माँ का आज देहांत हो गया या शायद कल हुआ हो; कह नहीं सकता। आश्रम से आए तार में लिखा है—“आपकी माँ चल बसी, अंतिम संस्कार कल। गहरी सहानुभूति”, इससे कुछ पता नहीं चलता, हो सकता है यह कल हुआ हो।
वृद्धाश्रम मोरेंगो में हैं; अल्जीयर्स से तक़रीबन पचास मील दूर, दो बजे की बस से मैं रात घिरने से पहले पहुँच जाऊँगा, फिर रात वहाँ गुज़ार सकता हूँ—अर्थी के पास रतजगे की रस्म के लिए...। फिर कल शाम तक वापस, मैंने अपने मालिक से दो दिन की छुट्टी की बात कर ली है; ज़ाहिर है ऐसे हालात में वह मना नहीं कर सकता था। फिर भी लगा मानो ग़ुस्से में है। मैंने बग़ैर सोचे ही कह दिया “सॉरी सर, आप जानते हैं, इसमें मेरा कोई क़सूर नहीं है।”
बाद में लगा, मुझे ऐसा कहने की ज़रूरत न थी, माफ़ी माँगने की तो कोई वजह ही न थी; दरअसल उसे मुझसे सहानुभूति दिखानी चाहिए थी। परसों जब मैं काले कपड़ों में दफ़्तर लौटू तो शायद वह ऐसा करेगा, अभी तक तो ख़ुद मुझे ही नहीं लग रहा कि माँ वाक़ई नहीं रही, शायद अंत्येष्टि के बाद यक़ीन हो जाएगा।
मैंने दो बजे की बस पकड़ी—चिलचिलाती दुपहरी थी। हमेशा की तरह मैं सेलेस्टे के रेस्तरां में खाने के लिए उतरा। सभी स्नेह से पेश आए। सेलेस्टे ने मुझसे कहा, “माँ जैसी कोई अमानत नहीं” जब मैं चला तो वे मुझे दरवाज़े तक छोड़ने आए। मैं जल्दबाज़ी में चला था, इसलिए मुझे अपने मित्र एमेन्यूएल से उसकी काली टाई और मातम के वक़्त बाँधी जाने वाली काली पट्टी माँगकर लानी पड़ी। कुछ माह पहले ही उसके चाचा चल बसे थे।
मैंने क़रीब-क़रीब भाग कर बस पकड़ी। इस भागदौड़, चिलचिलाती धूप और गैसोलिन की बदबू ने शायद मुझे उनींदा कर दिया था। पूरे रास्ते मैं सोता रहा, जब उठा तो देखा एक फ़ौजी पर लुढ़का पड़ा था। उसने जानना चाहा कि क्या मैं किसी लंबे सफ़र से आ रहा हूँ? मैंने सिर्फ़ गर्दन हिलाई, ताकि बातचीत आगे न बढ़े। मैं बातें करने के मूड में क़तई नहीं था।
गाँव से वृद्धाश्रम मील भर दूर है, मैं पैदल ही चल पड़ा। वहाँ पहुँचते ही मैंने माँ को देखने की इच्छा ज़ाहिर की, पर दरबान ने पहले वार्डन से मिलने के लिए कहा। वे व्यस्त थे। मुझे कुछ देर इंतज़ार करना पड़ा। उस दौरान दरबान मेरे साथ गपशप करता रहा; फिर दफ़्तर ले गया, वार्डन ठिगना, भूरे बालों वाला आदमी था, अपनी गीली नीली आँखों से उसने मुझे भरपूर देखा। फिर हाथ मिलाया और मेरा हाथ इतनी देर तक पकड़े रखा कि मैं ख़ासी उलझन महसूस करने लगा। उसके बाद एक रजिस्टर में तहक़ीक़ात की और बोला—
“मदाम मेएरसॉल्ट तीन बरस पहले इस आश्रम में आई थीं, उनकी अपनी कोई आमदनी नहीं थी और पूरी तरह तुम पर आश्रित थीं।”
मुझे लगा वह मुझे दोषी ठहरा रहा हो और मैं सफ़ाई देने लगा, पर उसने मेरी बात काट दी।
“अरे बेटे, सफ़ाई देने की कोई ज़रूरत नहीं। मैंने रिकार्ड देखा है। उससे ज़ाहिर है कि आप उनकी अच्छी तरह देखभाल करने की स्थिति में नहीं थे। उन्हें पूरे वक़्त देखभाल की ज़रूरत थी और तुम्हारी तरह की नौकरी में नवयुवकों को बहुत अधिक वेतन नहीं मिलता। दरअसल, वह यहाँ काफ़ी ख़ुश थीं।”
“हाँ सर; मुझे पूरा यक़ीन है।” मैं बोला।
वह फिर बताने लगा: “जानते हैं, यहाँ उसके कई अच्छे मित्र बन गए थे। सभी उसकी उम्र के हैं, वैसे भी हमउम्र लोगों के साथ ज़िंदगी अच्छी गुज़रती है। तुम उम्र में छोटे हो; इसलिए उसके मित्र तो नहीं बन सकते थे।”
यह वाक़ई सच था, क्योंकि जब हम साथ रहते थे तो माँ मुझे निहारती रहती, पर हम शायद ही कोई बातचीत करते। आश्रम के अपने शुरुआती दिनों में वह ख़ूब रोया करती थी। पर ऐसा कुछ ही वक़्त रहा। उसके बाद यहाँ उसका मन लग गया, एकाध महीने बाद तो अगर उसे आश्रम छोड़ने के लिए कहा जाता तो वह यक़ीनन रोने लगती, क्योंकि यहाँ से बिछुड़ने का उसे धक्का लगता। इसलिए पिछले साल मैं शायद ही उससे कभी मिलने आया। मिलने आना यानी पूरा इतवार खपा देना। बस से यात्रा करने, टिकट कटवाने और आने-जाने में दो-दो घंटे गंवाने की तकलीफ़, सो अलग।
वार्डन बोलता ही चला गया, पर मैंने ख़ास तवज्जो नहीं दी। आख़िर वह बोला: “मेरे ख़याल से अब तुम अपनी माँ को देखना चाहोगे?”
मैं जवाब दिए बग़ैर खड़ा हो गया, फिर उसके पीछे चल दिया, जब हम सीढ़ियों से उतरने लगे तो उसने कहा—
“मैंने उनके शव को यहाँ के छोटे शवगृह में रखवा दिया है—ताकि दूसरे बूढ़े लोग दुखी न हों, आप समझ सकते हैं न! यहाँ जब भी किसी की मृत्यु होती है तो दो-चार दिन ये सभी अधीर और विचलित हो जाते हैं। ज़ाहिर है, इससे हमारे स्टाफ़ का काम और परेशानी बढ़ जाती है।”
हमने बरामदा पार किया, जहाँ कई बूढ़े छोटे-छोटे झुँड में खड़े होकर बतिया रहे थे। हमारे उनके क़रीब पहुँचते ही वे चुप हो गए, ज्यों ही हम आगे बढ़े उनकी फुसफुसाहट फिर शुरू हो गई। खुसर-फुसर सुन कर अनायास मुझे पिंजरे में बंद टुइया-तोतों की स्मृति हो आई। इनकी आवाज़ें ज़रूर उतनी तीखी और कर्कश नहीं थीं। एक छोटी, नीची बिल्डिंग के प्रवेश द्वार के बाहर पहुँचकर वार्डन रुक गया।
श्रीमान मेएरसॉल्ट, यहाँ मैं आपसे विदा लेता हूँ। यदि कोई काम हो तो मैं अपने दफ़्तर में मिलूँगा। कल सुबह माँ का अंतिम संस्कार रखना तय हुआ है, इससे तुम अपनी माँ के ताबूत के पास रात गुज़ार सकोगे और यक़ीनन तुम ऐसा करना चाहोगे। एक आख़िरी बात, आपकी माँ के एक मित्र से मुझे पता चला कि उनकी ख़्वाहिश थी कि उन्हें चर्च के रीति-रिवाजों के मुताबिक दफ़नाया जाए। यूँ तो मैंने सारे इंतजाम कर लिए हैं, फिर भी तुम्हें बताना मुनासिब लगा।”
मैंने उसका शुक्रिया अदा किया, जहाँ तक मैं माँ को जानता था, हालाँकि वह नास्तिक नहीं थी, पर उसने जीवन में धर्म वगैरह को कभी ज़्यादा तरजीह नहीं दी थी।
मैंने शवगृह में प्रवेश किया, यह पुती हुई दीवारों और खुले रोशनदान वाला साफ़-सुथरा चमकदार कमरा था। फ़र्नीचर के नाम पर वहाँ कुछ कुर्सियाँ और मोढ़े रखे थे। कमरे के बीचोबीच दो स्टूलों पर ताबूत को रखा गया था। ढक्कन बंद था, पर पेंचों को बिना पूरा कसे ही छोड़ दिया था, जिससे वे लकड़ी पर उभरे हुए थे। एक अरबी महिला जो शायद नर्स थी, अर्थी के क़रीब बैठी थी। उसने नीला कुर्ता पहन रखा था और एक भड़कीला-सा स्कार्फ़ बालों पर बाँध रखा था, उसी क्षण मेरे पीछे हाँफता हुआ दरबान आ पहुँचा। ज़ाहिर था, वह भागते हुए आया था।
“हमने ढक्कन लगा दिया था—पर मुझे हिदायत दी गई है, आपके आने पर मैं पेंच पूरे खोल दूँ, जिससे आप उन्हें देख सकें।”
वह खोलने के लिए आगे बढ़ा पर मैंने उसे मना कर दिया।
“क्या आप नहीं चाहते कि...?”
“नहीं” मैं बोला।
उसने स्क्रू ड्राइवर जेब में रख लिया और मुझे घूरने लगा, तब मुझे लगा कि मना नहीं करना चाहिए था। मैं शर्म महसूस करने लगा, कुछ पलों तक मुझे घूरने के बाद उसने पूछा—‘क्यों नहीं?’ पर उसके स्वर में उलाहना नहीं थी; वह बस यूँ ही जानना चाहता था।
“दरअसल मैं कुछ कह नहीं सकता,” मैं बोला।
वह अपनी सफ़ेद मूँछों को ऐंठने लगा, फिर बिना मेरी ओर देखे नमीं से बोला, “मैं समझ सकता हूँ।”
वह नीली आँखों और लाल स्वस्थ गालों वाला भला-सा हँसमुख व्यक्ति था, उसने ताबूत के नज़दीक मेरे लिए एक कुर्सी खिसकाई और मेरे पीछे ख़ुद भी बैठ गया। नर्स उठी और दरवाज़े की ओर चल दी। जब वह जाने लगी तो दरबान मेरे कान में बुदबुदाया, “बेचारी को ट्यूमर है।”
मैंने उसे ग़ौर से देखा, तब पता चला कि आँखों के ठीक नीचे सिर पर पट्टी बंधी थी, जिससे उसका बहुत थोड़ा-सा चेहरा दिखाई दे रहा था।
उसके जाते ही दरबान भी खड़ा हो गया।
“अब मैं आपको अकेला छोड़ देता हूँ।”
मैं नहीं जानता मैंने कोई हरकत की या नहीं, पर जाने की बजाए वह कुर्सी के पीछे ही खड़ा रहा। पीठ पीछे किसी की मौजूदगी से मैं ख़ासा असहज महसूस कर रहा था। सूरज ढलने लगा था और कमरा ख़ुशनुमा, स्निग्ध रोशनी से भर उठा था। नींद से मेरी आंखें बोझिल हो रही थी। देखे बग़ैर मैंने दरबान से यूँ ही पूछा कि वह कितने बरसों से इस आश्रम में है? “पाँच बरस,” उसने झट से जवाब दिया, मानो मेरे सवाल का ही इंतज़ार कर रहा हो।
बस वह फिर शुरू हो गया और बतियाने लगा, दस बरस पहले अगर किसी ने उसे कहा होता कि वह अपनी ज़िंदगी मोरेंगो के वृद्धाश्रम में गुज़ारेगा तो उसे यक़ीन न होता। वह चौंसठ बरस का था और पेरिस का रहने वाला था।
“ओह तो तुम यहाँ के नहीं हो?” मैं अनायास बोल पड़ा। तब मुझे याद आया कि वार्डन के पास जाने से पहले उसने माँ के बारे में कुछ कहा था। उसने कहा था कि उन्हें दफ़नाने की रस्म जल्दी से पूरी करनी होगी, क्योंकि इस हिस्से में ख़ासकर मैदानी इलाके में ख़ासी गर्मी रहती है।
पेरिस में शव को तीन दिन, कभी-कभार चार दिन भी रखा जाता है। उसने यह भी बताया कि उसने एक लंबा अरसा पेरिस में गुज़ारा है और वे दिन उसके जीवन के बेहतरीन दिन थे, जिन्हें वह कभी भुला नहीं सकता, “यहाँ सब कुछ हड़बड़ी में निपटाया जाता है। आप अपने अज़ीज़ की मृत्यु को पूरी तरह स्वीकार भी नहीं कर पाते कि अंतिम क्रिया-कर्म की ओर धकेल दिए जाते हैं।” इसी क्षण उसकी पत्नी ने टोका, “बस भी करो” वह बूढ़ा थोड़ा सकपकाकर क्षमा माँगने लगा। दरअसल वह जो कुछ कह रहा था, वह मुझे अच्छा लग रहा था; मैंने पहले इन बातों पर ग़ौर नहीं किया था।
फिर वह बताने लगा कि कैसे एक आम वासी की तरह वह भी इस आश्रम में आया था। तब वह काफ़ी स्वस्थ और तंदुरुस्त था, इसलिए जब दरबान की जगह ख़ाली हुई तो उसने यह नौकरी करने की इच्छा जताई।
जब मैंने उसे कहा कि औरों की तरह वह भी तो यहाँ का एक वासी ही है, तो उसे यह नागवार लगा। वह एक ‘ख़ास’ पद पर था। मुझे ध्यान आया कि हालाँकि लगातार वह उन्हें “वे और ये बूढ़े लोग” कहकर संबोधित कर रहा था, वह ख़ुद उनसे कम बूढ़ा न था, फिर भी उसकी बात में दम था। एक दरबान के रूप में उसकी एक हैसियत थी, दूसरों से ऊपर एक ख़ास तरह का अधिकार।
इसी वक़्त नर्स लौट आई। रात बहुत जल्द उतर आई थी। अचानक लगा मानो आसमाँ पर अँधेरा छा गया है। दरबान ने बत्तियां जला दीं। रोशनी में आँखें चुंधियाने लगीं।
उसने सलाह दी कि मुझे भोजनालय जाकर भोजन कर लेना चाहिए, पर मुझे भूख न थी, उसने कॉफ़ी लेने की पेशकश की। चूँकि मुझे कॉफ़ी पसंद थी, मैंने शुक्रिया कह हामी भरी और चंद ही मिनटों में वह ट्रे लेकर आया। मैंने कॉफ़ी पी, फिर मुझे सिगरेट की तलब होने लगी, पर क्या इन हालात में सिगरेट पीना मुनासिब होगा? माँ की अर्थी के पास? दरअसल इससे ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता, यह सोच मैंने दरबान की ओर भी एक सिगरेट बढ़ाई और हम सिगरेट पीने लगे। उसने फिर बातें शुरू कर दीं, “जानते हैं, जल्द ही आपकी माँ के मित्र आएँगे, आपके साथ अर्थी के पास रतजगा करने के लिए। जब भी कोई मर जाता है तो हम सभी इसी तरह रतजगा करते हैं। बेहतर होगा, मैं जाकर कुछ कुर्सियाँ और काली कॉफ़ी का जग भर कर ले आऊँ।”
सफ़ेद दीवारों की वजह से तेज़ रोशनी आँखों को बहुत अखर रही थी। मैंने दरबान से एकाध बत्ती बुझाने के लिए कहा—“ऐसा कुछ नहीं कर सकते, उन्हें ऐसे लगाया गया है कि सभी एकसाथ जलती हैं और एकसाथ बुझती हैं। उसके बाद मैंने रोशनी पर ध्यान देना छोड़ दिया। वह बाहर जाकर कुर्सियाँ ले आया और ताबूत के चारों ओर लगा दी, एक पर उसने कॉफ़ी का जग और दस-बारह प्याले रख दिए। फिर ठीक मेरे सामने ताबूत के दूसरी तरफ़ बैठ गया। नर्स कमरे के दूसरे सिरे पर थी। मेरी ओर उसकी पीठ थी, मैं नहीं जानता, वह क्या कर रही थी, पर उसके हाथ जिस तरह हिल रहे थे, उससे मैंने अंदाज़ा लगाया कि वह कुछ बुन रही थी। मैं अब इत्मीनान से था, कॉफ़ी ने मेरे भीतर ताज़गी भर दी थी, खुले दरवाज़े से फूलों की ख़ुशबू और शीतल हवा भीतर आ रही थी। मैं उनींदा होने लगा।
कानों में अजीब-सी सरसराहट से मैं जाग पड़ा। कुछ वक़्त आँखें बंद थीं—इसलिए रोशनी पहले से भी तेज़ लगने लगी। कहीं कोई छाया या ओट न थी, इसलिए हर चीज़ अपनी पूरी विराटता के साथ उजागर थी। माँ के बूढ़े मित्र आ चुके थे। मैंने गिने, कुल दस थे, कोई आवाज़ किए बग़ैर चुपचाप चुंधियाती रोशनी में जाकर बैठ गए थे। उनके बैठने से किसी कुर्सी के चरमराने की आवाज़ तक नहीं हुई। जीवन में आज तक मैंने किसी को इस कदर साफ़ ढंग से नहीं देखा; एक-एक अंग, हाव-भाव, नैन-नक़्श, लिबास कुछ भी छिपा न था, फिर भी मैं उन्हें सुन नहीं पा रहा था। वे वाक़ई मौजूद हैं, यह यक़ीन करना मुश्किल था।
तकरीबन सभी महिलाओं ने एप्रेन पहन रखा था, जिसकी डोरी कमर पर कसकर बंधी हुई थी। इससे उनके पेट और भी बाहर उभर आए थे। मैंने अब तक कभी ग़ौर नहीं किया था कि अकसर बूढ़ी महिलाओं के पेट काफ़ी बड़े होते हैं। इसके विपरीत सभी बूढ़े पुरुष दुबले-पतले थे और छड़ी लिए हुए थे।
उनके चेहरों की जिस बात ने सबसे अधिक ध्यान खींचा, वह थी उनकी आँखें, जो बिलकुल नदारद थीं-झुर्रियों के जमघट के बीच बस महीन, धुँधली-सी, चमक भर थी।
बैठते वक़्त सभी ने मुझे देखा और अजीब ढंग से सिर हिलाया। उनके होंठ दंत रहित मसूड़ों के बीच चुसकी की मुद्रा में मिंचे हुए थे। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि वे अभिवादन कर रहे हैं या कुछ कहना चाहते हैं अथवा यह उनके बुढ़ापे की वजह से है। बाद में मैंने मान लिया कि शायद किसी रिवाज के मुताबिक वे अभिवादन कर रहे हैं। दरबान के इर्द-गिर्द बैठे सभी बूढ़ों का रहस्यमय ढंग से मुझे देखना और मुंडी हिलाना वाक़ई अजीब लग रहा था। क्षण भर लगा, मानो वे मुझे कटघरे में खड़ा करने आए हों।
कुछ देर बाद एक औरत रोने लगी, वह दूसरी पंक्ति में थी और उसके आगे एक औरत बैठी थी, इसलिए मैं उसका चेहरा नहीं देख पा रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर में उसका गला रुंध जाता और लगता वह कभी रोना बंद नहीं करेगी। कोई और उस पर ध्यान नहीं दे रहा था, सभी शांत बैठे थे—अपनी-अपनी कुर्सियों में धंसे वे कभी ताबूत को तो कभी अपनी घड़ी या किसी दूसरी वस्तु को घूरने लगते और फिर उनकी नजरें वहीं टिक जातीं। वह औरत अब भी सिसकियाँ भर रही थी। मुझे वाक़ई अचरज हो रहा था, क्योंकि मैं नहीं जानता था कि वह कौन थी? मैं चाहता था, वह रोना बंद कर दे, पर उससे कुछ कहने की हिम्मत न थी, कुछ देर बाद दरबान उसकी ओर झुका और कान में कुछ बुदबुदाया। उसने महज़ सिर हिलाया। धीमे से कुछ कहा, जो मैं सुन न सका और फिर उसी लय में सुबकने लगी।
दरबान उठा और कुर्सी मेरे पास खिसकाकर बैठ गया, कुछ देर ख़ामोश रहा, फिर मेरी ओर देखे बग़ैर समझाने लगा, “वह तुम्हारी माँ के बहुत क़रीब थी, वह कहती है, इस दुनिया में माँ के सिवाए उसका कोई नहीं, वह अब अकेली रह गई है।”
मैं भला क्या कहता, कुछ देर ख़ामोशी छाई रही। उस महिला की सिसकियाँ अब कुछ कम होने लगीं। फिर नाक साफ़ करने के बाद कुछ देर वह सुबकती रही, फिर शांत हो गई।
हालाँकि मेरी नींद उड़ चुकी थी, पर मैं बेहद थकान महसूस कर रहा था। टाँगें बुरी तरह दुख रही थीं। माहौल में एक अजीब-सी आवाज़ थी; जो कभी-कभार सुनाई दे जाती, मैं शुरू में ख़ासी उलझन में था, पर ग़ौर से सुनने पर समझ गया कि माज़रा क्या था? दरअसल बूढ़े अपने गालों के अंदर चुसकी ले रहे थे, जिससे सुड़सुड़ की अजीब-सी रहस्यमय आवाज़ निकल रही थी। वे अपने ख़यालों में इस कदर तल्लीन थे कि उन्हें किसी चीज़ की सुध नहीं थी। एकबारगी मुझे लगा कि उनके बीच रखी यह बेजान देह कोई मायने नहीं रखती, पर यहाँ मैं शायद ग़लत था।
हम सभी ने कॉफ़ी पी जो दरबान लाया था। उसके बाद मुझे कुछ ज़्यादा याद नहीं, रात किसी तरह गुज़र गई; मुझे बस वह एक पल याद है; जब अचानक मैंने आँखें खोली तो देखा एक बूढ़े को छोड़ सभी अपनी कुर्सियों पर झुके ऊँघ रहे थे, अपनी छड़ी पर दोनों हाथ बांधे ठोड़ी टिकाए वह बूढ़ा मुझे घूर रहा था, मानो मेरे जागने का इंतज़ार कर रहा हो। मैं फिर सो गया, थोड़ी देर बाद ही पैरों में बेइंतहा दर्द की वजह से मैं जाग पड़ा।
रोशनदान में भोर की लाली चमकने लगी थी, पलभर बाद ही एक बूढ़ा जागकर खाँसने लगा, वह बड़े से रूमाल में थूकता और हर बार उबकाई की-सी आवाज़ आती, आवाज़ सुन कर सब जाग गए थे। दरबान ने उन्हें बताया कि चलने का वक़्त हो गया है। वे एकसाथ उठ खड़े हुए, इस लंबी रात के बाद उनके चेहरे मुरझा गए थे। मुझे वाक़ई अचरज हुआ, जब हरेक ने मेरे साथ हाथ मिलाया, मानो साथ गुज़ारी एक रात से ही हमने आपस में एक रिश्ता क़ायम कर लिया हो; हालाँकि एक-दूसरे से हमने एक लफ़्ज़ नहीं बोला था।
मैं काफ़ी बुझ-सा गया था। दरबान मुझे अपने कमरे में ले गया। मैंने ख़ुद को ठीक-ठाक किया। उसने मुझे थोड़ी और सफ़ेद कॉफ़ी दी, जिससे मैं तरोताज़ा महसूस करने लगा। जब मैं बाहर निकला, सूरज चढ़ चुका था और मोरेंगो तथा समुद्र के बीच पहाड़ियों के ऊपर आसमाँ ललाई लिए चितकबरा हो रहा था। सुबह की बयार चल रही थी, जिसमें ख़ुशनुमा नमकीन महक थी, जो एक ख़ुशगवार दिन का यक़ीन दिला रही थी। एक लंबे अरसे से मैं देहात नहीं आया था। मन ही मन सोचने लगा कि गर माँ का मसला नहीं होता तो कितनी बढ़िया सैर हो सकती थी।
मैं आंगन में एक पेड़ के नीचे इंतज़ार करने लगा। मिट्टी की शीतल गंध मेरे भीतर भरने लगी। मैंने महसूस किया कि अब मुझे नींद नहीं आ रही थी। फिर मैं दफ़्तर के दूसरे लोगों के बारे में सोचने लगा। इस वक़्त वे लोग दफ़्तर जाने की तैयारी कर रहे होंगे। दिन का यह वक़्त मुझे सबसे बेकार लगता। तक़रीबन दस मिनट मैं इन्हीं ख़यालों में गुम रहा। अचानक इमारत के भीतर से घंटी की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी। खिड़कियों के पीछे कुछ हलचल दिखी; फिर सब ख़ामोश हो गया। सूरज चढ़ आया था। तलवों में तपन महसूस होने लगी थी। दरबान ने बताया कि वार्डन मुझसे मिलना चाहते हैं। मैं उनके दफ़्तर गया। उन्होंने कुछ काग़ज़ातों पर दस्तख़त करवाए। वह काली पोशाक में था। रिसीवर उठाकर मेरी ओर देखने लगा।
“अंत्येष्टि का प्रबंध करने वाले कुछ देर पहले यहाँ आए थे। वे लोग वहाँ जाकर ताबूत के स्क्रू कस देंगे। क्या मैं उन्हें रुकने के लिए कहूँ, ताकि तुम अपनी माँ के अंतिम दर्शन कर सकोगे।”
“नहीं” मैं बोला।
उसने धीमी आवाज़ में रिसीवर में कहा—“ठीक है, फिगिएफ, अपने आदमियों को अभी भेज दो।”
फिर उसने बताया कि वह भी साथ चल रहा है। मैंने उसका शुक्रिया अदा किया। ड्यूटी पर जो नर्स है उसके अलावा केवल हम दो ही अंतिम संस्कार में शामिल होंगे। यहाँ का कायदा है कि आश्रमवासियों को अंत्येष्टि में शामिल नहीं होने दिया जाता। हालाँकि रात में ताबूत के पास बैठने से किसी को नहीं रोका जाता।
“ऐसा उनकी भलाई के लिए ही किया जाता है,” उसने स्पष्ट किया, “ताकि उन्हें तकलीफ़ न हो, पर इस मर्तबा मैंने तुम्हारी माँ के एक पुराने मित्र को साथ आने की इजाज़त दे दी है। उसका नाम थॉमस परेज है,” वार्डन मुस्कराया, “असल में यह एक छोटी-सी मार्मिक कहानी है। तुम्हारी माँ और उसके बीच गहरी आत्मीयता थी। यहाँ तक कि दूसरे सभी बूढ़े परेज को अक्सर चिढ़ाया करते कि वह उसकी मंगेतर है, वे अक्सर उससे पूछते हैं, तुम उससे कब ब्याह कर रहे हो? वह हँसकर टाल देता, ज़ाहिर है कि माँ की मृत्यु से उसे गहरा धक्का पहुँचा है, इसलिए अंत्येष्टि में शामिल होने से मैं उसे इंकार नहीं कर सका, हालाँकि डॉक्टर की सलाह पर उसे पिछली रात अर्थी के पास बैठने से रोक दिया था।”
कुछ देर हम यूँ ही ख़ामोश बैठे रहे। फिर वार्डन खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया, अचानक बोला—
“अरे मोरेंगो के पादरी वक़्त के काफ़ी पाबंद हैं।”
उन्होंने मुझे चेताया था कि गाँव में स्थित गिरजाघर तक पैदल पहुँचने में एक-डेढ़ घंटा लगेगा। हम सीढ़ियाँ उतरने लगे।
समाधि-स्थल के द्वार पर ही पादरी इंतज़ार कर रहे थे। उनके साथ दो वर्दीधारी परिचर भी थे। एक के हाथ में धूपपात्र था। पादरी झुक कर चाँदी की ज़ंजीर की लंबाई को ठीक कर रहे थे। हमें देखते ही वे सीधे हो गए और मेरे साथ कुछ बातें की। मुझे वे बेटा कह कर संबोधित कर रहे थे, फिर हमें वे समाधि-स्थल की ओर ले जाने लगे।
निमिष भर में मैंने देख लिया कि ताबूत के पीछे काली वर्दी पहने चार व्यक्ति खड़े थे। इसी क्षण वार्डन ने बताया कि अर्थी पहुँच चुकी है। पादरी ने इबादत शुरू कर दी। काले कपड़े की पट्टी पकड़े चार व्यक्ति ताबूत के क़रीब पहुँचे, जबकि पादरी, लड़के और मैं कतार में चलने लगे। एक स्त्री, जिसे मैंने पहले नहीं देखा था, दरवाज़े पर खड़ी थी। वार्डन ने उसे मेरा परिचय दिया। मैं उसका नाम तो नहीं समझ सका, पर जान लिया कि वह आश्रम की नर्स है। परिचय सुन उसने झुक कर अभिवादन किया, पर उसके लंबे दुबले-पतले चेहरे पर हल्की-सी भी मुस्कान नहीं थी। हम एक गलियारे से होते हुए मुख्य द्वार पर आए, जहाँ अर्थी को रखा गया था। आयताकार, चमकीले, काले रंग के ताबूत को देख मुझे अचानक दफ़्तरों में रखे काले पेन-स्टैंड की स्मृति हो आई।
अर्थी के पास अनोखी सज-धज में एक ठिगना आदमी खड़ा था। मैं समझ गया कि उसका काम अंत्येष्टि के वक़्त पूरी व्यवस्था की देख-रेख करना है—बिल्कुल मास्टर ऑफ सेरिमनी की तरह। उसके क़रीब संकोच से भरा, झेंपता मिस्टर परेज खड़ा था—माँ का ख़ास मित्र। उसने हल्की पर चौड़े किनारे वाली गोलाकार टोपी पहन रख थी। जब द्वार से ताबूत ले जाया जाने लगा तो उसने फ़ुर्ती से टोपी को ऊपर उठाया। पैंट जूतों से काफ़ी ऊपर थी और ऊँचे कॉलर वाली सफ़ेद शर्ट पर बंधी काली टाई ज़रूरत से ज़्यादा छोटी थी। उसकी मोटी चौड़ी नाक के नीचे होंठ लरज रहे थे। पर जिस चीज़ ने मेरा सबसे अधिक ध्यान खींचा, वे थे उसके कान। ललाई लिए पेंडुलमनुमा उसके कान जो पीले से गालों पर सीलबंद करने की लाख के लाल गोल छींटे की मानिंद दिख रहे थे, मानो रेशमी सफ़ेद बालों के बीच उन्हें गाड़ दिया हो।
प्रबंधकर्ता द्वारा हर काम के लिए रखे एक नौकर ने हमें अपनी-अपनी जगहों पर खड़ा किया। अर्थी के आगे पादरी, अर्थी के दोनों ओर काले कपड़े पहने चार व्यक्ति। उसके पीछे वार्डन और मैं तथा हमारे पीछे परेज व नर्स।
आसमान पर सूरज की ज्वाला दहकने लगी थी। हवा में तपिश बढ़ गई थी। पीठ पर आग के थपेड़े महसूस होने लगे थे। उस पर गहरे रंग की पोशाक ने मेरी हालत बदतर कर दी थी। जाने क्यों हम इतनी देर रुके हुए थे? बूढ़े परेज ने टोपी दोबारा उतार ली। मैं तिरछा हो उसे ही देख रहा था, तभी दरबान मुझे उसके बारे में और बातें बताने लगा। मुझे याद है उसने बताया कि बूढ़ा परेज और मेरी माँ शाम के शीतल पहर में अकसर दूर-दूर तक सैर करने जाया करते थे। कभी-कभार चलते-चलते वे गाँव के छोर तक निकल जाते। पर हाँ, उनके साथ नर्स भी रहती।
मैंने इस देहाती इलाके, दूर क्षितिज और पहाड़ियों की ढलान पर सरु वृक्षों की लंबी कतारों, चटख हरे रंग से रंगी इस धरती और सूरज की रोशनी में नहाए एक अकेले मकान पर भरपूर नज़र डाली। मैंने जान लिया, माँ क्या महसूस करती होंगी? इन इलाक़ों में शाम का वक़्त सचमुच कितना उदास और आतुर कर देता होगा। अलस्सुबह के सूरज की इस चिलचिलाती धूप में, जब सब कुछ तपन की व्यग्रता में लुपलुपा रहा था, तो कहीं कुछ ऐसा था, जो इस साक्षात प्राकृतिक छटा के बीच भी अमानवीय और निराशाजनक था।
आख़िर हमने चलना शुरू किया, तभी मैंने देखा कि परेज हल्का-सा लंगड़ा कर चल रहा था। ज्यों-ज्यों अर्थी तेजी से आगे बढ़ने लगी, वह बूढ़ा पिछड़ता चला गया। मुझे वाक़ई ताज्जुब हुआ कि सूरज कितनी तेजी से आसमान पर चढ़ता जा रहा है। इसी पल मुझे सूझा कि कीड़े-मकोड़ों की गूंज और गर्म घास की सरसराहट काफ़ी देर से हवा में एक धधक पैदा कर रही है। मेरे चेहरे से बेहिसाब पसीना टपक रहा था। मेरे पास टोपी नहीं थी, इसलिए मैं रूमाल से ही चेहरे पर हवा करने लगा।
मैनेजर के आदमी ने पलटकर कुछ कहा, जो मैं समझ नहीं सका। इसी वक़्त उसने अपने सिर के क्राउन को भी रूमाल से पोंछा, जो उसने बाएँ हाथ में पकड़ रखा था। दाएँ हाथ से टोपी तिरछी की। मैंने जानना चाहा कि वह क्या कह रहा था, उसने ऊपर की ओर इशारा किया।
“आज भयंकर गर्मी है, है न?”
“हाँ,” मैं बोला।
कुछ देर बाद उसने पूछा: “वे आपकी माँ हैं, जिन्हें हम दफ़नाने जा रहे हैं? क्या उम्र थी उनकी?”
“वे बिल्कुल तंदुरुस्त थीं” मैं बोला, ‘‘दरअसल मैं ख़ुद भी उनकी सही उम्र के बारे में नहीं जानता था।’’
उसके बाद वह चुप हो गया, जब मैं मुड़ा तो देखा परेज तक़रीबन पचास गज पीछे लंगड़ाता चला आ रहा था। तेज़ चलने की वजह से हाथ में पकड़ी टोपी बुरी तरह हिल रही थी। मैंने वार्डन पर भी एक नज़र डाली, वह नपे-तुले क़दमों व संतुलित हाव-भाव के साथ चल रहा था, माथे पर पसीने की बूँदे चुहचुहा रही थीं, जो उसने पोंछी नहीं।
मुझे लगा, यह छोटी-सी शोभायात्रा कुछ ज़्यादा ही तेज़ चल रही है, जहाँ कहीं भी मैंने निगाह डाली, हर तरफ़ वही सूरज से नहाया देहाती इलाका दिखाई दिया। सूरज इस कदर चमकदार था कि मैं आँखें उठाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। चिलचिलाती गर्मी में हर क़दम के साथ पैर ज़मीं से धंस जाते और पीछे एक चमकदार काला निशान छोड़ देते। आगे कोचवान की चमकीली काली टोपी अर्थी के ऊपर रखे इसी तरह के चिपचिपे पदार्थ के लोंदे की तरह दिखती थी। यह एक अद्भुत स्वप्न-सा अहसास देता था-ऊपर नीली सफ़ेद चकाचौंध और चारों ओर यह स्याह कालापन; चमकदार काला ताबूत, लोगों की धुँधली, काली पोशाक और सड़क पर सुनहरे, काले गड्ढे और धुएँ के साथ वातावरण में घुली-मिली गर्म मकड़े और घोड़े की लीद की दुर्गंध? इस सब की वजह से और रात को न सोने से मेरी आँखें और ख़याल धुँधले पड़ते जा रहे थे।
मैंने दोबारा पीछे मुड़कर देखा, परेज बहुत पीछे छूट गया लगता था। इस तपती धुंध में तक़रीबन ओझल ही हो गया था। कुछ पल इसी उधेड़बुन में रहने के बाद मैंने यूँ ही अंदाज़ा लगाया कि वह सड़क छोड़ खेतों से आ रहा होगा। तभी मैंने देखा, आगे सड़क पर एक मोड़ था। ज़ाहिर है परेज ने, जो इस इलाक़े को बख़ूबी जानता था, छोटा रास्ता पकड़ लिया था। हम जैसे ही सड़क के मोड़ पर पहुँचे, वह हमारे साथ शामिल हो गया। पर कुछ देर बाद फिर पिछड़ने लगा, उसने फिर शार्ट कट लिया और फिर आ मिला। दरअसल अगले आधे घंटे तक ऐसा कई बार हुआ। फिर जल्द ही उसमें मेरी दिलचस्पी जाती रही; मेरा सिर फटा जा रहा था। मैं बमुश्किल ख़ुद को घसीट पा रहा था।
उसके बाद सब कुछ बड़ी हड़बड़ी, पर इतने विशुद्ध व यथार्थ ढंग से निपट गया कि मुझे कुछ याद नहीं। हाँ, इतना ज़रूर याद है कि जब हम गाँव की सरहद पर थे तो नर्स मुझसे कुछ बोली। उसकी आवाज़ से मैं बुरी तरह चौंक पड़ा; क्योंकि उसकी आवाज़ उसके चेहरे से क़तई मेल नहीं खाती थी। उसकी आवाज़ में संगीत और कंपन था। वह जो बोली, वह था: “अगर आप इतना धीरे चलेंगे तो लू लगने का डर है, पर तेज़ चलेंगे तो पसीना आएगा और चर्च की सर्द हवा से आपको ठंड पकड़ लेगी।” उसकी बात में दम था; नुकसान हर तरह से तय था।
शव-यात्रा की कुछ और स्मृतियाँ मेरे ज़ेहन में चस्पा हो गई हैं। मसलन उस बूढ़े परेज का चेहरा जो गाँव की सरहद पर ही आख़िरी बार हमसे आ मिला, उसकी आँखों से अनवरत बहते अश्रु जो थकान की वजह से थे या व्यथा से अथवा दोनों की वजह से, पर झुर्रियों के कारण नीचे लुढ़क नहीं पा रहे थे, आड़े-तिरछे होकर कान तक फैल गए थे और उस बूढ़े, थके चेहरे को एक मधुर चमक से भर दिया था।
मुझे याद है वह गिरजाघर, सड़कों से गुज़रते देहाती, कब्रों पर खिले लाल रंग के फूल, परेज पर बेहोशी का दौरा, चिथड़ों से बनी किसी गुड़िया की मानिंद उसका सिकुड़ जाना—माँ के ताबूत पर सुनहरी-भूरी मिट्टी का टप-टप करके गिरना, लोग अनगिनत लोग, आवाज़ें, कॉफ़ी-रेस्तरां के बाहर का इंतज़ार, रेल इंजन की गड़गड़ाहट, रोशनी से नहाई अल्जीयर्स की सड़कों पर क़दम रखते ही मेरा हर्ष मिश्रित रोमाँच और फिर कल्पना में ही सीधे बिस्तरे पर जाकर निढाल हो जाना, लगातार बारह घंटे बेहोशी भरी नींद! मुझे यह सब याद है।
maan ka aaj dehant ho gaya ya shayad kal hua ho; kah nahin sakta. ashram se aaye taar mein likha hai—“apaki maan chal basi, antim sanskar kal. gahri sahanubhuti”, isse kuch pata nahin chalta, ho sakta hai ye kal hua ho.
vriddhashram morengo mein hain; aljiyars se taqriban pachas meel door, do baje ki bas se main raat ghirne se pahle pahunch jaunga, phir raat vahan guzar sakta hun—arthi ke paas ratjage ki rasm ke liye. . . . phir kal shaam tak vapas, mainne apne malik se do din ki chhutti ki baat kar li hai; zahir hai aise halat mein wo mana nahin kar sakta tha. phir bhi laga manon ghusse mein hai. mainne baghair soche hi kah diya “sauri sar, aap jante hain, ismen mera koi qasur nahin hai. ”
baad mein laga, mujhe aisa kahne ki zarurat na thi, mafi mangne ki to koi vajah hi na thee; darasal use mujhse sahanubhuti dikhani chahiye thi. parson jab main kale kapDon mein daftar lautu to shayad wo aisa karega, abhi tak to khud mujhe hi nahin lag raha ki maan vaqii nahin rahi, shayad antyeshti ke baad yaqin ho jayega.
mainne do baje ki bas pakDi—chilchilati dupahri thi. hamesha ki tarah main seleste ke restaran mein khane ke liye utra. sabhi sneh se pesh aaye. seleste ne mujhse kaha, “maan jaisi koi amanat nahin” jab main chala to ve mujhe darvaze tak chhoDne aaye. main jaldbazi mein chala tha, isliye mujhe apne mitr emenyuel se uski kali tai aur matam ke vaqt bandhi jane vali kali patti mangakar lani paDi. kuch maah pahle hi uske chacha chal base the.
mainne qarib qarib bhaag kar bas pakDi. is bhagdauD, chilchilati dhoop aur gaisolin ki badbu ne shayad mujhe uninda kar diya tha. pure raste main sota raha, jab utha to dekha ek fauji par luDhka paDa tha. usne janna chaha ki kya main kisi lambe safar se aa raha hoon? mainne sirf gardan hilai, taki batachit aage na baDhe. main baten karne ke mooD mein qatii nahin tha.
gaanv se vriddhashram meel bhar door hai, main paidal hi chal paDa. vahan pahunchte hi mainne maan ko dekhne ki ichchha zahir ki, par darban ne pahle varDan se milne ke liye kaha. ve vyast the. mujhe kuch der intzaar karna paDa. us dauran darban mere saath gapshap karta raha; phir daftar le gaya, varDan thigna, bhure balon vala adami tha, apni gili nili ankhon se usne mujhe bharpur dekha. phir haath milaya aur mera haath itni der tak pakDe rakha ki main khasi uljhan mahsus karne laga. uske baad ek rajistar mein tahqiqat ki aur bola—
“madam meersalt teen baras pahle is ashram mein aai theen, unki apni koi amdani nahin thi aur puri tarah tum par ashrit theen. ”
mujhe laga wo mujhe doshi thahra raha ho aur main safai dene laga, par usne meri baat kate di.
“are bete, safai dene ki koi zarurat nahin. mainne rikarD dekha hai. usse zahir hai ki aap unki achchhi tarah dekhbhal karne ki sthiti mein nahin the. unhen pure vaqt dekhbhal ki zarurat thi aur tumhari tarah ki naukari mein navayuvkon ko bahut adhik vetan nahin milta. darasal, wo yahan kafi khush theen. ”
“haan sar; mujhe pura yaqin hai. ” main bola.
wo phir batane lagah “jante hain, yahan uske kai achchhe mitr ban ge the. sabhi uski umr ke hain, vaise bhi hamumr logon ke saath zindagi achchhi guzarti hai. tum umr mein chhote ho; isliye uske mitr to nahin ban sakte the. ”
ye vaqii sach tha, kyonki jab hum saath rahte the to maan mujhe niharti rahti, par hum shayad hi koi batachit karte. ashram ke apne shuruati dinon mein wo sakhub roya karti thi. par aisa kuch hi vaqt raha. uske baad yahan uska man lag gaya, ekaadh mahine baad to agar use ashram chhoDne ke liye kaha jata to wo yaqinan rone lagti, kyonki yahan se bichhuDne ka use dhakka lagta. isliye pichhle saal main shayad hi usse kabhi milne aaya. milne aana yani pura itvaar khapa dena. bas se yatra karne, tikat katvane aur aane jane mein do do ghante ganvane ki takliph, so alag.
varDan bolta hi chala gaya, par mainne khaas tavajjo nahin di. akhir wo bolah “mere khayal se ab tum apni maan ko dekhana chahoge?”
main javab diye baghair khaDa ho gaya, phir uske pichhe chal diya, jab hum siDhiyon se utarne lage to usne kaha—
“mainne unke shav ko yahan ke chhote shavgrih mein rakhva diya hai—taki dusre buDhe log dukhi na hon, aap samajh sakte hain na! yahan jab bhi kisi ki mrityu hoti hai to do chaar din ye sabhi adhir aur vichlit ho jate hain. zahir hai, isse hamare staaf ka kaam aur pareshani baDh jati hai. ”
hamne baramada paar kiya, jahan kai buDhe chhote chhote jhunD mein khaDe hokar batiya rahe the. hamare unke qarib pahunchte hi ve chup ho ge, jyon hi hum aage baDhe unki phusphusahat phir shuru ho gai. khusar phusar sun kar anayas mujhe pinjre mein band tuiya toton ki smriti ho aai. inki avazen zarur utni tikhi aur karkash nahin theen. ek chhoti, nichi bilDing ke pravesh dvaar ke bahar pahunchakar varDan ruk gaya.
shriman meersault, yahan main aapse vida leta hoon. yadi koi kaam ho to main apne daftar mein milunga. kal subah maan ka antim sanskar rakhna tay hua hai, isse tum apni maan ke tabut ke paas raat guzar sakoge aur yaqinan tum aisa karna chahoge. ek akhiri baat, apaki maan ke ek mitr se mujhe pata chala ki unki khvahish thi ki unhen charch ke riti rivajon ke mutabik dafnaya jaye. yoon to mainne sare intjaam kar liye hain, phir bhi tumhein batana munasib laga. ”
mainne uska shukriya ada kiya, jahan tak main maan ko janta tha, halanki wo nastik nahin thi, par usne jivan mein dharm vagairah ko kabhi zyada tarjih nahin di thi.
mainne shavgrih mein pravesh kiya, ye puti hui divaron aur khule roshandan vala saaf suthra chamakdar kamra tha. farnichar ke naam par vahan kuch kursiyan aur moDhe rakhe the. kamre ke bichobich do stulon par tabut ko rakha gaya tha. Dhakkan band tha, par penchon ko bina pura kase hi chhoD diya tha, jisse ve lakDi par ubhre hue the. ek arbi mahila jo shayad nars thi, arthi ke qarib baithi thi. usne nila kurta pahan rakha tha aur ek bhaDkila sa skaarf balon par baandh rakha tha, usi kshan mere pichhe hanphata hua darban aa pahuncha. zahir tha, wo bhagte hue aaya tha.
“hamne Dhakkan laga diya tha—par mujhe hidayat di gai hai, aapke aane par main pench pure khol doon, jisse aap unhen dekh saken. ”
wo kholne ke liye aage baDha par mainne use mana kar diya.
“kya aap nahin chahte ki. . . ?”
“nahin” main bola.
usne skru Draivar jeb mein rakh liya aur mujhe ghurne laga, tab mujhe laga ki mana nahin karna chahiye tha. main sharm mahsus karne laga, kuch palon tak mujhe ghurne ke baad usne puchha—’kyon nahin?’ par uske svar mein ulahna nahin thee; wo bas yoon hi janna chahta tha.
“darasal main kuch kah nahin sakta,” main bola.
wo apni safed munchhon ko ainthne laga, phir bina meri or dekhe namin se bola, “main samajh sakta hoon. ”
wo nili ankhon aur laal svasth galon vala bhala sa hansmukh vyakti tha, usne tabut ke nazdik mere liye ek kursi khiskai aur mere pichhe khud bhi baith gaya. nars uthi aur darvaze ki or chal di. jab wo jane lagi to darban mere kaan mein budabudaya, “bechari ko tyumar hai. ”
mainne use ghaur se dekha, tab pata chala ki ankhon ke theek niche sir par patti bandhi thi, jisse uska bahut thoDa sa chehra dikhai de raha tha. uske jate hi darban bhi khaDa ho gaya.
“ab main aapko akela chhoD deta hoon. ”
main nahin janta mainne koi harkat ki ya nahin, par jane ki bajaye wo kursi ke pichhe hi khaDa raha. peeth pichhe kisi ki maujudgi se main khasa ashaj mahsus kar raha tha. suraj Dhalne laga tha aur kamra khushanuma, snigdh roshni se bhar utha tha. neend se meri ankhen bojhil ho rahi thi. dekhe baghair mainne darban se yoon hi puchha ki wo kitne barson se is ashram mein hai? “paanch baras,” usne jhat se javab diya, manon mere saval ka hi intzaar kar raha ho.
bas wo phir shuru ho gaya aur batiyane laga, das baras pahle agar kisi ne use kaha hota ki wo apni zindagi morego ke vriddhashram mein guzarega to use yaqin na hota. wo chaunsath baras ka tha aur peris ka rahne vala tha.
“oh to tum yahan ke nahin ho?” main anayas bol paDa. tab mujhe yaad aaya ki varDan ke paas jane se pahle usne maan ke bare mein kuch kaha tha. usne kaha tha ki unhen dafnane ki rasm jaldi se puri karni hogi, kyonki is hisse mein khaskar maidani ilake mein khasi garmi rahti hai.
peris mein shav ko teen din, kabhi kabhar chaar din bhi rakha jata hai. usne ye bhi bataya ki usne ek lamba arsa peris mein guzara hai aur ve din uske jivan ke behtarin din the, jinhen wo kabhi bhula nahin sakta, “yahan sab kuch haDbaDi mein niptaya jata hai. aap apne aziz ki mrityu ko puri tarah svikar bhi nahin kar pate ki antim kriya karm ki oradhkel diye jate hain. ” isi kshan uski patni ne toka, “bas bhi karo” wo buDha thoDa sakapkakar kshama mangne laga. darasal wo jo kuch kah raha tha, wo mujhe achchha lag raha tha; mainne pahle in baton par ghaur nahin kiya tha.
phir wo batane laga ki kaise ek aam vasi ki tarah wo bhi is ashram mein aaya tha. tab wo kafi svasth aur tandurust tha, isliye jab darban ki jagah khali hui to usne ye naukari karne ki ichchha jatai.
jab mainne use kaha ki auron ki tarah wo bhi to yahan ka ek vasi hi hai, to use ye nagavar laga. wo ek ‘khaas’ pad par tha. mujhe dhyaan aaya ki halanki lagatar wo unhen “ve aur ye buDhe log” kahkar sambodhit kar raha tha, wo khud unse kam buDha na tha, phir bhi uski baat mein dam tha. ek darban ke roop mein uski ek haisiyat thi, dusron se uupar ek khaas tarah ka adhikar.
isi vaqt nars laut aai. raat bahut jald utar aai thi. achanak laga manon asman par andhera chha gaya hai. darban ne battiyan jala deen. roshni mein ankhen chudhiyane lagin.
usne salah di ki mujhe bhojanalay jakar bhojan kar lena chahiye, par mujhe bhookh na thi, usne kaufi lene ki peshkash ki. chunki mujhe kaufi pasand thi, mainne shukriya kah hami bhari aur chand hi minton mein wo tre lekar aaya. mainne kaufi pi, phir mujhe sigret ki talab hone lagi, par kya in halat mein sigret pina munasib hoga? maan ki arthi ke paas? darasal isse khaas farq nahin paDta, ye soch mainne darban ki or bhi ek sigret baDhai aur hum sigret pine lage. usne phir baten shuru kar deen, “jante hain, jald hi apaki maan ke mitr ayenge, aapke saath arthi ke paas ratjaga karne ke liye. jab bhi koi mar jata hai to hum sabhi isi tarah ratjaga karte hain. behtar hoga, main jakar kuch kursiyan aur kali kaufi ka jag bhar kar le auun. ”
safed divaron ki vajah se tez roshni ankhon ko bahut akhar rahi thi. mainne darban se ekaadh batti bujhane ke liye kaha—“aisa kuch nahin kar sakte, unhen aise lagaya gaya hai ki sabhi eksaath jalti hain aur eksaath bujhti hain. uske baad mainne roshni par dhyaan dena chhoD diya. wo bahar jakar kursiyan le aaya aur tabut ke charon or laga di, ek par usne kaufi ka jag aur das barah pyale rakh diye. phir theek mere samne tabut ke dusri taraf baith gaya. nars kamre ke dusre sire par thi. meri or uski peeth thi, main nahin janta, wo kya kar rahi thi, par uske haath jis tarah hil rahe the, usse mainne andaza lagaya ki wo kuch bun rahi thi. main ab itminan se tha, kaufi ne mere bhitar tazgi bhar di thi, khule darvaze se phulon ki khushbu aur shital hava bhitar aa rahi thi. main uninda hone laga.
kanon mein ajib si sarsarahat se main jaag paDa. kuch vaqt ankhen band thin—isliye roshni pahle se bhi tez lagne lagi. kahin koi chhaya ya ot na thi, isliye har cheez apni puri viratta ke saath ujagar thi. maan ke buDhe mitr aa chuke the. mainne gine, kul das the, koi avaz kiye baghair chupchap chundhiyati roshni mein jakar baith ge the. unke baithne se kisi kursi ke charmarane ki avaz tak nahin hui. jivan mein aaj tak mainne kisi ko is kadar saaf Dhang se nahin dekha; ek ek ang, haav bhaav, nain naqsh, libas kuch bhi chhipa na tha, phir bhi main unhen sun nahin pa raha tha. ven vaqii maujud hain, ye yaqin karna mushkil tha.
taqriban sabhi mahilaon ne epren pahan rakha tha, jiski Dori kamar par kaskar bandhi hui thi. isse unke pet aur bhi bahar ubhar aaye the. mainne ab tak kabhi ghaur nahin kiya tha ki aksar buDhi mahilaon ke pet kafi baDe hote hain. iske viprit sabhi buDhe purush duble patle the aur chhaDi liye hue the.
unke chehron ki jis baat ne sabse adhik dhyaan khincha, wo thi unki ankhen, jo bilkul nadarad theen jhurriyon ke jamghat ke beech bas mahin, dhundhli si, chamak bhar thi.
baithte vaqt sabhi ne mujhe dekha aur ajib Dhang se sir hilaya. unke honth dant rahit masuDon ke beech chuski ki mudra mein minche hue the. main tay nahin kar pa raha tha ki ve abhivadan kar rahe hain ya kuch kahna chahte hain athva ye unke buDhape ki vajah se hai. baad mein mainne maan liya ki shayad kisi rivaj ke mutabik ve abhivadan kar rahe hain. darban ke ird gird baithe sabhi buDhon ko rahasyamay Dhang se mujhe dekhana aur munDi hilana vaqii ajib lag raha tha. kshan bhar laga, manon ve mujhe katghare mein khaDa karne aaye hon.
kuch der baad ek aurat rone lagi, wo dusri pankti mein thi aur uske aage ek aurat baithi thi, isliye main uska chehra nahin dekh pa raha tha. thoDi thoDi der mein uska gala rundh jata aur lagta wo kabhi rona band nahin karegi. koi aur us par dhyaan nahin de raha tha, sabhi shaant baithe the apni apni kursiyon mein dhanse ve kabhi tabut ko to kabhi apni ghaDi ya kisi dusri vastu ko ghurne lagte aur phir unki najren vahin tik jatin. wo aurat ab bhi siskiyan bhar rahi thi. mujhe vaqii achraj ho raha tha, kyonki main nahin janta tha ki wo kaun thee? main chahta tha, wo rona band kar de, par usse kuch kahne ki himmat na thi, kuch der baad darban uski or jhuka aur kaan mein kuch budabudaya. usne mahz sir hilaya. dhime se kuch kaha, jo main sun na saka aur phir usi lay mein subakne lagi.
darban utha aur kursi mere paas khiskakar baith gaya, kuch der khamosh raha, phir meri or dekhe baghair samjhane laga, “vah tumhari maan ke bahut qarib thi, wo kahti hai, is duniya mein maan ke sivaye uska koi nahin, wo ab akeli rah gai hai. ”
main bhala kya kahta, kuch der khamoshi chhai rahi. us mahila ki siskiyan ab kuch kam hone lagin. phir naak saaf karne ke baad kuch der wo subakti rahi, phir shaant ho gai.
halanki meri neend uD chuki thi, par main behad thakan mahsus kar raha tha. tangen buri tarah dukh rahi theen. mahaul mein ek ajib si avaz thee; jo kabhi kabhar sunai de jati, main shuru mein khasi uljhan mein tha, par ghaur se sunne par samajh gaya ki mazra kya tha? darasal buDhe apne galon ke andar chuski le rahe the, jisse suDsuD ko ajib si rahasyamay avaz nikal rahi thi. ve apne khayalon mein is kadar tallin the ki unhen kisi cheez ki sudh nahin thi. ekbargi mujhe laga ki unke beech rakhi ye bejan deh koi mayne nahin rakhti, par yahan main shayad galat tha.
hum sabhi ne kaufi pi jo darban laya tha. uske baad mujhe kuch zyada yaad nahin, raat kisi tarah guzar gai; mujhe bas wo ek pal yaad hai; jab achanak mainne ankhen kholi to dekha ek buDhe ko chhoD sabhi apni kursiyon par jhuke uungh rahe the, apni chhaDi par donon haath bandhe thoDi tikaye wo buDha mujhe ghoor raha tha, manon mere jagne ka intzaar kar raha ho. main phir so gaya, thoDi der baad hi pairon mein beintha dard ki vajah se main jaag paDa.
roshandan mein bhor ki lali chamakne lagi thi, palbhar baad hi ek buDha jagkar khansane laga, wo baDe se rumal mein thukta aur har baar ubkai ki si avaz aati, avaz sun kar sab jaag ge the. darban ne unhen bataya ki chalne ka vaqt ho gaya hai. ve eksaath uth khaDe hue, is lambi raat ke baad unke chehre murjha ge the. mujhe vaqii achraj hua, jab harek ne mere saath haath milaya, manon saath guzari ek raat se hi hamne aapas mein ek rishta qayam kar liya ho; halanki ek dusre se hamne ek lafz nahin bola tha.
main kafi bujh sa gaya tha. darban mujhe apne kamre mein le gaya. mainne khud ko theek thaak kiya. usne mujhe thoDi aur safed kaufi di, jisse main tarotaza mahsus karne laga. jab main bahar nikla, suraj chaDh chuka tha aur morengo tatha samudr ke beech pahaDiyon ke uupar asman lalai liye chitkabra ho raha tha. subah ki bayar chal rahi thi, jismen khushanuma namkin mahak thi, jo ek khushagvar din ka yaqin dila rahi thi. ek lambe arse se main dehat nahin aaya tha. man hi man sochne laga ki gar maan ka masla nahin hota to kitni baDhiya sair ho sakti thi.
main angan mein ek peD ke niche intzaar karne laga. mitti ki shital gandh mere bhitar bharne lagi. mainne mahsus kiya ki ab mujhe neend nahin aa rahi thi. phir main daftar ke dusre logon ke bare mein sochne laga. is vaqt ve log daftar jane ki taiyari kar rahe honge. din ka ye vaqt mujhe sabse bekar lagta. taqriban das minat main inhin khayalon mein gum raha. achanak imarat ke bhitar se ghanti ki avaz se meri tandra tuti. khiDakiyon ke pichhe kuch halchal dikhi; phir sab khamosh ho gaya. suraj chaDh aaya tha. talvon mein tapan mahsus hone lagi thi. darban ne bataya ki varDan mujhse milna chahte hain. main unke daftar gaya. unhonne kuch kaghzaton par dastkhat kervaye. wo kali poshak mein tha. risivar uthakar meri or dekhne
laga.
“antyeshti ka prbandh karne vale kuch der pahle yahan aaye the. ve log vahan jakar tabut ke skru kas denge. kya main unhen rukne ke liye kahun, taki tum apni maan ke antim darshan kar sakoge. ”
phir usne bataya ki wo bhi saath chal raha hai. mainne uska shukriya ada kiya. Dyuti par jo nars hai uske alava keval hum do hi antim sanskar mein shamil honge. yahan ka kayda hai ki ashramvasiyon ko antyeshti mein shamil nahin hone diya jata. halanki raat mein tabut ke paas baithne se kisi ko nahin roka jata.
“aisa unki bhalai ke liye hi kiya jata hai,” usne aspasht kiya, “taki unhen taklif na ho, par is martaba mainne tumhari maan ke ek purane mitr ko saath aane ki ijazat de di hai. uska naam thaumas parej hai,” varDan muskraya, “asal mein ye ek chhoti si marmik kahani hai. tumhari maan aur uske beech gahri atmiyata thi. yahan tak ki dusre sabhi buDhe parej ko aksar chiDhaya karte ki wo uski mangetar hai, ve aksar usse puchhte hain, tum usse kab byaah kar rahe ho? wo hansakar taal deta, zahir hai ki maan ki mrityu se use gahra dhakka pahuncha hai, isliye antyeshti mein shamil harene se main use inkaar nahin kar saka, halanki Dauktar ki salah par use pichhli raat arthi ke paas baithne se rok diya tha. ”
kuch der hum yoon hi khamosh baithe rahe. phir varDan khiDki ke paas jakar khaDa ho gaya, achanak bola—
“are marengo ke padari vaqt ke kafi paband hain. ”
unhonne mujhe chetaya tha ki gaanv mein sthit girjaghar tak paidal pahunchne mein ek DeDh ghanta lagega. hum siDhiyan utarne lage.
samadhi sthal ke dvaar par hi padari intzaar kar rahe the. unke saath do vardidhari parichar bhi the. ek ke haath mein dhuppatr tha. padari jhuk kar chandi ki zanjir ki lambai ko theek kar rahe the. hamein dekhte hi ve sidhe ho ge aur mere saath kuch baten ki. mujhe ve beta kah kar sambodhit kar rahe the, phir hamein ve samadhi sthal ki or le jane lage.
nimish bhar mein mainne dekh liya ki tabut ke pichhe kali vardi pahne chaar vyakti khaDe the. isi kshan varDan ne bataya ki arthi pahunch chuki hai. padari ne ibadat shuru kar di. kale kapDe ki patti pakDe chaar vyakti tabut ke qarib pahunche, jabki padari, laDke aur main katar mein chalne lage. ek stri, jise mainne pahle nahin dekha tha, darvaze par khaDi thi. varDan ne use mera parichay diya. main uska naam to nahin samajh saka, par jaan liya ki wo ashram ki nars hai. parichay sun usne jhuk kar abhivadan kiya, par uske lambe duble patle chehre par halki si bhi muskan nahin thi. hum ek galiyare se hote hue mukhya dvaar par aaye, jahan arthi ko rakha gaya tha. ayatakar, chamkile, kale rang ke tabut ko dekh mujhe achanak daftron mein rakhe kale pen stainD ki smriti ho aai.
arthi ke paas anokhi saj dhaj mein ek thigna adami khaDa tha. main samajh gaya ki uska kaam antyeshti ke vaqt puri vyavastha ki dekh rekh karna hai—bilkul mastar auph serimni ki tarah. uske qarib sankoch se bhara, jhempta mistar parej khaDa tha—man ka khaas mitr. usne halki par chauDe kinarevali golakar topi pahan rakh thi. jab dvaar se tabut le jaya jane laga to usne furti se topi ko uupar uthaya. paint juton se kafi uupar thi aur uunche kaularvali safed shart par bandhi kali tai zarurat se zyada chhoti thi. uski moti chauDi
naak ke niche honth laraj rahe the. par jis cheez ne mera sabse adhik dhyaan khincha, ve the uske kaan. lalai liye penDulamanuma uske kaan jo pile se galon par silband karne ki laakh ke laal gol chhinte ki manind dikh rahe the, manon reshmi safed balon ke beech unhen gaaD diya ho.
prbandhkarta dvara har kaam ke liye rakhe ek naukar ne hamein apni apni jaghon par khaDa kiya. arthi ke aage padari, arthi ke donon or kale kapDe pahne chaar vyakti. uske pichhe varDan aur main tatha hamare pichhe parej va nars.
asman par suraj ki jvala dahakne lagi thi. hava mein tapish baDh gai thi. peeth par aag ke thapeDe mahsus hone lage the. us par gahre rang ki poshak ne meri haalat badtar kar di thi. jane kyon hum itni der ruke hue the? buDhe parej ne topi dobara utaar li. main tirchha ho use hi dekh raha tha, tabhi darban mujhe uske bare mein aur baten batane laga. mujhe yaad hai usne bataya ki buDha parej aur meri maan shaam ke shital pahar mein aksar door door tak sair karne jaya karte the. kabhi kabhar chalte chalte ve gaanv ke chhor tak nikal jate. par haan, unke saath nars bhi rahti.
mainne is dehati ilake, door kshitij aur pahaDiyon ki Dhalan par saru vrikshon ki lambi kataron, chatakh hare rang se rangi is dharti aur suraj ki roshni mein nahaye ek akele makan par bharpur nazar Dali. mainne jaan liya, maan kya mahsus karti hongi? in ilaqon mein shaam ka vaqt sachmuch kitna udaas aur aatur kar deta hoga. alassubah ke suraj ki is chilchilati dhoop mein, jab sab kuch tapan ki vyagrata mein lupalupa raha tha, to kahin kuch aisa tha, jo is sakshat prakritik chhata ke beech bhi amanaviy aur nirashajnak tha.
akhir hamne chalna shuru kiya, tabhi mainne dekha ki parej halka sa langDa kar chal raha tha. jyon jyon arthi teji se aage baDhne lagi, wo buDha pichhaDta chala gaya. mujhe vaqii tajjub hua ki suraj kitni teji se asman par chaDhta ja raha hai. isi pal mujhe sujha ki kiDe makoDon ki goonj aur garm ghaas ki sarsarahat kafi der se hava mein ek dhadhak paida kar rahi hai. mere chehre se behisab pasina tapak raha tha. mere paas topi nahin thi, isliye main rumal se hi chehre par hava karne laga.
mainnejar ke adami ne palatkar kuch kaha, jo main samajh nahin saka. isi vaqt usne apne sir ke kraun ko bhi rumal se ponchha, jo usne bayen haath mein pakaD rakha tha. dahine haath se topi tirchhi ki. mainne janna chaha ki wo kya kah raha tha, usne uupar ki or ishara kiya.
aaj bhayankar garmi hai, hai na?”
“haan,” main bola.
kuch der baad usne puchhah “ve apaki maan hain, jinhen hum dafnane ja rahe hain? kya umr thi unki?”
“ve bilkul tandurust theen” main bola, ‘darasal main khud bhi unki sahi umr ke bare mein nahin janta tha. ’
uske baad wo chup ho gaya, jab main muDa to dekha parej taqriban pachas gaj pichhe langData chala aa raha tha. tez chalne ki vajah se haath mein pakDi topi buri tarah hil rahi thi. mainne varDan par bhi ek nazar Dali, wo nape tule qadmon va santulit haav bhaav ke saath chal raha tha, mathe par pasine ki bunde chuhchuha rahi theen, jo usne ponchhi nahin.
mujhe laga, ye chhoti si shobhayatra kuch zyada hi tez chal rahi hai, jahan kahin bhi mainne nigah Dali, har taraf vahi suraj se nahaya dehati ilaka dikhai diya. suraj is kadar chamakdar tha ki main ankhen uthane ki himmat nahin kar pa raha tha. chilchilati garmi mein har qadam ke saath pair jamin se dhans jate aur pichhe ek chamakdar kala nishan chhoD dete. aage kochavan ki chamkili kali topi arthi ke uupar rakhe isi tarah ke chipachipe padarth ke londe ki tarah dikhti thi. ye ek adbhut svapn sa ahsas deta tha uupar nili safed chakachaundh aur charon or ye syaah kalapan; chamakdar kala tabut, logon ki dhundhati, kali poshak aur saDak par sunahre, kale gaDDhe aur dhuen ke saath vatavran mein dhuli mili garm makDe aur ghoDe ki leed ki durgandh? is sab ki vajah se aur raat ko na sone se meri ankhen aur khayal dhundhale paDte ja rahe the.
mainne dobara pichhe muDkar dekha, parej bahut pichhe chhoot gaya lagta tha. is tapti dhundh mein taqriban ojhal hi ho gaya tha. kuch pal isi udheDbun mein rahne ke baad mainne yoon hi andaza lagaya ki wo saDak chhoD kheton se aa raha hoga. tabhi mainne dekha, aage saDak par ek moD tha. zahir hai parej ne, jo is ilaqe ko bakhubi janta tha, chhota rasta pakaD liya tha. hum jaise hi saDak ke moD par pahunche, wo hamare saath shamil ho gaya. par kuch der baad phir pichhaDne laga, usne phir shaart kat liya aur phir aa mila. darasal agle aadhe ghante tak aisa kai baar hua. phir jald hi usmen meri dilchaspi jati rahi; mera sir phata ja raha tha. main bamushkil khud ko ghasit pa raha tha.
uske baad sab kuch baDi haDbaDi, par itne vishuddh va yatharth Dhang se nipat gaya ki mujhe kuch yaad nahin. haan, itna zarur yaad hai ki jab hum gaanv ki sarhad par the to nars mujhse kuch boli. uski avaz se main buri tarah chaunk paDa; kyonki uski avaz uske chehre se qatii mel nahin khati thi. uski avaz mein sangit aur kampan tha. wo jo boli, wo thaah “agar aap itna dhire chalenge to lu lagne ka Dar hai, par tez chalenge to pasina ayega aur charch ki sard hava se aapko thanD pakaD legi. ” uski baat mein dam tha; nuksan har tarah se tay tha.
shav yatra ki kuch aur smritiyan mere zehn mein chaspa ho gai hain. masalan us buDhe parej ka chehra jo gaanv ki sarhad par hi akhiri baar hamse aa mila, uski ankhon se anavrat bahte ashru jo thakan ki vajah se the ya vyatha se athva donon ki vajah se, par jhurriyon ke karan niche luDhak nahin pa rahe the, aaDe tirchhe hokar kaan tak phail ge the aur us buDhe, thake chehre ko ek madhur chamak se bhar diya tha.
mujhe yaad hai wo girjaghar, saDkon se guzarte dehati, kabron par khile laal rang ke phool, parej par behoshi ka daura, chithDon se bani kisi guDiya ki manind uska sikuD jana maan ke tabut par sunahri bhuri mitti ka tap tap karke girna, log anaginat log, avazen, kaufi restaran ke bahar ka intzaar, rel injan ki gaDgaDahat, roshni se nahai aljiyars ki saDkon par qadam rakhte hi mera harsh mishrit romanch aur phir kalpana mein hi sidhe bistare par jakar niDhal ho jana, lagatar barah ghante behoshi bhari neend! mujhe ye sab yaad hai.
maan ka aaj dehant ho gaya ya shayad kal hua ho; kah nahin sakta. ashram se aaye taar mein likha hai—“apaki maan chal basi, antim sanskar kal. gahri sahanubhuti”, isse kuch pata nahin chalta, ho sakta hai ye kal hua ho.
vriddhashram morengo mein hain; aljiyars se taqriban pachas meel door, do baje ki bas se main raat ghirne se pahle pahunch jaunga, phir raat vahan guzar sakta hun—arthi ke paas ratjage ki rasm ke liye. . . . phir kal shaam tak vapas, mainne apne malik se do din ki chhutti ki baat kar li hai; zahir hai aise halat mein wo mana nahin kar sakta tha. phir bhi laga manon ghusse mein hai. mainne baghair soche hi kah diya “sauri sar, aap jante hain, ismen mera koi qasur nahin hai. ”
baad mein laga, mujhe aisa kahne ki zarurat na thi, mafi mangne ki to koi vajah hi na thee; darasal use mujhse sahanubhuti dikhani chahiye thi. parson jab main kale kapDon mein daftar lautu to shayad wo aisa karega, abhi tak to khud mujhe hi nahin lag raha ki maan vaqii nahin rahi, shayad antyeshti ke baad yaqin ho jayega.
mainne do baje ki bas pakDi—chilchilati dupahri thi. hamesha ki tarah main seleste ke restaran mein khane ke liye utra. sabhi sneh se pesh aaye. seleste ne mujhse kaha, “maan jaisi koi amanat nahin” jab main chala to ve mujhe darvaze tak chhoDne aaye. main jaldbazi mein chala tha, isliye mujhe apne mitr emenyuel se uski kali tai aur matam ke vaqt bandhi jane vali kali patti mangakar lani paDi. kuch maah pahle hi uske chacha chal base the.
mainne qarib qarib bhaag kar bas pakDi. is bhagdauD, chilchilati dhoop aur gaisolin ki badbu ne shayad mujhe uninda kar diya tha. pure raste main sota raha, jab utha to dekha ek fauji par luDhka paDa tha. usne janna chaha ki kya main kisi lambe safar se aa raha hoon? mainne sirf gardan hilai, taki batachit aage na baDhe. main baten karne ke mooD mein qatii nahin tha.
gaanv se vriddhashram meel bhar door hai, main paidal hi chal paDa. vahan pahunchte hi mainne maan ko dekhne ki ichchha zahir ki, par darban ne pahle varDan se milne ke liye kaha. ve vyast the. mujhe kuch der intzaar karna paDa. us dauran darban mere saath gapshap karta raha; phir daftar le gaya, varDan thigna, bhure balon vala adami tha, apni gili nili ankhon se usne mujhe bharpur dekha. phir haath milaya aur mera haath itni der tak pakDe rakha ki main khasi uljhan mahsus karne laga. uske baad ek rajistar mein tahqiqat ki aur bola—
“madam meersalt teen baras pahle is ashram mein aai theen, unki apni koi amdani nahin thi aur puri tarah tum par ashrit theen. ”
mujhe laga wo mujhe doshi thahra raha ho aur main safai dene laga, par usne meri baat kate di.
“are bete, safai dene ki koi zarurat nahin. mainne rikarD dekha hai. usse zahir hai ki aap unki achchhi tarah dekhbhal karne ki sthiti mein nahin the. unhen pure vaqt dekhbhal ki zarurat thi aur tumhari tarah ki naukari mein navayuvkon ko bahut adhik vetan nahin milta. darasal, wo yahan kafi khush theen. ”
“haan sar; mujhe pura yaqin hai. ” main bola.
wo phir batane lagah “jante hain, yahan uske kai achchhe mitr ban ge the. sabhi uski umr ke hain, vaise bhi hamumr logon ke saath zindagi achchhi guzarti hai. tum umr mein chhote ho; isliye uske mitr to nahin ban sakte the. ”
ye vaqii sach tha, kyonki jab hum saath rahte the to maan mujhe niharti rahti, par hum shayad hi koi batachit karte. ashram ke apne shuruati dinon mein wo sakhub roya karti thi. par aisa kuch hi vaqt raha. uske baad yahan uska man lag gaya, ekaadh mahine baad to agar use ashram chhoDne ke liye kaha jata to wo yaqinan rone lagti, kyonki yahan se bichhuDne ka use dhakka lagta. isliye pichhle saal main shayad hi usse kabhi milne aaya. milne aana yani pura itvaar khapa dena. bas se yatra karne, tikat katvane aur aane jane mein do do ghante ganvane ki takliph, so alag.
varDan bolta hi chala gaya, par mainne khaas tavajjo nahin di. akhir wo bolah “mere khayal se ab tum apni maan ko dekhana chahoge?”
main javab diye baghair khaDa ho gaya, phir uske pichhe chal diya, jab hum siDhiyon se utarne lage to usne kaha—
“mainne unke shav ko yahan ke chhote shavgrih mein rakhva diya hai—taki dusre buDhe log dukhi na hon, aap samajh sakte hain na! yahan jab bhi kisi ki mrityu hoti hai to do chaar din ye sabhi adhir aur vichlit ho jate hain. zahir hai, isse hamare staaf ka kaam aur pareshani baDh jati hai. ”
hamne baramada paar kiya, jahan kai buDhe chhote chhote jhunD mein khaDe hokar batiya rahe the. hamare unke qarib pahunchte hi ve chup ho ge, jyon hi hum aage baDhe unki phusphusahat phir shuru ho gai. khusar phusar sun kar anayas mujhe pinjre mein band tuiya toton ki smriti ho aai. inki avazen zarur utni tikhi aur karkash nahin theen. ek chhoti, nichi bilDing ke pravesh dvaar ke bahar pahunchakar varDan ruk gaya.
shriman meersault, yahan main aapse vida leta hoon. yadi koi kaam ho to main apne daftar mein milunga. kal subah maan ka antim sanskar rakhna tay hua hai, isse tum apni maan ke tabut ke paas raat guzar sakoge aur yaqinan tum aisa karna chahoge. ek akhiri baat, apaki maan ke ek mitr se mujhe pata chala ki unki khvahish thi ki unhen charch ke riti rivajon ke mutabik dafnaya jaye. yoon to mainne sare intjaam kar liye hain, phir bhi tumhein batana munasib laga. ”
mainne uska shukriya ada kiya, jahan tak main maan ko janta tha, halanki wo nastik nahin thi, par usne jivan mein dharm vagairah ko kabhi zyada tarjih nahin di thi.
mainne shavgrih mein pravesh kiya, ye puti hui divaron aur khule roshandan vala saaf suthra chamakdar kamra tha. farnichar ke naam par vahan kuch kursiyan aur moDhe rakhe the. kamre ke bichobich do stulon par tabut ko rakha gaya tha. Dhakkan band tha, par penchon ko bina pura kase hi chhoD diya tha, jisse ve lakDi par ubhre hue the. ek arbi mahila jo shayad nars thi, arthi ke qarib baithi thi. usne nila kurta pahan rakha tha aur ek bhaDkila sa skaarf balon par baandh rakha tha, usi kshan mere pichhe hanphata hua darban aa pahuncha. zahir tha, wo bhagte hue aaya tha.
“hamne Dhakkan laga diya tha—par mujhe hidayat di gai hai, aapke aane par main pench pure khol doon, jisse aap unhen dekh saken. ”
wo kholne ke liye aage baDha par mainne use mana kar diya.
“kya aap nahin chahte ki. . . ?”
“nahin” main bola.
usne skru Draivar jeb mein rakh liya aur mujhe ghurne laga, tab mujhe laga ki mana nahin karna chahiye tha. main sharm mahsus karne laga, kuch palon tak mujhe ghurne ke baad usne puchha—’kyon nahin?’ par uske svar mein ulahna nahin thee; wo bas yoon hi janna chahta tha.
“darasal main kuch kah nahin sakta,” main bola.
wo apni safed munchhon ko ainthne laga, phir bina meri or dekhe namin se bola, “main samajh sakta hoon. ”
wo nili ankhon aur laal svasth galon vala bhala sa hansmukh vyakti tha, usne tabut ke nazdik mere liye ek kursi khiskai aur mere pichhe khud bhi baith gaya. nars uthi aur darvaze ki or chal di. jab wo jane lagi to darban mere kaan mein budabudaya, “bechari ko tyumar hai. ”
mainne use ghaur se dekha, tab pata chala ki ankhon ke theek niche sir par patti bandhi thi, jisse uska bahut thoDa sa chehra dikhai de raha tha. uske jate hi darban bhi khaDa ho gaya.
“ab main aapko akela chhoD deta hoon. ”
main nahin janta mainne koi harkat ki ya nahin, par jane ki bajaye wo kursi ke pichhe hi khaDa raha. peeth pichhe kisi ki maujudgi se main khasa ashaj mahsus kar raha tha. suraj Dhalne laga tha aur kamra khushanuma, snigdh roshni se bhar utha tha. neend se meri ankhen bojhil ho rahi thi. dekhe baghair mainne darban se yoon hi puchha ki wo kitne barson se is ashram mein hai? “paanch baras,” usne jhat se javab diya, manon mere saval ka hi intzaar kar raha ho.
bas wo phir shuru ho gaya aur batiyane laga, das baras pahle agar kisi ne use kaha hota ki wo apni zindagi morego ke vriddhashram mein guzarega to use yaqin na hota. wo chaunsath baras ka tha aur peris ka rahne vala tha.
“oh to tum yahan ke nahin ho?” main anayas bol paDa. tab mujhe yaad aaya ki varDan ke paas jane se pahle usne maan ke bare mein kuch kaha tha. usne kaha tha ki unhen dafnane ki rasm jaldi se puri karni hogi, kyonki is hisse mein khaskar maidani ilake mein khasi garmi rahti hai.
peris mein shav ko teen din, kabhi kabhar chaar din bhi rakha jata hai. usne ye bhi bataya ki usne ek lamba arsa peris mein guzara hai aur ve din uske jivan ke behtarin din the, jinhen wo kabhi bhula nahin sakta, “yahan sab kuch haDbaDi mein niptaya jata hai. aap apne aziz ki mrityu ko puri tarah svikar bhi nahin kar pate ki antim kriya karm ki oradhkel diye jate hain. ” isi kshan uski patni ne toka, “bas bhi karo” wo buDha thoDa sakapkakar kshama mangne laga. darasal wo jo kuch kah raha tha, wo mujhe achchha lag raha tha; mainne pahle in baton par ghaur nahin kiya tha.
phir wo batane laga ki kaise ek aam vasi ki tarah wo bhi is ashram mein aaya tha. tab wo kafi svasth aur tandurust tha, isliye jab darban ki jagah khali hui to usne ye naukari karne ki ichchha jatai.
jab mainne use kaha ki auron ki tarah wo bhi to yahan ka ek vasi hi hai, to use ye nagavar laga. wo ek ‘khaas’ pad par tha. mujhe dhyaan aaya ki halanki lagatar wo unhen “ve aur ye buDhe log” kahkar sambodhit kar raha tha, wo khud unse kam buDha na tha, phir bhi uski baat mein dam tha. ek darban ke roop mein uski ek haisiyat thi, dusron se uupar ek khaas tarah ka adhikar.
isi vaqt nars laut aai. raat bahut jald utar aai thi. achanak laga manon asman par andhera chha gaya hai. darban ne battiyan jala deen. roshni mein ankhen chudhiyane lagin.
usne salah di ki mujhe bhojanalay jakar bhojan kar lena chahiye, par mujhe bhookh na thi, usne kaufi lene ki peshkash ki. chunki mujhe kaufi pasand thi, mainne shukriya kah hami bhari aur chand hi minton mein wo tre lekar aaya. mainne kaufi pi, phir mujhe sigret ki talab hone lagi, par kya in halat mein sigret pina munasib hoga? maan ki arthi ke paas? darasal isse khaas farq nahin paDta, ye soch mainne darban ki or bhi ek sigret baDhai aur hum sigret pine lage. usne phir baten shuru kar deen, “jante hain, jald hi apaki maan ke mitr ayenge, aapke saath arthi ke paas ratjaga karne ke liye. jab bhi koi mar jata hai to hum sabhi isi tarah ratjaga karte hain. behtar hoga, main jakar kuch kursiyan aur kali kaufi ka jag bhar kar le auun. ”
safed divaron ki vajah se tez roshni ankhon ko bahut akhar rahi thi. mainne darban se ekaadh batti bujhane ke liye kaha—“aisa kuch nahin kar sakte, unhen aise lagaya gaya hai ki sabhi eksaath jalti hain aur eksaath bujhti hain. uske baad mainne roshni par dhyaan dena chhoD diya. wo bahar jakar kursiyan le aaya aur tabut ke charon or laga di, ek par usne kaufi ka jag aur das barah pyale rakh diye. phir theek mere samne tabut ke dusri taraf baith gaya. nars kamre ke dusre sire par thi. meri or uski peeth thi, main nahin janta, wo kya kar rahi thi, par uske haath jis tarah hil rahe the, usse mainne andaza lagaya ki wo kuch bun rahi thi. main ab itminan se tha, kaufi ne mere bhitar tazgi bhar di thi, khule darvaze se phulon ki khushbu aur shital hava bhitar aa rahi thi. main uninda hone laga.
kanon mein ajib si sarsarahat se main jaag paDa. kuch vaqt ankhen band thin—isliye roshni pahle se bhi tez lagne lagi. kahin koi chhaya ya ot na thi, isliye har cheez apni puri viratta ke saath ujagar thi. maan ke buDhe mitr aa chuke the. mainne gine, kul das the, koi avaz kiye baghair chupchap chundhiyati roshni mein jakar baith ge the. unke baithne se kisi kursi ke charmarane ki avaz tak nahin hui. jivan mein aaj tak mainne kisi ko is kadar saaf Dhang se nahin dekha; ek ek ang, haav bhaav, nain naqsh, libas kuch bhi chhipa na tha, phir bhi main unhen sun nahin pa raha tha. ven vaqii maujud hain, ye yaqin karna mushkil tha.
taqriban sabhi mahilaon ne epren pahan rakha tha, jiski Dori kamar par kaskar bandhi hui thi. isse unke pet aur bhi bahar ubhar aaye the. mainne ab tak kabhi ghaur nahin kiya tha ki aksar buDhi mahilaon ke pet kafi baDe hote hain. iske viprit sabhi buDhe purush duble patle the aur chhaDi liye hue the.
unke chehron ki jis baat ne sabse adhik dhyaan khincha, wo thi unki ankhen, jo bilkul nadarad theen jhurriyon ke jamghat ke beech bas mahin, dhundhli si, chamak bhar thi.
baithte vaqt sabhi ne mujhe dekha aur ajib Dhang se sir hilaya. unke honth dant rahit masuDon ke beech chuski ki mudra mein minche hue the. main tay nahin kar pa raha tha ki ve abhivadan kar rahe hain ya kuch kahna chahte hain athva ye unke buDhape ki vajah se hai. baad mein mainne maan liya ki shayad kisi rivaj ke mutabik ve abhivadan kar rahe hain. darban ke ird gird baithe sabhi buDhon ko rahasyamay Dhang se mujhe dekhana aur munDi hilana vaqii ajib lag raha tha. kshan bhar laga, manon ve mujhe katghare mein khaDa karne aaye hon.
kuch der baad ek aurat rone lagi, wo dusri pankti mein thi aur uske aage ek aurat baithi thi, isliye main uska chehra nahin dekh pa raha tha. thoDi thoDi der mein uska gala rundh jata aur lagta wo kabhi rona band nahin karegi. koi aur us par dhyaan nahin de raha tha, sabhi shaant baithe the apni apni kursiyon mein dhanse ve kabhi tabut ko to kabhi apni ghaDi ya kisi dusri vastu ko ghurne lagte aur phir unki najren vahin tik jatin. wo aurat ab bhi siskiyan bhar rahi thi. mujhe vaqii achraj ho raha tha, kyonki main nahin janta tha ki wo kaun thee? main chahta tha, wo rona band kar de, par usse kuch kahne ki himmat na thi, kuch der baad darban uski or jhuka aur kaan mein kuch budabudaya. usne mahz sir hilaya. dhime se kuch kaha, jo main sun na saka aur phir usi lay mein subakne lagi.
darban utha aur kursi mere paas khiskakar baith gaya, kuch der khamosh raha, phir meri or dekhe baghair samjhane laga, “vah tumhari maan ke bahut qarib thi, wo kahti hai, is duniya mein maan ke sivaye uska koi nahin, wo ab akeli rah gai hai. ”
main bhala kya kahta, kuch der khamoshi chhai rahi. us mahila ki siskiyan ab kuch kam hone lagin. phir naak saaf karne ke baad kuch der wo subakti rahi, phir shaant ho gai.
halanki meri neend uD chuki thi, par main behad thakan mahsus kar raha tha. tangen buri tarah dukh rahi theen. mahaul mein ek ajib si avaz thee; jo kabhi kabhar sunai de jati, main shuru mein khasi uljhan mein tha, par ghaur se sunne par samajh gaya ki mazra kya tha? darasal buDhe apne galon ke andar chuski le rahe the, jisse suDsuD ko ajib si rahasyamay avaz nikal rahi thi. ve apne khayalon mein is kadar tallin the ki unhen kisi cheez ki sudh nahin thi. ekbargi mujhe laga ki unke beech rakhi ye bejan deh koi mayne nahin rakhti, par yahan main shayad galat tha.
hum sabhi ne kaufi pi jo darban laya tha. uske baad mujhe kuch zyada yaad nahin, raat kisi tarah guzar gai; mujhe bas wo ek pal yaad hai; jab achanak mainne ankhen kholi to dekha ek buDhe ko chhoD sabhi apni kursiyon par jhuke uungh rahe the, apni chhaDi par donon haath bandhe thoDi tikaye wo buDha mujhe ghoor raha tha, manon mere jagne ka intzaar kar raha ho. main phir so gaya, thoDi der baad hi pairon mein beintha dard ki vajah se main jaag paDa.
roshandan mein bhor ki lali chamakne lagi thi, palbhar baad hi ek buDha jagkar khansane laga, wo baDe se rumal mein thukta aur har baar ubkai ki si avaz aati, avaz sun kar sab jaag ge the. darban ne unhen bataya ki chalne ka vaqt ho gaya hai. ve eksaath uth khaDe hue, is lambi raat ke baad unke chehre murjha ge the. mujhe vaqii achraj hua, jab harek ne mere saath haath milaya, manon saath guzari ek raat se hi hamne aapas mein ek rishta qayam kar liya ho; halanki ek dusre se hamne ek lafz nahin bola tha.
main kafi bujh sa gaya tha. darban mujhe apne kamre mein le gaya. mainne khud ko theek thaak kiya. usne mujhe thoDi aur safed kaufi di, jisse main tarotaza mahsus karne laga. jab main bahar nikla, suraj chaDh chuka tha aur morengo tatha samudr ke beech pahaDiyon ke uupar asman lalai liye chitkabra ho raha tha. subah ki bayar chal rahi thi, jismen khushanuma namkin mahak thi, jo ek khushagvar din ka yaqin dila rahi thi. ek lambe arse se main dehat nahin aaya tha. man hi man sochne laga ki gar maan ka masla nahin hota to kitni baDhiya sair ho sakti thi.
main angan mein ek peD ke niche intzaar karne laga. mitti ki shital gandh mere bhitar bharne lagi. mainne mahsus kiya ki ab mujhe neend nahin aa rahi thi. phir main daftar ke dusre logon ke bare mein sochne laga. is vaqt ve log daftar jane ki taiyari kar rahe honge. din ka ye vaqt mujhe sabse bekar lagta. taqriban das minat main inhin khayalon mein gum raha. achanak imarat ke bhitar se ghanti ki avaz se meri tandra tuti. khiDakiyon ke pichhe kuch halchal dikhi; phir sab khamosh ho gaya. suraj chaDh aaya tha. talvon mein tapan mahsus hone lagi thi. darban ne bataya ki varDan mujhse milna chahte hain. main unke daftar gaya. unhonne kuch kaghzaton par dastkhat kervaye. wo kali poshak mein tha. risivar uthakar meri or dekhne
laga.
“antyeshti ka prbandh karne vale kuch der pahle yahan aaye the. ve log vahan jakar tabut ke skru kas denge. kya main unhen rukne ke liye kahun, taki tum apni maan ke antim darshan kar sakoge. ”
phir usne bataya ki wo bhi saath chal raha hai. mainne uska shukriya ada kiya. Dyuti par jo nars hai uske alava keval hum do hi antim sanskar mein shamil honge. yahan ka kayda hai ki ashramvasiyon ko antyeshti mein shamil nahin hone diya jata. halanki raat mein tabut ke paas baithne se kisi ko nahin roka jata.
“aisa unki bhalai ke liye hi kiya jata hai,” usne aspasht kiya, “taki unhen taklif na ho, par is martaba mainne tumhari maan ke ek purane mitr ko saath aane ki ijazat de di hai. uska naam thaumas parej hai,” varDan muskraya, “asal mein ye ek chhoti si marmik kahani hai. tumhari maan aur uske beech gahri atmiyata thi. yahan tak ki dusre sabhi buDhe parej ko aksar chiDhaya karte ki wo uski mangetar hai, ve aksar usse puchhte hain, tum usse kab byaah kar rahe ho? wo hansakar taal deta, zahir hai ki maan ki mrityu se use gahra dhakka pahuncha hai, isliye antyeshti mein shamil harene se main use inkaar nahin kar saka, halanki Dauktar ki salah par use pichhli raat arthi ke paas baithne se rok diya tha. ”
kuch der hum yoon hi khamosh baithe rahe. phir varDan khiDki ke paas jakar khaDa ho gaya, achanak bola—
“are marengo ke padari vaqt ke kafi paband hain. ”
unhonne mujhe chetaya tha ki gaanv mein sthit girjaghar tak paidal pahunchne mein ek DeDh ghanta lagega. hum siDhiyan utarne lage.
samadhi sthal ke dvaar par hi padari intzaar kar rahe the. unke saath do vardidhari parichar bhi the. ek ke haath mein dhuppatr tha. padari jhuk kar chandi ki zanjir ki lambai ko theek kar rahe the. hamein dekhte hi ve sidhe ho ge aur mere saath kuch baten ki. mujhe ve beta kah kar sambodhit kar rahe the, phir hamein ve samadhi sthal ki or le jane lage.
nimish bhar mein mainne dekh liya ki tabut ke pichhe kali vardi pahne chaar vyakti khaDe the. isi kshan varDan ne bataya ki arthi pahunch chuki hai. padari ne ibadat shuru kar di. kale kapDe ki patti pakDe chaar vyakti tabut ke qarib pahunche, jabki padari, laDke aur main katar mein chalne lage. ek stri, jise mainne pahle nahin dekha tha, darvaze par khaDi thi. varDan ne use mera parichay diya. main uska naam to nahin samajh saka, par jaan liya ki wo ashram ki nars hai. parichay sun usne jhuk kar abhivadan kiya, par uske lambe duble patle chehre par halki si bhi muskan nahin thi. hum ek galiyare se hote hue mukhya dvaar par aaye, jahan arthi ko rakha gaya tha. ayatakar, chamkile, kale rang ke tabut ko dekh mujhe achanak daftron mein rakhe kale pen stainD ki smriti ho aai.
arthi ke paas anokhi saj dhaj mein ek thigna adami khaDa tha. main samajh gaya ki uska kaam antyeshti ke vaqt puri vyavastha ki dekh rekh karna hai—bilkul mastar auph serimni ki tarah. uske qarib sankoch se bhara, jhempta mistar parej khaDa tha—man ka khaas mitr. usne halki par chauDe kinarevali golakar topi pahan rakh thi. jab dvaar se tabut le jaya jane laga to usne furti se topi ko uupar uthaya. paint juton se kafi uupar thi aur uunche kaularvali safed shart par bandhi kali tai zarurat se zyada chhoti thi. uski moti chauDi
naak ke niche honth laraj rahe the. par jis cheez ne mera sabse adhik dhyaan khincha, ve the uske kaan. lalai liye penDulamanuma uske kaan jo pile se galon par silband karne ki laakh ke laal gol chhinte ki manind dikh rahe the, manon reshmi safed balon ke beech unhen gaaD diya ho.
prbandhkarta dvara har kaam ke liye rakhe ek naukar ne hamein apni apni jaghon par khaDa kiya. arthi ke aage padari, arthi ke donon or kale kapDe pahne chaar vyakti. uske pichhe varDan aur main tatha hamare pichhe parej va nars.
asman par suraj ki jvala dahakne lagi thi. hava mein tapish baDh gai thi. peeth par aag ke thapeDe mahsus hone lage the. us par gahre rang ki poshak ne meri haalat badtar kar di thi. jane kyon hum itni der ruke hue the? buDhe parej ne topi dobara utaar li. main tirchha ho use hi dekh raha tha, tabhi darban mujhe uske bare mein aur baten batane laga. mujhe yaad hai usne bataya ki buDha parej aur meri maan shaam ke shital pahar mein aksar door door tak sair karne jaya karte the. kabhi kabhar chalte chalte ve gaanv ke chhor tak nikal jate. par haan, unke saath nars bhi rahti.
mainne is dehati ilake, door kshitij aur pahaDiyon ki Dhalan par saru vrikshon ki lambi kataron, chatakh hare rang se rangi is dharti aur suraj ki roshni mein nahaye ek akele makan par bharpur nazar Dali. mainne jaan liya, maan kya mahsus karti hongi? in ilaqon mein shaam ka vaqt sachmuch kitna udaas aur aatur kar deta hoga. alassubah ke suraj ki is chilchilati dhoop mein, jab sab kuch tapan ki vyagrata mein lupalupa raha tha, to kahin kuch aisa tha, jo is sakshat prakritik chhata ke beech bhi amanaviy aur nirashajnak tha.
akhir hamne chalna shuru kiya, tabhi mainne dekha ki parej halka sa langDa kar chal raha tha. jyon jyon arthi teji se aage baDhne lagi, wo buDha pichhaDta chala gaya. mujhe vaqii tajjub hua ki suraj kitni teji se asman par chaDhta ja raha hai. isi pal mujhe sujha ki kiDe makoDon ki goonj aur garm ghaas ki sarsarahat kafi der se hava mein ek dhadhak paida kar rahi hai. mere chehre se behisab pasina tapak raha tha. mere paas topi nahin thi, isliye main rumal se hi chehre par hava karne laga.
mainnejar ke adami ne palatkar kuch kaha, jo main samajh nahin saka. isi vaqt usne apne sir ke kraun ko bhi rumal se ponchha, jo usne bayen haath mein pakaD rakha tha. dahine haath se topi tirchhi ki. mainne janna chaha ki wo kya kah raha tha, usne uupar ki or ishara kiya.
aaj bhayankar garmi hai, hai na?”
“haan,” main bola.
kuch der baad usne puchhah “ve apaki maan hain, jinhen hum dafnane ja rahe hain? kya umr thi unki?”
“ve bilkul tandurust theen” main bola, ‘darasal main khud bhi unki sahi umr ke bare mein nahin janta tha. ’
uske baad wo chup ho gaya, jab main muDa to dekha parej taqriban pachas gaj pichhe langData chala aa raha tha. tez chalne ki vajah se haath mein pakDi topi buri tarah hil rahi thi. mainne varDan par bhi ek nazar Dali, wo nape tule qadmon va santulit haav bhaav ke saath chal raha tha, mathe par pasine ki bunde chuhchuha rahi theen, jo usne ponchhi nahin.
mujhe laga, ye chhoti si shobhayatra kuch zyada hi tez chal rahi hai, jahan kahin bhi mainne nigah Dali, har taraf vahi suraj se nahaya dehati ilaka dikhai diya. suraj is kadar chamakdar tha ki main ankhen uthane ki himmat nahin kar pa raha tha. chilchilati garmi mein har qadam ke saath pair jamin se dhans jate aur pichhe ek chamakdar kala nishan chhoD dete. aage kochavan ki chamkili kali topi arthi ke uupar rakhe isi tarah ke chipachipe padarth ke londe ki tarah dikhti thi. ye ek adbhut svapn sa ahsas deta tha uupar nili safed chakachaundh aur charon or ye syaah kalapan; chamakdar kala tabut, logon ki dhundhati, kali poshak aur saDak par sunahre, kale gaDDhe aur dhuen ke saath vatavran mein dhuli mili garm makDe aur ghoDe ki leed ki durgandh? is sab ki vajah se aur raat ko na sone se meri ankhen aur khayal dhundhale paDte ja rahe the.
mainne dobara pichhe muDkar dekha, parej bahut pichhe chhoot gaya lagta tha. is tapti dhundh mein taqriban ojhal hi ho gaya tha. kuch pal isi udheDbun mein rahne ke baad mainne yoon hi andaza lagaya ki wo saDak chhoD kheton se aa raha hoga. tabhi mainne dekha, aage saDak par ek moD tha. zahir hai parej ne, jo is ilaqe ko bakhubi janta tha, chhota rasta pakaD liya tha. hum jaise hi saDak ke moD par pahunche, wo hamare saath shamil ho gaya. par kuch der baad phir pichhaDne laga, usne phir shaart kat liya aur phir aa mila. darasal agle aadhe ghante tak aisa kai baar hua. phir jald hi usmen meri dilchaspi jati rahi; mera sir phata ja raha tha. main bamushkil khud ko ghasit pa raha tha.
uske baad sab kuch baDi haDbaDi, par itne vishuddh va yatharth Dhang se nipat gaya ki mujhe kuch yaad nahin. haan, itna zarur yaad hai ki jab hum gaanv ki sarhad par the to nars mujhse kuch boli. uski avaz se main buri tarah chaunk paDa; kyonki uski avaz uske chehre se qatii mel nahin khati thi. uski avaz mein sangit aur kampan tha. wo jo boli, wo thaah “agar aap itna dhire chalenge to lu lagne ka Dar hai, par tez chalenge to pasina ayega aur charch ki sard hava se aapko thanD pakaD legi. ” uski baat mein dam tha; nuksan har tarah se tay tha.
shav yatra ki kuch aur smritiyan mere zehn mein chaspa ho gai hain. masalan us buDhe parej ka chehra jo gaanv ki sarhad par hi akhiri baar hamse aa mila, uski ankhon se anavrat bahte ashru jo thakan ki vajah se the ya vyatha se athva donon ki vajah se, par jhurriyon ke karan niche luDhak nahin pa rahe the, aaDe tirchhe hokar kaan tak phail ge the aur us buDhe, thake chehre ko ek madhur chamak se bhar diya tha.
mujhe yaad hai wo girjaghar, saDkon se guzarte dehati, kabron par khile laal rang ke phool, parej par behoshi ka daura, chithDon se bani kisi guDiya ki manind uska sikuD jana maan ke tabut par sunahri bhuri mitti ka tap tap karke girna, log anaginat log, avazen, kaufi restaran ke bahar ka intzaar, rel injan ki gaDgaDahat, roshni se nahai aljiyars ki saDkon par qadam rakhte hi mera harsh mishrit romanch aur phir kalpana mein hi sidhe bistare par jakar niDhal ho jana, lagatar barah ghante behoshi bhari neend! mujhe ye sab yaad hai.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 107)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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