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मैना

maina

राधाकृष्ण

और अधिकराधाकृष्ण

    अलियार जब मरा तो दो पुत्र, छोटा-सा घर और थोड़ी-सी ज़मीन छोड़कर मरा। दसवें के दिन दोनों भाई क्रिया-कर्म समाप्त करके सिर मुंडाकर आए तो आने के साथ ही बँटवारे का प्रश्न छिड़ गया। और इस समस्या के समाधान के लिए इतने ज़ोरो से लाठियाँ चलीं कि दोनों भाइयों के मुंडित मुंड फूट गए।

    दोनों भाइयों ने इस प्रकार एक दूसरे का सिर फोड़कर अपना-अपना अपमान मान लिया। बड़े भाई 'मुसाफ़िर' की धारणा थी कि छोटे भाई ने सिर फोड़कर मेरा भारी अपमान किया है। छोटे भाई 'जगन' की भी यही शिकायत थी कि बड़के भइया ने बड़ी मज़बूत लाठी से मेरा अपमान किया है। दोनों ने प्रतिज्ञा की कि इस अपमान का बदला नहीं लिया, तो मेरा नाम नहीं।

    किंतु अपमान के प्रतिशोध के लिए मुक़दमा लड़ने को किसी के पास पैसे नहीं थे। केवल लाठियों का भरोसा था; लेकिन इसका मौक़ा नहीं था। दोनों ही सतर्क रहते थे। ख़ैर, किसी प्रकार दोनों भाई अपने उसी घर में एक म्यान में दो तलवार की तरह रहने लगे, लेकिन एक म्यान में दो तलवारों के रहने से तलवारों का उतना नुक़सान नहीं होता जितना कि बेचारे म्यान का! दोनों का क्रोध अपने घर ही पर उतरता था। मुसाफ़िरराम को ज़रूरत हुई तो छोटे भाई के लगाए हुए कुम्हड़े और करेले की लताओं को तहस-नहस करके अपनी गोशाला बना ली। इधर जगन ने आवश्यक समझते ही बड़े भाई के भंडार-घर को तोड़कर दरवाज़े के साथ मिला दिया। घर तोड़ने की ख़बर सुनते ही मुसाफ़िरराम अपने भाई का सिर तोड़ने के लिए तैयार हो गए, किंतु गाँव वालों ने बीच-बचाव करके झगड़ा शांत कर दिया।

    यह लड़ाई केवल पुरुषों तक ही थी, यह बात नहीं है। स्त्रियों में भी ऐसा घमासान वाग्युद्ध होता था जिसका ठिकाना नहीं।

    हाथ चमकाकर, माथा मटकाकर, नथ हिलाकर, ऐसी-ऐसी गालियों की बौछार की जाती थी जिसका अमृतरस लूटने के लिए गाँव की सारी महिलाएँ एकत्र हो जाती थीं। मुनिया को आदमी का माँस खाना अभीष्ट नहीं था, फिर भी बड़ी तेज़ी से निनाद करके रधिया को धमकी देती थी—तेरा भतार खा जाऊँगी। रधिया भला अपनी चीज़ कैसे दे सकती थी? चट से कहती—मेरा भतार क्यों खाएगी, तेरा मुस्टंडा तो अभी जीता ही है, उसी को चबा। इसी प्रकार दोनों देवरानी-जेठानी साहित्य के नवरसों से भिन्न गाली-रस की सृष्टि करती थीं।

    यह लड़ाई-झगड़ा, गाली-गलौज, एक-दो दिन रहता, तब तो ठीक, यहाँ तो महीने की लंबी डग मारता हुआ साल चला गया। घर और बाहर सभी इस झगड़े से ऊब उठे। गाँव वालों ने कहा—भाई, तुम लोग आपस मे क्यों इतना झगड़ा करते हो? अपनी-अपनी चीज़ें बराबर बाँट लो, बस झगड़ा ख़त्म हो गया।

    दोनों ने सकार लिया, बात ठीक है।

    आख़िर एक दिन गाँव वालों की पंचायत जमा हुई। सब कुछ देख-भाल कर दुखहरन पांडे ने तम्बाकू फाँकते हुए फ़ैसला सुना दिया! और तब आँगन के बीच में दीवार खींच दी गई। घर की कोठरियों को गिन-गिनकर अलग किया गया। हल, बैल, खेती-बाड़ी सब कुछ अलग-अलग हो गए। अब कोई भाई किसी से बोलना भी पसंद नहीं करता था। एक दूसरे को देखते ही घृणा से मुँह फेर लेता था।

    (2)

    उपर्युक्त घटना को दो वर्ष बीत गए।

    बिल्ली की तरह घर-घर घूमने वाली पद्मिनी काकी एक दिन मुसाफ़िर के घर में जाकर बोली—मुँह मीठा कराओ, तो एक बात कहूँ!

    रधिया ने उत्सुकता से पूछा—कौन बात है काकी, कहो न?

    'तुम्हारा भतीजा होने वाला है।'

    रधिया का चेहरा घृणा से सिकुड़ गया। क्रोध से जल उठी। मुँह बिचकाकर बोली—अय नौज, चूल्हे-भनसार में पड़े भतीजा, और देवी मइया के खप्पर में जाए हमारे देवर-देवरानी। इनको बेटी-बेटा हो, इससे हमको क्या और नहीं हो, इससे क्या। अगर इन लोगों का बस चले सो हम लोगों को जाने कब फाँसी लटका दें। ये लोग जैसे अपने हैं, उससे ग़ैर ही कहीं अच्छे।

    इस प्रकार रधिया ने भली-भाँति साबित कर दिया कि इससे मुझे तनिक भी ख़ुशी नहीं और पद्मिनी काकी का मुँह मीठा खाने लायक़ नहीं है।

    यह बात बड़े विस्तारपूर्वक मुनिया के निकट पहुँची। रधिया जलती है, यह सुनते ही उसे एक ईर्ष्यामय आनंद हुआ। बोली—अभी से उस कलमुँही के कपार में आग लग गई, तब तो लड़का होने से वह छाती फाड़कर मर जाएगी!

    जगन घर में आया, तो उसे भी यही समाचार सुनना पड़ा। सुनकर उसे हर्ष नहीं हुआ। घृणा से जी छोटा हो गया। अपने भाई-भौजाई होकर भी ये लोग कितने नीच हैं! बोला—वे लोग तो जन्म के जलन्त, उनकी बात को लेकर कहाँ तक क्या किया जाए?

    उन दिनों पद्मिनी काकी प्रतिदिन, एक नई सनसनीदार घटना की ख़बर लेकर मुनिया के निकट उपस्थित होती थी। आज रधिया देवी मैया के मंदिर में धरना देने गई है कि तुम्हारे पेट का लड़का नष्ट हो जाए। आज एक ओझा बुलाया गया है। बड़ा नामी ओझा है। उसके मंतर का मारा हुआ पानी भी नहीं पीता। भगवान जाने क्या होगा। रोज़ इसी प्रकार की नई घटनाओं का उल्लेख करके वह मुनिया से कुछ-न-कुछ जोग-ठोट के लिए झटक ही लेती थी।

    किसी प्रकार इन मारण-मोहन-उच्चाटन-वशीकरण से घोर युद्ध करता हुआ कई महीनों का सुदीर्घ समय व्यतीत हो गया। आज मुनिया को लड़का होने वाला है। उसकी वर्षों की मुराद पूरी होगी। ख़ाली गोद भर जाएगी। जगन के इष्टमित्र भी चहक रहे थे—भाई, भर-पेट खिलाना पड़ेगा, यहाँ पौने तीन सेर से छटाक-भर भी कम नहीं खाते। जगन प्रसन्नता-पुलकित होते उत्तर देता—अरे, इतना खिलाऊँगा कि खाते-खाते पेट फट जाएगा। भीतर गाँव की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ बच्चे की सेवा-सुश्रूषा कर रही थीं। अन्य महिलाएँ स्वयंसेविकाओं की तरह दूसरे-दूसरे काम में व्यस्त थीं; किंतु मुसाफ़िर का पता था और रधिया का। बाहर एक आदमी ने जगन से कहा—इस समय तुम्हें सब बैर भूलकर अपने भाई को बुलाना चाहिए था। जगन ने उत्तर दिया—बुलाया भाई, पचासों दफ़े आदमी भेजा, ख़ुद गया, जब आते ही नहीं, तो क्या करूँ?

    भीतर की औरतें आपस में कह रही थीं, ऐसे समय में आदमी सब लागडाट भूल जाते हैं। भाई-भौजाई होकर भी वे लोग नहीं आए।

    इस समय भी मुनिया कहने से चूकी—चूल्हे में जाएँ वे लोग, नहीं आए, यही अच्छा हुआ?

    उस समय रधिया अपने घर में चिंता से चूर बैठी थी। ईर्ष्या से उसका कलेजा जल रहा था। बार-बार भगवान को दोष दे रही थी, उसे क्यों लड़का हो रहा है, मुझे क्यों नहीं हुआ?

    मुसाफ़िर को तो ऐसा मालूम होता था जैसे उसका सर्वस्व लुट गया। अगर कहीं लड़का हुआ, तो मेरे घर-द्वार का भी वही मालिक होगा। आज तक उसने कभी अपने निःसंतान होने के विषय में नहीं सोचा था किंतु अब यही बात तीर की तरह उसके हृदय को बार-बार बेध रही थीं। गाल पर हाथ रखे वह इन्हीं ईर्ष्यामय विचारों में मग्न था। पड़ोस का शोर उसे ऐसा मालूम होता था, जैसे यह सब आयोजन उसी को चिढ़ाने के लिए किया गया है।

    इसी समय मालूम हुआ कि जगन के यहाँ लड़की पैदा हुई है।

    मुसाफ़िर ने एक लंबी साँस खींचकर कहा—जाने दो, लड़का नहीं पैदा हुआ यह अच्छा हुआ।

    यह उसके मन की वह प्रवृत्ति थी, जो निराशा की डाल पर भी संतोष के घोंसले बनाती है।

    (3)

    समय-पंछी उड़ता हुआ छह वर्षों का पथ और भी पार कर गया।

    जगन की लड़की मैना अपने द्वार पर बैठी हुई धूल के घरौंदे बनाती और बिगाड़ती नज़र आती थी। उसे देखकर मुसाफ़िर को क्रोध नहीं आता था, एक प्रकार का ममत्व जागृत हो उठता था। जी में आता था कि उस धूलि-धूसरित बालिका को गोद में उठाकर चूम ले। वह दूर से बैठकर उसकी बाल-क्रीड़ा को देखता था और फूला समाता था। मैना को गोद में लेने की बलवती इच्छा को वह कैसे दबाता था, यह उसके सिवा और किसी को नहीं मालूम।

    असाढ़ रथ द्वितीया के दिन उसी के गाँव के समीप करौंदी में मेला लगता था। उस मेले में कोई ख़ास बात नहीं थी। जगन्नाथ स्वामी के मंदिर में ख़ूब घड़ियाल-घंटा बजाकर उनकी पूजा होती थी। संध्या के समय, मनुष्यों के रथ पर लादकर, देवताओं को एक मंदिर से दूसरे मंदिर में पहुँचा दिया जाता था। आसपास के सभी गाँव वाले वहाँ एकत्र होते थे, काफ़ी भीड़ जुट जाती थी। मुसाफ़िर भी वहाँ गया था। वहाँ खिलौनों की दुकान देखकर ठिठक गया। इच्छा हुई कि मैना के लिए कुछ खिलौने लेता चलूँ। फिर सोचा—मगर इसके लिए कहीं जगन या उसकी बहू कुछ कह दें तब? उसने इच्छा को बलपूर्वक त्याग दिया और आगे बढ़ा। आगे भी खिलौने की दुकान थी, एक-से-एक अच्छे खिलौने भली-भाँति सजाकर रखे हुए थे। मुसाफ़िर रुक गया और दुकान की ओर देखने लगा। खिलौने सभी सुंदर थे, जिस पर दृष्टि जाती थी उससे आँखों को हटाना कठिन था। यदि इनमें से एक भी खिलौना मैना को मिले तो वह कितनी ख़ुश होगी। मुसाफ़िर की कल्पना की आँखों के आगे मैना उसके दिए हुए खिलौने को लेकर छाती से लगाए हुए दिखलाई पड़ने लगी। वह इसी आत्मविस्मृत दशा में दुकान के सामने जाकर खड़ा हो गया। एक खिलौना उठाकर पूछा—इसका कितना दाम है?

    'छह आने'!

    मुसाफ़िर को मानो होश हुआ। यह खिलौना मैं किसके लिए ख़रीद रहा हूँ। उसी के लिए जो मेरे बैरी की लड़की है। मगर अब क्या करता? दाम पूछ चुका था, अगर वहाँ से यूँही चल देता तो बड़ी हेठी होती।

    टाल देने के लिए बोला—तीन आने में देते हो तो दे दो।

    'अगर लेना ही है तो चार आने से कौड़ी कम नहीं लूँगा।'

    अब तो सिर्फ़ चार पैसो पर बात अटक गई। अगर ले ही लूँ, तो क्या होगा। मेरा दुश्मन जगन है कि उसकी लड़की। बेचारी का क्या क़ुसूर। जैसे वह जगन की लड़की है वैसे ही मेरी लड़की है। बेचारी को मैंने कभी कुछ नहीं दिया। लोग अपने भतीजे-भतीजी को लाख-दो-लाख दे देते हैं, अगर मैंने एक चार आने का खिलौना ही दे दिया तो क्या दिया!

    मुसाफ़िर जब खिलौने को ख़रीदकर चला तो उसके हृदय में जितना उल्लास था उतनी ही झगड़े की आशंका भी थी।

    साँझ के समय घर पहुँचा। मैना उस समय अपने पिता से पाई हुई सीटी बजा-बजाकर ख़ुश हो रही थी। इसी समय मुसाफ़िर जाकर उसके सामने खड़ा हो गया। खिलौना हाथ पर रखकर कहा—देख बेटी, यह खिलौना तेरे लिए लाया हूँ, पसंद है?

    मैना ख़ुशी से नाच उठी। बोली—हाँ चाचा, ख़ूब पसंद है; अबकी मेले में जाओगे तो मेरे लिए एक हाथी, एक ख़रगोश और एक कछुआ लेते आओगे?

    'अच्छा लेता आऊँगा’—कहकर मुसाफ़िर ने उसे गोद में उठाकर चूम लिया।

    मैना बोली—तुम बड़े अच्छे आदमी हो चाचा, तुम मेरे लिए मेले से खिलौना ला देते हो, गोद में लेकर दुलार करते हो।

    मुसाफ़िर ने स्नेह से पूछा—और तेरा बाप, दुलार नहीं करता?

    मैना सिर हिलाती हुई बोली—नहीं, वह दुलार नहीं करता, वह तो मुझे गोद में भी नहीं लेता।

    (4)

    एक दिन मुसाफ़िर गोद में मैना को लिए घर के भीतर गया तो रधिया बोली—तुम्हारे रंग-ढंग मुझे अच्छे नहीं लगते।

    मुसाफ़िर सहज उत्सुकता से पूछा—क्यों, क्या हुआ?

    'पराई बेटी के पीछे काम-धंधा छोड़कर, दिन-रात पागल बने फिरते हो। अगर अपनी बेटी होती तो क्या करते। कल खेत पर भी नहीं गए, सारा दिन बाँस की गाड़ी बनाने में बिता दिया।'

    मुसाफ़िर ने हँस कर कहा—पराई बेटी कैसे हुई? क्यों मैना, तू दूसरे की बेटी है?

    मैना ने सिर हिलाकर कहा—नहीं।

    'तब किसकी बेटी है’?

    मैना उसके गले में अपनी दोनों बाहें डालकर बोली—तुम्हारी।

    मुसाफ़िर मुस्कुराता हुआ गर्व से अपनी पत्नी की ओर देखकर बोला—देखती हो?

    रधिया ने कहा—सब देखती हूँ; लेकिन अगर कुछ हो गया, तो यही समझ लो कि तुम्हारे सिर का बाल भी नहीं बचेगा। जो कुछ असर-कसर वाक़ी है, वह भी पूरी हो जाएगी।

    मुसाफ़िर ने मैना को चूमकर कहा—मेरी बेटी को क्यों कुछ होगा, जो कुछ होना होगा, सो इसके दुश्मन को होगा। क्यों बेटी?

    मैना ने सिर हिलाकर अपनी सम्मति जता दी।

    रधिया ने मुँह फुलाकर कहा—एक दफ़े कपार फुटवा ही चुके, अबकी मालूम होता है मूँछे उखड़वाओगे।

    मुसाफ़िर के दिल में कुछ चोट लगी। उसने सिर उठाकर कहा—तुम तो मैना को फूटी आँखों भी नहीं देख सकती। यह मेरी गोद में नहीं आए, तब तुम्हारा कलेजा ठंडा रहेगा।

    रधिया तीव्र स्वर में बोली—कौन कहता है कि मैना मुझे फूटी आँखों नहीं सुहाती? बोलते कुछ लाज भी लगती है कि नहीं! लड़के-बच्चे भी किसी के दुश्मन होते हैं। मैना को देखती हूँ, तो गोद में लेने के लिए तरसकर रह जाती हूँ, मगर करूँ तो क्या, इसके माँ-बाप ऐसे हैं जिनसे दुश्मन भी भला। छोड़ देती हूँ, कौन जाने मैना को दुलार करने से हमारी मालकिनजी राँड-निपूती कहने लगें।

    इसी समय मैना अपने चाचा की गर्दन झकझोरकर बोली—चाचा, चलो गाड़ी पर चढ़ाकर टहला दो।

    'चल!' कहता हुआ मुसाफ़िर उसे लिए हुए घर से बाहर चला गया।

    उस दिन मैना गाड़ी पर चढ़कर ख़ूब घूमी, लेकिन जब उसकी छोटी-सी गाड़ी समस्त गाँव की परिक्रमा करके लौटी, तो उसे कुछ ज्वर-सा हो आया था। मुसाफ़िर ने देखा कि उनका शरीर कुछ गर्म है। बोला—घर चली जाओ बेटी, शायद तुम्हें बुख़ार आएगा।

    मैना ज़िद करने लगी—नहीं चाचा, थोड़ा और घुमा दो। थोड़ा-सा। फिर घर चली जाऊँगी।

    'नहीं नहीं, अब घर जाओ।'

    मैना मलीन मन गाड़ी से उतरकर घर चली गर्इ। उस दिन वह बहुत उदास हो गई थी। चाचा यदि थोड़ा और घुमा देते तो क्या होता?

    (5)

    दूसरे दिन मुसाफ़िर दिन-भर मैना को नहीं देख सका। मालूम हुआ कि उसे ज्वर हो आया है। मुसाफ़िर दिन-भर बहुत ही उदास रहा। खेत पर भी नहीं जा सका। बैल भूखे थे, उन्हें सानी देने की भी याद नहीं रही। मालूम होता था जैसे वह निर्वासित कर दिया गया है। मैना के बिना उसे अपना जीवन सुनसान और भयावना प्रतीत होता था। वह जहाँ बैठा था, दिन भर वहीं बैठा रह गया। रात हुई तो रधिया आकर बोली—आज खाओगे नहीं क्या?

    'ना, आज भूख नहीं है।'

    'तुम तो मुफ़्त में अपनी जान गँवा रहे हो, जिन लोगों के लिए प्राण हत रहे हो उन्हें तो तुम्हारी परवाह नहीं है। यह किसी से नहीं हुआ कि तनिक बुलाकर दिखला देते। हाय री बच्ची, कल ही भली-चंगी थी, आज न-जाने कैसे क्या हो गया। मेरा तो जी चाहता है कि जाकर एक बार देख आती।

    मुसाफ़िर प्रसन्न होकर बोला—चली जाओ न, देखती आना।

    रधिया ने कहा—जाती तो; लेकिन महारानीजी से डर लगता है कि कहीं डाइन कहके बदनाम कर दे। और तुम्हारा सपूत भाई भी कम नहीं है। ना, मैं नहीं जाऊँगी, तुम्हीं जाओ।

    'तुम्हारे जाने से लोग बुरा मानेंगे, तो क्या मेरे जाने से भला मानेंगे?'

    'तो जाने दो, मगर चलो खा लो। ऐसे कब तक रहोगे?'

    'जब तक मन करेगा।'

    'भगवान लोगों को दुख देते हैं, तो क्या सभी खाना छोड़ देते है? दुनिया का काम तो सभी को करना ही पड़ता है।'

    'खाऊँगा तो ज़रूर; लेकिन अभी भूख नहीं है।'

    रधिया निराश होकर चली गई। मुसाफ़िर वहाँ बैठा-बैठा क्या सोच रहा था, यह वहीं जाने; लेकिन जब रात भीग गई, दस से ऊपर हो गए और रात्रि के सन्नाटे में कुत्तों का भोंकना जारी हो गया तब मुसाफ़िर जगन के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। दीवार से कान लगाकर, बहुत देर तक मैना की बोली सुनने की चेष्टा की; किंतु निष्फल ही रहा। अंत में निराश होकर घर लौट पाया और चुपचाप सो गया।

    मैना तीन-चार दिनों तक तो बुख़ार में डूबी रही, पाँचवे दिन सन्निपात हो गया। बचने की आशा जाती रही। मुसाफ़िर यह सब सुनता था और मन-ही-मन हाय करके रह जाता था।

    आख़िर एक दिन मुनिया के क्रंदन से जगन का घर गूँज उठा। मुसाफ़िर के हाथ-पाँव फूल गए। वह पागल की तरह दौड़ा हुया जगन के आँगन में पहुँच गया। घबराया हुआ बोला—जगन, जगन, क्या हुआ? जगन रोता हुआ घर से निकला—भैया, हम लुट गए, भैया, मैना!...

    मुसाफ़िर भी कातर भाव से हाहाकार करके रो उठा, हाय मेरी बच्ची!

    जब लोग मैना की लाश को उठाकर ले चले, उस समय मुनिया भी सिर के बाल खोले पागलों की तरह रोती हुई जा रही थी। हाय रे! मेरी भली-सी बच्ची को लेकर तुम लोग कहाँ जा रहे हो? लाओ, उसे मुझे दो, वह दूध पीकर चुपचाप सो जाएगी। हाय रे, मेरी बच्ची! सुनो... सुनो तो...

    इसी समय रधिया अपने घर से दौड़ती हुई निकली और मुनिया को पकड़ लिया। उसे अपनी छाती से लगाकर बोली—न रोओ बहन, रोओ।

    भगवान ने हम लोगों को दुःख दिया है तो सहना ही पड़ेगा!

    उस समय तक शव ले जाने वाले आँखों की ओट हो चुके थे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गल्प-संसार-माला, भाग-1 (पृष्ठ 110)
    • संपादक : श्रीपत राय
    • रचनाकार : राधाकृष्ण
    • प्रकाशन : सरस्वती प्रकाशन, बनारस
    • संस्करण : 1953

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