे इतने दिनों तक?”
वह सिर्फ़ हाँफता रहा। उसकी नज़रें बैग में टंगे मेरे सेक्सोफ़ोन पर थीं। उसने पूछा, “तुम स्टूडियो से आ रहे हो?
मैंने ना में सिर हिला दिया। अगर मैं हाँ कहता तो वह मेरी जेब में हाथ डालकर ज़बरदस्ती मेरी दिन-भर की कमाई छीन लेता। मेरे पास रूपए इतने कम थे कि झूठ बोलने के सिवा कोई चारा न था। मगर झूठ बोलना हर किसी को नहीं आता। वह फ़ौरन समझ गया कि मेरी जेब ख़ाली नहीं है। उसने हाथ से झपटकर मेरा कॉलर पकड़ लिया और दूसरे हाथ से मेरी जेब टटोलने लगा “साले झूठ बोलता है? ला निकाल सौ रूपए।
“कॉलर छोड़ पहले।” मैंने प्रतिरोध किया। उसका मेरे कॉलर पर कसा पंजा ढीला पड़ गया। मैंने पैंट की जेब से जितने रुपए थे उतने निकालकर बहुत ग़ुस्से और नफ़रत के साथ उसके हाथ में थमा दिए और अपना कॉलर छुड़ाकर बिना कुछ बोले सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ा।
उसने फिर झपटकर पीछे से मेरा कॉलर पकड़ लिया। रूपए वापस मेरी जेब में ठूँस दिए और मुझे एक तरफ़ धकेल दिया, “साले, दोस्ती के लिहाज़ से उधार माँग रहा था। कोई भीख नहीं माँग रहा था। जा, आज के बाद कभी नहीं डालूँगा तेरी जेब में हाथा
मेरा ग़ुस्सा उसकी इस हरकत से और भड़क गया। मैंने सीढ़ी चढ़कर दोनों हाथों से उसकी क़मीज़ को दबोच लिया और उसे रेलिंग तक धकेलते हुए ले गया। मैंने उसे ऊँची आवाज़ में फटकारा, “दो साल से तेरी तानाशाही सह रहा हूँ। दो साल से न तू ख़ुद चैन से जी रहा है, न मुझे जीने दे रहा है। बोल, क्या चाहता है तू? तकलीफ़ क्या है तुझे—यह बता!”
“उसने बहुत नाराज़ नज़रों से मुझे देखा। फिर नाराज़गी कम हो गई और विवशता डबडबा आई। उसने सिर झुका लिया। बहुत देर तक वह यूँ ही खड़ा रहा। उसकी चुप्पी ने मुझे बेसब्र कर दिया। नशे और ग़ुस्से की रौ में मैंने उसे तीन-चार तमाचे जड़ दिए। मेरे इस आकस्मिक हमले से बचने की उसने कोई कोशिश नहीं की; केवल लिए लटकाए खड़ा रहा। वह अपने भीतर चकराती किसी चीज़ को पकड़ने की कोशिश कर रहा था। कुछ देर बाद उसने सिर ऊपर उठाया और मेरी बाँह पकड़कर मुझे घसीटने लगा।...
“हम जिस अपपटे ढंग से सीढियाँ उतर रहे थे, उसमें कभी भी गिर पड़ने का ख़तरा था। न तो वह ख़ुद को सँभाल पा रहा था, न मुझे सँभलने का मौक़ा दे रहा था। आख़िर हम दोनों के पाँव एक-दूसरे से उलझ गए और उस उलझन ने हम दोनों को सरेआम तमाशा बना दिया—एक ऐसा तमाशा जिसे दिखने की फुरसत भी किसी को नहीं थी।...
“न उसने उस हास्यास्पद स्थिति की परवाह की, न मेरे सिर से बहते ख़ून की। वह फुर्ती से उठा, मेरी क़मीज़ का कॉलर पीछे से पकड़कर मुझे खड़ा किया और भीड़ को धकेलते हुए मुझे बीच सड़क में ले आया। मैंने अपने-आपको छुड़ाने की बहुत कोशिश की, मगर रास्ते भर वह मुझे घसीटता रहा और एक नाइट बीयर बार के सामने ले जाकर उसने मुझे ऐसे धकेला जैसे कोई हवलदार किसी मुजरिम को लॉकअप में धकेलता है।...
“बार के अंदर बजते तेज़ संगीत की सनसनाहट और जलती-बुझती रंगबिरंगी रौशनियों की चकाचौंध ने एक पल के लिए मेरे दिल-ओ-दिमाग़ को चकरा दिया। हड़बड़ी में मैं एक बेट्रेस से टकरा गया। मैंने सहारे के लिए उस टेबुल के कोने को पकड़ लिया। कुछ देर के बाद मेरे सिर की चकराहट ज़रा कम हुई, मगर मुझे समझ नहीं आ रहा था कि रॉबर्ट मुझे वहाँ क्यों धकेल गया।...
“बाद में एक चीज़ मुझे सबसे पहले समझ में आई कि वहाँ डाँसिंग फ़्लोर पर जिस पॉपुलर फ़िल्मी गाने पर मुजरा चल रहा था, उसकी धुन नीतिन मेहता ने कंपोज़ की थी। वही नीतिन मेहता जिसके लिए रॉबर्ट के दिल में नफ़रत के सिवाय कुछ नहीं था।...
“तभी वह गाना ख़त्म हो गया। एक पल की ख़ामोशी के बाद एक बहुत तेज़ और धमाकेदार डिस्को गीत शुरू हुआ। यह गीत भी उसी फ़िल्म का था। नीतिन मेहता ने स्टीवी वंडर के एलबम से इसकी धुन लिफ्ट की थी और उसमें राजस्थान का चोली-घाघरा, भोजपुरी की कामुक ठुमकी, गुजरात का गरबा और पंजाब के भाँगड़े को बहुत भोंडे और अश्लील ढंग से मिलाकर एक बहुत ही अजीब कॉकटेल तैयार किया था। बेहद असरदार और तुरंत दिमाग़ पर हमला करने वाले हैवी मैटल के स्ट्रोक्स के साथ डाँसिंग फ़्लोर पर जो लड़की आई, उसे देखते ही हुल्लड़ मच गया। उसने बेहत तंग चोली और घाघरा पहन रखा था। चोली के पिछले हिस्से में कपड़ा नहीं था; सिर्फ़ एक पतली-सी डोर थी। दर्शकों की तरफ़ पीठ फेरे वह अपनी कमर और नितंब मटका रही थी। कुछ देर बाद ढोलक की एक तेज़ थाप से साथ उसने अपना मुँह घुमाया और उसका चेहरा देखते ही मैं सन्न रह गया। वह रॉबर्ट मास्टर की बेटी विनी थी। लोग उसे ललचाई नज़रों से देख रहे थे; हाथों में नोट निकालकर उसे अश्लील इशारों से अपने पास बुला रहे थे। वह नाचते-नाचते नोट दिखानेवाले के पास जाती और बड़ी अदा से मुस्कुराकर रूपया ले लेती। नोट के आदान-प्रदान के दौरान दो हाथों के बीच जो एक लिजलिजी सी चीज़ थी, उसे देखकर मेरे अंदर से एक बहुत तिलमिला देनेवाली और बेसँभाल उबकाई उठी। मैं बार से फ़ौरन बाहर निकला और भीतर का सारा कुछ सड़क पर उलीच दिया। उस उल्टी के तुरंत बाद मुझे यह समझ आ गया कि रॉबर्ट क्यों ख़ुद को चैन से जीने नहीं दे रहा है।
एक लंबी बातचीत के बाद जब हम कैफ़े से बाहर निकले, तब दिन करवट बदल रहा था। धूप की पारी समाप्त हो रही थी और शाम के लंबे साए सड़कों पर फैलते जा रहे थे। रॉबर्ट की याद बूढ़े की ख़ुशमिज़ाजी पर फिर किसी काले साए की तरह छा गई। वह चुपचाप चलता चला जा रहा था। कुछ देर बाद वह अपने-आपमें इतना खो गया कि उसे ध्यान न रहा कि मैं उसके साथ हूँ। चलते-चलते वह बीच-बीच में कुछ बड़बड़ा भी रहा था। उसकी बड़बड़ाहट मेरी समझ से बाहर थी। साफ़ ज़ाहिर था—वह अपने प्रतिसंसार में चला गया था—एक दूसरी दुनिया में, जिसमें सिर्फ़ स्मृतियाँ और काल्पनिक यथार्थ होता है, वर्तमान की ठोस वास्तविकता से एकदम परे।
वह पोर्चुगीज़ चर्च की लंबी पटरी पर बहुत सुस्त क़दमों से चल रहा था। मैंने उसे चुपचाप चलने दिया। उससे कोई संवाद करने के बजाए मैं केवल उसकी आकृति को निहारता रहा। उसकी स्वेड की शानदार भूरी पैंट, सफ़ेद शर्ट और शर्ट के पीछे गेलिस की क्रॉस पट्टी, ब्लैक कैप और कैप के नीचे लहराते सफ़ेद बाल, कंधे पर लटकता चमड़े का बैग और बैग से झाँकता सेक्सोफ़ोन का गोल मुँह। उसकी आकृति आज एस्थैटिकली इतनी रिच थी कि बीते हुए कल की चिक्कट कंगाली का कहीं कोई अभास नहीं था।
वह पटरी पार करके बाईं तरफ़ मुड़ गया। थोड़ी दूर जाकर उसने फूलवाले की दुकान से फूल ख़रीदे और नज़दीक के एक बस-स्टॉप के क्यू में खड़ा हो गया। मैंने उससे यह पूछना ज़रूरी नहीं समझा कि वह कहाँ जाना चाहता है। मैं भी उसके पीछे क्यू में खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद एक बस आई और हम दोनों उसमें फुर्ती से चढ़ गए। तीन-चार स्टॉप के बाद हम एक उजाड़ इलाक़े में उतर गए। बस-स्टॉप के ठीक समाने एक सिमिट्री थी। व सिमिट्री के अंदर दाख़िल हुआ और सीधे उस क़ब्र के सामने जाकर खड़ा हो गया, जिसके सफ़ेद पत्थर पर काले अक्षरों से रॉबर्ट के जन्म और मृत्यु के बीच का अंतराल अंकित था।
उसने कंधे के बैग उतारकर ज़मीन पर रख दिया और फूल क़ब्र के पत्थर पर रख दिए। कुछ देर के मौन के बाद उसने अपने बैग से सेक्सोफ़ोन निकाला और उसके बाद गिफ़्ट पैकेट। जब उसने पैकेट पर रैपर खोला तो उसमें से पीटर स्कॉट की बोतल निकली। वह बोतल उसने एक अर्से से सँभाल रखी होगी, किसी ख़ास मौक़े के लिए। बोतल का ढक्कन जब वह खोल रहा था तब मैंने देखा, चेहरे पर वही कल वाली आक्रामक बेचैनी थी, बल्कि उसका चिकना और साफ़-सुथरा चेहरा कल से भी ज़ियादा घातक परिमाणों के पूर्व का संकेत दे रहा था। ढक्कन खोलने के बाद उसने शराब और सेक्सोफ़ोन को आमने-सामने किया और पूरी बोतल सेक्सोफ़ोन में उडैल दी। शराब सेक्सोफ़ोन की पतली-दुबली रीप में से बहती हुई माउथपीस से बाहर निकली और पूरी क़ब्र कर फैली गई।
ख़ाली करने के बाद उसने पूरी ताक़त से बोतल सिमिट्री के एक कोने में उछाल दी। बोतल हवा में लहराती हुई सीधे एक क़ब्र से सलीब से टकराई और काँच के टूटने-बिखरने की आवाज़ ने सिमिट्री के सन्नाटे को झकझोर दिया।
फिर एक पल की ख़ामोशी के बाद उसने अपने साज़ को ग़ौर से देखा। इस देखने में एक ऐसी चुनौती थी, जो किसी प्रतियोगी की आँखों में अंतिम राउंड के दौरान दिखाई देती है।
और अब उसने साज़ को होंठों से लगाया, तब पहली ही फूँक से जो आवाज़ निकली वह किसी भोंपू से निकली भोंडी भर्राहट से भी बदतर थी। बूढ़े ने गंदी गली बकते हुए साज़ को ज़ोर से झटक दिया। अंदर बची हुई शराब की बूँदें बाहर छिटक गईं। उसने माउथपीस को रूमाल से रगड़कर साफ़ किया और एक लंबी फूँक लगाई, जो सेक्सोफ़ोन की देह में अपना काम कर गई। उसने उस फूँक को सँभालकर सिमिट्री के सन्नाटे में आगे बढ़ाया और लय की एक लंबी रेखा खींची। पहले नीचे से हल्के और महीन, फिर ऊपर जाकर चौड़े और वज़नदार स्वरों का सीधा फैलाब, जिसमें सम से सम पर लौटने की आवृत्तिमूलक मजबूरी नहीं थी, कहीं पीछे लौटने की गुंजाइश नहीं थी—सिर्फ़ आगे और किसी अज्ञात अंत की तरफ़ बढ़ती अराजकता, न उसे कोई रोक सकता था, न थाम सकता था।
कुछ ही देर में मुझे मालूम हो गया कि वह बजा नहीं रहा है, बल्कि कब्रिस्तान में भटकती किसी लय या बीते दिनों की ख़ून-ख़राबे से सनी यादों से अपने उत्तप्त और क्षुधित फेफड़ों को शाँत कर रहा है।
मेरे लिए यह ज़रूरी था कि तुरंत उसे रोक दूँ, मगर वह धुन न तो मुझे सुनाने के लिए बजाई जा रही थी, न मैं उसका एकमात्र श्रोता था। मेरे अलावा वहाँ उस संगीत कान्फ़्रेंस में कुछ क़ब्र थीं, कुछ सलीबें थीं और कुछ उजड़े हुए बूढ़े दरख़्त भी थे, जो उसके असली श्रोता थे।
कुछ देर बाद जब साये लंबाई की आख़िरी हद तक पहुँच गए, परिंदे दरख़्तों पर वापस लौट आए और अँधेरा आहिस्ता-आहिस्ता कायनात को घेरने लगा, तब अचानक बूढ़े ने सेक्सोफ़ोन से मुँह हटा लिया। कुछ देर तक वहाँ सब-कुछ थम-सा गया, जैसे किसी छटपटाती हुई चीज़ ने अभी-अभी दम तोड़ा हो। बूढ़ा बहुत तेज़ी से हाँफ रहा था। उसकी नसें अभी तक तनी हुई थीं। वह बड़ी मुश्किल से चार-पाँच क़दम आगे बढ़ा और एक पेड़ के तने से पीठ टिकाकर बैठा गया। मैं उसके नज़दीक गया तो उसने मुझे भी अपने पास बैठने का इशारा किया। मैं उसकी बग़ल में बैठ गया।
“यह एक बिटनिक धुन थी।” साँस सँभलने के बाद उसने कहा, “रॉबर्ट बिटनिक के ख़ूँखार कारनामों का भक्त था।
“और तुम?” मैंने पूछा, “तुम कौन-से पंथ के हिमायती हो?
“मैंने जाज़ और इंडियन क्लासिकल के बीच का ख़ाली रास्ता चुना था और आज भी उसी रास्ते पर चल रहा हूँ।
“यह रास्ता कहाँ जाकर ख़त्म होता है?
“वहीं जहाँ से वह शुरू होता है।
यानी?
यानी सम से सम पर।”
तुम्हें इसलिए ऐसा नहीं लगता क्योंकि मेरा साज़ सेक्सोफ़ोन है और फेफड़ा ठेठ हिंदुस्तानी। मेरा साज़ जाज़ के भड़काऊ प्रभावों में आकर कभी-कभी बहक जाता है, पर मेरा फेफड़ा उसे पकड़कर फिर वापस क़ायदे पर ले आता है।
लेकिन अभी जो बजा रहे थे, उसमें कहीं हिंदुस्तानी क़ायदे की पकड़ नहीं थी।
“हाँ।” उसने स्वीकृति में सिर हिलाया। फिर किसी सोच में पड़ गया।
“क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी धुनें ‘क़ायदे' से छुटकारा पाकर किसी ग़लत रास्ते में अटक गई हैं?
उसने एक झटके से मेरी तरफ़ सिर घुमाया और कुछ आश्चर्य से मुझे देखने लगा। फिर नज़रें झुका लीं और बहुत संजीदगी के साथ कहा, “यह गड़बड़ी रॉबर्ट की मौत के बाद शुरू हुई... मैंने रेल की पटरी पर उसकी लाश देखी थी। उसके दोनों हाथ कट गए थे और एक हाथ को एक कुत्ता उठा ले गया था... उस दृश्य ने मेरी साँस को खरोंच डाला... मेरी फूँक में अब पहले जैसी सिफ़त नहीं रही।”
“सिफ़त है...” मैंने ज़ोर देकर कहा, “उतनी ही जितनी किसी कलाकार के भीतर होनी चाहिए। कोई भी हादसा कलाकार के अंदर की ख़लिश को ख़त्म नहीं कर सकता, अगर उसके अंदर ज़रा-सी भी ईमानदारी है।
ईमानदारी” उसने घूरकर मुझे देखा।
“हाँ, जब हम अपनी कमज़ोरियों का दोष समय पर मढ़ने लगते हैं, तब हम किसी और के साथ नहीं, ख़ुद अपने साथ बेईमानी करते हैं।
उसने ग़ुस्से से फनफनाते हुए मेरा कॉलर पकड़ लिया। चेहरे से लगा कि अभी मुझे तमाचा जड़ देगा, मगर अगले ही पल उसका हाथ शिथिल हो गया, जैसे उसके भीतर से कुछ स्खलित हो गया हो, और उस स्खलन में सिर्फ़ तात्कालिक उत्तेजना का ही नहीं, बल्कि एक पूरी उम्र से अर्जित अकड़ का अंत था।
“मुझे अब साँस लेने में तकलीफ़ होती है।” उसने बहुत विवश निगाहों से मुझे देखा, “मैं जितनी तेज़ी से साँस छोड़ता हूँ, उतनी ही तेज़ी से साँस खींच नहीं पाता...”
“अगर तुम खींचते कम हो और छोड़ते ज़ियादा हो तो खिंची हुई छोटी साँस एक लंबी फूँक के रूप में कैसे बाहर आती है?” मैंने आश्चर्य से पूछा।
“मुझे मालूम नहीं यह कैसे होता। सिर्फ़ यह महसूस होता है कि हर फूँक के साथ मेरे भीतर से कुछ गलकर बह रहा है।
और तब पहली बार मझे उस पर दया आई। मैं देर तब उसका चेहरा देखता रहा। मुझे तुरंत समझ में आ गया कि उसके भीतर से गल-गलकर क्या बह रहा है। मैंने उसके हाथ से सेक्सोफ़ोन ले लिया—“कुछ दिनों तक इसे मत बजाओ। केवल लंबी साँसें लो। अपने-आपको पूरा समेटकर अपनी मैग्नेटिविटी को बढ़ाओ। फिर तुम देखना, सब-कुछ वापस भीतर आ जाएगा। जो कुछ गलकर बह गया है, वह रिकवर हो जाएगा। तुम कोशिश करो... मैं में तुम्हारी मदद करूँगा।”
“मैं किसी भी तरह की मदद से बाहर हो गया हूँ और अब कुछ भी हासिल नहीं करना चाहता।
“क्या?... क्या चाहते हो तुम?” उसका स्वर ज़रा ऊँचा हो गया।
“मैं देखना चाहता हूँ कि...
“क्या देखना चाहते हो? यह कि मैं कैसे दम तोड़ता हूँ? कि कैसे मेरे मुँह से ख़ून की उल्टी होती है।?
“नहीं, मैं देखना चाहता हूँ कि तुम सेक्सोफ़ोन बजा सकते हो कि नहीं। अभी तक तो वह तुम्हें बज़ा रहा था।
उसकी भौंहें फिर तन गईं। चुनौतीपूर्ण आँखों से कुछ देर तक वह मुझे देखता रहा, फिर मेरे चेहरे से नज़रें हटाकर सेक्सोफ़ोन पर निगाह डाली। अपनी गोद में लेकर प्यार से उसे दुलराया, फिर वापस अपने बैग में रख दिया और उठ खड़ा हुआ। बैग को एक हाथ से कंधे पर लटकाने के बाद उसने हाथ मेरे कंधे में डाल दिया और हम दोनों सिमिट्री के बोसीदा अँधेरे से बाहर निकलकर शहर की जगमगाती रौनक़ में आ गए।
हम पटरी पर चल रहे थे। उसकी बाँह अब भी मेरे कंधे पर थी। मुझे उसके हाथ का दबाव पहले की तुलना में कुछ नर्म-सा लगा। उसकी चाल में भी अब पहले जैसी अकड़ नहीं, ख़म था।
“घर की तरफ़ लौटते हुए मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं अपने लक्ष्य की तरफ़ लौट रहा हूँ।” उसने बहुत धीमी आवाज़ में कहा।
“तुम्हारा लक्ष्य क्या है?” मुझे उम्मीद थी कि वह अपनी किसी बहुत गहरी महत्त्वाकांक्षा को उकेरेगा या बरसों से सोए हुए स्वप्न को जगाएगा।
मगर उसका जवाब बहुत संक्षिप्त था—सेक्सोफ़ोन बजाना।”
हालाँकि उसने यह बात बहुत सहज ढंग से कही थी, मगर उसमें एक छुपा हुआ अर्थ था। मैंने उस अर्थ की गंभीरता को बनाए रखा। रास्ते भर मैंने उससे कोई बात नहीं की।
शहर की तमाम चीज़ें अब भी उतनी ही कठोर, निरूत्साही और अश्लील थीं, लेकिन अब किसी भी चीज़ से उलझने-टकराने या उसे तोड़-मरोड़ देने की उसके भीतर कोई तलब नहीं थी। उसकी इस गंभीरता से मैं ज़रा आश्वस्त हुआ। उससे विदाई लेते समय मुझे यह भरोसा था कि वह बिना किसी परेशानी के अपने घर पहुँच जाएगा।
(हंस, 1995)
us sham main nariman pwaint ki us phains par leta tha, jo kai kilomitar lambi hai aur samudr tatha shahr ko apni apni sima ko ahsas karwati hai us phains par mere alawa mere jaise kai aur log bhi baithe the unmen se kuch log shahr ki taraf peeth pherkar baithe the aur kuch samudr ki or, lekin mainne donon pahaluon par tangen phaila rakhi theen aur peeth ke bal letkar asman ko dekh raha tha meri dain or samudri lahron ke thapeDe the aur bain taraf tez raftar se bahti mumbi
main samudr aur shahr se tatasth hokar mansun ke badlon ki dhinga masti dekh raha tha aur soch raha tha ki kash, is shahr mein mera bhi koi dost hota! mumbi aane se pahle mainne apne shahr mein dosti yari ki ek bahut jiwant aur sakriy hissedariwali zindagi guzari thi, aur yahan jismon ki itni lathpath nazdikiyat ke bawjud koi bhi cheez mujhe chhu nahin pa rahi thi
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kuch der baad hawa achanak sapate se chalne lagi phir wo sapatedar hawa ek tuphan mein badal gai udhar asman mein mansuni badlon ka kala dal tezi se aage baDha aur isse pahle ki koi kuch soch pata, mausam ki pahli barish ne mumbi ke chehre par ek tamacha jaD diya mainne itni achanak akramak barish pahle kabhi nahin dekhi thi, sirf suna tha ki mumbi mein barsat kisi ko maf nahin karti
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buDhe ke hath ki pakaD achanak mazbut ho gai saDak cross karne ke liye wo aage baDha aur samudr kinare ki patri ko chhoDkar samne us patri par chaDh gaya jo machalte hue shahr ki halachlon ke kinare kinare kafi door tak phaili thi
kuch hi der baad donon ek beer bar ke samne khaDe the darwaze par khaDe darban ne tapak se salam bajakar darwaza kholne ke bajaye zara jhijhakte hue pareshan nigahon se hamare gile labadon ko dekha, khastaur se buDhe ke kichaD se sane phachaphchate juton aur chikkat kapDon ne uski nak bhaunh ko sikuDne ke liye majbur kar diya, magar chunki hum gerahak the, koi bhikhari nahin, isliye majburan use darwaza kholana paDa
hum andar dakhil hue aur farsh par bichhe khubsurat kalin par bina koi taras khaye apne juton ke badnuma dhabbe pichhe chhoDte hue hall ke bichobich pahunch gaye hum jaise hi kursi par baithe, ek bahut saji dhaji laDki hamare pas i usne peshewar muskurahat ke sath mujhse hath milaya aur buDhe ke nazdik baithkar uski gardan mein apni banh Dal di
“maska mat mar!” buDhe ne apni gardan se uska hath hata diya, “ja jaldi rum lekar aa
wo thoDi banawati narazgi zahir karti hui uthkar jane lagi phir achanak ek khas ada se apne baal pichhe ki or jhatakte hue mujhse mukhatib hui, “kya aap bhi rum lenge?
mainne han mein gardan hila di usne ekabargi bahut gahri nigahon se mujhe dekha, jaise mujhe pure ka pura ek hi bar mein nigal lena chahti ho mainne nazren jhuka leen
sharab ke aane ka intizar karna buDhe ne zaruri nahin samjha wo bina kisi bhumika ke apni kahani batane laga uske lahje, bolne ke liye chune hue shabdon aur abhiwyakti mein koi taratamy nahin tha ek silsilewar tartib se bolte batane ke bajaye wo yahan wahan aur jahan tahan se tukDe bator raha tha seksofon ke bare mein bolte bolte achanak wo bar mein kaam karnewali laDakiyon ke bare mein bolne laga laDakiyon ko phatkarne puchkarne ke baad usne sharabnoshi par apna sankshipt, magar saragarbhit wyakhyan samapt hote hi wo achanak ek kabristan mein ghus gaya apne ek dost ki kabr ke samne thoDi der chupchap khaDe rahne ke baad wo lagbhag bhagte hue bahar nikla aur phir hath pakaDkar mujhe apne pichhe khinchte hue dadar ki ek chaal mein le gaya, jahan bees pachchis sal pahle wo apne kuch sazinde sathiyon ke sath rahta tha we sab filmon ke liye baikagraunD music compose karte the us waqt ki behtarin amdani ko badtarin Dhang se kharch karte the
ek ghante ki batachit ke baad kul milakar jo graph bana, wo kai tarah ke utar chaDhawwala graph tha us par aur uske tamam sathiyon par koi na koi dhun sawar thi we us tarah ke dhuni log the jo na to duniya ka koi lihaz karte hain, na apne aapko koi riyayat dete hain; we apne liye koi sankirn sima nirdharit nahin karte unmen koi ek kendriy bhaw ya wishesh gun nahin hota we gunon aur durgunon ke beech ke farq ko mitate hue apni ek alag aur ajib si haalat bana lete hain
uske us daur ke lagbhag sabhi sathi sangit aur khabt ke shikar the unmen se kuch jo samajhdar the, baad mein filmon mein sangit nirdeshak ya e grade ke artist ban gaye baqi sab wahin ke wahin rahe, lekin un dinon kaam lagatar milta tha aur amdani achchhi hone ko karn we nae akarshnon aur lalchanewale kamuk aur sajile bazar ke samne apne aapko kharch karne se nahin rok pae we sab sharabi the, juari the, weshyagami aur udharkhor the, magar shuru se akhir tak kalakar the yahi we sazinde the, jinhonne bharatiy film sangit ko parwan chaDhaya tha isi piDhi ne azadi ke baad ke bharatiy man ki gahraiyan unchaiyan napi theen inhin besure piyakkDon ne bhawnaon ke sabhi tar chheDkar aur sans ke sath sans milakar apne yug ki dhaDaknon ko lai di thi
DeDh do ghante baad jab hum bar se bahar nikle tab asman mein badlon ke beech phir kanaphusi chal rahi thi, lekin chunki hum pahle hi ek baDe andhi tufan ka samna kar chuke the aur sirf bahar se hi nahin, bhitar se bheeg chuke the, isliye ab kisi bhi tarah ke gilepan se hamein gurez nahin tha
mera buDha dost sharab ke teen pyalon ke baad zara kaDak ho gaya tha usne apni peeth sidhi kar li aur sina tankar itne garw se chalne laga jaise pure mumbi ka malik ho uske is malikana rawaiye mein daru pikar bhaDas nikalnewale kisi kamzor aur kayer adami ki jhuthi akaD nahin, balki ek maulik wirodh par adharit akramakta thi
hum donon chalte ja rahe the bina ye tay kiye ki jana kahan hai na use kahin pahunchne ki jaldi thi, na mujhe hamari uddeshyhinta is shahr ki uddeshyaprak wywasttaon ke sath takkren le rahi thi phutpath par wi t ki taraf janewalon ki ek tez raftar bheeD mein hum donon kisi gile labade ki tarah ulajh gaye the bheeD ki chusti aur furti ke baraks hamara Dhilapan sirf thakan ya nashe ki wajah se nahin tha, balki ye ek pratikriya thi mujhe ab ye pakka bharosa ho gaya ki mera ye buDha dost bhi us chust durust aur phataphat kamyabi ke khilaf hai jo manushya se uska nirdosh anand chheen leti hai
mainne chalte chalte uske chehre par nigah Dali wo madmast tha uski chaal mein badlaw aa gaya tha chalte chalte wo ek dukan ke samne achanak rook gaya dukan ke agle hisse mein ek baDa sho kes tha jismen tarah tarah ke wady yantr rakhe gaye the unke beech ek bahut baDa ilektraॉnik ki board paDa tha wo buDha us ki board ko baDe ghaur se dekhne laga mainne socha shayad usmen koi ghaur karne layaq wisheshata hogi, par mainne dekha—buDhe ke chehre par achanak ek baDi lahr i aur ek hi pal mein uska mizaj badal gaya wo us wady ki taraf kuch aise andaz mein dekh raha tha mano wo koi upkarn nahin, balki ek jita jagata shatru ho ek khatarnak tanaw aur tikhi ghrina se uska chehra kanpknpane laga
“tum ise jante ho?” usne ki board ki taraf ishara karte hue mujhse puchha
“han ” mainne kuch sochte hue kaha, “yah ek japani sinthesaizar hai
“nahin,” usne unchi awaz mein kaha, “yah ek tanashah hai! hatyara hai! isi ki wajah se das babu aur phransis ki jaan gai yahi hum sabki badhali ka ekmatr zimmedari hai
mainne bahut ashchary se sho kes ki taraf dekha us kai push batnon aur pyano jaisi chabiyonwale wady mein mujhe koi aisi khatarnak khasiyat nazar nahin i
sho kes se nazren pherkar jab mainne buDhe ki taraf dekha, to mujhe apne chehre par ek ajib si ainthan nazar i uska sharir kuch is tarah kanp raha tha mano use tez bukhar ho uski is aswabhawik uttejna se mujhe bechaini mahsus hui mainne uske kandhe par hath rakha aur use phuslate hue aage le chalne ki koshish ki pahle to wo tas se mas nahin hua, lekin phir jaise koi daura paD gaya ho, usne lapakkar phutpath se ek int ka addha utha liya mainne turant uska hath pakaD liya aur baDi mushkil se use kanch phoDne se roka mere is hastakshaep se wo aur bhi biphar gaya usne mujhe ek taraf jhatak diya aur phutpath ki bheeD ko bahut wahiyat tariqe se dhakelte hue aage baDha uske munh se anargal wakyon aur galiyon ki bauchhar lag gai uske andar uthe is chakrawarti tufan ke rookh aur gati ka anuman lagana mushkil tha sirf itna saf samajh mein aa raha tha ki us chakrawati ghere ke kendr mein wahi ilektraॉnik instrument tha jise wo bhi naqalchor kahta tha to kabhi haramkhor
phir wo un sangit kampaniyon ko galiyan dene laga jinhonne aise naqli wadyon aur saunD rikarDing ki nai aur chalak taknikon ke sahare bhonDe filmi giton ke auDiyo cassette ka holsel market phaila rakha tha baad mein wo un logon ko bhi kosne laga jinhone aise wadyon ka nirman kiya tha, jo dusre tamam wadyon ki hu ba hu naqal karne mein saksham the bazar mein aate hi sangit ke thekdaron ne use turant apna liya tha aur un sazindon ko kaam milna band ho gaya jo arse se kewal isi kaam ya hunar ya kala ke sahare zindagi basar kar rahe the
“ab in haramzadon ko akhir kaun samjhane jaye? unko to sirf apna dhandha fayda nazar aata hai kala aur kalakar jayen bhaD mein! kise khabar hai ki purane sazinde kahan hain? kise fir hai ki agar we bajayenge nahin to kya karenge? jis adami ne zindagi bhar wayalin bajai ho, kya wo tamtam chala sakta hai? kya tabla bajanewale hath masaj ka kaam kar sakte hain? pyano par thiraknewali ungliyon se agar qasai ki dukan mein murgiyon ki anten chhantwai jayen to kaisa lagega?
wo pata nahin kisse sawal kar raha tha thoDi hi der mein wo ye bhi bhool gaya ki main uske sath hoon mujhe uske chehre par pagalpan ke chinh saf dikhai diye wo achanak phutpath se utarkar saDak cross karne laga wahan na to jebra cross tha, na paidal chalnewalon ke liye koi siganla chalu traiphik mein uske yoon achanak ghus jane se ek sath kai wahnon ka santulan bigaD gaya ek city bus ki chapet mein aane se wo baal baal bacha, magar use bachane ke chakkar mein ek taxi marg wibhajak se takra gai aur taxi ke achanak rukte hi pichhe tez raftar se aati kai karen aur texiyan asantulit ho gain taiksiyon aur karon ke Draiwar ghusse se phanaphnate hue niche utre aur buDhe ko gher liya traffic hawaldar ne buDhe ko jab us ghere se bahar nikala, to mainne dekha unki nak aur jabDe se khoon bah raha tha magar wo khoon ponchhne ya ghaw ko sahlane ke bajaye chetawni bhare shabdon mein pata nahin kise galiyan bak raha tha hawaldar ne uska collar pakDa aur ghasitte hue use saDak ke dusre kinare tak le gaya
traffic niyantrit hone mein thoDa samay laga is beech meri nazren barabar buDhe ka pichha karti rahin wo laDkhaDate hue phutpath par chaDha aur mere dekhte hi dekhte agle sarkal mein dain taraf muD gaya
paidal chalnewalon ke liye jaise hi traiphik khula, main tezi se us sarkal ki taraf bhaga sarkal ka moD muDne ke baad mainne nazren dauDai us lambe gile raste mein chhatariyon ke jhunD ke beech uska bhigta aur bhagta hua sharir mujhe dikhai diya main bahut mushkil se uske qarib pahunch paya mainne jhapatkar uska kandha pakaD liya usne muDkar mujhe dekha—uske chehre par ghunson aur thappDon ke dagh ubhar aaye the nak se bhi abhi tak gaDha lal khoon tapak raha tha aur ankhon mein ajib si ajanbiyat si thi chaurahe ke ek red signal ki raushani mein uska bhawahin, pathraya sa chehra mujhe bhayanak laga
tumhara ghar kahan hai?” mainne puchha
qarib se guzarte wahnon ke horn ki wajah se shayad use meri baat samajh mein nahin i
“tumhara ghar kahan hai?” mainne is bar uske kan ke pas apna munh le jakar puchha uske chehre par ab bhi thos sanwedanhinta chhai rahi tisri bar wahi sawal puchhne ke baad bhi jab usne unhin bhawashuny ankhon se mujhe dekha to main samajh gaya ki baat had se guzar gai hai aur ab sharab, khoon aur barish se bhigi hui uski deh ko akele bhatakne ke liye chhoD dene se baDa koi gunah nahin ho sakta
main bahut pareshan ho gaya samajh mein nahin aa raha tha ki kya karun wo agar sirf bimar hota, to bhi main use sanbhal leta, magar mamla dimagh ka tha aur uske pagalpan mein agar mujhe wo yuktisangat wyawastha na dikhti, jise hum ‘jiniyas kahte hain, to shayad main use wahin chhoDkar chala jata, kyonki mujh par samaj sewa ka daura kabhi nahin paDa tha aur na hi mere andar koi aisa mother teresai narm kona tha jismen main aise paglon aur lawarison ko panah deta
main tezi se soch raha tha ki kya karun achanak mujhe khayal aaya ki shayad us beer barwali laDki ko buDhe ke ghar ka pata malum ho mainne turant ek taxi rukwai buDhe ko sahara dekar taxi mein baithaya aur Draiwar ko senDharst roD le chalne ko kaha
jab hum wapas senDharst roD ke bar mein pahunche, tab raat ke saDhe gyarah baj chuke the Draiwar ne jaise hi break lagaya, buDhe ka shlath sharir meri god mein luDhak gaya wo ya to so raha tha ya behoshi ke aalam mein tha mainne use sanbhalakar seat par lita diya
“tum panch minat yahin ruko, main abhi aata hoon ” mainne Draiwar se kaha aur taxi se niche utar aaya Draiwar zara pasopash mein paD gaya use sandeh tha ki kahin main bina kiraya diye is musibat ko uske gale na maDh jaun mainne pachas ka ek not uske hath mein thama diya aur siDhiyan chaDhkar bar mein andar dakhil hua
darwaza khulte hi sangit ki bahut tez awaz ne mujh par hamla kiya wo khopaDi ko sansana denewala sangit tha mainne dhwaniyon ka itna bhayankar istemal pahle kabhi nahin suna tha kuch der ki chakrahat ke baad halki nili raushani mein mainne us laDki ko khojna shuru kar kiya wo Dansing floor par kuch aur laDakiyon ke sath nach rahi thi mainne aage baDhkar uska dhyan apni or akarshait karne ki koshish ki wo ek maldar adami ko rijhane ke liye bar bar apne baal lahra aur kulhe matka rahi thi samne ki kursi par baitha wo adheD aiyash, jiske gale aur ungliyon mein sona bahut ashlil Dhang se chamak raha tha, us laDki ki har ada par sau sau ke not nichhawar kar raha tha
bahut koshish aur ishare karne ke baad bhi jab laDki ne meri taraf dhyan nahin diya to akhiraka mujhe bhi jeb se not nikalne paDe not hath mein aate hi mainne dekha—bar ke har waiter, stuart aur Dansars ka dhyan ab meri taraf tha laDki ki taraf mainne sirf ek nazar se dekha aur wo muskurati hui mere pas aa gai not uske hath mein dene se pahle mainne do—tin bar unchi awaz mein kaha, “mujhe tumse kuch zaruri baat karni hai
dusri awazon ke karan use meri baat samajh mein nahin i wo hath pakaDkar mujhe pichhle darwaze ki taraf le gai darwaze ke us taraf restaran ka kitchen tha
“han bolo jaldi, kya baat hai? main apna customer chhoDkar i hoon
“sham ko main jis buDhe ke sath aaya tha, kya tum use janti ho?
“han han, wo mera regular customer to nahin hai, par aata hai to sabki tabiat khush kar deta hai
uski tabiyat kharab hai kya tum uske ghar ka pata janti ho?
“pakka pata nahin malum, lekin shayad wo dadar ke kabutarkhane ke asapas kisi chaal mein rahta hai kya to nam hai us chaal ka yaad nahin aa raha abhi
“dekhiye, main is shahr mein naya hoon mujhe yahan ke raston ke bare mein kuch nahin malum kya aap is mamle mein meri madad kar sakti hain?
nahin ” usne saf mana kar diya, “ap samajhte kyon nahin? main apnakastmar chhoDkar nahin ja sakti
main chup ho gaya bar se bahar nikalte hi mainne taxi ke pas jakar khiDki se andar jhanka buDha abhi tak jyon ka tyon leta tha—kisi lash ki tarah mainne darwaza khola aur andar seat mein dhans gaya
dadar le chalo!” mainne Draiwar se kaha mujhe apni awaz bahut thaki hari si jaan paDi
Draiwar ne turant chabi ghumakar injan start kiya thoDi door jakar ek yu turn mara aur lambi chauDi saDak par top gear mein taxi dauDa di
mainne ek cigarette sulga li aur apne wicharon ko khamoshi se chabane laga yahan tak ki meri kanapatiyan dukhne lagin un chabaye hue wicharon ki lugdi mein se pata nahin kab shunya nikla aur us shunya ke bojh se dabkar jane kab meri ankhen mund gai
Draiwar ne jab kandha thapathpakar mujhe neend se jagaya to kuch samajh hi nahin aaya mainne apna sir zor se jhatakkar khumari aur neend ko door haDkaya aur buDhe ko hosh mein lane ke liye hilaya Dulaya, lekin sirf hoon hoon karne ke alawa usne koi harkat nahin ki akhir niche utarkar mainne uski bahon ke niche hath Dalkar use darwaze se bahar kheench liya main jab buDhe ke sharir ko ghasitte hue saDak ke kinare le ja raha tha, tab mainne dekha ki bawjud behoshi ke buDhe ne apne bag ko nahin chhoDa tha uska pura sharir behosh tha, lekin wo tha puri tarah hosh mein tha jis hath se usne bag se bahar jhankti seksofon ki gardan ko pakaD rakha tha
mainne uski deh ko kabutarkhane ki gril se tika diya palatkar taxi ka bhaDa chukaya aur ristawॉch ki tarah dekha sawa teen baj rahe the ye raat aur subah ke beech ki aisi ghaDi thi jab na to main kuch kar sakta tha, na kahin ja sakta tha kuch der tak idhar udhar ki sochne ke baad main bhi buDhe ke pas gril se peeth tikakar baith gaya
raat ke us akhiri pahar mein jab sari harakten so chuki theen aur kahin se koi awaz nahin aa rahi thi, mujhe apne dil ki dhaDaknen sunai deen main apne bare mein sochne laga apne bap ki daulat se dushmani mol lene ke baad main jis tarah se tuchchh aamod pramod mein zindagi ko kharch kar raha tha, usmen kisi samajhdar anurag ki koi gunjaish nahin thi apni swtantr apratibaddhta ki shekhi, jiske liye mainne apne career tak ko lat mar di thi, ko qayam rakhne ke liye main hamesha jis sukhi akaD ka istemal karta tha, usmen barish, sharab, khoon aur seksofon ki ek karun dhun ne nami la di thi main us nami ke narm agosh mein ek thake hue bachche ki tarah so gaya
ek sath kai pankhon ki phaDphaDahat ne mujhe neend se jagaya mainne ankhen malte hue idhar udhar dekha—buDha nadarad tha ek bar phir peeth ke pichhe pankhon ki phaDphaDahat sunai di mainne palatkar dekha, wo buDha kabutarkhane ke bichombich leta tha aur uske jism par kai kabutar chahl qadmi kar rahe the, itne adhik ki uska pura sharir unse pat gaya tha yahan tak ki chehra bhi theek se dikhai nahin de raha tha mujhe sandeh hua, kahin wo mar to nahin gaya, lekin mujhe apne is bewqufana sandeh par turant sharm i, kyonki mare huon par kaue manDrate hain, kabutar nahin
main kabutarkhane ki gril phandakar andar kuda meri is kood phand se ghabrakar sare kabutar uD gaye main buDhe ke qarib pahuncha aur tab mujhe uska chehra dikhai diya—swasthya aur muskurata hua chehra, jismen kahin pichhli raat ke upadraw ke chinh nahin the uske chehre aur tamam kapDon par bajre, jwar aur maki ke dane chipke hue the shayad usne khu apne upar kabutron ka chara phaila rakha tha
usne sneh se meri taraf hath baDhaya mainne jaise hi uske hath mein hath diya,ek kabutar aakar phir uske hath par aa baitha, wahin chitkabra kabutar, jiske pair mein kala dhaga bandha tha, jo kal sham buDhe ke kandhe par baitha tha
“tum chupchap khaDe rahna mera hath chhuDane ki koshish mat karna phir dekhana, ye dhire dhire tumhein bhi apna dost bana lega
mainne buDhe ki baat par sahamti mein gardan hilai aur khushi bhare ashchary ke sath dekha—wah kabutar, jo hum donon ke hathon ke milan par baitha tha, usne jhatke se gardan uthakar sidhe meri ankhon mein dekha uski ankhon mein kautuhal aur ajanbipan tha kuch der tak mujhe dekhte rahne ke baad usne gardan jhukai aur do teen qadam aage baDhkar buDhe ke hath se mere hath par aa gaya mujhe uske panje ke khuradre sparsh se halki si siharan hui, lekin mainne apne hath ko kanpne nahin diya usne gardan uthakar phir meri taraf dekha aur zara jhijhakte hue do qadam aur aage baDha kuch der tak meri wishwasniyata ko azmane ke baad teen chaar qadam aage baDhkar meri kalai aur banh ke beech pahunch gaya ab uski ankhon mein koi Dar nahin tha agle hi pal wo jhapatkar mere kandhe par aa baitha mainne dhire dhire apna hath aage baDhaya aur uske pankhon ko sahlane laga
“yah pahle raubart ka dost tha ” buDhe ne mere kandhe par baithe kabutar ko baDe pyar se dekhte hue kaha
“use gaye kitne din ho gaye?” mainne kabutar ki deh par hath pherte hue puchha
buDha kuch der chup raha wo us kshan ki yaad se thoDa ghamgin ho gaya ek do pal ki chuppi ke baad usne baDi mushkil se munh khola, “aj uski pahli barsi hai
mainne dekha, pichhli raat ki wo yatana aur hatash phir uske chehre par manDrane lagi mainne use us siknes se bahar nikalne ke liye zor lagakar uske hath ko apni or khincha aur uski banh mein apni kalai Dalkar use khaDa kar diya kaha, “chalo tumhein ghar tak chhoD doon
usne zara ashchary se meri taraf dekha—“tumhen kaise malum hua ki main yahan rahta hoon?”
“kal jab tum hosh kho baithe the, tab main phir usi bar mein gaya tha
“lekin wahan to mujhe koi nahin janta, siway us laDki ke
“han, usi laDki ne mujhe pata diya
kya wo mere bare mein kuch kah rahi thee?
“nahin, wo bahut busy thi
buDhe ne ek gahri sans li phir uske chehre ka bhaw bigaD gaya, jaise usne koi kaDwi cheez pi li ho wo mere kandhe ka sahara lekar aage baDha hum saDak par karke bain or se ek gali mein muD gaye usne meri taraf dekhe baghair puchha, “jante ho wo laDki kaun thee?
mainne inkar mein sir hilaya aur jigyasa se uski taraf dekha wo kuch kahna chahta tha, par kahte kahte rah gaya uske chehre par phir kaDwepan ko nigalne ka kasht ubhar aaya
age jakar wo ek aur patli gali mein muD gaya wo mushkil se aath das pheet chauDi gali thi, jiske donon taraf chalen theen lakDi ke baramdon aur siDhiyonwali bahut purani gali aur sili hui chalen, jinke har kone mein thahri hui basi hawa, umas, ub aur andhere ne sthai qabza kar liya tha
charamrati hui siDhiyon par reling ke sahare chaDhne ke baad hum dusre male ki chauthi kholi ke pas pahunche usne bahut zor zor se hanphate hue apni jeb se chabi nikali aur darwaze ka tala khol diya
main ab chalta hoon ” mainne usse winamr shabdon mein ijazat li
usne zara pyar bhari narazgi se mujhe dekha, “main abhi itna gaya guzra nahin hoon ki tumhein ek kap chay bhi na pila sakun ” wo hath pakaDkar mujhe andar kheench le gaya
andar saman ke nam par sirf ek palang aur ek mez thi palang ke upar ek bahut ganda bistar bichha hua tha jiske sirhane paitane ka koi thikana nahin tha kamre ki diwaron par jab meri nazar gai to mujhe bahut ashchary hua diwaron par jagah jagah kilen gaDi hui theen aur un par tarah tarah ke wady tange the sabse pahle meri nazar table par gai uska chamDa udhaD gaya tha aur uske andar chiDiyon ne ghonsla bana liya tha table ki baghal mein ek tuta hua wayalin tha, jiske tar nadarad the diwar ke kone mein sarangi thi, makDi ke jale se ghiri hui sarangi ke upar bansuri latak rahi thi, jiske chhedon mein faphund jam gai thi aur uske mauthpis ko dimak ne chat liya tha niche farsh par harmonium paDa tha, jiski haDDi pasli ek ho gai thi
main tab tak in awsheshon ka awlokan karta raha tha jab tak buDha baramde mein jakar kisi ‘chhokre ko chay ke liye awaz dekar laut nahin aaya chay lekar jo chhokra aaya, usne chay ki pyaliyan hamare hath mein thamane ki bajaye apni jeb se ek chhoti si notabuk aur qalam nikali buDhe ne donon chizen hath se le leen wo us udhaar khate ke gande pannon ko ulatne laga phir ek panne par kuch likhne ke liye jaise hi usne qalam aage baDhai, laDke ne beech mein tok diya, “abhi ki do kating mila ke sattar chay ho jayengi seth mere upar bom mar rela hai jabhi paisa denga tabhi chay dena aisa bolela hai ”
buDhe ne kewal ek bar us laDke ki taraf dekha phir jeb se raat ke pani mein bhige hue not nikale ek pachas aur ek sau ka not nikalkar laDke ke hath mein thamaya, udhaar khate ko phaDkar gallery se bahar khuli saDak par phenk diya chay ki pyaliyan uske hath mein baha di
laDke par uske is wywahar ko koi asar nahin paDa wo chupchap gilas uthakar chala gaya
kuch der tak wahan khamoshi chhai rahi phir achanak uske upar daura paD “tum baithe rahna main abhi aata hoon
usne kaDwa sa munh banaya aur gallery par kare dhaDadhaD siDhiyan utar gaya
buDhape ki tunakamizaji kai bar bachpane ki nadani se bhi badtar sabit hoti hai aur phir is buDhe ka mamla to aur bhi gaDbaD tha mujhe laga ki is bakheDebaz adami ke sath agar main ziyada der tak raha to kabhi bhi kisi baDe jhanjhat mein phans sakta hoon ek pal ke liye mujhe ye khayal aaya ki chupchap yahan se khisak jaun, lekin meri jigyasa abhi shant nahin hui thi main aur ziyada gahrai mein jakar is adami ke bhitar ke us swar ko sunna chahta tha, jo duniya ke kai angaD khangaD prlapon ke niche daba hua tha
mujhe ek Dar ye bhi tha ki kahin us swar ko khojte khojte main itna niche chala jaun ki wapas upar aana mushkil ho jaye, kyonki niche kai thi, uljhi hui karuna thi aur kai pathrile kataw the, jinmen ulajh phansakar main Doob sakta tha lekin bawjud is Dar ke, meri manःsthiti us lalchi gotakhor jaisi thi jo dakshainawart shankh pane ke liye zindagi bhar gote lagate rahta hai, bina jaan ki parwah kiye, bina ye jane ki jo cheez wo pana chahta hai, uski asli pahchan kya hai
jab pichhli baten yaad karta hoon to mujhe apni charam jigyasa ke karan apne aapko dosh dene ka koi karan nazar nahin aata meri utkantha ke pichhe chhupi hui nichata nahin thi main bus thoDa sa ulajh gaya tha aur chunki ye uljhan bahut nazuk thi isliye apni tamam tatasthata ke bawjud main is chipachipahat se khu ko chhuDa nahin pa raha tha
uske ajayebghar mein uska intizar karte karte akhir main thak gaya raat ki nishachari ke karan mera sir bhi sansana raha tha kuch hi der mein mujhe jhapki lag gai ek halki aahat se jab meri ankhen khuli to mainne dekha, wo mere samne do pyale lekar khaDa tha, lekin usmen se chay ki khushbu nahin, deshi sharab ke bhabhke uth rahe the usne ek gilas meri taraf baDhaya aur dusra apne honthon se laga liya ek hi sans mein pura gilas khali karne ke baad usne shirt ki banh mein munh ponchha aur bahut ajib nazron se mujhe dekha uski surkh ankhon aur uske arajak tariqon se aspasht tha ki wo kal ki tulna mein aaj ziyada phaurm mein hai uska wo hath kanp raha tha, jis hath mein usne mere liye sharab ka pyala tham rakha tha
yah mera nahin, raubart master ka kamra hai tum abhi mere nahin, raubart master ke mehman ho raubart gharane ke subah ki shuruat daru se hoti hai agar tumhein is gharane ke adab qaydon ko sikhna hai to gilas munh se laga lo
main dhire se muskaya aur uske hath se gilas lekar ek hi sans mein khali kar diya
“weri good weriguD! tum bhi hamari line ke adami ho jamegi apni tumhari khoob jamegi!”
usne khushi se chahakte hue phir do gilas taiyar kiye aur hamne us din ka aghaz ek aise Dhang se kiya jiska anjam kuch bhi ho sakta tha
sharab ka pahla pyala kisi baz ki tarah jhapatte hue mere sine mein utra tha, dusre pyale ki sharab zara dhire dhire kisi cheel ki tarah manDrane lagi main dheer dhire bahut upar uthta chala gaya, lekin niche ki tamam chizen mujhe utni hi saf nazar aane lagin dusra gilas khatm karne ke baad mainne diwar par latakte wadyon ko gahri nazar se dekha is bar mere dekhne mein kuch farq tha kuch hi der pahle mere liye ye cheez bejan theen, lekin ab unmen se koi arth dhwanit ho raha tha
mujhe apne in doston se nahin milwaoge?” mainne wadyon ki taraf ishara karte hue puchha
buDha apne gilas mein kanpkanpati sharab ko baDe ghaur se dekh raha tha usne bhaunhen uthakar meri taraf dekha, phir sidhe diwar ki taraf nazren utha deen wo baDe ajib Dhang se muskaya gilas khali karke usne mez par rakha aur diwar ke pas chala gaya sabse pahle table par hath rakha, “ye rafiq khan hai ustad salimuddin khan sahab ka sabse chhota aur sabse awara launDa pahle kangres house mein kisi bai ke mujre mein tabla bajata tha baad mein film line mein aa gaya ” table ko pichhe chhoDkar usne sarangi par ungli rakhi, “aur ye salim bhi usi ka joड़idar tha inki sangat mein baad mein ye wasuki parsad aur ye jamunadas bhi bigaD gaye (uska ishara bansuri aur shahnai ki taraf tha) ye charon apne fan aur dhun ke pakke the, magar unke jiwan mein koi lai tal nahin thi bahut besure aur betale the charon ke charon magar the bahut imanadar, ismen koi shak nahin ” ek bar charon wadyon ko bahut naz aur pyar se dekhne ke baad usne zamin par paDe harmonium par nazar Dali, “yah nitin mehta ka harmonium hai ye launDa sabse ziyada chalu tha panch sal pahle hamare pas sa re ga ma sikhne aaya tha aur aaj bahut popular music Darektar hai, kyonki iski ungliyan harmonium se phisalkar turant sinthesaizar par chali gai theen aur niyat sangit se uchatkar dhandhe par lag gai thi har tarah ke chans aur scope mein apni tangen ghuseDete hue usne ek aisa dhundhara ghor machaya ki kuch samajhna mushkil ho gaya baad mein use ek sindhi partnar mil gaya usne sangit ke dhandhe ko bahut baDe paimane par inwestment kiya purane saz aur sazidon ki jagah nae yantr aa gaye pahle rikaurDing ke dauran DeDh dau sau saziden jama hote the, par ab tamam sazon ki awazon aur unke alag alag iphekts ke liye kewal ek hi ilektraॉnik yantr kafi hai us yantr ke khilaf, mainne aur raubart ne kai bar awaz buland ki kai bar hamne ‘film artist esosiyeshan ko darkhwast di ki is yantr par pabandi laga di jaye magar afsos na to is mamle mein kisi ne hamara sath diya aur na artist esosiyeshan ne koi kadam uthaya ”
apne kuch sathiyon ka parichai dene aur guzre hue halat ki lambi tafsil pesh karne ke baad usne cigarette ka packet jeb se nikala, ek cigarette apne honthon ke beech rakhkar usne packet meri taraf baDhaya mainne bhi chupchap cigarette sulga li
do teen gahre kash khinchne ke baad wo bahut ghaur se aur kuch kuch sahanubhutipurn nazron se wayalin ko dekhne laga—“sabse ziyada mujhe das babu par taras aata tha bechare e grade ke artist hote hue bhi si grade ki zindagi jite thi bahut sharmile aur sanjida adami the trejik dhunon ke liye unhen khastaur se bulaya jata tha nitin mehta jaise haramiyon ne uska bahut misyuz kiya wo ek hi siting mein usse chaar panch dhunen record karwa leta tha phir un dhunon ko kat chhantakar alag alag ganon aur sichueshans mein istemal karta tha apni dhunon ki is durgati se das babu bahut udas ho jate the, magar kabhi kisi se shikayat nahin karte the
“ek bar ek gane ki kampojing ke dauran we wayalin bajate bajate rone lage us gane ke ant mein mujhe ek lamba pees bajana tha, magar main uth gaya aur das babu ki banh pakaDkar stuDiyo se bahar nikal aaya
cigarette ke thoonth ko tipai par paDi aish tray mein masalkar usne kursi nazdik kheench li aur apne laDkhaDate hue panw ko santulit karte hue kursi par baith gaya, phir bola, “us raat jab puri chaal so gai, tab aadhi raat ke baad mujhe das babu ki kholi se wayalin ki awaz sunai di aur main dekhe baghair ye jaan gaya ki das babu sirf wayalin nahin baja rahe the, ro bhi rahe the kuch der tak main chupchap sunta raha mainne pahle kabhi dardanak swar nahin sune the akhir mujhse raha nahin gaya mainne apna seksofon uthaya aur uski peeth sahlane ke liye ek bhari swar unki khiDki ki taraf uchhaal diya meri hamdardi se pahle we thithak gaye, phir unka wayalin ekdam phaphak paDa mainne use rone diya seksofon ke chauDe sine par sir rakhkar roti wayalin ki us dhun ko main kabhi nahin bhulunga wo bahut lambi, ghumawadar aur itni katar dhun thi ki seksofon jaisa diler bhi kuch der ke liye wichlit ho gaya lekin isse pahle ki main apna santulan kho deta, pyano ke halke sparsh ne mujhe DhanDhas bandhaya raubart ka ek purana not hamare swron ki taraf bahen phailate hue aaya aur hum tinon baghalgir ho gaye
phir hamari ye tikDi aage baDhi, lekin kuch hi der baad pichhe se sarangi ki awaz i aur wo bahut haDbaDi mein hamari taraf dauDti chali i jaise hum uska sath chhoDkar kahin ja rahe hon hamne apni swaryatra mein use bhi shamil kar liya hum use chhoD nahin sakte the, kyonki wo bahut bhawuk thi aur baat baat mein dukhi ho jana unke swbhaw mein shamil tha
“phir bansuri aur shahnai ki bhi neend khul gai un donon ki alsai si, angaDaiyan leti awazen pahle bahut sust qadmon se bahar ain, phir ye dekhkar ki hum bahut door nikal gaye hain, donon ne ek sath apni chaal tez kar di aur kuch hi der mein wahan swron ka tufan ghumaDne laga bina kisi uddeshy aur bina kisi riharsal ke khu ba khu wahan ek aisa arkestra shuru ho gaya, jiska koi purwnirdharit sho nahin tha, jise sunnewala koi rasik shrota nahin tha, kyonki ye koi kampojishan nahin, kuch awaragardo ki arajakta thi hum sab ek dusre ke sath dhinga masti kar rahe the har swar apne prtidwandwi swar ko pichhe chhoD aage nikal jana chahta tha pyano madmast hathi ki tarah sabko kuchal raha tha sarangi pyano ki tangon ke beech se nikalkar use chhakati hui aage baDh gai shahnai ki behad tez aur patli dharwali awaz ne sarangi ke tar kat diye, magar sans lene ke liye jaise hi shahnai ruki, bansuri ne us antral mein ek lambi chhalang lagai aur sabse aage nikal gai
“mainne bansuri ko sabak sikhane ke liye seksofon honthon se lagaya, magar akasmat mera dhyan is baat par gaya ki wayalin ki awaz kahin bichhaD gai hai kuch der tak main dhyan dekar sunta raha ki shayad dusri tez awazon ke karan wayalin ki awaz dab gai hogi, lekin nahin, wo kahin sunai nahin de rahi thi baqi sab bahut masti mein the, isliye unhen kuch pata nahin chala, lekin main thoDa sajag tha zara aur dhyan dene par mujhe ye abhas hua ki sangit ki sangat mein kahin kuch asangat ho raha hai mujhe kisi cheez ke toDe jane ki awaz sunai de rahi thi ye swaraghat bahut bhayanak the unmen kisi cheez ko hamesha ke liye khatm kar denewala hatyarapan tha do teen baDe aghaton ke baad wo awaz band ho gai main soch mein paD gaya mujhe halanki ye samajh mein nahin aaya ki wo kis cheez ke patakne ya pitne ki awaz thi, magar ye to saf zahir tha ki wo awaz das babu ki kholi se hi i thi mainne seksofon mez par rakh diya aur darwaza kholkar bahar gallery mein nikal aaya samne ki chaal mein sab khiDki darwaze band the das babu ki kholi ke darwaze ki dararon se bulb ki pili raushani ki lakiren chamak rahi theen beech beech mein un chamkati lakiron ko koi parchhain kat deti thi we lakiren jab bar bar aur bahut tezi se katne lagi, tab mujhe malum hua ki andar koi chhatapta raha hai main tezi se siDhiyan chaDh gaya das babu ki kholi ke band darwaze ke samne pahunchakar mainne apne dhaDadhDate sine ko ek hath se thama aur dusre hath se darwaze ko dhakela andar das babu farsh par gire paDe the wayaliyan ke tukDon ke beech farsh par we apna sina thamen chhatapta rahe the mainne lapakkar unhen apni bahon mein le liya mujhe dekhkar unke chehre par halki si rahat i, magar agle hi pal kisi agyat shakti ne unke chehre par ponchha mar diya ”
das babu ke jiwan ke antim kshnon ka jo bhayanak warnan buDhe ne kiya, wo kafi der tak ek film ki tarah meri kalpana mein ghumta raha buDhe ke chup ho jane ke bawjud uske shabd mere kanon mein gunjte rahe main us santrast kar dene wale asar ke jab bahar aaya, tab mainne dekha, buDha kisi gahri soch mein Duba tha mainne uske maun par koi darar nahin paDne di
hum donon pata nahin kitni der chup rahte, agar hamare maun ke beech wo chitkabra kabutar na chala aaya hota wo pahle kamre ki dahliz par baitha kotuhal bhari ankhen matkate hue bari bari se hum donon ko dekhta raha, phir uDkar buDhe ki god mein ja baitha buDha halanki kisi khayal mein khoya tha, lekin uske hath adatan kabutar ke pankhon ko sahlane lage
“we itne pareshan kyon rahte the?” mainne zara sankoch se puchha
kaun? buDhe ne meri taraf dekhkar puchha
“das babu?” mainne kaha
buDha is sawal se phir apset ho gaya usne phir kaDwa sa munh banaya aur achanak khaDa ho gaya uska hath phir kanpne laga us kanpknpahat ko qabu mein karne ke liye usne mutthi bheench li uske chehre se lag raha tha ki wo phir biphar uthega, magar wo kuch nahin kar paya apne tashaddud se phaDphaDate honthon se usne danton mein bheench liya
uski haalat dekhkar main bhi saham gaya aur kabutar bhi usne bhaybhit nazron se buDhe ko dekha aur turant par phaDphaDate hue kamre se bahar uD gaya
kuch der baad mujhe pet mein maroD hui main kafi der se anDkosh ke dabab ko bhi tal raha tha, lekin jab sahn nahin hua to main utha aur beech mein latakte parde ko sarkakar kamre ke dusre hisse mein chala gaya wahan ek chhoti si rasoi thi aur rasoi se laga ek teen ka darwaza rasoi ke pletfaurm par bahut si angaD khangaD chizen betartib paDi theen mainne kisi cheez par dhyan nahin diya mera dhyan sirf us teen ke darwaze par tha jiske pichhe meri tatkalik yantrna ka nikas tha
sanDas se bahar aane ke baad mainne dhyan se sab chizon ko dekha un chizon ki alag alag pahchan nahin thi we sab ek sanyukt kabaD mein badal chuki theen akar mein baDa hone ke karan sirf pyanon alag se pahchan mein aa raha tha main uske pas gaya, uske upar paDe saman ko idhar udhar kiya aur ghaur se dekha, uske donon phut paiDal tute hue the ki board ki adhikansh chabhiyan bhi ukhaD gai theen mainne uski andaruni haalat dekhne ke liye lakDi ke Dhakkan ko upar uthaya aur agle hi pal mujhe Dhakkan band kar dena paDa andar kuch bhi nahin tha na gaddiyan, na strigs, na phelthemar sirf khalipan tha aur us khalipan mein se ek ajib si bu aa rahi thi wahan kuch mar gaya tha, jo saD raha tha
parda hatakar main wapas kamre ke agle hisse mein aa gaya
“yah pyano kya raubart master ka hai?” mainne buDhu se puchha
usne han mein sir hilaya aur chehra jhuka liya
“wah itna ghayal kyon hai?” mainne phir ek murkhtapurn sawal kar Dala, main nahin janta tha ki mera ye sawal kitna ghairwajib aur ghairazruri tha usne jhallai hui nazron se mujhe dekha, phir kursi se utha, kamre se bahar nikla, tez qadmon se gallery par ki aur dhaDadhaD siDhiyan utarne laga main pahle to hataprabh rah gaya, phir kisi agyat taqat se washibhut hokar main bhi uske pichhe bhaga main jab tak siDhiyan utarkar gali mein aaya, tab tak wo gali par kar chuka tha, aur jab main gali se bahar nikla tab wo saDak cross kar raha tha mainne apni raftar tez ki, aate jate wahnon se khu ko bachate hue saDak par ki aur dauDkar uske pas pahunch gaya
suno!” mainne uske kandhe par hath rakhkar halke dabaw se use apni or khincha
meri is rukawat se uski chaal laDkhaDa gai—“kya hai? uska swar bahut biphra hua tha—“kyon mere pichhe paDe ho? jao rasta napo mujhe kisi ki hamdardi ki zarurat nahin hai
lekin tum ja kahan rahe ho?
“main kahin bhi jaun, tum kaun hote ho puchhnewale? tumhein kya matlab hai?
“matlab hai ” mainne is bar zara kaDi awaz mein kaha, “tum kya mujhe koi chutiya samajhte ho?” mainne uski shirt ko apni donon mutthiyon mein bheench liya
meri is akasmat chiDchiDahat se wo zara Dhila paD gaya usne munh bichkakar ek nishwas chhoDa aur mainne apni mutthiyan aur kas leen, “main janta hoon ki tum bilkul gaye guzre aur nakam adami ho aur is bhram mein ji rahe ho ki tumhare jaisa tismarkhan is duniya mein aur koi nahin hai main ye bhi janta hoon ki tum ziyada din jinewale nahin ho, kyonki tum chahte ho ki tumhari maut itne dardanak Dhang se ho ki duniya chaunk jaye tum is tarah jo badhal zindagi ji rahe ho, wo isliye nahin ki tum badhal ho, isliye ki logon ko apni taraf akarshait kar sako tum apne sharir par in chithDon ko usi tarah sajakar rakhte ho jis tarah ranDiyan apne chehron ko sajati hain
nashe mein chunki main bhi tha, isliye thoDa lauD ho jana swabhawik tha, “go enD phak yor art ” mainne chillakar kaha, phir tezi se palatkar tez qadmon se chaurahe ki taraf jane laga kabutarkhane ke pas jakar main station ki taraf janewali saDak par muDne hi wala tha ki mujhe apne kandhe par uske hath ka dabaw mahsus hua
mainne muDkar dekhana zaruri nahin samjha
“tumhen pareshan karne ka mera irada nahin tha ” uski awaz mein halka kampan tha, “tum meri wajah se bahut pareshan ho gaye jao ab kabhi mere jaise ghanchakkron ke pher mein mat paDna
mainne palatkar uske donon kandhon par apne hath rakh diye, “dekho, main janta hoon raubart aur das babu ke bina jine mein tumhein kitni taklif ho rahi hai, lekin sharab aur byarth ke chutiyapon mein Dubkar kya tum us mahan duःkh ka apman nahin kar rahe ho? kya us duःkh ko tum seksofon ke swron ke sath salimet (udattikarn) nahin kar sakte?
usne bahut wiwash nigahon se mujhe dekha aur nakaratmak Dhang se sir hilane laga, jaise mainne usse kisi mari hui cheez ko zinda karne ka agrah kiya ho main uske asakti shunya chehre ko dekhta raha wahan kori shunyata thi na koi chaw tha, na koi bhaw apne chehre ko meri nazron se bachane ke liye usne munh pher liya aur kabutron ke jhunD ko dekhne laga
we sab chugga chug rahe the—shahr ki bhag dauD, aapa dhapi aur pareshaniyon se nirlipt aur beख़bar wo dhire dhire aage baDha aur lohe ki gril ke pas ja khaDa hua andar us gol ghere mein phaDphaDate asankhya saleti, safed aur chitkabre pankhon ke shant saundarya mein se wo kuch khoj raha tha, koi aisi cheez jo uski tatkalik taklif ko Dhank de
wo kafi der tak yoon hi khaDa raha is beech usne qamiz ki banh se do bar apni ankhen ponchhi uski peeth meri taraf thi, isliye dekh nahin paya ki usne apni ankhon mein se kya ponchha tha kuch der baad wo palta aur sidhe meri ankhon ki taraf apni ankhen utha deen usne bahut pyar se meri taraf dekha, phir aage baDhkar apni banh mere kandhe mein Dal di aur wapas mujhe apne ghar ki taraf le jane laga ghar pahunchate hi wo kisi nadide ki tarah chizon par toot paDa usne ek purana kapDa uthaya aur jo cheez hath mein i uski dhool jhaDne laga phir chhat ke konon mein latakte makaDjalon par jhaDu pher diya pure kamre ko achchhe se jhaDne buharne ke baad usne ek saf kapDe se tamam wadyon ko ragaD ragaDkar chamka diya is tamam safai abhiyan ke dauran wo lagatar siti bajata raha uski phoonk mein dhire dhire wazan baDhta gaya aur kuch hi der mein usne apni deh aur aatma ke bikhre hue swron ko ek tartib mein tune kar liya
kuch der baad parda hatakar pichhe chala gaya uske kitchen kam bathrum se kafi der tak pani bahne ki awaz aati rahi is beech mainne kamre ki nai wyawastha par nigah Dali ab sare saz apni gharib aur phatehali ke bawjud pure samman ke sath chamak rahe the sirf saz hi nahin, pura asbab apni asli rangat mein nikhar aaya tha, sirf ek elbam ko chhoDkar, jo kone mein paDi table ke ek kinare upekshait sa paDa tha uske kawar par dhool jami thi mujhe uski bosidagi par etraaz hua mainne kapDa uthakar uski gard jhaD di aur bina kuch soche samjhe use kholkar dekhne laga usmen bahut purani taswiren theen uske tamam yar doston ki
kuch taswiren stage program ke dauran khinchi gai theen aur kuch rikaurDing stuDiyo mein kahin kahin par ekadh praiz Distribyushan aur party ke bhi chitr the we un dinon ke chitr the jab buDha jawan tha wo un chitron mein jindadili aur jawanmardi ki misal ki tarah maujud tha
lekin madhyantar ke baad elbam ki taswiren zara shant, thoDi udas aur ant mein bahut piDadayak hoti chali gain elbam mein antim prishthon mein do parthiw sharir shawyatra par jane se pahle ki antim ghaDiyon ke zordar wilap ke beech shant paDe the ek sharir arthi par tha, dusra tabut mein tabutwale bhaw ke donon hath nadarad the mujhe bahut ashchary hua kya ye raubart master ki taswir hai? kya uske donon hath???
isse pahle ki main is khuni achambhe ke bare mein kuch soch pata, buDha parda hatakar bahar aa gaya aur is bar main use dekhte hi rah gaya uske shew kiye hue chehre par ghazab ki raunaq thi usne sweD ki bhure rang ki patlun aur safed shirt pahan rakhi thi, jismen kahin kai dagh dhabba nahin tha uski is sehatmand, saf suthari aur purazor entri se main thoDa ashwast hua mujhe laga ki wo ab sthitiyon ki phes karne ki sthiti mein hai
wo pankha kholkar apne lambe baal sukha raha tha uske safed aur mulayam baal uske lambe aur gore chehre par sirf lahra hi nahin, balki tair se rahe the
“tum ab bilkul sahi lag rahe ho ” mainne kaha
usne balon par zor zor se ungliyan chalate hue meri taraf dekha—“kya ab tak main ghalat tha?
“nahin ” mainne muskurate hue kaha, “ab tak tum ghalat aur sahi ke beech the
usne sir jhatakkar apne baal pichhe kiye aur baDe ghaur se meri taraf dekhne laga, “yar, tum to baDe guru adami ho tumhare andar jo bailens hai, mujhe usse jelesi ho rahi hai
“main ek baniye ka beta hoon ” mainne hanste hue kaha, “isliye taraju hamesha sath lekar chalta hoon, halanki nap tol mein mujhe bahut nafar hai main tumhari anabailensD aur phakkaD zindagi se akarshait hua tha aur tum meri baniyagiri se prabhawit ho, ye baDi wichitr baat hai!
thoDi der tak wo mujhe niharta raha phir pahli bar usne mere wyaktigat mamle mein dilchaspi dikhai—aur bahut sanjidgi se puchha, “tum karte kya ho?
“main philhal kuch nahin kar raha hoon ” mainne kaha
“nahin main kaise man loon ki tum philhal kuch nahin kar rahe ho? tum philhal aur kuch nahin to ek buDhe aur sanki adami ko to bardasht kar hi rahe ho n? wo hansne laga
nahin ” mainne bhi uski hansi ka sath diya, “main tumhein bardasht nahin, enjway kar raha hoon tum bahut swadisht aur pachane mein utne hi kathin adami ho tumhare bahar se kurakre aur bhitar se rasile swbhaw mein ek khas tarah ka zayqa hai
wo aur bhi zor se hansne laga, phir usne apna seksofonwala bag utha liya mez ki daraz se ek gift packet nikala aur mera hath pakaDkar ghar se bahar aa gaya
tumhara ghar mujhe ghar jaisa kam, riharsalrum jaisa ziyada lagta hai ” mainne jina utarte hue ka
“darasal,” usne siDhiyon se niche utarne ke baad mere kandhon par hath rakhte hue kaha, “yah kamra hum sabne milkar kiraye par liya tha, riharsal ke liye lekin baad mein ye ayyashi ka aDDa ban gaya aur un logon ke liye to isse baDi koi panahagah nahin thi, jo ghar se alag ho gaye the ya alag kar diye gaye the mera aur raubart ka khana pina, nahana dhona, sona uthna sab yahin hota tha ”
wo ek bar phir apne wigat mein laut gaya, lekin is bar ki wapsi kuch alag tarah ki thi uske lahje mein kisi sadmen ke tatkalik byan ki baukhalahat nahin, sthirta thi, ek wyawasthit prawah tha—
“bawjud har tarah ki badasluki ke, hum sab aapas mein ek the hamare jhagDe kai bar mar peet ki naubat tak bhi pahunchte the, lekin jab ‘sangat hoti thi tab sari baten bhula di jati thi, lekin ek arse baad jab sangit ke dhandhe mein chenj aaya to sab kuch badal gaya hamara group bikhar gaya sirf ek grade ke kuch artist bach gaye lekin siniyar hone ke bawjud mujhe aur raubart ko kaam ke mauqe bahut kam milte the, kyonki jis tarah ki kampojing nae daur mein chal rahi thi, usmen naqal par adharit chutiyapon ki bauchhar thi aur pyano ya seksofon jaise gambhir wadyon ki akele pees ke liye koi jagah nahin thi
chalte chalte wo rook gaya phir mujhe khinchne laga usne saDak par ki aur hum ek cafe mein ghus gaye nashte ka order dene ke baad wo kuch der chup baitha raha phir bina meri or dekhe kuch budbudane laga, jaise mujhse nahin, khu se baten kar raha ho, “sale nitin mehta, ek tumhi hoshiyar nikle baqi sab bewaquf the achchha kiya tumne jo table peti ko lat mar di agar tumne nae saz aur nae taur tariqe nahin apnaye hote to tumhara bhi yahi haal hota hum log chutiye the jo saz ki aan aur swron ki shuddhata ka rag alapte rahe raubart to apne aapko bahut tismarkhan samajhta tha, kyonki uske jaisa pyano master pure mumbi mein koi nahin tha usne tumhare nae yantron ka mazaq uDaya tha wo use bachchon ka khilauna aur kampyutar game kahta tha lekin aaj usi bachchon ke khilaune ke uske hathi ke charon panw ukhaD diye sirf raubart hi kyon, us samay to e grade ka har artist isi ghamanD mein rahta tha ki unke skil ko koi mat nahin de sakta lekin unke skil aur market ki zarurat ki beech jo gap aa gaya tha wo unhen dikhai nahin diya
buDha apni rau mein bol raha tha aur butter breD ke sath coffe ki ghoot bhi le raha tha munh ke is dohre istemal ke karan uske gale mein thaska lag gaya mainne turant pani ka gilas uthakar uske munh se laga diya pani ke prawah mein gale mein phansa breD ka tukDa niche utar gaya thoDi der khansane khakharne ko baad usne gahri sans li aur baDi hikarat se sir hilaya, “akhir unka ghamanD hi unke liye khatarnak sabit hua sab gaye bhaD mein kaun bacha ab puranon mein? kaun kahan hai aur kya kar raha hai kuch pata nahin kabhi mil bhi jate hain to katra ke nikal jate hain ek bar mainne wasuki parsad ko chaupati mein bansuri bechte dekha usne bansaki patli patli kamachiyon mein bansuriyan sajarkhi theen wo bansuri bech bhi raha tha aur baja bhi raha tha main usse mila nahin sirf uska bajana bechna dekhta raha achanak mere bhitar se ek sawal utha ki agar seksofon pital ke bajaye bans ka hota aur uski lagat bhi bahut kam hoti, to kya main bhi gali gali mein seksofon bechta phirta? mujhe apne bhitar se han ya na mein koi jawab nahin mila
“aur lajawab hona mere liye hamesha ghatak hota hai harkar mainne khoob ziyada sharab pi li aur mere pair laDakhDane lage khu ko kisi tarah sambhalte hue main charni roD ke ek owarheD raste ko par kar raha tha rasta par karne ke baad mainne siDhiyan utarne ke liye jaise hi pahli siDhi par pair rakha, mujhe sabse antim siDhi par raubart master dikhai diya usne bhi sahare ke liye reling pakaD rakhi thi aur naraz nazron se siDhiyon ki unchai ko dekh raha tha wo apni nashe mein Dolti lambi chauDi deh, hai blaD preshar se dhakadhkate sine aur thakan se choor pairon ki bikhri hui taqat ko bator raha tha siDhiyan chaDhna to door, wo khaDe rahne layaq haalat mein bhi nahin tha; magar mujhe bharosa tha ki wo siDhi chaDh jayega wo haar mannewalon mein se nahin tha, chahe jeet janalewa hi kyon na sabit ho
akhir usne honth bheench liye aur ek sath do do siDhiyan chaDhne laga jab wo upar aaya to mainne hath baDhakar use apni taraf kheench liya aur bahut chintit swar mein puchha, “kahan se aa rahe ho? kahan the itne dinon tak?”
wo sirf hanpta raha uski nazren bag mein tange mere seksofon par theen usne puchha, “tum stuDiyo se aa rahe ho?
mainne na mein sir hila diya agar main han kahta to wo meri jeb mein hath Dalkar zabardasti meri din bhar ki kamai chheen leta mere pas rupe itne kam the ki jhooth bolne ke siwa koi chara na tha magar jhooth bolna har kisi ko nahin aata wo fauran samajh gaya ki meri jeb khali nahin hai usne hath se jhapatkar mera collar pakaD liya aur dusre hath se meri jeb tatolne laga “sale jhooth bolta hai? la nikal sau rupe
“collar chhoD pahle ” mainne pratirodh kiya uska mere collar par kasa panja Dhila paD gaya mainne paint ki jeb se jitne rupae the utne nikalkar bahut ghusse aur nafar ke sath uske hath mein thama diye aur apna collar chhuDakar bina kuch bole siDhiyon ki taraf baDha
usne phir jhapatkar pichhe se mera collar pakaD liya rupe wapas meri jeb mein thoons diye aur mujhe ek taraf dhakel diya, “sale, dosti ke lihaz se udhaar mang raha tha koi bheekh nahin mang raha tha ja, aaj ke baad kabhi nahin Dalunga teri jeb mein hatha
mera ghussa uski is harkat se aur bhaDak gaya mainne siDhi chaDhkar donon hathon se uski qamiz ko daboch liya aur use reling tak dhakelte hue le gaya mainne use unchi awaz mein phatkara, “do sal se teri tanashahi sah raha hoon do sal se na tu khu chain se ji raha hai, na mujhe jine de raha hai bol, kya chahta hai too? taklif kya hai tujhe—yah bata!”
“usne bahut naraz nazron se mujhe dekha phir narazgi kam ho gai aur wiwashta DabDaba i usne sir jhuka liya bahut der tak wo yoon hi khaDa raha uski chuppi ne mujhe besabr kar diya nashe aur ghusse ki rau mein mainne use teen chaar tamache jaD diye mere is akasmik hamle se bachne ki usne koi koshish nahin kee; kewal liye latkaye khaDa raha wo apne bhitar chakrati kisi cheez ko pakaDne ki koshish kar raha tha kuch der baad usne sir upar uthaya aur meri banh pakaDkar mujhe ghasitne laga
“ham jis apapte Dhang se siDhiyan utar rahe the, usmen kabhi bhi gir paDne ka khatra tha na to wo khu ko sanbhal pa raha tha, na mujhe sambhalne ka mauqa de raha tha akhir hum donon ke panw ek dusre se ulajh gaye aur us uljhan ne hum donon ko saream tamasha bana diya—ek aisa tamasha jise dikhne ki phursat bhi kisi ko nahin thi
“n usne us hasyaspad sthiti ki parwah ki, na mere sir se bahte khoon ki wo phurti se utha, meri qamiz ka collar pichhe se pakaDkar mujhe khaDa kiya aur bheeD ko dhakelte hue mujhe beech saDak mein le aaya mainne apne aapko chhuDane ki bahut koshish ki, magar raste bhar wo mujhe ghasitta raha aur ek knight beer bar ke samne le jakar usne mujhe aise dhakela jaise koi hawaldar kisi mujrim ko laukap mein dhakelta hai
“bar ke andar bajte tez sangit ki sansanahat aur jalti bujhti rangabirangi raushaniyon ki chakachaundh ne ek pal ke liye mere dil o dimagh ko chakra diya haDbaDi mein main ek betres se takra gaya mainne sahare ke liye us tebul ke kone ko pakaD liya kuch der ke baad mere sir ki chakrahat zara kam hui, magar mujhe samajh nahin aa raha tha ki raubart mujhe wahan kyon dhakel gaya
“baad mein ek cheez mujhe sabse pahle samajh mein i ki wahan Dansing floor par jis popular filmi gane par mujra chal raha tha, uski dhun nitin mehta ne compose ki thi wahi nitin mehta jiske liye raubart ke dil mein nafar ke siway kuch nahin tha
“tabhi wo gana khatm ho gaya ek pal ki khamoshi ke baad ek bahut tez aur dhamakedar Disko geet shuru hua ye geet bhi usi film ka tha nitin mehta ne stiwi wanDar ke elbam se iski dhun lipht ki thi aur usmen rajasthan ka choli ghaghara, bhojapuri ki kamuk thumki, gujrat ka garba aur panjab ke bhangaDe ko bahut bhonDe aur ashlil Dhang se milakar ek bahut hi ajib cocktail taiyar kiya tha behad asardar aur turant dimagh par hamla karne wale haiwi maital ke stroks ke sath Dansing floor par jo laDki i, use dekhte hi hullaD mach gaya usne behat tang choli aur ghaghara pahan rakha tha choli ke pichhle hisse mein kapDa nahin tha; sirf ek patli si Dor thi darshkon ki taraf peeth phere wo apni kamar aur nitamb matka rahi thi kuch der baad Dholak ki ek tez thap se sath usne apna munh ghumaya aur uska chehra dekhte hi main sann rah gaya wo raubart master ki beti wini thi log use lalchai nazron se dekh rahe the; hathon mein not nikalkar use ashlil isharon se apne pas bula rahe the wo nachte nachte not dikhanewale ke pas jati aur baDi ada se muskurakar rupya le leti not ke adan pradan ke dauran do hathon ke beech jo ek lijaliji si cheez thi, use dekhkar mere andar se ek bahut tilmila denewali aur besnbhal ubkai uthi main bar se fauran bahar nikla aur bhitar ka sara kuch saDak par ulich diya us ulti ke turant baad mujhe ye samajh aa gaya ki raubart kyon khu ko chain se jine nahin de raha hai
ek lambi batachit ke baad jab hum cafe se bahar nikle, tab din karwat badal raha tha dhoop ki pari samapt ho rahi thi aur sham ke lambe saye saDkon par phailte ja rahe the raubart ki yaad buDhe ki khushamizaji par phir kisi kale saye ki tarah chha gai wo chupchap chalta chala ja raha tha kuch der baad wo apne apmen itna kho gaya ki use dhyan na raha ki main uske sath hoon chalte chalte wo beech beech mein kuch baDbaDa bhi raha tha uski baDabDahat meri samajh se bahar thi saf zahir tha—wah apne pratisansar mein chala gaya tha—ek dusri duniya mein, jismen sirf smritiyan aur kalpanik yatharth hota hai, wartaman ki thos wastawikta se ekdam pare
wo porchugiz church ki lambi patri par bahut sust qadmon se chal raha tha mainne use chupchap chalne diya usse koi sanwad karne ke bajaye main kewal uski akriti ko niharta raha uski sweD ki shanadar bhuri paint, safed shirt aur shirt ke pichhe gelis ki cross patti, black kaip aur kaip ke niche lahrate safed baal, kandhe par latakta chamDe ka bag aur bag se jhankta seksofon ka gol munh uski akriti aaj esthaitikli itni rich thi ki bite hue kal ki chikkat kangali ka kahin koi abhas nahin tha
wo patri par karke bain taraf muD gaya thoDi door jakar usne phulwale ki dukan se phool kharide aur nazdik ke ek bus staup ke kyu mein khaDa ho gaya mainne usse ye puchhna zaruri nahin samjha ki wo kahan jana chahta hai main bhi uske pichhe kyu mein khaDa ho gaya thoDi der baad ek bus i aur hum donon usmen phurti se chaDh gaye teen chaar staup ke baad hum ek ujaD ilaqe mein utar gaye bus staup ke theek samane ek simitri thi wa simitri ke andar dakhil hua aur sidhe us qabr ke samne jakar khaDa ho gaya, jiske safed patthar par kale akshron se raubart ke janm aur mirtyu ke beech ka antral ankit tha
usne kandhe ke bag utarkar zamin par rakh diya aur phool qabr ke patthar par rakh diye kuch der ke maun ke baad usne apne bag se seksofon nikala aur uske baad gift packet jab usne packet par raipar khola to usmen se pitar skaut ki botal nikli wo botal usne ek arse se sanbhal rakhi hogi, kisi khas mauqe ke liye botal ka Dhakkan jab wo khol raha tha tab mainne dekha, chehre par wahi kal wali akramak bechaini thi, balki uska chikna aur saf suthra chehra kal se bhi ziyada ghatak parimanon ke poorw ka sanket de raha tha Dhakkan kholne ke baad usne sharab aur seksofon ko aamne samne kiya aur puri botal seksofon mein uDail di sharab seksofon ki patli dubli reep mein se bahti hui mauthpis se bahar nikli aur puri qabr kar phaili gai
khali karne ke baad usne puri taqat se botal simitri ke ek kone mein uchhaal di botal hawa mein lahrati hui sidhe ek qabr se salib se takrai aur kanch ke tutne bikharne ki awaz ne simitri ke sannate ko jhakjhor diya
phir ek pal ki khamoshi ke baad usne apne saz ko ghaur se dekha is dekhne mein ek aisi chunauti thi, jo kisi pratiyogi ki ankhon mein antim raunD ke dauran dikhai deti hai
aur ab usne saz ko honthon se lagaya, tab pahli hi phoonk se jo awaz nikli wo kisi bhompu se nikli bhonDi bharrahat se bhi badtar thi buDhe ne gandi gali bakte hue saz ko zor se jhatak diya andar bachi hui sharab ki bunden bahar chhitak gain usne mauthpis ko rumal se ragaDkar saf kiya aur ek lambi phoonk lagai, jo seksofon ki deh mein apna kaam kar gai usne us phoonk ko sanbhalakar simitri ke sannate mein aage baDhaya aur lai ki ek lambi rekha khinchi pahle niche se halke aur muhin, phir upar jakar chauDe aur wazandar swron ka sidha phailab, jismen sam se sam par lautne ki awrittimulak majburi nahin thi, kahin pichhe lautne ki gunjaish nahin thi—sirf aage aur kisi agyat ant ki taraf baDhti arajakta, na use koi rok sakta tha, na tham sakta tha
kuch hi der mein mujhe malum ho gaya ki wo baja nahin raha hai, balki kabristan mein bhatakti kisi lai ya bite dinon ki khoon kharabe se sani yadon se apne uttapt aur kshaudhit phephDon ko shant kar raha hai
mere liye ye zaruri tha ki turant use rok doon, magar wo dhun na to mujhe sunane ke liye bajai ja rahi thi, na main uska ekmatr shrota tha mere alawa wahan us sangit kanfrens mein kuch qabr theen, kuch saliben theen aur kuch ujDe hue buDhe darakht bhi the, jo uske asli shrota the
kuch der baad jab saye lambai ki akhiri had tak pahunch gaye, parinde darakhton par wapas laut aaye aur andhera ahista ahista kaynat ko gherne laga, tab achanak buDhe ne seksofon se munh hata liya kuch der tak wahan sab kuch tham sa gaya, jaise kisi chhatpatati hui cheez ne abhi abhi dam toDa ho buDha bahut tezi se hanph raha tha uski nasen abhi tak tani hui theen wo baDi mushkil se chaar panch qadam aage baDha aur ek peD ke tane se peeth tikakar baitha gaya main uske nazdik gaya to usne mujhe bhi apne pas baithne ka ishara kiya main uski baghal mein baith gaya
“yah ek bitnik dhun thi ” sans sambhalne ke baad usne kaha, “raubart bitnik ke khunkhar karnamon ka bhakt tha
“aur tum?” mainne puchha, “tum kaun se panth ke himayati ho?
“mainne jaz aur inDiyan classical ke beech ka khali rasta chuna tha aur aaj bhi usi raste par chal raha hoon
“yah rasta kahan jakar khatm hota hai?
“wahin jahan se wo shuru hota hai
yani?
yani sam se sam par ”
tumhen isliye aisa nahin lagta kyonki mera saz seksofon hai aur phephaDa theth hindustani mera saz jaz ke bhaDkau prbhawon mein aakar kabhi kabhi bahak jata hai, par mera phephaDa use pakaDkar phir wapas qayde par le aata hai
lekin abhi jo baja rahe the, usmen kahin hindustani qayde ki pakaD nahin thi
“han ” usne swikriti mein sir hilaya phir kisi soch mein paD gaya
“kya tumhein nahin lagta ki tumhari dhunen ‘qayde se chhutkara pakar kisi ghalat raste mein atak gai hain?
usne ek jhatke se meri taraf sir ghumaya aur kuch ashchary se mujhe dekhne laga phir nazren jhuka leen aur bahut sanjidgi ke sath kaha, “yah gaDbaDi raubart ki maut ke baad shuru hui mainne rail ki patri par uski lash dekhi thi uske donon hath kat gaye the aur ek hath ko ek kutta utha le gaya tha us drishya ne meri sans ko kharonch Dala meri phoonk mein ab pahle jaisi sifat nahin rahi ”
“sifat hai ” mainne zor dekar kaha, “utni hi jitni kisi kalakar ke bhitar honi chahiye koi bhi hadasa kalakar ke andar ki khalish ko khatm nahin kar sakta, agar uske andar zara si bhi imandari hai
imandari” usne ghurkar mujhe dekha
“han, jab hum apni kamzoriyon ka dosh samay par maDhne lagte hain, tab hum kisi aur ke sath nahin, khu apne sath beimani karte hain
usne ghusse se phanaphnate hue mera collar pakaD liya chehre se laga ki abhi mujhe tamacha jaD dega, magar agle hi pal uska hath shithil ho gaya, jaise uske bhitar se kuch skhalit ho gaya ho, aur us skhalan mein sirf tatkalik uttejna ka hi nahin, balki ek puri umr se arjit akaD ka ant tha
“mujhe ab sans lene mein taklif hoti hai ” usne bahut wiwash nigahon se mujhe dekha, “main jitni tezi se sans chhoDta hoon, utni hi tezi se sans kheench nahin pata ”
“agar tum khinchte kam ho aur chhoDte ziyada ho to khinchi hui chhoti sans ek lambi phoonk ke roop mein kaise bahar aati hai?” mainne ashchary se puchha
“mujhe malum nahin ye kaise hota sirf ye mahsus hota hai ki har phoonk ke sath mere bhitar se kuch galkar bah raha hai
aur tab pahli bar majhe us par daya i main der tab uska chehra dekhta raha mujhe turant samajh mein aa gaya ki uske bhitar se gal galkar kya bah raha hai mainne uske hath se seksofon le liya—“kuchh dinon tak ise mat bajao kewal lambi sansen lo apne aapko pura sametkar apni maignetiwiti ko baDhao phir tum dekhana, sab kuch wapas bhitar aa jayega jo kuch galkar bah gaya hai, wo rikwar ho jayega tum koshish karo main mein tumhari madad karunga ”
“main kisi bhi tarah ki madad se bahar ho gaya hoon aur ab kuch bhi hasil nahin karna chahta
“kya? kya chahte ho tum?” uska swar zara uncha ho gaya
“main dekhana chahta hoon ki
“kya dekhana chahte ho? ye ki main kaise dam toDta hoon? ki kaise mere munh se khoon ki ulti hoti hai ?
“nahin, main dekhana chahta hoon ki tum seksofon baja sakte ho ki nahin abhi tak to wo tumhein baza raha tha
uski bhaunhen phir tan gain chunautipurn ankhon se kuch der tak wo mujhe dekhta raha, phir mere chehre se nazren hatakar seksofon par nigah Dali apni god mein lekar pyar se use dulraya, phir wapas apne bag mein rakh diya aur uth khaDa hua bag ko ek hath se kandhe par latkane ke baad usne hath mere kandhe mein Dal diya aur hum donon simitri ke bosida andhere se bahar nikalkar shahr ki jagmagati raunaq mein aa gaye
hum patri par chal rahe the uski banh ab bhi mere kandhe par thi mujhe uske hath ka dabaw pahle ki tulna mein kuch narm sa laga uski chaal mein bhi ab pahle jaisi akaD nahin, kham tha
“ghar ki taraf lautte hue mujhe aisa lag raha hai jaise main apne lakshya ki taraf laut raha hoon ” usne bahut dhimi awaz mein kaha
“tumhara lakshya kya hai?” mujhe ummid thi ki wo apni kisi bahut gahri mahattwakanksha ko ukerega ya barson se soe hue swapn ko jagayega
magar uska jawab bahut sankshipt tha—seksofon bajana ”
halanki usne ye baat bahut sahj Dhang se kahi thi, magar usmen ek chhupa hua arth tha mainne us arth ki gambhirta ko banaye rakha raste bhar mainne usse koi baat nahin ki
shahr ki tamam chizen ab bhi utni hi kathor, nirutsahi aur ashlil theen, lekin ab kisi bhi cheez se ulajhne takrane ya use toD maroD dene ki uske bhitar koi talab nahin thi uski is gambhirta se main zara ashwast hua usse widai lete samay mujhe ye bharosa tha ki wo bina kisi pareshani ke apne ghar pahunch jayega
(hans, 1995)
us sham main nariman pwaint ki us phains par leta tha, jo kai kilomitar lambi hai aur samudr tatha shahr ko apni apni sima ko ahsas karwati hai us phains par mere alawa mere jaise kai aur log bhi baithe the unmen se kuch log shahr ki taraf peeth pherkar baithe the aur kuch samudr ki or, lekin mainne donon pahaluon par tangen phaila rakhi theen aur peeth ke bal letkar asman ko dekh raha tha meri dain or samudri lahron ke thapeDe the aur bain taraf tez raftar se bahti mumbi
main samudr aur shahr se tatasth hokar mansun ke badlon ki dhinga masti dekh raha tha aur soch raha tha ki kash, is shahr mein mera bhi koi dost hota! mumbi aane se pahle mainne apne shahr mein dosti yari ki ek bahut jiwant aur sakriy hissedariwali zindagi guzari thi, aur yahan jismon ki itni lathpath nazdikiyat ke bawjud koi bhi cheez mujhe chhu nahin pa rahi thi
main jab mahanagriy jiwan shaili aur apni qasbai zindagi ke beech koi santulan banane ki koshish kar raha tha, tabhi mujhe seksofon ki awaz sunai di seksofon shuru se mera sabse priy wady raha hai radio ya rikaurDon par seksofon ki dhunen sunte hue mujhe jis bhare pure anand ka ahsas hota hai, uski tulna kisi bhi tarah hardik aur sharirik mel milap se ki ja sakti hai
main turant uth baitha jaise mujhe dost ne pukara ho mainne gardan pherkar pichhe dekha mujhse thoDi door ek buDha seksophonist samudr aur Dubte suraj ko ek karun dhun suna raha tha uske kandhe par ek chitkabra kabutar baitha tha uski safed daDhi aur lambe balon ki ek latakti hui lat par suraj ki antim sunahri kirnen paD rahi theen uske saz ka gol kinara bhi ek sunahre tare ki tarah timtima raha tha ye drishya itna sinemaitik tha ki main use dekhta hi rah gaya
jo dhun wo baja raha tha wo kuch jani pahchani si laga smriti par zor dene par yaad aaya, wo peteteks ki dhun ‘blu si enD Dark klauD baja raha tha pahle mujhe laga ye buDha koi wideshi hai, kyonki kisi deshi ke hath aur phephDe par shahnai aur bansuri ke mamle mein to bharosa kiya ja sakta hai, par seksofon par aisi dhun to kabhi ek shaktishali lahr ki tarah uthti hai aur patthron se pachhaD khakar dudhiya phen mein tabdil ho jati hai, to kabhi badlon ki tarah ghumaDkar baras paDti hai; koi bhi bharatiy itne saf Dhang se baja sakta hai—ismen mujhe sandeh tha ye sirf bitnik logon ke unmatt aur uddam phephDon ke bute ki baat thi, jo kisi gharane ke shastriy niymon ke das nahin hote
main zara aur pas gaya aur mainne dekha us buDhe ke kapDe aur uska sharir khu apne prati ki gai behram laparwahi se grast aur trast the uski haalat manasik roop se wikshaipt kisi aise lawaris adami jaisi thi jo mahinon se nahaya na ho, jiske sir aur daDhi ke betartib baal aapas mein chipakkar jataon mein badal jate hain, jiske sharir par mail ki moti parten jam jati hain aur kapDe itne chikkat ho jate hain ki uska asli rang tak pahchan mein nahin aata
mere alawa ab kuch aur log bhi wahan jama ho gaye chunki wo koi lokapriy filmi dhun nahin baja raha tha, isliye logon ki dilchaspiyan dusre akarshnon ki taraf phisal gain logon ke aane jane aur pal do pal ke liye thithakkar khaDe hone ka ye kram kafi der tak chalta raha
kuch der baad hawa achanak sapate se chalne lagi phir wo sapatedar hawa ek tuphan mein badal gai udhar asman mein mansuni badlon ka kala dal tezi se aage baDha aur isse pahle ki koi kuch soch pata, mausam ki pahli barish ne mumbi ke chehre par ek tamacha jaD diya mainne itni achanak akramak barish pahle kabhi nahin dekhi thi, sirf suna tha ki mumbi mein barsat kisi ko maf nahin karti
agle hi pal log idhar udhar bhagne lage, jaise achanak lathi charge shuru ho gaya ho main logon hi haDbaDahat mein shamil nahin hua, kyonki wahan door door tak na koi shade tha, na surakshait thikana isliye na to bhagne ka koi arth tha, na bhigne se bachne ka koi upay
hawa aur pani ke is ghamasan se har cheez ast wyast ho gai, lekin wo buDha abhi tak usi tanmayta se seksofon baja raha tha mausam ke is badle hue mizaj ka us par koi asar nahin hua, sirf dhun badal gai pahle wahan sahil ko sahlanewali chhoti chhoti lahren theen, par ab uske phephDon se andhaD uth rahe the, jaise wo bahar ke tufan ka samana andar ke tufan se kar raha ho jaise jaise barish raudr roop dharan kar rahi thi, hawayen dahaDti hui apne chakrawati ghere ka wistar kar rahi theen aur samud ki lahren apni puri unchai, gati aur taqat se sath nariman pwaint se us pathrile kinare ko dhwast kar dene ke liye biphar rahi theen, waise waise us buDhe ki dhamaniyon se uski nirankush aur pratighati bhawnayen khoon ko khaulati hui bahar aa rahi theen mujhe laga, agar ye tufan kuch der aur nahin thama, to yahan khoon kharabe ki naubat aa sakti hai
aur hua bhi wahi hawa ke ek tez jhapate ke sath ek bahut unchi aur khaar khai hui lahr i aur pathrile kinare ko raundti hui saDak par chaDh gai—pure merin driwe par samudri pani ka jhag dadore ki taraf phail gaya jab lahr wapas lauti, tab mainne dekha—wah buDha lahr ki pachhaD khakar saDak par luDhak gaya tha main turant uski taraf lapka mainne use uthana chaha, magar uska sharir itna shlath ho gaya tha ki uthate nahin bana
aur tab main bhi wahin saDak par baith gaya mainne apni jaangh par uska sharir kheench liya wo bahut buri tarah hanph raha tha mainne uske lambe chhitraye hue balon ko uske chehre se hataya aur ghaur se uske chehre ko dekha wahan mujhe kuch aur nahin, sirf sujan dikhai di—ek aisi sujan, jo un logon ke chehron par tab dikhai deni shuru hoti hai jab we apne har dukh aur piDa ka ilaj sharab se karne lagte hain
main kuch der yoon hi baitha raha mujhe kuch samajh mein nahin aa raha tha uski sansen abhi tak tez theen aur har sans ke sath sharab ke bhabhake uth rahe the mainne uske gal ko thapthapaya usne ankhen nahin kholin mainne uske kandhe jhanjhoDe, magar koi baat nahin bani main ye sochkar ghabra utha ki kahin wo meri bahon mein dam na toD de mainne idhar udhar nazren dauDain saDak chhap logon ko panah milna mushkil tha aur saDak par taiksiyon aur karon ka karwan itni tezi se guzar raha tha ki main to kya, koi zalzala bhi use rok nahin sakta tha
mere pichhe samudr abhi tak pachhaDen kha raha tha aur upar asman mein badlon ki ek aur tukDi kisi baDe akramn ki taiyari ke sath aage baDh rahi thi, magar main us buDhe ko bahon mein liye chupchap baitha raha mainne ek bar phir uske chehre par nazar Dali aur mujhe laga ye chehra jawani mein bahut sundar raha hoga umr, kathin halat aur kharab adton ne halanki uske chehre ka saundarya chheen liya tha, lekin phir bhi wo arthapurn tha aur abhi srijanatmakta se rikt nahin hua tha
chaar panch minat ki behoshi ke baad usne ankhen kholi kuch der tak jhipajhipane ke baad uski ankhen mere chehre par sthir ho gain uski palken khoob bhari theen aur ankhon ke andar marn aur ksharan se lipti ek kali aur ashubh chhaya saf dikhai de rahi thi mere chehre par ke mitr bhaw ne use rahat di hogi, tabhi to wo mand mand muskaya aur apna hath mere kandhe par rakhkar uth baitha kuch hi der mein wo is tarah baten karne laga jaise kuch hua hi na ho mujhe ummid nahin thi ki wo yoon chutakiyon mein sahj aur sajag ho jayega
amtaur par pahli mulaqaton mein log kya karte ho?, kahan rahte ho? ya kahan ke rahnewale ho? jaise aupacharik sawal karte hain, lekin usne kuch ajib sawal liye “tumhen barish mein bhigna achchha lagta hai?
—“tum hawa se baat kar sakte ho?”
—kya tumhein sharab pine ke baad apne bhitar ek dukhabhri khushi mahsus hoti hai?
mainne in tamam sawalon ka jawab han mein diya to wo khush ho gaya
“tab to tumhein sangit se bhi lagaw hoga, hai n?
“han ” mainne kaha, “khastaur se seksofon mujhe behad pansad hai
“are wah! tab to apni khoob jamegi ” usne baDi garmajoshi se apna dayan hath upar uthaya aur meri hatheli se takrakar ek purazor tali bajai
“ap bahut achchha bajate hain bharat mein bhi itne parphekt seksofon player hain ye mujhe malum nahin tha ”
apni tarif sunkar khush hone ke bajaye usne kaDwa sa munh banaya aur meri taraf se dhyan hatakar garajte larazte samudr ko dekhne laga barish ki tez raphtar bunden samudr ke thos pani se takrakar dhuan dhuan ho rahi theen us dhundhuwate pani ko wo kuch der tak yoon hi dekhta raha phir kuch sochkar achanak meri tarah munh phera, “suno, tumhare pas kuch rupe hain?
main uske is apratyashit sawal se zara chaunka apni jeb mein hath Dalte hue mainne socha—kahin ye koi mantarbaz to nahin hai? lekin jab mainne dekha ki paisa mangte hue uske chehre par kisi bhi tarah ki hinta ka bodh, koi sharm, jhep ya lalach nahin hai to main thoDa ashwast hua mainne jeb se purse nikalkar puchha, “kitne rupe chahiyen?” usne mere hath se purse le liya—utni hi sahajta se, jaise mere purane dost mere hath se cigarette ka packet le lete the usne purse kholkar sau sau ke chaar panch not nikal liye aur purse mere hath mein thamakar bina kuch kahe jane laga
“suno !” main uske pichhe lapka
usne muDkar mujhe dekha
“agar zarurat hai to aur le lo ” mainne purse ki taraf ishara karte hue kaha, “lekin ek shart hai—aj ki sham aur ho sake to raat bhi tumhein mere sath guzarni paDegi ”
main koi ranDi nahin hoon ”
usne ye shabd itne kaDak lahje mein kah ki main sakapka gaya mainne kaha, “nahin nahin, darasal is shahr mein mera koi dost nahin hai main tumhare sath thoDa waqt guzarna chahta hoon ”
“main koi sauda nahin kar raha hoon sirf tumhare sath thoDa waqt guzarna chahta hoon ”
kyon? sirf mere sath kyon?
“isliye ki sharab pine ke baad mujhe apne bhitar ek dukhabhri khushi mahsus hoti hai mujhe barish mein bhigna achchha lagta hai, main hawa se baten kar sakta hoon, mujhe sangit se pyar hai aur khastaur se peteteks ka main murid hoon
is bar uske zara ashchary se mujhe dekha phir mere kandhe par hath rakhkar muskaya aur mere gale mein galabhiyan Dalkar chalne laga usne puchha, “tum peteteks ko kab se jante ho?
“panch sal pahle mainne record par wo dhun suni thi, jise kuch der pahle tum baja rahe the
“nahin, main us dhun ko nahin baja raha tha ” usne turant meri baat ka khanDan kiya, “wah dhun hi mujhe baja rahi thi
“main samjha nahin?
tum samjhoge bhi nahin is baat ko samajhne mein waqt lagta hai
uske is buzurgana lahje se mujhe thoDi koft hui phir mujhe laga—bhale hi wo mere gale mein hath Dalkar chal raha hai, lekin akhiraka wo umr mein mujhse doguna baDa hai, isliye uske is rawaiye se mujhe koi ashchary ya apatti nahin honi chahiye mainne chalte chalte yoon hi poochh liya, “apne seksofon bajana kab se shuru kiya?
“pachchis sal pahle gowa mein ek hippi ne mujhe is mithe zahr ka swad chakhaya tha phir dhire dhire mujhe iski lat lag gai
“kya tumne sari zindagi isi nashe mein guzar dee?
“nahin, pahle main thoDa hosh mein rahta tha aur tab main seksofon ke sath wahi saluk karta tha jo ek badamizaj ghuDaswar apne ghoDe ke sath karta hai lekin jab se main nashe mein rahne laga hoon tab se ye mere upar sawar ho gaya hai tum shayad nahin jante—badla lene ke mamle mein iske jitna shatir aur mahir dusra koi saz nahin hai abhi kuch hi der pahle tumne dekha hoga, wo mujhe kitni buri tarah baja raha tha agar samudr ki unchi lahr ne mujhe usse chhuDaya na hota to aaj wo meri jaan hi le leta
“phir tum is zahrile nag ko hamesha apne sath kyon rakhte ho?
usne seksofon ko bahut ajib nazron se dekha, phir muskurane laga, “kahani zara uljhi hui hai chalo kahin baithkar baat karte hain
usne mera hath apne hath mein tham liya patri par paidal chalnewalon mein kewal hami do the jo pani se lithDi hawa aur hawa se lipte pani se sansarg se romanchit ho rahe the us gili hawa ne achanak hamare bhitar pyas jaga di—ek aisi kuDakuDati pyas, jo sirf sharab se bujhai ja sakti thi
buDhe ke hath ki pakaD achanak mazbut ho gai saDak cross karne ke liye wo aage baDha aur samudr kinare ki patri ko chhoDkar samne us patri par chaDh gaya jo machalte hue shahr ki halachlon ke kinare kinare kafi door tak phaili thi
kuch hi der baad donon ek beer bar ke samne khaDe the darwaze par khaDe darban ne tapak se salam bajakar darwaza kholne ke bajaye zara jhijhakte hue pareshan nigahon se hamare gile labadon ko dekha, khastaur se buDhe ke kichaD se sane phachaphchate juton aur chikkat kapDon ne uski nak bhaunh ko sikuDne ke liye majbur kar diya, magar chunki hum gerahak the, koi bhikhari nahin, isliye majburan use darwaza kholana paDa
hum andar dakhil hue aur farsh par bichhe khubsurat kalin par bina koi taras khaye apne juton ke badnuma dhabbe pichhe chhoDte hue hall ke bichobich pahunch gaye hum jaise hi kursi par baithe, ek bahut saji dhaji laDki hamare pas i usne peshewar muskurahat ke sath mujhse hath milaya aur buDhe ke nazdik baithkar uski gardan mein apni banh Dal di
“maska mat mar!” buDhe ne apni gardan se uska hath hata diya, “ja jaldi rum lekar aa
wo thoDi banawati narazgi zahir karti hui uthkar jane lagi phir achanak ek khas ada se apne baal pichhe ki or jhatakte hue mujhse mukhatib hui, “kya aap bhi rum lenge?
mainne han mein gardan hila di usne ekabargi bahut gahri nigahon se mujhe dekha, jaise mujhe pure ka pura ek hi bar mein nigal lena chahti ho mainne nazren jhuka leen
sharab ke aane ka intizar karna buDhe ne zaruri nahin samjha wo bina kisi bhumika ke apni kahani batane laga uske lahje, bolne ke liye chune hue shabdon aur abhiwyakti mein koi taratamy nahin tha ek silsilewar tartib se bolte batane ke bajaye wo yahan wahan aur jahan tahan se tukDe bator raha tha seksofon ke bare mein bolte bolte achanak wo bar mein kaam karnewali laDakiyon ke bare mein bolne laga laDakiyon ko phatkarne puchkarne ke baad usne sharabnoshi par apna sankshipt, magar saragarbhit wyakhyan samapt hote hi wo achanak ek kabristan mein ghus gaya apne ek dost ki kabr ke samne thoDi der chupchap khaDe rahne ke baad wo lagbhag bhagte hue bahar nikla aur phir hath pakaDkar mujhe apne pichhe khinchte hue dadar ki ek chaal mein le gaya, jahan bees pachchis sal pahle wo apne kuch sazinde sathiyon ke sath rahta tha we sab filmon ke liye baikagraunD music compose karte the us waqt ki behtarin amdani ko badtarin Dhang se kharch karte the
ek ghante ki batachit ke baad kul milakar jo graph bana, wo kai tarah ke utar chaDhawwala graph tha us par aur uske tamam sathiyon par koi na koi dhun sawar thi we us tarah ke dhuni log the jo na to duniya ka koi lihaz karte hain, na apne aapko koi riyayat dete hain; we apne liye koi sankirn sima nirdharit nahin karte unmen koi ek kendriy bhaw ya wishesh gun nahin hota we gunon aur durgunon ke beech ke farq ko mitate hue apni ek alag aur ajib si haalat bana lete hain
uske us daur ke lagbhag sabhi sathi sangit aur khabt ke shikar the unmen se kuch jo samajhdar the, baad mein filmon mein sangit nirdeshak ya e grade ke artist ban gaye baqi sab wahin ke wahin rahe, lekin un dinon kaam lagatar milta tha aur amdani achchhi hone ko karn we nae akarshnon aur lalchanewale kamuk aur sajile bazar ke samne apne aapko kharch karne se nahin rok pae we sab sharabi the, juari the, weshyagami aur udharkhor the, magar shuru se akhir tak kalakar the yahi we sazinde the, jinhonne bharatiy film sangit ko parwan chaDhaya tha isi piDhi ne azadi ke baad ke bharatiy man ki gahraiyan unchaiyan napi theen inhin besure piyakkDon ne bhawnaon ke sabhi tar chheDkar aur sans ke sath sans milakar apne yug ki dhaDaknon ko lai di thi
DeDh do ghante baad jab hum bar se bahar nikle tab asman mein badlon ke beech phir kanaphusi chal rahi thi, lekin chunki hum pahle hi ek baDe andhi tufan ka samna kar chuke the aur sirf bahar se hi nahin, bhitar se bheeg chuke the, isliye ab kisi bhi tarah ke gilepan se hamein gurez nahin tha
mera buDha dost sharab ke teen pyalon ke baad zara kaDak ho gaya tha usne apni peeth sidhi kar li aur sina tankar itne garw se chalne laga jaise pure mumbi ka malik ho uske is malikana rawaiye mein daru pikar bhaDas nikalnewale kisi kamzor aur kayer adami ki jhuthi akaD nahin, balki ek maulik wirodh par adharit akramakta thi
hum donon chalte ja rahe the bina ye tay kiye ki jana kahan hai na use kahin pahunchne ki jaldi thi, na mujhe hamari uddeshyhinta is shahr ki uddeshyaprak wywasttaon ke sath takkren le rahi thi phutpath par wi t ki taraf janewalon ki ek tez raftar bheeD mein hum donon kisi gile labade ki tarah ulajh gaye the bheeD ki chusti aur furti ke baraks hamara Dhilapan sirf thakan ya nashe ki wajah se nahin tha, balki ye ek pratikriya thi mujhe ab ye pakka bharosa ho gaya ki mera ye buDha dost bhi us chust durust aur phataphat kamyabi ke khilaf hai jo manushya se uska nirdosh anand chheen leti hai
mainne chalte chalte uske chehre par nigah Dali wo madmast tha uski chaal mein badlaw aa gaya tha chalte chalte wo ek dukan ke samne achanak rook gaya dukan ke agle hisse mein ek baDa sho kes tha jismen tarah tarah ke wady yantr rakhe gaye the unke beech ek bahut baDa ilektraॉnik ki board paDa tha wo buDha us ki board ko baDe ghaur se dekhne laga mainne socha shayad usmen koi ghaur karne layaq wisheshata hogi, par mainne dekha—buDhe ke chehre par achanak ek baDi lahr i aur ek hi pal mein uska mizaj badal gaya wo us wady ki taraf kuch aise andaz mein dekh raha tha mano wo koi upkarn nahin, balki ek jita jagata shatru ho ek khatarnak tanaw aur tikhi ghrina se uska chehra kanpknpane laga
“tum ise jante ho?” usne ki board ki taraf ishara karte hue mujhse puchha
“han ” mainne kuch sochte hue kaha, “yah ek japani sinthesaizar hai
“nahin,” usne unchi awaz mein kaha, “yah ek tanashah hai! hatyara hai! isi ki wajah se das babu aur phransis ki jaan gai yahi hum sabki badhali ka ekmatr zimmedari hai
mainne bahut ashchary se sho kes ki taraf dekha us kai push batnon aur pyano jaisi chabiyonwale wady mein mujhe koi aisi khatarnak khasiyat nazar nahin i
sho kes se nazren pherkar jab mainne buDhe ki taraf dekha, to mujhe apne chehre par ek ajib si ainthan nazar i uska sharir kuch is tarah kanp raha tha mano use tez bukhar ho uski is aswabhawik uttejna se mujhe bechaini mahsus hui mainne uske kandhe par hath rakha aur use phuslate hue aage le chalne ki koshish ki pahle to wo tas se mas nahin hua, lekin phir jaise koi daura paD gaya ho, usne lapakkar phutpath se ek int ka addha utha liya mainne turant uska hath pakaD liya aur baDi mushkil se use kanch phoDne se roka mere is hastakshaep se wo aur bhi biphar gaya usne mujhe ek taraf jhatak diya aur phutpath ki bheeD ko bahut wahiyat tariqe se dhakelte hue aage baDha uske munh se anargal wakyon aur galiyon ki bauchhar lag gai uske andar uthe is chakrawarti tufan ke rookh aur gati ka anuman lagana mushkil tha sirf itna saf samajh mein aa raha tha ki us chakrawati ghere ke kendr mein wahi ilektraॉnik instrument tha jise wo bhi naqalchor kahta tha to kabhi haramkhor
phir wo un sangit kampaniyon ko galiyan dene laga jinhonne aise naqli wadyon aur saunD rikarDing ki nai aur chalak taknikon ke sahare bhonDe filmi giton ke auDiyo cassette ka holsel market phaila rakha tha baad mein wo un logon ko bhi kosne laga jinhone aise wadyon ka nirman kiya tha, jo dusre tamam wadyon ki hu ba hu naqal karne mein saksham the bazar mein aate hi sangit ke thekdaron ne use turant apna liya tha aur un sazindon ko kaam milna band ho gaya jo arse se kewal isi kaam ya hunar ya kala ke sahare zindagi basar kar rahe the
“ab in haramzadon ko akhir kaun samjhane jaye? unko to sirf apna dhandha fayda nazar aata hai kala aur kalakar jayen bhaD mein! kise khabar hai ki purane sazinde kahan hain? kise fir hai ki agar we bajayenge nahin to kya karenge? jis adami ne zindagi bhar wayalin bajai ho, kya wo tamtam chala sakta hai? kya tabla bajanewale hath masaj ka kaam kar sakte hain? pyano par thiraknewali ungliyon se agar qasai ki dukan mein murgiyon ki anten chhantwai jayen to kaisa lagega?
wo pata nahin kisse sawal kar raha tha thoDi hi der mein wo ye bhi bhool gaya ki main uske sath hoon mujhe uske chehre par pagalpan ke chinh saf dikhai diye wo achanak phutpath se utarkar saDak cross karne laga wahan na to jebra cross tha, na paidal chalnewalon ke liye koi siganla chalu traiphik mein uske yoon achanak ghus jane se ek sath kai wahnon ka santulan bigaD gaya ek city bus ki chapet mein aane se wo baal baal bacha, magar use bachane ke chakkar mein ek taxi marg wibhajak se takra gai aur taxi ke achanak rukte hi pichhe tez raftar se aati kai karen aur texiyan asantulit ho gain taiksiyon aur karon ke Draiwar ghusse se phanaphnate hue niche utre aur buDhe ko gher liya traffic hawaldar ne buDhe ko jab us ghere se bahar nikala, to mainne dekha unki nak aur jabDe se khoon bah raha tha magar wo khoon ponchhne ya ghaw ko sahlane ke bajaye chetawni bhare shabdon mein pata nahin kise galiyan bak raha tha hawaldar ne uska collar pakDa aur ghasitte hue use saDak ke dusre kinare tak le gaya
traffic niyantrit hone mein thoDa samay laga is beech meri nazren barabar buDhe ka pichha karti rahin wo laDkhaDate hue phutpath par chaDha aur mere dekhte hi dekhte agle sarkal mein dain taraf muD gaya
paidal chalnewalon ke liye jaise hi traiphik khula, main tezi se us sarkal ki taraf bhaga sarkal ka moD muDne ke baad mainne nazren dauDai us lambe gile raste mein chhatariyon ke jhunD ke beech uska bhigta aur bhagta hua sharir mujhe dikhai diya main bahut mushkil se uske qarib pahunch paya mainne jhapatkar uska kandha pakaD liya usne muDkar mujhe dekha—uske chehre par ghunson aur thappDon ke dagh ubhar aaye the nak se bhi abhi tak gaDha lal khoon tapak raha tha aur ankhon mein ajib si ajanbiyat si thi chaurahe ke ek red signal ki raushani mein uska bhawahin, pathraya sa chehra mujhe bhayanak laga
tumhara ghar kahan hai?” mainne puchha
qarib se guzarte wahnon ke horn ki wajah se shayad use meri baat samajh mein nahin i
“tumhara ghar kahan hai?” mainne is bar uske kan ke pas apna munh le jakar puchha uske chehre par ab bhi thos sanwedanhinta chhai rahi tisri bar wahi sawal puchhne ke baad bhi jab usne unhin bhawashuny ankhon se mujhe dekha to main samajh gaya ki baat had se guzar gai hai aur ab sharab, khoon aur barish se bhigi hui uski deh ko akele bhatakne ke liye chhoD dene se baDa koi gunah nahin ho sakta
main bahut pareshan ho gaya samajh mein nahin aa raha tha ki kya karun wo agar sirf bimar hota, to bhi main use sanbhal leta, magar mamla dimagh ka tha aur uske pagalpan mein agar mujhe wo yuktisangat wyawastha na dikhti, jise hum ‘jiniyas kahte hain, to shayad main use wahin chhoDkar chala jata, kyonki mujh par samaj sewa ka daura kabhi nahin paDa tha aur na hi mere andar koi aisa mother teresai narm kona tha jismen main aise paglon aur lawarison ko panah deta
main tezi se soch raha tha ki kya karun achanak mujhe khayal aaya ki shayad us beer barwali laDki ko buDhe ke ghar ka pata malum ho mainne turant ek taxi rukwai buDhe ko sahara dekar taxi mein baithaya aur Draiwar ko senDharst roD le chalne ko kaha
jab hum wapas senDharst roD ke bar mein pahunche, tab raat ke saDhe gyarah baj chuke the Draiwar ne jaise hi break lagaya, buDhe ka shlath sharir meri god mein luDhak gaya wo ya to so raha tha ya behoshi ke aalam mein tha mainne use sanbhalakar seat par lita diya
“tum panch minat yahin ruko, main abhi aata hoon ” mainne Draiwar se kaha aur taxi se niche utar aaya Draiwar zara pasopash mein paD gaya use sandeh tha ki kahin main bina kiraya diye is musibat ko uske gale na maDh jaun mainne pachas ka ek not uske hath mein thama diya aur siDhiyan chaDhkar bar mein andar dakhil hua
darwaza khulte hi sangit ki bahut tez awaz ne mujh par hamla kiya wo khopaDi ko sansana denewala sangit tha mainne dhwaniyon ka itna bhayankar istemal pahle kabhi nahin suna tha kuch der ki chakrahat ke baad halki nili raushani mein mainne us laDki ko khojna shuru kar kiya wo Dansing floor par kuch aur laDakiyon ke sath nach rahi thi mainne aage baDhkar uska dhyan apni or akarshait karne ki koshish ki wo ek maldar adami ko rijhane ke liye bar bar apne baal lahra aur kulhe matka rahi thi samne ki kursi par baitha wo adheD aiyash, jiske gale aur ungliyon mein sona bahut ashlil Dhang se chamak raha tha, us laDki ki har ada par sau sau ke not nichhawar kar raha tha
bahut koshish aur ishare karne ke baad bhi jab laDki ne meri taraf dhyan nahin diya to akhiraka mujhe bhi jeb se not nikalne paDe not hath mein aate hi mainne dekha—bar ke har waiter, stuart aur Dansars ka dhyan ab meri taraf tha laDki ki taraf mainne sirf ek nazar se dekha aur wo muskurati hui mere pas aa gai not uske hath mein dene se pahle mainne do—tin bar unchi awaz mein kaha, “mujhe tumse kuch zaruri baat karni hai
dusri awazon ke karan use meri baat samajh mein nahin i wo hath pakaDkar mujhe pichhle darwaze ki taraf le gai darwaze ke us taraf restaran ka kitchen tha
“han bolo jaldi, kya baat hai? main apna customer chhoDkar i hoon
“sham ko main jis buDhe ke sath aaya tha, kya tum use janti ho?
“han han, wo mera regular customer to nahin hai, par aata hai to sabki tabiat khush kar deta hai
uski tabiyat kharab hai kya tum uske ghar ka pata janti ho?
“pakka pata nahin malum, lekin shayad wo dadar ke kabutarkhane ke asapas kisi chaal mein rahta hai kya to nam hai us chaal ka yaad nahin aa raha abhi
“dekhiye, main is shahr mein naya hoon mujhe yahan ke raston ke bare mein kuch nahin malum kya aap is mamle mein meri madad kar sakti hain?
nahin ” usne saf mana kar diya, “ap samajhte kyon nahin? main apnakastmar chhoDkar nahin ja sakti
main chup ho gaya bar se bahar nikalte hi mainne taxi ke pas jakar khiDki se andar jhanka buDha abhi tak jyon ka tyon leta tha—kisi lash ki tarah mainne darwaza khola aur andar seat mein dhans gaya
dadar le chalo!” mainne Draiwar se kaha mujhe apni awaz bahut thaki hari si jaan paDi
Draiwar ne turant chabi ghumakar injan start kiya thoDi door jakar ek yu turn mara aur lambi chauDi saDak par top gear mein taxi dauDa di
mainne ek cigarette sulga li aur apne wicharon ko khamoshi se chabane laga yahan tak ki meri kanapatiyan dukhne lagin un chabaye hue wicharon ki lugdi mein se pata nahin kab shunya nikla aur us shunya ke bojh se dabkar jane kab meri ankhen mund gai
Draiwar ne jab kandha thapathpakar mujhe neend se jagaya to kuch samajh hi nahin aaya mainne apna sir zor se jhatakkar khumari aur neend ko door haDkaya aur buDhe ko hosh mein lane ke liye hilaya Dulaya, lekin sirf hoon hoon karne ke alawa usne koi harkat nahin ki akhir niche utarkar mainne uski bahon ke niche hath Dalkar use darwaze se bahar kheench liya main jab buDhe ke sharir ko ghasitte hue saDak ke kinare le ja raha tha, tab mainne dekha ki bawjud behoshi ke buDhe ne apne bag ko nahin chhoDa tha uska pura sharir behosh tha, lekin wo tha puri tarah hosh mein tha jis hath se usne bag se bahar jhankti seksofon ki gardan ko pakaD rakha tha
mainne uski deh ko kabutarkhane ki gril se tika diya palatkar taxi ka bhaDa chukaya aur ristawॉch ki tarah dekha sawa teen baj rahe the ye raat aur subah ke beech ki aisi ghaDi thi jab na to main kuch kar sakta tha, na kahin ja sakta tha kuch der tak idhar udhar ki sochne ke baad main bhi buDhe ke pas gril se peeth tikakar baith gaya
raat ke us akhiri pahar mein jab sari harakten so chuki theen aur kahin se koi awaz nahin aa rahi thi, mujhe apne dil ki dhaDaknen sunai deen main apne bare mein sochne laga apne bap ki daulat se dushmani mol lene ke baad main jis tarah se tuchchh aamod pramod mein zindagi ko kharch kar raha tha, usmen kisi samajhdar anurag ki koi gunjaish nahin thi apni swtantr apratibaddhta ki shekhi, jiske liye mainne apne career tak ko lat mar di thi, ko qayam rakhne ke liye main hamesha jis sukhi akaD ka istemal karta tha, usmen barish, sharab, khoon aur seksofon ki ek karun dhun ne nami la di thi main us nami ke narm agosh mein ek thake hue bachche ki tarah so gaya
ek sath kai pankhon ki phaDphaDahat ne mujhe neend se jagaya mainne ankhen malte hue idhar udhar dekha—buDha nadarad tha ek bar phir peeth ke pichhe pankhon ki phaDphaDahat sunai di mainne palatkar dekha, wo buDha kabutarkhane ke bichombich leta tha aur uske jism par kai kabutar chahl qadmi kar rahe the, itne adhik ki uska pura sharir unse pat gaya tha yahan tak ki chehra bhi theek se dikhai nahin de raha tha mujhe sandeh hua, kahin wo mar to nahin gaya, lekin mujhe apne is bewqufana sandeh par turant sharm i, kyonki mare huon par kaue manDrate hain, kabutar nahin
main kabutarkhane ki gril phandakar andar kuda meri is kood phand se ghabrakar sare kabutar uD gaye main buDhe ke qarib pahuncha aur tab mujhe uska chehra dikhai diya—swasthya aur muskurata hua chehra, jismen kahin pichhli raat ke upadraw ke chinh nahin the uske chehre aur tamam kapDon par bajre, jwar aur maki ke dane chipke hue the shayad usne khu apne upar kabutron ka chara phaila rakha tha
usne sneh se meri taraf hath baDhaya mainne jaise hi uske hath mein hath diya,ek kabutar aakar phir uske hath par aa baitha, wahin chitkabra kabutar, jiske pair mein kala dhaga bandha tha, jo kal sham buDhe ke kandhe par baitha tha
“tum chupchap khaDe rahna mera hath chhuDane ki koshish mat karna phir dekhana, ye dhire dhire tumhein bhi apna dost bana lega
mainne buDhe ki baat par sahamti mein gardan hilai aur khushi bhare ashchary ke sath dekha—wah kabutar, jo hum donon ke hathon ke milan par baitha tha, usne jhatke se gardan uthakar sidhe meri ankhon mein dekha uski ankhon mein kautuhal aur ajanbipan tha kuch der tak mujhe dekhte rahne ke baad usne gardan jhukai aur do teen qadam aage baDhkar buDhe ke hath se mere hath par aa gaya mujhe uske panje ke khuradre sparsh se halki si siharan hui, lekin mainne apne hath ko kanpne nahin diya usne gardan uthakar phir meri taraf dekha aur zara jhijhakte hue do qadam aur aage baDha kuch der tak meri wishwasniyata ko azmane ke baad teen chaar qadam aage baDhkar meri kalai aur banh ke beech pahunch gaya ab uski ankhon mein koi Dar nahin tha agle hi pal wo jhapatkar mere kandhe par aa baitha mainne dhire dhire apna hath aage baDhaya aur uske pankhon ko sahlane laga
“yah pahle raubart ka dost tha ” buDhe ne mere kandhe par baithe kabutar ko baDe pyar se dekhte hue kaha
“use gaye kitne din ho gaye?” mainne kabutar ki deh par hath pherte hue puchha
buDha kuch der chup raha wo us kshan ki yaad se thoDa ghamgin ho gaya ek do pal ki chuppi ke baad usne baDi mushkil se munh khola, “aj uski pahli barsi hai
mainne dekha, pichhli raat ki wo yatana aur hatash phir uske chehre par manDrane lagi mainne use us siknes se bahar nikalne ke liye zor lagakar uske hath ko apni or khincha aur uski banh mein apni kalai Dalkar use khaDa kar diya kaha, “chalo tumhein ghar tak chhoD doon
usne zara ashchary se meri taraf dekha—“tumhen kaise malum hua ki main yahan rahta hoon?”
“kal jab tum hosh kho baithe the, tab main phir usi bar mein gaya tha
“lekin wahan to mujhe koi nahin janta, siway us laDki ke
“han, usi laDki ne mujhe pata diya
kya wo mere bare mein kuch kah rahi thee?
“nahin, wo bahut busy thi
buDhe ne ek gahri sans li phir uske chehre ka bhaw bigaD gaya, jaise usne koi kaDwi cheez pi li ho wo mere kandhe ka sahara lekar aage baDha hum saDak par karke bain or se ek gali mein muD gaye usne meri taraf dekhe baghair puchha, “jante ho wo laDki kaun thee?
mainne inkar mein sir hilaya aur jigyasa se uski taraf dekha wo kuch kahna chahta tha, par kahte kahte rah gaya uske chehre par phir kaDwepan ko nigalne ka kasht ubhar aaya
age jakar wo ek aur patli gali mein muD gaya wo mushkil se aath das pheet chauDi gali thi, jiske donon taraf chalen theen lakDi ke baramdon aur siDhiyonwali bahut purani gali aur sili hui chalen, jinke har kone mein thahri hui basi hawa, umas, ub aur andhere ne sthai qabza kar liya tha
charamrati hui siDhiyon par reling ke sahare chaDhne ke baad hum dusre male ki chauthi kholi ke pas pahunche usne bahut zor zor se hanphate hue apni jeb se chabi nikali aur darwaze ka tala khol diya
main ab chalta hoon ” mainne usse winamr shabdon mein ijazat li
usne zara pyar bhari narazgi se mujhe dekha, “main abhi itna gaya guzra nahin hoon ki tumhein ek kap chay bhi na pila sakun ” wo hath pakaDkar mujhe andar kheench le gaya
andar saman ke nam par sirf ek palang aur ek mez thi palang ke upar ek bahut ganda bistar bichha hua tha jiske sirhane paitane ka koi thikana nahin tha kamre ki diwaron par jab meri nazar gai to mujhe bahut ashchary hua diwaron par jagah jagah kilen gaDi hui theen aur un par tarah tarah ke wady tange the sabse pahle meri nazar table par gai uska chamDa udhaD gaya tha aur uske andar chiDiyon ne ghonsla bana liya tha table ki baghal mein ek tuta hua wayalin tha, jiske tar nadarad the diwar ke kone mein sarangi thi, makDi ke jale se ghiri hui sarangi ke upar bansuri latak rahi thi, jiske chhedon mein faphund jam gai thi aur uske mauthpis ko dimak ne chat liya tha niche farsh par harmonium paDa tha, jiski haDDi pasli ek ho gai thi
main tab tak in awsheshon ka awlokan karta raha tha jab tak buDha baramde mein jakar kisi ‘chhokre ko chay ke liye awaz dekar laut nahin aaya chay lekar jo chhokra aaya, usne chay ki pyaliyan hamare hath mein thamane ki bajaye apni jeb se ek chhoti si notabuk aur qalam nikali buDhe ne donon chizen hath se le leen wo us udhaar khate ke gande pannon ko ulatne laga phir ek panne par kuch likhne ke liye jaise hi usne qalam aage baDhai, laDke ne beech mein tok diya, “abhi ki do kating mila ke sattar chay ho jayengi seth mere upar bom mar rela hai jabhi paisa denga tabhi chay dena aisa bolela hai ”
buDhe ne kewal ek bar us laDke ki taraf dekha phir jeb se raat ke pani mein bhige hue not nikale ek pachas aur ek sau ka not nikalkar laDke ke hath mein thamaya, udhaar khate ko phaDkar gallery se bahar khuli saDak par phenk diya chay ki pyaliyan uske hath mein baha di
laDke par uske is wywahar ko koi asar nahin paDa wo chupchap gilas uthakar chala gaya
kuch der tak wahan khamoshi chhai rahi phir achanak uske upar daura paD “tum baithe rahna main abhi aata hoon
usne kaDwa sa munh banaya aur gallery par kare dhaDadhaD siDhiyan utar gaya
buDhape ki tunakamizaji kai bar bachpane ki nadani se bhi badtar sabit hoti hai aur phir is buDhe ka mamla to aur bhi gaDbaD tha mujhe laga ki is bakheDebaz adami ke sath agar main ziyada der tak raha to kabhi bhi kisi baDe jhanjhat mein phans sakta hoon ek pal ke liye mujhe ye khayal aaya ki chupchap yahan se khisak jaun, lekin meri jigyasa abhi shant nahin hui thi main aur ziyada gahrai mein jakar is adami ke bhitar ke us swar ko sunna chahta tha, jo duniya ke kai angaD khangaD prlapon ke niche daba hua tha
mujhe ek Dar ye bhi tha ki kahin us swar ko khojte khojte main itna niche chala jaun ki wapas upar aana mushkil ho jaye, kyonki niche kai thi, uljhi hui karuna thi aur kai pathrile kataw the, jinmen ulajh phansakar main Doob sakta tha lekin bawjud is Dar ke, meri manःsthiti us lalchi gotakhor jaisi thi jo dakshainawart shankh pane ke liye zindagi bhar gote lagate rahta hai, bina jaan ki parwah kiye, bina ye jane ki jo cheez wo pana chahta hai, uski asli pahchan kya hai
jab pichhli baten yaad karta hoon to mujhe apni charam jigyasa ke karan apne aapko dosh dene ka koi karan nazar nahin aata meri utkantha ke pichhe chhupi hui nichata nahin thi main bus thoDa sa ulajh gaya tha aur chunki ye uljhan bahut nazuk thi isliye apni tamam tatasthata ke bawjud main is chipachipahat se khu ko chhuDa nahin pa raha tha
uske ajayebghar mein uska intizar karte karte akhir main thak gaya raat ki nishachari ke karan mera sir bhi sansana raha tha kuch hi der mein mujhe jhapki lag gai ek halki aahat se jab meri ankhen khuli to mainne dekha, wo mere samne do pyale lekar khaDa tha, lekin usmen se chay ki khushbu nahin, deshi sharab ke bhabhke uth rahe the usne ek gilas meri taraf baDhaya aur dusra apne honthon se laga liya ek hi sans mein pura gilas khali karne ke baad usne shirt ki banh mein munh ponchha aur bahut ajib nazron se mujhe dekha uski surkh ankhon aur uske arajak tariqon se aspasht tha ki wo kal ki tulna mein aaj ziyada phaurm mein hai uska wo hath kanp raha tha, jis hath mein usne mere liye sharab ka pyala tham rakha tha
yah mera nahin, raubart master ka kamra hai tum abhi mere nahin, raubart master ke mehman ho raubart gharane ke subah ki shuruat daru se hoti hai agar tumhein is gharane ke adab qaydon ko sikhna hai to gilas munh se laga lo
main dhire se muskaya aur uske hath se gilas lekar ek hi sans mein khali kar diya
“weri good weriguD! tum bhi hamari line ke adami ho jamegi apni tumhari khoob jamegi!”
usne khushi se chahakte hue phir do gilas taiyar kiye aur hamne us din ka aghaz ek aise Dhang se kiya jiska anjam kuch bhi ho sakta tha
sharab ka pahla pyala kisi baz ki tarah jhapatte hue mere sine mein utra tha, dusre pyale ki sharab zara dhire dhire kisi cheel ki tarah manDrane lagi main dheer dhire bahut upar uthta chala gaya, lekin niche ki tamam chizen mujhe utni hi saf nazar aane lagin dusra gilas khatm karne ke baad mainne diwar par latakte wadyon ko gahri nazar se dekha is bar mere dekhne mein kuch farq tha kuch hi der pahle mere liye ye cheez bejan theen, lekin ab unmen se koi arth dhwanit ho raha tha
mujhe apne in doston se nahin milwaoge?” mainne wadyon ki taraf ishara karte hue puchha
buDha apne gilas mein kanpkanpati sharab ko baDe ghaur se dekh raha tha usne bhaunhen uthakar meri taraf dekha, phir sidhe diwar ki taraf nazren utha deen wo baDe ajib Dhang se muskaya gilas khali karke usne mez par rakha aur diwar ke pas chala gaya sabse pahle table par hath rakha, “ye rafiq khan hai ustad salimuddin khan sahab ka sabse chhota aur sabse awara launDa pahle kangres house mein kisi bai ke mujre mein tabla bajata tha baad mein film line mein aa gaya ” table ko pichhe chhoDkar usne sarangi par ungli rakhi, “aur ye salim bhi usi ka joड़idar tha inki sangat mein baad mein ye wasuki parsad aur ye jamunadas bhi bigaD gaye (uska ishara bansuri aur shahnai ki taraf tha) ye charon apne fan aur dhun ke pakke the, magar unke jiwan mein koi lai tal nahin thi bahut besure aur betale the charon ke charon magar the bahut imanadar, ismen koi shak nahin ” ek bar charon wadyon ko bahut naz aur pyar se dekhne ke baad usne zamin par paDe harmonium par nazar Dali, “yah nitin mehta ka harmonium hai ye launDa sabse ziyada chalu tha panch sal pahle hamare pas sa re ga ma sikhne aaya tha aur aaj bahut popular music Darektar hai, kyonki iski ungliyan harmonium se phisalkar turant sinthesaizar par chali gai theen aur niyat sangit se uchatkar dhandhe par lag gai thi har tarah ke chans aur scope mein apni tangen ghuseDete hue usne ek aisa dhundhara ghor machaya ki kuch samajhna mushkil ho gaya baad mein use ek sindhi partnar mil gaya usne sangit ke dhandhe ko bahut baDe paimane par inwestment kiya purane saz aur sazidon ki jagah nae yantr aa gaye pahle rikaurDing ke dauran DeDh dau sau saziden jama hote the, par ab tamam sazon ki awazon aur unke alag alag iphekts ke liye kewal ek hi ilektraॉnik yantr kafi hai us yantr ke khilaf, mainne aur raubart ne kai bar awaz buland ki kai bar hamne ‘film artist esosiyeshan ko darkhwast di ki is yantr par pabandi laga di jaye magar afsos na to is mamle mein kisi ne hamara sath diya aur na artist esosiyeshan ne koi kadam uthaya ”
apne kuch sathiyon ka parichai dene aur guzre hue halat ki lambi tafsil pesh karne ke baad usne cigarette ka packet jeb se nikala, ek cigarette apne honthon ke beech rakhkar usne packet meri taraf baDhaya mainne bhi chupchap cigarette sulga li
do teen gahre kash khinchne ke baad wo bahut ghaur se aur kuch kuch sahanubhutipurn nazron se wayalin ko dekhne laga—“sabse ziyada mujhe das babu par taras aata tha bechare e grade ke artist hote hue bhi si grade ki zindagi jite thi bahut sharmile aur sanjida adami the trejik dhunon ke liye unhen khastaur se bulaya jata tha nitin mehta jaise haramiyon ne uska bahut misyuz kiya wo ek hi siting mein usse chaar panch dhunen record karwa leta tha phir un dhunon ko kat chhantakar alag alag ganon aur sichueshans mein istemal karta tha apni dhunon ki is durgati se das babu bahut udas ho jate the, magar kabhi kisi se shikayat nahin karte the
“ek bar ek gane ki kampojing ke dauran we wayalin bajate bajate rone lage us gane ke ant mein mujhe ek lamba pees bajana tha, magar main uth gaya aur das babu ki banh pakaDkar stuDiyo se bahar nikal aaya
cigarette ke thoonth ko tipai par paDi aish tray mein masalkar usne kursi nazdik kheench li aur apne laDkhaDate hue panw ko santulit karte hue kursi par baith gaya, phir bola, “us raat jab puri chaal so gai, tab aadhi raat ke baad mujhe das babu ki kholi se wayalin ki awaz sunai di aur main dekhe baghair ye jaan gaya ki das babu sirf wayalin nahin baja rahe the, ro bhi rahe the kuch der tak main chupchap sunta raha mainne pahle kabhi dardanak swar nahin sune the akhir mujhse raha nahin gaya mainne apna seksofon uthaya aur uski peeth sahlane ke liye ek bhari swar unki khiDki ki taraf uchhaal diya meri hamdardi se pahle we thithak gaye, phir unka wayalin ekdam phaphak paDa mainne use rone diya seksofon ke chauDe sine par sir rakhkar roti wayalin ki us dhun ko main kabhi nahin bhulunga wo bahut lambi, ghumawadar aur itni katar dhun thi ki seksofon jaisa diler bhi kuch der ke liye wichlit ho gaya lekin isse pahle ki main apna santulan kho deta, pyano ke halke sparsh ne mujhe DhanDhas bandhaya raubart ka ek purana not hamare swron ki taraf bahen phailate hue aaya aur hum tinon baghalgir ho gaye
phir hamari ye tikDi aage baDhi, lekin kuch hi der baad pichhe se sarangi ki awaz i aur wo bahut haDbaDi mein hamari taraf dauDti chali i jaise hum uska sath chhoDkar kahin ja rahe hon hamne apni swaryatra mein use bhi shamil kar liya hum use chhoD nahin sakte the, kyonki wo bahut bhawuk thi aur baat baat mein dukhi ho jana unke swbhaw mein shamil tha
“phir bansuri aur shahnai ki bhi neend khul gai un donon ki alsai si, angaDaiyan leti awazen pahle bahut sust qadmon se bahar ain, phir ye dekhkar ki hum bahut door nikal gaye hain, donon ne ek sath apni chaal tez kar di aur kuch hi der mein wahan swron ka tufan ghumaDne laga bina kisi uddeshy aur bina kisi riharsal ke khu ba khu wahan ek aisa arkestra shuru ho gaya, jiska koi purwnirdharit sho nahin tha, jise sunnewala koi rasik shrota nahin tha, kyonki ye koi kampojishan nahin, kuch awaragardo ki arajakta thi hum sab ek dusre ke sath dhinga masti kar rahe the har swar apne prtidwandwi swar ko pichhe chhoD aage nikal jana chahta tha pyano madmast hathi ki tarah sabko kuchal raha tha sarangi pyano ki tangon ke beech se nikalkar use chhakati hui aage baDh gai shahnai ki behad tez aur patli dharwali awaz ne sarangi ke tar kat diye, magar sans lene ke liye jaise hi shahnai ruki, bansuri ne us antral mein ek lambi chhalang lagai aur sabse aage nikal gai
“mainne bansuri ko sabak sikhane ke liye seksofon honthon se lagaya, magar akasmat mera dhyan is baat par gaya ki wayalin ki awaz kahin bichhaD gai hai kuch der tak main dhyan dekar sunta raha ki shayad dusri tez awazon ke karan wayalin ki awaz dab gai hogi, lekin nahin, wo kahin sunai nahin de rahi thi baqi sab bahut masti mein the, isliye unhen kuch pata nahin chala, lekin main thoDa sajag tha zara aur dhyan dene par mujhe ye abhas hua ki sangit ki sangat mein kahin kuch asangat ho raha hai mujhe kisi cheez ke toDe jane ki awaz sunai de rahi thi ye swaraghat bahut bhayanak the unmen kisi cheez ko hamesha ke liye khatm kar denewala hatyarapan tha do teen baDe aghaton ke baad wo awaz band ho gai main soch mein paD gaya mujhe halanki ye samajh mein nahin aaya ki wo kis cheez ke patakne ya pitne ki awaz thi, magar ye to saf zahir tha ki wo awaz das babu ki kholi se hi i thi mainne seksofon mez par rakh diya aur darwaza kholkar bahar gallery mein nikal aaya samne ki chaal mein sab khiDki darwaze band the das babu ki kholi ke darwaze ki dararon se bulb ki pili raushani ki lakiren chamak rahi theen beech beech mein un chamkati lakiron ko koi parchhain kat deti thi we lakiren jab bar bar aur bahut tezi se katne lagi, tab mujhe malum hua ki andar koi chhatapta raha hai main tezi se siDhiyan chaDh gaya das babu ki kholi ke band darwaze ke samne pahunchakar mainne apne dhaDadhDate sine ko ek hath se thama aur dusre hath se darwaze ko dhakela andar das babu farsh par gire paDe the wayaliyan ke tukDon ke beech farsh par we apna sina thamen chhatapta rahe the mainne lapakkar unhen apni bahon mein le liya mujhe dekhkar unke chehre par halki si rahat i, magar agle hi pal kisi agyat shakti ne unke chehre par ponchha mar diya ”
das babu ke jiwan ke antim kshnon ka jo bhayanak warnan buDhe ne kiya, wo kafi der tak ek film ki tarah meri kalpana mein ghumta raha buDhe ke chup ho jane ke bawjud uske shabd mere kanon mein gunjte rahe main us santrast kar dene wale asar ke jab bahar aaya, tab mainne dekha, buDha kisi gahri soch mein Duba tha mainne uske maun par koi darar nahin paDne di
hum donon pata nahin kitni der chup rahte, agar hamare maun ke beech wo chitkabra kabutar na chala aaya hota wo pahle kamre ki dahliz par baitha kotuhal bhari ankhen matkate hue bari bari se hum donon ko dekhta raha, phir uDkar buDhe ki god mein ja baitha buDha halanki kisi khayal mein khoya tha, lekin uske hath adatan kabutar ke pankhon ko sahlane lage
“we itne pareshan kyon rahte the?” mainne zara sankoch se puchha
kaun? buDhe ne meri taraf dekhkar puchha
“das babu?” mainne kaha
buDha is sawal se phir apset ho gaya usne phir kaDwa sa munh banaya aur achanak khaDa ho gaya uska hath phir kanpne laga us kanpknpahat ko qabu mein karne ke liye usne mutthi bheench li uske chehre se lag raha tha ki wo phir biphar uthega, magar wo kuch nahin kar paya apne tashaddud se phaDphaDate honthon se usne danton mein bheench liya
uski haalat dekhkar main bhi saham gaya aur kabutar bhi usne bhaybhit nazron se buDhe ko dekha aur turant par phaDphaDate hue kamre se bahar uD gaya
kuch der baad mujhe pet mein maroD hui main kafi der se anDkosh ke dabab ko bhi tal raha tha, lekin jab sahn nahin hua to main utha aur beech mein latakte parde ko sarkakar kamre ke dusre hisse mein chala gaya wahan ek chhoti si rasoi thi aur rasoi se laga ek teen ka darwaza rasoi ke pletfaurm par bahut si angaD khangaD chizen betartib paDi theen mainne kisi cheez par dhyan nahin diya mera dhyan sirf us teen ke darwaze par tha jiske pichhe meri tatkalik yantrna ka nikas tha
sanDas se bahar aane ke baad mainne dhyan se sab chizon ko dekha un chizon ki alag alag pahchan nahin thi we sab ek sanyukt kabaD mein badal chuki theen akar mein baDa hone ke karan sirf pyanon alag se pahchan mein aa raha tha main uske pas gaya, uske upar paDe saman ko idhar udhar kiya aur ghaur se dekha, uske donon phut paiDal tute hue the ki board ki adhikansh chabhiyan bhi ukhaD gai theen mainne uski andaruni haalat dekhne ke liye lakDi ke Dhakkan ko upar uthaya aur agle hi pal mujhe Dhakkan band kar dena paDa andar kuch bhi nahin tha na gaddiyan, na strigs, na phelthemar sirf khalipan tha aur us khalipan mein se ek ajib si bu aa rahi thi wahan kuch mar gaya tha, jo saD raha tha
parda hatakar main wapas kamre ke agle hisse mein aa gaya
“yah pyano kya raubart master ka hai?” mainne buDhu se puchha
usne han mein sir hilaya aur chehra jhuka liya
“wah itna ghayal kyon hai?” mainne phir ek murkhtapurn sawal kar Dala, main nahin janta tha ki mera ye sawal kitna ghairwajib aur ghairazruri tha usne jhallai hui nazron se mujhe dekha, phir kursi se utha, kamre se bahar nikla, tez qadmon se gallery par ki aur dhaDadhaD siDhiyan utarne laga main pahle to hataprabh rah gaya, phir kisi agyat taqat se washibhut hokar main bhi uske pichhe bhaga main jab tak siDhiyan utarkar gali mein aaya, tab tak wo gali par kar chuka tha, aur jab main gali se bahar nikla tab wo saDak cross kar raha tha mainne apni raftar tez ki, aate jate wahnon se khu ko bachate hue saDak par ki aur dauDkar uske pas pahunch gaya
suno!” mainne uske kandhe par hath rakhkar halke dabaw se use apni or khincha
meri is rukawat se uski chaal laDkhaDa gai—“kya hai? uska swar bahut biphra hua tha—“kyon mere pichhe paDe ho? jao rasta napo mujhe kisi ki hamdardi ki zarurat nahin hai
lekin tum ja kahan rahe ho?
“main kahin bhi jaun, tum kaun hote ho puchhnewale? tumhein kya matlab hai?
“matlab hai ” mainne is bar zara kaDi awaz mein kaha, “tum kya mujhe koi chutiya samajhte ho?” mainne uski shirt ko apni donon mutthiyon mein bheench liya
meri is akasmat chiDchiDahat se wo zara Dhila paD gaya usne munh bichkakar ek nishwas chhoDa aur mainne apni mutthiyan aur kas leen, “main janta hoon ki tum bilkul gaye guzre aur nakam adami ho aur is bhram mein ji rahe ho ki tumhare jaisa tismarkhan is duniya mein aur koi nahin hai main ye bhi janta hoon ki tum ziyada din jinewale nahin ho, kyonki tum chahte ho ki tumhari maut itne dardanak Dhang se ho ki duniya chaunk jaye tum is tarah jo badhal zindagi ji rahe ho, wo isliye nahin ki tum badhal ho, isliye ki logon ko apni taraf akarshait kar sako tum apne sharir par in chithDon ko usi tarah sajakar rakhte ho jis tarah ranDiyan apne chehron ko sajati hain
nashe mein chunki main bhi tha, isliye thoDa lauD ho jana swabhawik tha, “go enD phak yor art ” mainne chillakar kaha, phir tezi se palatkar tez qadmon se chaurahe ki taraf jane laga kabutarkhane ke pas jakar main station ki taraf janewali saDak par muDne hi wala tha ki mujhe apne kandhe par uske hath ka dabaw mahsus hua
mainne muDkar dekhana zaruri nahin samjha
“tumhen pareshan karne ka mera irada nahin tha ” uski awaz mein halka kampan tha, “tum meri wajah se bahut pareshan ho gaye jao ab kabhi mere jaise ghanchakkron ke pher mein mat paDna
mainne palatkar uske donon kandhon par apne hath rakh diye, “dekho, main janta hoon raubart aur das babu ke bina jine mein tumhein kitni taklif ho rahi hai, lekin sharab aur byarth ke chutiyapon mein Dubkar kya tum us mahan duःkh ka apman nahin kar rahe ho? kya us duःkh ko tum seksofon ke swron ke sath salimet (udattikarn) nahin kar sakte?
usne bahut wiwash nigahon se mujhe dekha aur nakaratmak Dhang se sir hilane laga, jaise mainne usse kisi mari hui cheez ko zinda karne ka agrah kiya ho main uske asakti shunya chehre ko dekhta raha wahan kori shunyata thi na koi chaw tha, na koi bhaw apne chehre ko meri nazron se bachane ke liye usne munh pher liya aur kabutron ke jhunD ko dekhne laga
we sab chugga chug rahe the—shahr ki bhag dauD, aapa dhapi aur pareshaniyon se nirlipt aur beख़bar wo dhire dhire aage baDha aur lohe ki gril ke pas ja khaDa hua andar us gol ghere mein phaDphaDate asankhya saleti, safed aur chitkabre pankhon ke shant saundarya mein se wo kuch khoj raha tha, koi aisi cheez jo uski tatkalik taklif ko Dhank de
wo kafi der tak yoon hi khaDa raha is beech usne qamiz ki banh se do bar apni ankhen ponchhi uski peeth meri taraf thi, isliye dekh nahin paya ki usne apni ankhon mein se kya ponchha tha kuch der baad wo palta aur sidhe meri ankhon ki taraf apni ankhen utha deen usne bahut pyar se meri taraf dekha, phir aage baDhkar apni banh mere kandhe mein Dal di aur wapas mujhe apne ghar ki taraf le jane laga ghar pahunchate hi wo kisi nadide ki tarah chizon par toot paDa usne ek purana kapDa uthaya aur jo cheez hath mein i uski dhool jhaDne laga phir chhat ke konon mein latakte makaDjalon par jhaDu pher diya pure kamre ko achchhe se jhaDne buharne ke baad usne ek saf kapDe se tamam wadyon ko ragaD ragaDkar chamka diya is tamam safai abhiyan ke dauran wo lagatar siti bajata raha uski phoonk mein dhire dhire wazan baDhta gaya aur kuch hi der mein usne apni deh aur aatma ke bikhre hue swron ko ek tartib mein tune kar liya
kuch der baad parda hatakar pichhe chala gaya uske kitchen kam bathrum se kafi der tak pani bahne ki awaz aati rahi is beech mainne kamre ki nai wyawastha par nigah Dali ab sare saz apni gharib aur phatehali ke bawjud pure samman ke sath chamak rahe the sirf saz hi nahin, pura asbab apni asli rangat mein nikhar aaya tha, sirf ek elbam ko chhoDkar, jo kone mein paDi table ke ek kinare upekshait sa paDa tha uske kawar par dhool jami thi mujhe uski bosidagi par etraaz hua mainne kapDa uthakar uski gard jhaD di aur bina kuch soche samjhe use kholkar dekhne laga usmen bahut purani taswiren theen uske tamam yar doston ki
kuch taswiren stage program ke dauran khinchi gai theen aur kuch rikaurDing stuDiyo mein kahin kahin par ekadh praiz Distribyushan aur party ke bhi chitr the we un dinon ke chitr the jab buDha jawan tha wo un chitron mein jindadili aur jawanmardi ki misal ki tarah maujud tha
lekin madhyantar ke baad elbam ki taswiren zara shant, thoDi udas aur ant mein bahut piDadayak hoti chali gain elbam mein antim prishthon mein do parthiw sharir shawyatra par jane se pahle ki antim ghaDiyon ke zordar wilap ke beech shant paDe the ek sharir arthi par tha, dusra tabut mein tabutwale bhaw ke donon hath nadarad the mujhe bahut ashchary hua kya ye raubart master ki taswir hai? kya uske donon hath???
isse pahle ki main is khuni achambhe ke bare mein kuch soch pata, buDha parda hatakar bahar aa gaya aur is bar main use dekhte hi rah gaya uske shew kiye hue chehre par ghazab ki raunaq thi usne sweD ki bhure rang ki patlun aur safed shirt pahan rakhi thi, jismen kahin kai dagh dhabba nahin tha uski is sehatmand, saf suthari aur purazor entri se main thoDa ashwast hua mujhe laga ki wo ab sthitiyon ki phes karne ki sthiti mein hai
wo pankha kholkar apne lambe baal sukha raha tha uske safed aur mulayam baal uske lambe aur gore chehre par sirf lahra hi nahin, balki tair se rahe the
“tum ab bilkul sahi lag rahe ho ” mainne kaha
usne balon par zor zor se ungliyan chalate hue meri taraf dekha—“kya ab tak main ghalat tha?
“nahin ” mainne muskurate hue kaha, “ab tak tum ghalat aur sahi ke beech the
usne sir jhatakkar apne baal pichhe kiye aur baDe ghaur se meri taraf dekhne laga, “yar, tum to baDe guru adami ho tumhare andar jo bailens hai, mujhe usse jelesi ho rahi hai
“main ek baniye ka beta hoon ” mainne hanste hue kaha, “isliye taraju hamesha sath lekar chalta hoon, halanki nap tol mein mujhe bahut nafar hai main tumhari anabailensD aur phakkaD zindagi se akarshait hua tha aur tum meri baniyagiri se prabhawit ho, ye baDi wichitr baat hai!
thoDi der tak wo mujhe niharta raha phir pahli bar usne mere wyaktigat mamle mein dilchaspi dikhai—aur bahut sanjidgi se puchha, “tum karte kya ho?
“main philhal kuch nahin kar raha hoon ” mainne kaha
“nahin main kaise man loon ki tum philhal kuch nahin kar rahe ho? tum philhal aur kuch nahin to ek buDhe aur sanki adami ko to bardasht kar hi rahe ho n? wo hansne laga
nahin ” mainne bhi uski hansi ka sath diya, “main tumhein bardasht nahin, enjway kar raha hoon tum bahut swadisht aur pachane mein utne hi kathin adami ho tumhare bahar se kurakre aur bhitar se rasile swbhaw mein ek khas tarah ka zayqa hai
wo aur bhi zor se hansne laga, phir usne apna seksofonwala bag utha liya mez ki daraz se ek gift packet nikala aur mera hath pakaDkar ghar se bahar aa gaya
tumhara ghar mujhe ghar jaisa kam, riharsalrum jaisa ziyada lagta hai ” mainne jina utarte hue ka
“darasal,” usne siDhiyon se niche utarne ke baad mere kandhon par hath rakhte hue kaha, “yah kamra hum sabne milkar kiraye par liya tha, riharsal ke liye lekin baad mein ye ayyashi ka aDDa ban gaya aur un logon ke liye to isse baDi koi panahagah nahin thi, jo ghar se alag ho gaye the ya alag kar diye gaye the mera aur raubart ka khana pina, nahana dhona, sona uthna sab yahin hota tha ”
wo ek bar phir apne wigat mein laut gaya, lekin is bar ki wapsi kuch alag tarah ki thi uske lahje mein kisi sadmen ke tatkalik byan ki baukhalahat nahin, sthirta thi, ek wyawasthit prawah tha—
“bawjud har tarah ki badasluki ke, hum sab aapas mein ek the hamare jhagDe kai bar mar peet ki naubat tak bhi pahunchte the, lekin jab ‘sangat hoti thi tab sari baten bhula di jati thi, lekin ek arse baad jab sangit ke dhandhe mein chenj aaya to sab kuch badal gaya hamara group bikhar gaya sirf ek grade ke kuch artist bach gaye lekin siniyar hone ke bawjud mujhe aur raubart ko kaam ke mauqe bahut kam milte the, kyonki jis tarah ki kampojing nae daur mein chal rahi thi, usmen naqal par adharit chutiyapon ki bauchhar thi aur pyano ya seksofon jaise gambhir wadyon ki akele pees ke liye koi jagah nahin thi
chalte chalte wo rook gaya phir mujhe khinchne laga usne saDak par ki aur hum ek cafe mein ghus gaye nashte ka order dene ke baad wo kuch der chup baitha raha phir bina meri or dekhe kuch budbudane laga, jaise mujhse nahin, khu se baten kar raha ho, “sale nitin mehta, ek tumhi hoshiyar nikle baqi sab bewaquf the achchha kiya tumne jo table peti ko lat mar di agar tumne nae saz aur nae taur tariqe nahin apnaye hote to tumhara bhi yahi haal hota hum log chutiye the jo saz ki aan aur swron ki shuddhata ka rag alapte rahe raubart to apne aapko bahut tismarkhan samajhta tha, kyonki uske jaisa pyano master pure mumbi mein koi nahin tha usne tumhare nae yantron ka mazaq uDaya tha wo use bachchon ka khilauna aur kampyutar game kahta tha lekin aaj usi bachchon ke khilaune ke uske hathi ke charon panw ukhaD diye sirf raubart hi kyon, us samay to e grade ka har artist isi ghamanD mein rahta tha ki unke skil ko koi mat nahin de sakta lekin unke skil aur market ki zarurat ki beech jo gap aa gaya tha wo unhen dikhai nahin diya
buDha apni rau mein bol raha tha aur butter breD ke sath coffe ki ghoot bhi le raha tha munh ke is dohre istemal ke karan uske gale mein thaska lag gaya mainne turant pani ka gilas uthakar uske munh se laga diya pani ke prawah mein gale mein phansa breD ka tukDa niche utar gaya thoDi der khansane khakharne ko baad usne gahri sans li aur baDi hikarat se sir hilaya, “akhir unka ghamanD hi unke liye khatarnak sabit hua sab gaye bhaD mein kaun bacha ab puranon mein? kaun kahan hai aur kya kar raha hai kuch pata nahin kabhi mil bhi jate hain to katra ke nikal jate hain ek bar mainne wasuki parsad ko chaupati mein bansuri bechte dekha usne bansaki patli patli kamachiyon mein bansuriyan sajarkhi theen wo bansuri bech bhi raha tha aur baja bhi raha tha main usse mila nahin sirf uska bajana bechna dekhta raha achanak mere bhitar se ek sawal utha ki agar seksofon pital ke bajaye bans ka hota aur uski lagat bhi bahut kam hoti, to kya main bhi gali gali mein seksofon bechta phirta? mujhe apne bhitar se han ya na mein koi jawab nahin mila
“aur lajawab hona mere liye hamesha ghatak hota hai harkar mainne khoob ziyada sharab pi li aur mere pair laDakhDane lage khu ko kisi tarah sambhalte hue main charni roD ke ek owarheD raste ko par kar raha tha rasta par karne ke baad mainne siDhiyan utarne ke liye jaise hi pahli siDhi par pair rakha, mujhe sabse antim siDhi par raubart master dikhai diya usne bhi sahare ke liye reling pakaD rakhi thi aur naraz nazron se siDhiyon ki unchai ko dekh raha tha wo apni nashe mein Dolti lambi chauDi deh, hai blaD preshar se dhakadhkate sine aur thakan se choor pairon ki bikhri hui taqat ko bator raha tha siDhiyan chaDhna to door, wo khaDe rahne layaq haalat mein bhi nahin tha; magar mujhe bharosa tha ki wo siDhi chaDh jayega wo haar mannewalon mein se nahin tha, chahe jeet janalewa hi kyon na sabit ho
akhir usne honth bheench liye aur ek sath do do siDhiyan chaDhne laga jab wo upar aaya to mainne hath baDhakar use apni taraf kheench liya aur bahut chintit swar mein puchha, “kahan se aa rahe ho? kahan the itne dinon tak?”
wo sirf hanpta raha uski nazren bag mein tange mere seksofon par theen usne puchha, “tum stuDiyo se aa rahe ho?
mainne na mein sir hila diya agar main han kahta to wo meri jeb mein hath Dalkar zabardasti meri din bhar ki kamai chheen leta mere pas rupe itne kam the ki jhooth bolne ke siwa koi chara na tha magar jhooth bolna har kisi ko nahin aata wo fauran samajh gaya ki meri jeb khali nahin hai usne hath se jhapatkar mera collar pakaD liya aur dusre hath se meri jeb tatolne laga “sale jhooth bolta hai? la nikal sau rupe
“collar chhoD pahle ” mainne pratirodh kiya uska mere collar par kasa panja Dhila paD gaya mainne paint ki jeb se jitne rupae the utne nikalkar bahut ghusse aur nafar ke sath uske hath mein thama diye aur apna collar chhuDakar bina kuch bole siDhiyon ki taraf baDha
usne phir jhapatkar pichhe se mera collar pakaD liya rupe wapas meri jeb mein thoons diye aur mujhe ek taraf dhakel diya, “sale, dosti ke lihaz se udhaar mang raha tha koi bheekh nahin mang raha tha ja, aaj ke baad kabhi nahin Dalunga teri jeb mein hatha
mera ghussa uski is harkat se aur bhaDak gaya mainne siDhi chaDhkar donon hathon se uski qamiz ko daboch liya aur use reling tak dhakelte hue le gaya mainne use unchi awaz mein phatkara, “do sal se teri tanashahi sah raha hoon do sal se na tu khu chain se ji raha hai, na mujhe jine de raha hai bol, kya chahta hai too? taklif kya hai tujhe—yah bata!”
“usne bahut naraz nazron se mujhe dekha phir narazgi kam ho gai aur wiwashta DabDaba i usne sir jhuka liya bahut der tak wo yoon hi khaDa raha uski chuppi ne mujhe besabr kar diya nashe aur ghusse ki rau mein mainne use teen chaar tamache jaD diye mere is akasmik hamle se bachne ki usne koi koshish nahin kee; kewal liye latkaye khaDa raha wo apne bhitar chakrati kisi cheez ko pakaDne ki koshish kar raha tha kuch der baad usne sir upar uthaya aur meri banh pakaDkar mujhe ghasitne laga
“ham jis apapte Dhang se siDhiyan utar rahe the, usmen kabhi bhi gir paDne ka khatra tha na to wo khu ko sanbhal pa raha tha, na mujhe sambhalne ka mauqa de raha tha akhir hum donon ke panw ek dusre se ulajh gaye aur us uljhan ne hum donon ko saream tamasha bana diya—ek aisa tamasha jise dikhne ki phursat bhi kisi ko nahin thi
“n usne us hasyaspad sthiti ki parwah ki, na mere sir se bahte khoon ki wo phurti se utha, meri qamiz ka collar pichhe se pakaDkar mujhe khaDa kiya aur bheeD ko dhakelte hue mujhe beech saDak mein le aaya mainne apne aapko chhuDane ki bahut koshish ki, magar raste bhar wo mujhe ghasitta raha aur ek knight beer bar ke samne le jakar usne mujhe aise dhakela jaise koi hawaldar kisi mujrim ko laukap mein dhakelta hai
“bar ke andar bajte tez sangit ki sansanahat aur jalti bujhti rangabirangi raushaniyon ki chakachaundh ne ek pal ke liye mere dil o dimagh ko chakra diya haDbaDi mein main ek betres se takra gaya mainne sahare ke liye us tebul ke kone ko pakaD liya kuch der ke baad mere sir ki chakrahat zara kam hui, magar mujhe samajh nahin aa raha tha ki raubart mujhe wahan kyon dhakel gaya
“baad mein ek cheez mujhe sabse pahle samajh mein i ki wahan Dansing floor par jis popular filmi gane par mujra chal raha tha, uski dhun nitin mehta ne compose ki thi wahi nitin mehta jiske liye raubart ke dil mein nafar ke siway kuch nahin tha
“tabhi wo gana khatm ho gaya ek pal ki khamoshi ke baad ek bahut tez aur dhamakedar Disko geet shuru hua ye geet bhi usi film ka tha nitin mehta ne stiwi wanDar ke elbam se iski dhun lipht ki thi aur usmen rajasthan ka choli ghaghara, bhojapuri ki kamuk thumki, gujrat ka garba aur panjab ke bhangaDe ko bahut bhonDe aur ashlil Dhang se milakar ek bahut hi ajib cocktail taiyar kiya tha behad asardar aur turant dimagh par hamla karne wale haiwi maital ke stroks ke sath Dansing floor par jo laDki i, use dekhte hi hullaD mach gaya usne behat tang choli aur ghaghara pahan rakha tha choli ke pichhle hisse mein kapDa nahin tha; sirf ek patli si Dor thi darshkon ki taraf peeth phere wo apni kamar aur nitamb matka rahi thi kuch der baad Dholak ki ek tez thap se sath usne apna munh ghumaya aur uska chehra dekhte hi main sann rah gaya wo raubart master ki beti wini thi log use lalchai nazron se dekh rahe the; hathon mein not nikalkar use ashlil isharon se apne pas bula rahe the wo nachte nachte not dikhanewale ke pas jati aur baDi ada se muskurakar rupya le leti not ke adan pradan ke dauran do hathon ke beech jo ek lijaliji si cheez thi, use dekhkar mere andar se ek bahut tilmila denewali aur besnbhal ubkai uthi main bar se fauran bahar nikla aur bhitar ka sara kuch saDak par ulich diya us ulti ke turant baad mujhe ye samajh aa gaya ki raubart kyon khu ko chain se jine nahin de raha hai
ek lambi batachit ke baad jab hum cafe se bahar nikle, tab din karwat badal raha tha dhoop ki pari samapt ho rahi thi aur sham ke lambe saye saDkon par phailte ja rahe the raubart ki yaad buDhe ki khushamizaji par phir kisi kale saye ki tarah chha gai wo chupchap chalta chala ja raha tha kuch der baad wo apne apmen itna kho gaya ki use dhyan na raha ki main uske sath hoon chalte chalte wo beech beech mein kuch baDbaDa bhi raha tha uski baDabDahat meri samajh se bahar thi saf zahir tha—wah apne pratisansar mein chala gaya tha—ek dusri duniya mein, jismen sirf smritiyan aur kalpanik yatharth hota hai, wartaman ki thos wastawikta se ekdam pare
wo porchugiz church ki lambi patri par bahut sust qadmon se chal raha tha mainne use chupchap chalne diya usse koi sanwad karne ke bajaye main kewal uski akriti ko niharta raha uski sweD ki shanadar bhuri paint, safed shirt aur shirt ke pichhe gelis ki cross patti, black kaip aur kaip ke niche lahrate safed baal, kandhe par latakta chamDe ka bag aur bag se jhankta seksofon ka gol munh uski akriti aaj esthaitikli itni rich thi ki bite hue kal ki chikkat kangali ka kahin koi abhas nahin tha
wo patri par karke bain taraf muD gaya thoDi door jakar usne phulwale ki dukan se phool kharide aur nazdik ke ek bus staup ke kyu mein khaDa ho gaya mainne usse ye puchhna zaruri nahin samjha ki wo kahan jana chahta hai main bhi uske pichhe kyu mein khaDa ho gaya thoDi der baad ek bus i aur hum donon usmen phurti se chaDh gaye teen chaar staup ke baad hum ek ujaD ilaqe mein utar gaye bus staup ke theek samane ek simitri thi wa simitri ke andar dakhil hua aur sidhe us qabr ke samne jakar khaDa ho gaya, jiske safed patthar par kale akshron se raubart ke janm aur mirtyu ke beech ka antral ankit tha
usne kandhe ke bag utarkar zamin par rakh diya aur phool qabr ke patthar par rakh diye kuch der ke maun ke baad usne apne bag se seksofon nikala aur uske baad gift packet jab usne packet par raipar khola to usmen se pitar skaut ki botal nikli wo botal usne ek arse se sanbhal rakhi hogi, kisi khas mauqe ke liye botal ka Dhakkan jab wo khol raha tha tab mainne dekha, chehre par wahi kal wali akramak bechaini thi, balki uska chikna aur saf suthra chehra kal se bhi ziyada ghatak parimanon ke poorw ka sanket de raha tha Dhakkan kholne ke baad usne sharab aur seksofon ko aamne samne kiya aur puri botal seksofon mein uDail di sharab seksofon ki patli dubli reep mein se bahti hui mauthpis se bahar nikli aur puri qabr kar phaili gai
khali karne ke baad usne puri taqat se botal simitri ke ek kone mein uchhaal di botal hawa mein lahrati hui sidhe ek qabr se salib se takrai aur kanch ke tutne bikharne ki awaz ne simitri ke sannate ko jhakjhor diya
phir ek pal ki khamoshi ke baad usne apne saz ko ghaur se dekha is dekhne mein ek aisi chunauti thi, jo kisi pratiyogi ki ankhon mein antim raunD ke dauran dikhai deti hai
aur ab usne saz ko honthon se lagaya, tab pahli hi phoonk se jo awaz nikli wo kisi bhompu se nikli bhonDi bharrahat se bhi badtar thi buDhe ne gandi gali bakte hue saz ko zor se jhatak diya andar bachi hui sharab ki bunden bahar chhitak gain usne mauthpis ko rumal se ragaDkar saf kiya aur ek lambi phoonk lagai, jo seksofon ki deh mein apna kaam kar gai usne us phoonk ko sanbhalakar simitri ke sannate mein aage baDhaya aur lai ki ek lambi rekha khinchi pahle niche se halke aur muhin, phir upar jakar chauDe aur wazandar swron ka sidha phailab, jismen sam se sam par lautne ki awrittimulak majburi nahin thi, kahin pichhe lautne ki gunjaish nahin thi—sirf aage aur kisi agyat ant ki taraf baDhti arajakta, na use koi rok sakta tha, na tham sakta tha
kuch hi der mein mujhe malum ho gaya ki wo baja nahin raha hai, balki kabristan mein bhatakti kisi lai ya bite dinon ki khoon kharabe se sani yadon se apne uttapt aur kshaudhit phephDon ko shant kar raha hai
mere liye ye zaruri tha ki turant use rok doon, magar wo dhun na to mujhe sunane ke liye bajai ja rahi thi, na main uska ekmatr shrota tha mere alawa wahan us sangit kanfrens mein kuch qabr theen, kuch saliben theen aur kuch ujDe hue buDhe darakht bhi the, jo uske asli shrota the
kuch der baad jab saye lambai ki akhiri had tak pahunch gaye, parinde darakhton par wapas laut aaye aur andhera ahista ahista kaynat ko gherne laga, tab achanak buDhe ne seksofon se munh hata liya kuch der tak wahan sab kuch tham sa gaya, jaise kisi chhatpatati hui cheez ne abhi abhi dam toDa ho buDha bahut tezi se hanph raha tha uski nasen abhi tak tani hui theen wo baDi mushkil se chaar panch qadam aage baDha aur ek peD ke tane se peeth tikakar baitha gaya main uske nazdik gaya to usne mujhe bhi apne pas baithne ka ishara kiya main uski baghal mein baith gaya
“yah ek bitnik dhun thi ” sans sambhalne ke baad usne kaha, “raubart bitnik ke khunkhar karnamon ka bhakt tha
“aur tum?” mainne puchha, “tum kaun se panth ke himayati ho?
“mainne jaz aur inDiyan classical ke beech ka khali rasta chuna tha aur aaj bhi usi raste par chal raha hoon
“yah rasta kahan jakar khatm hota hai?
“wahin jahan se wo shuru hota hai
yani?
yani sam se sam par ”
tumhen isliye aisa nahin lagta kyonki mera saz seksofon hai aur phephaDa theth hindustani mera saz jaz ke bhaDkau prbhawon mein aakar kabhi kabhi bahak jata hai, par mera phephaDa use pakaDkar phir wapas qayde par le aata hai
lekin abhi jo baja rahe the, usmen kahin hindustani qayde ki pakaD nahin thi
“han ” usne swikriti mein sir hilaya phir kisi soch mein paD gaya
“kya tumhein nahin lagta ki tumhari dhunen ‘qayde se chhutkara pakar kisi ghalat raste mein atak gai hain?
usne ek jhatke se meri taraf sir ghumaya aur kuch ashchary se mujhe dekhne laga phir nazren jhuka leen aur bahut sanjidgi ke sath kaha, “yah gaDbaDi raubart ki maut ke baad shuru hui mainne rail ki patri par uski lash dekhi thi uske donon hath kat gaye the aur ek hath ko ek kutta utha le gaya tha us drishya ne meri sans ko kharonch Dala meri phoonk mein ab pahle jaisi sifat nahin rahi ”
“sifat hai ” mainne zor dekar kaha, “utni hi jitni kisi kalakar ke bhitar honi chahiye koi bhi hadasa kalakar ke andar ki khalish ko khatm nahin kar sakta, agar uske andar zara si bhi imandari hai
imandari” usne ghurkar mujhe dekha
“han, jab hum apni kamzoriyon ka dosh samay par maDhne lagte hain, tab hum kisi aur ke sath nahin, khu apne sath beimani karte hain
usne ghusse se phanaphnate hue mera collar pakaD liya chehre se laga ki abhi mujhe tamacha jaD dega, magar agle hi pal uska hath shithil ho gaya, jaise uske bhitar se kuch skhalit ho gaya ho, aur us skhalan mein sirf tatkalik uttejna ka hi nahin, balki ek puri umr se arjit akaD ka ant tha
“mujhe ab sans lene mein taklif hoti hai ” usne bahut wiwash nigahon se mujhe dekha, “main jitni tezi se sans chhoDta hoon, utni hi tezi se sans kheench nahin pata ”
“agar tum khinchte kam ho aur chhoDte ziyada ho to khinchi hui chhoti sans ek lambi phoonk ke roop mein kaise bahar aati hai?” mainne ashchary se puchha
“mujhe malum nahin ye kaise hota sirf ye mahsus hota hai ki har phoonk ke sath mere bhitar se kuch galkar bah raha hai
aur tab pahli bar majhe us par daya i main der tab uska chehra dekhta raha mujhe turant samajh mein aa gaya ki uske bhitar se gal galkar kya bah raha hai mainne uske hath se seksofon le liya—“kuchh dinon tak ise mat bajao kewal lambi sansen lo apne aapko pura sametkar apni maignetiwiti ko baDhao phir tum dekhana, sab kuch wapas bhitar aa jayega jo kuch galkar bah gaya hai, wo rikwar ho jayega tum koshish karo main mein tumhari madad karunga ”
“main kisi bhi tarah ki madad se bahar ho gaya hoon aur ab kuch bhi hasil nahin karna chahta
“kya? kya chahte ho tum?” uska swar zara uncha ho gaya
“main dekhana chahta hoon ki
“kya dekhana chahte ho? ye ki main kaise dam toDta hoon? ki kaise mere munh se khoon ki ulti hoti hai ?
“nahin, main dekhana chahta hoon ki tum seksofon baja sakte ho ki nahin abhi tak to wo tumhein baza raha tha
uski bhaunhen phir tan gain chunautipurn ankhon se kuch der tak wo mujhe dekhta raha, phir mere chehre se nazren hatakar seksofon par nigah Dali apni god mein lekar pyar se use dulraya, phir wapas apne bag mein rakh diya aur uth khaDa hua bag ko ek hath se kandhe par latkane ke baad usne hath mere kandhe mein Dal diya aur hum donon simitri ke bosida andhere se bahar nikalkar shahr ki jagmagati raunaq mein aa gaye
hum patri par chal rahe the uski banh ab bhi mere kandhe par thi mujhe uske hath ka dabaw pahle ki tulna mein kuch narm sa laga uski chaal mein bhi ab pahle jaisi akaD nahin, kham tha
“ghar ki taraf lautte hue mujhe aisa lag raha hai jaise main apne lakshya ki taraf laut raha hoon ” usne bahut dhimi awaz mein kaha
“tumhara lakshya kya hai?” mujhe ummid thi ki wo apni kisi bahut gahri mahattwakanksha ko ukerega ya barson se soe hue swapn ko jagayega
magar uska jawab bahut sankshipt tha—seksofon bajana ”
halanki usne ye baat bahut sahj Dhang se kahi thi, magar usmen ek chhupa hua arth tha mainne us arth ki gambhirta ko banaye rakha raste bhar mainne usse koi baat nahin ki
shahr ki tamam chizen ab bhi utni hi kathor, nirutsahi aur ashlil theen, lekin ab kisi bhi cheez se ulajhne takrane ya use toD maroD dene ki uske bhitar koi talab nahin thi uski is gambhirta se main zara ashwast hua usse widai lete samay mujhe ye bharosa tha ki wo bina kisi pareshani ke apne ghar pahunch jayega
(hans, 1995)
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000) (पृष्ठ 221)
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