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संबंध

sambandh

इंतिज़ार हुसैन

और अधिकइंतिज़ार हुसैन

    सुबह ही-सुबह इधर अख़बार वाले ने अख़बार फेंक़ा उधर ख़्वाजा साहब ने दरवाज़ा खटखटाया।

    “करामत मियाँ, अख़बार गया...।”

    “जी, गया है। आइए, तशरीफ़ रखिए।”

    यह मेरे नाश्ता करने और दफ़्तर जाने का वक़्त होता है।

    हमारा ड्राइंग और डाइनिंग कम्बाइंड है। इधर मैं बेगम के साथ मिलकर नाश्ता कर रहा हूँ, उधर ड्राइंग-रूम में ख़्वाजा साहब अख़बार पढ़ने में व्यस्त हैं।

    “ख़्वाजा साहब, आइये, नाश्ता कीजिए।”

    “बेटे बिस्मिल्लाह करो।”

    “नाश्ता नहीं करते तो चाय ही पी लीजिए।

    “नहीं, बेटे मैं तो बस अख़बार पर एक नज़र डालने के लिए आया हूँ।”

    “वह ठीक है, मगर साथ में चाय भी हो जाए तो क्या हर्ज़ है? कोई अजनबियत तो नहीं है।

    “बेटे, मैं—इस घर में ख़ुदा अपनी रहमतें निछावर करे—सैयद साहब के वक़्त से रहा हूँ। अब तुम उनकी निशानी हो भला तुमसे अजनबियत बरतूंगा।”

    बजा कहा! असल में तो वालिद साहब से उनकी दोस्ती थी। जाड़े-गर्मी, बरसात, रोज़ सुबह को दरवाज़ा खटखटाना, उनके पास बैठकर अख़बार पढ़ना, बातें करना और चले जाना।

    मगर उनके इंतकाल के बाद भी वह शिष्टाचार बना रहा। उसी तरह सुबह को आकर अख़बार पढ़ना और चले जाना। बाक़ी किसी बात से मतलब नहीं। कभी इक्का-दुक्का बात भी की तो अख़बार ही के हवाले से...।

    “करामत मियाँ अख़बारों को क्या हो गया है?”

    “क्या हुआ ख़्वाजा साहब?”

    “आज तो कोई ख़बर ही नहीं है।”

    “ख़्वाजा साहब, ख़बर कोई आएगी तब अख़बार में छपेगी, आज कोई बड़ी ख़बर उनके पास नहीं होगी।”

    “कैसी बातें करते हो करामत मियाँ, इतनी बड़ी दुनिया! उतनी बहुत-सी चीज़ें और दुनिया में क्या कुछ नहीं हो रहा, जो कभी हुआ था वह अब हो रहा है और हमारे अख़बारों के पास देने के लिए ख़बर नहीं...”

    ये कहते-कहते उठ खड़े हुए।

    “जा रहे हैं आप...?”

    “हाँ भई, चलकर घर को देखते हैं। आज तो मैं मस्ज़िद से निकलकर सीधा इसी तरफ़ गया। सोचा कि घर बाद में पहले करामत मियाँ के यहाँ चलकर अख़बार पर एक नज़र डाल लें, मगर अख़बार में कोई ख़बर ही नहीं थी...”

    उनके जाने के बाद बेगम ने कितना लंबा इत्मिनान का साँस लिया, “शुक्र है ख़ुदा का, आज तो ऐसे जमकर बैठे थे कि टलने का नाम ही नहीं ले रहे थे और अख़बार में बक़ौल उनके आज कोई ख़बर ही नहीं थी। ख़बर होने पर तो इतना जमकर बैठे, ख़बर होती तो बस यहीं डेरा डाल लेते।”

    ‘बेगम क्यों ख़ून जला रही हो अपना, नाश्ता करो...”

    “ख़ून तो जलना ही है, यह तुम्हारे ख़्वाजा साहब मुझे ज़हर लगते हैं। रोज़ सुबह धमकते हैं। मैं कहती हूँ कि अख़बार पढ़ने का ऐसा ही शौक़ है तो अख़बार ख़रीदें, हमारे सीने पर क्यों मूँग दलते हैं।”

    “असल में ख़्वाजा साहब अब्बा जान के वक़्त की पाबंदी को निभा रहे हैं...।”

    “ये अच्छी पाबंदी है, इस बहाने वह अख़बार का ख़र्च बचा लेते हैं।”

    मगर आख़िर साल में गिने-चुने ऐसे दिन भी तो आते हैं जब अख़बार छुट्टी करते हैं। वह 26 दिसंबर की सुबह थी। नाश्ता करते-करते मुझे ख़्वाजा साहब याद गए।

    “आज ख़्वाजा साहब नहीं आए।”

    “आज अख़बार जो नहीं आया है।”

    “हाँ, आज तो अख़बार की छुट्टी है।”

    “अच्छा ही है, मैं तो कहती हूँ रोज़ ही अख़बार की छुट्टी हुआ करे।”

    “बेगम तुम्हारा बस चले तो तुम पूरे प्रेस की छुट्टी करा दो। ख़्वाजा साहब की ज़िद में सहाफ़त (पत्रकारिता) की तो दुश्मन मत बन जाओ...

    “सहाफ़त?” बेगम ने हिकारत भरे लहजे में कहा, “ये कमबख़्त नया नशा निकला है। अब यह तुम्हारे ख़्वाजा साहब हैं, इन्हें अफ़ीम की लत पड़ी अख़बार की लत पड़ गई, बात तो एक ही है...”

    “नशा क्या, बस एक आदत होती है। सुबह और अख़बार लाज़िम मलज़ूम बनकर रह गए हैं। जिस सुबह अख़बार आए वह सुबह ख़ाली-ख़ाली-सी लगती है। शरीफ़ आदमी की समझ में नहीं आता कि क्या किया जाएँ?”

    “आख़िर पिछले ज़माने में भी तो सुबह हुआ करती थी।”

    “पिछले ज़माने का अपना तरीक़ा था। सुबह को लोग बाग़ों में जाकर सैर करते थे। अखाड़ों में ज़ोर करते थे। उसके बाद डटकर नाश्ता—हलवा-पूड़ी, निहारी, सीरी पाये, लस्सी का गिलास वह सब अब कहाँ? अब तो दो पन्ने का अख़बार और चाय के साथ दो तोंस। अब सुबहों में यही कुछ रह गया है।” मैं अभी यह कह रहा था कि दरवाज़े की घंटी बजी, “अलादीन, देख कौन है दरवाज़े पर?”

    अलादीन किचन से तेज़ी से निकलकर दरवाज़े पर गया, तेज़ी से वापस आया, “ख़्वाजा साहब हैं जी।”

    “फिर गए।” बेगम का मूड फिर ख़राब हो गया, “यह हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगे।”

    “बुला लो अंदर।”

    “क्यों बुला लो? आज कौन-सा अख़बार उनकी जान के लिए रो रहा है।”

    “बेगम, मुरव्वत भी कोई चीज़ होती है। अब अगर ख़्वाजा साहब जाते हैं तो उनसे कहा जाए कि आप चले जाइए।”

    “तुम्हारी जगह मैं होती तो साफ-साफ कह देती ज़रा भी लगी-लिपटी रखती।”

    इतने में ख़्वाजा साहब अंदर दाख़िल हुए। बेगम को अपना बयान बीच में ही रोकना पड़ा।

    “आइए, ख़्वाजा साहब तशरीफ़ रखिए, मगर अख़बार तो आज आया नहीं है।“

    “हाँ भई, कल छुट्टी थी, आज तो अख़बार आया ही नहीं था। मगर मुझे ख़्याल आया कि भई चल के कल ही का अख़बार देख लें।”

    “कल आपने अख़बार नहीं देखा था।”

    “देखा था बेटा, मगर क्या पूछते हो हमारी याद्दाश्त जवाब दे गई है। घंटे भर पहले की कही बात याद नहीं रहती। एक दिन पहले पढ़ा अख़बार कहाँ याद रहता है?”

    “अलादीन, कल का अख़बार लाओ।”

    मेरी आवाज़ पर अलादीन किचन से निकल आया। कल के अख़बार के नाम पर सिटपिटाया, “कल का अख़बार...?”

    “हाँ, कल का अख़बार... क्यों क्या बात है?”

    इस मौक़े पर बेगम अलादीन के आड़े आईं, “कल का अख़बार तो इस्तेमाल में गया है। मैंने ही अलादीन से कह दिया था अलमारी के ख़ानों में बिछाने के लिए और काग़ज़ कहाँ से लाऊँ आज का अख़बार पड़ा है, अब इसकी क्या ज़रूरत पड़ेगी, इसे ही बिछा लो...।”

    “ख़ैर कोई बात नहीं।” ख़्वाजा साहब ने फ़ौरन मसले का हल पेश किया।

    “परसों का अख़बार तो होगा, उसमें मज़मून बहुत काम का छपा है। उसे ले आओ, दोबारा वह मज़मून पढ़ लेंगे।”

    अलादीन अंदर गया टटोलकर दो दिन पहले का अख़बार लाया। ख़्वाजा साहब ख़ुश हो गए।

    ऐसा वक़्त का पाबंद आदमी अगर एक दिन आए और फिर दूसरे दिन भी आए तो फ़िक्र होती है कि आख़िर क्यों नहीं आया? मगर मुझे बाद में, बेगम को पहले कुरेद हुई।

    “क्या बात है, कल से तुम्हारे ख़्वाजा साहब नहीं रहे...।”

    “चलो, अच्छा है तुम बहुत बोर होती थीं।”

    “हाँ, किसी तरह टल जायें तो अच्छा ही है। जितनी देर बैठे रहते हैं, मेरा ख़ून जलता रहता है।”

    “बेचारे ख़्वाजा साहब!”

    “बेचारे-वेचारे वह कोई नहीं हैं। गाँठ के बहुत पक्के हैं। दाँत से पैसे पकड़ते हैं। अख़बार पढ़ने का तो बड़ा शौक़ है, मगर अख़बार ख़रीदने में जान जाती है। एक हम बेवकूफ़ उन्हें मिल गए हैं, सुबह हुई और आन धमके...”

    “मगर तुम उनके उसूल की दाद नहीं देतीं। अख़बार पढ़ने के लिए आते हैं तो सिर्फ़ अख़बार ही पढ़ते हैं और कोई बात नहीं करते।”

    “ऐसे उसूल वाले हैं तो ख़ुद अख़बार क्यों नहीं ख़रीदते हैं?”

    “बस हमारे घर आकर अख़बार पढ़ने की आदत जो हुई। या शायद इस तरह वह अब्बाजान की याद को अपने अंदर ताज़ा रखते हैं।”

    मगर दो दिन से क्यों नहीं आए? अब मुझे कुरेद हुई। कहीं ये एहसास तो नहीं हो गया कि इस घर में उनकी आमद पसंद नहीं की जाती।

    “अच्छा, तो वह हमसे बिगड़ गए हैं।”

    “शायद!”

    “बिगड़ते हैं तो बिगड़ जाएँ, आते थे तो हमें क्या दे जाते थे? नहीं आएँगे तो हम कौन-सी नेमत से महरूम हो जाएँगे।”

    अलादीन ने मेज़ से नाश्ते के बर्तन उठाते-उठाते ख़्वाजा साहब का ज़िक्र सुना और इत्तला दी, “बेगम साहबजी, ख़्वाजा साहब तो लंबे पड़े हैं।”

    बेगम घबराकर बोलीं, “क्यों, क्या हुआ, ख़ैर तो है...?”

    “बेगम साहबजी, ख़्वाजा साहब का गुसलखाने में पाँव फिसल गया, बस वह लंबे लेट गए। टाँग में बहुत चोट आई है।”

    मैं दफ़्तर जाने के लिए खड़ा हो गया था, मगर बेगम ने मुझे हालात की संगीनी का एहसास दिलाया।

    “सुन रहे हो अलादीन, क्या कह रहा है। बुढ़ापे की चोट है। अल्लाह ख़ैर करे।”

    “बहुत बुरा हुआ, मैं भी सोच रहा था कि आख़िर ख़्वाजा साहब आए क्यों नहीं? वह तो अपने वक़्त के बड़े पाबंद थे। उनकी नमाज़ क़ज़ा हो सकती थी, यहाँ आना और अख़बार पढ़ना क़ज़ा नहीं हो सकता था...।”

    मगर बेगम को ज़बानी हमदर्दी से इत्मिनान नहीं हुआ। तक़ाज़ा किया कि ख़्वाजा साहब को देखने चलो।

    “मगर दफ़्तर का वक़्त है उधर गया तो दफ़्तर को देर हो जाएगी...।”

    “कैसी बातें कर रहे हो? आदमी से बढ़कर तो दफ़्तर नहीं है। एक दिन दफ़्तर जाओगे तो क्या क़यामत जाएगी?”

    बेगम की इस प्रतिक्रिया ने मेरे अंदर एक अहसास-ए-ज़ुर्म पैदा कर दिया कि मैं कितना बेहिस हूँ और बेगम जो यूँ ख़्वाजा साहब से परेशान रहती हैं, कितनी दर्दमंद ख़ातून हैं, तो दफ़्तर का ख़याल छोड़कर मैंने ख़्वाजा साहब की मिज़ाज़पुर्सी के लिए जाने की ठानी।

    ख़्वाजा साहब मुझे और बेगम को देखकर बहुत ख़ुश हुए।

    “ख़्वाजा साहब, ये क्या कर लिया आपने?”

    “बस बेटा क्या बतायें? गुसलखाना गीला था पाँव फिसल गया।”

    “क्या चोट ज़्यादा आई है?”

    “तक़लीफ़ बहुत ज़्यादा है, बस अल्लाह ने इतना रहम किया कि हड्डी सलामत रही।”

    बेगम ने टुकड़ा लगाया, “इसके लिए तो शुक्राने की नमाज़ पढ़नी चाहिए। बुढ़ापे की हड्डी मुश्किल ही से जुड़ती है।”

    “हाँ, फिर तो हम चलने-फिरने से ही रह जाते।”

    मैंने पूछा, “अब डॉक्टर क्या कहता है?”

    “कहता है आराम करो। मैंने कहा डॉक्टर साहब इतना चलने-फिरने के क़ाबिल बना दीजिए कि करामत मियाँ के यहाँ जाकर अख़बार पर एक नज़र डाल लिया करूँ।”

    “अजी अख़बार का क्या है।” बेगम ने कहा, “वह तो मैं अभी अलादीन के हाथ भिजवा दूँगी।”

    “नहीं बेटी।”

    मैंने कहा, “ख़्वाजा साहब इसमें क्या हर्ज है? अख़बार रोज़ सुबह अलादीन के हाथ भिजवा दिया करेंगे।”

    “नहीं बेटे, हमने ज़िंदगी में पलंग पर लेटकर कभी अख़बार नहीं पढ़ा।”

    ख़्वाजा साहब की बेटी रशीदा बोली, “मैंने अख़बार कल भी मँगाया था। आज भी मँगा लिया है, मगर अब्बाजी ने उसे हाथ भी नहीं लगाया।”

    बस उस रोज़ से बेग़म ने रोज़ का ये मामूल बना लिया कि नाश्ते से फ़ुर्सत पाकर उधर मैं दफ़्तर की तरफ़ रवाना हुआ इधर बेगम अख़बार बग़ल में दाब ख़्वाजा साहब की तरफ़।

    ख़्वाजा साहब अख़बार तो नहीं पढ़ते थे, मगर इस बहाने बेगम ख़्वाजा साहब की ख़ैरियत तो मालूम कर लेती थीं।

    “बेगम क्या हाल है अब ख़्वाजा साहब का?”

    अब तो उठने-बैठने लगे हैं। बल्कि कल तो सहारे से चलकर बरामदे तक आए।”

    “बहुत जल्द रिकवर कर लिया...”

    “हाँ, अल्लाह ने रहम किया। मैं तो डर गई थी, बुढ़ापे में एक बार कमर चारपाई से लग जाए फिर आदमी मुश्किल से उठता है। तुमने तो उस दिन के बाद जाकर वहाँ झाँका ही नहीं...।”

    “क्या बताऊँ? दफ़्तर ने आजकल, मुझे इतना उलझा रखा है, वक़्त ही नहीं मिला। बहरहाल तुमने तो उनकी बहुत मिज़ाजपुर्सी की।”

    “मैं तो दिन में जब तक एक बार जाकर ख़ैरियत मालूम कर लूँ चैन नहीं आता। तुम्हारी तरह मेरा ख़ून सफ़ेद तो नहीं हुआ है।”

    बेगम के इस ताने से मुझ पर तो घड़ों पानी पड़ गया। अभी मैं सोच ही रहा था कि जवाब दूँ कि दरवाज़े की घंटी बजी। अलादीन तेज़ी से किचन से निकल दरवाज़े पर गया और वापस आकर बताया, ख़्वाजा साहब आए हैं।”

    “ख़्वाजा साहब...? अच्छा...?” हम दोनों हैरान रह गए!

    ख़्वाजा साहब छड़ी टेकते हुए आहिस्ता-आहिस्ता दाख़िल हुए। मैंने बढ़कर उन्हें सहारा दिया। सहारा देकर सोफ़े पर बिठाया।

    “लाओ बेटे, आज का अख़बार दिखाओ। आँखें अख़बार के लिए तरस गईं।” मैंने अख़बार ख़्वाजा साहब के हवाले किया। ख़्वाजा साहब ने आज कितनी बेताबी से अख़बार संभाला, जैसे भूखा आदमी खाना देखकर टूट पड़े।

    बेगम ने मिज़ाजपुर्सी की, “अब आपकी तबीयत कैसी है?”

    “बहुत बेहतर है, देखो चलकर यहाँ तक गया हूँ।”

    “अभी आपको इतना नहीं चलना चाहिए...।”

    “क्या करते बेटी, कितने दिनों से अख़बार नहीं देखा था।”

    “मैं तो रोज़ आपके लिए अख़बार लेकर पहुँचती थी...”

    “बेटी, तुम्हारा शुक्रिया, मगर उम्रभर तो यहाँ आकर अख़बार पढ़ा और जगह बैठकर अख़बार पढ़ने की कोशिश करूँ तो आँखें ही अख़बार को क़बूल नहीं करतीं।”

    यह कहते-कहते ख़्वाजा साहब अख़बार पर झुक गए। हमने भी ग़नीमत जाना और वहाँ से सरक आए। असल में आज छुट्टी का दिन था। दोस्तों और उनकी बेगमात के साथ एक पिकनिक का प्रोग्राम तय था। सो हमें जल्दी ही घर से निकलना था और ये सोचकर कि हम तो घर होंगे नहीं अलादीन को भी एक दिन की छुट्टी दे दी जाए, सो मैं अंदर जाकर जल्दी-जल्दी लिबास बदलने लगा। उधर बेगम भी बनने-सँवरने में मसरूफ़ हो गईं।

    बेगम ने लिपस्टिक लगाते-लगाते ड्राइंग रूम में झाँका, “ख़्वाजा साहब तो आज आकर जम ही गए।”

    “अच्छा, अभी तक उनका अख़बार ख़त्म नहीं हुआ?”

    बेगम ने जल्दी-जल्दी लिपस्टिक लगाकर एक बार फिर बाल सँवारे। हर कोने से चेहरे को आईने में देखा। एक बार फिर ड्राइंग रूम में नज़र डाली।

    “अजी, देख रहे हो ख़्वाजा साहब उठ ही नहीं रहे। यह बड़ी मुश्किल है।”

    बेगम ने नाराज़गी से कहा, “फिर आपने उन्हें पीछे लगा लिया, उन्हें किसी तरह रुख़्सत करो।”

    “देखो बेगम अब मैं ज़िम्मेदारी से बरी हूँ, अब ख़्वाजा साहब तुम्हारे असामी हैं।”

    “मेरे असामी कैसे हैं जी!”

    “मैं तो उनकी बीमारी के दिनों में बहुत कोल्ड रहा हूँ, तुम ही दौड़-दौड़कर उनकी मिज़ाजपुर्सी को जाती थीं।”

    “वह तो इंसानी हमदर्दी थी।”

    “बस, हमदर्दी ही हमदर्दी में आदमी मारा जाता है। बहरहाल चलकर देखता हूँ...।”

    टाई ठीक करता हुआ मैं जल्दबाज़ी के साथ ड्राइंग रूम में गया। बेगम भी तैयार हो चुकी थीं, पीछे-पीछे वह भी चली आईं।

    “ख़्वाजा साहब आप आँखों पर ज़्यादा ज़ोर मत डालें। अब आपको आराम करना चाहिए।”

    बेगम ने टुकड़ा लगाया, “हाँ, अभी आपको आराम की ज़रूरत है।” और तुरंत मुझसे मुख़ातिब हुईं, “आप इन्हें पहुँचाकर आएँ न...।”

    “नहीं बेटे मैं ख़ुद जा सकता हूँ।”

    इसी घड़ी अलादीन अख़बारों का एक ढेर लेकर नमूदार हुआ। वह पूरा ढेर उसने ख़्वाजा साहब के सामने डाल दिया।

    मैं हैरान हुआ, “ये क्या...?”

    ख़्वाजा साहब बोले, “ये मैंने मँगाए हैं। मैंने सोचा कि पिछली तारीख़ों के जो अख़बार पढ़ने से रह गए हैं, उन पर एक नज़र डाल लूँ मियाँ। ये अच्छा करते हो कि अख़बार महफूज़ रखते हो।”

    ये बात सुनकर मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। बेगम भी सख़्त बदहवास नज़र रही थीं। कितनी ग़ुस्सैल नज़रों से उन्होंने मुझे घूरा।

    “ख़्वाजा साहब...” मैंने झिझकते-झिझकते कहा, “आप ये सब अख़बार पढ़ेंगे?”

    ख़्वाजा साहब ने अख़बार पढ़ते-पढ़ते इत्मिनान से जवाब दिया, “हाँ बेटे।”

    “मगर ख़्वाजा साहब इतने अख़बार पढ़ने के लिए तो पूरा दिन चाहिए, और आप अभी बीमारी से उठे हैं।”

    “कोई बात नहीं।” ख़्वाजा साहब ने बेरुख़ी से कहा और अख़बार पढ़ने में व्यस्त हो गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 373)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : इंतेज़ार हुसैन
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
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