प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा आठवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
एक थी लड़की। नाम था उसका वल्ली अम्माई। आठ बरस की थी। उसे अपने घर के दरवाज़े पर खड़े होकर सड़क की रौनक़ देखना बड़ा अच्छा लगता था।
वल्ली अम्माई को अपना नाम भी बड़ा अच्छा लगता था। वैसे, दुनिया में ऐसा कौन होगा जिसे अपना नाम पसंद न हो?
सड़क पर वल्ली अम्माई की उम्र का कोई साथी नहीं था। अपनी दहलीज़ पर खड़े रहने के अलावा वह कर भी क्या सकती थी? और फिर उसकी माँ ने उसे सख़्त ताकीद कर रखी थी कि वह खेलने के लिए अपनी सड़क छोड़कर दूसरी सड़क पर न जाए।
सड़क पर सबसे ज़्यादा आकर्षित करने वाली वस्तु, क़स्बे की बस थी जो हर घंटे उधर से गुज़रती थी। एक दफ़ा जाते हुए और एक दफ़ा, लौटते हुए। हर बार नई-नई सवारियों से लदी हुई बस का देखना, वल्ली अम्माई की कभी न ख़त्म होने वाली ख़ुशी का ख़ज़ाना था।
हर रोज़ वह बस को देखती। और एक दिन एक नन्हीं सी इच्छा उसके नन्हें से दिमाग़ में घुस कर बैठ गई। कम-से-कम एक बार तो वह बस की सैर करेगी ही। नन्हीं सी इच्छा, बड़ी और बड़ी होती चली गई। वल्ली बड़ी हसरत से उन लोगों की तरफ़ देखती जो सड़क के नुक्कड़ पर बस से उतरते-चढ़ते, जहाँ पर बस आकर रुकती थी। उनके चेहरे इसके दिल में सौ-सौ इच्छाएँ, सपने और आशाएँ जगा जाते। उसकी कोई सखी-सहेली जब उसे अपनी बस-यात्रा का क़िस्सा सुनाती, शहर के किसी दृश्य का हाल बताकर डींग हाँकती, तो वल्ली जल-भुन जाती घमंडी...घमंडी वह चिल्लाती। चाहे वल्ली और उसकी सहेलियों को इस शब्द का अर्थ मालूम नहीं था, फिर भी इसका बेधड़क इस्तेमाल करतीं।
दिनों-दिन, महीनों-महीने वल्ली ने बस-यात्रा से संबंधित छोटी-मोटी जानकारी गाँव से कभी-कभार शहर जाने वालों और बस में प्रायः सफ़र करते रहने वाले यात्रियों की आपसी बातचीत से प्राप्त कर ली थी। उसने आप भी कुछ लोगों से इस बारे में सवाल पूछे थे।
शहर उसके गाँव से कोई दस किलोमीटर दूर था। एक ओर का भाड़ा था तीस पैसे। इसका मतलब, जाने और लौटने—दोनों ओर के साठ पैसे। शहर तक पहुँचने में बस को पौन घंटा लगता था। शहर पहुँचकर, अगर वह बस में ही बैठी रहे और तीस पैसे और चुका दे तो उसी बस में बैठी-बैठी वापस भी आ सकती है। यानी अगर वह गाँव से दुपहर एक बजे चल दे तो पौने दो बजे शहर पहुँच जाएगी। और फिर उसी बस से वह अपने गाँव कोई तीन बजे लौट आएगी।
इसी प्रकार वह हिसाब-पर-हिसाब लगाती रही, योजना-पर-योजना बनाती रही।
एक दिन की बात है, जब यह बस गाँव की सीमा पार करके बड़ी सड़क पर प्रवेश कर रही थी, एक नन्हीं-सी आवाज़ पुकारती हुई सुनाई दी, बस को रोको...बस को रोको। एक नन्हा-सा हाथ हिल रहा था।
बस धीमी हो गई। कंडक्टर ने बाहर झाँका और कुछ तुनककर कहा, अरे भई! कौन चढ़ना चाहता है? उनसे कहो कि जल्दी करें...सुना तुमने?
बस...मैं इतना जानती हूँ कि मुझे शहर जाना है...और यह रहा तुम्हारा किराया, उसने रेज़गारी दिखाते हुए कहा।
ठीक! ठीक! पहले बस में चढ़ो तो! कंडक्टर ने कहा और फिर उसे धीरे से उठाकर बस में चढ़ा लिया।
च च च...मैं अपने आप चढूँगी...तुम मुझे उठाते क्यों हो?
कंडक्टर बड़ा हँसोड़ था। अरी मेम साहिब! नाराज़ क्यों होती हो?...बैठो...इधर पधारो... उसने कहा।
रास्ता दो भई रास्ता...मेम साहिब तशरीफ़ ला रही है।
दुपहर के उस समय आने-जाने वालों की भीड़-भाड़ घट जाती थी। पूरी बस में कुल छह-सात सवारियाँ बैठी हुई थीं।
सभी मुसाफ़िरों की नज़र वल्ली पर थी और वे सब कंडक्टर की बातों पर हँस रहे थे।
वल्ली मन-ही-मन झेंप गई। आँखें फेर कर वह जल्दी से एक ख़ाली सीट पर जा बैठी।
गाड़ी चलाएँ? बेगम साहिबा। कंडक्टर ने मुस्कुराकर पूछा। उसने दो बार सीटी बजाई। बस गरजती हुई आगे को बढ़ी।
वल्ली सब कुछ आँखे फाड़कर देख रही थी। खिड़कियों से बाहर लटक रहे पर्दे के कारण उसे बाहर का दृश्य देखने में बाधा पड़ रही थी। वह अपनी सीट पर खड़ी हो गई और बाहर झाँकने लगी।
इस समय बस एक नहर के किनारे-किनारे जा रही थी। रास्ता बहुत ही तंग था। एक ओर नहर थी और उसके पार ताड़ के वृक्ष, घास के मैदान, सुदूर पहाड़ियाँ और नीला आकाश! दूसरी ओर एक गहरी खाई थी, जिसके परे दूर-दूर तक फैले हुए हरे-भरे खेत! जहाँ तक नज़र जाती, हरियाली-ही-हरियाली!
अहा! यह सब कुछ कितना अद्भुत था! अचानक एक आवाज़ आई और वह चौंक गई। 'सुनो बच्ची!' वह आवाज़ कह रही थी, इस तरह खड़ी मत रहो, बैठ जाओ!
वल्ली बैठ गई और उसने देखा कि वह कौन था? वह एक बड़ी उम्र का आदमी था, जिसने उसी के भले के लिए यह कहा था। लेकिन उसके इन शब्दों से वह चिढ़ गई।
यहाँ कोई बच्ची नहीं है, उसने कहा, मैंने पूरा भाड़ा दिया है।
कंडक्टर ने भी बीच में पड़ते हुए कहा, जी हाँ, यह बड़ी बेगम साहिबा हैं। क्या कोई बच्चा अपना किराया अपने आप देकर शहर जा सकता है?
वल्ली ने आँखें तरेरकर उसकी ओर देखा। मैं बेगम साहिबा नहीं हूँ, समझे!...और हाँ, तुमने अभी तक मुझे टिकट नहीं दिया है।
अरे हाँ! कंडक्टर ने उसी के लहज़े की नक़ल करते हुए कहा, और सब हँसने लगे। इस हँसी में वल्ली भी शामिल थी।
कंडक्टर ने एक टिकट फाड़ा और उसे देते हुए कहा, आराम से बैठो! सीट के पैसे देने के बाद कोई खड़ा क्यों रहे?
मुझे यह अच्छा लगता है, वह बोली।
खड़ी रहोगी तो गिर जाओगी, चोट खा जाओगी—गाड़ी जब एकदम मोड़ काटेगी...या झटका लगेगा। तभी मैंने तुम्हें बैठने को कहा है, बच्ची!
मैं बच्ची नहीं हूँ, तुम्हें बता दिया न! उसने कुढ़कर कहा, मैं आठ साल की हूँ।
क्यों नहीं...क्यों नहीं! मैं भी कैसा बुद्ध हूँ। आठ साल! बाप रे!
बस रुकी। कुछ नए मुसाफ़िर बस में चढ़े और कंडक्टर कुछ देर के लिए व्यस्त हो गया। वल्ली बैठ गई। उसे डर था कि कहीं उसकी सीट ही न चली जाए। एक बड़ी उम्र की औरत आई और उसके पास बैठ गई।
अकेली जा रही हो, बिटिया? जैसे ही बस चली, उसने वल्ली से पूछा।
हाँ, मैं अकेली जा रही हूँ। मेरे पास मेरा टिकट है। उसने अकड़ कर तीखा जवाब दिया।
हाँ...हाँ, शहर जा रही हैं...तीस पैसे का टिकट लेकर कंडक्टर ने सफ़ाई दी।
आप अपना काम कीजिए, जी! वल्ली ने टोका, लेकिन उसकी अपनी हँसी भी छूट रही थी।
कंडक्टर भी खिल-खिलाकर हँसने लगा।
इतनी छोटी बच्ची के लिए घर से अकेले निकलना क्या उचित है? बुढ़िया की बक-झक जारी थी। तुम जानती हो, शहर में तुम्हें कहाँ जाना है? किस गली में? किस घर में?
आप मेरी चिंता न करें। मुझे सब मालूम है, वल्ली ने पीठ मोड़, मुँह खिड़की की ओर करके बाहर झाँकते हुए कहा।
यह उसकी पहली यात्रा थी। इस सफ़र के लिए उसने सचमुच कितनी सावधानी और कठिनाई से योजना बनाई थी। इसके लिए उसे छोटी-छोटी जो रेज़गारी भी हाथ लगी, इकट्ठी करनी पड़ी—उसे अपनी कितनी ही इच्छाओं को दबाना पड़ा...जैसे कि वह मीठी गोलियाँ नहीं ख़रीदेगी...खिलौने, ग़ुब्बारे...कुछ भी नहीं लेगी। कितना बड़ा संयम था यह! और फिर विशेष रूप से उस दिन, जब जेब में पैसे होते हुए भी, गाँव के मेले में गोल-गोल घूमने वाले झूले पर बैठने को उसका कितना जी चाह रहा था।
पैसों की समस्या हल हो जाने पर, उसकी दूसरी समस्या यह थी कि वह माँ को बताए बिना घर से कैसे खिसके? लेकिन इस बात का हल भी कोई बड़ी कठिनाई पैदा किए बिना ही निकल आया। हर रोज़, दुपहर के खाने के बाद, उसकी माँ कोई एक बजे से चार-साढ़े चार बजे तक सोया करती थी। वल्ली का, बीच का यह समय गाँव के अंदर सैर-सपाटे करने में बीतता था। लेकिन आज वह यह समय गाँव से बाहर की सैर में लगा रही थी।
बस चली जा रही थी—कभी खुले मैदान में से, कभी किसी गाँव को पीछे छोड़ते हुए और कभी किसी ढाबे को। कभी यह लगता कि वह सामने से आ रही किसी दूसरी गाड़ी को निगल जाएगी या फिर किसी पैदल यात्री को।...लेकिन यह क्या? वह तो उन सबको, दूर पीछे छोड़ती हुई बड़ी सावधानी-सफ़ाई से आगे निकल गई। पेड़ दौड़ते हुए उसकी ओर आते दिखाई दे रहे थे...लेकिन बस रुकने पर वे स्थिर हो जाते और चुपचाप—बेबस से खड़े रहते।
अचानक ख़ुशी के मारे वल्ली तालियाँ पीटने लगी। गाय की एक बछिया अपनी दुम ऊपर उठाए सड़क के बीचों-बीच बस के ठीक सामने दौड़ रही थी। ड्राइवर जितनी ज़ोर से भोंपू बजाता, उतना ही ज़्यादा वह डर कर बेतहाशा भागने लगती।
वल्ली को यह दृश्य बहुत ही मज़ेदार लगा और वह इतना हँसी, इतना हँसी कि उसको आँखों में आँसू आ गए।
बस...बस बेगम साहिबा! कंडक्टर ने कहा, कुछ हँसी कल के लिए रहने दो।
आख़िर बछिया एक ओर निकल गई। और फिर बस रेल के फाटक तक जा पहुँची। दूर से रेलगाड़ी एक बिंदु के समान लग रही थी। पास आने पर वह बड़ी और बड़ी होती चली गई। जब वह फाटक के पास से धड़धड़ाती-दनदनाती हुई निकली तो बस हिलने लगी। फिर बस आगे बढ़ी और रेलवे-स्टेशन तक जा पहुँची। वहाँ से वह भीड़-भड़क्के वाली एक सड़क से गुज़री, जहाँ दोनों ओर दुकानों की क़तारें थी। फिर मुड़कर वह एक और बड़ी सड़क पर पहुँची। इतनी बड़ी-बड़ी सजी हुई दुकानें, उनमें एक-से-एक बढ़कर चमकीले कपड़े और दूसरी चीज़ें। भीड़ की रेलम-पेल। वल्ली हैरान, भौंचक्की-सी, हर चीज़ को आँखें फाड़े देख रही थी।
बस रुकी, और सभी यात्री उतर गए।
ए बेगम साहिबा! आप नहीं उतरेंगी क्या? तीस पैसे की टिकट ख़त्म हो गई। कंडक्टर ने कहा।
मैं इसी बस से वापस जा रही हूँ, उसने अपनी जेब में से तीस पैसे और निकालकर रेज़गारी कंडक्टर को देते हुए कहा।
क्या बात है?
कुछ नहीं, मेरा बस में चढ़ने को जी चाहा...बस!
तुम शहर देखना नहीं चाहती?
अकेली? न बाबा न। मुझे डर लगता है। उसने कहा। उसके हाव-भाव पर कंडक्टर को बड़ा मज़ा आ रहा था।
लेकिन तुम्हें बस में आते हुए डर नहीं लगा? उसने पूछा।
इसमें डर की क्या बात है? वल्ली ने जवाब दिया।
अच्छा तो उतर कर...उस जलपान-गृह में हो आओ...कॉफ़ी पी लो...इसमें डर की क्या बात है?
ऊँ हूँ...मैं नहीं पिऊँगी।
अच्छा तो क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ पकौड़े या चबैना लाऊँ?
नहीं, मेरे पास इनके लिए पैसे नहीं हैं...मुझे बस एक टिकट दे दो।
जल-पान के लिए तुम्हें पैसे की ज़रूरत नहीं। पैसे मैं दूँगा।
मैंने कह दिया न नहीं... उसने दृढ़तापूर्वक कहा।
नियत समय पर बस फिर चल पड़ी। लौटती बार भी कोई ख़ास भीड़ नहीं थी।
एक बार फिर वही दृश्य! लेकिन वह ज़रा भी नहीं ऊबी! हर दृश्य में उसे पहले जैसा मज़ा आ रहा था।
लेकिन अचानक—
ओह देखो...वह बछिया...सड़क पर मरी पड़ी थी। किसी गाड़ी के नीचे आ गई थी।
ओह! कुछ क्षण पहले जो एक प्यारा, सुंदर जीव था, अब अचानक अपनी सुंदरता और सजीवता खो रहा था। अब वह कितना डरावना लग रहा था।...फैली हुई टाँगें, पथराई हुई आँखें, ख़ून से लथपथ...
ओह! कितने दुख की बात!
यह वही बछिया है न जो बस के आगे-आगे भाग रही थी...जब हम आ रहे थे? वल्ली ने कंडक्टर से पूछा।
कंडक्टर ने सिर हिला दिया। बस चली जा रही थी। बछिया का ख़्याल उसे सता रहा था। उसका उत्साह ढीला पड़ गया था। अब खिड़की से बाहर झाँककर और दृश्य देखने की उसकी इच्छा नहीं रही थी। वह अपनी सीट पर जमी बैठी रही।
बस तीन बजकर चालीस मिनट पर उसके गाँव पहुँची। वल्ली खड़ी हुई। उसने जम्हाई लेकर कमर सीधी की और कंडक्टर को विदा कहते हुए बोली, अच्छा, फिर मिलेंगे, जनाब!
ek thi laDki. naam tha uska valli ammai. aath baras ki thi. use apne ghar ke darvaje par khaDe hokar saDak ki raunaq dekhana baDa achchha lagta tha.
valli ammai ko apna naam bhi baDa achchha lagta tha. vaise, duniya mein aisa kaun hoga jise apna naam pasand na ho?
saDak par valli ammai ki umr ka koi sathi nahin tha. apni dahliz par khaDe rahne ke alava wo kar bhi kya sakti thee? aur phir uski maan ne use sakht takid kar rakhi thi ki wo khelne ke liye apni saDak chhoDkar dusri saDak par na jaye.
saDak par sabse zyada akarshit karne vali vastu, qasbe ki bas thi jo har ghante udhar se guzarti thi. ek dafa jate hue aur ek dafa, lautte hue. har baar nayi nayi savariyon se ladi hui bas ka dekhana, valli ammai ki kabhi na khatm hone vali khushi ka khazana tha.
har roz wo bas ko dekhti. aur ek din ek nanhin si ichchha uske nanhen se dimagh mein ghus kar baith gai. kam se kam ek baar to wo bas ki sair karegi hi. nanhin si ichchha, baDi aur baDi hoti chali gai. valli baDi hasrat se un logon ki taraf dekhti jo saDak ke nukkaD par bas se utarte chaDhte, jahan par bas aakar rukti thi. unke chehre iske dil mein sau sau ichchhayen, sapne aur ashayen jaga jate. uski koi sakhi saheli jab use apni bas yatra ka qissa sunati, shahr ke kisi drishya ka haal batakar Deeng hankti, to valli jal bhun jati ghamanDi. . . ghamanDi wo chillati. chahe valli aur uski saheliyon ko is shabd ka arth malum nahin tha, phir bhi iska bedhaDak istemal kartin.
dinon din, mahinon mahine valli ne bas yatra se sambandhit chhoti moti jankari gaanv se kabhi kabhar shahr jane valon aur bas mein praayः safar karte rahne vale yatriyon ki aapsi batachit se praapt kar li thi. usne aap bhi kuch logon se is bare mein saval puchhe the.
shahr uske gaanv se koi das kilomitar door tha. ek or ka bhaDa tha tees paise. iska matlab, jane aur lautne—donon or ke saath paise. shahr tak pahunchne mein bas ko paun ghanta lagta tha. shahr pahunchakar, agar wo bas mein hi baithi rahe aur tees paise aur chuka de to usi bas mein baithi baithi vapas bhi aa sakti hai. yani agar wo gaanv se duphar ek baje chal de to paune do baje shahr pahunch jayegi. aur phir usi bas se wo apne gaanv koi teen baje laut ayegi.
isi prakar wo hisab par hisab lagati rahi, yojna par yojna banati rahi.
ek din ki baat hai, jab ye bas gaanv ki sima paar karke baDi saDak par pravesh kar rahi thi, ek nanhin si avaz pukarti hui sunai di, bas ko roko. . . bas ko roko. ek nanha sa haath hil raha tha.
bas dhimi ho gai. kanDaktar ne bahar jhanka aur kuch tunakkar kaha, are bhai! kaun chaDhna chahta hai? unse kaho ki jaldi karen. . . suna tumne?
bas. . . main itna janti hoon ki mujhe shahr jana hai. . . aur ye raha tumhara kiraya, usne rezgari dikhate hue kaha.
theek! theek! pahle bas mein chaDho to! kanDaktar ne kaha aur phir use dhire se uthakar bas mein chaDha liya.
cha cha cha. . . main apne aap chaDhungi. . . tum mujhe uthate kyon ho?
kanDaktar baDa hansoD tha. ari mem sahib! naraz kyon hoti ho?. . . baitho. . . idhar padharo. . . usne kaha.
rasta do bhai rasta. . . mem sahib tashrif la rahi hai.
duphar ke us samay aane jane valon ki bheeD bhaaD ghat jati thi. puri bas mein kul chhah saat svariyan baithi hui theen.
sabhi musafiron ki nazar valli par thi aur ve sab kanDaktar ki baton par hans rahe the.
valli man hi man jhemp gai. ankhen pher kar wo jaldi se ek khali seet par ja baithi.
gaDi chalayen? begam sahiba. kanDaktar ne musakrakar puchha. usne do baar siti bajai. bas garajti hui aage ko baDhi.
valli sab kuch ankhe phaDkar dekh rahi thi. khiDkiyon se bahar latak rahe parde ke karan use bahar ka drishya dekhne mein badha paD rahi thi. wo apni seet par khaDi ho gai aur bahar jhankne lagi.
is samay bas ek nahr ke kinare kinare ja rahi thi. rasta bahut hi tang tha. ek or nahr thi aur uske paar taaD ke vriksh, ghaas ke maidan, sudur pahaDiyan aur nila akash! dusri or ek gahri khai thi, jiske pare door door tak phaile hue hare bhare khet! jahan tak nazar jati, hariyali hi hariyali!
aha! ye sab kuch kitna adbhut tha! achanak ek avaz aai aur wo chaunk gai. suno bachchi! wo avaz kah rahi thi, is tarah khaDi mat raho, baith jao!
valli baith gai aur usne dekha ki wo kaun tha? wo ek baDi umr ka adami tha, jisne usi ke bhale ke liye ye kaha tha. lekin uske in shabdon se wo chiDh gai.
bas ruki. kuch ne musafir bas mein chaDhe aur kanDaktar kuch der ke liye vyast ho gaya. valli baith gai. use Dar tha ki kahin uski seet hi na chali jaye. ek baDi umr ki aurat aai aur uske paas baith gai.
akeli ja rahi ho, bitiya? jaise hi bas chali, usne valli se puchha.
haan, main akeli ja rahi hoon. mere paas mera tikat hai. usne akaD kar tikha javab diya.
haan. . . haan, shahr ja rahi hain. . . tees paise ka tikat lekar kanDaktar ne safai di.
aap apna kaam kijiye, jee! valli ne toka, lekin uski apni hansi bhi chhoot rahi thi.
kanDaktar bhi khil khilakar hansne laga.
itni chhoti bachchi ke liye ghar se akele nikalna kya uchit hai? buDhiya ki bak jhak jari thi. tum janti ho, shahr mein tumhein kahan jana hai? kis gali men? kis ghar men?
aap meri chinta na karen. mujhe sab malum hai, valli ne peeth moD, munh khiDki ki or karke bahar jhankte hue kaha.
ye uski pahli yatra thi. is safar ke liye usne sachmuch kitni savadhani aur kathinai se yojna banai thi. iske liye use chhoti chhoti jo rezgari bhi haath lagi, ikatthi karni paDi—use apni kitni hi ichchhaon ko dabana paDa. . . jaise ki wo mithi goliyan nahin kharidegi. . . khilaune, ghubbare. . . kuch bhi nahin legi. kitna baDa sanyam tha yah! aur phir vishesh roop se us din, jab jeb mein paise hote hue bhi, gaanv ke mele mein gol gol ghumne vale jhule par baithne ko uska kitna ji chaah raha tha.
paison ki samasya hal ho jane par, uski dusri samasya ye thi ki wo maan ko bataye bina ghar se kaise khiske? lekin is baat ka hal bhi koi baDi kathinai paida kiye bina hi nikal aaya. har roz, duphar ke khane ke baad, uski maan koi ek baje se chaar saDhe chaar baje tak soya karti thi. valli ka, beech ka ye samay gaanv ke andar sair sapate karne mein bitta tha. lekin aaj wo ye samay gaanv se bahar ki sair mein laga rahi thi.
bas chali ja rahi thi—kabhi khule maidan mein se, kabhi kisi gaanv ko pichhe chhoDte hue aur kabhi kisi Dhabe ko. kabhi ye lagta ki wo samne se aa rahi kisi dusri gaDi ko nigal jayegi ya phir kisi paidal yatri ko. . . . lekin ye kyaa? wo to un sabko, door pichhe chhoDti hui baDi savadhani safai se aage nikal gai. peD dauDte hue uski or aate dikhai de rahe the. . . lekin bas rukne par ve sthir ho jate aur chupchap—bebas se khaDe rahte.
achanak khushi ke mare valli taliyan pitne lagi. gaay ki ek bachhiya apni dum uupar uthaye saDak ke bichon beech bas ke theek samne dauD rahi thi. Draivar jitni zor se bhompu bajata, utna hi zyada wo Dar kar betahasha bhagne lagti.
valli ko ye drishya bahut hi mazedar laga aur wo itna hansi, itna hansi ki usko ankhon mein ansu aa ge.
bas. . . bas begam sahiba! kanDaktar ne kaha, kuchh hansi kal ke liye rahne do.
akhir bachhiya ek or nikal gai. aur phir bas rel ke phatak tak ja pahunchi. door se relgaDi ek bindu ke saman lag rahi thi. paas aane par wo baDi aur baDi hoti chali gai. jab wo phatak ke paas se dhaDdhaDati dandanati hui nikli to bas hilne lagi. phir bas aage baDhi aur relve steshan tak ja pahunchi. vahan se wo bheeD bhaDakke vali ek saDak se guzri, jahan donon or dukanon ki qataren thi. phir muDkar wo ek aur baDi saDak par pahunchi. itni baDi baDi saji hui dukanen, unmen ek se ek baDhkar chamkile kapDe aur dusri chizen. bheeD ki relam pel. valli hairan, bhaunchakki si, har cheez ko ankhen phaDe dekh rahi thi.
bas ruki, aur sabhi yatri utar ge.
e begam sahiba! aap nahin utrengi kyaa? tees paise ki tikat khatm ho gai. kanDaktar ne kaha.
main isi bas se vapas ja rahi hoon, usne apni jeb mein se tees paise aur nikalkar rezgari kanDaktar ko dete hue kaha.
kya baat hai?
kuchh nahin, mera bas mein chaDhne ko ji chaha. . . bas!
tum shahr dekhana nahin chahti?
akeli? na baba na. mujhe Dar lagta hai. usne kaha. uske haav bhaav par kanDaktar ko baDa maza aa raha tha.
lekin tumhein bas mein aate hue Dar nahin laga? usne puchha.
ismen Dar ki kya baat hai? valli ne javab diya.
achchha to utar kar. . . us jalpan grih mein ho aao. . . kaufi pi lo. . . ismen Dar ki kya baat hai?
uun hoon. . . main nahin piungi.
achchha to kya main tumhare liye kuch pakauDe ya chabaina laun?
nahin, mere paas inke liye paise nahin hain. . . mujhe bas ek tikat de do.
jal paan ke liye tumhein paise ki zarurat nahin. paise main dunga.
mainne kah diya na nahin. . . usne driDhtapurvak kaha.
niyat samay par bas phir chal paDi. lautti baar bhi koi khaas bheeD nahin thi.
ek baar phir vahi drishya! lekin wo zara bhi nahin uubi! har drishya mein use pahle jaisa maza aa raha tha.
lekin achanak—
oh dekho. . . wo bachhiya. . . saDak par mari paDi thi. kisi gaDi ke niche aa gai thi.
oh! kuch kshan pahle jo ek pyara, sundar jeev tha, ab achanak apni sundarta aur sajivata kho raha tha. ab wo kitna Daravna lag raha tha. . . . phaili hui tangen, pathrai hui ankhen, khoon se lathpath. . .
oh! kitne dukh ki baat!
yah vahi bachhiya hai na jo bas ke aage aage bhaag rahi thi. . . jab hum aa rahe the? valli ne kanDaktar se puchha.
kanDaktar ne sir hila diya. bas chali ja rahi thi. bachhiya ka khyaal use sata raha tha. uska utsaah Dhila paD gaya tha. ab khiDki se bahar jhankakar aur drishya dekhne ki uski ichchha nahin rahi thi. wo apni seet par jami baithi rahi.
bas teen bajkar chalis minat par uske gaanv pahunchi. valli khaDi hui. usne jamhai lekar kamar sidhi ki aur kanDaktar ko vida kahte hue boli, achchha, phir milenge, janab!
ek thi laDki. naam tha uska valli ammai. aath baras ki thi. use apne ghar ke darvaje par khaDe hokar saDak ki raunaq dekhana baDa achchha lagta tha.
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bas. . . main itna janti hoon ki mujhe shahr jana hai. . . aur ye raha tumhara kiraya, usne rezgari dikhate hue kaha.
theek! theek! pahle bas mein chaDho to! kanDaktar ne kaha aur phir use dhire se uthakar bas mein chaDha liya.
cha cha cha. . . main apne aap chaDhungi. . . tum mujhe uthate kyon ho?
kanDaktar baDa hansoD tha. ari mem sahib! naraz kyon hoti ho?. . . baitho. . . idhar padharo. . . usne kaha.
rasta do bhai rasta. . . mem sahib tashrif la rahi hai.
duphar ke us samay aane jane valon ki bheeD bhaaD ghat jati thi. puri bas mein kul chhah saat svariyan baithi hui theen.
sabhi musafiron ki nazar valli par thi aur ve sab kanDaktar ki baton par hans rahe the.
valli man hi man jhemp gai. ankhen pher kar wo jaldi se ek khali seet par ja baithi.
gaDi chalayen? begam sahiba. kanDaktar ne musakrakar puchha. usne do baar siti bajai. bas garajti hui aage ko baDhi.
valli sab kuch ankhe phaDkar dekh rahi thi. khiDkiyon se bahar latak rahe parde ke karan use bahar ka drishya dekhne mein badha paD rahi thi. wo apni seet par khaDi ho gai aur bahar jhankne lagi.
is samay bas ek nahr ke kinare kinare ja rahi thi. rasta bahut hi tang tha. ek or nahr thi aur uske paar taaD ke vriksh, ghaas ke maidan, sudur pahaDiyan aur nila akash! dusri or ek gahri khai thi, jiske pare door door tak phaile hue hare bhare khet! jahan tak nazar jati, hariyali hi hariyali!
aha! ye sab kuch kitna adbhut tha! achanak ek avaz aai aur wo chaunk gai. suno bachchi! wo avaz kah rahi thi, is tarah khaDi mat raho, baith jao!
valli baith gai aur usne dekha ki wo kaun tha? wo ek baDi umr ka adami tha, jisne usi ke bhale ke liye ye kaha tha. lekin uske in shabdon se wo chiDh gai.
bas ruki. kuch ne musafir bas mein chaDhe aur kanDaktar kuch der ke liye vyast ho gaya. valli baith gai. use Dar tha ki kahin uski seet hi na chali jaye. ek baDi umr ki aurat aai aur uske paas baith gai.
akeli ja rahi ho, bitiya? jaise hi bas chali, usne valli se puchha.
haan, main akeli ja rahi hoon. mere paas mera tikat hai. usne akaD kar tikha javab diya.
haan. . . haan, shahr ja rahi hain. . . tees paise ka tikat lekar kanDaktar ne safai di.
aap apna kaam kijiye, jee! valli ne toka, lekin uski apni hansi bhi chhoot rahi thi.
kanDaktar bhi khil khilakar hansne laga.
itni chhoti bachchi ke liye ghar se akele nikalna kya uchit hai? buDhiya ki bak jhak jari thi. tum janti ho, shahr mein tumhein kahan jana hai? kis gali men? kis ghar men?
aap meri chinta na karen. mujhe sab malum hai, valli ne peeth moD, munh khiDki ki or karke bahar jhankte hue kaha.
ye uski pahli yatra thi. is safar ke liye usne sachmuch kitni savadhani aur kathinai se yojna banai thi. iske liye use chhoti chhoti jo rezgari bhi haath lagi, ikatthi karni paDi—use apni kitni hi ichchhaon ko dabana paDa. . . jaise ki wo mithi goliyan nahin kharidegi. . . khilaune, ghubbare. . . kuch bhi nahin legi. kitna baDa sanyam tha yah! aur phir vishesh roop se us din, jab jeb mein paise hote hue bhi, gaanv ke mele mein gol gol ghumne vale jhule par baithne ko uska kitna ji chaah raha tha.
paison ki samasya hal ho jane par, uski dusri samasya ye thi ki wo maan ko bataye bina ghar se kaise khiske? lekin is baat ka hal bhi koi baDi kathinai paida kiye bina hi nikal aaya. har roz, duphar ke khane ke baad, uski maan koi ek baje se chaar saDhe chaar baje tak soya karti thi. valli ka, beech ka ye samay gaanv ke andar sair sapate karne mein bitta tha. lekin aaj wo ye samay gaanv se bahar ki sair mein laga rahi thi.
bas chali ja rahi thi—kabhi khule maidan mein se, kabhi kisi gaanv ko pichhe chhoDte hue aur kabhi kisi Dhabe ko. kabhi ye lagta ki wo samne se aa rahi kisi dusri gaDi ko nigal jayegi ya phir kisi paidal yatri ko. . . . lekin ye kyaa? wo to un sabko, door pichhe chhoDti hui baDi savadhani safai se aage nikal gai. peD dauDte hue uski or aate dikhai de rahe the. . . lekin bas rukne par ve sthir ho jate aur chupchap—bebas se khaDe rahte.
achanak khushi ke mare valli taliyan pitne lagi. gaay ki ek bachhiya apni dum uupar uthaye saDak ke bichon beech bas ke theek samne dauD rahi thi. Draivar jitni zor se bhompu bajata, utna hi zyada wo Dar kar betahasha bhagne lagti.
valli ko ye drishya bahut hi mazedar laga aur wo itna hansi, itna hansi ki usko ankhon mein ansu aa ge.
bas. . . bas begam sahiba! kanDaktar ne kaha, kuchh hansi kal ke liye rahne do.
akhir bachhiya ek or nikal gai. aur phir bas rel ke phatak tak ja pahunchi. door se relgaDi ek bindu ke saman lag rahi thi. paas aane par wo baDi aur baDi hoti chali gai. jab wo phatak ke paas se dhaDdhaDati dandanati hui nikli to bas hilne lagi. phir bas aage baDhi aur relve steshan tak ja pahunchi. vahan se wo bheeD bhaDakke vali ek saDak se guzri, jahan donon or dukanon ki qataren thi. phir muDkar wo ek aur baDi saDak par pahunchi. itni baDi baDi saji hui dukanen, unmen ek se ek baDhkar chamkile kapDe aur dusri chizen. bheeD ki relam pel. valli hairan, bhaunchakki si, har cheez ko ankhen phaDe dekh rahi thi.
bas ruki, aur sabhi yatri utar ge.
e begam sahiba! aap nahin utrengi kyaa? tees paise ki tikat khatm ho gai. kanDaktar ne kaha.
main isi bas se vapas ja rahi hoon, usne apni jeb mein se tees paise aur nikalkar rezgari kanDaktar ko dete hue kaha.
kya baat hai?
kuchh nahin, mera bas mein chaDhne ko ji chaha. . . bas!
tum shahr dekhana nahin chahti?
akeli? na baba na. mujhe Dar lagta hai. usne kaha. uske haav bhaav par kanDaktar ko baDa maza aa raha tha.
lekin tumhein bas mein aate hue Dar nahin laga? usne puchha.
ismen Dar ki kya baat hai? valli ne javab diya.
achchha to utar kar. . . us jalpan grih mein ho aao. . . kaufi pi lo. . . ismen Dar ki kya baat hai?
uun hoon. . . main nahin piungi.
achchha to kya main tumhare liye kuch pakauDe ya chabaina laun?
nahin, mere paas inke liye paise nahin hain. . . mujhe bas ek tikat de do.
jal paan ke liye tumhein paise ki zarurat nahin. paise main dunga.
mainne kah diya na nahin. . . usne driDhtapurvak kaha.
niyat samay par bas phir chal paDi. lautti baar bhi koi khaas bheeD nahin thi.
ek baar phir vahi drishya! lekin wo zara bhi nahin uubi! har drishya mein use pahle jaisa maza aa raha tha.
lekin achanak—
oh dekho. . . wo bachhiya. . . saDak par mari paDi thi. kisi gaDi ke niche aa gai thi.
oh! kuch kshan pahle jo ek pyara, sundar jeev tha, ab achanak apni sundarta aur sajivata kho raha tha. ab wo kitna Daravna lag raha tha. . . . phaili hui tangen, pathrai hui ankhen, khoon se lathpath. . .
oh! kitne dukh ki baat!
yah vahi bachhiya hai na jo bas ke aage aage bhaag rahi thi. . . jab hum aa rahe the? valli ne kanDaktar se puchha.
kanDaktar ne sir hila diya. bas chali ja rahi thi. bachhiya ka khyaal use sata raha tha. uska utsaah Dhila paD gaya tha. ab khiDki se bahar jhankakar aur drishya dekhne ki uski ichchha nahin rahi thi. wo apni seet par jami baithi rahi.
bas teen bajkar chalis minat par uske gaanv pahunchi. valli khaDi hui. usne jamhai lekar kamar sidhi ki aur kanDaktar ko vida kahte hue boli, achchha, phir milenge, janab!
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