मैं दबे पाँव दाख़िल हुआ। बाहर का गेट मैंने धीरे से खोला— ऐसे कि आवाज़ न हो। घर के सामने वाला दरवाज़ा उड़का हुआ था— हमेशा की तरह। मैंने उसे भी धीरे से धकेला था। असल मे मैं जमील के सामने बिल्कुल अचानक आना चाहता था— दिल के दौरे की तरह।
यह भोपाल-जैसे शहर की दुपहरी थी— ढलती हुई। दिन में इतना सूनापन और आलस्य था कि अक्सर लोग सो रहे थे। मैं जानता था कि यह जमील के घर पर मिलने का वक़्त था। शहर और उसके अपने मिज़ाज के लिहाज़ से ही नहीं, उसके काम के एतबार से भी। उसका कॉलेज सुबह-शाम लगता था और सारी दुपहर ख़ाली रहती थी।
जमील दीवान पर लेटा हुआ था, दीवार की ओर मुँह किए। आहट से चौंक कर जब उसने देखा तो एकाध पल बस देखता ही रह गया। हैरान! फिर “अरे” कहता हुआ हड़बड़ाकर उठा और हम दोनों लिपट गए। उसकी जकड़ ज़बरदस्त थी। बाँहें उसकी लंबी और मज़बूत थी और हथेलियाँ जैसे मेरी पीठ में धँस जाना चाहती थी, गोश्त-पोश्त को छेदती हुई। पहली बार लगा कि हाथ की उँगलियाँ भी बोलती हैं।
“कब आया?” कई पल बाद उसने गर्दन हटाकर पूछा, लगभग रुँधे हुए स्वर में। उसका चेहरा अब भी मेरे इतने पास था कि दोनों एक-दूसरे को देख नहीं पा रहे थे।
“सुबह,” मैंने कहा, “दक्षिण एक्सप्रेस से।”
अलग हुए। बैठे।
“मैं आज सुबह ही याद कर रहा था”, वह बोला और गाव तकिए से टिककर मेरी ओर देखने लगा। वह ऐसी भरपूर नज़र थी, जिसमें आप समा लेना चाहते हैं— सब-कुछ। तभी बग़ल वाले कमरे का परदा हटाकर बीवी कनीज़ आई, हँसती हुई। सलाम किया। पास बैठी। बोली। पूछा। ख़ुश हुई।
“बाजी कैसी हैं?” मैंने कनीज़ से कहा, “उनसे मेरा सलाम...”
“नमाज़ पढ़ रही हैं”, वह अंदर देखती हुई बोली, “और तुम्हारे लिए क्या लाऊँ? पहले खाना खा लो...”
“इस वक़्त?” मैं हँसने लगा, हमेशा की तरह। मैं जानता था कि आख़िर वह खाना लाएगी और मैं खाऊँगा। वह उठकर अंदर चली गई।
“अब बाजी की तबीअत कैसी रहती है?” मैंने जमील से पूछा।
बाजी का तख्त़ बाहर से ही दिखता है और घर में दाख़िल होते हुए मैंने देख लिया था कि वह नमाज़ पढ़ रही हैं। सवाल जैसे असुविधाजनक था। जमील सिगरेट का पैकेट टटोलने लगा। मिला तो एक जलाई और मेरी ओर देखकर सिर हिला दिया, यानी बस ठीक है। और फीकेपन से मुस्कराया। बाजी-भाईजान यानी माँ-बाप। बाजी कई महीनों से बीमार चल रही थीं। घर पर हुए नए हादसे से भी पहले। शायद तभी से जब एक दिन भाईजान अचानक नहीं रहे थे। रात वे ठीक-ठाक सोए थे, लेकिन सुबह नहीं उठे, बस!
“कौन है अल्लन?” भीतर से बाजी की आवाज़ आई। वह शायद मुसल्ले से उठ रही थी। अल्लन यानी जमील। जमील ने मेरा नाम बताया। कहा कि मैं दिल्ली से आया हूँ, सलाम कर रहा हूँ। उन्होंने वहीं से दुआएँ दीं, बहुत थकी हुई आवाज़ में। फिर कुछ बड़बड़ाती-सी रही। क्या, यह मेरी समझ में नहीं आया। सोचा कि दरवाज़े तक जाकर उन्हें देख लें, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी। उनका सामना करना मेरे बस की बात नहीं थी।
“और ?” थोड़ी देर बाद जमील ने मुझे वापस लाते हुए कहा, कहीं और ले जाने के लिए।
“तेरी दिल्ली कैसी है?”
“मेरी!”
जमील मुस्कराया।
“दिल्ली एक दोज़ख़ है, मैं पहले अक्सर कहा करता था। चार साल पहले जब मैं इस शहर से निकाला गया था तो मेरे मन में बहुत तल्ख़ी थी। यह देश-निकाला पिछली सरकार की इनायत थी और मेरे लिए यह भूलना मुश्किल था कि मैं दिल्ली आया नहीं, फेंका गया हूँ। अब वह बात नहीं रही, लेकिन न तो मैं दिल्ली का हो सकता हूँ और न दिल्ली मेरी, जमील यह जानता था।
“चल, मेरठ की मारकाट की सही। क्या हाल है?”
“वहाँ दंगे का इतिहास बहुत पुराना है, सन् सैतालीस से भी पुराना। नया मैं क्या बताऊँ! वही कह सकता हूँ जो अख़बारों में है। हाँ, सुना है कि मुरादाबाद और अलीगढ़ में बहुत तनाव है।”
“तुझे अख़बारों पर भरोसा होता है?”
मैं चुप हो गया।
“जो लोग दहाने पर बैठे हैं, वे जानते हैं।” उसने कहा।
“कहाँ है दहाना?”
“दिल्ली दहाना नहीं है— मुल्क का, मेरठ का, जमशेदपुर या भागलपुर का...?
मैं कमरे की दीवारों को देखने लगा, जिनमें कई आकारों की पेंटिंग्स लटकी हुई थीं, कनीज़ की बनाई हुई। उनमें हुसैन और हेब्बार का मिला-जुला प्रभाव साफ़ था। ज़ाहिर है कि मैं बचना चाहता था! शायद हम दोनों बचना चाहते थे, उससे जिसके छिड़ जाने का डर हम दोनों को ही था।
“तेरी पुरानी शक्ल लौट आई है,” जमील ने बात पलटते हुए कहा, “पिछली बीमारी में जाने वह कहाँ चली गई थी!”
“यह हार्ट-अटैक की देन है,” मैंने कहा और दंभभरी हँसी हँसने लगा, ऐसे जैसे मैं कोई क़िला जीत आया हूँ।
“अब तो तू बिल्कुल ठीक है न?” उसने पूछा।
“बिल्कुल का तो पता नहीं। हाँ, ठीक ज़रुर हूँ। उतना ही ठीक, जितना दिल के मरीज़ रहते है।”
और यह कहने के साथ ही मुझे लगा कि मेरे स्वर में आत्मदया आ गई है। मैंने पुराने दंभ में लौटते हुए कहा, “असल में, अब मैंने परवाह करना छोड़ दिया है। जब आना है, आ जाएगी। तब न डॉक्टरों के चलते रुकेगी और न मेरे रोके।”
“बहुत दिनों तक यहाँ किसी को पता नहीं था, जमील ने कहा, “अफ़वाह की तरह ख़बर आई थी कुछ उल्टी-सीधी। हम लोगों ने घबराकर दिल्ली फ़ोन किया था, लेकिन तुम्हारे वहाँ के दोस्तों ने कहा कि वैसी कोई बात नहीं है। अस्पताल में ज़रूर है, ‘इंटेंसिव केयर यूनिट’ में भी है; लेकिन हार्ट-वार्ट का मामला नहीं है। वो तो दिल्ली से तुझे देखकर लौटे पंकज ने बताया कि सब-कुछ कितना सीरियस था...” यह हुआ कैसे?”
“उसी तरह, जैसे यह होता है— अचानक?”
“घर पर ?...”
“नहीं, दफ़्तर में।”
“कैसे?”
“मैं बातें कर रहा था एक मिलने वाले से। एकाएक मुझे बेचैनी-सी हुई। सीने में जकड़न और दर्द के बगूले उठ आए थे और मैं पसीने में सराबोर हो गया। मेरी आवाज़ बिल्कुल मद्धिम हो गई थी, दिल डूबने लगा था। मैं उठना चाहता था, लेकिन मुझ में दम नहीं था। मैं बैठे रहना चाहता था, लेकिन इतनी बेचैनी और घबराहट कि...थोड़ी ही देर में मैं फ़र्श पर लेटा छटपटा रहा था....”
कहते-कहते मैं रुक गया क्योंकि जमील के चेहरे पर एक आतंक मैं साफ़-साफ़ देख रहा था जो मैं चाहता था। मुझे ख़ुशी थी कि मेरी जिस यातना को यहाँ मामूली ढंग से लिया था, मैं उसका हिसाब बराबर कर रहा था। दिल्ली के अपने दोस्तों के रवैए पर ग़ुस्सा आ रहा था, सो अलग। यह ठीक है कि एक मसलेहत के तहत मेरी बीमारी की संजीदगी को छिपाया गया था, लेकिन उस मसलेहत ने मुझे उस सबसे यहाँ महरूम कर रखा था, जो मैं चाहता था। लगभग एक साल के बाद मैंने इस शहर में प्रवेश किया था, एक ऐसे आदमी की तरह जो दुर्लभ होते-होते एकाएक रह गया था।
“तुम्हें याद है, मैंने ताज़ियत का ख़त तुम्हे कब लिखा था? वह सात अप्रैल का दिन था, और कोई घंटे-भर पहले मैंने तुम्हें लिखा था? तब मैंने सोचा भी नहीं था कि थोड़ी ही देर बाद मैं भी उस रास्ते पर पहुँच जाऊँगा जहाँ से हसीन कभी नहीं आया।”
तभी भीतर से कनीज़ निकल आई और मेरे सामने कबाब-रोटियों की रकाबी रखती हुई बोली, “लो, खाओ!” फिर एक स्टूल खींचकर सामने ही बैठ गई। पहला ही लुकमा तोड़ते हुए मुझे लगा कि हसीन का नाम मुझे नहीं लेना चाहिए था। शायद मैं चाहता भी नहीं था, लेकिन बात की रौ थी। लेकिन क्यों नहीं? क्या मैं पुरसे के लिए नहीं आया था? पुरसा वह भी हसीन का। यह वह आदमी था जो अभी कल तक इसी शहर में दूसरों के पुरसे के लिए जाया करता था और नहीं जानता था कि उसे क्या कहना चाहिए। वह चुपचाप बैठ जाया करता था— सूनी आँखों से एक तरफ़ देखता हुआ।
ख़बर मुझे यह भी दफ़्तर से मिली थी, दिल्ली में, जमील ने नहीं दी थी। इस शहर से भी नहीं गई थी, बुरहानपुर से सईद महमूद ने लिखा था—
“तुम्हें यह जानकर बहुत सदमा होगा,” उसने ख़त में कहा था कि हम दोनों का अज़ीज़ दोस्त हसीन अहमद सिद्दीकी का नाइजीरिया में इंतकाल हो गया। उसका हार्ट-फेल हो गया था। नसरीन भाभी उसकी मय्यत लेकर भोपाल आई थी और उसे दफ़नाकर मैं कल लौटा हूँ। हम लोगों को जो होना था हुआ, लेकिन सोचो कि तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ रह गई एक जवान औरत के साथ जो नाइंसाफ़ी हुई है, क्या उसकी कोई तलाफ़ी हो सकती है?
बड़ी देर तक मैं ख़त लिए बैठा रह गया था। मैंने उसे कोई तीन बार पढ़ा था और हसीन के नाम पर पाँच बार नज़र डाली थी। मैं यक़ीन करना चाहता था, लेकिन हो नहीं रहा था और जब हुआ तो उस पल के हज़ारों में राहत और छुटकारे की साँस थी। फिर मैंने दुःख को धीरे-धीरे समेटकर अपने भीतर इकट्ठा किया था और एक़दम दुःखी हो गया था।
“यह भी कोई बात हुई?” मैं उसके बाद हर आने वाले को बताकर कह रहा था, “क्या यह उसके जाने की उम्र थी और वह भी दिल के दौरे से! वह तो मुझ से भी दो साल छोटा था। वह ख़ुदा से खौफ़ खाने वाला और परहेज़गार आदमी था और सिगरेट तक नहीं पीता था।”
यह सब कहते हुए या तो मैं डरा हुआ था या शायद अपने डर को दूर कर रहा था, हालाँकि दफ़्तर से घर लौटने तक भी उससे पीछा नहीं छूटा था। वह कहीं इतने अंदर पहुँचकर बैठ गया था कि उसने मुझे एकाएक चुप कर दिया। ख़बर यह घर के लिए भी बड़ी थी, लेकिन मैंने उस दिन बीवी से भी नहीं कहा— इस डर से कि घर पर भी देर तक वही ज़िक्र होता रहेगा और रात को हसीन का चेहरा मुझे सोने नहीं देगा। उस रात मैं सो तो गया, लेकिन हसीन ने तंग बराबर किया। उसका चेहरा चारों ओर से आकर मुझ पर आक्रमण करता था और सपने में सारी रात उसकी मय्यत दिखाई दी— कई दिन पुरानी मय्यत! यह उस दिन ही नहीं, उसके अगले दिन भी हुआ था और उसके भी अगले दिन, हालाँकि मैं किसी से कुछ भी नहीं कह रहा था। ताज़ियत का ख़त भी तीन दिनों तक टालने के बाद मैंने जमील को लिखा था और मैं भी हसीन की तरह नहीं जानता था कि पुरसे में क्या कहना चाहिए...
बात अजीब सही, लेकिन सच तो यह है कि हसीन मेरा दोस्त नहीं रह गया था, ख़ासकर इधर के बरसों में—जब वह नाइज़ीरिया चला गया था या शायद उससे भी पहले जब मैं धीरे-धीरे उसके छोटे भाई जमील का दोस्त हो गया था।
पंद्रह बरस पहले जब मैं भोपाल आया था तो दोस्ती उसी से हुई थी। दोनों भोपाल में बाहर से आए हुए थे और वहाँ हमारा कोई घर नहीं था। हसीन में एक ख़ास तरह का मरदाना आकर्षण था— सीधे अपनी ओर खींच लेने वाला। वह लंबा और छरहरा था और हल्के-हल्के गंजा हो रहा था। पहले ही दिन मैंने देख लिया था कि वह एक महीन अहसासों वाला ऐसा ग़ुस्सैल और आक्रामक आदमी है जो अपने-आप पर भी हँस सकता था। वह इतने छोटे-छोटे और ख़ूबसूरत मुबालग़े करता था कि कोई भी हँसता-हँसता उसका हो जाता था। तब हम लोग पुराने भोपाल की अमीरगंज गली में रहते थे और जवान थे। हसीन एक प्राइवेट कॉलेज में विज्ञान पढ़ाता था और मैं एक दफ़्तर में कलम घसीट रहा था। मुहल्ला पुराने रईसों और खमीरों का था और हम-जैसे फटेहाल इक्का-दुक्का ही पड़े हुए थे अपने-अपने मुँह छिपाए हुए।
असल में, हम दोनों की दोस्ती दो तंगदस्त, कुंठित और ग़ुस्सैल आदमियों का ऐसा मेल थी जो दोनों को राहत देती थी। रीझा पहले मैं ही था, बाद में उसे रिझा लिया था, हालाँकि हम दोनों अलग-अलग क़िमाश के लोग थे। वह विज्ञान पढ़ाता था लेकिन दकियानूस और मज़हबी था और हँसी-हँसी में अपने को जन्नती कहता था। मेरा विज्ञान से कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन मैं उसी के सहारे अपने को आधुनिक लगता था और प्रगतिशील बना हुआ था— हसीन का फ़तवा सिर-माथे पर लिए हुए मैं दोज़ख़ी हूँ। सच्चाई यह है कि हम दोनों एक-दूसरे को दोज़ख़ी समझते थे और दोनों मिलकर उस तीसरे को जो हमारे बीच नहीं होता था, लेकिन जिसे हम काँदू कहते थे।
“तुम मक्कार हो,” एक बार उसने ग़ुस्से में खेलते हुए मुझसे कहा था, “अव्वल दर्जे के पाखंडी और धूर्त...”
“क्यों, क्या तुमसे भी बड़ा?”
“हाँ, मैं तो तुम्हारे पाँव की धूल भी नहीं हूँ।”
“वह तो तुम वैसे भी नहीं हो।” मैंने हँसकर उड़ाना चाहा था।
“तुम दोनों जहान के मज़े मारना चाहते हो,” उसने क़रीब-क़रीब बाल नोचते हुए कहा था, “नास्तिक-वास्तिक कुछ हो नहीं, वह तुम्हारा ढोंग है।
“तुम्हारे जन्नती होने से भी बड़ा ढोंग?” मैंने प्रतिवाद किया था, “क्यों नाहक़ फाके करते हो यार!”
मैं अक्सर कहा करता था कि जो सचमुच रोज़ेदार होते हैं, वे सेहरी के बाद इफ़्तार और इफ़्तार के बाद सेहरी की फ़िक्र नहीं किया करते। जो लोग रमज़ान के दिनों में सुबह-शाम थैली लिए बाज़ार भागते नज़र आते थे, कभी मुर्ग तो कभी तीतर के लिए, कभी लवे तो कभी बटेर, कभी मछली तो कभी बिरयानी के लिए, मैं उनका मज़ाक उड़ाता था—यह जानते हुए भी कि इससे हसीन को चोट लगती है क्योंकि मैं यही चाहता था।
“तुम न हीयों में हो और न शीयों में। न यहाँ, न वहाँ। अल्लाह तुम पर रहम करे।” वह मुझसे कहता था।
यह सिर्फ़ एक दिन की बात नहीं थी। अक्सर हम दोनों किसी न किसी ऐसी बात पर लड़ते थे। ग़ुस्से में एक-दूसरे से कभी न बोलने की धमकी देते थे, लेकिन अगले दिन या उसके अगले दिन फिर मिलते थे। फिर से लड़ने के लिए...
यह वह दौर था, जब मुल्क में फ़साद की फ़सल आई थी और एक के बाद कई शहरों में दंगे हो रहे थे— जबलपुर, भिवंडी, जलगाँव, अहमदाबाद, जमशेदपुर और..
हम लोग भोपाल जैसे शहर में रह रहे थे, जिसमें दंगे का कोई इतिहास नहीं था, फिर भी डरे हुए थे, क्योंकि शहर में तनाव था। सरकार सतर्क हो गई थी। जगह-बेजगह पुलिस और होमगार्ड के जवान तैनात थे। रोज़ अफ़वाहें उड़ती थीं और बाहर से रोज़ ख़बरें आती थीं— हैबतनाक ख़बरें! बरसों से साथ-साथ रहे आए हिंदु-मुसलमान एक-दूसरे को संदेह और डर से देखने लगे थे, और छोटे-छोटे समूहों में बँट गए थे।
“देख लो,” एक ऐसी ही शाम हसीन ने घबराए हुए स्वर में कहा था, “हैवान के बच्चों ने मुल्क का बँटवारा करके क्या कर दिया है...”
उसने सुबह के अख़बार में कुछ और दिल दहलाने वाली ख़बरें पढ़ ली थीं। उसका शेव बढ़ा हुआ था और बाल रूखे थे— उड़े-उड़े-से। वह और दिनों से ज्य़ादा गंजा लग रहा था।
“अब यह मुल्क रहने लायक़ नहीं रहा!” वह बोला, “किसी दिन हम लोग भी काटकर फेंक दिए जाएँगे और कोई रोने वाला नहीं होगा।”
“क्यों, मैं जो हूँ।” मैंने हँसकर कहा। दरअसल, मैं अपने और उसके डर को हँसकर उड़ाना चाहता था— अँधेरे में गाए जाने वाले गीत की तरह।
“तुम भी नहीं होगे,” उसने आँख तरेरकर तल्ख़ी से जवाब दिया, “कल जब काफ़िरों का जत्था गँडासे और खंजर लेकर तुम्हारे दरवाज़े पर आएगा, तब कोई नहीं पूछेगा कि तुम क्या सोचते हो या तुम्हारे ख़यालात क्या हैं! पहचान के लिए तुम्हारा नाम काफ़ी है।”
“तुम तो कह रहे थे कि पहचान के लिए सिर्फ़ नाम काफ़ी नहीं होता!”
“वह और बात थी। दूसरे सिलसिले में कही गई थी। मसलों को गड्डमड्ड मत किया करो। मैं जानता हूँ, तुम चालाकी कर रहे हो।”
हाँ, मैं चालाकी कर रहा था। जान-बूझकर अनजान बने रहने की चालाकी। सच्चाई से डरकर भाग खड़े होने की चालाकी। हसीन से असहमत होने और उसे आहत करने की चालाकी। मैं हसीन से बिल्कुल सहमत नहीं होना चाहता था, क्योंकि उसकी बात मानना अपने पाँवों के नीचे के उस टीले को काटना था, जिस पर मैं खड़ा था।
इस बीच एक ऐसी बात हुई जिसके बारे में मैंने कभी सोचा भी नहीं था। हसीन एकाएक मेरे लिए दुर्लभ हो गया था। सुबह उसको कॉलेज हुआ करता था, दोपहर में मेरा दफ़्तर। एक शाम का ही वक़्त था, जिसमें हम अक्सर मिला करते थे, लेकिन इधर वह कई शामों से ग़ायब था। मेरे लिए हसीन का घर अपरिचित नहीं था, जमील भी मेरे लिए नया नहीं था। मैं जानता था कि वह हसीन का छोटा भाई है और उसी कॉलेज में पढ़ता है। जब-जब मैं हसीन के यहाँ गपशप, चाय या खाने पर होता, अक्सर जमील भी हुआ करता था— यहाँ तक कि उसके बाप भाईजान भी। वह इस अर्थ में अजीब घर था कि यहाँ पहुँचे किसी भी दोस्त या मेहमान से पूरा घर मिलता था और सभी लोग बातचीत में शरीक होते थे। मुझे भाईजान का अपने बीच होना कई बार खलता था, क्योंकि उससे हमारी आज़ादी छिनती थी, लेकिन जमील का होना मुझे अच्छा लगता था। दरअसल, मैं जमील को शुरू से पसंद करता था।
अब सोचता हूँ तो लगता है कि जमील का पहले मुझसे न टकराना या हसीन के माध्यम से मिलना महज़ एक संयोग था, वरना शायद मैं सीधे उसी का दोस्त होता। यह बात तब भी लगी थी जब मैं हसीन का अता-पता करने कई बार उसके घर गया था और जमील मुझे नहीं मिला था। फिर मैं धीरे-धीरे हसीन से कट गया था।
“हसीन भाई से आजकल शाम को मिलना मुश्किल है, मेरी दो-तीन बार की मायूसी के बाद जमील ने मुझे बताया था, “दरअसल ये और सईद महमूद उसी चक्कर में हैं।”
“किस चक्कर में?”
“ताज्जुब है कि आपको पता नहीं! क्या आप नहीं जानते कि दोनों बाहर निकलने की जुगाड़ में हैं?”
“बाहर यानी?”
“बाहर यानी कहीं भी। मिडिल ईस्ट, लीबिया, अफ़्रीका और वहाँ जहाँ जॉब मिले, अच्छे पैसे मिलें! सईद महमूद की तो मज़बूरी है, ऐसे कॉलेज की मास्टरी में वह वैसे ही कंगाल है। चार-चार बेटियाँ सिर पर बैठी हुई हैं और बेटा पोलियो का शिकार है...हसीन भाई हैं कि वे बेहतर ज़िंदगी चाहते हैं...”
सईद महमूद तब भोपाल में था और उसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर था। वह हम तीनों का दोस्त था, लेकिन किसी के हाथ नहीं आता था। क्योंकि हर वक़्त वह जल्दी में होता था— एक ऐसी बेचैनी-भरी जल्दी जो उसे कहीं दो पल से ज्य़ादा टिकने नहीं देती थी। वह आता तो बैठता नहीं था। बैठता तो पर तोलने लगता था और सच तो यह है कि उसके आते ही यह धड़का लगा रहता था कि वह किसी भी पल चला जाएगा। हसीन और उसकी दोस्ती एक हद तक पेशे की वजह से थी, लेकिन मिज़ाज़ के लिहाज से वह मेरे ज्य़ादा नज़दीक पड़ता था। फिर भी मुझे ताज्जुब नहीं हुआ, क्योंकि दोनों एक ही मक़सद के लिए इकट्ठे हुए थे, भले ही कारण अलग-अलग हो।
“क्यों, भाग लिए?” कई दिनों के बाद जब हसीन पकड़ में आया तो मैंने उसे धर दबोचा। हसीन ने मुझे उसी अंदाज़ से देखा जिसमें उसकी छोटी-मोटी आँखें गोल होकर नुकीली हो जाती थीं और आक्रामक लगती थीं।
“कौन भाग रहा है?”
“तुम और कौन!”
“मैं भाग नहीं रहा, जा रहा हूँ।”
“एक ही बात है!”
“एक ही बात नहीं है,” उसने ज़ोर देकर कहा, “भागने वाले पाकिस्तान में हैं। और वे कभी लौटकर नहीं आएँगे।”
“तुम कौन लौटकर आने वाले हो!”
“क्यों, मैं क्या काले हब्शियों के बीच मरने जा रहा हूँ?”
“क्या पता!”
“तुम-जैसे दोस्त तो यही दुआ करेंगे। करो...”
“मैदान तो छोड़ ही रहे हो।”
“दो-चार साल के लिए घर से बाहर निकलना मैदान छोड़ना है, भागना है? उसने बौखलाकर कहा, “मैं अपने और अपने बच्चों के मुस्तक़बिल के बारे में कुछ न सोचूँ? यहीं पड़ा सड़ता रहूँ! अपने आसपास लुच्चों, लफंगों, बदकारों और बदमाशों को पनपता हुआ देखता रहूँ। रोज़ कुढ़ूँ...रोज़ लहू जलाऊँ?”
“मुस्तक़बिल और बच्चे तो मेरे भी हैं।” मैंने कहा।
“तुम अगर कीचड़ में पड़े रहना चाहते हो तो कोई क्या कर सकता है!” वह बोला, “न तो तुम ऊपर उठ सकते हो, न उठना चाहते हो।”
“पैसों के पीछे भागना ऊपर उठना है?”
“यह बीमारों, निकम्मों और बुज़दिलों की फ़िलॉसफ़ी है, उसने चिल्लाकर कहा, “इसे तुम अपने ही पास रहने दो।”
और वह तेज़ी में चला गया।
नाइज़ीरिया जाने से पहले हसीन से यह मेरी आख़िरी बातचीत थी। कम से कम इस सिलसिले में। इसके बाद हम मिले ज़रूर, लेकिन हर मुलाक़ात सरसरी थी और हमारी बातों का कोई मतलब नहीं था। वैसे भी तब एक-दूसरे से हम लोग कट चुके थे। फिर एक दिन सुना कि वह चला गया— मुझसे बिना मिले और मुझे कहीं गहरे चोट करता हुआ। गया सईद महमूद भी, लेकिन उसका जाना एक उम्मीद पर लगाई हुई छलाँग थी। वह बीवी के बचे-खुचे ज़ेवर और मौरुसी ज़मीन बेचकर सऊदी अरब गया था, जबकि हसीन को नाइज़ीरिया के किसी स्कूल में बाक़ायदा काम मिला था और उसके लिए हवाई जहाज़ का टिकट आया था।
“और कुछ लाऊँ?” कनीज़ मुझसे कह रही थी। मेरे सामने खड़ी और रकाबी की ओर बढ़ती हुई! मैं जैसे चौंका।
“और क्या?”
“कबाब या एकाध रोटी।”
“बस, बस,” मैंने कहा, “अव्वल ही बहुत हो चुका। क़ायदे से मुझे खाना भी नहीं चाहिए था। दोपहर को खाना अक्सर मैं टालने की कोशिश करता हूँ— ख़ासकर बाहर। डॉक्टर कहते हैं कि इसे नियम बना लो...
“और तुमने मान लिया?” जमील ने मुस्कराकर टोका और मैं हँसने लगा। जमील जानता था कि दिल्ली के ये तीन-चार बरस मैंने डॉक्टरों के पीछे कितनी एड़ियाँ रगड़ी हैं। अभी दिल्ली में पाँव भी नहीं जमे थे कि मालूम हुआ, मैं एक घातक बीमारी की चपेट में हूँ। क्या करता? नफ़रत या उनके खिलाफ़ अपने बड़बोलेपन ने मेरी कोई मदद नहीं की और मैं अस्पताल पहुँचकर एक फ़ाइल बन गया था— केस नं० सी—535।
वे दोज़ख़ के दिन थे।
रकाबी उठाकर कनीज़ गई नहीं, खड़ी रही, फिर दो पल मुझे घूरकर पूछा, “अभी पिछले दिनों तुम्हारा क्या हार्ट-वार्ट का कुछ...”
मैंने चौंककर देखा। हाँ, चोट लगी थी। क्या कनीज़ को ख़बर भी नहीं थी? मैं तो समझ रहा था कि इस घर में कभी मेरे लिए नीम मातम का माहौल बना होगा और जब पहुँचूँगा तो मुझे ऐसा लिया जाएगा, जैसे लगभग खोया हुआ आदमी अचानक बरामद हो गया हो।
“इसकी बुरी हालत हो गई थी’, जमील कनीज़ से कहने लगा, ‘मैस्सिव हार्ट-अटैक’ था। कोई पचास घंटे ज़िंदगी और मौत के बीच झूलता रहा। वह तो दिल्ली-जैसी जगह थी, पेस-मेकर लगाकर बचा लिया, वरना ख़ुदा जाने क्या होता!”
कनीज़ का चेहरा एक पल के लिए सफ़ेद हो गया— भय से। उसके बहनोई इसी से गए थे, बहन इसी से, समर इसी से और अब जेठ भी— जेठ यानी हसीन भाई। जाने से पहले वह सँभलती हुई बोली—
“और सिगरेट पीना-भर मत छोड़ना, अच्छा!”
थोड़ी देर बाद मेरी तिपाई के सामने चाय की ट्रे आ गई। स्टूल खींचकर कनीज़ मेरे सामने बैठ गई और चाय बनाने लगी। अंदर के कमरों में बाजी थीं, लेकिन उनके वहाँ होने का आभास यहाँ से मुश्किल था। पहले तो ख़ैर, वह नमाज़ पढ़ रही थीं, लेकिन इतनी देर में न तो वह बाहर आई थीं और न मुझमें ही इतना साहस था कि उठकर मैं ही उनसे मिल लूँ! मैं फिर दीवारों को देखने लगा, जिन पर कनीज़ की पेंटिंग्स लटकी हुई थीं— बरसों से उन्हीं जगहों पर और वैसी ही। लेकिन जैसे पहली बार ध्यान आया कि वे तुगरों के आसपास हैं। एक तुगरा था अल्लाह। दुसरा था मुहम्मद। उस दरवाज़े के ऊपर, जो घर के भीतर खुलता था, कुरान की एक आयत थी—‘इन्नल्लाहे मुअस्साबेरीन’ यानी सब्र करने वाले के साथ ख़ुदा है।
क्या मैंने सब्र किया था? चाय का आख़िरी घूँट लेते हुए मैंने सोचा— क्या मैंने उन मित्रों को माफ़ नहीं किया था, जो अस्पताल में मुझे देखने या मुझसे मिलने नहीं आए थे, और क्यों उन दुश्मनों के लिए भी मैं नर्म हो गया था जो मेरे पलंग के पास आकर खड़े हो गए थे?
“या अल्लाह!” तभी अंदर से बाजी की गुहारती हुई आवाज़ आई—
“रजा बे रब्बी...”
कनीज़ ने बर्तनों को ज़रुरत से ज्य़ादा आवाज़ करते हुए समेटा और ट्रे में रखने लगी— एक के बाद एक। फिर उठकर अंदर चली गई।
“बाजी को कैसे सँभाला था?” कुछ पलों की चुप्पी के बाद मैंने पूछा।
“सब अपने-आप सँभल जाते हैं,” वह बोला, “जिस वक़्त हसीन भाई की ख़बर नाइज़ीरिया से मिली थी, बाजी सख़्त बीमार थीं। लगता था, बचेंगी नहीं। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ। डॉक्टर से पूछा तो कहने लगा, पता नहीं ऐसी हालत में यह सदमा बरदाश्त भी कर पाती हैं या नहीं, लेकिन उन्हें न बताना भी तो ज्य़ादती होगी। आख़िर कब तक छिपाओगे? मैं दो दिनों तक सबसे लड़ता रहा कि उन्हें न बताया जाए। तुम तो जानते हो, वे हसीन भाई को हम सबसे ज्य़ादा चाहती थीं। मेरा कहना था कि क्या यह मुमकिन नहीं कि उन्हें कभी पता ही न चले। झूठी चिट्ठियाँ मँगवाई जा सकती हैं या ऐसा ही कुछ...ज्य़ादा से ज्य़ादा उन्हें इतनी चोट तो लगती न कि लड़के ने आँखें फेर लीं और नालायक निकल गया...लेकिन आख़िर मुझे ही हारना पड़ा। फिर उन्हें बताया गया और अब सब कुछ तुम्हारे सामने है...”
मैंने पूछ तो लिया, लेकिन पूछने के साथ ही मुझे अपने सवाल के बेतुकेपन का ध्यान आया। यह वही सवाल था जो हर मिलने वाला मुझसे भी पूछता था और मुझे झुँझलाहट होती थी। मैं कहने लगा, “मेरा मतलब है कि इससे पहले कुछ...”
“नहीं, कभी कुछ नहीं। दो-एक दिन पहले अपनी तबीअत के ठीक न होने की शिकायत ज़रूर कर रहे थे। उस दिन वे रोज़ की तरह काम पर गए थे। भाभी से कह रखा था कि शाम को डॉक्टर के पास चले चलेंगे। शाम को वे तैयार भी हो गए थे, लेकिन उसी वक़्त उनका एक पाकिस्तानी दोस्त आ गया— एक वीडियो कैसेट के लिए और वे टी. वी. देखने लगे। शायद तुम नहीं जानते कि इधर उन्होंने हिंदी फ़िल्म के कैसेट्स और हिंदुस्तानी संगीत के एल-पीज़ का कितना बड़ा ज़खीरा कर रखा था।”
हाँ, मैं नहीं जानता था। सात साल पहले जब हसीन यहाँ था, तो वह हिंदी फ़िल्मों से नफ़रत करता था और उसे हिंदुस्तानी संगीत में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
“अपने पाकिस्तानी दोस्त को ड्राइंग-रूम में छोड़कर वे अंदर एक कैसेट लेने गए थे, लेकिन कैसेट देखते-देखते उन्हें बेचैनी हुई और वे लेट गए। बस, मुश्किल से दो मिनट लगे होंगे...मैं समझ रहा था कि उनका क़फ़न-दफ़न वहीं हो चुका होगा। हम लोग रो-धोकर चुप भी हो चुके थे। कोई दस-बारह दिनों के बाद जब भाभी और बच्चों को लेने मैं बंबई पहुँचा तो मुझे गुमान भी नहीं था कि वे नाइज़ीरिया से हसीन भाई का ताबूत लेकर आई हैं। फिर सबके ज़ख़्म खुले, फिर एक बार नए सिरे से मातम हुआ...
“और नसीब की संगदिली तो देखो,” थोड़ी देर ठहरकर जमील कहने लगा, “इसे तब होना था जब वे लौटने को ही थे। अभी छह महीने पहले जब वे यहाँ आए थे तो कहने लगे— बस, कुछ दिनों की बात और है, इस कांट्रेक्ट के ख़त्म होने के बाद मैं हिंदुस्तान लौट आऊँगा। कहने लगे— अब और वहाँ नहीं रहा जाता। कुछ भी कहो, अपना मुल्क फिर भी अपना मुल्क है...उन्होंने यहाँ ‘शिमला-हिल्स’ में अपनी पसंद का शानदार मकान बनवा लिया था। लौटने के बाद वे यहाँ क्या करेंगे यह तय हो चुका था और वे बहुत ख़ुश थे। तब उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा कि जिस घर की एक-एक ईंट उन्होंने इतने प्यार में रखवाई थी, उसमें वे कभी नहीं रह पाएँगे...पिछली बार एक अजीब बात हुई थी। जब मैं उन्हें एयरपोर्ट छोड़ने गया था तो ज़िंदगी में पहली बार एक हुमक-सी उठी थी। एकाएक जी में आया था कि उन्हें बहुत ज़ोर से भींच लूँ, एक़दम कलेजे से लगाकर, लेकिन फिर लगा कि यह कोरी जज़्बातियात होगी। हसीन भाई कौन हमेशा के लिए जा रहे हैं और अपने को रोककर मैंने वह मौक़ा हमेशा के लिए खो दिया। अब वही तकलीफ़ इतनी बड़ी कसक बन गई है कि हर वक़्त मुझे तंग करती रहती है। क्या तुमने कभी सोचा है कि हम अक्सर किसी जोम, किसी बौद्धिक गिरह या एक नामालूम-सी ज़िद के तहत ऐसे अवसरों को खोते रहते हैं जिनमें अक्सर वह आदमी छिपा होता है। हम उन्हें आगे के लिए मुल्तवी कर देते हैं— बिना यह जाने कि वे हमारी ज़िंदगी में फिर कभी नहीं आएँगे...”
कनीज़ ने पान की तश्तरी मेरी तरफ़ बढ़ा दी। वह कब पानदान लेकर आ बैठी थी, मुझे पता नहीं थे। मैंने चुपचाप पान ले लिया।
मैं जानता था कि जमील ने मुझे कहीं गहरे छू लिया है। लेकिन क्या वह सिर्फ़ छूना था, अपनी गिरफ़्त में लेकर निचोड़ना नहीं? मैं सामने की दीवार की ओर देखने लगा, जिस पर तुगरा लगा हुआ था— अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह...” देखते हुए।
फिर तस्वीरें हसीन की। हसीन भाई अपने बाग़ में तीनों छोटे बच्चों के साथ। हसीन भाई अपनी गाड़ी में स्टीयरिंग के सामने जबकि भाभी कार का दरवाज़ा पकड़े खड़ी हैं। मैंने वह तस्वीर उठा ली जो इधर हाल की थी— शायद यहाँ की। उसमें सिर्फ़ हसीन था, सिर्फ़ उसका हँसता हुआ चेहरा। तस्वीर में वह बहुत तेज़ी से बुढ़ाता हुआ लगा और यह देखकर ताज्जुब हुआ कि उसके चेहरे पर संपन्नता की कोई छाप नहीं थी। उल्टे वह एक पेड़ की तरह सूख रहा था। वह पहले से कहीं ज्य़ादा गंजा हो गया था और उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी।
“यह तो यहीं की लगती है?” मैंने कहा।
“हाँ, वे इसी जगह लेटे थे और मैंने तस्वीर ले ली थी। अभी पिछली बार।”
“इसमें हज़ामत क्यों बढ़ी हुई है?”
“इधर उन्होंने दाढ़ी रख ली थी। तुम उनसे कब मिले थे?”
“तीन-चार साल पहले, यहीं पर। उस बार मैं दिल्ली से आया था, तो इत्तिफ़ाक़ से वह यहीं था। बीच में एकाध बार वह अपने वीज़ा वग़ैरह के सिलसिले में दिल्ली आया तो उसने ख़बर भेजी थी, और मेरे घर भी पहुँचा था, लेकिन मैं जाने कहाँ उलझा हुआ था कि वक़्त पर नहीं पहुँच सका और वह बिना मिले चला गया।”
मैं जमील से साफ़ झूठ बोल रहा था। सच तो यह है कि मैं हसीन से मिलना नहीं चाहता था और उसे जान-बूझकर टाल गया था। शायद मैं उससे बचना चाहता था, पता नहीं क्यों। हालाँकि मैं उसी की तस्वीर हाथ में लिए बड़ी देर से देख रहा था और मुझे एक बेचैन करने वाली और नामालूम-सी तकलीफ़ हो रही थी।
“मालूम है, जब मुझे दौरा पड़ा तो डॉक्टरों ने क्या पूछा था?”
जमील मेरी ओर देखने लगा। कनीज़ वहाँ से जा चुकी थी और हम दोनों अकेले थे।
“कहने लगे, बताइए, जिस दिन आपको यह तकलीफ़ हुई उस दिन या उसके दो-एक दिनों में क्या हुआ था? किसी तरह का तनाव, कोई सदमा, कोई ऐसी-वैसी ख़बर जिसने आपको डिस्टर्ब किया हो? मैंने कहा, नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं। यह ठीक है कि मेरठ में दंगे हो रहे थे, लेकिन वहाँ मेरा कोई अज़ीज़ नहीं था। यह भी सही है कि पुरानी दिल्ली में तनाव था और कर्फ़्यू हुआ था, लेकिन मैं तो नई दिल्ली में रह रहा था। फिर मैंने कुछ सोचकर हसीन को बता दिया था, यह कहते हुए कि वह मेरा दोस्त ज़रुर था, लेकिन इधर कई बरसों में हम दोनों एक-दूसरे से बहुत दूर हो गए थे। अब लगता है कि पता नहीं उस बात में कहाँ तक सच्चाई थी। सच तो यह है कि सबकुछ के बावजूद हसीन एक साफ़, ईमानदार और नेक आदमी था और मैं उसे बहुत प्यार करता था, बहुत...”
और यह कहते-कहते मैंने देखा कि मेरा गला रुँध गया है, आँखें भर आई हैं और मैं सचमुच रोने लगा हूँ...
हाँ, सचमुच!
main dabe paanv dakhil hua. bahar ka get mainne dhire se khola— aise ki avaz na ho. ghar ke samne vala darvaza uDka hua tha— hamesha ki tarah. mainne use bhi dhire se dhakela tha. asal mae main jamil ke samne bilkul achanak aana chahta tha— dil ke daure ki tarah.
ye bhopal jaise shahr ki dupahri thee— Dhalti hui. din mein itna sunapan aur alasya tha ki aksar log so rahe the. main janta tha ki ye jamil ke ghar par milne ka vaqt tha. shahr aur uske apne mizaj ke lihaz se hi nahin, uske kaam ke etbaar se bhi. uska kaulej subah shaam lagta tha aur sari duphar khali rahti thi.
jamil divan par leta hua tha, divar ki or munh kiye. aahat se chaunk kar jab usne dekha to ekaadh pal bas dekhta hi rah gaya. hairan! phir “are” kahta hua haDabDakar utha aur hum donon lipat ge. uski jakaD zabardast thi. banhen uski lambi aur mazbut thi aur hatheliyan jaise meri peeth mein dhans jana chahti thi, gosht posht ko chhedti hui. pahli baar laga ki haath ki ungliyan bhi bolti hain.
“kab aya?” kai pal baad usne gardan hatakar puchha, lagbhag rundhe hue svar mein. uska chehra ab bhi mere itne paas tha ki donon ek dusre ko dekh nahin pa rahe the.
“subah,” mainne kaha, “dakshin eksapres se. ”
alag hue. baithe.
“main aaj subah hi yaad kar raha tha”, wo bola aur gaav takiye se tikkar meri or dekhne laga. wo aisi bharpur nazar thi, jismen aap sama lena chahte hain— sab kuch. tabhi baghal vale kamre ka parda hatakar bivi kaniz aai, hansti hui. salam kiya. paas baithi. boli. puchha. khush hui.
“is vaqt?” main hansne laga, hamesha ki tarah. main janta tha ki akhir wo khana layegi aur main khaunga. wo uthkar andar chali gai.
“ab baji ki tabiat kaisi rahti hai?” mainne jamil se puchha.
baji ka takht bahar se hi dikhta hai aur ghar mein dakhil hote hue mainne dekh liya tha ki wo namaz paDh rahi hain. saval jaise asuvidhajanak tha. jamil sigret ka paiket tatolne laga. mila to ek jalai aur meri or dekhkar sir hila diya, yani bas theek hai. aur phikepan se muskraya. baji bhaijan yani maan baap. baji kai mahinon se bimar chal rahi theen. ghar par hue ne hadse se bhi pahle. shayad tabhi se jab ek din bhaijan achanak nahin rahe the. raat ve theek thaak soe the, lekin subah nahin uthe, bas!
“kaun hai allan?” bhitar se baji ki avaz aai. wo shayad musalle se uth rahi thi. allan yani jamil. jamil ne mera naam bataya. kaha ki main dilli se aaya hoon, salam kar raha hoon. unhonne vahin se duaen deen, bahut thaki hui avaz mein. phir kuch baDbaDati si rahi. kya, ye meri samajh mein nahin aaya. socha ki darvaze tak jakar unhen dekh len, lekin himmat nahin paDi. unka samna karna mere bas ki baat nahin thi.
“aur ?” thoDi der baad jamil ne mujhe vapas late hue kaha, kahin aur le jane ke liye.
“teri dilli kaisi hai?”
“meri!”
jamil muskraya.
“dilli ek dozakh hai, main pahle aksar kaha karta tha. chaar saal pahle jab main is shahr se nikala gaya tha to mere man mein bahut talkhi thi. ye desh nikala pichhli sarkar ki inayat thi aur mere liye ye bhulna mushkil tha ki main dilli aaya nahin, phenka gaya hoon. ab wo baat nahin rahi, lekin na to main dilli ka ho sakta hoon aur na dilli meri, jamil ye janta tha.
“chal, merath ki markat ki sahi. kya haal hai?”
“vahan dange ka itihas bahut purana hai, san saitalis se bhi purana. naya main kya bataun! vahi kah sakta hoon jo akhbaron mein hai. haan, suna hai ki muradabad aur aligaDh mein bahut tanav hai. ”
“tujhe akhbaron par bharosa hota hai?”
main chup ho gaya.
“jo log dahane par baithe hain, ve jante hain. ” usne kaha.
“kahan hai dahana?”
“dilli dahana nahin hai— mulk ka, merath ka, jamshedpur ya bhagalpur ka. . . ?
main kamre ki divaron ko dekhne laga, jinmen kai akaron ki pentings latki hui theen, kaniz ki banai hui. unmen husain aur hebbar ka mila jula prabhav saaf tha. zahir hai ki main bachna chahta tha! shayad hum donon bachna chahte the, usse jiske chhiD jane ka Dar hum donon ko hi tha.
“teri purani shakl laut aai hai,” jamil ne baat palatte hue kaha, “pichhli bimari mein jane wo kahan chali gai thee!”
“yah haart ataik ki den hai,” mainne kaha aur dambhabhri hansi hansne laga, aise jaise main koi qila jeet aaya hoon.
“ab to tu bilkul theek hai na?” usne puchha.
“bilkul ka to pata nahin. haan, theek zarur hoon. utna hi theek, jitna dil ke mariz rahte hai. ”
aur ye kahne ke saath hi mujhe laga ki mere svar mein atmadya aa gai hai. mainne purane dambh mein lautte hue kaha, “asal mein, ab mainne parvah karna chhoD diya hai. jab aana hai, aa jayegi. tab na Dauktron ke chalte rukegi aur na mere roke. ”
“bahut dinon tak yahan kisi ko pata nahin tha, jamil ne kaha, “afvah ki tarah khabar aai thi kuch ulti sidhi. hum logon ne ghabrakar dilli fon kiya tha, lekin tumhare vahan ke doston ne kaha ki vaisi koi baat nahin hai. aspatal mein zarur hai, ‘intensiv keyar yunit’ mein bhi hai; lekin haart vaart ka mamla nahin hai. wo to dilli se tujhe dekhkar laute pankaj ne bataya ki sab kuch kitna siriyas tha. . . ” ye hua kaise?”
“usi tarah, jaise ye hota hai— achanak?”
“ghar par ?. . . ”
“nahin, daftar mein. ”
“kaise?”
“main baten kar raha tha ek milne vale se. ekayek mujhe bechaini si hui. sine mein jakDan aur dard ke bagule uth aaye the aur main pasine mein sarabor ho gaya. meri avaz bilkul maddhim ho gai thi, dil Dubne laga tha. main uthna chahta tha, lekin mujh mein dam nahin tha. main baithe rahna chahta tha, lekin itni bechaini aur ghabrahat ki. . . thoDi hi der mein main farsh par leta chhatapta raha tha. . . . ”
kahte kahte main ruk gaya kyonki jamil ke chehre par ek atank main saaf saaf dekh raha tha jo main chahta tha. mujhe khushi thi ki meri jis yatana ko yahan mamuli Dhang se liya tha, main uska hisab barabar kar raha tha. dilli ke apne doston ke ravaiye par ghussa aa raha tha, so alag. ye theek hai ki ek maslehat ke tahat meri bimari ki sanjidgi ko chhipaya gaya tha, lekin us maslehat ne mujhe us sabse yahan mahrum kar rakha tha, jo main chahta tha. lagbhag ek saal ke baad mainne is shahr mein pravesh kiya tha, ek aise adami ki tarah jo durlabh hote hote ekayek rah gaya tha.
“tumhen yaad hai, mainne taziyat ka khat tumhe kab likha tha? wo saat april ka din tha, aur koi ghante bhar pahle mainne tumhein likha tha? tab mainne socha bhi nahin tha ki thoDi hi der baad main bhi us raste par pahunch jaunga jahan se hasin kabhi nahin aaya. ”
tabhi bhitar se kaniz nikal aai aur mere samne kabab rotiyon ki rakabi rakhti hui boli, “lo, khao!” phir ek stool khinchkar samne hi baith gai. pahla hi lukma toDte hue mujhe laga ki hasin ka naam mujhe nahin lena chahiye tha. shayad main chahta bhi nahin tha, lekin baat ki rau thi. lekin kyon nahin? kya main purse ke liye nahin aaya tha? pursa wo bhi hasin ka. ye wo adami tha jo abhi kal tak isi shahr mein dusron ke purse ke liye jaya karta tha aur nahin janta tha ki use kya kahna chahiye. wo chupchap baith jaya karta tha— suni ankhon se ek taraf dekhta hua.
khabar mujhe ye bhi daftar se mili thi, dilli mein, jamil ne nahin di thi. is shahr se bhi nahin gai thi, burhanpur se said mahmud ne likha tha—
“tumhen ye jankar bahut sadma hoga,” usne khat mein kaha tha ki hum donon ka aziz dost hasin ahmad siddiki ka naijiriya mein intkaal ho gaya. uska haart phel ho gaya tha. nasrin bhabhi uski mayyat lekar bhopal aai thi aur use dafnakar main kal lauta hoon. hum logon ko jo hona tha hua, lekin socho ki teen chhote chhote bachchon ke saath rah gai ek javan aurat ke saath jo nainsafi hui hai, kya uski koi talafi ho sakti hai?
baDi der tak main khat liye baitha rah gaya tha. mainne use koi teen baar paDha tha aur hasin ke naam par paanch baar nazar Dali thi. main yaqin karna chahta tha, lekin ho nahin raha tha aur jab hua to us pal ke hazaron mein rahat aur chhutkare ki saans thi. phir mainne duःkha ko dhire dhire sametkar apne bhitar ikattha kiya tha aur eqdam duःkhi ho gaya tha.
“yah bhi koi baat hui?” main uske baad har aane vale ko batakar kah raha tha, “kya ye uske jane ki umr thi aur wo bhi dil ke daure se! wo to mujh se bhi do saal chhota tha. wo khuda se khauf khane vala aur parhezgar adami tha aur sigret tak nahin pita tha. ”
ye sab kahte hue ya to main Dara hua tha ya shayad apne Dar ko door kar raha tha, halanki daftar se ghar lautne tak bhi usse pichha nahin chhuta tha. wo kahin itne andar pahunchakar baith gaya tha ki usne mujhe ekayek chup kar diya. khabar ye ghar ke liye bhi baDi thi, lekin mainne us din bivi se bhi nahin kaha— is Dar se ki ghar par bhi der tak vahi zikr hota rahega aur raat ko hasin ka chehra mujhe sone nahin dega. us raat main so to gaya, lekin hasin ne tang barabar kiya. uska chehra charon or se aakar mujh par akrman karta tha aur sapne mein sari raat uski mayyat dikhai dee— kai din purani mayyat! ye us din hi nahin, uske agle din bhi hua tha aur uske bhi agle din, halanki main kisi se kuch bhi nahin kah raha tha. taziyat ka khat bhi teen dinon tak talne ke baad mainne jamil ko likha tha aur main bhi hasin ki tarah nahin janta tha ki purse mein kya kahna chahiye. . .
baat ajib sahi, lekin sach to ye hai ki hasin mera dost nahin rah gaya tha, khaskar idhar ke barson men—jab wo naiziriya chala gaya tha ya shayad usse bhi pahle jab main dhire dhire uske chhote bhai jamil ka dost ho gaya tha.
pandrah baras pahle jab main bhopal aaya tha to dosti usi se hui thi. donon bhopal mein bahar se aaye hue the aur vahan hamara koi ghar nahin tha. hasin mein ek khaas tarah ka mardana akarshan tha— sidhe apni or kheench lene vala. wo lamba aur chharahra tha aur halke halke ganja ho raha tha. pahle hi din mainne dekh liya tha ki wo ek mahin ahsason vala aisa ghussail aur akramak adami hai jo apne aap par bhi hans sakta tha. wo itne chhote chhote aur khubsurat mubalghe karta tha ki koi bhi hansta hansta uska ho jata tha. tab hum log purane bhopal ki amirganj gali mein rahte the aur javan the. hasin ek praivet kaulej mein vigyan paDhata tha aur main ek daftar mein kalam ghasit raha tha. muhalla purane raison aur khamiron ka tha aur hum jaise phatehal ikka dukka hi paDe hue the apne apne munh chhipaye hue.
asal mein, hum donon ki dosti do tangdast, kunthit aur ghussail adamiyon ka aisa mel thi jo donon ko rahat deti thi. rijha pahle main hi tha, baad mein use rijha liya tha, halanki hum donon alag alag qimash ke log the. wo vigyan paDhata tha lekin dakiyanus aur mazahbi tha aur hansi hansi mein apne ko jannati kahta tha. mera vigyan se koi lena dena nahin tha, lekin main usi ke sahare apne ko adhunik lagta tha aur pragtishil bana hua tha— hasin ka fatva sir mathe par liye hue main dozkhi hoon. sachchai ye hai ki hum donon ek dusre ko dozkhi samajhte the aur donon milkar us tisre ko jo hamare beech nahin hota tha, lekin jise hum kandu kahte the.
“haan, main to tumhare paanv ki dhool bhi nahin hoon. ”
“vah to tum vaise bhi nahin ho. ” mainne hansakar uDana chaha tha.
“tum donon jahan ke maze marana chahte ho,” usne qarib qarib baal nochte hue kaha tha, “nastik vastik kuch ho nahin, wo tumhara Dhong hai.
“tumhare jannati hone se bhi baDa Dhong?” mainne prativad kiya tha, “kyon nahaq phake karte ho yaar!”
main aksar kaha karta tha ki jo sachmuch rozedar hote hain, ve sehari ke baad iftaar aur iftaar ke baad sehari ki fikr nahin kiya karte. jo log ramzan ke dinon mein subah shaam thaili liye bazar bhagte nazar aate the, kabhi murg to kabhi titar ke liye, kabhi lave to kabhi bater, kabhi machhli to kabhi biryani ke liye, main unka mazak uData tha—yah jante hue bhi ki isse hasin ko chot lagti hai kyonki main yahi chahta tha.
“tum na hiyon mein ho aur na shiyon mein. na yahan, na vahan. allah tum par rahm kare. ” wo mujhse kahta tha.
ye sirf ek din ki baat nahin thi. aksar hum donon kisi na kisi aisi baat par laDte the. ghusse mein ek dusre se kabhi na bolne ki dhamki dete the, lekin agle din ya uske agle din phir milte the. phir se laDne ke liye. . .
ye wo daur tha, jab mulk mein fasad ki fasal aai thi aur ek ke baad kai shahron mein dange ho rahe the— jabalpur, bhivanDi, jalganv, ahamadabad, jamshedpur aur. .
hum log bhopal jaise shahr mein rah rahe the, jismen dange ka koi itihas nahin tha, phir bhi Dare hue the, kyonki shahr mein tanav tha. sarkar satark ho gai thi. jagah bejgah pulis aur homagarD ke javan tainat the. roz afvahen uDti theen aur bahar se roz khabren aati theen— haibatnak khabren! barson se saath saath rahe aaye hindu musalman ek dusre ko sandeh aur Dar se dekhne lage the, aur chhote chhote samuhon mein bant ge the.
“dekh lo,” ek aisi hi shaam hasin ne ghabraye hue svar mein kaha tha, “haivan ke bachchon ne mulk ka bantvara karke kya kar diya hai. . . ”
usne subah ke akhbar mein kuch aur dil dahlane vali khabren paDh li theen. uska shev baDha hua tha aur baal rukhe the— uDe uDe se. wo aur dinon se jyada ganja lag raha tha.
“ab ye mulk rahne layaq nahin raha!” wo bola, “kisi din hum log bhi katkar phenk diye jayenge aur koi rone vala nahin hoga. ”
“kyon, main jo hoon. ” mainne hansakar kaha. darasal, main apne aur uske Dar ko hansakar uDana chahta tha— andhere mein gaye jane vale geet ki tarah.
“tum bhi nahin hoge,” usne ankh tarerkar talkhi se javab diya, “kal jab kafiron ka jattha ganDase aur khanjar lekar tumhare darvaze par ayega, tab koi nahin puchhega ki tum kya sochte ho ya tumhare khayalat kya hain! pahchan ke liye tumhara naam kafi hai. ”
“tum to kah rahe the ki pahchan ke liye sirf naam kafi nahin hota!”
“vah aur baat thi. dusre silsile mein kahi gai thi. maslon ko gaDDmaDD mat kiya karo. main janta hoon, tum chalaki kar rahe ho. ”
haan, main chalaki kar raha tha. jaan bujhkar anjan bane rahne ki chalaki. sachchai se Darkar bhaag khaDe hone ki chalaki. hasin se asahmat hone aur use aahat karne ki chalaki. main hasin se bilkul sahmat nahin hona chahta tha, kyonki uski baat manna apne panvon ke niche ke us tile ko katna tha, jis par main khaDa tha.
is beech ek aisi baat hui jiske bare mein mainne kabhi socha bhi nahin tha. hasin ekayek mere liye durlabh ho gaya tha. subah usko kaulej hua karta tha, dopahar mein mera daftar. ek shaam ka hi vaqt tha, jismen hum aksar mila karte the, lekin idhar wo kai shamon se ghayab tha. mere liye hasin ka ghar aprichit nahin tha, jamil bhi mere liye naya nahin tha. main janta tha ki wo hasin ka chhota bhai hai aur usi kaulej mein paDhta hai. jab jab main hasin ke yahan gapshap, chaay ya khane par hota, aksar jamil bhi hua karta tha— yahan tak ki uske baap bhaijan bhi. wo is arth mein ajib ghar tha ki yahan pahunche kisi bhi dost ya mehman se pura ghar milta tha aur sabhi log batachit mein sharik hote the. mujhe bhaijan ka apne beech hona kai baar khalta tha, kyonki usse hamari azadi chhinti thi, lekin jamil ka hona mujhe achchha lagta tha. darasal, main jamil ko shuru se pasand karta tha.
ab sochta hoon to lagta hai ki jamil ka pahle mujhse na takrana ya hasin ke madhyam se milna mahz ek sanyog tha, varna shayad main sidhe usi ka dost hota. ye baat tab bhi lagi thi jab main hasin ka ata pata karne kai baar uske ghar gaya tha aur jamil mujhe nahin mila tha. phir main dhire dhire hasin se kat gaya tha.
“hasin bhai se ajkal shaam ko milna mushkil hai, meri do teen baar ki mayusi ke baad jamil ne mujhe bataya tha, “darasal ye aur said mahmud usi chakkar mein hain. ”
“kis chakkar men?”
“tajjub hai ki aapko pata nahin! kya aap nahin jante ki donon bahar nikalne ki jugaD mein hain?”
“bahar yani?”
“bahar yani kahin bhi. miDil iist, libiya, afrika aur vahan jahan jaub mile, achchhe paise milen! said mahmud ki to mazburi hai, aise kaulej ki mastari mein wo vaise hi kangal hai. chaar chaar betiyan sir par baithi hui hain aur beta poliyo ka shikar hai. . . hasin bhai hain ki ve behtar zindagi chahte hain. . . ”
said mahmud tab bhopal mein tha aur usi kaulej mein profesar tha. wo hum tinon ka dost tha, lekin kisi ke haath nahin aata tha. kyonki har vaqt wo jaldi mein hota tha— ek aisi bechaini bhari jaldi jo use kahin do pal se jyada tikne nahin deti thi. wo aata to baithta nahin tha. baithta to par tolne lagta tha aur sach to ye hai ki uske aate hi ye dhaDka laga rahta tha ki wo kisi bhi pal chala jayega. hasin aur uski dosti ek had tak peshe ki vajah se thi, lekin mizaz ke lihaj se wo mere jyada nazdik paDta tha. phir bhi mujhe tajjub nahin hua, kyonki donon ek hi maqsad ke liye ikatthe hue the, bhale hi karan alag alag ho.
“kyon, bhaag liye?” kai dinon ke baad jab hasin pakaD mein aaya to mainne use dhar dabocha. hasin ne mujhe usi andaz se dekha jismen uski chhoti moti ankhen gol hokar nukili ho jati theen aur akramak lagti theen.
“kaun bhaag raha hai?”
“tum aur kaun!”
“main bhaag nahin raha, ja raha hoon. ”
“ek hi baat hai!”
“ek hi baat nahin hai,” usne zor dekar kaha, “bhagne vale pakistan mein hain. aur ve kabhi lautkar nahin ayenge. ”
“tum kaun lautkar aane vale ho!”
“kyon, main kya kale habshiyon ke beech marne ja raha hoon?”
“kya pata!”
“tum jaise dost to yahi dua karenge. karo. . . ”
“maidan to chhoD hi rahe ho. ”
“do chaar saal ke liye ghar se bahar nikalna maidan chhoDna hai, bhagna hai? usne baukhlakar kaha, “main apne aur apne bachchon ke mustaqbil ke bare mein kuch na sochun? yahin paDa saDta rahun! apne asapas luchchon, laphangon, badkaron aur badmashon ko panapta hua dekhta rahun. roz kuDhun. . . roz lahu jalaun?”
“mustaqbil aur bachche to mere bhi hain. ” mainne kaha.
“tum agar kichaD mein paDe rahna chahte ho to koi kya kar sakta hai!” wo bola, “na to tum uupar uth sakte ho, na uthna chahte ho. ”
“paison ke pichhe bhagna uupar uthna hai?”
“yah bimaron, nikammon aur buzadilon ki filausfi hai, usne chillakar kaha, “ise tum apne hi paas rahne do. ”
aur wo tezi mein chala gaya.
naiziriya jane se pahle hasin se ye meri akhiri batachit thi. kam se kam is silsile mein. iske baad hum mile zarur, lekin har mulaqat sarasri thi aur hamari baton ka koi matlab nahin tha. vaise bhi tab ek dusre se hum log kat chuke the. phir ek din suna ki wo chala gaya— mujhse bina mile aur mujhe kahin gahre chot karta hua. gaya said mahmud bhi, lekin uska jana ek ummid par lagai hui chhalang thi. wo bivi ke bache khuche zevar aur maurusi zamin bechkar saudi arab gaya tha, jabki hasin ko naiziriya ke kisi skool mein baqayda kaam mila tha aur uske liye havai jahaz ka tikat aaya tha.
“aur kuch laun?” kaniz mujhse kah rahi thi. mere samne khaDi aur rakabi ki or baDhti hui! main jaise chaunka.
“aur kyaa?”
“kabab ya ekaadh roti. ”
“bas, bas,” mainne kaha, “avval hi bahut ho chuka. qayde se mujhe khana bhi nahin chahiye tha. dopahar ko khana aksar main talne ki koshish karta hoon— khaskar bahar. Dauktar kahte hain ki ise niyam bana lo. . .
“aur tumne maan liya?” jamil ne muskrakar toka aur main hansne laga. jamil janta tha ki dilli ke ye teen chaar baras mainne Dauktron ke pichhe kitni eDiyan ragDi hain. abhi dilli mein paanv bhi nahin jame the ki malum hua, main ek ghatak bimari ki chapet mein hoon. kya karta? nafrat ya unke khilaf apne baDbolepan ne meri koi madad nahin ki aur main aspatal pahunchakar ek fail ban gaya tha— kes nan० see—535.
ve dozakh ke din the.
rakabi uthakar kaniz gai nahin, khaDi rahi, phir do pal mujhe ghurkar puchha, “abhi pichhle dinon tumhara kya haart vaart ka kuch. . . ”
mainne chaunkkar dekha. haan, chot lagi thi. kya kaniz ko khabar bhi nahin thee? main to samajh raha tha ki is ghar mein kabhi mere liye neem matam ka mahaul bana hoga aur jab pahunchunga to mujhe aisa liya jayega, jaise lagbhag khoya hua adami achanak baramad ho gaya ho.
“iski buri haalat ho gai thee’, jamil kaniz se kahne laga, ‘maissiv haart ataik’ tha. koi pachas ghante zindagi aur maut ke beech jhulta raha. wo to dilli jaisi jagah thi, pes mekar lagakar bacha liya, varna khuda jane kya hota!”
kaniz ka chehra ek pal ke liye safed ho gaya— bhay se. uske bahnoi isi se ge the, bahan isi se, samar isi se aur ab jeth bhee— jeth yani hasin bhai. jane se pahle wo sanbhalati hui boli—
“aur sigret pina bhar mat chhoDna, achchha!”
thoDi der baad meri tipai ke samne chaay ki tre aa gai. stool khinchkar kaniz mere samne baith gai aur chaay banane lagi. andar ke kamron mein baji theen, lekin unke vahan hone ka abhas yahan se mushkil tha. pahle to khair, wo namaz paDh rahi theen, lekin itni der mein na to wo bahar aai theen aur na mujhmen hi itna sahas tha ki uthkar main hi unse mil loon! main phir divaron ko dekhne laga, jin par kaniz ki pentings latki hui theen— barson se unhin jaghon par aur vaisi hi. lekin jaise pahli baar dhyaan aaya ki ve tugron ke asapas hain. ek tugra tha allah. dusra tha muhammad. us darvaze ke uupar, jo ghar ke bhitar khulta tha, kuran ki ek aayat thi—‘innallahe muassaberin’ yani sabr karne vale ke saath khuda hai.
kya mainne sabr kiya tha? chaay ka akhiri ghoont lete hue mainne socha— kya mainne un mitron ko maaf nahin kiya tha, jo aspatal mein mujhe dekhne ya mujhse milne nahin aaye the, aur kyon un dushmnon ke liye bhi main narm ho gaya tha jo mere palang ke paas aakar khaDe ho ge the?
“ya allah!” tabhi andar se baji ki guharti hui avaz ai—
“raja be rabbi. . . ”
kaniz ne bartnon ko zarurat se jyada avaz karte hue sameta aur tre mein rakhne lagi— ek ke baad ek. phir uthkar andar chali gai.
“baji ko kaise sanbhala tha?” kuch palon ki chuppi ke baad mainne puchha.
“sab apne aap sanbhal jate hain,” wo bola, “jis vaqt hasin bhai ki khabar naiziriya se mili thi, baji sakht bimar theen. lagta tha, bachengi nahin. meri samajh mein nahin aa raha tha ki main kya karun. Dauktar se puchha to kahne laga, pata nahin aisi haalat mein ye sadma bardasht bhi kar pati hain ya nahin, lekin unhen na batana bhi to jyadti hogi. akhir kab tak chhipaoge? main do dinon tak sabse laDta raha ki unhen na bataya jaye. tum to jante ho, ve hasin bhai ko hum sabse jyada chahti theen. mera kahna tha ki kya ye mumkin nahin ki unhen kabhi pata hi na chale. jhuthi chitthiyan mangvai ja sakti hain ya aisa hi kuch. . . jyada se jyada unhen itni chot to lagti na ki laDke ne ankhen pher leen aur nalayak nikal gaya. . . lekin akhir mujhe hi harna paDa. phir unhen bataya gaya aur ab sab kuch tumhare samne hai. . . ”
mainne poochh to liya, lekin puchhne ke saath hi mujhe apne saval ke betukepan ka dhyaan aaya. ye vahi saval tha jo har milne vala mujhse bhi puchhta tha aur mujhe jhunjhlahat hoti thi. main kahne laga, “mera matlab hai ki isse pahle kuch. . . ”
“nahin, kabhi kuch nahin. do ek din pahle apni tabiat ke theek na hone ki shikayat zarur kar rahe the. us din ve roz ki tarah kaam par ge the. bhabhi se kah rakha tha ki shaam ko Dauktar ke paas chale chalenge. shaam ko ve taiyar bhi ho ge the, lekin usi vaqt unka ek pakistani dost aa gaya— ek viDiyo kaiset ke liye aur ve ti. vi. dekhne lage. shayad tum nahin jante ki idhar unhonne hindi film ke kaisets aur hindustani sangit ke el peez ka kitna baDa zakhira kar rakha tha. ”
haan, main nahin janta tha. saat saal pahle jab hasin yahan tha, to wo hindi filmon se nafrat karta tha aur use hindustani sangit mein koi dilchaspi nahin thi.
“apne pakistani dost ko Draing room mein chhoDkar ve andar ek kaiset lene ge the, lekin kaiset dekhte dekhte unhen bechaini hui aur ve let ge. bas, mushkil se do minat lage honge. . . main samajh raha tha ki unka qafan dafan vahin ho chuka hoga. hum log ro dhokar chup bhi ho chuke the. koi das barah dinon ke baad jab bhabhi aur bachchon ko lene main bambii pahuncha to mujhe guman bhi nahin tha ki ve naiziriya se hasin bhai ka tabut lekar aai hain. phir sabke zakhm khule, phir ek baar ne sire se matam hua. . .
“aur nasib ki sangadili to dekho,” thoDi der thaharkar jamil kahne laga, “ise tab hona tha jab ve lautne ko hi the. abhi chhah mahine pahle jab ve yahan aaye the to kahne lage— bas, kuch dinon ki baat aur hai, is kantrekt ke khatm hone ke baad main hindustan laut auunga. kahne lage— ab aur vahan nahin raha jata. kuch bhi kaho, apna mulk phir bhi apna mulk hai. . . unhonne yahan ‘shimla hils’ mein apni pasand ka shanadar makan banva liya tha. lautne ke baad ve yahan kya karenge ye tay ho chuka tha aur ve bahut khush the. tab unhonne kabhi nahin socha hoga ki jis ghar ki ek ek iint unhonne itne pyaar mein rakhavai thi, usmen ve kabhi nahin rah payenge. . . pichhli baar ek ajib baat hui thi. jab main unhen eyarport chhoDne gaya tha to zindagi mein pahli baar ek humak si uthi thi. ekayek ji mein aaya tha ki unhen bahut zor se bheench loon, eqdam kaleje se lagakar, lekin phir laga ki ye kori jazbatiyat hogi. hasin bhai kaun hamesha ke liye ja rahe hain aur apne ko rokkar mainne wo mauqa hamesha ke liye kho diya. ab vahi taklif itni baDi kasak ban gai hai ki har vaqt mujhe tang karti rahti hai. kya tumne kabhi socha hai ki hum aksar kisi jom, kisi bauddhik girah ya ek namalum si zid ke tahat aise avasron ko khote rahte hain jinmen aksar wo adami chhipa hota hai. hum unhen aage ke liye multavi kar dete hain— bina ye jane ki ve hamari zindagi mein phir kabhi nahin ayenge. . . ”
kaniz ne paan ki tashtari meri taraf baDha di. wo kab panadan lekar aa baithi thi, mujhe pata nahin the. mainne chupchap paan le liya.
main janta tha ki jamil ne mujhe kahin gahre chhu liya hai. lekin kya wo sirf chhuna tha, apni giraft mein lekar nichoDna nahin? main samne ki divar ki or dekhne laga, jis par tugra laga hua tha— allah, allah, allah. . . ” dekhte hue.
phir tasviren hasin ki. hasin bhai apne baagh mein tinon chhote bachchon ke saath. hasin bhai apni gaDi mein stiyring ke samne jabki bhabhi kaar ka darvaza pakDe khaDi hain. mainne wo tasvir utha li jo idhar haal ki thee— shayad yahan ki. usmen sirf hasin tha, sirf uska hansta hua chehra. tasvir mein wo bahut tezi se buDhata hua laga aur ye dekhkar tajjub hua ki uske chehre par sampannta ki koi chhaap nahin thi. ulte wo ek peD ki tarah sookh raha tha. wo pahle se kahin jyada ganja ho gaya tha aur uski daDhi baDhi hui thi.
“yah to yahin ki lagti hai?” mainne kaha.
“haan, ve isi jagah lete the aur mainne tasvir le li thi. abhi pichhli baar. ”
“ismen hazamat kyon baDhi hui hai?”
“idhar unhonne daDhi rakh li thi. tum unse kab mile the?”
“teen chaar saal pahle, yahin par. us baar main dilli se aaya tha, to ittifaq se wo yahin tha. beech mein ekaadh baar wo apne viza vaghairah ke silsile mein dilli aaya to usne khabar bheji thi, aur mere ghar bhi pahuncha tha, lekin main jane kahan uljha hua tha ki vaqt par nahin pahunch saka aur wo bina mile chala gaya. ”
main jamil se saaf jhooth bol raha tha. sach to ye hai ki main hasin se milna nahin chahta tha aur use jaan bujhkar taal gaya tha. shayad main usse bachna chahta tha, pata nahin kyon. halanki main usi ki tasvir haath mein liye baDi der se dekh raha tha aur mujhe ek bechain karne vali aur namalum si taklif ho rahi thi.
“malum hai, jab mujhe daura paDa to Dauktron ne kya puchha tha?”
jamil meri or dekhne laga. kaniz vahan se ja chuki thi aur hum donon akele the.
“kahne lage, bataiye, jis din aapko ye taklif hui us din ya uske do ek dinon mein kya hua tha? kisi tarah ka tanav, koi sadma, koi aisi vaisi khabar jisne aapko Distarb kiya ho? mainne kaha, nahin, aisa kuch bhi nahin. ye theek hai ki merath mein dange ho rahe the, lekin vahan mera koi aziz nahin tha. ye bhi sahi hai ki purani dilli mein tanav tha aur karfyu hua tha, lekin main to nai dilli mein rah raha tha. phir mainne kuch sochkar hasin ko bata diya tha, ye kahte hue ki wo mera dost zarur tha, lekin idhar kai barson mein hum donon ek dusre se bahut door ho ge the. ab lagta hai ki pata nahin us baat mein kahan tak sachchai thi. sach to ye hai ki sabkuchh ke bavjud hasin ek saaf, iimandar aur nek adami tha aur main use bahut pyaar karta tha, bahut. . . ”
aur ye kahte kahte mainne dekha ki mera gala rundh gaya hai, ankhen bhar aai hain aur main sachmuch rone laga hoon. . .
haan, sachmuch!
main dabe paanv dakhil hua. bahar ka get mainne dhire se khola— aise ki avaz na ho. ghar ke samne vala darvaza uDka hua tha— hamesha ki tarah. mainne use bhi dhire se dhakela tha. asal mae main jamil ke samne bilkul achanak aana chahta tha— dil ke daure ki tarah.
ye bhopal jaise shahr ki dupahri thee— Dhalti hui. din mein itna sunapan aur alasya tha ki aksar log so rahe the. main janta tha ki ye jamil ke ghar par milne ka vaqt tha. shahr aur uske apne mizaj ke lihaz se hi nahin, uske kaam ke etbaar se bhi. uska kaulej subah shaam lagta tha aur sari duphar khali rahti thi.
jamil divan par leta hua tha, divar ki or munh kiye. aahat se chaunk kar jab usne dekha to ekaadh pal bas dekhta hi rah gaya. hairan! phir “are” kahta hua haDabDakar utha aur hum donon lipat ge. uski jakaD zabardast thi. banhen uski lambi aur mazbut thi aur hatheliyan jaise meri peeth mein dhans jana chahti thi, gosht posht ko chhedti hui. pahli baar laga ki haath ki ungliyan bhi bolti hain.
“kab aya?” kai pal baad usne gardan hatakar puchha, lagbhag rundhe hue svar mein. uska chehra ab bhi mere itne paas tha ki donon ek dusre ko dekh nahin pa rahe the.
“subah,” mainne kaha, “dakshin eksapres se. ”
alag hue. baithe.
“main aaj subah hi yaad kar raha tha”, wo bola aur gaav takiye se tikkar meri or dekhne laga. wo aisi bharpur nazar thi, jismen aap sama lena chahte hain— sab kuch. tabhi baghal vale kamre ka parda hatakar bivi kaniz aai, hansti hui. salam kiya. paas baithi. boli. puchha. khush hui.
“is vaqt?” main hansne laga, hamesha ki tarah. main janta tha ki akhir wo khana layegi aur main khaunga. wo uthkar andar chali gai.
“ab baji ki tabiat kaisi rahti hai?” mainne jamil se puchha.
baji ka takht bahar se hi dikhta hai aur ghar mein dakhil hote hue mainne dekh liya tha ki wo namaz paDh rahi hain. saval jaise asuvidhajanak tha. jamil sigret ka paiket tatolne laga. mila to ek jalai aur meri or dekhkar sir hila diya, yani bas theek hai. aur phikepan se muskraya. baji bhaijan yani maan baap. baji kai mahinon se bimar chal rahi theen. ghar par hue ne hadse se bhi pahle. shayad tabhi se jab ek din bhaijan achanak nahin rahe the. raat ve theek thaak soe the, lekin subah nahin uthe, bas!
“kaun hai allan?” bhitar se baji ki avaz aai. wo shayad musalle se uth rahi thi. allan yani jamil. jamil ne mera naam bataya. kaha ki main dilli se aaya hoon, salam kar raha hoon. unhonne vahin se duaen deen, bahut thaki hui avaz mein. phir kuch baDbaDati si rahi. kya, ye meri samajh mein nahin aaya. socha ki darvaze tak jakar unhen dekh len, lekin himmat nahin paDi. unka samna karna mere bas ki baat nahin thi.
“aur ?” thoDi der baad jamil ne mujhe vapas late hue kaha, kahin aur le jane ke liye.
“teri dilli kaisi hai?”
“meri!”
jamil muskraya.
“dilli ek dozakh hai, main pahle aksar kaha karta tha. chaar saal pahle jab main is shahr se nikala gaya tha to mere man mein bahut talkhi thi. ye desh nikala pichhli sarkar ki inayat thi aur mere liye ye bhulna mushkil tha ki main dilli aaya nahin, phenka gaya hoon. ab wo baat nahin rahi, lekin na to main dilli ka ho sakta hoon aur na dilli meri, jamil ye janta tha.
“chal, merath ki markat ki sahi. kya haal hai?”
“vahan dange ka itihas bahut purana hai, san saitalis se bhi purana. naya main kya bataun! vahi kah sakta hoon jo akhbaron mein hai. haan, suna hai ki muradabad aur aligaDh mein bahut tanav hai. ”
“tujhe akhbaron par bharosa hota hai?”
main chup ho gaya.
“jo log dahane par baithe hain, ve jante hain. ” usne kaha.
“kahan hai dahana?”
“dilli dahana nahin hai— mulk ka, merath ka, jamshedpur ya bhagalpur ka. . . ?
main kamre ki divaron ko dekhne laga, jinmen kai akaron ki pentings latki hui theen, kaniz ki banai hui. unmen husain aur hebbar ka mila jula prabhav saaf tha. zahir hai ki main bachna chahta tha! shayad hum donon bachna chahte the, usse jiske chhiD jane ka Dar hum donon ko hi tha.
“teri purani shakl laut aai hai,” jamil ne baat palatte hue kaha, “pichhli bimari mein jane wo kahan chali gai thee!”
“yah haart ataik ki den hai,” mainne kaha aur dambhabhri hansi hansne laga, aise jaise main koi qila jeet aaya hoon.
“ab to tu bilkul theek hai na?” usne puchha.
“bilkul ka to pata nahin. haan, theek zarur hoon. utna hi theek, jitna dil ke mariz rahte hai. ”
aur ye kahne ke saath hi mujhe laga ki mere svar mein atmadya aa gai hai. mainne purane dambh mein lautte hue kaha, “asal mein, ab mainne parvah karna chhoD diya hai. jab aana hai, aa jayegi. tab na Dauktron ke chalte rukegi aur na mere roke. ”
“bahut dinon tak yahan kisi ko pata nahin tha, jamil ne kaha, “afvah ki tarah khabar aai thi kuch ulti sidhi. hum logon ne ghabrakar dilli fon kiya tha, lekin tumhare vahan ke doston ne kaha ki vaisi koi baat nahin hai. aspatal mein zarur hai, ‘intensiv keyar yunit’ mein bhi hai; lekin haart vaart ka mamla nahin hai. wo to dilli se tujhe dekhkar laute pankaj ne bataya ki sab kuch kitna siriyas tha. . . ” ye hua kaise?”
“usi tarah, jaise ye hota hai— achanak?”
“ghar par ?. . . ”
“nahin, daftar mein. ”
“kaise?”
“main baten kar raha tha ek milne vale se. ekayek mujhe bechaini si hui. sine mein jakDan aur dard ke bagule uth aaye the aur main pasine mein sarabor ho gaya. meri avaz bilkul maddhim ho gai thi, dil Dubne laga tha. main uthna chahta tha, lekin mujh mein dam nahin tha. main baithe rahna chahta tha, lekin itni bechaini aur ghabrahat ki. . . thoDi hi der mein main farsh par leta chhatapta raha tha. . . . ”
kahte kahte main ruk gaya kyonki jamil ke chehre par ek atank main saaf saaf dekh raha tha jo main chahta tha. mujhe khushi thi ki meri jis yatana ko yahan mamuli Dhang se liya tha, main uska hisab barabar kar raha tha. dilli ke apne doston ke ravaiye par ghussa aa raha tha, so alag. ye theek hai ki ek maslehat ke tahat meri bimari ki sanjidgi ko chhipaya gaya tha, lekin us maslehat ne mujhe us sabse yahan mahrum kar rakha tha, jo main chahta tha. lagbhag ek saal ke baad mainne is shahr mein pravesh kiya tha, ek aise adami ki tarah jo durlabh hote hote ekayek rah gaya tha.
“tumhen yaad hai, mainne taziyat ka khat tumhe kab likha tha? wo saat april ka din tha, aur koi ghante bhar pahle mainne tumhein likha tha? tab mainne socha bhi nahin tha ki thoDi hi der baad main bhi us raste par pahunch jaunga jahan se hasin kabhi nahin aaya. ”
tabhi bhitar se kaniz nikal aai aur mere samne kabab rotiyon ki rakabi rakhti hui boli, “lo, khao!” phir ek stool khinchkar samne hi baith gai. pahla hi lukma toDte hue mujhe laga ki hasin ka naam mujhe nahin lena chahiye tha. shayad main chahta bhi nahin tha, lekin baat ki rau thi. lekin kyon nahin? kya main purse ke liye nahin aaya tha? pursa wo bhi hasin ka. ye wo adami tha jo abhi kal tak isi shahr mein dusron ke purse ke liye jaya karta tha aur nahin janta tha ki use kya kahna chahiye. wo chupchap baith jaya karta tha— suni ankhon se ek taraf dekhta hua.
khabar mujhe ye bhi daftar se mili thi, dilli mein, jamil ne nahin di thi. is shahr se bhi nahin gai thi, burhanpur se said mahmud ne likha tha—
“tumhen ye jankar bahut sadma hoga,” usne khat mein kaha tha ki hum donon ka aziz dost hasin ahmad siddiki ka naijiriya mein intkaal ho gaya. uska haart phel ho gaya tha. nasrin bhabhi uski mayyat lekar bhopal aai thi aur use dafnakar main kal lauta hoon. hum logon ko jo hona tha hua, lekin socho ki teen chhote chhote bachchon ke saath rah gai ek javan aurat ke saath jo nainsafi hui hai, kya uski koi talafi ho sakti hai?
baDi der tak main khat liye baitha rah gaya tha. mainne use koi teen baar paDha tha aur hasin ke naam par paanch baar nazar Dali thi. main yaqin karna chahta tha, lekin ho nahin raha tha aur jab hua to us pal ke hazaron mein rahat aur chhutkare ki saans thi. phir mainne duःkha ko dhire dhire sametkar apne bhitar ikattha kiya tha aur eqdam duःkhi ho gaya tha.
“yah bhi koi baat hui?” main uske baad har aane vale ko batakar kah raha tha, “kya ye uske jane ki umr thi aur wo bhi dil ke daure se! wo to mujh se bhi do saal chhota tha. wo khuda se khauf khane vala aur parhezgar adami tha aur sigret tak nahin pita tha. ”
ye sab kahte hue ya to main Dara hua tha ya shayad apne Dar ko door kar raha tha, halanki daftar se ghar lautne tak bhi usse pichha nahin chhuta tha. wo kahin itne andar pahunchakar baith gaya tha ki usne mujhe ekayek chup kar diya. khabar ye ghar ke liye bhi baDi thi, lekin mainne us din bivi se bhi nahin kaha— is Dar se ki ghar par bhi der tak vahi zikr hota rahega aur raat ko hasin ka chehra mujhe sone nahin dega. us raat main so to gaya, lekin hasin ne tang barabar kiya. uska chehra charon or se aakar mujh par akrman karta tha aur sapne mein sari raat uski mayyat dikhai dee— kai din purani mayyat! ye us din hi nahin, uske agle din bhi hua tha aur uske bhi agle din, halanki main kisi se kuch bhi nahin kah raha tha. taziyat ka khat bhi teen dinon tak talne ke baad mainne jamil ko likha tha aur main bhi hasin ki tarah nahin janta tha ki purse mein kya kahna chahiye. . .
baat ajib sahi, lekin sach to ye hai ki hasin mera dost nahin rah gaya tha, khaskar idhar ke barson men—jab wo naiziriya chala gaya tha ya shayad usse bhi pahle jab main dhire dhire uske chhote bhai jamil ka dost ho gaya tha.
pandrah baras pahle jab main bhopal aaya tha to dosti usi se hui thi. donon bhopal mein bahar se aaye hue the aur vahan hamara koi ghar nahin tha. hasin mein ek khaas tarah ka mardana akarshan tha— sidhe apni or kheench lene vala. wo lamba aur chharahra tha aur halke halke ganja ho raha tha. pahle hi din mainne dekh liya tha ki wo ek mahin ahsason vala aisa ghussail aur akramak adami hai jo apne aap par bhi hans sakta tha. wo itne chhote chhote aur khubsurat mubalghe karta tha ki koi bhi hansta hansta uska ho jata tha. tab hum log purane bhopal ki amirganj gali mein rahte the aur javan the. hasin ek praivet kaulej mein vigyan paDhata tha aur main ek daftar mein kalam ghasit raha tha. muhalla purane raison aur khamiron ka tha aur hum jaise phatehal ikka dukka hi paDe hue the apne apne munh chhipaye hue.
asal mein, hum donon ki dosti do tangdast, kunthit aur ghussail adamiyon ka aisa mel thi jo donon ko rahat deti thi. rijha pahle main hi tha, baad mein use rijha liya tha, halanki hum donon alag alag qimash ke log the. wo vigyan paDhata tha lekin dakiyanus aur mazahbi tha aur hansi hansi mein apne ko jannati kahta tha. mera vigyan se koi lena dena nahin tha, lekin main usi ke sahare apne ko adhunik lagta tha aur pragtishil bana hua tha— hasin ka fatva sir mathe par liye hue main dozkhi hoon. sachchai ye hai ki hum donon ek dusre ko dozkhi samajhte the aur donon milkar us tisre ko jo hamare beech nahin hota tha, lekin jise hum kandu kahte the.
“haan, main to tumhare paanv ki dhool bhi nahin hoon. ”
“vah to tum vaise bhi nahin ho. ” mainne hansakar uDana chaha tha.
“tum donon jahan ke maze marana chahte ho,” usne qarib qarib baal nochte hue kaha tha, “nastik vastik kuch ho nahin, wo tumhara Dhong hai.
“tumhare jannati hone se bhi baDa Dhong?” mainne prativad kiya tha, “kyon nahaq phake karte ho yaar!”
main aksar kaha karta tha ki jo sachmuch rozedar hote hain, ve sehari ke baad iftaar aur iftaar ke baad sehari ki fikr nahin kiya karte. jo log ramzan ke dinon mein subah shaam thaili liye bazar bhagte nazar aate the, kabhi murg to kabhi titar ke liye, kabhi lave to kabhi bater, kabhi machhli to kabhi biryani ke liye, main unka mazak uData tha—yah jante hue bhi ki isse hasin ko chot lagti hai kyonki main yahi chahta tha.
“tum na hiyon mein ho aur na shiyon mein. na yahan, na vahan. allah tum par rahm kare. ” wo mujhse kahta tha.
ye sirf ek din ki baat nahin thi. aksar hum donon kisi na kisi aisi baat par laDte the. ghusse mein ek dusre se kabhi na bolne ki dhamki dete the, lekin agle din ya uske agle din phir milte the. phir se laDne ke liye. . .
ye wo daur tha, jab mulk mein fasad ki fasal aai thi aur ek ke baad kai shahron mein dange ho rahe the— jabalpur, bhivanDi, jalganv, ahamadabad, jamshedpur aur. .
hum log bhopal jaise shahr mein rah rahe the, jismen dange ka koi itihas nahin tha, phir bhi Dare hue the, kyonki shahr mein tanav tha. sarkar satark ho gai thi. jagah bejgah pulis aur homagarD ke javan tainat the. roz afvahen uDti theen aur bahar se roz khabren aati theen— haibatnak khabren! barson se saath saath rahe aaye hindu musalman ek dusre ko sandeh aur Dar se dekhne lage the, aur chhote chhote samuhon mein bant ge the.
“dekh lo,” ek aisi hi shaam hasin ne ghabraye hue svar mein kaha tha, “haivan ke bachchon ne mulk ka bantvara karke kya kar diya hai. . . ”
usne subah ke akhbar mein kuch aur dil dahlane vali khabren paDh li theen. uska shev baDha hua tha aur baal rukhe the— uDe uDe se. wo aur dinon se jyada ganja lag raha tha.
“ab ye mulk rahne layaq nahin raha!” wo bola, “kisi din hum log bhi katkar phenk diye jayenge aur koi rone vala nahin hoga. ”
“kyon, main jo hoon. ” mainne hansakar kaha. darasal, main apne aur uske Dar ko hansakar uDana chahta tha— andhere mein gaye jane vale geet ki tarah.
“tum bhi nahin hoge,” usne ankh tarerkar talkhi se javab diya, “kal jab kafiron ka jattha ganDase aur khanjar lekar tumhare darvaze par ayega, tab koi nahin puchhega ki tum kya sochte ho ya tumhare khayalat kya hain! pahchan ke liye tumhara naam kafi hai. ”
“tum to kah rahe the ki pahchan ke liye sirf naam kafi nahin hota!”
“vah aur baat thi. dusre silsile mein kahi gai thi. maslon ko gaDDmaDD mat kiya karo. main janta hoon, tum chalaki kar rahe ho. ”
haan, main chalaki kar raha tha. jaan bujhkar anjan bane rahne ki chalaki. sachchai se Darkar bhaag khaDe hone ki chalaki. hasin se asahmat hone aur use aahat karne ki chalaki. main hasin se bilkul sahmat nahin hona chahta tha, kyonki uski baat manna apne panvon ke niche ke us tile ko katna tha, jis par main khaDa tha.
is beech ek aisi baat hui jiske bare mein mainne kabhi socha bhi nahin tha. hasin ekayek mere liye durlabh ho gaya tha. subah usko kaulej hua karta tha, dopahar mein mera daftar. ek shaam ka hi vaqt tha, jismen hum aksar mila karte the, lekin idhar wo kai shamon se ghayab tha. mere liye hasin ka ghar aprichit nahin tha, jamil bhi mere liye naya nahin tha. main janta tha ki wo hasin ka chhota bhai hai aur usi kaulej mein paDhta hai. jab jab main hasin ke yahan gapshap, chaay ya khane par hota, aksar jamil bhi hua karta tha— yahan tak ki uske baap bhaijan bhi. wo is arth mein ajib ghar tha ki yahan pahunche kisi bhi dost ya mehman se pura ghar milta tha aur sabhi log batachit mein sharik hote the. mujhe bhaijan ka apne beech hona kai baar khalta tha, kyonki usse hamari azadi chhinti thi, lekin jamil ka hona mujhe achchha lagta tha. darasal, main jamil ko shuru se pasand karta tha.
ab sochta hoon to lagta hai ki jamil ka pahle mujhse na takrana ya hasin ke madhyam se milna mahz ek sanyog tha, varna shayad main sidhe usi ka dost hota. ye baat tab bhi lagi thi jab main hasin ka ata pata karne kai baar uske ghar gaya tha aur jamil mujhe nahin mila tha. phir main dhire dhire hasin se kat gaya tha.
“hasin bhai se ajkal shaam ko milna mushkil hai, meri do teen baar ki mayusi ke baad jamil ne mujhe bataya tha, “darasal ye aur said mahmud usi chakkar mein hain. ”
“kis chakkar men?”
“tajjub hai ki aapko pata nahin! kya aap nahin jante ki donon bahar nikalne ki jugaD mein hain?”
“bahar yani?”
“bahar yani kahin bhi. miDil iist, libiya, afrika aur vahan jahan jaub mile, achchhe paise milen! said mahmud ki to mazburi hai, aise kaulej ki mastari mein wo vaise hi kangal hai. chaar chaar betiyan sir par baithi hui hain aur beta poliyo ka shikar hai. . . hasin bhai hain ki ve behtar zindagi chahte hain. . . ”
said mahmud tab bhopal mein tha aur usi kaulej mein profesar tha. wo hum tinon ka dost tha, lekin kisi ke haath nahin aata tha. kyonki har vaqt wo jaldi mein hota tha— ek aisi bechaini bhari jaldi jo use kahin do pal se jyada tikne nahin deti thi. wo aata to baithta nahin tha. baithta to par tolne lagta tha aur sach to ye hai ki uske aate hi ye dhaDka laga rahta tha ki wo kisi bhi pal chala jayega. hasin aur uski dosti ek had tak peshe ki vajah se thi, lekin mizaz ke lihaj se wo mere jyada nazdik paDta tha. phir bhi mujhe tajjub nahin hua, kyonki donon ek hi maqsad ke liye ikatthe hue the, bhale hi karan alag alag ho.
“kyon, bhaag liye?” kai dinon ke baad jab hasin pakaD mein aaya to mainne use dhar dabocha. hasin ne mujhe usi andaz se dekha jismen uski chhoti moti ankhen gol hokar nukili ho jati theen aur akramak lagti theen.
“kaun bhaag raha hai?”
“tum aur kaun!”
“main bhaag nahin raha, ja raha hoon. ”
“ek hi baat hai!”
“ek hi baat nahin hai,” usne zor dekar kaha, “bhagne vale pakistan mein hain. aur ve kabhi lautkar nahin ayenge. ”
“tum kaun lautkar aane vale ho!”
“kyon, main kya kale habshiyon ke beech marne ja raha hoon?”
“kya pata!”
“tum jaise dost to yahi dua karenge. karo. . . ”
“maidan to chhoD hi rahe ho. ”
“do chaar saal ke liye ghar se bahar nikalna maidan chhoDna hai, bhagna hai? usne baukhlakar kaha, “main apne aur apne bachchon ke mustaqbil ke bare mein kuch na sochun? yahin paDa saDta rahun! apne asapas luchchon, laphangon, badkaron aur badmashon ko panapta hua dekhta rahun. roz kuDhun. . . roz lahu jalaun?”
“mustaqbil aur bachche to mere bhi hain. ” mainne kaha.
“tum agar kichaD mein paDe rahna chahte ho to koi kya kar sakta hai!” wo bola, “na to tum uupar uth sakte ho, na uthna chahte ho. ”
“paison ke pichhe bhagna uupar uthna hai?”
“yah bimaron, nikammon aur buzadilon ki filausfi hai, usne chillakar kaha, “ise tum apne hi paas rahne do. ”
aur wo tezi mein chala gaya.
naiziriya jane se pahle hasin se ye meri akhiri batachit thi. kam se kam is silsile mein. iske baad hum mile zarur, lekin har mulaqat sarasri thi aur hamari baton ka koi matlab nahin tha. vaise bhi tab ek dusre se hum log kat chuke the. phir ek din suna ki wo chala gaya— mujhse bina mile aur mujhe kahin gahre chot karta hua. gaya said mahmud bhi, lekin uska jana ek ummid par lagai hui chhalang thi. wo bivi ke bache khuche zevar aur maurusi zamin bechkar saudi arab gaya tha, jabki hasin ko naiziriya ke kisi skool mein baqayda kaam mila tha aur uske liye havai jahaz ka tikat aaya tha.
“aur kuch laun?” kaniz mujhse kah rahi thi. mere samne khaDi aur rakabi ki or baDhti hui! main jaise chaunka.
“aur kyaa?”
“kabab ya ekaadh roti. ”
“bas, bas,” mainne kaha, “avval hi bahut ho chuka. qayde se mujhe khana bhi nahin chahiye tha. dopahar ko khana aksar main talne ki koshish karta hoon— khaskar bahar. Dauktar kahte hain ki ise niyam bana lo. . .
“aur tumne maan liya?” jamil ne muskrakar toka aur main hansne laga. jamil janta tha ki dilli ke ye teen chaar baras mainne Dauktron ke pichhe kitni eDiyan ragDi hain. abhi dilli mein paanv bhi nahin jame the ki malum hua, main ek ghatak bimari ki chapet mein hoon. kya karta? nafrat ya unke khilaf apne baDbolepan ne meri koi madad nahin ki aur main aspatal pahunchakar ek fail ban gaya tha— kes nan० see—535.
ve dozakh ke din the.
rakabi uthakar kaniz gai nahin, khaDi rahi, phir do pal mujhe ghurkar puchha, “abhi pichhle dinon tumhara kya haart vaart ka kuch. . . ”
mainne chaunkkar dekha. haan, chot lagi thi. kya kaniz ko khabar bhi nahin thee? main to samajh raha tha ki is ghar mein kabhi mere liye neem matam ka mahaul bana hoga aur jab pahunchunga to mujhe aisa liya jayega, jaise lagbhag khoya hua adami achanak baramad ho gaya ho.
“iski buri haalat ho gai thee’, jamil kaniz se kahne laga, ‘maissiv haart ataik’ tha. koi pachas ghante zindagi aur maut ke beech jhulta raha. wo to dilli jaisi jagah thi, pes mekar lagakar bacha liya, varna khuda jane kya hota!”
kaniz ka chehra ek pal ke liye safed ho gaya— bhay se. uske bahnoi isi se ge the, bahan isi se, samar isi se aur ab jeth bhee— jeth yani hasin bhai. jane se pahle wo sanbhalati hui boli—
“aur sigret pina bhar mat chhoDna, achchha!”
thoDi der baad meri tipai ke samne chaay ki tre aa gai. stool khinchkar kaniz mere samne baith gai aur chaay banane lagi. andar ke kamron mein baji theen, lekin unke vahan hone ka abhas yahan se mushkil tha. pahle to khair, wo namaz paDh rahi theen, lekin itni der mein na to wo bahar aai theen aur na mujhmen hi itna sahas tha ki uthkar main hi unse mil loon! main phir divaron ko dekhne laga, jin par kaniz ki pentings latki hui theen— barson se unhin jaghon par aur vaisi hi. lekin jaise pahli baar dhyaan aaya ki ve tugron ke asapas hain. ek tugra tha allah. dusra tha muhammad. us darvaze ke uupar, jo ghar ke bhitar khulta tha, kuran ki ek aayat thi—‘innallahe muassaberin’ yani sabr karne vale ke saath khuda hai.
kya mainne sabr kiya tha? chaay ka akhiri ghoont lete hue mainne socha— kya mainne un mitron ko maaf nahin kiya tha, jo aspatal mein mujhe dekhne ya mujhse milne nahin aaye the, aur kyon un dushmnon ke liye bhi main narm ho gaya tha jo mere palang ke paas aakar khaDe ho ge the?
“ya allah!” tabhi andar se baji ki guharti hui avaz ai—
“raja be rabbi. . . ”
kaniz ne bartnon ko zarurat se jyada avaz karte hue sameta aur tre mein rakhne lagi— ek ke baad ek. phir uthkar andar chali gai.
“baji ko kaise sanbhala tha?” kuch palon ki chuppi ke baad mainne puchha.
“sab apne aap sanbhal jate hain,” wo bola, “jis vaqt hasin bhai ki khabar naiziriya se mili thi, baji sakht bimar theen. lagta tha, bachengi nahin. meri samajh mein nahin aa raha tha ki main kya karun. Dauktar se puchha to kahne laga, pata nahin aisi haalat mein ye sadma bardasht bhi kar pati hain ya nahin, lekin unhen na batana bhi to jyadti hogi. akhir kab tak chhipaoge? main do dinon tak sabse laDta raha ki unhen na bataya jaye. tum to jante ho, ve hasin bhai ko hum sabse jyada chahti theen. mera kahna tha ki kya ye mumkin nahin ki unhen kabhi pata hi na chale. jhuthi chitthiyan mangvai ja sakti hain ya aisa hi kuch. . . jyada se jyada unhen itni chot to lagti na ki laDke ne ankhen pher leen aur nalayak nikal gaya. . . lekin akhir mujhe hi harna paDa. phir unhen bataya gaya aur ab sab kuch tumhare samne hai. . . ”
mainne poochh to liya, lekin puchhne ke saath hi mujhe apne saval ke betukepan ka dhyaan aaya. ye vahi saval tha jo har milne vala mujhse bhi puchhta tha aur mujhe jhunjhlahat hoti thi. main kahne laga, “mera matlab hai ki isse pahle kuch. . . ”
“nahin, kabhi kuch nahin. do ek din pahle apni tabiat ke theek na hone ki shikayat zarur kar rahe the. us din ve roz ki tarah kaam par ge the. bhabhi se kah rakha tha ki shaam ko Dauktar ke paas chale chalenge. shaam ko ve taiyar bhi ho ge the, lekin usi vaqt unka ek pakistani dost aa gaya— ek viDiyo kaiset ke liye aur ve ti. vi. dekhne lage. shayad tum nahin jante ki idhar unhonne hindi film ke kaisets aur hindustani sangit ke el peez ka kitna baDa zakhira kar rakha tha. ”
haan, main nahin janta tha. saat saal pahle jab hasin yahan tha, to wo hindi filmon se nafrat karta tha aur use hindustani sangit mein koi dilchaspi nahin thi.
“apne pakistani dost ko Draing room mein chhoDkar ve andar ek kaiset lene ge the, lekin kaiset dekhte dekhte unhen bechaini hui aur ve let ge. bas, mushkil se do minat lage honge. . . main samajh raha tha ki unka qafan dafan vahin ho chuka hoga. hum log ro dhokar chup bhi ho chuke the. koi das barah dinon ke baad jab bhabhi aur bachchon ko lene main bambii pahuncha to mujhe guman bhi nahin tha ki ve naiziriya se hasin bhai ka tabut lekar aai hain. phir sabke zakhm khule, phir ek baar ne sire se matam hua. . .
“aur nasib ki sangadili to dekho,” thoDi der thaharkar jamil kahne laga, “ise tab hona tha jab ve lautne ko hi the. abhi chhah mahine pahle jab ve yahan aaye the to kahne lage— bas, kuch dinon ki baat aur hai, is kantrekt ke khatm hone ke baad main hindustan laut auunga. kahne lage— ab aur vahan nahin raha jata. kuch bhi kaho, apna mulk phir bhi apna mulk hai. . . unhonne yahan ‘shimla hils’ mein apni pasand ka shanadar makan banva liya tha. lautne ke baad ve yahan kya karenge ye tay ho chuka tha aur ve bahut khush the. tab unhonne kabhi nahin socha hoga ki jis ghar ki ek ek iint unhonne itne pyaar mein rakhavai thi, usmen ve kabhi nahin rah payenge. . . pichhli baar ek ajib baat hui thi. jab main unhen eyarport chhoDne gaya tha to zindagi mein pahli baar ek humak si uthi thi. ekayek ji mein aaya tha ki unhen bahut zor se bheench loon, eqdam kaleje se lagakar, lekin phir laga ki ye kori jazbatiyat hogi. hasin bhai kaun hamesha ke liye ja rahe hain aur apne ko rokkar mainne wo mauqa hamesha ke liye kho diya. ab vahi taklif itni baDi kasak ban gai hai ki har vaqt mujhe tang karti rahti hai. kya tumne kabhi socha hai ki hum aksar kisi jom, kisi bauddhik girah ya ek namalum si zid ke tahat aise avasron ko khote rahte hain jinmen aksar wo adami chhipa hota hai. hum unhen aage ke liye multavi kar dete hain— bina ye jane ki ve hamari zindagi mein phir kabhi nahin ayenge. . . ”
kaniz ne paan ki tashtari meri taraf baDha di. wo kab panadan lekar aa baithi thi, mujhe pata nahin the. mainne chupchap paan le liya.
main janta tha ki jamil ne mujhe kahin gahre chhu liya hai. lekin kya wo sirf chhuna tha, apni giraft mein lekar nichoDna nahin? main samne ki divar ki or dekhne laga, jis par tugra laga hua tha— allah, allah, allah. . . ” dekhte hue.
phir tasviren hasin ki. hasin bhai apne baagh mein tinon chhote bachchon ke saath. hasin bhai apni gaDi mein stiyring ke samne jabki bhabhi kaar ka darvaza pakDe khaDi hain. mainne wo tasvir utha li jo idhar haal ki thee— shayad yahan ki. usmen sirf hasin tha, sirf uska hansta hua chehra. tasvir mein wo bahut tezi se buDhata hua laga aur ye dekhkar tajjub hua ki uske chehre par sampannta ki koi chhaap nahin thi. ulte wo ek peD ki tarah sookh raha tha. wo pahle se kahin jyada ganja ho gaya tha aur uski daDhi baDhi hui thi.
“yah to yahin ki lagti hai?” mainne kaha.
“haan, ve isi jagah lete the aur mainne tasvir le li thi. abhi pichhli baar. ”
“ismen hazamat kyon baDhi hui hai?”
“idhar unhonne daDhi rakh li thi. tum unse kab mile the?”
“teen chaar saal pahle, yahin par. us baar main dilli se aaya tha, to ittifaq se wo yahin tha. beech mein ekaadh baar wo apne viza vaghairah ke silsile mein dilli aaya to usne khabar bheji thi, aur mere ghar bhi pahuncha tha, lekin main jane kahan uljha hua tha ki vaqt par nahin pahunch saka aur wo bina mile chala gaya. ”
main jamil se saaf jhooth bol raha tha. sach to ye hai ki main hasin se milna nahin chahta tha aur use jaan bujhkar taal gaya tha. shayad main usse bachna chahta tha, pata nahin kyon. halanki main usi ki tasvir haath mein liye baDi der se dekh raha tha aur mujhe ek bechain karne vali aur namalum si taklif ho rahi thi.
“malum hai, jab mujhe daura paDa to Dauktron ne kya puchha tha?”
jamil meri or dekhne laga. kaniz vahan se ja chuki thi aur hum donon akele the.
“kahne lage, bataiye, jis din aapko ye taklif hui us din ya uske do ek dinon mein kya hua tha? kisi tarah ka tanav, koi sadma, koi aisi vaisi khabar jisne aapko Distarb kiya ho? mainne kaha, nahin, aisa kuch bhi nahin. ye theek hai ki merath mein dange ho rahe the, lekin vahan mera koi aziz nahin tha. ye bhi sahi hai ki purani dilli mein tanav tha aur karfyu hua tha, lekin main to nai dilli mein rah raha tha. phir mainne kuch sochkar hasin ko bata diya tha, ye kahte hue ki wo mera dost zarur tha, lekin idhar kai barson mein hum donon ek dusre se bahut door ho ge the. ab lagta hai ki pata nahin us baat mein kahan tak sachchai thi. sach to ye hai ki sabkuchh ke bavjud hasin ek saaf, iimandar aur nek adami tha aur main use bahut pyaar karta tha, bahut. . . ”
aur ye kahte kahte mainne dekha ki mera gala rundh gaya hai, ankhen bhar aai hain aur main sachmuch rone laga hoon. . .
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