सुबह ही-सुबह इधर अख़बार वाले ने अख़बार फेंक़ा उधर ख़्वाजा साहब ने दरवाज़ा खटखटाया।
“करामत मियाँ, अख़बार आ गया...।”
“जी, आ गया है। आइए, तशरीफ़ रखिए।”
यह मेरे नाश्ता करने और दफ़्तर जाने का वक़्त होता है।
हमारा ड्राइंग और डाइनिंग कम्बाइंड है। इधर मैं बेगम के साथ मिलकर नाश्ता कर रहा हूँ, उधर ड्राइंग-रूम में ख़्वाजा साहब अख़बार पढ़ने में व्यस्त हैं।
“ख़्वाजा साहब, आइये, नाश्ता कीजिए।”
“बेटे बिस्मिल्लाह करो।”
“नाश्ता नहीं करते तो चाय ही पी लीजिए। ”
“नहीं, बेटे मैं तो बस अख़बार पर एक नज़र डालने के लिए आया हूँ।”
“वह ठीक है, मगर साथ में चाय भी हो जाए तो क्या हर्ज़ है? कोई अजनबियत तो नहीं है।
“बेटे, मैं—इस घर में ख़ुदा अपनी रहमतें निछावर करे—सैयद साहब के वक़्त से आ रहा हूँ। अब तुम उनकी निशानी हो भला तुमसे अजनबियत बरतूंगा।”
बजा कहा! असल में तो वालिद साहब से उनकी दोस्ती थी। जाड़े-गर्मी, बरसात, रोज़ सुबह को दरवाज़ा खटखटाना, उनके पास बैठकर अख़बार पढ़ना, बातें करना और चले जाना।
मगर उनके इंतकाल के बाद भी वह शिष्टाचार बना रहा। उसी तरह सुबह को आकर अख़बार पढ़ना और चले जाना। बाक़ी किसी बात से मतलब नहीं। कभी इक्का-दुक्का बात भी की तो अख़बार ही के हवाले से...।
“करामत मियाँ अख़बारों को क्या हो गया है?”
“क्या हुआ ख़्वाजा साहब?”
“आज तो कोई ख़बर ही नहीं है।”
“ख़्वाजा साहब, ख़बर कोई आएगी तब अख़बार में छपेगी, आज कोई बड़ी ख़बर उनके पास नहीं होगी।”
“कैसी बातें करते हो करामत मियाँ, इतनी बड़ी दुनिया! उतनी बहुत-सी चीज़ें और दुनिया में क्या कुछ नहीं हो रहा, जो कभी न हुआ था वह अब हो रहा है और हमारे अख़बारों के पास देने के लिए ख़बर नहीं...”
ये कहते-कहते उठ खड़े हुए।
“जा रहे हैं आप...?”
“हाँ भई, चलकर घर को देखते हैं। आज तो मैं मस्ज़िद से निकलकर सीधा इसी तरफ़ आ गया। सोचा कि घर बाद में पहले करामत मियाँ के यहाँ चलकर अख़बार पर एक नज़र डाल लें, मगर अख़बार में कोई ख़बर ही नहीं थी...”
उनके जाने के बाद बेगम ने कितना लंबा इत्मिनान का साँस लिया, “शुक्र है ख़ुदा का, आज तो ऐसे जमकर बैठे थे कि टलने का नाम ही नहीं ले रहे थे और अख़बार में बक़ौल उनके आज कोई ख़बर ही नहीं थी। ख़बर न होने पर तो इतना जमकर बैठे, ख़बर होती तो बस यहीं डेरा डाल लेते।”
‘बेगम क्यों ख़ून जला रही हो अपना, नाश्ता करो...”
“ख़ून तो जलना ही है, यह तुम्हारे ख़्वाजा साहब मुझे ज़हर लगते हैं। रोज़ सुबह आ धमकते हैं। मैं कहती हूँ कि अख़बार पढ़ने का ऐसा ही शौक़ है तो अख़बार ख़रीदें, हमारे सीने पर क्यों मूँग दलते हैं।”
“असल में ख़्वाजा साहब अब्बा जान के वक़्त की पाबंदी को निभा रहे हैं...।”
“ये अच्छी पाबंदी है, इस बहाने वह अख़बार का ख़र्च बचा लेते हैं।”
मगर आख़िर साल में गिने-चुने ऐसे दिन भी तो आते हैं जब अख़बार छुट्टी करते हैं। वह 26 दिसंबर की सुबह थी। नाश्ता करते-करते मुझे ख़्वाजा साहब याद आ गए।
“आज ख़्वाजा साहब नहीं आए।”
“आज अख़बार जो नहीं आया है।”
“हाँ, आज तो अख़बार की छुट्टी है।”
“अच्छा ही है, मैं तो कहती हूँ रोज़ ही अख़बार की छुट्टी हुआ करे।”
“बेगम तुम्हारा बस चले तो तुम पूरे प्रेस की छुट्टी करा दो। ख़्वाजा साहब की ज़िद में सहाफ़त (पत्रकारिता) की तो दुश्मन मत बन जाओ...
“सहाफ़त?” बेगम ने हिकारत भरे लहजे में कहा, “ये कमबख़्त नया नशा निकला है। अब यह तुम्हारे ख़्वाजा साहब हैं, इन्हें अफ़ीम की लत न पड़ी अख़बार की लत पड़ गई, बात तो एक ही है...”
“नशा क्या, बस एक आदत होती है। सुबह और अख़बार लाज़िम व मलज़ूम बनकर रह गए हैं। जिस सुबह अख़बार न आए वह सुबह ख़ाली-ख़ाली-सी लगती है। शरीफ़ आदमी की समझ में नहीं आता कि क्या किया जाएँ?”
“आख़िर पिछले ज़माने में भी तो सुबह हुआ करती थी।”
“पिछले ज़माने का अपना तरीक़ा था। सुबह को लोग बाग़ों में जाकर सैर करते थे। अखाड़ों में ज़ोर करते थे। उसके बाद डटकर नाश्ता—हलवा-पूड़ी, निहारी, सीरी पाये, लस्सी का गिलास वह सब अब कहाँ? अब तो दो पन्ने का अख़बार और चाय के साथ दो तोंस। अब सुबहों में यही कुछ रह गया है।” मैं अभी यह कह रहा था कि दरवाज़े की घंटी बजी, “अलादीन, देख कौन है दरवाज़े पर?”
अलादीन किचन से तेज़ी से निकलकर दरवाज़े पर गया, तेज़ी से वापस आया, “ख़्वाजा साहब हैं जी।”
“फिर आ गए।” बेगम का मूड फिर ख़राब हो गया, “यह हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगे।”
“बुला लो अंदर।”
“क्यों बुला लो? आज कौन-सा अख़बार उनकी जान के लिए रो रहा है।”
“बेगम, मुरव्वत भी कोई चीज़ होती है। अब अगर ख़्वाजा साहब आ जाते हैं तो उनसे कहा जाए कि आप चले जाइए।”
“तुम्हारी जगह मैं होती तो साफ-साफ कह देती ज़रा भी लगी-लिपटी न रखती।”
इतने में ख़्वाजा साहब अंदर दाख़िल हुए। बेगम को अपना बयान बीच में ही रोकना पड़ा।
“आइए, ख़्वाजा साहब तशरीफ़ रखिए, मगर अख़बार तो आज आया नहीं है।“
“हाँ भई, कल छुट्टी थी, आज तो अख़बार आया ही नहीं था। मगर मुझे ख़्याल आया कि भई चल के कल ही का अख़बार देख लें।”
“कल आपने अख़बार नहीं देखा था।”
“देखा था बेटा, मगर क्या पूछते हो हमारी याद्दाश्त जवाब दे गई है। घंटे भर पहले की कही बात याद नहीं रहती। एक दिन पहले पढ़ा अख़बार कहाँ याद रहता है?”
“अलादीन, कल का अख़बार लाओ।”
मेरी आवाज़ पर अलादीन किचन से निकल आया। कल के अख़बार के नाम पर सिटपिटाया, “कल का अख़बार...?”
“हाँ, कल का अख़बार... क्यों क्या बात है?”
इस मौक़े पर बेगम अलादीन के आड़े आईं, “कल का अख़बार तो इस्तेमाल में आ गया है। मैंने ही अलादीन से कह दिया था अलमारी के ख़ानों में बिछाने के लिए और काग़ज़ कहाँ से लाऊँ आज का अख़बार पड़ा है, अब इसकी क्या ज़रूरत पड़ेगी, इसे ही बिछा लो...।”
“ख़ैर कोई बात नहीं।” ख़्वाजा साहब ने फ़ौरन मसले का हल पेश किया।
“परसों का अख़बार तो होगा, उसमें मज़मून बहुत काम का छपा है। उसे ले आओ, दोबारा वह मज़मून पढ़ लेंगे।”
अलादीन अंदर गया टटोलकर दो दिन पहले का अख़बार लाया। ख़्वाजा साहब ख़ुश हो गए।
ऐसा वक़्त का पाबंद आदमी अगर एक दिन न आए और फिर दूसरे दिन भी न आए तो फ़िक्र होती है कि आख़िर क्यों नहीं आया? मगर मुझे बाद में, बेगम को पहले कुरेद हुई।
“क्या बात है, कल से तुम्हारे ख़्वाजा साहब नहीं आ रहे...।”
“चलो, अच्छा है तुम बहुत बोर होती थीं।”
“हाँ, किसी तरह टल जायें तो अच्छा ही है। जितनी देर बैठे रहते हैं, मेरा ख़ून जलता रहता है।”
“बेचारे ख़्वाजा साहब!”
“बेचारे-वेचारे वह कोई नहीं हैं। गाँठ के बहुत पक्के हैं। दाँत से पैसे पकड़ते हैं। अख़बार पढ़ने का तो बड़ा शौक़ है, मगर अख़बार ख़रीदने में जान जाती है। एक हम बेवकूफ़ उन्हें मिल गए हैं, सुबह हुई और आन धमके...”
“मगर तुम उनके उसूल की दाद नहीं देतीं। अख़बार पढ़ने के लिए आते हैं तो सिर्फ़ अख़बार ही पढ़ते हैं और कोई बात नहीं करते।”
“ऐसे उसूल वाले हैं तो ख़ुद अख़बार क्यों नहीं ख़रीदते हैं?”
“बस हमारे घर आकर अख़बार पढ़ने की आदत जो हुई। या शायद इस तरह वह अब्बाजान की याद को अपने अंदर ताज़ा रखते हैं।”
मगर दो दिन से क्यों नहीं आए? अब मुझे कुरेद हुई। कहीं ये एहसास तो नहीं हो गया कि इस घर में उनकी आमद पसंद नहीं की जाती।
“अच्छा, तो वह हमसे बिगड़ गए हैं।”
“शायद!”
“बिगड़ते हैं तो बिगड़ जाएँ, आते थे तो हमें क्या दे जाते थे? नहीं आएँगे तो हम कौन-सी नेमत से महरूम हो जाएँगे।”
अलादीन ने मेज़ से नाश्ते के बर्तन उठाते-उठाते ख़्वाजा साहब का ज़िक्र सुना और इत्तला दी, “बेगम साहबजी, ख़्वाजा साहब तो लंबे पड़े हैं।”
बेगम घबराकर बोलीं, “क्यों, क्या हुआ, ख़ैर तो है...?”
“बेगम साहबजी, ख़्वाजा साहब का गुसलखाने में पाँव फिसल गया, बस वह लंबे लेट गए। टाँग में बहुत चोट आई है।”
मैं दफ़्तर जाने के लिए खड़ा हो गया था, मगर बेगम ने मुझे हालात की संगीनी का एहसास दिलाया।
“सुन रहे हो अलादीन, क्या कह रहा है। बुढ़ापे की चोट है। अल्लाह ख़ैर करे।”
“बहुत बुरा हुआ, मैं भी सोच रहा था कि आख़िर ख़्वाजा साहब आए क्यों नहीं? वह तो अपने वक़्त के बड़े पाबंद थे। उनकी नमाज़ क़ज़ा हो सकती थी, यहाँ आना और अख़बार पढ़ना क़ज़ा नहीं हो सकता था...।”
मगर बेगम को ज़बानी हमदर्दी से इत्मिनान नहीं हुआ। तक़ाज़ा किया कि ख़्वाजा साहब को देखने चलो।
“मगर दफ़्तर का वक़्त है उधर गया तो दफ़्तर को देर हो जाएगी...।”
“कैसी बातें कर रहे हो? आदमी से बढ़कर तो दफ़्तर नहीं है। एक दिन दफ़्तर न जाओगे तो क्या क़यामत आ जाएगी?”
बेगम की इस प्रतिक्रिया ने मेरे अंदर एक अहसास-ए-ज़ुर्म पैदा कर दिया कि मैं कितना बेहिस हूँ और बेगम जो यूँ ख़्वाजा साहब से परेशान रहती हैं, कितनी दर्दमंद ख़ातून हैं, तो दफ़्तर का ख़याल छोड़कर मैंने ख़्वाजा साहब की मिज़ाज़पुर्सी के लिए जाने की ठानी।
ख़्वाजा साहब मुझे और बेगम को देखकर बहुत ख़ुश हुए।
“ख़्वाजा साहब, ये क्या कर लिया आपने?”
“बस बेटा क्या बतायें? गुसलखाना गीला था पाँव फिसल गया।”
“क्या चोट ज़्यादा आई है?”
“तक़लीफ़ बहुत ज़्यादा है, बस अल्लाह ने इतना रहम किया कि हड्डी सलामत रही।”
बेगम ने टुकड़ा लगाया, “इसके लिए तो शुक्राने की नमाज़ पढ़नी चाहिए। बुढ़ापे की हड्डी मुश्किल ही से जुड़ती है।”
“हाँ, फिर तो हम चलने-फिरने से ही रह जाते।”
मैंने पूछा, “अब डॉक्टर क्या कहता है?”
“कहता है आराम करो। मैंने कहा डॉक्टर साहब इतना चलने-फिरने के क़ाबिल बना दीजिए कि करामत मियाँ के यहाँ जाकर अख़बार पर एक नज़र डाल लिया करूँ।”
“अजी अख़बार का क्या है।” बेगम ने कहा, “वह तो मैं अभी अलादीन के हाथ भिजवा दूँगी।”
“नहीं बेटी।”
मैंने कहा, “ख़्वाजा साहब इसमें क्या हर्ज है? अख़बार रोज़ सुबह अलादीन के हाथ भिजवा दिया करेंगे।”
“नहीं बेटे, हमने ज़िंदगी में पलंग पर लेटकर कभी अख़बार नहीं पढ़ा।”
ख़्वाजा साहब की बेटी रशीदा बोली, “मैंने अख़बार कल भी मँगाया था। आज भी मँगा लिया है, मगर अब्बाजी ने उसे हाथ भी नहीं लगाया।”
बस उस रोज़ से बेग़म ने रोज़ का ये मामूल बना लिया कि नाश्ते से फ़ुर्सत पाकर उधर मैं दफ़्तर की तरफ़ रवाना हुआ इधर बेगम अख़बार बग़ल में दाब ख़्वाजा साहब की तरफ़।
ख़्वाजा साहब अख़बार तो नहीं पढ़ते थे, मगर इस बहाने बेगम ख़्वाजा साहब की ख़ैरियत तो मालूम कर लेती थीं।
“बेगम क्या हाल है अब ख़्वाजा साहब का?”
अब तो उठने-बैठने लगे हैं। बल्कि कल तो सहारे से चलकर बरामदे तक आए।”
“बहुत जल्द रिकवर कर लिया...”
“हाँ, अल्लाह ने रहम किया। मैं तो डर गई थी, बुढ़ापे में एक बार कमर चारपाई से लग जाए फिर आदमी मुश्किल से उठता है। तुमने तो उस दिन के बाद जाकर वहाँ झाँका ही नहीं...।”
“क्या बताऊँ? दफ़्तर ने आजकल, मुझे इतना उलझा रखा है, वक़्त ही नहीं मिला। बहरहाल तुमने तो उनकी बहुत मिज़ाजपुर्सी की।”
“मैं तो दिन में जब तक एक बार जाकर ख़ैरियत न मालूम कर लूँ चैन नहीं आता। तुम्हारी तरह मेरा ख़ून सफ़ेद तो नहीं हुआ है।”
बेगम के इस ताने से मुझ पर तो घड़ों पानी पड़ गया। अभी मैं सोच ही रहा था कि जवाब दूँ कि दरवाज़े की घंटी बजी। अलादीन तेज़ी से किचन से निकल दरवाज़े पर गया और वापस आकर बताया, ख़्वाजा साहब आए हैं।”
“ख़्वाजा साहब...? अच्छा...?” हम दोनों हैरान रह गए!
ख़्वाजा साहब छड़ी टेकते हुए आहिस्ता-आहिस्ता दाख़िल हुए। मैंने बढ़कर उन्हें सहारा दिया। सहारा देकर सोफ़े पर बिठाया।
“लाओ बेटे, आज का अख़बार दिखाओ। आँखें अख़बार के लिए तरस गईं।” मैंने अख़बार ख़्वाजा साहब के हवाले किया। ख़्वाजा साहब ने आज कितनी बेताबी से अख़बार संभाला, जैसे भूखा आदमी खाना देखकर टूट पड़े।
बेगम ने मिज़ाजपुर्सी की, “अब आपकी तबीयत कैसी है?”
“बहुत बेहतर है, देखो चलकर यहाँ तक आ गया हूँ।”
“अभी आपको इतना नहीं चलना चाहिए...।”
“क्या करते बेटी, कितने दिनों से अख़बार नहीं देखा था।”
“मैं तो रोज़ आपके लिए अख़बार लेकर पहुँचती थी...”
“बेटी, तुम्हारा शुक्रिया, मगर उम्रभर तो यहाँ आकर अख़बार पढ़ा और जगह बैठकर अख़बार पढ़ने की कोशिश करूँ तो आँखें ही अख़बार को क़बूल नहीं करतीं।”
यह कहते-कहते ख़्वाजा साहब अख़बार पर झुक गए। हमने भी ग़नीमत जाना और वहाँ से सरक आए। असल में आज छुट्टी का दिन था। दोस्तों और उनकी बेगमात के साथ एक पिकनिक का प्रोग्राम तय था। सो हमें जल्दी ही घर से निकलना था और ये सोचकर कि हम तो घर होंगे नहीं अलादीन को भी एक दिन की छुट्टी दे दी जाए, सो मैं अंदर जाकर जल्दी-जल्दी लिबास बदलने लगा। उधर बेगम भी बनने-सँवरने में मसरूफ़ हो गईं।
बेगम ने लिपस्टिक लगाते-लगाते ड्राइंग रूम में झाँका, “ख़्वाजा साहब तो आज आकर जम ही गए।”
“अच्छा, अभी तक उनका अख़बार ख़त्म नहीं हुआ?”
बेगम ने जल्दी-जल्दी लिपस्टिक लगाकर एक बार फिर बाल सँवारे। हर कोने से चेहरे को आईने में देखा। एक बार फिर ड्राइंग रूम में नज़र डाली।
“अजी, देख रहे हो ख़्वाजा साहब उठ ही नहीं रहे। यह बड़ी मुश्किल है।”
बेगम ने नाराज़गी से कहा, “फिर आपने उन्हें पीछे लगा लिया, उन्हें किसी तरह रुख़्सत करो।”
“देखो बेगम अब मैं ज़िम्मेदारी से बरी हूँ, अब ख़्वाजा साहब तुम्हारे असामी हैं।”
“मेरे असामी कैसे हैं जी!”
“मैं तो उनकी बीमारी के दिनों में बहुत कोल्ड रहा हूँ, तुम ही दौड़-दौड़कर उनकी मिज़ाजपुर्सी को जाती थीं।”
“वह तो इंसानी हमदर्दी थी।”
“बस, हमदर्दी ही हमदर्दी में आदमी मारा जाता है। बहरहाल चलकर देखता हूँ...।”
टाई ठीक करता हुआ मैं जल्दबाज़ी के साथ ड्राइंग रूम में गया। बेगम भी तैयार हो चुकी थीं, पीछे-पीछे वह भी चली आईं।
“ख़्वाजा साहब आप आँखों पर ज़्यादा ज़ोर मत डालें। अब आपको आराम करना चाहिए।”
बेगम ने टुकड़ा लगाया, “हाँ, अभी आपको आराम की ज़रूरत है।” और तुरंत मुझसे मुख़ातिब हुईं, “आप इन्हें पहुँचाकर आएँ न...।”
“नहीं बेटे मैं ख़ुद जा सकता हूँ।”
इसी घड़ी अलादीन अख़बारों का एक ढेर लेकर नमूदार हुआ। वह पूरा ढेर उसने ख़्वाजा साहब के सामने डाल दिया।
मैं हैरान हुआ, “ये क्या...?”
ख़्वाजा साहब बोले, “ये मैंने मँगाए हैं। मैंने सोचा कि पिछली तारीख़ों के जो अख़बार पढ़ने से रह गए हैं, उन पर एक नज़र डाल लूँ मियाँ। ये अच्छा करते हो कि अख़बार महफूज़ रखते हो।”
ये बात सुनकर मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। बेगम भी सख़्त बदहवास नज़र आ रही थीं। कितनी ग़ुस्सैल नज़रों से उन्होंने मुझे घूरा।
“ख़्वाजा साहब...” मैंने झिझकते-झिझकते कहा, “आप ये सब अख़बार पढ़ेंगे?”
ख़्वाजा साहब ने अख़बार पढ़ते-पढ़ते इत्मिनान से जवाब दिया, “हाँ बेटे।”
“मगर ख़्वाजा साहब इतने अख़बार पढ़ने के लिए तो पूरा दिन चाहिए, और आप अभी बीमारी से उठे हैं।”
“कोई बात नहीं।” ख़्वाजा साहब ने बेरुख़ी से कहा और अख़बार पढ़ने में व्यस्त हो गए।
subah hi subah idhar akhbar vale ne akhbar phenqa udhar khvaja sahab ne darvaza khatkhataya.
“karamat miyan, akhbar aa gaya. . . . ”
“ji, aa gaya hai. aaie, tashrif rakhiye. ”
ye mere nashta karne aur daftar jane ka vaqt hota hai.
hamara Draing aur Daining kambainD hai. idhar main begam ke saath milkar nashta kar raha hoon, udhar Draing room mein khvaja sahab akhbar paDhne mein vyast hain.
“khvaja sahab, aiye, nashta kijiye. ”
“bete bismillah karo. ”
“nashta nahin karte to chaay hi pi lijiye. ”
“nahin, bete main to bas akhbar par ek nazar Dalne ke liye aaya hoon. ”
“vah theek hai, magar saath mein chaay bhi ho jaye to kya harz hai? koi ajanabiyat to nahin hai.
“bete, main—is ghar mein khuda apni rahamten nichhavar kare—saiyad sahab ke vaqt se aa raha hoon. ab tum unki nishani ho bhala tumse ajanabiyat bartunga. ”
baja kaha! asal mein to valid sahab se unki dosti thi. jaDe garmi, barsat, roz subah ko darvaza khatkhatana, unke paas baithkar akhbar paDhna, baten karna aur chale jana.
magar unke intkaal ke baad bhi wo shishtachar bana raha. usi tarah subah ko aakar akhbar paDhna aur chale jana. baqi kisi baat se matlab nahin. kabhi ikka dukka baat bhi ki to akhbar hi ke havale se. . . .
“kaisi baten karte ho karamat miyan, itni baDi duniya! utni bahut si chizen aur duniya mein kya kuch nahin ho raha, jo kabhi na hua tha wo ab ho raha hai aur hamare akhbaron ke paas dene ke liye khabar nahin. . .
ye kahte kahte uth khaDe hue.
“ja rahe hain aap. . . ?”
“haan bhai, chalkar ghar ko dekhte hain. aaj to main maszid se nikalkar sidha isi taraf aa gaya. socha ki ghar baad mein pahle karamat miyan ke yahan chalkar akhbar par ek nazar Daal len, magar akhbar mein koi khabar hi nahin thi. . . ”
unke jane ke baad begam ne kitna lamba itminan ka saans liya, “shukr hai khuda ka, aaj to aise jamkar baithe the ki talne ka naam hi nahin le rahe the aur akhbar mein baqaul unke aaj koi khabar hi nahin thi. khabar na hone par to itna jamkar baithe, khabar hoti to bas yahin Dera Daal lete. ”
‘begam kyon khoon jala rahi ho apna, nashta karo. . . ”
“khoon to jalna hi hai, ye tumhare khvaja sahab mujhe zahr lagte hain. roz subah aa dhamakte hain. main kahti hoon ki akhbar paDhne ka aisa hi shauq hai to akhbar khariden, hamare sine par kyon moong dalte hain. ”
“asal mein khvaja sahab abba jaan ke vaqt ki pabandi ko nibha rahe hain. . . . ”
“ye achchhi pabandi hai, is bahane wo akhbar ka kharch bacha lete hain. ”
magar akhir saal mein gine chune aise din bhi to aate hain jab akhbar chhutti karte hain. wo 26 disambar ki subah thi. nashta karte karte mujhe khvaja sahab yaad aa ge.
“aaj khvaja sahab nahin aaye. ”
“aaj akhbar jo nahin aaya hai. ”
“haan, aaj to akhbar ki chhutti hai. ”
“achchha hi hai, main to kahti hoon roz hi akhbar ki chhutti hua kare. ”
“begam tumhara bas chale to tum pure pres ki chhutti kara do. khvaja sahab ki zid mein sahafat (patrakarita) ki to dushman mat ban jao. . .
“sahafat?” begam ne hikarat bhare lahje mein kaha, “ye kambakht naya nasha nikla hai. ab ye tumhare khvaja sahab hain, inhen afim ki lat na paDi akhbar ki lat paD gai, baat to ek hi hai. . . ’
“nasha kya, bas ek aadat hoti hai. subah aur akhbar lazim va malzum bankar rah ge hain. jis subah akhbar na aaye wo subah khali khali si lagti hai. sharif adami ki samajh mein nahin aata ki kya kiya jayen?”
akhir pichhle zamane mein bhi to subah hua karti thi. ”
pichhle zamane ka apna tariqa tha. subah ko log baghon mein jakar sair karte the. akhaDon mein zor karte the. uske baad Datkar nashta halva puDi, nihari, siri pae, lassi ka gilas wo sab ab kahan? ab to do panne ka akhbar aur chaay ke saath do tons. ab subhon mein yahi kuch rah gaya hai. ” main abhi ye kah raha tha ki darvaze ki ghanti baji, “aladin, dekh kaun hai darvaze par?”
aladin kichan se tezi se nikalkar darvaze par gaya, tezi se vapas aaya, “khvaja sahab hain ji. ”
“phir aa ge. ” begam ka mooD phir kharab ho gaya, “yah hamara pichha nahin chhoDenge. ”
“bula lo andar. ”
“kyon bula lo? aaj kaun sa akhbar unki jaan ke liye ro raha hai. ”
“begam, muravvat bhi koi cheez hoti hai. ab agar khvaja sahab aa jate hain to unse kaha jaye ki aap chale jaiye. ”
“tumhari jagah main hoti to saaph saaph kah deti zara bhi lagi lipti na rakhti. ”
itne mein khvaja sahab andar dakhil hue. begam ko apna byaan beech mein hi rokna paDa.
“aie, khvaja sahab tashrif rakhiye, magar akhbar to aaj aaya nahin hai.
“haan bhai, kal chhutti thi, aaj to akhbar aaya hi nahin tha. magar mujhe khyaal aaya ki bhai chal ke kal hi ka akhbar dekh len. ”
“kal aapne akhbar nahin dekha tha. ”
“dekha tha beta, magar kya puchhte ho hamari yaddasht javab de gai hai. ghante bhar pahle ki kahi baat yaad nahin rahti. ek din pahle paDha akhbar kahan yaad rahta hai ?”
“aladin, kal ka akhbar lao. ”
meri avaz par aladin kichan se nikal aaya. kal ke akhbar ke naam par sitapitaya, “kal ka akhbar. . .
“haan, kal ka akhbar. . . kyon kya baat hai?”
is mauqe par begam aladin ke aaDe ain, “kal ka akhbar to istemal mein aa gaya hai. mainne hi aladin se kah diya tha almari ke khanon mein bichhane ke liye aur kaghaz kahan se laun aaj ka akhbar paDa hai, ab iski kya zarurat paDegi, ise hi bichha lo. . . . ”
“khair koi baat nahin. ” khvaja sahab ne fauran masle ka hal pesh kiya.
“parson ka akhbar to hoga, usmen mazmun bahut kaam ka chhapa hai. use le aao, dobara wo mazmun paDh lenge. ”
aladin andar gaya tatolkar do din pahle ka akhbar laya. khvaja sahab khush ho ge.
aisa vaqt ka paband adami agar ek din na aaye aur phir dusre din bhi na aaye to fikr hoti hai ki akhir kyon nahin aaya? magar mujhe baad mein, begam ko pahle kured hui.
“kya baat hai, kal se tumhare khvaja sahab nahin aa rahe. . . . ”
‘chalo, achchha hai tum bahut bor hoti theen. ”
“haan, kisi tarah tal jayen to achchha hi hai. jitni der baithe rahte hain, mera khoon jalta rahta hai. ”
“bechare khvaja sahab!”
“bechare vechare wo koi nahin hain. gaanth ke bahut pakke hain. daant se paise pakaDte hain. akhbar paDhne ka to baDa shauq hai, magar akhbar kharidne mein jaan jati hai. ek hum bevakuf unhen mil ge hain, subah hui aur aan dhamke. . . “magar tum unke usul ki daad nahin detin. akhbar paDhne ke liye aate hain to sirf akhbar hi paDhte hain aur koi baat nahin karte. ”
“aise usul vale hain to khud akhbar kyon nahin kharidte hain?”
bas hamare ghar aakar akhbar paDhne ki aadat jo hui. ya shayad is vatrah wo abbajan ki yaad ko apne andar taza rakhte hain. ”
magar do din se kyon nahin aaye? ab mujhe kured hui. kahin ye ehsaas to nahin ho gaya ki is ghar mein unki aamad pasand nahin ki jati.
“achchha, to wo hamse bigaD ge hain. ”
“shayad!”
“bigaDte hain to bigaD jayen, aate the to hamein kya de jate the? nahin ayenge to hum kaun si nemat se mahrum ho jayenge. ”
aladin ne mez se nashte ke bartan uthate uthate khvaja sahab ka zikr suna aur ittala di, “begam sahabji, khvaja sahab to lambe paDe hain. ”
“begam sahabji, khvaja sahab ka gusalkhane mein paanv phisal gaya, bas wo lambe let ge. taang mein bahut chot aai hai. ”
main daftar jane ke liye khaDa ho gaya tha, magar begam ne mujhe halat ki sangini ka ehsaas dilaya.
“sun rahe ho aladin, kya kah raha hai. buDhape ki chot hai. allah khair kare. ”
“bahut bura hua, main bhi soch raha tha ki akhir khvaja sahab aaye kyon nahin? wo to apne vaqt ke baDe paband the. unki namaz qaza ho sakti thi, yahan aana aur akhbar paDhna qaza nahin ho sakta tha. . . . ”
magar begam ko zabani hamdardi se itminan nahin hua. taqaza kiya ki khvaja sahab ko dekhne chalo.
“magar daftar ka vaqt hai udhar gaya to daftar ko der ho jayegi. . . . ”
“kaisi baten kar rahe ho? adami se baDhkar to daftar nahin hai. ek din daftar na jaoge to kya qayamat aa jayegi?”
begam ki is pratikriya ne mere andar ek ahsas e zurm paida kar diya ki main kitna behis hoon aur begam jo yoon khvaja sahab se pareshan rahti hain, kitni dardmand khatun hain, to daftar ka khayal chhoDkar mainne khvaja sahab ki mizazpursi ke liye jane ki thani. khvaja sahab mujhe aur begam ko dekhkar bahut khush hue.
“taqlif bahut zyada hai, bas allah ne itna rahm kiya ki haDDi salamat rahi. ”
begam ne tukDa lagaya, “iske liye to shukrane ki namaz paDhni chahiye. buDhape ki haDDi mushkil hi se juDti hai. ”
“haan, phir to hum chalne phirne hi se rah jate. ”
mainne puchha, “ab Dauktar kya kahta hai?”
“kahta hai aram karo. mainne kaha Dauktar sahab itna chalne phirne ke qabil bana dijiye ki karamat miyan ke yahan jakar akhbar par ek nazar Daal liya karun. ”
“aji akhbar ka kya hai. ” begam ne kaha, “vah to main abhi aladin ke haath bhijva dungi. ”
khvaja sahab ki beti rashida boli, “mainne akhbar kal bhi mangaya tha. aaj bhi manga liya hai, magar abbaji ne use haath bhi nahin lagaya. ”
bas us roz se begham ne roz ka ye mamul bana liya ki nashte se fursat pakar udhar main daftar ki taraf ravana hua idhar begam akhbar baghal mein daab khvaja sahab ki taraf.
khvaja sahab akhbar to nahin paDhte the, magar is bahane begam khvaja sahab ki khairiyat to malum kar leti theen.
“begam kya haal hai ab khvaja sahab ka?”
ab to uthne baithne lage hain. balki kal to sahare se chalkar baramde tak aaye. ”
“bahut jald rikvar kar liya. . . ”
“haan, allah ne rahm kiya. main to Dar gai thi, buDhape mein ek baar kamar charpai se lag jaye phir adami mushkil se uthta hai. tumne to us din ke baad jakar vahan jhanka hi nahin. . . . ”
“kya bataun? daftar ne ajkal, mujhe itna uljha rakha hai, vaqt hi nahin mila. baharhal tumne to unki bahut mizajpursi ki. ”
“main to din mein jab tak ek baar jakar khairiyat na malum kar loon chain nahin aata. tumhari tarah mera khoon safed to nahin hua hai. ”
begam ke is tane se mujh par to ghaDon pani paD gaya. abhi main soch hi raha tha ki javab doon ki darvaze ki ghanti baji. aladin tezi se kichan se nikal darvaze par gaya aur vapas aakar bataya, khvaja sahab aaye hain. ”
“beti, tumhara shukriya, magar umrbhar to yahan aakar akhbar paDha aur jagah baithkar akhbar paDhne ki koshish karun to ankhen hi akhbar ko qabul nahin kartin. ”
ye kahte kahte khvaja sahab akhbar par jhuk ge. hamne bhi ghanimat jana aur vahan se sarak aaye. asal mein aaj chhutti ka din tha. doston aur unki begmat ke saath ek piknik ka program tay tha. so hamein jaldi hi ghar se nikalna tha aur ye sochkar ki hum to ghar honge nahin aladin ko bhi ek din ki chhutti de di jaye, so main andar jakar jaldi jaldi libas badalne laga. udhar begam bhi banne sanvarne mein masruf ho gain.
begam ne lipastik lagate lagate Draing room mein jhanka, “khvaja sahab to aaj aakar jam hi ge. ”
“achchha, abhi tak unka akhbar khatm nahin hua?”
begam ne jaldi jaldi lipastik lagakar ek baar phir baal sanvare. har kone se chehre ko aine mein dekha. ek baar phir Draing room mein nazar Dali.
“aji, dekh rahe ho khvaja sahab uth hi nahin rahe. ye baDi mushkil hai. ”
begam ne narazgi se kaha, “phir aapne unhen pichhe laga liya, unhen kisi tarah rukhsat karo. ”
“dekho begam ab main zimmedari se bari hoon, ab khvaja sahab tumhare asami hain. ”
“mere asami kaise hain jee!”
“main to unki bimari ke dinon mein bahut kolD raha hoon, tum hi dauD dauDkar unki mizajpursi ko jati theen. ”
“vah to insani hamdardi thi. ”
“bas, hamdardi hi ‘hamdardi mein adami mara jata hai. baharhal chalkar dekhta hoon. . . . ”
tai theek karta hua main jaldbazi ke saath Draing room mein gaya. begam bhi taiyar ho chuki theen, pichhe pichhe wo bhi chali ain.
“khvaja sahab aap ankhon par zyada zor mat Dalen. ab aapko aram karna chahiye. ”
isi ghaDi aladin akhbaron ka ek Dher lekar namudar hua. wo pura Dher usne khvaja sahab ke samne Daal diya.
main hairan hua, “ye kya. . . ?”
khvaja sahab bole, “ye mainne mangaye hain. mainne socha ki pichhli tarikhon ke jo akhbar paDhne se rah ge hain, un par ek nazar Daal loon miyan. ye achchha karte ho ki akhbar mahphuz rakhte ho. ”
ye baat sunkar meri to sitti pitti gum ho gai. begam bhi sakht badahvas nazar aa rahi theen. kitni ghussail nazron se unhonne mujhe ghura.
“khvaja sahab. . . ” mainne jhijhakte jhijhakte kaha, “aap ye sab akhbar paDhenge?”
khvaja sahab ne akhbar paDhte paDhte itminan se javab diya, “haan bete”
“magar khvaja sahab itne akhbar paDhne ke liye to pura din chahiye, aur aap abhi bimari se uthe hain. ”
“koi baat nahin. ” khvaja sahab ne berukhi se kaha aur akhbar paDhne mein vyast ho ge.
subah hi subah idhar akhbar vale ne akhbar phenqa udhar khvaja sahab ne darvaza khatkhataya.
“karamat miyan, akhbar aa gaya. . . . ”
“ji, aa gaya hai. aaie, tashrif rakhiye. ”
ye mere nashta karne aur daftar jane ka vaqt hota hai.
hamara Draing aur Daining kambainD hai. idhar main begam ke saath milkar nashta kar raha hoon, udhar Draing room mein khvaja sahab akhbar paDhne mein vyast hain.
“khvaja sahab, aiye, nashta kijiye. ”
“bete bismillah karo. ”
“nashta nahin karte to chaay hi pi lijiye. ”
“nahin, bete main to bas akhbar par ek nazar Dalne ke liye aaya hoon. ”
“vah theek hai, magar saath mein chaay bhi ho jaye to kya harz hai? koi ajanabiyat to nahin hai.
“bete, main—is ghar mein khuda apni rahamten nichhavar kare—saiyad sahab ke vaqt se aa raha hoon. ab tum unki nishani ho bhala tumse ajanabiyat bartunga. ”
baja kaha! asal mein to valid sahab se unki dosti thi. jaDe garmi, barsat, roz subah ko darvaza khatkhatana, unke paas baithkar akhbar paDhna, baten karna aur chale jana.
magar unke intkaal ke baad bhi wo shishtachar bana raha. usi tarah subah ko aakar akhbar paDhna aur chale jana. baqi kisi baat se matlab nahin. kabhi ikka dukka baat bhi ki to akhbar hi ke havale se. . . .
“kaisi baten karte ho karamat miyan, itni baDi duniya! utni bahut si chizen aur duniya mein kya kuch nahin ho raha, jo kabhi na hua tha wo ab ho raha hai aur hamare akhbaron ke paas dene ke liye khabar nahin. . .
ye kahte kahte uth khaDe hue.
“ja rahe hain aap. . . ?”
“haan bhai, chalkar ghar ko dekhte hain. aaj to main maszid se nikalkar sidha isi taraf aa gaya. socha ki ghar baad mein pahle karamat miyan ke yahan chalkar akhbar par ek nazar Daal len, magar akhbar mein koi khabar hi nahin thi. . . ”
unke jane ke baad begam ne kitna lamba itminan ka saans liya, “shukr hai khuda ka, aaj to aise jamkar baithe the ki talne ka naam hi nahin le rahe the aur akhbar mein baqaul unke aaj koi khabar hi nahin thi. khabar na hone par to itna jamkar baithe, khabar hoti to bas yahin Dera Daal lete. ”
‘begam kyon khoon jala rahi ho apna, nashta karo. . . ”
“khoon to jalna hi hai, ye tumhare khvaja sahab mujhe zahr lagte hain. roz subah aa dhamakte hain. main kahti hoon ki akhbar paDhne ka aisa hi shauq hai to akhbar khariden, hamare sine par kyon moong dalte hain. ”
“asal mein khvaja sahab abba jaan ke vaqt ki pabandi ko nibha rahe hain. . . . ”
“ye achchhi pabandi hai, is bahane wo akhbar ka kharch bacha lete hain. ”
magar akhir saal mein gine chune aise din bhi to aate hain jab akhbar chhutti karte hain. wo 26 disambar ki subah thi. nashta karte karte mujhe khvaja sahab yaad aa ge.
“aaj khvaja sahab nahin aaye. ”
“aaj akhbar jo nahin aaya hai. ”
“haan, aaj to akhbar ki chhutti hai. ”
“achchha hi hai, main to kahti hoon roz hi akhbar ki chhutti hua kare. ”
“begam tumhara bas chale to tum pure pres ki chhutti kara do. khvaja sahab ki zid mein sahafat (patrakarita) ki to dushman mat ban jao. . .
“sahafat?” begam ne hikarat bhare lahje mein kaha, “ye kambakht naya nasha nikla hai. ab ye tumhare khvaja sahab hain, inhen afim ki lat na paDi akhbar ki lat paD gai, baat to ek hi hai. . . ’
“nasha kya, bas ek aadat hoti hai. subah aur akhbar lazim va malzum bankar rah ge hain. jis subah akhbar na aaye wo subah khali khali si lagti hai. sharif adami ki samajh mein nahin aata ki kya kiya jayen?”
akhir pichhle zamane mein bhi to subah hua karti thi. ”
pichhle zamane ka apna tariqa tha. subah ko log baghon mein jakar sair karte the. akhaDon mein zor karte the. uske baad Datkar nashta halva puDi, nihari, siri pae, lassi ka gilas wo sab ab kahan? ab to do panne ka akhbar aur chaay ke saath do tons. ab subhon mein yahi kuch rah gaya hai. ” main abhi ye kah raha tha ki darvaze ki ghanti baji, “aladin, dekh kaun hai darvaze par?”
aladin kichan se tezi se nikalkar darvaze par gaya, tezi se vapas aaya, “khvaja sahab hain ji. ”
“phir aa ge. ” begam ka mooD phir kharab ho gaya, “yah hamara pichha nahin chhoDenge. ”
“bula lo andar. ”
“kyon bula lo? aaj kaun sa akhbar unki jaan ke liye ro raha hai. ”
“begam, muravvat bhi koi cheez hoti hai. ab agar khvaja sahab aa jate hain to unse kaha jaye ki aap chale jaiye. ”
“tumhari jagah main hoti to saaph saaph kah deti zara bhi lagi lipti na rakhti. ”
itne mein khvaja sahab andar dakhil hue. begam ko apna byaan beech mein hi rokna paDa.
“aie, khvaja sahab tashrif rakhiye, magar akhbar to aaj aaya nahin hai.
“haan bhai, kal chhutti thi, aaj to akhbar aaya hi nahin tha. magar mujhe khyaal aaya ki bhai chal ke kal hi ka akhbar dekh len. ”
“kal aapne akhbar nahin dekha tha. ”
“dekha tha beta, magar kya puchhte ho hamari yaddasht javab de gai hai. ghante bhar pahle ki kahi baat yaad nahin rahti. ek din pahle paDha akhbar kahan yaad rahta hai ?”
“aladin, kal ka akhbar lao. ”
meri avaz par aladin kichan se nikal aaya. kal ke akhbar ke naam par sitapitaya, “kal ka akhbar. . .
“haan, kal ka akhbar. . . kyon kya baat hai?”
is mauqe par begam aladin ke aaDe ain, “kal ka akhbar to istemal mein aa gaya hai. mainne hi aladin se kah diya tha almari ke khanon mein bichhane ke liye aur kaghaz kahan se laun aaj ka akhbar paDa hai, ab iski kya zarurat paDegi, ise hi bichha lo. . . . ”
“khair koi baat nahin. ” khvaja sahab ne fauran masle ka hal pesh kiya.
“parson ka akhbar to hoga, usmen mazmun bahut kaam ka chhapa hai. use le aao, dobara wo mazmun paDh lenge. ”
aladin andar gaya tatolkar do din pahle ka akhbar laya. khvaja sahab khush ho ge.
aisa vaqt ka paband adami agar ek din na aaye aur phir dusre din bhi na aaye to fikr hoti hai ki akhir kyon nahin aaya? magar mujhe baad mein, begam ko pahle kured hui.
“kya baat hai, kal se tumhare khvaja sahab nahin aa rahe. . . . ”
‘chalo, achchha hai tum bahut bor hoti theen. ”
“haan, kisi tarah tal jayen to achchha hi hai. jitni der baithe rahte hain, mera khoon jalta rahta hai. ”
“bechare khvaja sahab!”
“bechare vechare wo koi nahin hain. gaanth ke bahut pakke hain. daant se paise pakaDte hain. akhbar paDhne ka to baDa shauq hai, magar akhbar kharidne mein jaan jati hai. ek hum bevakuf unhen mil ge hain, subah hui aur aan dhamke. . . “magar tum unke usul ki daad nahin detin. akhbar paDhne ke liye aate hain to sirf akhbar hi paDhte hain aur koi baat nahin karte. ”
“aise usul vale hain to khud akhbar kyon nahin kharidte hain?”
bas hamare ghar aakar akhbar paDhne ki aadat jo hui. ya shayad is vatrah wo abbajan ki yaad ko apne andar taza rakhte hain. ”
magar do din se kyon nahin aaye? ab mujhe kured hui. kahin ye ehsaas to nahin ho gaya ki is ghar mein unki aamad pasand nahin ki jati.
“achchha, to wo hamse bigaD ge hain. ”
“shayad!”
“bigaDte hain to bigaD jayen, aate the to hamein kya de jate the? nahin ayenge to hum kaun si nemat se mahrum ho jayenge. ”
aladin ne mez se nashte ke bartan uthate uthate khvaja sahab ka zikr suna aur ittala di, “begam sahabji, khvaja sahab to lambe paDe hain. ”
“begam sahabji, khvaja sahab ka gusalkhane mein paanv phisal gaya, bas wo lambe let ge. taang mein bahut chot aai hai. ”
main daftar jane ke liye khaDa ho gaya tha, magar begam ne mujhe halat ki sangini ka ehsaas dilaya.
“sun rahe ho aladin, kya kah raha hai. buDhape ki chot hai. allah khair kare. ”
“bahut bura hua, main bhi soch raha tha ki akhir khvaja sahab aaye kyon nahin? wo to apne vaqt ke baDe paband the. unki namaz qaza ho sakti thi, yahan aana aur akhbar paDhna qaza nahin ho sakta tha. . . . ”
magar begam ko zabani hamdardi se itminan nahin hua. taqaza kiya ki khvaja sahab ko dekhne chalo.
“magar daftar ka vaqt hai udhar gaya to daftar ko der ho jayegi. . . . ”
“kaisi baten kar rahe ho? adami se baDhkar to daftar nahin hai. ek din daftar na jaoge to kya qayamat aa jayegi?”
begam ki is pratikriya ne mere andar ek ahsas e zurm paida kar diya ki main kitna behis hoon aur begam jo yoon khvaja sahab se pareshan rahti hain, kitni dardmand khatun hain, to daftar ka khayal chhoDkar mainne khvaja sahab ki mizazpursi ke liye jane ki thani. khvaja sahab mujhe aur begam ko dekhkar bahut khush hue.
“taqlif bahut zyada hai, bas allah ne itna rahm kiya ki haDDi salamat rahi. ”
begam ne tukDa lagaya, “iske liye to shukrane ki namaz paDhni chahiye. buDhape ki haDDi mushkil hi se juDti hai. ”
“haan, phir to hum chalne phirne hi se rah jate. ”
mainne puchha, “ab Dauktar kya kahta hai?”
“kahta hai aram karo. mainne kaha Dauktar sahab itna chalne phirne ke qabil bana dijiye ki karamat miyan ke yahan jakar akhbar par ek nazar Daal liya karun. ”
“aji akhbar ka kya hai. ” begam ne kaha, “vah to main abhi aladin ke haath bhijva dungi. ”
khvaja sahab ki beti rashida boli, “mainne akhbar kal bhi mangaya tha. aaj bhi manga liya hai, magar abbaji ne use haath bhi nahin lagaya. ”
bas us roz se begham ne roz ka ye mamul bana liya ki nashte se fursat pakar udhar main daftar ki taraf ravana hua idhar begam akhbar baghal mein daab khvaja sahab ki taraf.
khvaja sahab akhbar to nahin paDhte the, magar is bahane begam khvaja sahab ki khairiyat to malum kar leti theen.
“begam kya haal hai ab khvaja sahab ka?”
ab to uthne baithne lage hain. balki kal to sahare se chalkar baramde tak aaye. ”
“bahut jald rikvar kar liya. . . ”
“haan, allah ne rahm kiya. main to Dar gai thi, buDhape mein ek baar kamar charpai se lag jaye phir adami mushkil se uthta hai. tumne to us din ke baad jakar vahan jhanka hi nahin. . . . ”
“kya bataun? daftar ne ajkal, mujhe itna uljha rakha hai, vaqt hi nahin mila. baharhal tumne to unki bahut mizajpursi ki. ”
“main to din mein jab tak ek baar jakar khairiyat na malum kar loon chain nahin aata. tumhari tarah mera khoon safed to nahin hua hai. ”
begam ke is tane se mujh par to ghaDon pani paD gaya. abhi main soch hi raha tha ki javab doon ki darvaze ki ghanti baji. aladin tezi se kichan se nikal darvaze par gaya aur vapas aakar bataya, khvaja sahab aaye hain. ”
“beti, tumhara shukriya, magar umrbhar to yahan aakar akhbar paDha aur jagah baithkar akhbar paDhne ki koshish karun to ankhen hi akhbar ko qabul nahin kartin. ”
ye kahte kahte khvaja sahab akhbar par jhuk ge. hamne bhi ghanimat jana aur vahan se sarak aaye. asal mein aaj chhutti ka din tha. doston aur unki begmat ke saath ek piknik ka program tay tha. so hamein jaldi hi ghar se nikalna tha aur ye sochkar ki hum to ghar honge nahin aladin ko bhi ek din ki chhutti de di jaye, so main andar jakar jaldi jaldi libas badalne laga. udhar begam bhi banne sanvarne mein masruf ho gain.
begam ne lipastik lagate lagate Draing room mein jhanka, “khvaja sahab to aaj aakar jam hi ge. ”
“achchha, abhi tak unka akhbar khatm nahin hua?”
begam ne jaldi jaldi lipastik lagakar ek baar phir baal sanvare. har kone se chehre ko aine mein dekha. ek baar phir Draing room mein nazar Dali.
“aji, dekh rahe ho khvaja sahab uth hi nahin rahe. ye baDi mushkil hai. ”
begam ne narazgi se kaha, “phir aapne unhen pichhe laga liya, unhen kisi tarah rukhsat karo. ”
“dekho begam ab main zimmedari se bari hoon, ab khvaja sahab tumhare asami hain. ”
“mere asami kaise hain jee!”
“main to unki bimari ke dinon mein bahut kolD raha hoon, tum hi dauD dauDkar unki mizajpursi ko jati theen. ”
“vah to insani hamdardi thi. ”
“bas, hamdardi hi ‘hamdardi mein adami mara jata hai. baharhal chalkar dekhta hoon. . . . ”
tai theek karta hua main jaldbazi ke saath Draing room mein gaya. begam bhi taiyar ho chuki theen, pichhe pichhe wo bhi chali ain.
“khvaja sahab aap ankhon par zyada zor mat Dalen. ab aapko aram karna chahiye. ”
isi ghaDi aladin akhbaron ka ek Dher lekar namudar hua. wo pura Dher usne khvaja sahab ke samne Daal diya.
main hairan hua, “ye kya. . . ?”
khvaja sahab bole, “ye mainne mangaye hain. mainne socha ki pichhli tarikhon ke jo akhbar paDhne se rah ge hain, un par ek nazar Daal loon miyan. ye achchha karte ho ki akhbar mahphuz rakhte ho. ”
ye baat sunkar meri to sitti pitti gum ho gai. begam bhi sakht badahvas nazar aa rahi theen. kitni ghussail nazron se unhonne mujhe ghura.
“khvaja sahab. . . ” mainne jhijhakte jhijhakte kaha, “aap ye sab akhbar paDhenge?”
khvaja sahab ne akhbar paDhte paDhte itminan se javab diya, “haan bete”
“magar khvaja sahab itne akhbar paDhne ke liye to pura din chahiye, aur aap abhi bimari se uthe hain. ”
“koi baat nahin. ” khvaja sahab ne berukhi se kaha aur akhbar paDhne mein vyast ho ge.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 373)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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