शहर के एक ओर एक तिरस्कृत मकान। दूसरा तल्ला। वहाँ चौके में एक स्त्री अँगीठी सामने लिए बैठी है। अँगीठी की आग राख हुई जा रही है। वह जाने क्या सोच रही है। उसकी अवस्था बीस-बाईस के लगभग होगी। देह से कुछ दुबली है और संभ्रांत कुल की मालूम होती है।
एकाएक अँगीठी में राख होती हुई आग की ओर स्त्री का ध्यान गया। घुटनों पर हाथ देकर वह उठी। उठकर कुछ कोयले लार्इ। कोयले अँगीठी में डालकर फिर किनारे ऐसे बैठ गई, मानो याद करना चाहती है कि 'अब क्या करूँ?' घर में और कोई नहीं है और समय बारह से ऊपर हो गया है।
दो प्राणी इस घर में रहते हैं, पति और पत्नी। पति सबेरे से गए हैं कि लौटे नहीं और पत्नी चौके में बैठी है।
वह (सुनंदा) सोचती है—नहीं, सोचती कहाँ है, अलसभाव से वह तो वहाँ बैठी ही है। सोचने को है तो यही कि कोयले न बुझ जाएँ।...वह जाने कब आएँगे। एक बज गया है। कुछ हो, आदमी को अपनी देह की फ़िक्र तो करनी चाहिए।...और सुनंदा बैठी है। वह कुछ कर नहीं रही है। जब वह आएँगे तब रोटी बना देगी। वह जाने कहाँ-कहाँ देर लगा देते हैं। और कब तक बैठूँ। मुझसे नहीं बैठा जाता। कोयले भी लहक आए हैं। और उसने झल्लाकर तवा अँगीठी पर रख दिया। नहीं, अब वह रोटी बना ही देगी। उसने ज़ोर से खीझकर आटे की थाली सामने खींच ली और रोटी बेलने लगी।
थोड़ी देर बाद उसने ज़ीने पर पैरों की आहट सुनी। उसके मुख पर कुछ तल्लीनता आर्इ। क्षण-भर वह आभा उसके चेहरे पर रहकर चली गई और वह फिर उसी भाँति काम में लग गई।
कालिंदीचरण (पति) आए। उनके पीछे-पीछे तीन और उनके मित्र भी आए। ये आपस में बातें करते चले आ रहे थे। और ख़ूब गर्म थे। कालिंदीचरण मित्रों के साथ सीधे अपने कमरे में चले गए। उनमें बहस छिड़ी थी। कमरे में पहुँचकर रुकी हुई बहस फिर छिड़ गई। ये चारों व्यक्ति देशोद्धार के संबंध में बहुत कटिबद्ध हैं। चर्चा उसी सिलसिले में चल रही है। भारतमाता को स्वतंत्र करना होगा—और नीति-अनीति हिंसा-अहिंसा को देखने का यह समय नहीं है। मीठी बातों का परिणाम बहुत देखा। मीठी बातों से बाघ के मुँह से अपना सिर नहीं निकाला जा सकता। उस वक़्त बाघ का मारना ही एक इलाज है। आतंक! हाँ, आतंक। हमें क्या आतंकवाद से डरना होगा? लोग हैं जो कहते हैं, आतंकवादी मूर्ख है, वे बच्चे हैं। हाँ वे हैं बच्चे और मूर्ख। उन्हें बुज़ुर्गी और बुद्धिमानी नहीं चाहिए। हमें नहीं अभिलाषा अपने जीने की। हमें नहीं मोह बाल-बच्चों का। हमे नहीं ग़र्ज़ धन-दौलत की। तब हम मरने के लिए आज़ाद क्यों नहीं है? ज़ुल्म को मिटाने के लिए कुछ ज़ुल्म होगा ही। उससे वे डरे जो डरते हैं। डर हम जवानों के लिए नहीं है।
फिर वे चारों आदमी निश्चय करने में लगे कि उन्हें ख़ुद क्या करना चाहिए।
इतने में कालिंदीचरण को ध्यान आया कि न उसने खाना खाया है, न मित्रों के खाने के लिए पूछा है। उसने अपने मित्रों से माफ़ी माँगकर छुट्टी ली और सुनंदा की ओर चला।
सुनंदा जहाँ थी, वहाँ है। वह रोटी बना चुकी है। अँगीठी के कोयले उल्टे तवे से दबे हैं। माथे को उँगलियों पर टिकाकर यह बैठी है। बैठी-बैठी सूनी-सी देख रही है। सुन रही है कि उसके पति कालिंदीचरण अपने मित्रों के साथ क्यों और क्या बातें कर रहे हैं। उसे जोश का कारण नहीं समझ में आता। उत्साह उसके लिए अपरिचित है। वह उसके लिए कुछ दूर की वस्तु है, स्पृहणीय और मनोरम और हरियाली। यह भारतमाता की स्वतंत्रता को समझना चाहती है; पर उसको न भारतमाता समझ में आती है, न स्वतंत्रता समझ में आती है। उसे इन लोगों की इस ज़ोरों की बातचीत का मतलब ही समझ में नहीं आता! फिर भी, उत्साह की उसमें बड़ी भूख है। जीवन की हौस उसमें बुझती-सी जा रही है; पर वह जीना चाहती है। उसने बहुत चाहा है कि पति उससे भी कुछ देश की बात करें। उसमें बुद्धि तो ज़रा कम है, फिर धीरे-धीरे क्या वह भी समझने नहीं लगेगी? सोचती है, कम पढ़ी हूँ, तो इसमें मेरा ऐसा क़सूर क्या है? अब तो पढ़ने को मैं तैयार हूँ, लेकिन पत्नी के साथ पति का धीरज खो जाता है। ख़ैर, उसने सोचा है, उसका काम तो सेवा है। बस, यह मानकर जैसे कुछ समझने की चाह ही छोड़ दी है। वह अनायास भाव से पति के साथ रहती है और कभी उनकी राह के बीच में आने को नहीं सोचती! वह एक बात जान चुकी है कि उसके पति ने अगर आराम छोड़ दिया है, घर का मकान छोड़ दिया है, जान-बूझकर उखड़े-उखड़े और मारे मारे जो फिरते है, इसमें वे कुछ भला ही सोचते होंगे। इसी बात को पकड़कर वह आपत्ति-शून्य भाव से पति के साथ विपदा-पर-विपदा उठाती रही है। पति ने कहा भी है कि तुम मेरे साथ क्यों दुःख उठाती हो; पर सुनकर वह चुप रह गई है, सोचती रह गई है कि देखो, यह कैसी बात करते हैं। वह जानती है कि जिसे 'सरकार' कहते हैं, वह सरकार उनके इस तरह के कामों से बहुत नाराज़ है। सरकार सरकार है। उसके मन में कोई स्पष्ट भावना नहीं है कि 'सरकार' क्या होती है। पर यह जितने हाकिम लोग हैं, वे बड़े ज़बरदस्त होते है और उनके पास बड़ी-बड़ी ताक़तें हैं। इतनी फ़ौज, पुलिस के सिपाही और मजिस्ट्रेट और मुंशी और चपरासी और थानेदार और वायसराय ये सब सरकार की ही हैं। इन सबसे कैसे लड़ा जा सकता है? हाकिम से लड़ना ठीक बात नहीं है; पर यह उसी लड़ने में तन-मन बिसार बैठे हैं। ख़ैर, लेकिन ये सब-के-सब इतने ज़ोर से क्यों बोलते हैं? उसको यही बहुत बुरा लगता है। सीधे-सादे कपड़ों में एक ख़ुफ़िया पुलिस का आदमी हरदम उनके घर के बाहर रहता है। ये लोग इस बात को क्यों भूल जाते हैं? इतने ज़ोर से क्यों बोलते हैं?
बैठे-बैठे यह इसी तरह की बातें सोच रही है। देखो, अब दो बजेंगे। उन्हें न खाने की फ़िक्र, न मेरी फ़िक्र। मेरी तो ख़ैर कुछ नहीं; पर अपने तन का ध्यान तो रखना चाहिए। ऐसी ही बेपरवाही से तो वह बच्चा चला गया। उसका मन कितना भी इधर-उधर डोले; पर अकेली जब होती है, तब भटक-भटककर वह मन अंत में उसी बच्चे के अभाव पर आ पहुँचता है। तब उसे बच्चे की वही-वही बातें याद आती हैं—बे बड़ी प्यारी आँखें, छोटी-छोटी अँगुलियाँ और नन्हें-नन्हें ओठ याद आते हैं। अठखेलियाँ याद आती हैं। सबसे ज़ियादा उसका मरना याद आता है! ओह! यह मरना क्या है! इस मरने की तरफ़ उससे देखा नहीं जाता। यद्यपि वह जानती है कि मरना सबको है—उसको मरना है, उसके पति को मरना है; पर उस तरफ़ भूल से छन-भर देखती है, तो भय से भर जाती है। यह उससे सहा नहीं जाता। बच्चे की याद उसे मथ उठती है। तब वह विह्वल होकर आँख पोंछती है और हठात् इधर-उधर की किसी काम की बात में अपने को उलझा लेना चाहती है। पर अकेले में, वह कुछ करे, रह-रह कर वही वह याद—वही वह मरने की बात उसके सामने हो रहती है और उसका चित्त बेबस हो जाता है।
वह उठी। अब उठकर बरतनों को माँज डालेगी, चौका भी साफ़ करना है। ओह! ख़ाली बैठी मैं क्या सोचती रहा करती हूँ।
इतने में कालिंदीचरण चौके में घुसे।
सुनंदा कठोरतापूर्वक शून्य को ही देखती रही। उसने पति की ओर नहीं देखा।
कालिंदी ने कहा- सुनंदा, खाने वाले हम चार हैं! खाना हो गया?
सुनंदा चून की थाली और चकला-बेलन और बटलोई वग़ैरा ख़ाली बरतन उठाकर चल दी, कुछ भी बोली नहीं।
कालिंदी ने कहा- सुनती हो, तीन आदमी मेरे साथ और हैं। खाना बन सके तो कहो; नहीं तो इतने में ही काम चला लेंगे।
सुनंदा कुछ भी नहीं बोली। उसके मन में बेहद ग़ुस्सा उठने लगा। यह उससे क्षमा-प्रार्थी-से क्यों बात कर रहे हैं, हँसकर क्यों नहीं कह देते कि कुछ और खाना बना दो। जैसे मैं ग़ैर हूँ। अच्छी बात है, तो मैं भी ग़ुलाम नहीं हूँ कि इनके ही काम में लगी रहूँ। मैं कुछ नहीं जानती खाना-वाना। और वह चुप रही।
कालिंदीचरण ने ज़रा ज़ोर से कहा- सुनंदा!
सुनंदा के जी में ऐसा हुआ कि हाथ की बटलोई को ख़ूब ज़ोर से फेंक दे। किसी का ग़ुस्सा सहने के लिए वह नहीं है। उसे तनिक भी सुध न रही कि अभी बैठे-बैठे इन्हीं अपने पति के बारे में कैसी प्रीति की और भलाई की बातें सोच रही थी। इस वक़्त भीतर-ही-भीतर ग़ुस्से से घुटकर रह गई।
क्यों! बोल भी नहीं सकतीं?
सुनंदा नहीं ही बोली।
तो अच्छी बात है। खाना कोई भी नहीं खाएगा।
यह कहकर कालिंदी तैश में पैर पटकते हुए लौटकर चले गए।
कालिंदीचरण अपने दल में उग्र नहीं समझे जाते, किसी क़दर उदार समझे जाते हैं। सदस्य अधिकतर अविवाहित हैं, कालिंदीचरण विवाहित ही नहीं हैं, वह एक बच्चा खो चुके हैं। उनकी बात का दल में आदर है। कुछ लोग उनके धीमेपन पर रुष्ट भी हैं। वह दल में विवेक के प्रतिनिधि हैं और उत्ताप पर अंकुश का काम करते हैं।
बहस इतनी बात पर थी कि कालिंदी का मत था कि हमें आतंक को छोड़ने की ओर बढ़ना चाहिए। आतंक से विवेक कुंठित होता है और या तो मनुष्य उससे उत्तेजित ही रहता है, या उसके भय से दबा रहता है। दोनों ही स्थितियाँ श्रेष्ठ नहीं हैं। हमारा लक्ष्य बुद्धि को चारों ओर से जगाना है, उसे आतंकित करना नहीं। सरकार व्यक्ति के और राष्ट्र के विकास के ऊपर बैठकर उसे दबाना चाहती है। हम इसी विकास के अवरोध को हटाना चाहते हैं—इसी को मुक्त करना चाहते हैं। आतंक से वह काम नहीं होगा। जो शक्ति के मद में उन्मत्त है, असली काम तो उसका मद उतारने और उसमें कर्तव्य-भावना का प्रकाश जगाने का है। हम स्वीकार करें कि मद उसकी टक्कर खाकर, चोट पाकर ही उतरेगा। यह चोट देने के लिए हमें अवश्य तैयार रहना चाहिए; पर यह नोचा-नोची उपयुक्त नहीं। इससे सत्ता का कुछ बिगड़ता तो नहीं, उल्टे उसे अपने औचित्य पर संतोष हो आता है।
पर जब (सुनंदा के पास से) लौटकर आया, तब देखा गया कि कालिंदी अपने पक्ष पर दृढ नहीं है। वह सहमत हो सकता है कि हाँ, आतंक ज़रूरी भी है। हाँ, उसने कहा- यह ठीक है कि हम लोग कुछ काम शुरू कर दें। इसके साथ ही कहा- आप लोगों को भूख नहीं लगी है क्या? उनकी तबिअत ख़राब है, इससे यहाँ तो खाना बना नहीं। बताओ क्या किया जाए? कहीं होटल चलें?
एक ने कहा कि कुछ बाज़ार से यहीं मँगा लेना चाहिए। दूसरे की राय हुई कि होटल ही चलना चाहिए। इसी तरह की बातों में लगे थे कि सुनंदा ने एक बड़ी थाली में खाना परोसकर उनके बीच ला रखा। रखकर वह चुपचाप चली गई। फिर आकर पास ही चार गिलास पानी के रख दिए और फिर उसी भाँति चुपचाप चली गई।
कालिंदी को जैसे किसी ने काट लिया।
तीनों मित्र चुप हो रहे! उन्हें अनुभव हो रहा था कि पति-पत्नी के बीच स्थिति में कहीं कुछ तनाव पड़ा हुआ है। अंत में एक ने कहा- कालिंदी, तुम तो कहते थे, खाना नहीं है?
कालिंदी ने झेंपकर कहा- मेरा मतलब था, काफ़ी नहीं है।
दूसरे ने कहा- बहुत काफ़ी है। सब चल जाएगा।
देखूँ, कुछ और हो तो—कहकर कालिंदी उठ गया।
आकर सुनंदा से बोला- यह तुमसे किसने कहा कि खाना वहाँ ले आओ? मैंने क्या कहा था?
सुनंदा कुछ न बोली।
चलो, उठाकर लाओ थाली। हमें किसी को यहाँ नहीं खाना है। हम होटल जाएँगे।
सुनंदा नहीं बोली। कालिंदी भी कुछ देर गुम खड़ा था। तरह-तरह की बात उसके मन में और कंठ में आती थीं। उसे अपना अपमान मालूम हो रहा था, और अपमान उसे असह्य था।
उसने कहा- सुनती नहीं हो कि कोई क्या कह रहा है! क्यों?
सुनंदा ने और मुँह फेर लिया।
क्या मैं बकते रहने के लिए हूँ?
सुनंदा भीतर-ही-भीतर घुट गई।
मैं पूछता हूँ कि जब मैं कह गया था, तब खाना ले जाने की क्या ज़रूरत थी?
सुनंदा ने मुड़कर और अपने को दबाकर धीमे से कहा- खाओगे नहीं? एक तो बज गया।
कालिंदी निरस्त्र होने लगा। यह उसे बुरा मालूम हुआ। उसने मानो धमकी के साथ पूछा- खाना और है?
सुनंदा ने धीमे से कहा- अचार लेते जाओ।
“खाना और नहीं है? अच्छा, लाओ अचार।”
सुनंदा ने अचार ला दिया और लेकर कालिंदी भी चला गया।
सुनंदा ने अपने लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखा था। उसे यह सूझा ही न था कि उसे भी खाना है। अब कालिंदी के लौटने पर उसे जैसे मालूम हुआ कि उसने अपने लिए कुछ भी नहीं बचाकर रखा है। वह अपने से रुष्ट हुई। उसका मन कठोर हुआ; इसलिए नहीं कि क्यों उसने खाना नहीं बचाया। इस पर तो उसमें स्वाभिमान का भाव जागता था। मन कठोर यूँ हुआ कि वह इस तरह की बातें सोचती ही क्यों है? छि:! यह भी सोचने की बात है! और उसमें कड़वाहट भी फैली। हठात् यह उसके मन को लगता ही है कि देखो, उन्होंने एक बार भी नहीं पूछा कि तुम क्या खाओगी! क्या मैं यह सह सकती थी कि मैं तो खाऊँ और उनके मित्र भूखे रहें। पर पूछ लेते तो क्या था। इस बात पर उसका मन टूटता-सा है। मानो उसका जो तनिक-सा मान था, वह भी कुचल गया हो। पर वह रह-रहकर अपने को स्वयं अपमानित कर लेती हुई कहती है कि छिः! छि:! सुनंदा, तुझे ऐसी ज़रा-सी बात का अब तक ख़याल होता है! तुझे तो ख़ुश होना चाहिए कि उनके लिए एक रोज़ भूखे रहने का तुझे पुण्य मिला। मैं क्यों उन्हें नाराज़ करती हूँ? अब से नाराज़ न करूँगी; पर वह अपने तन की भी सुध तो नहीं रखते! यह ठीक नहीं है। मैं क्या करूँ?
और वह अपने बरतन माँजने में लग गई। उसे सुन पड़ा कि वे लोग फिर ज़ोर-शोर से बहस करने में लग गए हैं। बीच-बीच में हँसी के क़हक़हे भी उसे सुनाई दिए। 'ओ!' सहसा उसे ख़याल हुआ, 'बरतन तो पीछे भी मल सकती हूँ; लेकिन उन्हें कुछ ज़रूरत हुई तो?' यह सोच, झटपट धो वह कमरे के दरवाज़े के बाहर दीवार से लगकर खड़ी हो गई।
एक मित्र ने कहा- अचार और है? अचार और मँगाओ यार!
कालिंदी ने अभ्यासवश ज़ोर से पुकारा- अचार लाना भाई, अचार। मानो सुनंदा कहीं बहुत दूर हो; पर वह तो बाहर लगी खड़ी ही थी। उसने चुपचाप अचार लाकर रख दिया।
जाने लगी, तो कालिंदी ने तनिक स्निग्ध वाणी से कहा- थोड़ा पानी भी लाना।
और सुनंदा ने पानी ला दिया। देकर लौटी और फिर बाहर द्वार से लगकर ओट में खड़ी हो गई। जिससे कालिंदी कुछ माँगें, तो जल्दी से ला दे।
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kya main bakte rahne ke liye hoon?
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“khana aur nahin hai? achchha, lao achar ”
sunanda ne achar la diya aur lekar kalindi bhi chala gaya
sunanda ne apne liye kuch bhi bachakar nahin rakha tha use ye sujha hi na tha ki use bhi khana hai ab kalindi ke lautne par use jaise malum hua ki usne apne liye kuch bhi nahin bachakar rakha hai wo apne se rusht hui uska man kathor hua; isliye nahin ki kyon usne khana nahin bachaya is par to usmen swabhiman ka bhaw jagata tha man kathor yoon hua ki wo is tarah ki baten sochti hi kyon hai? chhih! ye bhi sochne ki baat hai! aur usmen kaDwahat bhi phaili hathat ye uske man ko lagta hi hai ki dekho, unhonne ek bar bhi nahin puchha ki tum kya khaogi! kya main ye sah sakti thi ki main to khaun aur unke mitr bhukhe rahen par poochh lete to kya tha is baat par uska man tutta sa hai mano uska jo tanik sa man tha, wo bhi kuchal gaya ho par wo rah rahkar apne ko swayan apmanit kar leti hui kahti hai ki chhiः! chhih! sunanda, tujhe aisi zara si baat ka ab tak khayal hota hai! tujhe to khush hona chahiye ki unke liye ek roz bhukhe rahne ka tujhe punny mila main kyon unhen naraz karti hoon? ab se naraz na karungi; par wo apne tan ki bhi sudh to nahin rakhte! ye theek nahin hai main kya karun?
aur wo apne bartan manjne mein lag gai use sun paDa ki we log phir zor shor se bahs karne mein lag gaye hain beech beech mein hansi ke qahqahe bhi use sunai diye o! sahsa use khayal hua, bartan to pichhe bhi mal sakti hoon; lekin unhen kuch zarurat hui to? ye soch, jhatpat dho wo kamre ke darwaze ke bahar diwar se lagkar khaDi ho gai
ek mitr ne kaha achar aur hai? achar aur mangao yar!
kalindi ne abhyasawash zor se pukara achar lana bhai, achar mano sunanda kahin bahut door ho; par wo to bahar lagi khaDi hi thi usne chupchap achar lakar rakh diya
jane lagi, to kalindi ne tanik snigdh wani se kaha thoDa pani bhi lana
aur sunanda ne pani la diya dekar lauti aur phir bahar dwar se lagkar ot mein khaDi ho gai jisse kalindi kuch mangen, to jaldi se la de
shahr ke ek or ek tiraskrit makan dusra talla wahan chauke mein ek istri angihti samne liye baithi hai angihti ki aag rakh hui ja rahi hai wo jane kya soch rahi hai uski awastha bees bais ke lagbhag hogi deh se kuch dubli hai aur sambhrant kul ki malum hoti hai
ekayek angihti mein rakh hoti hui aag ki or istri ka dhyan gaya ghutnon par hath dekar wo uthi uthkar kuch koyle lari koyle angihti mein Dalkar phir kinare aise baith gai, mano yaad karna chahti hai ki ab kya karun? ghar mein aur koi nahin hai aur samay barah se upar ho gaya hai
do parani is ghar mein rahte hain, pati aur patni pati sabere se gaye hain ki laute nahin aur patni chauke mein baithi hai
wo (sunanda) sochti hai—nahin, sochti kahan hai, alasbhaw se wo to wahan baithi hi hai sochne ko hai to yahi ki koyle na bujh jayen wo jane kab ayenge ek baj gaya hai kuch ho, adami ko apni deh ki fir to karni chahiye aur sunanda baithi hai wo kuch kar nahin rahi hai jab wo ayenge tab roti bana degi wo jane kahan kahan der laga dete hain aur kab tak baithun mujhse nahin baitha jata koyle bhi lahak aaye hain aur usne jhallakar tawa angihti par rakh diya nahin, ab wo roti bana hi degi usne zor se khijhkar aate ki thali samne kheench li aur roti belne lagi
thoDi der baad usne zine par pairon ki aahat suni uske mukh par kuch tallinta aari kshan bhar wo aabha uske chehre par rahkar chali gai aur wo phir usi bhanti kaam mein lag gai
kalindichran (pati) aaye unke pichhe pichhe teen aur unke mitr bhi aaye ye aapas mein baten karte chale aa rahe the aur khoob garm the kalindichran mitron ke sath sidhe apne kamre mein chale gaye unmen bahs chhiDi thi kamre mein pahunchakar ruki hui bahs phir chhiD gai ye charon wekti deshoddhar ke sambandh mein bahut katibaddh hain charcha usi silsile mein chal rahi hai bharatmata ko swtantr karna hoga—aur niti aniti hinsa ahinsa ko dekhne ka ye samay nahin hai mithi baton ka parinam bahut dekha mithi baton se bagh ke munh se apna sir nahin nikala ja sakta us waqt bagh ka marana hi ek ilaj hai atank! han, atank hamein kya atankwad se Darna hoga? log hain jo kahte hain, atankwadi moorkh hai, we bachche hain han we hain bachche aur moorkh unhen buzurgi aur buddhimani nahin chahiye hamein nahin abhilasha apne jine ki hamein nahin moh baal bachchon ka hame nahin gharz dhan daulat ki tab hum marne ke liye azad kyon nahin hai? zulm ko mitane ke liye kuch zulm hoga hi usse we Dare jo Darte hain Dar hum jawanon ke liye nahin hai
phir we charon adami nishchay karne mein lage ki unhen khu kya karna chahiye
itne mein kalindichran ko dhyan aaya ki na usne khana khaya hai, na mitron ke khane ke liye puchha hai usne apne mitron se mafi mangakar chhutti li aur sunanda ki or chala
sunanda jahan thi, wahan hai wo roti bana chuki hai angihti ke koyle ulte tawe se dabe hain mathe ko ungliyon par tikakar ye baithi hai baithi baithi suni si dekh rahi hai sun rahi hai ki uske pati kalindichran apne mitron ke sath kyon aur kya baten kar rahe hain use josh ka karan nahin samajh mein aata utsah uske liye aprichit hai wo uske liye kuch door ki wastu hai, sprihanaiy aur manoram aur hariyali ye bharatmata ki swtantrta ko samajhna chahti hai; par usko na bharatmata samajh mein aati hai, na swtantrta samajh mein aati hai use in logon ki is zoron ki batachit ka matlab hi samajh mein nahin ata! phir bhi, utsah ki usmen baDi bhookh hai jiwan ki haus usmen bujhti si ja rahi hai; par wo jina chahti hai usne bahut chaha hai ki pati usse bhi kuch desh ki baat karen usmen buddhi to zara kam hai, phir dhire dhire kya wo bhi samajhne nahin lagegi? sochti hai, kam paDhi hoon, to ismen mera aisa qasu kya hai? ab to paDhne ko main taiyar hoon, lekin patni ke sath pati ka dhiraj kho jata hai khair, usne socha hai, uska kaam to sewa hai bus, ye mankar jaise kuch samajhne ki chah hi chhoD di hai wo anayas bhaw se pati ke sath rahti hai aur kabhi unki rah ke beech mein aane ko nahin sochti! wo ek baat jaan chuki hai ki uske pati ne agar aram chhoD diya hai, ghar ka makan chhoD diya hai, jaan bujhkar ukhDe ukhDe aur mare mare jo phirte hai, ismen we kuch bhala hi sochte honge isi baat ko pakaDkar wo apatti shunya bhaw se pati ke sath wipda par wipda uthati rahi hai pati ne kaha bhi hai ki tum mere sath kyon duःkh uthati ho; par sunkar wo chup rah gai hai, sochti rah gai hai ki dekho, ye kaisi baat karte hain wo janti hai ki jise sarkar kahte hain, wo sarkar unke is tarah ke kamon se bahut naraz hai sarkar sarkar hai uske man mein koi aspasht bhawna nahin hai ki sarkar kya hoti hai par ye jitne hakim log hain, we baDe zabardast hote hai aur unke pas baDi baDi taqten hain itni fauj, police ke sipahi aur magistrate aur munshi aur chaprasi aur thanedar aur wayasray ye sab sarkar ki hi hain in sabse kaise laDa ja sakta hai? hakim se laDna theek baat nahin hai; par ye usi laDne mein tan man bisar baithe hain khair, lekin ye sab ke sab itne zor se kyon bolte hain? usko yahi bahut bura lagta hai sidhe sade kapDon mein ek khufiya police ka adami hardam unke ghar ke bahar rahta hai ye log is baat ko kyon bhool jate hain? itne zor se kyon bolte hain?
baithe baithe ye isi tarah ki baten soch rahi hai dekho, ab do bajenge unhen na khane ki fir, na meri fir meri to khair kuch nahin; par apne tan ka dhyan to rakhna chahiye aisi hi beparwahi se to wo bachcha chala gaya uska man kitna bhi idhar udhar Dole; par akeli jab hoti hai, tab bhatak bhatakkar wo man ant mein usi bachche ke abhaw par aa pahunchta hai tab use bachche ki wahi wahi baten yaad aati hain—be baDi pyari ankhen, chhoti chhoti anguliyan aur nanhen nanhen oth yaad aate hain athkheliyan yaad aati hain sabse ziyada uska marna yaad aata hai! oh! ye marna kya hai! is marne ki taraf usse dekha nahin jata yadyapi wo janti hai ki marna sabko hai—usko marna hai, uske pati ko marna hai; par us taraf bhool se chhan bhar dekhti hai, to bhay se bhar jati hai ye usse saha nahin jata bachche ki yaad use math uthti hai tab wo wihwal hokar ankh ponchhti hai aur hathat idhar udhar ki kisi kaam ki baat mein apne ko uljha lena chahti hai par akele mein, wo kuch kare, rah rah kar wahi wo yad—wahi wo marne ki baat uske samne ho rahti hai aur uska chitt bebas ho jata hai
wo uthi ab uthkar baratnon ko manj Dalegi, chauka bhi saf karna hai oh! khali baithi main kya sochti raha karti hoon
itne mein kalindichran chauke mein ghuse
sunanda kathortapurwak shunya ko hi dekhti rahi usne pati ki or nahin dekha
kalindi ne kaha sunanda, khane wale hum chaar hain! khana ho gaya?
sunanda choon ki thali aur chakla belan aur batloi waghaira khali bartan uthakar chal di, kuch bhi boli nahin
kalindi ne kaha sunti ho, teen adami mere sath aur hain khana ban sake to kaho; nahin to itne mein hi kaam chala lenge
sunanda kuch bhi nahin boli uske man mein behad ghussa uthne laga ye usse kshama prarthi se kyon baat kar rahe hain, hansakar kyon nahin kah dete ki kuch aur khana bana do jaise main ghair hoon achchhi baat hai, to main bhi ghulam nahin hoon ki inke hi kaam mein lagi rahun main kuch nahin janti khana wana aur wo chup rahi
kalindichran ne zara zor se kaha sunanda!
sunanda ke ji mein aisa hua ki hath ki batloi ko khoob zor se phenk de kisi ka ghussa sahne ke liye wo nahin hai use tanik bhi sudh na rahi ki abhi baithe baithe inhin apne pati ke bare mein kaisi priti ki aur bhalai ki baten soch rahi thi is waqt bhitar hi bhitar ghusse se ghutkar rah gai
kalindichran apne dal mein ugr nahin samjhe jate, kisi qadar udar samjhe jate hain sadasy adhiktar awiwahit hain, kalindichran wiwahit hi nahin hain, wo ek bachcha kho chuke hain unki baat ka dal mein aadar hai kuch log unke dhimepan par rusht bhi hain wo dal mein wiwek ke pratinidhi hain aur uttap par ankush ka kaam karte hain
bahs itni baat par thi ki kalindi ka mat tha ki hamein atank ko chhoDne ki or baDhna chahiye atank se wiwek kunthit hota hai aur ya to manushya usse uttejit hi rahta hai, ya uske bhay se daba rahta hai donon hi sthitiyan shreshth nahin hain hamara lakshya buddhi ko charon or se jagana hai, use atankit karna nahin sarkar wekti ke aur rashtra ke wikas ke upar baithkar use dabana chahti hai hum isi wikas ke awrodh ko hatana chahte hain—isi ko mukt karna chahte hain atank se wo kaam nahin hoga jo shakti ke mad mein unmatt hai, asli kaam to uska mad utarne aur usmen kartawya bhawna ka parkash jagane ka hai hum swikar karen ki mad uski takkar khakar, chot pakar hi utrega ye chot dene ke liye hamein awashy taiyar rahna chahiye; par ye nocha nochi upyukt nahin isse satta ka kuch bigaDta to nahin, ulte use apne auchity par santosh ho aata hai
par jab (sunanda ke pas se) lautkar aaya, tab dekha gaya ki kalindi apne paksh par driDh nahin hai wo sahmat ho sakta hai ki han, atank zaruri bhi hai han, usne kaha yah theek hai ki hum log kuch kaam shuru kar den iske sath hi kaha aap logon ko bhookh nahin lagi hai kya? unki tabiat kharab hai, isse yahan to khana bana nahin batao kya kiya jaye? kahin hotel chalen?
ek ne kaha ki kuch bazar se yahin manga lena chahiye dusre ki ray hui ki hotel hi chalna chahiye isi tarah ki baton mein lage the ki sunanda ne ek baDi thali mein khana paroskar unke beech la rakha rakhkar wo chupchap chali gai phir aakar pas hi chaar gilas pani ke rakh diye aur phir usi bhanti chupchap chali gai
kalindi ko jaise kisi ne kat liya
tinon mitr chup ho rahe! unhen anubhaw ho raha tha ki pati patni ke beech sthiti mein kahin kuch tanaw paDa hua hai ant mein ek ne kaha kalindi, tum to kahte the, khana nahin hai?
kalindi ne jhempkar kaha mera matlab tha, kafi nahin hai
dusre ne kaha bahut kafi hai sab chal jayega
dekhun, kuch aur ho to—kahkar kalindi uth gaya
akar sunanda se bola yah tumse kisne kaha ki khana wahan le aao? mainne kya kaha tha?
sunanda kuch na boli
chalo, uthakar lao thali hamein kisi ko yahan nahin khana hai hum hotel jayenge
sunanda nahin boli kalindi bhi kuch der gum khaDa tha tarah tarah ki baat uske man mein aur kanth mein aati theen use apna apman malum ho raha tha, aur apman use asahy tha
usne kaha sunti nahin ho ki koi kya kah raha hai! kyon?
sunanda ne aur munh pher liya
kya main bakte rahne ke liye hoon?
sunanda bhitar hi bhitar ghut gai
main puchhta hoon ki jab main kah gaya tha, tab khana le jane ki kya zarurat thee?
sunanda ne muDkar aur apne ko dabakar dhime se kaha khaoge nahin? ek to baj gaya
kalindi nirastr hone laga ye use bura malum hua usne mano dhamki ke sath puchha khana aur hai?
sunanda ne dhime se kaha achar lete jao
“khana aur nahin hai? achchha, lao achar ”
sunanda ne achar la diya aur lekar kalindi bhi chala gaya
sunanda ne apne liye kuch bhi bachakar nahin rakha tha use ye sujha hi na tha ki use bhi khana hai ab kalindi ke lautne par use jaise malum hua ki usne apne liye kuch bhi nahin bachakar rakha hai wo apne se rusht hui uska man kathor hua; isliye nahin ki kyon usne khana nahin bachaya is par to usmen swabhiman ka bhaw jagata tha man kathor yoon hua ki wo is tarah ki baten sochti hi kyon hai? chhih! ye bhi sochne ki baat hai! aur usmen kaDwahat bhi phaili hathat ye uske man ko lagta hi hai ki dekho, unhonne ek bar bhi nahin puchha ki tum kya khaogi! kya main ye sah sakti thi ki main to khaun aur unke mitr bhukhe rahen par poochh lete to kya tha is baat par uska man tutta sa hai mano uska jo tanik sa man tha, wo bhi kuchal gaya ho par wo rah rahkar apne ko swayan apmanit kar leti hui kahti hai ki chhiः! chhih! sunanda, tujhe aisi zara si baat ka ab tak khayal hota hai! tujhe to khush hona chahiye ki unke liye ek roz bhukhe rahne ka tujhe punny mila main kyon unhen naraz karti hoon? ab se naraz na karungi; par wo apne tan ki bhi sudh to nahin rakhte! ye theek nahin hai main kya karun?
aur wo apne bartan manjne mein lag gai use sun paDa ki we log phir zor shor se bahs karne mein lag gaye hain beech beech mein hansi ke qahqahe bhi use sunai diye o! sahsa use khayal hua, bartan to pichhe bhi mal sakti hoon; lekin unhen kuch zarurat hui to? ye soch, jhatpat dho wo kamre ke darwaze ke bahar diwar se lagkar khaDi ho gai
ek mitr ne kaha achar aur hai? achar aur mangao yar!
kalindi ne abhyasawash zor se pukara achar lana bhai, achar mano sunanda kahin bahut door ho; par wo to bahar lagi khaDi hi thi usne chupchap achar lakar rakh diya
jane lagi, to kalindi ne tanik snigdh wani se kaha thoDa pani bhi lana
aur sunanda ne pani la diya dekar lauti aur phir bahar dwar se lagkar ot mein khaDi ho gai jisse kalindi kuch mangen, to jaldi se la de
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।